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Jan 1, 2025

पर्व – संस्कृतिः धरती पर सनातन संस्कृति का कुंभ मेला प्रयागराज में

  - रविन्द्र गिन्नौरे 

पृथ्वी का विशालतम मानव समागम का कुंभ , जहाँ  स्नान, दान और दर्शन से मानव को अनंत चक्र से मुक्ति मिल जाती है। हर बारह बरस में मानव मोक्ष के द्वारा ज्योतिष शास्त्र के अनुसार खुलते हैं। 2025 में बृहस्पति मेष राशि में और सूर्य, चन्द्र मकर राशि पर अमावस्या तिथि पर आएँगे तब प्रयागराज में कुंभ का योग बनेगा। प्रयागराज के गंगा यमुना और सरस्वती नदियों के संगम तट पर कुंभ मेला आयोजित होगा।

कुंभ में स्नान, दान- 

     कुंभ एक तरह से कोई संगठित आयोजन नहीं बल्कि एक आंतरिक, प्राचीन और निरंतर घटना है। एक रहस्यमय आयोजन जिसमें लाखों लोग शांति पूर्ण रूप से शामिल होते हैं। भारतीय उपमहाद्वीप का धार्मिक, सांस्कृतिक, पौराणिक और आर्थिक महत्त्व का विशालतम आयोजन है। धार्मिक तीर्थ करते हुए स्नान और दान जीवन और मृत्यु के साथ मोक्ष को साकार करता है। वहीं कुंभ मेला ‘पवित्र’ नदी के तट पर आयोजित किए जाते हैं जो विशेष मुहूर्त में स्नान के अनुष्ठानों से गहराई से जुड़े हैं। कुंभ मेला पूर्व निर्धारित,अद्वितीय और शुभ खगोलीय घटना के दौरान होते हैं, जिसमें विभिन्न नक्षत्रों में सूर्य, चंद्रमा या बृह- स्पति शामिल होते हैं। इनके प्रभाव को समझने के लिए, हमें मूल तत्वों के रूप में समझना शुरू करना होगा। पंच महाभूतों में से जल मानव जाति के लिए लगभग उतने ही समय से गहरा, सहज महत्त्व रखता है, जितने समय से मानवता का अस्तित्व रहा है। जल, आत्मा का तत्त्व और जीवन देने वाला ग्रह और शरीर दोनों का सबसे बड़ा घटक है। वैदिक काल से ही भारत में जल के महत्त्व को शाब्दिक रूप से दर्ज किया गया है। ऋग्वेद में इसकी स्तुति करते हुए कहा गया है,

"या आपो दिव्या वा स्त्रवंति खनित्रिमा उत वा याः स्वयंजाः ।

समुद्रार्थ याः शुचयः पावकास्ता आपो देवीरिह मामवन्तु।" 

बादल और बूँद, नहरें और नदियाँ और समुद्र, सब एक ही के विस्तार हैं। यह दिव्य गुणों वाला जल हमारी रक्षा करे।

भारत के चार स्थानों पर गिरने वाले अमरता के अमृत की कथा को देखें, जहाँ कुंभ मेला मनाया जाता है। पवित्र गंगा या संगम में स्नान के लाभकारी गुणों में विश्वास और कुंभ के शक्तिशाली आकर्षण को आत्मसात् करने हर कोई लालायित हो उठता है।

अमृत के लिए संघर्ष- 

  पौराणिक आख्यान के अनुसार महर्षि दुर्वासा के श्राप से देवराज इंद्र और देवता श्रीहीन हो गए। तब समुद्र मंथन के लिए देव दानव एक साथ जुट गए। मंथन से निकले अमृत कलश को दैत्यों से बचने के लिए देवराज इंद्र के पुत्र जयंत उसे लेकर भागे। बृहस्पति, चंद्रमा और सूर्य ने उसकी सहायता की। अमृत कलश को लेकर भागते हुए जयंत ने हरिद्वार, प्रयाग, नासिक और उज्जैन में कलश को रखा , जहाँ  कलश से अमृत की बूंदें छलक पड़ी। अमृत कलश के लिए बारह दिनों तक देव-दानवों के बीच संघर्ष चलते रहा और यही अवधि कुंभ मेला के लिए ज्योतिष शास्त्र के अनुसार निर्धारित हुई।

तीर्थराज प्रयाग -

  हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार महाकुंभ मेला बारह साल में मनाया जाता है। बारह वर्षों के दौरान चार बार कर तीर्थ पर कुंभ आयोजित होता है। पहला उत्तराखंड की गंगा नदी पर हरिद्वार में दूसरा मध्यप्रदेश की शिप्रा नदी पर उज्जैन में तीसरा महाराष्ट्र की गोदावरी नदी पर नासिक में और चौथा उत्तर प्रदेश की गंगा यमुना और सरस्वती नदियों के संगम पर प्रयागराज में कुंभ मेला 2025 में आयोजित हो रहा है।

    तीर्थराज प्रयाग पवित्र स्थलों में सबसे ऊपर माना जाता है। पवित्रता का प्रतीक कही गई गंगा नदी, जिसे पुण्यदायिनी कहा जाता है। पुण्य और धार्मिकता की दाता गंगा भक्ति की प्रतीकात्मक यमुना नदी से मिलती है जिनसे अदृश्य स्वरूप वाली ज्ञान की प्रतीक सरस्वती मिलती है। तीर्थराज प्रयाग की त्रिवेणी के कुंभ को शक्तिशाली कहा गया है।

 ज्योतिष शास्त्र के अनुसार ग्रहों का शुभ फल मानव जीवन पर पड़ता है। बृहस्पति जब विभिन्न ग्रहों के अशुभ फलों को नष्ट कर पृथ्वी पर शुभ प्रभाव का विस्तार करते हैं तब शुभ स्थानों में अमृत पद कुंभ योग अनुष्ठित होता है और इस शुभ घड़ी में कुंभ मेला का आयोजित किया जाता है। प्रयागराज में कुंभ मेला बृहस्पति मेष राशि में और सूर्य चंद्र मकर राशि में माघ मास की अमावस्या तिथि पर आते हैं यही कुंभ का योग बनता है।

प्रयागराज कुंभ- मेला देखा चीनी यात्री सुयेनच्यांग ने-

सातवीं सदी में भारत आए चीनी यात्री सुयेनच्यांग ने प्रयागराज के कुंभ मेला का आँखों देखा हाल का वर्णन करते हुए कहा है,...गंगा-यमुना के संगम तट पर बहुत दूर तक जो अनुमानतः दस 'ली' से ऊपर होगा, रेत पड़ी हुई थी। यह रेत स्वच्छ बालू की है और सर्वत्र समतल है। इसे यहाँ के लोग महादान क्षेत्र कहते हैं। प्राचीनकाल से बड़े बड़े राजे महाराजे, सेठ-साहूकार यहाँ पर दान करते चले आए हैं। उस समय भी राजा श्रीहर्ष शिलादित्य प्रति पाँचवें वर्ष यहाँ आता था और बड़ा दान-पुण्य करता था। उस समय यहाँ बड़ा मेला लगता था और भारतवर्ष के सब बड़े-बड़े राजा और गणमान्य मेले में आते थे। भारतवर्ष भर के साधु- महात्मा, श्रमण- ब्राहमण आदि इकट्ठे हो जाते थे। राजा पहले पूजा करता था फिर यथाक्रम पहले यहाँ के श्रमणों का फिर आए हुए श्रमणों और भिक्षुओं को, फिर विद्वानों और पंडितों को, फिर यहाँ के ब्राह्मणों और पंडों को और अंत में विधवाओं, अनाथों, लंगड़े लूले, निर्धन और भिगमंगों को भोजन, वस्त्र, धन, रत्न प्रदान करता था। इस प्रकार वह नित्य दान-पुण्य करके अपने कोष के रुपये खर्च कर देता था और जब कुछ भी नहीं रह जाता था तो अपना मुकुट-वस्त्राभूषण और वाहनादि सब कुछ लुटा देता था। जब उसके पास एक कौड़ी भी नहीं रह जाती थी तब वह बड़े आनंद से कहता था कि "आज मैने अपने सारे कोष और धन को अक्षय कोश में रख दिया, वहाँ यह घटने का नहीं है।" फिर अन्य देश के राजा लोग भी दान करते थे।

   दान क्षेत्र के आगे पूर्व दिशा में गंगा यमुना के संगम पर सहस्रों की भीड़ लगी रहती है। कितने तो स्नान करके चले जाते हैं कितने यहाँ कल्पवास करते हैं और मरने के लिए यहाँ आकर रहते हैं। उस देश में लोगों का विश्वास है कि यहाँ आकर एक समय भोजन कर स्नान करते हुए जो कल्पवास करता प्राण त्यागता है वह मरने पर स्वर्ग को प्राप्त होता है। यहाँ स्नान करने से जन्म जन्म के पापक्षय हो जाते हैं। दूर दूर से लोग यहाँ स्नान करने आते हैं।

     कुंभ मेला सनातन परंपरा की प्राचीन धार्मिक सर्वोच्च तीर्थ यात्रा पवित्र परंपरा को लिए स्नान कर ज्ञान की पिपासा लिए मानव संत समागम करते हैं। मोक्ष की आस दिए सर्वस्व दान करते जहां मंत्रोच्चार के बीच अनहत नाद सी ध्वनित होती है। ऐसे सुंदरतम दृश्य को निहारने अपार जनसमूह आ जुटता है कुंभ के मेला में...!

ravindraginnore58@gmail.com

1 comment:

Anonymous said...

ज्ञानवर्धक आलेख। सुदर्शन रत्नाकर