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Dec 2, 2022

उदंती.com, दिसम्बर – 2022

चित्रकारः  विज्ञान व्रत 
 वर्ष- 15, अंक- 4

इस दुनिया में कुछ बड़ा करने के लिए 

आपको सौ साल जीने की जरूरत नही है,

बस एक दिन में ही ऐसा काम करों की 

पूरी दुनिया आपको सौ साल तक याद रखें


 इस अंक में

अनकहीः खण्डित होती संवेदना  - डॉ. रत्ना वर्मा           

आलेखः आलेख- वरदान बने बढ़ती आबादी   - प्रमोद भार्गव

संस्कृतिः कश्मीरी महिलाओं का पारंपरिक आभूषण देझूर   - सरोज बाला

वन्य जीवनः देवी देवताओं के वाहन- प्रकृति संरक्षण के प्रतीक हैं  - बसन्त राघव

यादेंः  यहाँ बदला वफ़ा का बेवफाई के सिवा क्या है... - डॉ. दीपेन्द्र कमथान

विज्ञानः भाषा के साथ उसमें सहेजा ज्ञान भी लुप्त होता है   - स्रोत फीचर्स

सॉनेटः कादंबरी   - प्रो. विनीत मोहन औदिच्य

कहानीः  अनुगामिनी  डॉ. बलराम अग्रवाल

व्यंग्यः भोजन के लिए हेल्पलाइन नम्बर - गिरीश पंकज

लघुकथाः  सोच  - हरीश कुमार 'अमित'

लघुकथाः  इमीटेशन   - खलील जिब्रान (अनुवाद :सुकेश साहनी)

लघुकथाः अमानत  - उर्मि कृष्ण

कविताः शुक्रिया तेरा   - अमृता अग्रवाल

कविताएँः उस घर का नाम  - संजय कुमार सिंह

ग़ज़लः आई याद पुरानी उसकी  - डॉ. आरती स्मित

आधुनिक बोध कथा 12-  सौदा  - सूरज प्रकाश

कविताः रैन बसेरा - पारुल हर्ष बंसल

चिंतनः मुझमे मेरा कितना?  - लिली मित्रा

किताबेंः मंत्रमुग्धा - माधुर्य- भाव- धारा का  मंत्रमुग्ध अवगाहन  - रश्मि विभा त्रिपाठी

प्रेरकः काश ये 11 बातें मुझे तब पता होतीं जब मैं 20 साल का था  - निशांत

जीवन दर्शनः दीन के दर्द का मर्म  - विजय जोशी

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आवरण पृष्ठ के चित्रकारः 
 विज्ञान व्रत - जन्म 17 अगस्त 1943, तेड़ा, मेरठ,  (उत्तर प्रदेश)। देश / विदेश की  विभिन्न  कलादीर्घाओं  में  चित्रों की  39  एकल  प्रदर्शनियाँ, सांस्कृतिक मंत्रालय भारत सरकार द्वारा Senior Fellowship (चित्रकला), ललित कला अकादमी दिल्ली  द्वारा आयोजित  राष्ट्रीय/अन्तरराष्ट्रीय  26  चित्रकला - शिविरों में भागीदारी। चित्रों का संग्रह: राष्ट्रपति भवन नयी दिल्ली, देश की प्रमुख अकादमियों , प्रसिद्ध व्यापारिक संस्थानों तथा देश/विदेश के शताधिक व्यक्तिगत संग्रहों में चित्र संगृहीत। विश्व हिन्दी सम्मेलन (दक्षिण अफ़्रीका) , इंग्लैंड और आयरलैंड के प्रमुख शहरों , मॉरीशस और सिंगापुर में आयोजित अन्तरराष्ट्रीय कवि सम्मेलनों में काव्य पाठ। इंग्लैंड के NRI कवियों की हिन्दी , उर्दू और पंजाबी  27 कविताओं ("Colours  Of  Poetry" में प्रकाशित) का अँग्रेज़ी में भावानुवाद। बालगीत, नवगीत दोहा तथा ग़ज़लों पर अनेक पुस्तकें का प्रकाशन।   

अनकहीः खण्डित होती संवेदना

-डॉ. रत्ना वर्मा 

प्यार के 35 टुकड़े??? क्या प्यार कोई जन्मदिन का केक है, जिसके टुकड़े- टुकड़े करके सबको बाँट दिया जाए। पर इन दिनों तो सब जगह यही चर्चा है कि प्यार में इतनी दरिंदगी! और तो और इस दिल दहला देने वाले कारनामें को अंजाम देने के बाद पिछले छह माह तक वह दरिंदा आराम से जीवन गुजारता रहा, ऐसे जैसे सच में ही उसने अपनी प्रियतमा के शरीर के नहीं, केक के ही 35 टुकड़े किए हों और शहर भर में उन टुकड़ों को बिखरा कर खुशियाँ मना रहा हो।

इस पूरे घटनाक्रम को जानने के बाद जो सवाल दिमाग में सबसे पहले आता है वह यह कि जब श्रद्धा को पिछले कई सालों से यह पता था कि आफताब उसे मार देगा, फिर भी उसके साथ ऐसी क्या मजबूरी रही होगी कि वह उससे अलग नहीं हो पाई। (श्रद्धा ने 2020 में पुलिस में इस डर को लेकर शिकायत भी दर्ज कराई थी) नतीजा उसे मार डाला गया, छह महीने तो उसने किसी को भनक भी नहीं लगने दी। यदि उसके माता पिता गुमशुदगी की रिपोर्ट नहीं लिखाते, तो किसी को खबर ही नहीं होती कि श्रद्धा की ऐसी नृशंस हत्या की गई है।

इस हत्याकांड से अनेक प्रश्न उठ खड़े हुए हैं। बदलते सामाजिक परिवेश में आज के युवा मनमर्जी के मालिक हो गए हैं। वे माता- पिता की दखलअंदाजी को पसंद नहीं करते, उन्हें उनकी बातें दकियानुसी लगती हैं। जैसे ही वे पढ़ाई- लिखाई पूरी करने के बाद आर्थिक रूप से स्वतंत्र होते हैं, उन्हें लगता है वे अपनी मर्जी के मालिक हैं और जैसे चाहे जीवन गुजार सकते हैं।  लोग संस्कारों की बात करते हैं कि कैसे जिन पिता ने, न जाने कितनी मुसीबत उठा कर उन्हें पाला-पोसा है, अच्छी शिक्षा दिलाई है, उनकी हर जिद पूरी की है, वही बच्चे बड़े होते ही अपने ही माता-पिता के इतने विरुद्ध हो जाते हैं कि बगावत पर उतर आते हैं।

 दरअसल आधुनिक तकनीक के चलते  युवाओं में ऑनलाइन दोस्ती आम हो गई है । श्रद्धा और आफताब भी एक ऑनलाइन डेटिंग एप के माध्यम से करीब आए थे। पर एक क्लिक से की गई दोस्ती कितनी  खतरनाक  हो सकती है यह इस हत्याकांड को देखते हुए समझा जा सकता है ।

मात्र बाहरी चमक- दमक के आकर्षण को प्यार और दोस्ती का नाम देकर जीवन को खूबसूरत नहीं बनाया जा सकता। हमारा समाज हमारा परिवार अभी इतना आधुनिक नहीं हो पाया है कि वह ‘लिव- इन रिलेशन’ को आसानी से स्वीकार कर पाए। अभी भी भारत के अधिकतर परिवार अपने सामाजिक- पारिवारिक संस्कार और परंपरा से बँधा हुआ है । यही वजह है कि लिव- इन में रहने वाले युवा अपने परिवार से, समाज से अलग- थलग पड़ जाते हैं।  फलस्वरूप अपनी परेशानियों को वे किसी के साथ बाँट नहीं पाते।  जब जीवन की कड़वी सच्चाई से उनका वास्ता पड़ता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। चूँकि बगावत करके वे अपनों से दूर हुए थे; इसलिए मुसीबत के समय भी अपने माता- पिता के पास, दोस्तों के पास लौटने की उनकी हिम्मत नहीं होती और वे अपने साथी के अत्याचारों को सहते हुए भी उसके साथ रहने को अभिशप्त होते हैं।  शायद श्रद्धा भी मजबूर थी। यद्यपि उसने पुलिस को, दोस्तों को विभिन्न माध्यम से बताने की कोशिश की थीपर किसी ने भी उसके डर को गंभीरता से नहीं लिया । ऐसे समय में अकेले पड़ गए युवा डिप्रेशन में चले जाते हैं निराशा में आत्महत्या जैसे कदम उठाते हैं या फिर नशे और अपराध की दुनिया में चले जाते हैं। आज के  युवा वर्ग का अति महत्त्वाकांक्षी होना भी एक कारण है कि वह बहुत कम समय में बड़ी उपलब्धि हासिल कर लेना चाहता है और इसके लिए शॉर्टकट रास्ता अपना कर अपनी मंजिल तक पहुँचना चाहता है।

श्रद्धा वालकर हत्याकांड ने एक बार फिर देश और समाज के सामने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। खासकर महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराध और युवा पीढ़ी की वर्तमान जीवन -शैली को लेकर। अतः इस तरह के अपराध को राजनीतिक, सांप्रदायिक या किसी जाति विशेष से न जोड़ते हुए इसे एक समाजशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विवेचन करते हुए, इसके सामाजिक और कानूनी पहलुओं पर भी गंभीरता से सोचना होगा। सबसे जरूरी है- परिवार और संस्कार की बुनियाद को मजबूत करनावहीं दूसरी ओर आज की शिक्षा -व्यवस्था में भी सुधार करने की आवश्यकता है। कानून और व्यवस्था में सुधार की गुंजाइश तो हमेशा ही बनी रहती हैपरंतु यहाँ जो सबसे आवश्यक और जरूरी बात हैवह है इंटरनेट और सोशल मिडिया का युवाओं पर बढ़ते प्रभाव को लेकर अंकुश।  शिक्षा के अलावा जो भी अन्य चीजें इस आधुनिक तकनीक ने युवाओं को परोसी हैं, वह उन्हें एक अलग ही दुनिया की सैर कराता है। अतः इसकी निगरानी के लिए आवश्यक और कठोर  कदम उठाए जाने चाहिए।

 जिस प्रकार शादी हो जाने के बाद नव दम्पती की खुशी परिवार और समाज की जिम्मेदारी होती है और वे उनकी देखरेख में अपनी नई जिंदगी की शुरूआत करते हैं, उसी प्रकार क्यों न लिव- इन में रहने वाले युवा जोड़ों के लिए भी कुछ नियम कानून बना दिया जाए । जिस प्रकार नई नौकरी ज्वाइन करने पर, घर किराए पर लेने पर, होटल में कमारा बुक करने पर यहाँ तक कि हवाई जहाज और रेल में यात्रा करते समय पहचान पत्र दिखाना आवश्यक होता है, तो इन युवाओं के लिए भी कुछ नियम कानून क्यों नहीं बनाए जा सकते हैं, ताकि वे एक व्यवस्था के तहत निगरानी में रहें और इस तरह की भयानक दुर्घटना से बचे रहें। केवल कानून बनाकर इतिश्री नहीं करना, बल्कि यह भी सुनिश्चित करना है कि कानून का कठोरता से पालन किया जाए।

संस्कृतिः कश्मीरी महिलाओं का पारंपरिक आभूषण देझूर

 - सरोज बाला

आभूषण सदियों से नारियों की शोभा बढ़ाते आए हैं। आभूषणों ने न केवल महिलाओं की सुंदरता में चार चाँद लगाए बल्कि किसी भी महिला के परिवार की सामाजिक स्थिति और संस्कृति और को भी दर्शाते हैं।

ऐसे ही कश्मीरी महिलाओं के कान में पहने जाने वाला आभूषण देझूर का भी अपना ही संस्कृतिक महत्त्व हैं। जिसे दुल्हन शादी  समारोह में देव-गौण रस्म के समय धारण करती है। डेझूर सभी आभूषणों की तरह एक आभूषण होता है पर यह आम आभूषण नहीं है। इसे विशेष रूप से देव-गौण के समय पहनाया जाता है। देव- गौण का अपना एक सांस्कृतिक महत्त्व है। देव-गौण के समय देवी देवताओं का आशीष प्राप्त के करने के लिए उनका आह्वान किया जाता है।  कश्मीरी पंडितों की शादी के मुख्य तीन आधार होते हैं। मंज रात, देव-गौण और लगन, जिसे देश के उत्तरी भाग के क्षेत्र  की भाषा में मेहंदी रात- सांत और लगन फेरे कहा जाता है।

देवगोऊन एकमात्र ऐसी परंपरा है जिसके बिना शादी या यज्ञोपवीत समारोह पूरा नहीं होता। यह परंपरा आमतौर पर सात दिन तक चलते हैं । यदि सात दिनों के अंदर लगन या यज्ञोपवीत जैसे रीति- रिवाज पूरे नहीं हो पाते तो यह रीति- रिवाज फिर से शुरू किए जाते हैं।

इस परंपरा के अनुसार दुल्हन को स्नान के लिए भेजा जाता है । यह परंपरा पाँच कन्याओं के द्वारा संपन्न कराई जाती है। इन पाँच महिलाओं को कुमारियों के रूप में जाना जाता है जिन्होंने हिंदू धर्म के अनुसार सर्वोच्च मोक्ष प्राप्ति ग्रहण की हैं। वे पाँच महिलाएँ है.... मंदोदरी, अहल्या, द्रौपदी, तारा और सीता हैं। इसी तरह इन्हें पाँच तत्त्व की संज्ञा दी गई हैं, जैसे अग्नि, जल, आकाश, पृथ्वी और वायु।

घर के आसपास महिलाएँ गोल आकार बनाकर खड़ी हो जाती हैं फिर दुल्हन को उनके  बीच विशेष रूप से बैठाया जाता है । तभी वह सुख समृद्धि की आशीष पाती हैं जो उसके भविष्य में काम आती हैं । इस आशीष के बाद चार कुमारियाँ वस्त्र धारण के लिए कहती हैं। और उसी वस्त्र को चारों कुमारियाँ अपनी स्थिति में खड़े होकर वस्त्र को अपनी ओर कोने से पकड़े रखती हैं। पाँचवीं कन्या पाँच पदार्थ के मिश्रण को दुल्हन के सिर पर लगाती हैं। यह पाँच पदार्थ हैं- चावल, घी, दही,चंदन और गुलाब। इस स्थिति में पाँचवी कुमारी धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष और ब्रहा तत्त्व का गठन करने वाली कुमारी होती है। इसी मौके पर घर की बुजुर्ग महिलाएँ ऋग्वेद के मंत्रों को बोलती हैं। जिसका अर्थ दूल्हा -दुल्हन को आशीष देना होता हैं।

धार्मिक शास्त्रों के अनुसार देव-गौण के समारोह के बाद दुल्हन को नए वस्त्र पहनने के लिए दिए जाते हैं। यह वस्त्र उसके पिता के ननिहाल से आते हैं। और उसके बाद दुल्हन को आभूषण पहनने के लिए दिए जाते हैं। और साथ ही कुछ बरतन उपहार के रूप में दिए जाते हैं। यह आभूषण दुल्हन  के पिता की बहन अर्थात फूफी या बुआ लाती है। नव दुल्हन इन वस्त्रों को स्वीकृत करती है।

इन्हीं आभूषणों में देझूर को सबसे महत्त्वपूर्ण माना जाता है,  जो सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा बनाए रखने वाला, यौवन कायम रखने वाला और समाज में वर्चस्व बनाए रखना वाला यंत्र कहा जाता है । विवाह के रीति- रिवाज कुल पुरोहित के द्वारा संपन्न होते हैं जिसे कश्मीरी भाषा में ‘कने शरण’ कहा जाता है।

देझूर सोने की धातु से बनाया जाता है । इसका वजन दूल्हे के माता- पिता की आर्थिक स्थिति पर निर्भर होता है । इसे  देव-गौण के दिन दुल्हन की माँ द्वारा दुल्हन को पहनाया जाता है । इसे सिर्फ सोने की चेन के साथ या फिर रंगीन धागों के साथ पहना जाता है । जिसे कश्मीरी भाषा में सुलमा या तिल्ला कहा जाता है । सोने में ढला हुआ देझूर हमेशा केंद्र में एक बिंदु के साथ षट्कोण अकार का होता है इसे शिव और शक्ति का प्रतीक यंत्र कहा जाता है । यह यंत्र देझूर कान के ऊपरी हिस्से में छेद से पार करके लटकाया जाता है । और नीचे लटकने वाले हिस्से को देझूर और साथ ही नीचे लटकने वाले धागों के गुच्छे को इस चेन या धागे से सहारा मिला होता है। कभी रंगीन धागों के हिस्से की जगह सोने का हिस्सा भी लटकाया जाता है । लगन समारोह के समय अताह और अटहूर की सहायता से वधू को सुसराल पक्ष की ओर से पहनाया जाता है जब दुल्हन सारे रीति- रिवाज के बाद ससुराल पहुँचती है। ससुराल वाले दुल्हन के कानों में पड़ा अताह बदल कर सोने का अ‍टूहर और अताह में बदल देते है । देझूर को समर्थन करने वाले लाग धागे को हटा देते हैं।

अ‍टहूर देझूर  का महत्त्वपूर्ण हिस्सा होता है। जिसका सामाजिक और पारंपरिक महत्त्व होता है । जिसे बहनों, रिश्तों में बेटियों को, परिवार की महिला सदस्य को और करीबी महिला को घर के मांगलिक कामों में उपहार के रूप में भी दिया जाता है जो प्रेम और स्नेह का प्रतीक है जिसे हमेशा  पहले बाएँ कान में डाला जाता है। यह महिलाओं के लिए मंगलसूत्र जैसा होता है ।  जिसे कान के ऊपरी हिस्से में अताह और अटहूर के साथ लटकाया जाता है। इसकी लम्बाई कानों से लेकर महिला के वक्ष तक होती  है। जिसे कान के साथ अलग ही लटकाया जाता है।

कोई भी महिला पति की मृत्यु के बाद विधवा होने पर मंगलसूत्र धारण नहीं कर सकती, पर इस बात का उल्लेख कही भी नहीं मिलता कि विधवा होने के बाद भी देझूर नहीं उतार सकती । पति की मृत्यु के बाद जिस महिला के कोई पुत्र/  संतान नहीं है, वह महिला देझूर नहीं धारण कर सकती 

देझूर दोनों कानों में विशेष प्रकार के आकार का आभूषण होता है जिसके दाएँ बाएँ तरफ पिन शेड होती है बीच वाले भाग को कानों में किए हुए छेद से निकालकर ऊपर से नीचे तक अताह और अटहूर की मदद से दोनों कानों में लटकाया जाता है।

दोनों ही पिन शेड के दाईं-  बाईं  ओर का धार्मिक महत्त्व है;  क्योंकि माना जाता है कि देझूर में शिव -शक्ति का निवास होता है। और बीच वाला हिस्सा यज्ञ शाला वेदी माना जाता है इसी यज्ञ शाला वेदी से किसी दुल्हन को घर के पारिवारिक विषयों में और घरेलू मामलों में भाग लेने का मौका मिलता हैं ।

देझूर में दाईं और बाईं ओर शिव शक्ति का निवास होने के कारण जिस दिन से कश्मीरी पंडित  बच्चा माँ की छाती से दूध पीना शुरू करता है, उसी दिन से समाज में प्रतिष्ठित होने का आशीष पाने लगता है। इसी शिव- शक्ति के आशीष के कारण ही कश्मीरी पंडित समाज में उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाला और तीव्र बुद्धि वाला होता है।  अपने कर्तव्य के प्रति के तत्पर रहता है, और उसके परिवार के इतिहास में अपराधी नहीं पाया जाता । वह प्रकृति से दूर जाना वाला नहीं होता बल्कि प्रकृति से प्रेम करने वाला होता है । वह राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जैसी भी स्थिति हो हर स्थिति में ढलने वाला होता है।

 कश्मीरी पंडितों की इस प्रवृत्ति का उल्लेख श्रीमान लवारंस की पुस्तक  ‘द वेली ऑफ कश्मीर’  में भी मिलता है तभी कश्मीरी पंडित वफादार, भरोसेमंद मिलनसार और बुद्धिमान होते हैं । वे ईमानदार  और उच्च कोटि के बुद्धिमान होते हैं । और यह माँ के दूध पीने से ही संभव है, जिसने के पास  देझूर जैसा शक्तिशाली यंत्र होता है जिसमें शिव शक्ति की आशीष होती है।

 देझूर महिलाओं को चिर यौवन और सुंदर रखने वाला शक्तिशाली यंत्र माना जाता हैं। इस बात का उल्लेख जोन रिग की किताब  ‘सेक्स इंपल्स’  में भी मिलता है।

सोने की धातु से बनने के बावजूद देझूर पुराने समय में बेटियों की सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा करने वाला यंत्र माना जाता था, जो शादी के बाद कई महीनों तक खराब मौसम के कारण, रास्ते बंद होने के कारण अपने माता पिता से मिल नहीं पाती थी । ऐसे समय में यह यंत्र माता पिता के आशीष स्वरूप उन्हें सामाजिक सुरक्षा और  सुख समृद्धि का एहसास दिलाता था।

परंतु आज बदलते दौर में कश्मीरी पंडित महिलाएँ अपने पुराने रीति- रिवाज संस्कार भूलती जा रही हैं। वे देझूर को धारण करने से मना कर देती है, वे इससे जुड़े धार्मिक कार्यों में भाग लेने से मना करती हैं । वे देझूर की पहनने के सही तरीके को भी नहीं मानती जो कि देवगोऊन के समय किसी विशेष कारण के लिए पहनाया जाता है।

रचनाकार के बारे में - शिक्षा:  बी.ए/बी.एड़/.स्टेनोग्राफी, प्रकाशित पुस्तकें : हिंदी काव्य संग्रह “ प्रकृति की गोद में”, : डोगरी कहानी संग्रह “ सोचै दी गैहराई”,  हिंदी काव्य संग्रह “सुकून भरी तन्हाई “,   देश भर की पत्रिकाओं में कविता, कहानी और लेखों का प्रकाशन।  सम्पर्कः गाँव रिज्जू पो./आ. गोविंदसर, तहसील/ ज़िला कठुआ, पिन न. 184102, जम्मू कश्मीर, मोबाइलः 7051950294/ 7006677903, Bhardwajsaroj46@gmail.com

आलेख- वरदान बने बढ़ती आबादी

 - प्रमोद भार्गव

  15 नवंबर को दुनिया की आबादी 8 अरब को पार कर गई। भारत के संदर्भ में देखें तो हैरानी में डालने वाली बात यह होगी कि 2023 में हम आबादी की दृष्टि से चीन से आगे निकल जाएँगे। बढ़ती जनसंख्या के जो आकड़े हैं, वे भारत जैसे बड़ी आबादी वाले देश को जहाँ एक बड़ी चुनौती हैं, वहीं उन्हें वरदान बनाने की जरूरत है। हालांकि जागरूकता और परिवार नियोजन के उपायों के चलते दुनिया में जन्म दर घटी है। जन सांख्यिकीय विश्लेषण के निष्कर्ष बताता है कि 1950 के बाद वर्तमान में जन्म दर सबसे कम है। अतएव यहाँ सवाल उठता है कि फिर आबादी का घनत्व क्यों बढ़ रहा है ? दरअसल चिकित्सा सुविधाओं और एक वर्ग विशेष की माली हैसियत बढ़ने से औसत उम्र बढ़ रही है। इस दायरे में आने वाले लोग उत्पादकता से जुड़े नहीं रहने के बावजूद उच्च श्रेणी का जीवन जी रहे हैं। नतीजतन यह आबादी जापान, चीन और दक्षिण कोरिया की तरह भारत के युवाओं को रोजगार में बाधा बन रही है। भारत में सबसे अधिक बेरोजगारी 15 से 36 आयु वर्ग के युवाओं में है। यदि हम पीपुल्स कमीशन की रिपोर्ट का उल्लेख करें तो 15 से 29 आयु समूह में बेरोजगारों की संख्या 27.8 करोड़ है। हालांकि इसमें अनेक बेरोजगार ऐसे हैं, जिनके पास काम तो है, लेकिन आमदनी का अनुपात संतोषजनक नहीं है। भारत के सीमांत राज्यों में विदेशियों की घुसपैठ और कमजोर जाति समूहों का धर्मांतरण भी आबादी का घनत्व बढ़ाने और बिगाड़ते हुए रोजगार के संकट के साथ स्थानीय मूल निवासियों से टकराव के हालात उत्पन्न कर रहा है। इसीलिए जनसंख्या नीति में समानता की बात की जा रही है।

 2023 में चीन से हमारी आबादी अधिक हो जाएगी, तब हमें चीन से यह सबक लेने की जरूरत है कि उसने अपने मानव संसाधन को किस तरह से श्रम और उत्पादकता से जोड़ा। क्योंकि चीन में बड़ी आबादी के बावजूद रोजगार का संकट भारत की तरह नहीं गहराया। जाहिर है, चीन की उन्नति और उत्पादकता में इसी आबादी का रचनात्मक योगदान रहा है। सस्ते कुशल एवं अर्द्ध कुशल लोगों से उत्पादन कराकर चीन ने अपना माल दुनिया के बाजारों में भर दिया है। जबकि भारत बड़ी कंपनियों को सब्सिडी देने के बावजूद स्वदेशी उत्पादन में आबादी के अनुपात में उल्लेखनीय प्रगति नहीं कर पाया है। मेक इल इंडिया के नाम पर हाल ही में दो कंपनियों हीरो इलेक्ट्रिक और ओकीनावा की 370 करोड़ रुपये की सब्सिडी की राशि देने पर सरकार ने रोक लगा दी है। सरकार ने फास्टर एडॉप्सन एंड मैन्यू फैक्चरिंग ऑफ इलेक्ट्रिक व्हीकल्स (फेम)-2 योजना के तहत दो पहिया इलेक्ट्रिक वाहनों की बिक्री को प्रोत्साहित करने हेतु 10,000 करोड़ रुपए का बजट तय किया है। भारी उद्योग मंत्रालय की तरफ से प्रत्येक इलेक्ट्रिक वाहन को सब्सिडी दी जाती है। इलेक्ट्रिक स्कूटर पर 15000 रुपये प्रति किलोवाट के हिसाब से सब्सिडी दी जाती है, लेकिन यह सब्सिडी तभी दी जाएगी, जब उत्पादन स्वदेशी के स्तर पर किया जाए। लेकिन सरकार ने जब जाँच की तो पाया कि इन कंपनियों ने इन वाहनों में चीन से आयात कल-पुर्जे इस्तेमाल किए हैं। इसी कारण दो पहिया वाहनों में आग लगने की घटनाएँ बढ़ रही हैं। इस धोखाधड़ी के चलते हीरो इलेक्ट्रिक की 220 करोड़ और ओकीनावा की 150 करोड़ रुपए की सब्सिडी रोक दी। इन धोखाधड़ियों के चलते भी भारत स्वदेशीकरण के साथ बेरोजगारी से पार नहीं पा रहा है।

यदि हम चीन में ज्ञान-परंपरा से दीक्षित लोगों को रोजगार देने की बात करें तो वहाँ सरकार या कंपनी द्वारा गाँव-गाँव कच्चा माल पहुँचाया जाता है। जब वस्तु का निर्माण हो जाता है, तो उस माल को लाने और मौके पर ही भुगतान करने की जबावदेही संस्थागत है। इसका फायदा यह होता है कि ग्रामीण अपने घर में ही वस्तु का उत्पादन कर लेता है। नतीजतन वस्तु की लागत न्यूनतम होती है। यदि यही व्यक्ति शहर में जाकर उत्पादकता से जुड़े तो उसे कमाई की बड़ी राशि रहने, खाने-पीने और यातायात में खर्च करने पड़ जाते हैं। भारत में उत्पादन के छोटे-बड़े कारखाने शहरों में हैं। लिहाजा वस्तु की लागत अधिक आती है। चीन में होली, दिवाली और रक्षाबंधन से जुड़ी जो वस्तुएँ निर्यात होती हैं, उनका उत्पादन गाँव में ही होता है। जाहिर है, यदि बड़ी जनसंख्या उत्पादन से जुड़ जाए, तो कोई समस्या नहीं रह जाती है। वह समस्या तब बनती है, जब उसके हाथों में काम न हो ? जापान और दक्षिण कोरिया में जनसंख्या का घनत्व भारत से ज्यादा है, इसके बावजूद ये देश हमसे अधिक संमृद्ध होने के साथ स्वदेशी प्रौद्योगिकी से उत्पादन और उसके निर्यात में हमसे आगे हैं। अतएव भारत को चीन, जापान और कोरिया से सीख लेने की जरूरत है।  

यह बात लोगों को रोजगार से जोड़ने की हुई, लेकिन जनसंख्या वृद्धि पर एक नीति बने बिना बात बनने वाली नहीं है। दो बच्चों की यह नीति सभी धर्म एवं समुदायों के लोगों पर समान रूप से लागू हो;  क्योंकि जनसंख्या एक समस्या भी है और एक साधन भी है। लेकिन जिस तरह से देश के सीमांत प्रांतों और कश्मीर में जनसंख्यात्मक घनत्व बिगड़ रहा है, उस संदर्भ में जरूरी हो जाता है कि जनसंख्या नियंत्रण कानून जल्द वजूद में आए। राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ हिंदुओं की आबादी घटने पर कई बार चिंता जता चुका है। साथ ही हिंदुओं को ज्यादा बच्चे पैदा करने की सलाह भी संघ के कार्यवाहक देते रहे हैं। इन बयानों को अब तक हिंदु पक्षधरता के दायरे में समेटने की संकीर्ण मानसिकता जताई जाती है, जबकि इसे व्यापक दायरे में लेने की जरूरत है।  कश्मीर, केरल समेत अन्य सीमांत प्रदेशों में बिगड़ते जनसंख्यात्मक अनुपात के दुष्परिणाम कुछ समय से प्रत्यक्ष रूप में देखने में आ रहें हैं। कश्मीर में पुश्तैनी धरती से 5 लाख विस्थापित हिंदुओं का पुनर्वास धारा-370 हटने के बाद भी आतंकी घटनाओं के चलते नहीं हो पाया है। बांग्लादेशी घुसपैठियों के चलते असम व अन्य पूर्वोत्तर राज्यों में बदलते जनसंख्यात्मक घनत्व के कारण, जब चाहे तब दंगों के हालात  उत्पन्न हो जाते हैं। यही हालात पश्चिम बंगाल में देखने में आ रहे हैं। जबरिया धर्मांतरण पूर्वोत्तर और केरल राज्यों में बढ़ता ईसाई वर्चस्व ऐसी बड़ी वजह बन रही हैं, जो देश के मौजूदा नक्शे की शक्ल बदल सकती हैं ? लिहाजा परिवार नियोजन के एकांगी उपायों को खारिज करते हुए आबादी नियंत्रण के उपायों पर नए सिरे से सोचने की जरूरत है। क्योंकि ये घुसपैठिए मूल निवासियों को परंपरागत संसाधनों से बेदखल कर बेरोजगारी बढ़ाने काम कर रहे है।

सम्पर्कः शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी म.प्र. , मो. 09425488224

वन्य जीवनः देवी देवताओं के वाहन- प्रकृति संरक्षण के प्रतीक

 - बसन्त राघव

मनुष्यों से इतर जो जीव जंतु वन में रहते हैं, वे वन्य प्राणियों की श्रेणी में आते हैं । जन सुरक्षा की बात तो समझ में आती है, लेकिन वन्य प्राणियों की सुरक्षा कुछ लोगों को अटपटी सी लगती है और ऐसे समय में खासकर जब हम मनुष्य के लिए रोटी कपड़ा और मकान की व्यवस्था नहीं कर पा रहे हैं लेकिन मनुष्य अपने ही स्वार्थ में केंद्रित हो गया है इस लिए वह उदारतापूर्वक अन्यों पर विचार नहीं कर सकता।

संसार में जितने भी प्राणी हैं, सब एक ही ईश्वर की संतान हैं । सृष्टि की रचना करते समय भी सृष्टिकर्ता ने आवश्यकताओं का ध्यान रखकर  गोचर जगत की सृष्टि की है । जिसमें जड़ - चेतन, पेड़- पौधे, पशु -पक्षी, उसके बाद मनुष्य आते हैं। मनुष्य विधाता की अंतिम रचना है । इसलिए अन्य प्राणी हमारे अग्रज है।

जिस तरह मनुष्यों को जीने का अधिकार है। उसी तरह वन्य प्राणियों को भी है। भारतीय दर्शन  का मूल सूत्र यही है कि मनुष्य को चाहिए वह अन्य प्राणियों को किसी प्रकार की हानि न पहुँचा; क्योंकि सभी में एक ही आत्मा का निवास है । गांधी और गौतम के उपदेशों का सार यही है सत्य अहिंसा परमोधर्म । तुलसी ने सच कहा  है- "परपीड़ा सम नहिं अधमाई।" दूसरों को पीड़ा पहुँचाने से बड़ा अधम या निकृष्ट कार्य कोई नहीं है।

आज सरकार व समाज का परम कर्तव्य हैं कि वह वन्य प्राणियों की रक्षा करे । हमारे यहाँ वन्य प्राणियों के संरक्षण वैदिक काल से शुरू हो गया था । हमारे देवी देवताओं के द्वारा किसी न किसी रूप में पशु-पक्षियों को सरंक्षण दिया गया है। भगवान के कच्छप, मत्स्य, वराह, नरसिंह आदि अवतार, जलचर थलचर की महत्ता को प्रतिपादित करते हैं। हमारे मनीषियों ने पशु पक्षियों को भगवानों के वाहनों के रूप में जोड़ा, ताकि हम पशु पक्षियों के प्रति दयालु, सहिष्णु और सेवाभावी हो सके। अगर पशु-पक्षियों को भगवान के साथ नहीं जोड़ा जाता तो शायद हम इनके  प्रति और ज्यादा हिंसक होते।  इस तरह हमारे मनीषियों ने प्रकृति और उसमें रहने वाले जीवों की रक्षा के लिए मनुष्य को एक संदेश  दिया है। उनका मानना है कि हर पशु किसी न किसी भगवान का प्रतिनिधि है, उनका वाहन है, इसलिए पशु पक्षियों के प्रति हमारा व्यवहार सदैव  उदार होना चाहिए ।

उदाहरण देखिए :

विष्णु का वाहन गरुड़ है। आज गरुड़ पक्षी लुप्त हो रहे है । पक्षी गरुड़ बुद्धिमान होता है। पहले जमाने में उसका काम संदेश को इधर से उधर ले जाना होता था, वैसे  कबूतर भी यह कार्य  बड़ी कुशलता से करते थे ।

राम काल के सम्पाती और जटायु को भला कौन नहीं जानता। ये दोनों भी छत्तीसगढ़ क्षेत्र में रहते थे। इनके प्रजाति के पक्षी खासकर छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में बहुतायत में थी। छत्तीसगढ़ के दंडकारण्य में गिद्धराज जटायु का मंदिर आज भी प्रसिद्ध है ।

माँ लक्ष्मी का वाहन उल्लू भी विलुप्ति  के कगार में है। सामान्यतः उल्लू  शब्द को मूर्ख बनाने के पर्याय में देखा-समझा जाता रहा है=लेकिन यह धारणा बिलकुल गलत है, सच माने तो उल्लू सबसे बुद्धिमान, भूत और भविष्यदृष्टा निशाचारी प्राणी है । वह धन संपत्ति और शुभता का प्रतीक माना जाता है।

कुछ लोग उल्लू के नाखून और पंख आदि को तांत्रिक क्रियाओं के लिए काम में लाते हैं। कुछ नासमझ लोग अपने निहित स्वार्थ के लिए आज भी दीपावली की रात को उल्लू की बलि चढ़ाते हैं जिसके कारण उल्लू की संख्या में लगातार गिरावट देखी जा रही है। इनके प्रति क्रूरता करने से पहले हमें नहीं भूलना चाहिए कि लक्ष्मी जी को उलूक वाहिनी भी कहा जाता है ।

हंस पक्षी पवित्र, जिज्ञासु और काफी समझदार होता है। यह माँ सरस्वती का वाहक है। शिव का वाहन नंदी बैल  है। गाँवों में बैलों का बड़ा महत्त्व होता है । भारत में आज भी बैलों से खेतों की जुताई व बैलगाड़ी चलाने के लिए काम में लिया जाता है।

माता पार्वती का वाहन बाघ है। तो दूसरी ओर माँ दुर्गा का वाहन शेर । गणेशजी जी सबसे निराले है उन्होंने अपना वाहन मूषक को बनाया। जिसने सबसे पहले और अति शीघ्र चारों धाम की सैर करवा कर गणेश जी को माता पिता के प्रिय बुद्धिमान बालक जो बना दिया था। कार्तिकेय का वाहन मयूर है मोर भारत का राष्ट्रीय पक्षी है । इंद्र का वाहन ऐरावत (सफेद हाथी ) है।  जो थाइलैंड में पाया जाता है। हाथी शांत, समझदार प्राणी है। इस विशालकाय जानवर की हत्या उसकी चर्बी और दाँतों के लिए की जाती है, जो ऊँचें दामों में बिकती हैं, जिसके कारण इंसान इनकी निर्दयतापूर्वक हत्या करता आ रहा है ।

यमराज का वाहन भैंसा है। मगरमच्छ देवी माँ गंगा का वाहन है । मगरमच्छ भारत की छोटी-बड़ी अधिंकाश नदियो में पाये जाते हैं । वैज्ञानिक कहते हैं कि मगरमच्छ हर परिस्थिति में जी लेते हैं। धरती पर मगरमच्छ लगभग 25 करोड़ साल से रहते आ रहे हैं । जल में  मगरमच्छ की अनुपस्थिति से पारिस्थितिक तंत्र बिगड़ सकता है। वर्तनाम में कल-कारखाने एवं बिजली उत्पादन के नाम पर नदियों की जो दुर्गति हो रही है किसी से छिपी नहीं है जिसके चलते मगरमच्छों के साथ - साथ अन्य प्राणी जगत के अस्तित्व पर ही संकट मंडराने  लगा है। यमराज भैंसे की  सवारी करते हैं। भैंसा एक सामाजिक प्राणी होता है । भैंसा अपनी शक्ति और स्फूर्ति के लिए भी जाना जाता है। शनिदेव पूरे नौ पशु पक्षियों की सवारी करते हैं, जैसे कि गिद्ध, घोड़ा, गधा, कुत्ता, शेर, सियार, हाथी, मोर और हिरण हैं । हालाँकि कौआ उनकी मुख्य सवारी माना जाता है । कौआ एक बुद्धिमान प्राणी है । कौए को अतिथि - आगमन का सूचक और पितरों का आश्रय स्थल माना जाता है । कौए को भविष्य में घटने वाली घटनाओं का पहले से ही आभास हो जाता है।

भगवान भैरव कुत्ते को हमेशा अपने साथ रखते हैं।  कुत्ता एक कुशाग्र बुद्धि और रहस्यों को जानने वाला प्राणी है। कुत्ता कई किलोमीटर तक की गंध सूँघ सकता है। कुत्ता वफादार प्राणी होता है, जो हर तरह के खतरे को पहले ही भाँप लेता है । प्राचीन और मध्य काल में पहले लोग कुत्ता अपने साथ इसलिए रखते थे, ताकि वे जंगली जानवरों, लुटेरों आदि से बच सकें। यह लोमड़ी प्रजाति का जीव है।

 हनुमानजी तो स्वयं वानर रूप में विराजमान हैं;  इसलिए  वानरों की आज भी पूजा की जाती है, फिर इनका वध कैसे ? इस तरह हम पाते है कि हमारे पूर्वजों ने बहुत पहले से ही पशु पक्षियों के संरक्षण के लिए रास्ता ढूँढ निकाला था; लेकिन हम है कि अपनी हिंसक प्रवृत्तियों से बाज नहीं आते। हमें प्रकृति और पर्यावरण में संतुलन बनाए रखने के लिए पशु-पक्षियों की सुरक्षा और संवर्धन को लेकर गंभीरता और  तेजी से काम करने की जरूरत है।

कल्पना कीजिए ये नीले आकाश में बंदनवार जैसे लरजते कलगान करते राजहंस चहचहाते हुए पक्षी हरी- हरी दूब पर टूँगते खरगोश छलांग मारते हुए हिरन, क्या बध्य हैं । यदि शेर, चीते, भालू, हिरन, खरगोश, हाथी, सांभर आदि से जंगलों को वंचित कर दिया जाए, तो उसमें रखा ही क्या है? पशु-पक्षी प्रकृति  सहचरी के पुंज ही नहीं ; बल्कि विश्व सौंदर्य के अनुपम उपहार हैं। क्या इस सौंदर्य को विनष्ट करके हम कभी भी सुंदर बन सकते हैं।

 वन्य प्राणियों के अवैध शिकार के कारण उनकी संख्या निरंतर कम होती जा रही है । सृष्टि के कई विरले प्राणियों की प्रजातियाँ तो विलुप्त होती जा रही हैं। भोले- भाले जीवों की निर्दयतापूर्वक हिंसा सभ्य समाज के लिए कभी वांछनीय नहीं हो सकती । इसीलिए सरकार ने जंगली जानवरों के शिकार को अवैध करार दिया है और अपराधियों के लिए सजा का प्रावधान रखा है; परंतु लाख सावधानियों के बाद भी अवैध शिकार जारी है।

 वन्य प्राणियों की रक्षा या संरक्षण का अर्थ न केवल उनके प्राणों की रक्षा है; बल्कि क्षीण होती जा रही दुर्लभ प्राणियों की संख्या में वृद्धि , नस्ल में सुधार, उनके रहने के लिए पर्याप्त सुरक्षित वन, नदी नाले आदि का रक्षण है ।

 इतना ही नहीं चिड़ियाघर व अजायबघरों में जैसे उनके आहार और उपचार की व्यवस्था की जाती है, उसी प्रकार की व्यवस्था रक्षित जंगलों के प्राणियों के लिए भी होना चाहिए।

इसी प्रकार घने जंगलों के सफाया होने से भी उनका समुचित विकास नहीं हो पाया । घने जंगलों में ही वन्य प्राणियों की वृद्धि  हो सकती है अब शासन ने इस राष्ट्रीय समस्या से जूझने के लिए घने जंगलों की रक्षा के साथ ही कृत्रिम वन लगाने शुरु किए हैं और वन्य प्राणियों के संवर्धन की बात भी सोची जा रही है।

वन्य प्राणियों के संरक्षण हेतु शासन अनेक योजनाएँ तैयार कर रहा है और उसके क्रियान्वयन के लिए प्रभावशाली कदम उठाए जा रहे हैं । वर्तमान भारत में 106 राष्ट्रीय उद्यान एवं 500 से भी अधिक वन्य जीव अभयारण्य हैं। भारत का पहला राष्ट्रीय उद्यान उत्तराखंड के नैनीताल में 1935 में ‘हैली नेशनल पार्क’  के नाम से स्थापित किया गया था। जिसका वर्तमान नाम ‘जिम कार्बेट राष्ट्रीय उद्यान’ है। मध्यप्रदेश में सर्वाधिक राष्ट्रीय उद्यान है जिसमें बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान एवं कान्हा किसली राष्ट्रीय उद्यान प्रमुख हैं। भारत का सबसे बड़ा राष्ट्रीय उद्यान जम्मू कश्मीर के लेह में  ‘हिमिस राष्ट्रीय उद्यान’ है, जिसका कुल क्षेत्रफल ही 4400 वर्ग किलोमीटर है । देश का सबसे बड़ा बाघ अभयारण्य  ‘नागार्जुन सागर बाघ अभयारण्य’,  जो आंध्र प्रदेश में स्थापित है।  कलकत्ता में भारत प्राणिविज्ञान सर्वेक्षण का मुख्यालय है।

केंद्र शासित प्रदेशों में सर्वाधिक वन्य जीव अभयारण्य अंडमान निकोबार द्वीप समूह में हैं। इसके अलावा नामेरी, काजीरंगा, देंहिंग पटकाई और रायमोना राष्ट्रीय उद्यान प्रसिद्ध है।  छत्तीसगढ़ में इन्द्रावती, गुरुघासीदास, कांकेर राष्ट्रीय उद्यान हैं। अभयारण्यों में भैरमगढ़ वन्यजीव अभयारण्य, पामेड़ वन्यजीव अभयारण्य की स्थापना 1983 में की गई हैं। जो बीजापुर जिला के अंतर्गत हैं।

अब तो अफ्रीकी चीतों को श्योपुर जिले के ‘कूनो नेशनल पार्क’ में रखा गया है। यह वन्यजीव प्रेमियों के लिए हर्ष का विषय है।  इनके पीछे सरकार का एक मात्र उद्देश्य 'पशु, पक्षी या वन संपदा को संरक्षित करना, उसका विकास करना व शिक्षा तथा अनुसंधान के क्षेत्र में उसकी मदद लेना होता है।’

वन्य प्राणी हमारी प्रकृति में संतुलन रखते हैं । जो वन्य प्राणी हमारे लिए सहायक है और जो मरकर भी हमारे काम आते हैं उनकी रक्षा करना शासन का ही नहीं हर व्यक्ति का परम कर्तव्य है ।

सम्पर्कः पंचवटी नगर, मकान नं. 30, कृषि फार्म रोड, बोईरदादर, रायगढ़, छत्तीसगढ़, basantsao52@gmail.com, मो. 8319939396

यादेंः यहाँ बदला वफ़ा का बेवफाई के सिवा क्या है...

 - डॉ. दीपेन्द्र कमथान

पद्मश्री, पाँच राष्ट्रीय और छह फिल्म फेयर अवार्ड वाले मोहम्मद रफ़ी साहब की कब्र का नामोनिशाँ नहीं ।

रफ़ी साहब के बिना 42 साल कैसे गुज़र गए कभी महसूस ही नहीं हुआ, रफ़ी की आवाज़ आज भी कानों में ऐसी ज़िंदा है की लगता नहीं हमने उन्हें खो दिया।

24 दिसंबर 1924 को पंजाब के कोटा सुलतानसिंह गाँव में हाजी अली मोहम्मद और अल्लाह रक्खी बाई के घर में छठी संतान के रूप में रफ़ी का जन्म हुआ था । घर में प्यार से 'फ़ीकु' बुलाते थे ।

रफ़ी साहब की दो शादियाँ हुईं।  उनकी पहली पत्नी बाशीरा बीबी उनकी रिश्तेदार थीं जो देश विभाजन के समय हुए दंगों में मारे गए अपने माता -पिता की वजह से लाहौर, पाकिस्तान चली गईं, उनसे एक पुत्र सईद हुए ।

उनकी दूसरी पत्नी बिलकीस बानो थीं, जिनसे उनके 6 बच्चे हुए । उनके बेटे शाहिद  रफ़ी साहब के नाम से एक संगीत अकादमी चला रहे हैं और संगीत के क्षेत्र काफी सक्रिय हैं ।

गली मोहल्ले में गाते हुए एक फ़कीर को सुनकर उनकी  संगीत में रुचि पैदा हुई, जिसको उनके बड़े भाई ने महसूस कर उनको उस्ताद बड़े गुलाम अली खान, बरक़त अली खान, उस्ताद वाहिद खान, पंडित जीवन लाल मट्टू और फ़िरोज़ निज़ामी से शास्त्रीय संगीत की शागिर्दी दिलवाई ।

और सहगल साहब की भविष्यवाणी सच साबित हुई...

लाहौर के एक संगीत समारोह में कुंदन लाल सहगल को गाना था; मगर लाउडस्पीकर में तकनीकी कमी के कारण प्रोग्राम में कुछ विलम्ब हुआ, रफ़ी के बड़े भाई हमीद ने रफ़ी को स्टेज पर खड़ा कर दिया, उनकी आवाज़ जो गूँजी, तो चारों और एक मादक- सा नशा बिखर गया। सहगल साहब ने भविष्यवाणी की कि यह लड़का एक दिन बहुत बड़ा गायक बनेगा ।

मात्र 13 वर्ष की आयु में रफ़ी ने अपना पहला स्टेज प्रोग्राम दिया, जिसको सुनकर  संगीतकार श्याम सुंदर ने उनको मुंबई आने का न्योता दिया और अपनी एक पंजाबी फिल्म ‘गुलबलोच’ में ज़ीनत बेगम के साथ ‘सोनिये नी हीरिये नी’ गाना गवाकर रफ़ी को पार्श्व गायन का पहला मौका दिया ।

हिंदी फिल्मो में संगीतकार नौशाद अली ने 1944 में फिल्म ‘पहले आप’ में गवाया । नौशाद के ही निर्देशन में फिल्म ‘दुलारी’ का गाया गाना ‘सुहानी  रात  ढल  चुकी  ना  जाने तुम कब आओगे’  रफ़ी के लिए मील का पत्थर बन गया जिसके बाद रफ़ी ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा ।

6 फिल्म फेयर अवार्ड में पहला अवार्ड 1961 में फिल्म ‘चौदहवीं का चाँद’ के गाने ‘चौदहवीं का चाँद हो या आफताब’ हो के लिए मिला और छठा फिल्म फेयर अवार्ड 1977 में फिल्म ‘हम किसी से कम नहीं’ के गाने   ‘क्या हुआ तेरा वादा’ के लिए मिला, इसी गाने के लिए उन्हें 1977 में राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला ।

तीन मुस्लिमों ने दिया हिंदी का सर्वश्रेष्ठ ‘भजन’

आज कुछ मौलवी टीवी डिबेट में रफ़ी द्वारा गाया ‘खुदा भी आसमान से जब ज़मीं पर देखता होगा, मेरे मेहबूब को किसने बनाया सोचता होगा’ के ऊपर सवाल उठाते हैं। उनको इस बात का इल्म नहीं कि शकील बदायूँनी का लिखा नौशाद की धुन में पिरोया और रफ़ी की बेहतरीन शास्त्रीय गायन में ढला फिल्म ‘बैजू बावरा’ का भजन ‘मन तड़पत हरि दर्शन को आज’ उन लोगों के मुँह पर तमाचा है, जो धर्म के नाम पर लोगों को बरगलाते हैं ।

            रफ़ी का तानपुरा बरेली में          

जिस तानपुरे पर रफ़ी साहब ने ताउम्र रियाज़ किया, वो तानपुरा हमारे शहर बरेली में धरोहर के रूप में सुरक्षित है ।

बरेली में ‘नाईटएंगिल म्यूजिकल ग्रुप’ के संयोजक एवं महान संगीतकार स्वर्गीय ओ पी नय्यर साहब के शिष्य श्री राज मलिक ने अपने मुंबई प्रवास के दौरान तत्कालीन रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन की भतीजी लीला मेनन से खरीदा था, जो अब उनकी संग्रालय की शोभा बढ़ा रहा है ।

1944 में 3 गीत गाने वाले रफ़ी ने करीब 26000 गाने गाए, जिसमें तकरीबन 238 संगीतकार, 274 गीतकार एवं  206  गायक -गायिकाओं के साथ काम किया ।

संगीतकारों में सबसे ज्यादा 346 गाने शंकर जयकिशन के साथ और गीतकारों में 390 गाने मजरूह सुल्तानपुरी के लिखे गाये ।

उन्होंने 903 गाने आशा भोंसले , 447 लता मंगेशकर,172 गाने शमशाद बेगम, 154 सुमन कल्याणपुर  66 गाने किशोर, और 82 गाने मन्ना डे के साथ सहगान किया ।

रफ़ी ने 12 प्रादेशिक फिल्मों में करीब 79 गाने गाये। इसके अलावा गैर प्रादेशिक फ़िल्मी गीत, गैर फ़िल्मी भजन, नात क़व्वाली और ग़ज़ल भी गाई । रफ़ी साहब ने 2 अंग्रेजी गीत भी गाए ।

9 जुलाई 1986 में बांद्रा में पदमश्री मोहम्मद रफ़ी चौक का नाकरण किया गया एवं 22 सितम्बर, 2007 को  ‘तस्सवर बशीर’ द्वारा डिज़ाइन किए गए रफ़ी के पवित्र स्थल का फज़ले स्ट्रीट, बर्मिंघम, इंग्लैंड में उद्घाटन किया गया ।

भारत चीन युद्ध के समय रफ़ी साहब ने सीमाओं पर जाकर जवानों के हौसले बुलंद किए, उन्हें अपने गीतों के ज़रिये एक नया जोश दिया, हिम्मत दी । कृतज्ञ राष्ट्र ने उन्हें 1967 में  पद्मश्री  से सम्मानित किया ।

कुछ अनजाने तथ्य ...

गिनीस बुक में सबसे ज़्यादा रिकार्डेड गानों की संख्या रफ़ी साहब की है ।

1948 में स्वतन्त्रता दिवस पर रफ़ी को जवाहर लाल नेहरू ने रजत पदक दिया था ।

2001 में हीरो होंडा और स्टारडस्ट मैगज़ीन की तरफ से बेस्ट सिंगर ऑफ़ द मेल्लिनियम का ख़िताब मिला

2013 में रफ़ी को ‘ग्रेटर वॉयस इन हिंदी सिनेमा’ के लिए सबसे ज़्यादा वोट CNN – IBN’S पोल में  मिले ।

रफ़ी फ़िल्मी परदे पर दो फिल्मों के गाने में अभिनय करते दिखाई दिए, जिसमें एक गाना ‘तेरा जलवा जिसने देखा’ फिल्म ‘लैला मजनूं’ (1945) का, और दूसरा गाना ‘वो अपनी याद दिलाने को’ फिल्म ‘जुगनू’ (1947) था !

रफ़ी के ऊपर उनके बच्चों ने किताब प्रकाशित की ।

रफ़ी की बेटी ‘रफ़ी यास्मीन खालिद’ ने 2012 में Mohammad Rafi : Mere Abba – A Memoir (Westland Books,  ISBN no. 9789381626856)

‘रफ़ी शाहिद, देव, सुजाता ने 2015 में’ Mohammad Rafi : Golden Voice of the Silver Screen' (Om Book International, ISBN no. 9789380070971।

- लक्ष्मी प्यारे की पहली फिल्म ‘छैला बाबू’ ( जो बनी नहीं ) में सबसे पहले रफ़ी ने ग़ज़ल गाई- ‘तेरे प्यार में मुझे ग़म मिला तेरे प्यार की उम्र दराज़ हो’ ।

- शंकर जयकिशन की पहली फिल्म ‘बरसात’ का पहला गाना ‘मैं ज़िन्दगी में हरदम रोता ही रहा हूँ’ रफ़ी ने ही गाया था।

- ओ.पी. नय्यर की ‘बाज़ी’  और कल्याण जी आनंद जी की ‘बेदर्द जमाने क्या जाने’ के प्रथम गीत रफ़ी ने ही गाए  

- एस.डी. बर्मन की पहली फिल्म ‘दो भाई’, मदन मोहन की पहली फिल्म ‘आँखें’ ,आर .डी . बर्मन की पहली फिल्म ‘छोटे नवाब’ की पहली फिल्मों के गानों के अलावा रोशन , भप्पी लाहिरी , उषा खन्ना की पहली फिल्मों के गाने भी रफ़ी ने ही गाये थे ।

रविंद्र जैन जिनकी पहली फिल्म ‘राधेश्याम’ (जो सम्भवत: रिलीज़ नहीं हुई ) के गीतों को रफ़ी ने ही स्वर दिया था ।

26 जुलाई और वो आखरी  गीत !

- रफ़ी साहब ने अपना आखिरी गाना जे.ओम प्रकाश की फिल्म ‘आसपास’ का ‘शहर में चर्चा है ये दुनिया कहती है, गली में मेरी एक लड़की कुँवारी रहती है' लता मंगेशकर के साथ 26 जुलाई 1980 को रिकॉर्ड करवाया था, गीत लिखा था आनंद बक्शी ने और धुन बनायी थी लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल ने ।

मोहम्मद रफ़ी फ़िल्मी संगीत के पितामह के रूप में सदा याद किए जाते हैं। फिल्म इतिहास में उनका नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा हुआ है,आज भी उनको उतना ही सम्मान दिया जाता है जितना उनके जीवन काल में दिया जाता था ।

फ़िज़ा का एक एक कण उनको आज भी पुकारता है कि ‘अभी ना जाओ छोड़ कर कि दिल अभी भरा नहीं’ 

पर भगवान् ने शायद यहीं तक का साथ दिया था ...

31 जुलाई 1980 कि उस रात को रफ़ी साहब ‘तुम मुझे यूँ भुला ना पाओगे’ कहते हुए सब से सदा के लिए दूर हो गए।

कंकरीट के बढ़ते जंगल का इंसान अपने लालच में देश दुनिया के इस चहेते कलाकार की कब्र पर जाने कब का बुलडोज़र चला चुका है । रफ़ी के चाहने वाले अब उनकी  कब्र के नज़दीक लगे एक नारियल के पेड़ के पास इकट्ठे होकर श्रद्धांजलि देते हैं ।

लेखक  के  बारे  में : भारतीय सिनेमा का इतिहास (फिल्मोग्राफी) का संग्रह,  शिक्षा- ऍमएससी, पीएचडी (रसायन), पीजीडीजेएम्एस (मास कॉम), एमबीए । सम्पर्क : जे -10, रामपुर गार्डन, बरेली -243001, मो. 9837042827