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Jan 1, 2025

उदंती.com, जनवरी- 2025

वर्ष- 17, अंक- 6

अब खूँटी पर टाँग दे , नफ़रत भरी कमीज ।

बोना है नववर्ष में, मुस्कानों के बीज ॥

                - रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


इस अंक में

अनकहीः 'वृद्धाश्रम' बदलते समय की जरूरत... - डॉ. रत्ना वर्मा

पर्व - संस्कृतिः रती पर सनातन संस्कृति का कुंभ मेला प्रयागराज में - रविन्द्र गिन्नौरे

हाइबनः ब्रह्मताल सम्मिट पॉइण्ट  - भीकम सिंह

कविताः ये नव वर्ष हमें स्वीकार नहीं  - रामधारीसिंह दिनकर

लोक- साहित्यः गिरधर के काव्य में लोक-जीवन - रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

जिन्हें हम भूल गएः 1. सवेरा हुआ है, 2. उठ जाग मुसाफिर... -  पं. वंशीधर शुक्ल

प्रदूषणः साँसों का संकट - जेन्नी शबनम

पर्व - संस्कृतिः लोहड़ी- जीने की उमंग जगाते ये त्यौहार - बलविन्दर बालम

विज्ञान राउंड अपः वर्ष 2024 अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान जगत - चक्रेश जैन

पर्यावरणः कब मिलेगी एकल उपयोगी प्लास्टिक से मुक्ति? - प्रमोद भार्गव

किताबेंः लघुकथा विधा का व्यापक विश्लेषण - रश्मि विभा त्रिपाठी

कहानीः इश्क का रंग ग्रे - डॉ. रंजना जायसवाल

दोहेः मन में रहे उजास... - सुशीला शील स्वयंसिद्धा  

कविताः अंतराल - भावना सक्सैना

उर्दू व्यंग्यः मुझे मेरे धोबी से बचाओ - मूल लेखक- मुजतबा हुसैन, अनुवाद- अखतर अली

लघुकथाः जिम्मेदारी - अनिता मंडा

लघुकथाः लूट - हरीश करमचन्दाणी

कविताः रिश्ते बोनसाई नहीं बनते  - मंजु मिश्रा

जीवन दर्शनः निये उत्साह का कारण - विजय जोशी 

अनकहीः 'वृद्धाश्रम' बदलते समय की जरूरत...

- डॉ.  रत्ना वर्मा

यह खबर पाँच सितारा ‘सद्भावना वृद्धाश्रम’ के बारे में है जो मानवसेवा चैरिटेबल ट्रस्ट राजकोट- जामनगर हाईवे पर 30 एकड़ की विशाल जमीन पर बनाया जा रहा है, जिसकी अनुमानित लागत 300 करोड़ रुपये है। इसमें 11-11 मंजिल वाली 7 इमारतें होंगी,  जिनमें कुल 1400 कमरे होंगे और वहाँ 5000 बुजुर्ग रह सकेंगे। दो मंजिला डायनिंग हॉल, एक लाइब्रेरी, एक योग रूम और एक प्रार्थना- कक्ष भी होगा। इस समाचार में पाँच सितारा वाली बात ने ध्यान आकर्षित किया और सबसे पहले यही विचार मन में कौंधा कि चलो देश में लगातार बढ़ रही  बुजुर्गों की संख्या के लिए कुछ लोगों ने, कम से कम उनके बेहतर रहने लायक ठिकाना बनाने के बारे में सोचा तो। 

 अकेले जीवन गुजार रहे वृद्ध माता- पिता के लिए अफसोस के साथ यह कहा जाता है- देखो इनके बच्चों को, जो बुढ़ापे में मरने के लिए वृद्धाश्रम में छोड़कर खुद आराम की जिंदगी बसर कर रहे हैं। चूँकि हमारे देश में सयुंक्त परिवार की परंपरा तो पहले ही खत्म हो चुकी है और एकल परिवारों में बुजुर्गों के लिए जगह ही नहीं होती। यह स्थिति सचमुच दुखद है। जिन माता- पिता ने हर कष्ट सहकर अपने बच्चों के लिए सारे साधन उपलब्ध कराए, जब वही बच्चे बुढ़ापे में उनको बेसहारा छोड़ जाते हैं, तब मानवता कलंकित होती है,  जबकि हमारी भारतीय संस्कृति में माता- पिता की सेवा भगवान की पूजा की तरह माना जाता है।  इन सबके साथ यह भी देखने में आता है कि आज के बदलते सामाजिक दौर में अब कुछ परिवारों में माता- पिता स्वयं ही अकेलेपन की यह जिंदगी चुनने को बाध्य हैं। उनका कहना है- हमने अपने बच्चों को लायक बनाकर, उनको इतनी स्वतंत्रता दी है कि वे अपनी पसंद के अनुसार जिंदगी गुजार सकें। वे यह बिल्कुल नहीं चाहते कि उनका बुढ़ापा, उनके बच्चों की तरक्की में आड़े आए, वे अकेलेपन में ही खुशियाँ ढूँढ लेते हैं।  

लेकिन जीवन का दूसरा पहलू इतना सीधा और सरल नहीं है; क्योंकि देश में बढ़ रहे वृद्धाश्रमों की संख्या और वहाँ रहने वालों बुजुर्गों की बदतर हालत को देखकर, इस सच्चाई से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता कि अपने बच्चों और परिजनों से दूर ऐसे हजारों लाखों बुजुर्ग इतने अकेले, बीमार और अवसाद से घिरे होते हैं कि अपना बुढ़ापा एक बोझ की तरह गुजरता है और वे बस मौत का इंतजार कर रहे होते हैं। इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि उनके बच्चे या तो उनका अंतिम संस्कार करने आते हैं या उनकी छोड़ी गई सम्पति में हिस्सा माँगने। 

इस प्रकार की विसंगतियों के बीच उपर्युक्त पाँच सितारा आश्रम की खबर एक तरह से खुश करने वाली तो मानी ही जाएगी। यह अच्छी खबर इसलिए भी है; क्योंकि भारत एजिंग रिपोर्ट 2023 के अनुसार इस समय गैर-सरकारी संगठनों और चैरिटेबल संस्थाओं द्वारा चलाए जा रहे लगभग 728 वृद्धाश्रम हैं, जिनमें से गिनती के कुछ को छोड़कर शेष आश्रमों के बुनियादी ढाँचे और सेवाओं की स्थिति बेहतर नहीं कही जा सकती। ऐसे में यदि बेहतर सुविधाओं वाले आश्रमों की संख्या में बढ़ोतरी होगी, तो बदतर स्थिति में जीवन गुजार रहे वृद्धों के लिए यह एक शुभ संकेत है।

 सुविधाओं से युक्त ऐसे आश्रमों की संख्या बढ़ना इसलिए भी जरूरी  हो जाता है;  क्योंकि  इंडिया एजिंग रिपोर्ट में जो आँकड़े दिए गए हैं, वे चौंकाने वाले हैं-  भारत में 1 जुलाई 2022 तक 14.9 करोड़  (कुल आबादी का 10.5 प्रतिशत) आबादी बुजुर्गों की थी। 2050 तक आते- आते इनकी आबादी बढ़कर 34.7 करोड़ (कुल आबादी का 20.8 प्रतिशत) तक हो जाएगी। यानी 2050 में हर पाँच में एक शख्स बुजुर्ग होगा। ऐसे में यदि बेहतर सुविधाओं वाले आश्रमों की संख्या में इजाफा होगा, तो बढ़ती बुजुर्ग आबादी सम्मानजनक और आरामदायक जीवन गुजार सकेगी। 

एक बात मन में खटकती है, जब कुछ लोग सेवा के नाम पर साल में कुछ विशेष अवसरों पर वृद्धाश्रम में बुजुर्गों के लिए कुछ सहायता पहुँचाते हैं और तस्वीर खिंचवाकर उसका प्रचार करते हुए समाचार पत्रों में फोटो छपवाते हैं  कि देखो हमने  सेवा का काम किया। इससे तो बेहतर होता, कुछ रचनात्मक काम करते  हुए उन्हें स्थायी खुशी देने का प्रयास करते। इसके लिए साल भर के लिए कुछ कार्यक्रम बनाएँ। उनसे मिलें, उनके अनुभव सुने और जो क्रियाशील हैं, उनको कुछ करते रहने के लिए प्रोत्साहित करें; ताकि वे अपने को निष्क्रिय और असहाय महसूस न करें। उनसे मिलकर, बातचीत कर उनकी समस्याओं का पता लगाकर, उन्हें दूर करना ही उनकी सच्ची सेवा होगी। अकेलेपन और उदासी का इलाज सिर्फ पाँच सितारा सुविधा देना भर नहीं है, परिवार और बच्चों से दूर ऐसे बुजुर्ग प्यार, आदर और सम्मान के भूखे होते हैं।

यह सच है कि समाज की मूल, परंपराएँ और मान्यताएँ समय के साथ बदली हैं, आज संयुक्त परिवार और भी छोटे होकर एकल परिवार बन गए हैं, वृद्ध माता - पिता अक्सर अपने जीवन के इस दौर में अकेलापन महसूस करते हैं। ऐसे समय में वे अपनी वृद्धावस्था शांति और आराम से बिताएँ, इसके लिए समाज और परिवार को उनकी भावनाओं और विचारों को समझना होगा। एक समाज तभी प्रगति कर सकता है, जब वह अपनी वृद्धजन आबादी का सम्मान करे और उनके जीवन को सुखद और सुविधाजनक बनाने में योगदान दे। यह भी सत्य है कि जो आज युवा हैं, कल वे बुजुर्ग होंगे, अतः उन्हें ही अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए कुछ मूल्य, परंपराएँ और मान्यताएँ स्थापित करनी होंगी, ताकि उनके अपने बच्चे जिम्मेदार तथा भावनात्मक रूप से संवेदनशील बन सकें। आज केवल भौतिक प्रगति ही पर्याप्त नहीं है; मूल्य आधारित समाज का निर्माण करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को आत्ममंथन करने की जरूरत है। माता-पिता और बच्चों के बीच भावनात्मक जुड़ाव, संवाद, और पारस्परिक समझ बढ़ाने से ही इस दिशा में सुधार संभव है। यह एक सतत प्रक्रिया है, जिसे परिवार, समाज, और सरकार सभी को मिलकर पूरा करना होगा।

तो आइए नए वर्ष का स्वागत करते हुए सब मिलकर कुछ अच्छा करें, कुछ अच्छा सोचें।  सन्तान के मन में माँ-बाप के प्रति सम्मान हो, उनकी चिन्ता हो, यह आज के विषम समय के लिए आवश्यक है। अकबर इलाहाबादी का एक शेर आज भी प्रासंगिक है- 

हम ऐसी कुल किताबें क़ाबिल-ए-ज़ब्ती समझते हैं

कि जिन को पढ़के लड़के बाप को ख़ब्ती समझते हैं

पर्व – संस्कृतिः धरती पर सनातन संस्कृति का कुंभ मेला प्रयागराज में

  - रविन्द्र गिन्नौरे 

पृथ्वी का विशालतम मानव समागम का कुंभ , जहाँ  स्नान, दान और दर्शन से मानव को अनंत चक्र से मुक्ति मिल जाती है। हर बारह बरस में मानव मोक्ष के द्वारा ज्योतिष शास्त्र के अनुसार खुलते हैं। 2025 में बृहस्पति मेष राशि में और सूर्य, चन्द्र मकर राशि पर अमावस्या तिथि पर आएँगे तब प्रयागराज में कुंभ का योग बनेगा। प्रयागराज के गंगा यमुना और सरस्वती नदियों के संगम तट पर कुंभ मेला आयोजित होगा।

कुंभ में स्नान, दान- 

     कुंभ एक तरह से कोई संगठित आयोजन नहीं बल्कि एक आंतरिक, प्राचीन और निरंतर घटना है। एक रहस्यमय आयोजन जिसमें लाखों लोग शांति पूर्ण रूप से शामिल होते हैं। भारतीय उपमहाद्वीप का धार्मिक, सांस्कृतिक, पौराणिक और आर्थिक महत्त्व का विशालतम आयोजन है। धार्मिक तीर्थ करते हुए स्नान और दान जीवन और मृत्यु के साथ मोक्ष को साकार करता है। वहीं कुंभ मेला ‘पवित्र’ नदी के तट पर आयोजित किए जाते हैं जो विशेष मुहूर्त में स्नान के अनुष्ठानों से गहराई से जुड़े हैं। कुंभ मेला पूर्व निर्धारित,अद्वितीय और शुभ खगोलीय घटना के दौरान होते हैं, जिसमें विभिन्न नक्षत्रों में सूर्य, चंद्रमा या बृह- स्पति शामिल होते हैं। इनके प्रभाव को समझने के लिए, हमें मूल तत्वों के रूप में समझना शुरू करना होगा। पंच महाभूतों में से जल मानव जाति के लिए लगभग उतने ही समय से गहरा, सहज महत्त्व रखता है, जितने समय से मानवता का अस्तित्व रहा है। जल, आत्मा का तत्त्व और जीवन देने वाला ग्रह और शरीर दोनों का सबसे बड़ा घटक है। वैदिक काल से ही भारत में जल के महत्त्व को शाब्दिक रूप से दर्ज किया गया है। ऋग्वेद में इसकी स्तुति करते हुए कहा गया है,

"या आपो दिव्या वा स्त्रवंति खनित्रिमा उत वा याः स्वयंजाः ।

समुद्रार्थ याः शुचयः पावकास्ता आपो देवीरिह मामवन्तु।" 

बादल और बूँद, नहरें और नदियाँ और समुद्र, सब एक ही के विस्तार हैं। यह दिव्य गुणों वाला जल हमारी रक्षा करे।

भारत के चार स्थानों पर गिरने वाले अमरता के अमृत की कथा को देखें, जहाँ कुंभ मेला मनाया जाता है। पवित्र गंगा या संगम में स्नान के लाभकारी गुणों में विश्वास और कुंभ के शक्तिशाली आकर्षण को आत्मसात् करने हर कोई लालायित हो उठता है।

अमृत के लिए संघर्ष- 

  पौराणिक आख्यान के अनुसार महर्षि दुर्वासा के श्राप से देवराज इंद्र और देवता श्रीहीन हो गए। तब समुद्र मंथन के लिए देव दानव एक साथ जुट गए। मंथन से निकले अमृत कलश को दैत्यों से बचने के लिए देवराज इंद्र के पुत्र जयंत उसे लेकर भागे। बृहस्पति, चंद्रमा और सूर्य ने उसकी सहायता की। अमृत कलश को लेकर भागते हुए जयंत ने हरिद्वार, प्रयाग, नासिक और उज्जैन में कलश को रखा , जहाँ  कलश से अमृत की बूंदें छलक पड़ी। अमृत कलश के लिए बारह दिनों तक देव-दानवों के बीच संघर्ष चलते रहा और यही अवधि कुंभ मेला के लिए ज्योतिष शास्त्र के अनुसार निर्धारित हुई।

तीर्थराज प्रयाग -

  हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार महाकुंभ मेला बारह साल में मनाया जाता है। बारह वर्षों के दौरान चार बार कर तीर्थ पर कुंभ आयोजित होता है। पहला उत्तराखंड की गंगा नदी पर हरिद्वार में दूसरा मध्यप्रदेश की शिप्रा नदी पर उज्जैन में तीसरा महाराष्ट्र की गोदावरी नदी पर नासिक में और चौथा उत्तर प्रदेश की गंगा यमुना और सरस्वती नदियों के संगम पर प्रयागराज में कुंभ मेला 2025 में आयोजित हो रहा है।

    तीर्थराज प्रयाग पवित्र स्थलों में सबसे ऊपर माना जाता है। पवित्रता का प्रतीक कही गई गंगा नदी, जिसे पुण्यदायिनी कहा जाता है। पुण्य और धार्मिकता की दाता गंगा भक्ति की प्रतीकात्मक यमुना नदी से मिलती है जिनसे अदृश्य स्वरूप वाली ज्ञान की प्रतीक सरस्वती मिलती है। तीर्थराज प्रयाग की त्रिवेणी के कुंभ को शक्तिशाली कहा गया है।

 ज्योतिष शास्त्र के अनुसार ग्रहों का शुभ फल मानव जीवन पर पड़ता है। बृहस्पति जब विभिन्न ग्रहों के अशुभ फलों को नष्ट कर पृथ्वी पर शुभ प्रभाव का विस्तार करते हैं तब शुभ स्थानों में अमृत पद कुंभ योग अनुष्ठित होता है और इस शुभ घड़ी में कुंभ मेला का आयोजित किया जाता है। प्रयागराज में कुंभ मेला बृहस्पति मेष राशि में और सूर्य चंद्र मकर राशि में माघ मास की अमावस्या तिथि पर आते हैं यही कुंभ का योग बनता है।

प्रयागराज कुंभ- मेला देखा चीनी यात्री सुयेनच्यांग ने-

सातवीं सदी में भारत आए चीनी यात्री सुयेनच्यांग ने प्रयागराज के कुंभ मेला का आँखों देखा हाल का वर्णन करते हुए कहा है,...गंगा-यमुना के संगम तट पर बहुत दूर तक जो अनुमानतः दस 'ली' से ऊपर होगा, रेत पड़ी हुई थी। यह रेत स्वच्छ बालू की है और सर्वत्र समतल है। इसे यहाँ के लोग महादान क्षेत्र कहते हैं। प्राचीनकाल से बड़े बड़े राजे महाराजे, सेठ-साहूकार यहाँ पर दान करते चले आए हैं। उस समय भी राजा श्रीहर्ष शिलादित्य प्रति पाँचवें वर्ष यहाँ आता था और बड़ा दान-पुण्य करता था। उस समय यहाँ बड़ा मेला लगता था और भारतवर्ष के सब बड़े-बड़े राजा और गणमान्य मेले में आते थे। भारतवर्ष भर के साधु- महात्मा, श्रमण- ब्राहमण आदि इकट्ठे हो जाते थे। राजा पहले पूजा करता था फिर यथाक्रम पहले यहाँ के श्रमणों का फिर आए हुए श्रमणों और भिक्षुओं को, फिर विद्वानों और पंडितों को, फिर यहाँ के ब्राह्मणों और पंडों को और अंत में विधवाओं, अनाथों, लंगड़े लूले, निर्धन और भिगमंगों को भोजन, वस्त्र, धन, रत्न प्रदान करता था। इस प्रकार वह नित्य दान-पुण्य करके अपने कोष के रुपये खर्च कर देता था और जब कुछ भी नहीं रह जाता था तो अपना मुकुट-वस्त्राभूषण और वाहनादि सब कुछ लुटा देता था। जब उसके पास एक कौड़ी भी नहीं रह जाती थी तब वह बड़े आनंद से कहता था कि "आज मैने अपने सारे कोष और धन को अक्षय कोश में रख दिया, वहाँ यह घटने का नहीं है।" फिर अन्य देश के राजा लोग भी दान करते थे।

   दान क्षेत्र के आगे पूर्व दिशा में गंगा यमुना के संगम पर सहस्रों की भीड़ लगी रहती है। कितने तो स्नान करके चले जाते हैं कितने यहाँ कल्पवास करते हैं और मरने के लिए यहाँ आकर रहते हैं। उस देश में लोगों का विश्वास है कि यहाँ आकर एक समय भोजन कर स्नान करते हुए जो कल्पवास करता प्राण त्यागता है वह मरने पर स्वर्ग को प्राप्त होता है। यहाँ स्नान करने से जन्म जन्म के पापक्षय हो जाते हैं। दूर दूर से लोग यहाँ स्नान करने आते हैं।

     कुंभ मेला सनातन परंपरा की प्राचीन धार्मिक सर्वोच्च तीर्थ यात्रा पवित्र परंपरा को लिए स्नान कर ज्ञान की पिपासा लिए मानव संत समागम करते हैं। मोक्ष की आस दिए सर्वस्व दान करते जहां मंत्रोच्चार के बीच अनहत नाद सी ध्वनित होती है। ऐसे सुंदरतम दृश्य को निहारने अपार जनसमूह आ जुटता है कुंभ के मेला में...!

ravindraginnore58@gmail.com

हाइबनः ब्रह्मताल सम्मिट पॉइण्ट

  - भीकम सिंह 

   गाइड ने एक-एक करके सभी के चेहरे पर टॉर्च की सीधी रोशनी डाली । यद्यपि गाइड सभी का चेहरा नहीं देख पा रहा था - झीनी रोशनी के घेरे में शरीर का ढाँचा भर देख पा रहा था। ट्रैकर से जितना बन पड़ रहा था, वे ब्रह्मताल सम्मिट पॉइण्ट  की ओर खिसक रहे थे । आकाश का अधिकांश हिस्सा साफ हो चुका था। एक - आध तारा ही चमक रहा था। सभी ने अपनी टॉर्च बन्द कर ली थी। पीठ पर रुकसैक चिपकाए,  11227 फीट की ऊँचाई पर चढ़ आए थे। पैरों में ताकत नहीं थी। आली बुग्याल के पीछे पहाड़ पर लालिमा जैसा दिख रहा था। धड़कने थामें हुए सभी ट्रैकर कैमरों का शटर खोल रहे थे। एक जनवरी के सूर्योदय की थोड़ी- सी रोशनी ऊपर उठकर पहाड़ों को प्रकाशित कर रही थी। ट्रैकर का फोटो शूट अनवरत चल रहा था। सूर्योदय हो चुका था। अभी वह पेड़ की दो शाखाओं के बीच टिका था ; लेकिन देखते-देखते ऊपर चढ़ गया। झंडी टॉप पर आते-आते सूर्य देवता सिर पर आ चुके थे। मैंने चारों ओर निगाह दौड़ाई। ब्रह्मताल नजरों से ओझल हो रहा था ।

 धूप- सिंचित

नए वर्ष की भोर

मन विभोर ।

कविताः ये नव वर्ष हमें स्वीकार नहीं

  - रामधारीसिंह दिनकर






ये नव वर्ष हमें स्वीकार नहीं

है अपना ये त्योहार नहीं

है अपनी ये तो रीत नहीं

है अपना ये व्यवहार नहीं

धरा ठिठुरती है सर्दी से


आकाश में कोहरा गहरा है

बाग़ बाज़ारों की सरहद पर

सर्द हवा का पहरा है

सूना है प्रकृति का आँगन

कुछ रंग नहीं, उमंग नहीं


हर कोई है घर में दुबका हुआ

नव वर्ष का ये कोई ढंग नहीं

चंद मास अभी इंतज़ार करो

निज मन में तनिक विचार करो

नए साल नया कुछ हो तो सही


क्यों नक़ल में सारी अक्ल बही

उल्लास मंद है जन -मन का

आई  है अभी बहार नहीं

ये नव वर्ष हमे स्वीकार नहीं

है अपना ये त्योहार नहीं


ये धुंध कुहासा छँटने दो

रातों का राज्य सिमटने दो

प्रकृति का रूप निखरने दो

फागुन का रंग बिखरने दो


प्रकृति दुल्हन का रूप धार

जब स्नेह – सुधा बरसाएगी

शस्य – श्यामला धरती माता

घर -घर खुशहाली लाएगी


तब चैत्र शुक्ल की प्रथम तिथि

नव वर्ष मनाया जाएगा

आर्यावर्त की पुण्य भूमि पर

जय गान सुनाया जाए


युक्ति – प्रमाण से स्वयंसिद्ध

नव वर्ष हमारा हो प्रसिद्ध

आर्यों की कीर्ति सदा -सदा

नव वर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा


अनमोल विरासत के धनिकों को

चाहिए कोई उधार नहीं

ये नव वर्ष हमे स्वीकार नहीं

है अपना ये त्योहार नहीं

है अपनी ये तो रीत नहीं

है अपना ये त्योहार नहीं

प्रदूषणः साँसों का संकट

  - जेन्नी शबनम 

सुबह के लगभग 10 बजे बालकनी में निकली, तो देखा कि धुआँसा पसरा हुआ है, जिसे कोहरा या स्मॉग भी कहते हैं। देखने में तो बड़ा अच्छा लगा, मानो जाड़े के दिनों का कुहासा हो। परन्तु साँस में धूल-कण जाने लगे और आँखों में जलन होने लगी। शाम 5 बजे भी यही स्थिति रही। इस कोहरे में कहीं बाहर निकलने का अर्थ है श्वसन तंत्र और आँखों को कष्ट पहुँचाना। परन्तु कोई घर में कब तक छुपा रह सकता है। अपने कार्य एवं व्यवसाय के लिए बाहर जाना आवश्यक है। घर से बाहर भले मास्क पहनकर जाएँ, पर प्रदूषण के प्रभाव से बच नहीं सकते। घर के दरवाज़े व खिड़कियाँ भले बन्द हों, पर वायु प्रदूषण से बचाव सम्भव नहीं है। फेफड़े परेशान हैं और आँखें लाल। 

यों तो पूरा देश वायु प्रदूषण की चपेट में है; परन्तु दिल्ली में प्रदूषण की स्थिति बदतर हो गई है। ऐसा महसूस होता है जैसे साँस लेने पर आपातकाल लग गया हो। जो व्यक्ति श्वास से सम्बन्धित बीमारी से पीड़ित हैं, उनकी स्थिति बेहद गम्भीर हो चुकी है। स्वस्थ व्यक्ति भी आँखों में जलन, सिर दर्द और साँस लेने में परेशानी का अनुभव कर रहा है। सरकार लगातार प्रदूषण के बचाव के लिए कार्य कर रही है; परन्तु स्थिति बदतर होती जा रही है है। वायु प्रदूषण से आँखों में जलन व चुभन, साँस लेने में कठिनाई, गले में ख़राश, शरीर पर एलर्जी, वाहन चालकों को सड़क ठीक से न दिखना इत्यादि समस्या हो रही है। इससे दमा, हार्ट अटैक, ब्रेन स्ट्रोक जैसी बीमारी का ख़तरा बढ़ता है।  

दिल्ली के इस प्रदूषण पर सरकार और विपक्ष में तकरार जारी है। दोनों एक दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं। मानो इनमें से किसी ने बोरी में भरकर प्रदूषण लाया और पूरी दिल्ली पर छिड़काव कर दिया। विपक्ष का कहना है कि आम जनता के लिए दिल्ली गैस चेंबर बन चुकी है। किन्तु यहाँ सिर्फ़ आम जनता नहीं रहती, देश का राजा अपने मंत्रियों के साथ रहता है, जिसे आरोप लगाने का पूर्ण अधिकार है; समस्या के समाधान का कोई दायित्व नहीं। सत्ता और विपक्ष को किसी भी कठिन समय में आरोप-प्रत्यारोप से बाहर आकर जनता की समस्याओं के समाधान के लिए एकजुट होना चाहिए। 

सबसे अहम प्रश्न यह है कि क्या यह प्रदूषण दिल्ली सरकार फैला रही है? क्या आम जनता अपने कर्त्तव्य का पालन कर रही है? क्या केन्द्र सरकार और दिल्ली सरकार एक साथ मिलकर कोई ठोस क़दम उठा रही है? निःसन्देह सरकार से हमें उम्मीद होती है; परन्तु हम जनता को भी अपने कर्तव्यों के प्रति सचेत होना आवश्यक है। यदि जनता सचेत रहती, तो वायु प्रदूषण या अन्य कोई भी प्रदूषण नहीं होता। 

सरकार ने पटाखों पर पाबन्दी लगाई; परन्तु जनता ने ग़ैरकानूनी तरीक़े से पटाखे ख़रीदे। पराली जलाने पर पाबन्दी लगाई गई; परन्तु हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश इत्यादि राज्यों ने ख़ूब परली जलाई। दिल्ली में गाड़ियों की रैली मानो हर दिन होती रहती है। सभी पैसे वालों के पास कई-कई गाड़ियाँ हैं। वे बड़ी-सी गाड़ी में अकेले बैठकर चलना अपनी शान समझते हैं। वे सार्वजनिक परिवहन का उपयोग करेंगे तो उनकी प्रतिष्ठा दाँव पर लग जाएगी। इन दिनों निम्न आय वर्ग का व्यक्ति भी दोपहिया वाहन चलाता है। जबकि दिल्ली की परिवहन व्यवस्था देश के किसी भी हिस्से से बेहतरीन है। मेट्रो और बस की सुविधा दिल्ली के लिए वरदान है। दूर जाने के लिए समय और संसाधन के बचाव का सर्वोत्तम विकल्प मेट्रो है; हालाँकि अधिकतर निम्न व मध्यम आय वर्ग के लोग मेट्रो का उपयोग करते हैं। 

बढ़ती गाड़ियों से होने वाले प्रदूषण के कारण जब दिल्ली सरकार ने ऑड-इवेन का फ़ॉर्मूला लागू किया तो अधिकतर लोगों को इससे परेशानी हो रही थी; जबकि सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था सुदृढ़ है। वाहन चालन के ऑड-इवेन की व्यवस्था के बाद शहर में गाड़ियों की भीड़ और प्रदूषण दोनों कम हो गया था। ऐसा लगता था मानो दिल्ली की हवा भी स्वच्छ हवा में साँसें ले रही हो। परन्तु यह फ़ॉर्मूला ज़्यादा दिन चल न सका। दिल्ली सरकार को चाहिए कि ऑड-इवेन फ़ॉर्मूला हमेशा के लिए दिल्ली में लागू करे, ताकि सड़क पर गाड़ियों का दबाव कम हो और सार्वजनिक परिवहन का उपयोग हो, जिससे प्रदूषण पर लगाम लगे। 

पराली, पठाखा व परिवहन के अलावा निर्माण कार्य से होने वाला प्रदूषण भी वायु को दूषित कर रहा है। दिल्ली में ऊँची-ऊँची इमारतें, सड़क, या अन्य निर्माण कार्य बिना उचित प्रबंधन के होता है, जिससे हवा में धूल-कण पसरते हैं। पाबन्दी के बावजूद लकड़ी जलाए जाते हैं, कूड़ा जलाए जाते हैं। पेड़ बेवज़ह काटे जा रहे हैं। कचरा प्रबंधन सही नहीं है। मलबा का निस्तारण सही नहीं हो रहा है। रासायनिक कचरा और कल-कारखाने का धुआँ वातावरण को दूषित करता है। इस प्रकार के कई कार्य हैं, जिससे वायु प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। यह सब आम जनता कर रही है, न कि सरकार; परन्तु दोष सरकार को देते हैं। हम अधिकार की बात करते हैं, लेकिन देश के प्रति अपने कर्तव्यों को भूल जाते हैं। जब-जब जो प्रतिबन्ध सरकार लगाती है, उसे ईमानदारी से जनता निभाए और स्वहित छोड़कर राष्ट्रहित की बात सोचे, तो हर एक व्यक्ति देश की समस्या के निदान में अपना हाथ बँटा सकता है।   

हर आम जनता का कर्त्तव्य है कि देश पर से कुछ भार काम करे। जनसंख्या नियंत्रण, प्राकृतिक जीवन शैली अपनाना, कारपूलिंग का प्रयोग, संयम, अनुशासन, करुणा, धन-सत्ता के लोभ का त्याग, अहंकार पर नियंत्रण, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सरकार का सहयोग, स्व-चेतन व तार्किक चिन्तन इत्यादि को अपने जीवन में उतारकर किसी भी समस्या और समाधान पर पहल करें तो निश्चित हो सफल हुआ जा सकता है। चाहे वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, भोजन प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण हो या स्वास्थ्य प्रदूषण। ■

पर्व - संस्कृतिः लोहड़ी- जीने की उमंग जगाते ये त्यौहार

  - बलविन्दर बालम

छोटी- छोटी खुशियों का संग्रह है ज़िंदगी। खुशियों का पूरा गगन किसी के भी पास नहीं है कि मनुष्य जब चाहे खुशी का सितारा तोड़कर ज़िन्दगी को श्रृंगार ले। मनुष्य ने मौसम, दिन, वातावरण, रीति रिवाज़, रिश्ते-नाते, मोहब्बत, प्रेम, लगाव तथा परम्पराओं इत्यादि को मद्देनज़र रखते हुए हर्ष, चाव इत्यादि को ढूँढने के लिए मेलों, त्योहारों को अस्तित्व में लाया गया। अगर मनुष्य की ज़िंदगी से मेले-त्योहार तथा महत्त्वपूर्ण दिनों को मनफी कर दिया जाए तो समस्त ज़िंदगी नीरस सी, फीकी एंव बे-स्वाद सी होकर रह जाए। मनुष्य की ज़िंदगी में खूबसूरती, सुन्दरता, सौन्दर्य, जीने की उमंग, एक ललक तथा एक इच्छा पैदा करते हैं ये मेले एंव त्योहार।

लोहड़ी शब्द लोही से बना जिस का अभिप्राय है -वर्षा होना, फसलों का फूटना। एक लोकोक्ति है अगर लोहड़ी के समय वर्षा न हो, तो कृषि का नुक्सान होता है। परम्परा के गुलशन से ही जन्म लेता है- लोहड़ी का त्योहार। यह त्योहार मौसम के परिवर्तन, फसलों का बढ़ना तथा कई ऐतिहासिक तथा मिथ्यहासिक दन्त कथाओं से जुड़ा हुआ है। मुख्य तौर पर भारत का प्रसिद्ध राज्य पंजाब कृषि प्रधान राज्य है। इसी वजह से किसानों, जिमींदारों एंव मज़दूरों की मेहनत का पर्यायवाची है लोहड़ी का त्योहार। हर्ष तथा सद्भावना यह त्योहार समस्त मज़हबों, धर्मों के लिए एकता का प्रतीक तथा सांस्कृति का एक भव्य उपहार है।

लोहड़ी माघ महीने की सक्रांति से पहली रात को मनाई जाती है। किसान सर्द ऋतु की फसलें बोकर आराम फरमाता है। जिस घर में लड़का पैदा हुआ हो उसकी शगुन एंव हर्ष से लोहड़ी पाई जाती है। बैंड-बाजे बजाए जाते हैं। बाज़ीगरनें एंव भंड रिश्ते-नातों के गीत सुनाकर हास्य-व्यंग्य के विनोद गायन सुनाकर अपने बनती लोहड़ी (बधाई) बटोरकर ले जाते हैं। इस दिन प्रत्येक घर में मुँगफली, रेवड़ियों, चिरवड़े, गच्चक, भुग्गा, तिलचौली, मक्की के दाने, गुड़, फल इत्यादि लोहड़ी बाँटने के लिए रखे जाते हैं। गन्ने के रस की खीर बनाई जाती है। दही के साथ इसका स्वाद निराला ही होता है। जिस नवजन्मे बच्चे के लिए लोहड़ी पाई जाती है उसके रिश्तेदार उसके लिए सुन्दर वस्त्र, खिलौने तथा जेवरात इत्यादि बनवाकर लाते हैं।

आजकल तो लड़कियों की लोहड़ी भी खुशी एंव उमंग से पाई जाती है। विकसित परिवारों में लड़की की लोहड़ी का चाव लड़के से कम नहीं करते। रिश्तेदार लड़की को आभूषण एंव सुन्दर वस्त्र देते हैं। खास कर लोहड़ी वाली लड़की को पाजेबें देना शुभ शगुन समझते हैं। इस खड़ी लकड़ियों के ढ़ेर बनाकर या उपलों का ढ़ेर बनाकर उसकी अग्नि से सेंक का लुत्फ लिया जाता है। चारों और बिखरी सर्दी तथा रूईं की भान्ति फैली धुंध में अग्नि के सेंक का अपना ही आनंद होता है। इस अग्नि में तिल इत्यादि फैंकते हैं। घरों में समस्त परिवार बैठकर हर्ष की अभिव्यक्ति के लिए गीत गायन करते हैं। देर रात तक ढोलक की आवाज़, ढोल के फड़कते ताल, गिद्दों-भंगड़ों की धमक तथा गीतों की आवाज़ सुनाई देती रहती है। रिश्तों की सुरभि, तथा प्यार का नज़ारा चारों ओर देखने को मिलता है। एक सम्पूर्ण खुशी का आलम।

लोहड़ी के त्योहार के साथ जुड़ी कई कथाएँ प्रचलित हैं- एक प्रसिद्ध डाकू दूल्हा भट्ठी ने एक निर्धन ब्राह्मण की दो बेटियों सुन्दरी एंव मुन्दरी को ज़ालिमों में छुड़ा का उनकी शादियाँ कीं तथा उन की झोली में शक्कर डाली। उन निर्धन बेटियों की शादियाँ कर के पिता के फर्ज़ निभाए। इस सम्बध में एक लोक गीत अब भी प्रचलित है जैसे: सुन्दर मुन्दरिए, हो, तेरा कौन बेचारा-होः दुल्ला भट्टी वाला-हो, दुल्ले ने धी बेआही-हो, सेर शक्कर पाई-होः कुढ़ी दे बोझे पाई-होः कुढ़ी दा लाल पटाका-होः कुढ़ी दा शालू पाटा-होः शालू कौन समेटे-होः चाचा गाली देसे होः चाचे चूरी कुट्टी होः सेर शक्कर पाई होः, ज़िमींदारां वहुटी-होः, ज़िमींदार सदाओ-होः गिन-गिन पोले लाओ-होः इक पोला घस गया, ज़िमींदार वहुई लै के नस्स गयाः हो-हो-हो-हो-हो-हो-हो-हो।

लोहड़ी के कई परम्परिक गीत प्रचलित हैं जैसेः लोहड़ी बई लोहड़ी, दिओ गुड़ दी रोड़ी, कलमदान विच घिओ, जीवे मुंडे दा पियो, कलमदान विच कांना, जीवे मुंडे दा नाना, कलमदान विच कांनी, जीवेम मुंडे दी नानी। लड़के-लड़कियाँ भी इस दिन लोहड़ी माँगते हैं। समूह बनाकर लोहड़ी  माँगने का अपना ही एक मज़ा होता है। बेशक लोहड़ी के गीत अलोप होते जा रहे हैं; परन्तु वृद्धजन को आज भी यह गीत जुबानी याद हैं -जैसे कोठी हेठ चाकू, गुड़ दऊ मुंडे दा बापू। कोठी उत्ते कां, गुड़ दऊ मुंडे दी मां। विवाहित जोड़ों (दम्पती) की भी लोहड़ी पाई जाती है। इस पर एक लोक गीत हैः टांडा नी लकड़ियों टांडा सी, इस टांडे नाल कलीरा सी, जुग जीवे नी बीबी तेरा वीरा सी, इस वीरे दी वेल वदाई सी, घर चूड़े ते बीढ़े वाली आई सी, चूड़ा बीढ़ा वज्जे नी, शरीकनियाँ नूं सद्दे नी, शरीकनियाँ मारे बोल, तरा निक्का जीवे, तेरा बड्डा जीवे, वड्डा वड़ेरा जीवे, गुड़ दी रोड़ी देवे, भाइयाँ दी जोड़ी जीवेम

लोहड़ी वाले घर से अगर जल्दी लोहड़ी न मिले तो लड़कियाँ यह गीत कहती हैं- साड़े पैरां हेठ रोढ़, सानूं छेती-छेती तोर, साड़े पैरां हेठ दहीं, असीं मिलना वी नईं, साड़े पैरां हेठ परात, सानूं उत्तों पै गई रात। 

लड़का पैदा होने पर लड़कियाँ व्यंग्य-विनोद में उस के परिवार को इस गीत से सम्बोधन करती हैं: गीगा लकड़ी दा शाबा, वे लड़ाका तेरा बाबा, गीगा तत्ता-तत्ता घिओ, वे लड़ाका तेरा पिओ, गीगा गोरी-गोरी गां, वे लड़ाकी तेरी माँ। इस तरह कुछ और गीत जैसेः कुपिए नीं कुपिए, असमान ते लुट्टिए, असमान पुराना, छिक् बन्ना ताना, लंगरी च दाल, मार मत्थे नाल, मत्था तेरा बड्डा, लेआ लकड़ियाँ दा गठ्ठा। लोहड़ी के दिन लड़के स्वांग बनकर नाचते गाते भी लोहड़ी माँगते हैं।

लोहड़ी के दूसरे दिन माघी का पवित्र त्योहार मनाया जाता है। माघ माह को शुभ समझा जाता है। इस माह में विवाह शुभ माने जाते हें। इसी माह में पुन्य दान करना, लड़कियों की शादी करना शुभ माना जाता है। इस माह ठिठुरती सर्दी में रजाई का आनन्द, गन्ने का रस, मूली- गाजर इत्यादि खाने का मजा भी आता है। चावल की खिचड़ी, सरसों का साग, मक्की की रोटी और मख्खन खाने का ज़ायका भी कमाल का होता है।

माघी का मेला देश भर में मनाया जाता है। सिक्खों के पांचवें गुरू श्री अर्जुन देव जी ने माघ माह की बारह माह बाणी में प्रशंसा की हैः माघ मंजन संग साधुआं धूढ़ी कर इस्नान इत्यादि। श्री कृष्ण भगवान ने गीता के आठवें अध्याय में भी माघ माह का अति सुन्दर वर्णन किया हैः- अग्नि ज्योंतिरह शुक्ल, वण्मासा उतरायणन। माघ से लेकर छह माह का समय उत्तरायणमय कहलाता है, जिसमें ब्रह्म को जानने वाले लोग प्राणों का त्याग कर मुक्त हो जाते हैं। प्रयाग तीर्थ में महात्मा प्रकल्प करते हैं। ■

सम्पर्कः ओंकार नगर गुरदासपुर (पंजाब), मो. 9815625409

लोक- साहित्यः गिरधर के काव्य में लोक-जीवन

  - रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' 

'गिरधर के काव्य में लोक जीवन' विषय पर कुछ कहने से पहले 'लोक' शब्द पर विचार करना आवश्यक है। डॉ. विद्यानिवास मिश्र के अनुसार–'लोक का अर्थ व्यापक मानव-व्यवहार है अथवा मूल्यबोध से प्रेरित स्वीकृत व्यवहार या चेतना है।' न शास्त्र लोक विरुद्ध हो सकते हैं, न लोक शास्त्रों के विरुद्ध। लोक स्वीकृति ही शास्त्र का रूप ग्रहण करती है। इन सबके बीच में मर्यादा एक कड़ी है। कहीं वह लोक-मर्यादा के रूप में आती है, कहीं शास्त्र–मर्यादा के रूप में। चाहे वेद की ॠचाएँ हों, चाहे गीता के श्लोक, अपनी बात कहने के लिए लोक–जीवन को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करते हैं।

गिरधर कवि ने कुण्डलियों के माध्यम से अपने अनुभवों को समाज के समक्ष रखा है। सफल व्यक्ति बनने के लिए सफल जीवन जीने की कला आनी चाहिए. इस कला के लिए व्यापक मानव-व्यवहार का ज्ञान ज़रूरी है। धर्म, दर्शन, सामाजिक मूल्य खरे हैं या नहीं, लोक-जीवन ही इसका निर्णय करता है। 'लोकजीवन' ही वह निकष है, जिस पर हमारी आस्थाएँ, हमारी लोकनीति या व्यवहार परखे जाते हैं। हमारे चिन्तन, वचन और कर्म का सन्तुलन हमारे व्यवहार को सन्तुलित बनाता है। गिरिधर कवि के काव्य में यह लोकजीवन विभिन्न उक्तियों, अन्योक्तियों, सूक्तियों एवं चिन्तन- धारा के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। हमारा चिन्तन हमारी आस्थाओं का प्रतिबिम्ब है, तो हमारे कार्यकलाप हमारे वचन एवं कर्म का साक्षात् रूप है। कवि ने साधु की पहचान बताते हुए कहा है-

बहता पानी निर्मला, पड़ा गन्ध सो होय।

त्यों साधु रमता भला, दाग न लागै कोय॥

अर्थात् बहता पानी ही निर्मल है, रुका हुआ पानी गन्दा हो जाता है, उसी प्रकार विचरण करने वाला ही सच्चा साधु है। सच्चा साधु राग-द्वेष से दूर अनासक्त भाव से अपना जीवन–यापन करता है।

गिरिधर कवि मानते हैं कि पूर्व धारणाओं से ग्रस्त व्यक्ति सच्चा ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। सच्चा ज्ञान प्राप्त करने के लिए हमें खुले दिमाग़ से चिन्तन करना पड़ेगा। जब तक दिलो-दिमाग़ किसी मज़हब के पाश में जकड़ा रहेगा, तब तक हम निष्पक्ष भाव से चिन्तन नहीं कर सकते। किसी-किसी दायरे में बँधा चिन्तन हमें आत्मज्ञान से दूर ले जाता है। आज के सन्दर्भ में गिरिधर जी का यह कथन एकदम सटीक है-

पासी जब लग मज़हब की, तब लग होत न ज्ञान।

मजब-पासि टूटै जबै, पावै पद निर्वान॥

पाशबद्ध चिन्तन ही अविद्या है। यह अविद्या निरन्तर गड्ढे खोदने का काम करती है। शास्त्र और स्मृति ग्रन्थ पढ़ने वाले भी इन गड्ढों में गिरकर मग्न हैं। ये अन्धे बहरों की तरह आचरण करते हैं। ऐसे विवेक-शून्य लोगों के लिए कहा गया है-

गढ़े अविद्या ने रचे, हाथी डूब अनन्त।

जोइ गिरयो तिस खांत में, धँसग्यो कान प्रयन्त॥

अविद्या के गड्ढे में जो कानों तक डूब गया, उसका उबरना असम्भव है। कवि ने अविद्या से बचने का एकमात्र उपाय बताया है–ज्ञान। इस ज्ञान को प्राप्त करने के ले गुरु–कृपा अनिवार्य है, तभी चित्त स्थिर हो सकता है-

कह गिरिधर बिन ज्ञान चित्त, थिर होत न ऐसा

गुरु अनुग्रह बिना बोध, दृढ़ होत न जैसा॥

मित्रता का जीवन में बहुत महत्त्व है। साथ निभाने वाले व्यक्ति से ही मित्रता की जाए. जो व्यक्ति सुख-दु: ख सम्पत्ति-विपत्ति में साथ दे, वही सच्चा मित्र है-

यारी ता संग कीजिए, गहै हाथ सो हाथ।

दुख-सुख, सम्पत्ति-विपति में, छिन भर तजै न साथ। ।

कवि ने कभी काम न आने वाले मित्रों के लिए एक लोकोक्ति के माध्यम से कहा है-

जाना नहिं जिस गाँव में, कहा बूझनो नाम।

तिन सखान की क्या कथा, जिनसो नहिं कुछ काम॥

अर्थात् जिस गाँव में जाना नहीं, उस गाँव का नाम पूछने से क्या फ़ायदा। उन साथियों की क्या बात की जाए, जिनसे कोई मतलब नहीं, अर्थात् जो हमारे काम में सहायक न हों। उनसे दूर ही रहें।

जीवन में कर्म प्रधान है। निकम्मे व्यक्ति आज का काम कल पर टालते हैं। जबकि 'कल' कुछ होता ही नहीं-'घटका-घटका करके सिगरी आयु घट गई' अर्थात् घड़ी-घड़ी करके सारी आयु घटती जा रही है। इसीलिए चेतावनी देता है-'काल्ह काम करना जोऊ, सो तो कीजै आज।'

गिरधर कवि ने लोभ, रस अर्थात् जीभ का स्वाद तथा राग को जीवन के लिए अहितकर बताया है–

लोभ पाप का बीज है, रस व्याधी का बाप।

राग क़ैद का बीज, तज तीन सुखी हो आप॥

जीवन के एक कटु अनुभव को गिरधर कवि ने अपने काव्य में स्थान दिया है, वह है-भूख। आज के सन्दर्भ में भी कवि का यह कथन लोकजीवन के कटु यथार्थ को उद्घाटित करने में सक्षम है। इस भूख के निवारण के लिए मनुष्य को क्या-क्या पापड़ नहीं बेलने पड़ते। भूख सारे गुमान को चकनाचूर कर देती है। इसके लिए मनुष्य बहुत कुछ अकरणीय भी कर जाता है-

भूख विधाता ने रची, सबका हरे गुमान।

क्षुधा-निवारण के अरथ, क्या नहीं करै पुमान!

जीवन के सारे सत्य हम स्वयं अनुभव करके नहीं जानते, वरन् लोक-जीवन से होकर बहती चली आई अनुभव-धारा ही हमें बहुत कुछ सिखाती है। गिरिधर कवि कहते हैं कि गुरु, विद्वान्, कवि, मित्र, पुत, पत्नी, द्वारपाल, पुरोहित, राजमन्त्री, ब्राह्मण, पड़ोसी, वैद्य और रसोइया इन तेरह से कभी बैर न करें। भाई से मधुर सम्बन्ध रखने पर और भी अधिक बल दिया है-

साँई अपने भ्रात को, कबहूँ न दीजै त्रास।

पलक दूर नहीं कीजिए, सदा राखिए पास॥

उधार लेने वाले मीठे वचन बोलकर उधार तो ले लेंगे, परन्तु फिर चुकाएँगे नहीं। आजकल बहुत से विवाद उधार के लेन-देन से पैदा होते हैं। कवि ने इस कटु यथार्थ से सचेत किया है-

झूठा मीठे वचन कहि, ॠण उधार ले जाय

लेत परम सुख उपजै, लैके दियो न जाय॥

सचेत करने का मुख्य कारण है यह है कि यह संसार मतलबपरस्त है। जब पैसा नहीं रहेगा, तब मित्र भी साथ छोड़ जाएँगे। पैसा पास होने पर ही मित्र साथ में रहते हैं-

साँई सब संसार में, मतलब का व्यवहार।

जब लगि पैसा गाँठ में, तब लगि ताको यार॥

फिर भी कवि धन पर कुण्डली मारकर बैठने की सलाह नहीं देता। उदारतापूर्वक ख़र्च करने में ही धन की शोभा है-

पानी बाढ़ों नाव में, घर में बाढ़े दाम।

दोनों हाथ उलीचिए, यही सयानो काम॥

अगर ऐसा नहीं करेंगे तो पानी भरने से नाव डूब जाएगी, ख़र्च न करने पर, दौलत भी नहीं बचेगी। इस सन्देश से पूँजीपतियों को शिक्षा लेनी चाहिए। कवि विवेकपूर्वक कार्य करने की सलाह देता है; क्योंकि

बिना विचारे जो करै, सो पाछै पछताय।

काम बिगारै आपनो, जग में होत हसाय॥

जीवन में अगर भूल हो जाए, तो उसे सुधार लेना चाहिए. निराश-हताश होकर बैठे रहना, अतीत की भूलों पर आँसू बहाने से कोई फ़ायदा नहीं। गिरिधर कवि की यह उक्ति आज भी लाखों हताश–निराश लोगों में आशावादिता का संचार करती है-

बीती ताहि बिसारि दै, आगे की सुधि लेइ।

जो बनि आवै सहज में, ताही में चित देइ॥

गिरिधर कवि अनपढ़-गँवाँर से लेकर विद्वानों तक जुड़े हैं। इसका मुख्य कारण है–उनके काव्य का जनमानस के निकट होना। योग्य व्यक्ति उपेक्षित हो जाते हैं और अयोग्य व्यक्ति अपनी तिकड़मों से हर युग में अपना स्थान बना लेते हैं। जहाँ ऐसी अँधेरगर्दी हो, वहाँ से दूर चले जाना ही ठीक है। घोड़े, बाज और गधे, कौए के प्रतीक द्वार कवि ने कहा है-

साँई घोड़े अछतहीं, गदहन आयो राज।

कौआ कीजै हाथ में, दूर कीजिए बाज॥

जहाँ ऐसी अराजकता हो वहाँ नहीं रुकना चाहिए सुबह का इन्तज़ार किए बगैर वहाँ से साँझ को ही प्रस्थान कर देन चाहिए–

तहाँ न कीजै भोर, साँझ उठि चलिए साईं।

कवि ने अन्य स्थलों पर भी समझदार व्यक्ति को अन्योक्ति के माध्यम से सचेत किया है–

हंसा ह्याँ रहिए नहीं, सरवर गए सुखाय।

काल्हि हमारि पीठ पै, बगुला धरि हैं पाँय॥

सरोवर जब सूख जाए, तो हंसों को वहाँ नहीं रहना चाहिए। सम्भव है किसी दिन बगुला ही पीठ पर सवार हो जाए। हंस और बगुले के माध्यम से अच्छे लोगों के प्रति, ओछे लोगों के मन में आए अवज्ञाभाव का संकेत किया गया है।

कवि ने लोकजीवन के कुछ ऐसे सूत्र भी बताए हैं, जो युग–सत्य कहे जा सकते हैं। यथा-कृतघ्न व्यक्ति से दूर रहना, अपने मन की बात को सबके सामने प्रकट न करना। कृतघ्न व्यक्ति कभी मित्र या शत्रु में भेद नहीं करता। उसे स्वार्थ पूरा करने से मतलब है। सर्वस्व लुटाने पर भी, वह कभी किसी का हो ही नहीं सकता–

कृतघन कबहुँ न मानहीं, कोटि करै जो कोय।

सर्वस आगै राखिए, तऊ न अपनो होय॥

इसीलिए कवि कहता है कि बड़े और उदार व्यक्ति से ही अपना सम्बन्ध रखना चाहिए कायर क्रूर और कुपुत्र तो मझधार में डुबो देंगे–

प्रीति कीजिए बड़ेन सो, समया लावै पार।

कायर, कूर, कपूत हैं, बोरि देत मझधार॥

कवि ने एक व्यावहारिक सलाह और भी दी है, जो आज की परिस्थितियों में अवश्य ध्यान में रखनी चाहिए–

राजा के दरबार में, जैसो समया पाय।

साईं तहाँ न बैठिए, जहँ कोउ देय उठाय॥

कवि की दृष्टि जीवन के हर पक्ष पर गई है। वे साधारण से साधारण वस्तु में भी सार्थकता ढूँढ लेते हैं। जैसे–

लाठी में गुन बहुत हैं, सदा राखिए संग।

गहिरि नदी नारा जहाँ, तहाँ बचावै अंग॥

सुखमय जीवन के लिए व्यवहार-कला के गुण ही मनुष्य को लोकप्रिय बनाते हैं-

गुन के गाहक सहस नर, बिन गुन लहै न कोय।

जैसे कागा, कोकिला, शब्द सुनै सब कोय॥

गिरिधर कवि ने अपने जीवन में जो देखा, जो समाज के लिए, लोक के लिए ग्राह्य है, उसे सरल, सहज, सुबोध भाषा में पिरोकर प्रस्तुत कर दिया। गिरिधर के काव्य में कविता के शास्त्रीय गुणों की ऊँचाई भले ही न हो; परन्तु जन-मन में घर कर लेने वाली शक्ति ज़रूर है, जो आज सैंकड़ों वर्षों के बाद भी जनमानस में उनकी कुण्डलियों को जीवित किए हुए हैं। गिरिधर की ये कुण्डलियाँ उन कविताओं की तरह नहीं हैं, जो आज लिखी जाती हैं और कल मर जाती हैं। इन कुण्डलियों की जीवन्तता का एक मात्र कारण है-लोक जीवन से अन्तरंगता। शिलालेख किसी को जीवित नहीं रखते। वह शक्ति केवल जनमानस को मिली है। जनमानस में केवल वही सुरक्षित रहता है, जो शाश्वत होता है, जो समय की धारा के साथ प्रवाहित हो सकता है।■

जिन्हें हम भूल गएः दो जागरण गीत

 -  पं. वंशीधर शुक्ल

स्वतंत्रता संग्राम सेनानी- अवधी सम्राट- पं. वंशीधर शुक्ल, जन्म- वसंत पंचमी, सन् 1904 ई., जन्म स्थान- ग्राम मन्यौरा, लखीमपुर, पिता- पं0.छेदीलाल, रचनाएँ -मेला घुमनी, चुगल चंडालिका,कृषक विलाप, मतवाली गज़ल, राष्ट्रीय गान आदि , उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा उनकी समग्र रचनाओं का संकलन ‘ वंशीधर शुक्ल रचनावली’ शीर्षक से प्रकाशित किया गया है

1. सवेरा हुआ है,

                       उठो सोने वालों! सवेरा हुआ है;

                      वतन के फकीरों का फेरा हुआ है।

जगो अब निराशा- निशा खो रही है,

सुनहली- सी पूरब दिशा हो रही है;

ऊषा की किरण कालिमा धो रही है,

न अब  कौम कोई कहीं सो रही है;

             तुम्हे किसलिए मोह घेरा हुआ है।

              उठो सोने वालों! सबेरा हुआ है।

जवानों! जगो, कौम की जान जागो,

पड़े किसलिए देश की शान जागो;

गुलामी मिटे देश उत्थान जागो,

शहीदों की सच्ची सुसंतान जागो;

         हटा दूर आलस- अँधेरा हुआ है।

         उठो सोने वालो ! सवेरा हुआ है।

उठो देवियो ! वक्त खोने न देना,

  कहीं फूट के बीज बोने न देना;

जगें जो, उन्हें फिर से सोने न देना,

कभी राष्ट्र अपमान होने न देना;

        घड़ी शुभ मुहूरत का डेरा हुआ है।

         उठो सोने वालों सबेरा हुआ है।

नई रोशनी मुल्क में उग रही है,

युगों बाद फिर हिन्द- माँ जग रही है;

खुमारी बचा प्राण को भग रही है,

दिलों में निराली लगन लग रही है;

            मुसीबत से अब तो निबेरा हुआ है।

             उठो सोने वालों सवेरा हुआ है।

हवा क्रान्ति की झूमती डाली- डाली,

बदल जाने वाली है शासन- प्रणाली;

जगो देख लो कैसी रौनक- निराली,

सितारे गए, आ गया अंशुमाली;

                 घरों में, दिलों में उजेरा हुआ है।

                  उठो सोने वालो! सवेरा हुआ है।

  ( 1930 ई.)

2. उठ जाग मुसाफिर

उठ जाग मुसाफ़िर भोर भई
अब रैन कहा जो सोवत है
जो सोवत है सो खोवत है
जो जागत है सो पावत है
उठ जाग मुसाफ़िर भोर भई
अब रैन कहा जो सोवत है
टुक नींद से अंखियाँ खोल जरा
पल अपने प्रभु से ध्यान लगा
यह प्रीति करन की रीति नहीं
जग जागत है तू सोवत है
तू जाग जगत की देख उडन,
जग जागा तेरे बंद नयन
यह जन जाग्रति की बेला है
तू नींद की गठरी ढोवत है
लड़ना वीरों का पेशा है
इसमे कुछ भी न अंदेशा है
तू किस गफ़लत में पड़ा - पड़ा 
आलस में जीवन खोवत है
है आज़ादी ही लक्ष्य तेरा
उसमें अब देर लगा न जरा
जब सारी दुनिया जाग उठी
तू सिर खुजलावत रोवत है।

विज्ञान राउंड अपः वर्ष 2024 अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान जगत - चक्रेश जैन

  - चक्रेश जैन

साल 2024 में कृत्रिम बुद्धि यानी एआई के उपयोग का दायरा बढ़ता रहा - मौलिक कविता लेखन से लेकर चुनाव में मतदाताओं को लुभाने तक इसका इस्तेमाल हुआ। कहना मुश्किल है कि यह विस्तार कहाँ पहुँचकर थमेगा। 

यह वही वर्ष है, जब जनरेटिव एआई से सृजित लार्ज लैंग्वैज मॉडल द्वारा शोध पत्रों की समकक्ष समीक्षा (पीयर रिव्यू) ने नए सवालों को जन्म दिया। 2024 के भौतिकी और रसायन विज्ञान के नोबेल पुरस्कारों ने एआई आधारित अनुसंधान कार्य को मुहर अचंभित कर दिया।

इस वर्ष पेरिस में आयोजित ओलंपिक खेलों में एआई का जलवा दिखा। खिलाड़ियों के प्रशिक्षण से लेकर कार्यक्रमों के प्रसारण में एआई शामिल रहा। वर्जीनिया युनिवर्सिटी के गणितज्ञ केन ओनो ने गणितीय मॉडलिंग के ज़रिए अमेरिकी तैराकों को इस लायक बनाया कि वे शानदार प्रदर्शन करते हुए पदक बटोरने में कामयाब रहे।

वर्ष 2024 में जापान ने अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में दो ऐतिहासिक सफलताएँ हासिल कीं। 20 जनवरी को वह चंद्रमा पर सफलतापूर्वक सॉफ्ट लैंडिंग करने वाला दुनिया का पाँचवा देश बन गया। 5 नवंबर को लकड़ी से बना उपग्रह अंतरिक्ष में भेजकर इतिहास रचा। ऐसा कर जापान ने इको फ्रेंडली उपग्रहों का मार्ग प्रशस्त किया है। इस उपग्रह को ‘लिगनोसैट’ नाम दिया गया है। 

इसी वर्ष साइंस एडवांसेज़ में प्रकाशित एक अध्ययन में यह खुलासा किया गया कि मंगल ग्रह पर अरबों साल पहले पानी मौजूद था। सच तो यह है कि काफी समय से यह माना जाता रहा है कि मंगल ग्रह के आरंभिक इतिहास में पानी की अहम भूमिका रही है।

साल की शुरुआत में ही नासा ने आर्टिमिस चंद्र मिशन कार्यक्रम एक वर्ष के लिए स्थगित कर दिया। इस मिशन का उद्देश्य अंतरिक्ष यात्रियों को चंद्रमा पर पुन: उतारना है।

वर्ष 2024 में अंतरिक्ष में पहली बार एक निजी कंपनी ने अपने शक्तिशाली रॉकेट से एक केला भेजा, इसका उद्देश्य अंतरिक्ष में शून्य गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव का अध्ययन करना है।

इसी वर्ष चीन का अंतरिक्ष यान चांग-ए-6 यान 53 दिनों की यात्रा पूरी कर चंद्रमा के सुदूर क्षेत्र से मिट्टी और चट्टानों के नमूने एकत्र करके पृथ्वी पर लौट आया है। चीन को इस दिशा में पहली बार बड़ी सफलता मिली है। अमेरिका और सोवियत संघ पहले ही चंद्रमा के निकटस्थ भाग से नमूने ला चुके हैं।

विदा हो चुके वर्ष 2024 में पहली बार प्रतिपदार्थ (एंटी मैटर) को प्रयोगशाला से बाहर ले जाने का प्रयास किया गया। इस असाधारण उपलब्धि के लिए सर्न प्रयोगशाला के अनुसंधानकर्ताओं की दो टीमों में होड़ जारी रही। हर पदार्थ-कण का एक प्रतिपदार्थ होता है। भौतिकशास्त्र के अध्येताओं का मानना है कि बिग बैंग के दौरान प्रतिपदार्थ और पदार्थ समान मात्रा में बने थे। प्रतिपदार्थ को पृथ्वी पर सबसे महँगा पदार्थ माना जाता है। एक ग्राम प्रतिपदार्थ बनाने की लागत खरबों डॉलर आएगी।

इसी वर्ष अनुसंधानकर्ताओं ने एक फोटॉन से दुनिया का सबसे छोटा क्वांटम कंप्यूटर बनाने में सफलता हासिल की। क्वांटम कंप्यूटर क्वांटम यांत्रिकी सिद्धांत पर आधारित होते हैं।

साल 2024 में पहली बार मनुष्य में जेनेटिक रूप से संशोधित सुअर के गुर्दे का सफलतापूर्वक प्रत्यारोपण किया गया। अंग प्रत्यारोपण के क्षेत्र में इसे बड़ी उपलब्धि कहा जा सकता है।

वर्ष 2024 में जीवविज्ञान की सबसे महत्त्वपूर्ण और महत्वाकांक्षी परियोजना मानव कोशिका एटलस का पहला मसौदा जारी किया गया। इस परियोजना का उद्देश्य मनुष्य की प्रत्येक कोशिका का जेनेटिक मानचित्र तैयार करना है। फिलहाल इसमें 620 लाख मानव कोशिकाओं का डैटा है। इस अनुसंधान से आगे चलकर गंभीर बीमारियों के बारे में सटीक जानकारियां उपलब्ध हो सकेंगी। ‘विकिपीडिया फॉर सेल्स’ नाम की इस परियोजना की शुरुआत 2016 में हुई थी। दस वर्षीय परियोजना पूरी होने की दहलीज पर है। इसमें 102 देशों ने सहभागिता की है।

नेचर के अनुसार पहली बार माइटोकॉन्ड्रिया के दो प्रकारों का पता चला। माइटोकॉन्ड्रिया को कोशिका का ऊर्जा भण्डार कहा जाता है। वहीं अनुसंधानकर्ताओं ने टमाटर में से दो जीन हटाकर मीठे टमाटर का सृजन किया, जिसका उपयोग मधुमेह रोग से लड़ने में हो सकता है।

नेचर पत्रिका के अनुसार पहली बार एक महिला वैज्ञानिक ने प्रयोगशाला में वायरस का सृजन कर अपने कैंसर का इलाज किया। यह अपने ढंग का अनूठा और चुनौतीपूर्ण प्रयोग था।

इसी साल जनवरी में कंपनी न्यूरालिंक ने पहली बार किसी मनुष्य में इलेक्ट्रॉनिक चिप प्रत्यारोपित किया। यह पहला मानव परीक्षण था। 

पुरस्कार व समारोह

साल 2024 के विज्ञान के नोबेल पुरस्कारों के लिए सात वैज्ञानिकों का चयन किया गया। चिकित्सा विज्ञान के नोबेल पुरस्कार के लिए विक्टर एम्ब्रोस और गैरी रूवकुन को संयुक्त रूप से चुना गया। दोनों वैज्ञानिकों को यह सम्मान माइक्रो आरएनए पर अनुसंधान के लिए दिया गया है। 

भौतिकशास्त्र में नोबेल सम्मान जेफ्री हिंटन और जॉन हाॅपफील्ड को मशीन लर्निंग को सक्षम बनाने के लिए मिला है। वस्तुत: दोनों अनुसंधानकर्ताओं ने आर्टिफिशियल न्यूरल नेटवर्क को प्रशिक्षित किया है ताकि वह मनुष्यों की भांति सोच सके और सीख सके। 

इस साल का रसायन विज्ञान का नोबेल सम्मान डेविड बेकर, डेमिस हस्साबिस और जॉन जम्पर को संयुक्त रूप से प्रदान किया गया है। जहां डेविड बेकर ने कंप्यूटेशनल प्रोटीन डिज़ाइन पर अनुसंधान किया है, वहीं डेमिस हस्साबिस और जॉन जम्पर ने प्रोटीन संरचना की भविष्यवाणी को लेकर शोधकार्य किया है। 

ब्रिटिश भौतिकीविद सर रिचर्ड हेनरी फ्रेंड को अर्द्ध चालक पदार्थों के क्षेत्र में शोध के लिए इंस्टीट्यूट ऑफ फिज़िक्स द्वारा आइज़ैक न्यूटन मेडल से पुरस्कृत किया गया।

साल 2024 का बुनियादी चिकित्सा अल्बर्ट लास्कर पुरस्कार चीनी-अमेरिकी जैव रसायनविद ज़िजियान जेम्स चेन को दिया गया है। इस वर्ष का लास्कर ब्लूमबर्ग लोकसेवा पुरस्कार कुरैशा अब्दुल करीम और सलीम अब्दुल करीम को संयुक्त रूप से दिया गया है। दोनों ही अध्येता कोलंबिया युनिवर्सिटी में रोग प्रसार विज्ञान के विशेषज्ञ हैं।

साल 2024 का एबेल पुरस्कार फ्रांसीसी गणितज्ञ मिशेल पियरे टैलाग्रेंड को दिया गया है। उन्हें यह सम्मान गणितीय भौतिकी और सांख्यिकी में संभाव्यता सिद्धांत व कार्यात्मक विश्लेषण में विशेष योगदान के लिए मिला है।

अजरबैजान की राजधानी बाकू में 29वाँ संयुक्त राष्ट्र वार्षिक शिखर सम्मेलन हुआ। इसमें जलवायु परिवर्तन के लिए उत्तरदायी विभिन्न मुद्दों पर चर्चा हुई। सबसे ज़्यादा ज़ोर जलवायु वित्त पोषण पर रहा। सम्मेलन को दी फाइनेंस कॉप नाम दिया गया है। सम्मेलन में विकसित और विकासशील देशों के बीच गहरे मतभेदों के कारण प्रमुख मुद्दों पर प्रगति अवरुद्ध रही।

वर्ष 2024 ‘इंटरनेशनल ईयर ऑफ कैमेलिड्स’ के रूप में मनाया गया। संयुक्त राष्ट्र के आव्हान पर अंतर्राष्ट्रीय ऊँट वर्ष मनाने का मुख्य उद्देश्य पारिस्थितिकी तंत्र की सुरक्षा, जैव विविधता संरक्षण, खाद्य सुरक्षा और जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में ऊँट की अहम भूमिका उजागर करना था। 

इस वर्ष अमेरिकन केमिकल सोसायटी द्वारा प्रकाशित पत्रिका केमिकल रिव्यूज़ के सौ साल पूरे हुए। यह रसायन विज्ञान का शीर्षस्थ जर्नल है, जिसका प्रकाशन 1924 में शुरू हुआ था।

इसी साल 25 नवंबर को दक्षिण कोरिया के बुसान में आयोजित संयुक्त राष्ट्र वैश्विक प्लास्टिक संधि पर आयोजित वार्ता में दुनिया भर के देशों के प्रतिनिधि जुटे। इस बार कुछ प्रस्तावों पर सहमति दिखाई दी, लेकिन महत्त्वपूर्ण मुद्दे नहीं सुलझे और वार्ता बिखर गई।

इसी साल मेक्सिको में चुनाव संपन्न हुए, जिसमें देशवासियों ने पहली बार महिला वैज्ञानिक क्लॉडिया शीनबॉम को राष्ट्रपति चुना। उन्होंने वैज्ञानिक से राष्ट्रपति पद तक पहुंचने के सफर में कई चुनौतियों का सामना किया है।

स्मृतिशेष

साल 2024 में हमने कई नोबेल पुरस्कार विजेताओं को खो दिया। 8 अप्रैल को ब्रिटिश भौतिकशास्त्री और तथाकथित गॉड पार्टिकल के खोजकर्ता पीटर हिग्ज़ का निधन हो गया। उन्हें 2013 में भौतिकशास्त्र के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

अतिचालकता सिद्धांत के अनुसंधानकर्ता लियान कूपर का 23 अक्टूबर को 94 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्हें इस क्षेत्र में विशेष योगदान के लिए 1972 में नोबेल सम्मान मिला था।

इसी वर्ष 4 अगस्त को विख्यात भौतिकीविद प्रोफेसर त्संग दाओ ली का 97 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्हें 1957 में भौतिकी का नोबेल सम्मान मिला था। वे सबसे कम उम्र में नोबेल पुरस्कार के लिए चुने गए दूसरे वैज्ञानिक थे। उन्होंने कण भौतिकी में विशेष योगदान दिया था। 

स्वीडिश जैव रसायनज्ञ बेंग्ट सैमुएलसन की 5 जुलाई और जे. रॉबिन वारेन की 23 जुलाई को मृत्यु हो गई। दोनों वैज्ञानिकों को चिकित्सा विज्ञान के लिए नोबेल पुरस्कार दिया गया था।

17 अक्टूबर को चिकित्सा विज्ञान में नोबेल विजेता एंड्रयू वी. स्काली का देहांत हो गया। उन्होंने दो दशकों तक मस्तिष्क में मौजूद हारमोन की भूमिका पर अनुसंधान किया था। उन्हें इस शोधकार्य के लिए 1975 में अल्बर्ट लास्कर पुरस्कार और 1977 में चिकित्सा विज्ञान का नोबेल सम्मान प्रदान किया गया था। (स्रोत फीचर्स)

पर्यावरणः कब मिलेगी एकल उपयोगी प्लास्टिक से मुक्ति?

 - प्रमोद भार्गव

पर्यावरण के बढ़ते संकट के लिए जिम्मेदार कारकों में से एक एकल उपयोगी प्लास्टिक के उत्पादन व खरीद-बिक्री पर विश्वभर में पिछले 1 जुलाई से प्रतिबंध लग गया है। आयात और निर्यात पर भी रोक लगा दी गई है। एकल उपयोगी अर्थात सिंगल यूज प्लास्टिक ऐसी प्लास्टिक हैं, जिससे बनी चीजें केवल एक बार उपयोग में लाई जाती है और फिर फेंक दी जाती हैं। यहीं पर्यावरण के लिए सबसे ज्यादा नुकसानदेह साबित हो रही है। नतीजतन इस तरह के 19 नगों पर रोक लगा दी गई है। यदि कोई भी निर्माता इन उत्पादों का निर्माण करता है, तो उसे सात साल की सजा और एक लाख रुपये तक का जुर्माना भरना पड़ सकता है। हालाँकि इस कानून की धारा 15 में चिप्स और गुटखे की थैली को लेकर कोई स्पष्ट संकेत नहीं है। एक व्यक्ति हर साल 18 ग्राम एकल उपयोगी प्लास्टिक कचरा पैदा करता है। ये खतरनाक इसलिए है, क्योंकि ये न तो पूरी तरह नष्ट होते हैं और न ही इन्हें जलाकर नष्ट किया जा सकता है। इनके टुकड़े पर्यावरण में जहरीले रसायन छोड़ते हैं, जो इंसानों और जानवरों के लिए खतरनाक होते हैं। साथ ही इनका कचरा बारिश के पानी को जमीन के नीचे जाने से रोकता है, जिससे जल का स्तर नहीं बढ़ पाता है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मुताबिक देश में प्रतिदिन 26 हजार टन प्लास्टिक कचरा निकलता है। 

मानव जीवन-शैली का अनिवार्य हिस्सा बन गया प्लास्टिक पर्यावरणीय संकट के साथ मनुष्य के जीवन के लिए भी बड़ा खतरा बनकर उभरा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने ‘मन की बात’ कार्यक्रम में प्लास्टिक कचरे से मुक्ति का अभियान छेड़ने का शंखनाद किया था, जिसपर अब प्रतिबंध लगा दिया गया है। इनमें खासतौर से पेयजल और शीतल पेय के अलावा दैनिक उपयोग में लाई जाने वाली वे प्लास्टिक की थैलियाँ हैं, जिनके आसान विकल्प उपलब्ध हैं। इसके अलावा कान साफ करने की सलाई भोजन करने की थाली, ग्लास, चाकू, काँटे व चम्मच, झंडे गुब्बारे व आइसक्रीम की छड़ी और रैपर पर्यावरण ही नहीं मनुष्य और पशुधन के जीवन के लिए भी यह बड़ा संकट बनकर पेश आई है, क्योंकि येन-केन-प्रकारेण प्लास्टिक खान-पान की चीजों के साथ पेट में पहुँच रही है। इससे जहाँ मनुष्य आबादी बीमारी की गिरफ्त में आ रही है, वहीं गाय जैसे मवेशी बड़ी संख्या में प्लास्टिक खाकर जान गँवा रहे है। जाहिर है, जरूरत से ज्यादा प्लास्टिक का इस्तेमाल पर्यावरण के साथ-साथ जीव-जगत के लिए भी संकट बन गया है।  

  हिमालय से लेकर धरती का हर एक जलस्रोत इसके प्रभाव से प्रदूषित है। वैज्ञानिकों का तो यहाँ तक दावा है कि अंतरिक्ष में कबाड़ के रूप में जो 17 करोड़ टुकड़े इधर-उधर भटक रहे हैं, उनमें बड़ी संख्या प्लास्टिक के कल-पुर्जों की है।  एक और नए ताजा शोध से ज्ञात हुआ है कि दुनियाभर के समुद्रों में 50 प्रतिशत कचरा केवल उन कॉटन बड्स का है, जिनका उपयोग कान की सफाई के लिए किया जाता है। इन अध्ययनों से पता चला है कि 2050 आते-आते समुद्रों में मछलियों की तुलना में प्लास्टिक कहीं ज्यादा होगा। भारत के समुद्रीय क्षेत्रों में तो प्लास्टिक का इतना अधिक मलबा एकत्र हो गया है कि समुद्री जीव-जंतुओं को जीवन-यापन करना संकट साबित होने लगा है। ध्यान रहे कि एक बड़ी आबादी समुद्री मछलियों को आहार बनाती है। 

एक अनुमान के मुताबिक प्रति वर्ष 31.1 करोड़ टन प्लास्टिक का उत्पादन किया जाता है। यही वजह है कि समूचा ब्रह्माण्ड प्लास्टिक कचरे की चपेट में है। जब भी हम प्लास्टिक के खतरनाक पहलुओं के बारे में सोचते हैं, तो एक बार अपनी उन गायों की ओर जरूर देखते हैं, जो कचरे में मुँह मारकर पेट भरती दिखाई देती हैं। पेट में पॉलिथिन जमा हो जाने के कारण मरने वाले पशुधन की मौत की खबरें भी आए दिन आती रहती हैं। यह समस्या भारत की ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया की है। यह बात भिन्न है कि हमारे यहाँ ज्यादा और खुलेआम दिखाई देती है। एक तो इसलिए कि स्वच्छता अभियान कई रूपों में चलाए जाने के बावजूद प्लास्टिक की थैलियों में भरा कचरा शहर, कस्बा और गाँव की बस्तियों के नुक्कड़ों पर जमा मिल जाता है। यही बचा-खुचा कचरा नालियों से होता हुआ नदी, नालों, तालाबों से बहकर समुद्र में पहुँच जाता है। एडवांसेज नामक शोध-पत्रिका में छपे अध्ययन में बताया है कि आर्कटिक समुद्र के बढ़ते जल में इस समय 100 से 1200 टन के बीच प्लास्टिक हो सकता है। वैसे जेआर जाम बैंक का दावा है कि समुद्र की तलहटी में 5 खरब प्लास्टिक के टुकड़े जमा हैं। यही वजह है कि समुद्री जल में ही नहीं मछलियों के उदर में भी ये टुकड़े पाए जाने लगे हैं। सबसे ज्यादा प्लास्टिक ग्रीनलैंड के पास स्थित समुद्र में मौजूद हैं। यही टुकड़े मांसाहार और पेयजल के जरिए मनुष्य के पेट में चले जाते हैं। 

प्लास्टिक की समुद्र में भयावह उपलब्धि की चौंकाने वाली रिपोर्ट ‘यूके नेशनल रिसोर्स डिफेंस काउंसिल’ ने भी जारी की है। इस रिपोर्ट के मुताबिक प्रत्येक वर्ष दुनिया भर के सागरों में 14 लाख टन प्लास्टिक विलय हो रहा है। सिर्फ इंगलैंड के ही समुद्रों में 50 लाख करोड़ प्लास्टिक के टुकड़े मिले हैं। प्लास्टिक के ये बारीक कण (पार्टिकल) कपास-सलाई (कॉटन-बड्स) जैसे निजी सुरक्षा उत्पादों की देन हैं। ये समुद्री सतह को वजनी बनाकर इसका तापमान बढ़ा रहे हैं। समुद्र में मौजूद इस प्रदूषण के समाधान की दिशा में पहल करते हुए इंग्लैंड की संसद ने पूरे देश में पर्सनल केयर प्रोडक्ट के प्रयोग पर प्रतिबंध का प्रस्ताव पारित किया है। इसमें खासतौर से उस कपास-सलाई का जिक्र है, जो कान की सफाई में इस्तेमाल होती है। प्लास्टिक की इस सलाई में दोनों और रूई के फाहे लगे होते हैं। इस्तेमाल के बाद फेंक दी गई यह सलाई सीवेज के जरिए समुद्र में पहुँच जाती हैं। गोया, दुनिया के समुद्रों में कुल कचरे का 50 फीसदी इन्हीं कपास- सलाइयों का है। इंग्लैंड के अलावा न्यूजीलैंड और इटली में भी कपास-सलाई को प्रतिबंधित करने की तैयारी शुरू हो गई है। दुनिया के 38 देशों के 93 स्वयंसेवी संगठन समुद्र और अन्य जल- स्रोतों में घुल रही प्लास्टिक से छुटकारे के लिए प्रयत्नशील हैं। इनके द्वारा लाई गई जागरूकता का ही प्रतिफल है कि दुनिया की 119 कंपनियों ने 448 प्रकार के व्यक्तिगत सुरक्षा उत्पादों में प्लास्टिक का प्रयोग पूरी तरह बंद कर दिया है। अपनी नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए आठ यूरोपीय देशों में जॉनसन एँड जॉनसन भी कपास-सलाई की बिक्री बंद करने जा रही है।

प्रदूषण से जुड़े अध्ययन यह तो आगाह कर रहे हैं कि प्लास्टिक कबाड़ समुद्र द्वारा पैदा किया हुआ नहीं है। यह हमने पैदा किया है, जो विभिन्न जल- धाराओं में बहता हुआ समुद्र और नदियों में पहुँचा है। इसलिए अगर इनमें प्लास्टिक कम करना है, तो हमें धरती पर इसका इस्तेमाल कम करना होगा। पानी में प्रदूषण दरअसल हमारी धरती के ही प्रदूषण का विस्तार है, किंतु यह हमारे जीवन के लिए धरती के प्रदूषण से कहीं ज्यादा खतरनाक साबित हो सकता है। माइक्रो प्लास्टिक को लेकर आई रिपोर्ट की गंभीरता को इस बात से समझा जा सकता है कि अगर कोई इंसान सिर्फ बोतलबंद पानी पीता है, तो भी एक साल में उसके शरीर में 90,000 प्लास्टिक के टुकड़े पहुँच सकते हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि 130 माइक्रोमीटर से छोटे प्लास्टिक के कणों में यह क्षमता है कि वह मानव ऊतकों को विस्थापित करके शरीर के उस हिस्से की प्रतिरक्षा प्रणाली को कमजोर कर देता है। इसी तरह यूनिवर्सिटी ऑफ ईस्ट एंगालिया में इकोलॉजी के प्रोफेसर एलेस्टयर ग्रांड ने बताया है कि साँस के जरिए शरीर में जाने वाली प्लास्टिक का बहुत छोटा कण ही फेफड़ों में पहुँच पाता है। जो साँस की तकलीफ पैदा कर सकता है।

प्लास्टिक के इन टुकड़ों के मनुष्य पर प्रभाव से बचने का प्रमुख उपाय यही है कि उपयोग में लाने के बाद प्लास्टिक के हरेक टुकड़े को इकट्ठा कर उसे पुनश्चक्रित किया जाए। विश्व आर्थिक संगठन के अनुसार दुनियाभर में हर साल 311 टन प्लास्टिक बनाया जा रहा है। इसमें से केवल 14 प्रतिशत प्लास्टिक को पुनश्चक्रित करना संभव हुआ है। भारत के केंद्रीय रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय महानगरों में प्लास्टिक कचरे का पुनश्चक्रित कर बिजली और ईंधन बनाने में लगा है। साथ ही प्लास्टिक के चूर्ण से शहरों और ग्रामों में सड़कें बनाने में सफलता मिल रही है। आधुनिक युग में मानव की तरक्की में प्लास्टिक ने अमूल्य योगदान दिया है। इसलिए कबाड़ के रूप में जो प्लास्टिक अपशिष्ट बचता है, उसका पुनश्चक्रण करना जरूरी है; क्योंकि प्लास्टिक के यौगिकों की यह खासियत है कि ये करीब 400 साल तक नष्ट नहीं होते हैं। इनमें भी प्लास्टिक की ‘पॉली एथलीन टेराप्थलेट’ ऐसी किस्म है, जो इससे भी ज्यादा लंबे समय तक जैविक प्रक्रिया शुरू होने के बावजूद नष्ट नहीं होती है। इसलिए प्लास्टिक का पुनर्चक्रण कर इससे नए उत्पाद बनाने और इसके बाद भी बचे रह जाने वाले अवशेषों को जीवाणुओं के जरिए नष्ट करने की जरूरत है।

यदि भारत में कचरा प्रबंधन सुनियोजित और कचरे का पुनश्चक्रण उद्योगों की शृंखला खड़ी करके शुरू हो जाए, तो इस समस्या का निदान तो संभव होगा ही रोजगार के नए रास्ते भी खुलेंगे। भारत में जो प्लास्टिक कचरा पैदा होता है, उसमें से 40 प्रतिशत का आज भी पुनर्चक्रण नहीं हो पा रहा है। यही नालियों सीवरों और नदी-नालों से होता हुआ समुद्र में पहुँच जाता है। प्लास्टिक की विलक्षण्ता यह भी है कि इसे तकनीक के मार्फत पाँच बार से भी अधिक मर्तबा पुनर्चक्रित किया जा सकता है। इस प्रक्रिया के दौरान इससे वैक्टो ऑयल भी सह उत्पाद के रूप में निकलता है, इसे डीजल वाहनों में ईंधन के रूप में प्रयोग किया जा सकता है। अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और जापान समेत अनेक देश इस कचरे से ईंधन प्राप्त कर रहे हैं। ऑस्ट्रेलियाई पायलेट रॉसेल ने तो 16 हजार 898 कि.मी. का सफर इसी ईंधन को विमान में डालकर विश्व-कीर्तिमान स्थापित किया है। गोया, प्लास्टिक वस्तुओं के बेवजह उपयोग पर प्रतिबंध तो लगे ही, इसे पुनर्चक्रित करके इसके सह-उत्पाद भी बनाए जाएँ। बहरहाल, प्रधानमंत्री की मुहिम इस दिशा में जरूर रंग लाएगी। ■

किताबेंः लघुकथा विधा का व्यापक विश्लेषण

 -  रश्मि विभा त्रिपाठी

‘लघुकथा: चिंतन एवं सृजन’ (लघुकथा- संग्रह): सम्पादक-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, पृष्ठ: 120, मूल्य: 300 रुपये, ISBN: 978-93-6423-599-0, प्रथम संस्करण: 2024, प्रकाशक: अयन प्रकाशन, जे–19/39, राजापुरी, उत्तम नगर, नई दिल्ली–110059

लघुकथा एक ऐसी विधा है जो अपने आकार में लघु होने के बावजूद अपने अस्तित्व में विराट है और अपनी लघुता में वृहद् विचारों, संवेदनाओं और जीवन- जगत के विविध अनुभवों को शब्दबद्ध करने की अद्भुत क्षमता रखती है, जहाँ शब्दों की संक्षिप्तता में गहन अर्थ समाहित होते हैं। 

पुस्तक के पुरोवाक् में सम्पादक ‘हिमांशु’ लघुकथा की सृजन- प्रक्रिया पर महत्त्वपूर्ण चिंतन प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं कि लघुकथा एक ऐसी यात्रा है, जिसमें शब्दों के मितव्ययी उपयोग से गहन भावनाओं और विचारों को व्यक्त करते हुए लेखकीय गंतव्य तक पहुँचा जा सकता है। शीर्षक और कथा की आत्मा को जोड़ती लघुकथा वाच्यार्थ से परे जाकर व्यंग्यार्थ के माध्यम से गहरे अर्थ प्रदान करती है, सपाटबयानी वाली रचना नहीं।

रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ अपने अनुशीलन ‘लघुकथा लेखन और रचनात्मकता’ में लेखन और रचनात्मकता के बीच का अंतर स्पष्ट करते हुए लेखन हेतु लेखकीय परिपक्वता पर जोर देते हुए कहते हैं कि लेखन विचारों को शब्दों में पिरोना नहीं है, उसमें रचनात्मकता होनी चाहिए। और रचनात्मकता तभी आती है, जब लेखक विषयवस्तु को आत्मसात् कर उसे नवीन दृष्टिकोण और शिल्प से प्रस्तुत करता है।

‘हिन्दी लघुकथा में प्रतिबिंबित पारिवारिक जीवन’ लेख के अंतर्गत लघुकथा में पारिवारिक सम्बन्धों, मूल्यों और बदलावों पर पड़ी डॉ. शिवजी श्रीवास्तव की चिंतन दृष्टि है, जिसे लघुकथाकारों ने अपना विषय बनाकर हिन्दी लघुकथा में अभिव्यक्त किया है। पारिवारिक जीवन की जटिलताओं को समझने और हिन्दी लघुकथा के सामाजिक संदर्भ में उसकी प्रासंगिकता बताता यह लेख न केवल साहित्यिक दृष्टिकोण से, बल्कि सामाजिक संरचना के अध्ययन में भी महत्त्वपूर्ण है।

डॉ. कुँवर दिनेश सिंह के लेख ‘हिन्दी लघुकथा: शिल्प एवं सम्प्रेषण-कला’ में लघुकथा की संरचना, शिल्प और उसकी सम्प्रेषणीयता पर उनका गहन चिंतन है। इस लेख से हमें ज्ञात होता है कि कैसे लघुकथा में भाषा, प्रतीक और व्यंजना का सटीक और कुशल प्रयोग किया जाता है जिसके फलस्वरूप यह पाठकों के मन-मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव डालती है और किस प्रकार सामाजिक, सांस्कृतिक संदर्भ इसे प्रभावशाली बनाते हैं। यह लेख इंगित करता है कि लघुकथा में न केवल कथानक की गहराई होनी चाहिए, बल्कि उसमें पाठकों के साथ भावनात्मक और बौद्धिक स्तर पर जुड़ने की क्षमता भी होनी चाहिए। लघुकथा के शिल्प और सम्प्रेषण- कला को जानने के लिए यह लेख एक सहायक- सामग्री है।

 ‘बंद दरवाज़ा’ (मुंशी प्रेमचंद) में प्रतीकात्मकता के माध्यम से परिवार और समाज में व्यक्ति के अवसरों और संभावनाओं के मार्ग की ओर संकेत है। ‘पानी की जाति’ (विष्णु प्रभाकर) जाति, धर्म और मानवता में अग्रणी कौन है, इसे व्यक्त करते हुए संकेत करती है कि जीवन में अवरोध पैदा करती समाज की धार्मिक और जातीय विभाजन रेखा से पहले मानवता को रखा जाना चाहिए।

लघुकथा ‘अश्लील पुस्तकें’ (हरिशंकर परसाई) मानवीय व्यवहार पर व्यंग्य करती है और दिखाती है कि मनुष्य की कथनी और करनी में कितना बड़ा अंतर है।

‘पाठ’ (सुकेश साहनी) किशोर- प्रेम की एक संवेदनापरक लघुकथा है। पात्र पाखी के अपने प्रति बढ़ते आकर्षण को महसूस कर शिक्षक को अपने साथी शिक्षकों के किस्से याद आते हैं लेकिन जब पाखी अपने प्यार का इज़हार करती है- “इस जन्म में मुझे डैडी का प्यार नहीं मिला” तो वह किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा रह जाता है, “अब आईना मुझे देखे जा रहा था” में शिक्षक को किशोर मनोविज्ञान का पाठ पढ़ने का संदेश है।

‘ऊँचाई’ (रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’) में जीवन में परिवार की महत्ता और पारिवारिक रिश्तों के ताने-बाने का प्रभावी चित्रण है, मुख्य पात्र के भीतरी संघर्ष और पत्नी की तमतमाहट से उपजा एक मानसिक तनाव है, जिसे पिता की चिंता जड़ से मिटा देती है। लघुकथाकार ने उस क्षण की संवेदना को इतनी बारीकी से पकड़ा है कि पाठक खुद को उसमें बँधा हुआ महसूस करता है।

‘संवेदनाओं का डिजिटल संस्करण’ (डॉ. सुषमा गुप्ता) मानव मन पर आधुनिक तकनीक का प्रभाव दर्शाते हुए डिजिटल युग में रिश्तों की स्थिति का असल आकलन करती है। मुख्य पात्र पिता की बीमारी और मृत्यु का समाचार फेसबुक पर अपडेट कर पिता के प्रति अपना भावनात्मक जुड़ाव दर्शाता है और दवाइयों की प्रतीक्षा करती माँ को नज़रअंदाज कर यह दिखाता है कि कैसे आभासी पटल पर व्यक्त भावनाओं ने मन में जगह ले ली है और असली रिश्ते जीवन से गायब हो गए

‘सिसकी’ (डॉ. कविता भट्ट) स्त्री की मातृत्व की आकांक्षा और समाज के दबाव को दर्शाती है। कमला और उसकी सास का संवाद दर्शाता है कि समाज किस प्रकार एक महिला के अस्तित्व को उसकी प्रजनन क्षमता से जोड़ता है। सोशल मीडिया पर ‘बेटी बचाओ’ का नारा देने वाला कमला का अपने वास्तविक कर्त्तव्यों से विमुख शान्ति, स्त्री का व्यक्तिगत संघर्ष, व्यापक सामाजिक संरचनाओं के खिलाफ एक मौन विद्रोह और अंततः यह सोचकर कि काश उसके ऐसी बच्ची होती, अपनी सिसकी से बेटी का महत्त्व रेखांकित करती है।

‘भविष्य’ (डॉ. उपमा शर्मा) में आज की चिकित्सा शिक्षा प्रणाली का नैतिक पतन है कि कैसे संस्थाएँ नैतिकता को तिलांजलि देकर भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। संस्थागत नियम- व्यवहार के विपरीत शिक्षा और स्वास्थ्य का व्यवसायीकरण हो रहा है।

‘भूकम्प’ (प्रियंका गुप्ता) में गहन मानवीय संवेदना और नैतिक द्वंद्व का बखान है। पति की आत्मकेंद्रितता, पत्नी की चिंता और आपदा के भय के बीच अपने पिता की देखभाल करके थक चुके व्यक्ति की भावना है। अपनी स्वार्थी भावनाओं के प्रति झुके बेटे को उसकी पत्नी बताती है कि उसका बच्चा घर के भीतर है। अंततः बच्चे को गोद में लेकर व्हीलचेयर पर बाहर आते पिता को देखकर वह उनकी ओर लौटता है और जीवन- मूल्य और पारिवारिक दायित्वों का बोध करता है। ‘चकोर’ (रचना श्रीवास्तव) सच्चे मानवीय सम्बन्धों और प्रेम के चरम की एक सशक्त कथा है। “अब कभी यहाँ नहीं आना है” के बाद लड़के का फिर से लड़की को देखने के लिए आना सिद्ध करता है कि प्रेम दैहिक आकर्षण से नहीं, आत्मीय जुड़ाव से होता है।

‘कुछ नहीं खरीदा’ (सुदर्शन रत्नाकर) उपभोक्तावाद और मानवीय विचार का अंतर्विरोध दर्शाती है। समुद्र तट पर अपने बेटे के साथ बैठी महिला वहाँ के मूल निवासियों की स्थिति को देखकर विचार करती है और महिला के बेटे की बात -“आपने भी तो कुछ नहीं खरीदा” आत्ममंथन द्वारा विचार की क्रियान्विति पर बल देती है।

सुभाष नीरव की लघुकथा ‘धूप’ अपने उच्च पद के कारण जीवन के सरल आनंद से वंचित एक अधिकारी के माध्यम से वैयक्तिक मानसिकता और सामाजिक मानदंडों की पड़ताल करती है। इस ‘धूप’ में हम देखते हैं कि सामाजिक मानदंडों के चलते हम कितनी बार अपने वास्तविक आनंद को भुला देते हैं और उसे पाने में हिचकिचाते हैं।

‘गैप’ (कृष्णा वर्मा) में स्त्री के प्रति परिवार, समाज का पारंपरिक दृष्टिकोण है, जो उसकी अपनी पसंद का जीवन जीने की इच्छा को दबाता है।

‘प्राइमरी स्कूल’ (मीनू खरे) में एक सरकारी विद्यालय के प्रधानाध्यापक का अपने विद्यालय का स्तर सुधारने और उसे पब्लिक स्कूलों के समकक्ष लाने का प्रयास है जो व्यवस्था तंत्र, राजनीतिक और सामाजिक दबाव के कारण विफल हो जाता है। 

यह पुस्तक न केवल लघुकथा के स्वरूप, बल्कि महत्त्वपूर्ण लेखों, संदर्भित सशक्त लघुकथाओं के आधार पर लघुकथा विधा की प्रक्रिया का व्यापक विश्लेषण और उसके प्रभावी पहलुओं का समग्र चिंतन है। ■

कहानीः इश्क का रंग ग्रे

 - डॉ. रंजना जायसवाल

मोबाइल पर लगातार घण्टी बज रही थी। कमरे में सन्नाटा पसरा हुआ था। कमरे की मालकिन मधु जी बाथरूम में थीं। घण्टी की आवाज सुन एक पल को वह हड़बड़ा गईं। चेहरे पर साबुन लगा हुआ था। उनके हाथ रुक गए। चेहरे पर साबुन का झाग बुलबुलों के रूप में चेहरे पर बिखरा यहाँ-वहाँ आँख-मिचौली कर रहा था। वह सोच में पड़ गईं, इस वक्त किसका फोन हो सकता है।

मधु जी ने चेहरे पर लगे फेसवाश को धोया और भीगी आँखों और चेहरे को तौलिए से पोंछते हुए बाथरूम से बाहर निकल आईं।

“आ रही हूँ, लोगों को जरा भी सब्र नहीं है,”  मधु जी ने गीले हाथों को तौलिए से पोंछते हुए कहा।

पर उस कमरे में उनके सिवा था ही कौन… बगल वाले में कमरे से टी वी की तेज़ आवाज़ आ रही थी। अशोक जी मैच देखने में मशगूल थे। डे-नाइट क्रिकेट मैच चल रहे थे। कमेंट्रेटर गला फाड़-फाड़ खिलाड़ियों और दर्शकों का उत्साहवर्धन कर रहा था। तालियों की तेज गड़गड़ाहट से पूरा माहौल बना हुआ था। तभी…

“शिट! क्या जरूरत थी खेलने की। सम्भ- सम्भलकर खेलने का समय था। बताओ अच्छ- खासी सेंचुरी रुक गई। धत तेरे की…”

मधु जी का ध्यान मोबाइल से हट अशोक जी के प्रलाप पर आकर टिक गया। मोबाइल कट चुका था। अशोक जी की आवाज़ में झुँझलाहट थी। उन्होंने गुस्से में टी वी बन्द कर दिया; पर उनकी बड़बड़ाहट की आवाज़ अभी तक आ रही थी। मधु जी ने अपने कमरे का दरवाजा बंद कर लिया और सोचने लगीं इससे बेहतर तो मैच ही था।

मधु जी की आँखें मेज पर पड़े आज के अखबार पर गईं जो अशोक जी के हाथों से गुजरता हुआ अब उनके हाथों में आया था। पन्ने बेतरतीब से पड़े एक-दूसरे से गुत्थम- गुत्था कर रहे थे। अखबार की यह हालत देख वे असहज हो गई थीं। उन्होंने वक्त के साथ बूढ़ी होती जा रही उँगलियों से एक-एक पन्ने को सहेजा और एक सरसरी निगाह बासी पड़ चुकी ख़बरों पर डाली। दिन भर अशोक जी के हाथों के साथ मशक्कत कर अखबार जगह-जगह से मुड़-तुड़ गया था। मधु जी ने अशोक जी के व्यवहार और उँगलियों का खुरदरापन बेतरतीब पड़े पन्नों में महसूस किया।

शादी के पहले घर में सबसे पहले वे अखबार पढ़ती थीं। एक-एक पन्ने से उठती ताजे अखबार की खुशबू उन्हें बहुत लुभाती थी; पर  इन बीते तीस सालों में अशोक जी के साथ बिताए पलों में वह खुशबू गायब हो चुकी थी। सबसे पहले अखबार अशोक जी ही पढ़ते थे। घर की जिम्मेदारियों और अपने आप को एक सफल गृहिणी सिद्ध करने की कोशिश में सारा दिन पंख लगाकर उड़ जाता और अखबार की वह ताजी खुशबू भी समय के साथ उड़ जाती। पन्नों को सहेजते- सहेजते एक खबर पर उनकी निगाह रुक गई-  बुढ़ापा शांति से काटने की चाहत में बढ़ रहे हैं, “ ग्रे तलाक”...

ग्रे तलाक! मधु जी की कौतूहलता बढ़ती गई। उन्होंने अंदर की ख़बरों को पढ़ना शुरू किया। एक दंपति ने शादी के तैंतीस साल बाद म्युचुअल तलाक लिया। बच्चों की पढ़ाई और शादी हो जाने के लिए वे एक साथ रह रहे थे लेकिन जब उनकी यह जिम्मेदारियाँ पूरी हो गईं तब उन्हें यह एहसास हुआ कि वह एक-दूसरे के लिए बने ही नहीं हैं। उनका मानना है कि परिवार की खुशी के लिए वे अब तक साथ रहे; पर  अब वह बुढ़ापा शांति से काटना चाहते हैं। मधु जी ने एक गहरी साँस ली और अखबार को वहीं छोड़ टी वी ऑन कर दिया।

मधु जी की आँखें टी वी पर चिपक गईं। उनकी पसंदीदा सिने तारिका का गाना आ रहा था। उन्होंने कमरे की लाइट बन्द कर दी और साइड लैंप जला दिया। कमरे में फैले हल्के अँधेरे में मद्धिम रौशनी एक खुशनुमा एहसास के साथ बिखर गई। ए. सी.की ठंडी हवा का झोंका उनके तन को सहला गया। उन्होंने रिमोट से वॉल्यूम का बटन दबाकर आवाज मद्धिम की और गाने का आनन्द लेने लगीं। स्वरलहरियाँ हवा के पंखों पर सवार हो पूरे कमरे में फैल गईं।

सिने तारिका ने सुर्ख लाल रंग की साड़ी तन पर लपेट रखी थी। सर पर ऊँचा जूड़ा,तराशे हुए तीर कमान भवें, रँगे हुए होंठ और साड़ी से मैच करता सुर्ख खिलता हुआ गुलाब जूड़े में टँका शरारती बच्चे की तरह ताका- झाँकी कर रहा था। मधु जी एकटक उस तारिका को देख रहीं थी। उन्हें अपनी फेयरवेल पार्टी याद आ गई थी।

“चल तुझे तेरी पसंदीदा हिरोइन की तरह तैयार करती हूँ। सब देखते रह जाएँगे।”

सच ही तो कहा था बुआ जी ने… सहेलियों ने उसकी जान खा ली थी।

“तुझे पक्का हमारी ही नज़र लग जाएगी,” दूसरी ने छेड़ते हुए कहा था।

“आज तो लड़कों की खैर नहीं।”

वह शायद पहली और आखिरी बार था, जब उन्होंने जूड़ा बनाया था। अशोक जी को उनका जूड़ा बनाना पसन्द नहीं था।

“भगवान ने इतने सुंदर बाल दिए हैं, ये क्या जूड़ा बनाकर खड़ी हो गई हो। चोटी बनाया करो।”

मधु जी का चेहरा उतर गया था। शादी के पहले सजने-सँवरने का उन्हें कितना शौक था। लेटस्ट फैशन के कपड़ों से उनकी अलमारियाँ भरी रहती थीं। अपनी शादी में भी दो-दो अटैचियाँ भरकर एक से बढ़कर एक कपड़े लाई थीं। शोख-चटख रंग के कपड़े, आँखें चौधियाँ जाए।

आज भी उन्हें वह दिन याद है। शादी को हफ्ते भर ही हुए थे। दोस्तों ने नव युगल के लिए पार्टी का इंतजाम किया था। मधु जी ने सुबह से ही प्लानिग कर रखी थी। वो लाल कांजीवरम के साथ लम्बा वाला सोने का हार और झुमके पहनूँगी। अशोक जी ऑफिस से अभी तक नहीं आए थे। मधु जी अशोक जी के ऑफिस से आने से पहले ही तैयार होकर बैठ गई थीं। पुरुषों का क्या है, बस वही पेंट-शर्ट पहनकर हर जगह खड़े हो जाएँगे। मुश्किल से दस मिनट लगेंगे; पर उन्हें तो कायदे से तैयार होना था। आखिर पहली बार अशोक जी के दोस्तों से मिल रही थीं। शादी में मिलना भी कोई मिलना होता है। आज सबसे व्यक्तिगत मुलाकात हो जाएगी तो जान-पहचान बढ़ाने में आसानी होगी।

मधु जी में बड़ा उत्साह था। आज मन भर के उन्होंने श्रृंगार किया था। माथे पर नग वाली बिंदी, आई ब्रो पेंसिल से भवों को पैना किया था। गाल गुलाब हो रहे थे और शरारती झुमके बार-बार उन गालों को चूम ले रहे थे। मधु जी न जाने क्या सोच अपने ही रूप को देख शरमा गई थीं। उन्हें पूर्ण विश्वास था कि अशोक जी उन्हें देखकर सरप्राइज हो जाएँगे।

“सरप्राइज!”

“ये क्या हाल बना रखा है। तुम शायद भूल रही हो कि तुम अशोक गुप्ता की पत्नी हो। ये लाल- पीले रंग की साड़ी, क्या किसी शादी में जा रही हो।”

“हमारी अभी-अभी शादी हुई है। नई दुल्हन पर यही सब रंग अच्छे लगते हैं,” मधु जी ने रुआँसे होते हुए कहा था।

“नई शादी! तो क्या ढोल पीट-पीटकर सबको बताओगी। वैसे भी बताना किसे है, सबको पता है।”

एक हफ्ते पुराने दूल्हे के मुँह से ऐसी बात सुन मधु जी हतप्रभ रह गईं।

“मेरे पास तो ऐसे ही कपड़े हैं।”

“हमारी तरफ से जो कपड़े चढ़ाए गए थे, वो कहाँ गए?” अशोक जी का स्वर तल्ख हो गया था।

“अभी ब्लाउज-पेटीकोट नहीं बने हैं। वैसे भी इतने फीके रंग कौन दुल्हन पहनती है?”

“सबसे पहले तो तुम अपने दिमाग से यह नई दुल्हन होने का भूत उतार दो और वह फीके रंग नहीं क्लास है। ध्यान रखो मैं एक अच्छे क्लास से बिलॉन्ग करता हूँ। बड़े-बड़े लोगों के साथ उठना-बैठना है मेरा… अपना नहीं तो कम से कम मेरी इज्जत का तो ख्याल करो। अपने मायके में जो चाहे करती होगी; पर  मेरे साथ रहना है तो क्लास मेंटेन करना होगा।”

मधु के सामने अटैची में पड़ी वह खूबसूरत कांजीवरम और बनारसी साड़ियाँ घूम गईं। एक-एक साड़ी चुन-चुनकर ली थी। सारे भारतीय रंग गहरे, शोख और चटख… 

“नई दुल्हन पर यही सब रंग तो फबते हैं,” बुआ जी ने यही कहा था।

अशोक जी को पेस्टल रंग पसंद थे। हल्के फीके से  सिंपल रंग… माँ ने एक बार टोका भी था।

“इस उम्र में यह सब रंग पहनेगी तो बुढ़ापे में क्या पहनेगी। तू तो उम्र से पहले बूढ़ी होती जा रही है।”

जिन रंगों को पहन वह खुशियाँ महसूस करती थी, वह खुशियाँ कहीं गुम हो चुकी थीं। उन्हें आज भी वह दिन याद था। पंडित जी ने कुंडली मिलाई थी छत्तीस में बत्तीस गुण मिले थे। माँ कितनी खुश थी! उनके पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे।

“जोड़ी बड़ी अच्छी रहेगी,” मधु जी ने हँसते हुए कहा था।

“क्या माँ! आप भी किस दुनिया में जीती हैं! आपका बस चलता तो छत्तीस के छत्तीस गुण मिला देतीं। सीता जी के तो छत्तीस के छत्तीस गुण मिले थे, कौन सा सुख मिला, थोड़े कम ही सही।”

“चुप कर! कुछ भी बोलती है। थोड़े कम ही मिले तो अच्छे, लोगों की नजर लग जाती है,” माँ रिश्तेदारों को बताते हुए फिर रही थी। 

“बिटिया की कुंडली बहुत अच्छी मिली है। मधु तो राज करेगी राज…”

सच ही कहा था उन्होंने वह राज ही कर रही थी। समाज की नजर में सुख के जो पैमाने होते हैं, सब कुछ था इस घर में। किसी चीज की कोई कमी नहीं थी; पर  क्या वाकई में उसके जीवन में किसी चीज की कोई कमी नहीं थी। मधु जी अशोक जी के जीवन में घुल सी गई थीं। उनके खुद के शौक, पसन्द, सपने, चाहत क्या थे, वे भूल गई थीं; पर  कब तक…

मधु जी को अचानक याद आया, जब वह बाथरूम में थीं तब किसी का फोन आया था। सुम्मी! मोबाइल पर सुम्मी का मिस्ड कॉल चमक रहा था।

“सुम्मी! इस वक्त? अरे हाँ आज उससे सुबह बात कहाँ हुई थी,” उन्होंने अपने आप से कहा।

“ये लड़की भी न! दिनभर में एक बार बात न कर ले तो इसे चैन नहीं मिलता।”

मधु जी ने नम्बर मिला दिया। शायद फोन उसके हाथ में ही था। एक घण्टी बजते ही उसने फोन उठा लिया।

“क्या मम्मी! कहाँ रहती हैं। मुझे वक्त नहीं मिला तो आपने भी फोन नहीं किया।”

सुम्मी बोलती चली गई, मधु जी मुस्कुराकर रह गईं। ये लड़की आज भी सुपरफास्ट मेल है।

“कपड़ों को धूप लगा रही थी। आज पौधे और गमले लेने गई थी। बस उन्हें लाने-लगाने में समय कब बीत गया, पता ही नहीं चला।”

“अरे वाह! ये शौक कबसे पाल लिया। आपको तो कभी पेड़-पौधे लगाते नहीं देखा। नानी के घर जरूर लगे थे; पर  यहाँ तो एक भी पौधा नहीं था,” सुम्मी बोलती चली गई।

“तेरे पापा को यह सब फालतू की चीज़ें लगती थीं। कौन रोज-रोज पानी डाले और देखभाल करे;  इसलिए कभी लगाया नहीं। शादी से पहले मैं ही लॉन मेंटेन करती थी,”  मधु जी ने बुझे स्वर में कहा।

“पापा ने आपको कुछ कहा नहीं?”

मधु जी ने सुम्मी के सवालों का कोई जवाब नहीं  दिया।

“मम्मी आपने अपनी डी पी बदली है?”

“हाँ बहुत सालों से एक ही लगा रखी थी,” मधु जी ने लापरवाही से कहा।

“पापा के साथ बड़ी प्यारी फोटो थी। आप दोनों एक-दूसरे के साथ कितने अच्छे दिखते हैं। मेड फ़ॉर इच अदर..”

मधु जी ने सुम्मी की बात का कोई जवाब नहीं दिया।

“मम्मी!आप डी पी में कितनी अलग लग रही हैं।”

“ कैसी लग रही हूँ,अच्छी या बुरी…?”

मधु जी ने सवाल दागा। सुम्मी इस सवाल के लिए तैयार नहीं थी।

“अsss…अच्छी, बहुत अच्छी। आपको इस तरह कभी देखा नहीं था न… इसलिए थोड़ा अजीब लगा; पर  आप अच्छी लग रही हैं। एक बात कहूँ, ” सुम्मी की आवाज़ संजीदा हो गई।

“बोलो न…”

“आपको हमेशा पेस्टल रंग के सूती, खादी या लेनिन कपड़े पहनते ही देखा।”

“तेरे पापा को ऐसे ही रंग और कपड़े पसन्द थे।”

“गहरे रंग के कपड़ों में आप बड़ी यंग दिख रही हैं। ये साड़ी कब ली?”

“बहुत पुरानी है, मेरी शादी के समय की। बगल वाली शर्मा जी की बेटी की कल गोद भराई थी। वहीं पहनी थी।”

“आपको हमेशा चोटी में देखा है, जूड़े में पहली बार देख रही हूँ।”

“हम्म…”

सुम्मी कुछ-कुछ समझ रही थी। माँ के जीवन में कुछ बदल रहा था; पर  क्या… मम्मी गहरे रंग के कपड़े पहनने लगी थीं, जूड़ा बनाने लगी थीं। कल की ही तो बात है, लंच में उन्होंने कढ़ी बनाई थी; पर  पापा को तो कढ़ी बिल्कुल पसन्द नहीं थी। फिर…पिछले संडे अपनी सहेली मुक्ता मौसी के साथ फ़िल्म देखने गई थी और लौटते वक्त चौराहे वाले रेस्टोरेंट में खाना खाकर आई थीं।

मम्मी में आया यह परिवर्तन सुखद तो था; पर  पापा?पापा तो चुप रहने वालों में से नहीं थे। घर में क्या बनेगा, रिश्तेदारों को क्यानाना जी सरकारी नौकरी में थे। नौकरी के समय उन्होंने न जाने कितने शहर देखे थे; पर  शादी के बाद वह अपने शहर से नानी के घर के अलावा कहीं नहीं जा पाई थीं।

मम्मी ने इसका कभी विरोध भी नहीं किया। वह पापा के रंग में रँगती चली गईं। शायद प्रतिरोध करने का फायदा भी नहीं था। पापा काफी गुस्सैल स्वभाव के थे। घर की शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए मम्मी चुप रह जाती और उनकी यह चुप रहने की आदत उनकी आदत में शुमार हो गई; पर  सुम्मी की शादी होते ही इन छः महीनों में मधु जी के जीवन में काफी परिवर्तन आया था। सुम्मी इसको शिद्दत से महसूस कर रही थी; पर सों वीडियो कॉल करते समय मम्मी उसके कमरे में ही सोने जा रही थीं।

“मम्मी पापा कहाँ हैं?”

“अपने कमरे में…”

“और आप?”

मधु जी चुप थीं। सुम्मी चुपचाप उनके जवाब का इंतज़ार कर रही थी। उसके सब्र का बाँध टूटने लगा था। तभी…

“मैं तेरे कमरे में हूँ।”

“कबसे…?”

मधु जी ने सुम्मी के सवाल को नजरअंदाज कर दिया।

“पापा मैच देख रहे हैं।”

“और आप? आप भी तो पापा के साथ मैच देखते थे। आपको भी तो मैच देखना पसंद था।”

“मुझे मैच देखना कभी पसंद नहीं था; पर  तेरे पापा का तो तू जानती ही है- उनके हाथ से कोई रिमोट नहीं ले सकता। फिर वह जो देखते थे मैं भी वही देख लेती थी।”

“मम्मी सब ठीक है ना, इधर मैं कई दिनों से नोटिस कर रही हूँ आप कुछ बदली-बदली सी नजर आ रही हैं!”

“सुम्मी ये बदलाव अच्छा है या बुरा…?”

सुम्मी मधु जी के सवाल का जवाब नहीं दे पाई। शायद घर के बच्चे वर्षों से अपनी माँ की बँधी-बँधाई छवि में आए परिवर्तन को सहज रूप से स्वीकार नहीं कर पाते।

“आप मुक्ता मौसी के साथ फिल्म देखने गई थीं। फिर  रात में खाना भी बाहर ही खाकर आई थीं।”

“तुमसे किसने कहा?”

“पापा ने बताया था, थोड़ा नाराज़ लग रहे थे।”

मधु जी चुपचाप सुनती रहीं।

“तुम्हारे पापा क्या कह रहे थे?”

“कुछ खास नहीं, बोले— आजकल तुम्हारी मम्मी अपने मन की हो गई हैं। जो चाहती हैं, वह करती हैं।”

“क्या यह गलत है? क्या तुम्हें भी ऐसा ही लगता है?”  मधु जी की ज़बान पर काँटे उग आए थे।

“नहीं मम्मी, मुझे बेहद खुशी और आश्चर्य हुआ था। आपका यह रूप पहले कभी नहीं देखा था। बागवानी के लिए पौधे और आज डीपी पर आपकी फोटो देखकर बेहद आश्चर्य हुआ। आपको कभी इस तरीके से न देखा था और ना ही सोचा था।”

सुम्मी ने महसूस किया- उन दोनों भाई-बहनों के घर बसते ही मम्मी की गृहस्थी उजड़ गई थी। शायद यह गृहस्थी बहुत पहले ही उजड़ गई थी पर उसका स्वरूप अब दिखना शुरू हुआ था। वक्त के साथ घर में ही नहीं उनके रिश्तों के बीच की दरारें गहरी हो गई थीं।

“सुम्मी तुम इतनी बड़ी तो हो ही गई हो कि अपनी मम्मी, एक औरत की बात को समझ सको। बस अब और नहीं, मैं अपने आप को प्रूफ करते- करते थक चुकी हूँ। मेरी माँ ने हथेलियों में दिखती लकीरों को तो देखा था; पर  माथे में उभरी चिंता मेरे भाग्य में खींची गई लकीरों को वे कहाँ पढ़ पाई थीं। मैं अपना बुढ़ापा शांति से बिताना चाहती हूँ।”

“क्या आप पापा से अलग हो जाना चाहती हैं?”

मधु जी ने कोई जवाब नहीं दिया।

“पर मम्मी इस उम्र में आप दोनों का अलग हो जाना क्या यह सही डिसीजन है। आपने एक बार भी सोचा है हमारे ससुराल वाले क्या सोचेंगे? भैया-भाभी, उनके बच्चे, सब हँसेंगे आप; पर … इस उम्र में कोई तलाक देता है। आपने सोचा है सोसाइटी क्या कहेगी?” सुम्मी ने खीझकर कहा।

“सोचा! कभी समाज, कभी परिवार तो कभी बच्चे, इनके बारे में सोचते-सोचते एक उम्र निकाल दी। क्या हमें अपने बारे में सोचने का कोई हक नहीं, क्या उम्र के इस पढ़ाव पर भी हम अपने बारे में सोच नहीं सकते?”

“पर मम्मी?”

शब्द सुम्मी के गले में अटककर रह गए।

“अपने हिस्से का आसमान बुनने का हक तो कभी न कभी सभी को मिलना चाहिए। सुम्मी इश्क का रंग हमेशा लाल नहीं होता। कभी-कभी ग्रे भी होता है।”

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