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Jun 1, 2023

उदंती.com, जून 2023

वर्ष - 15, अंक - 10

जिनको  इस पृथ्वी से प्यार है, जो इसे सुनना चाहते हैं 

उनके लिए धरती के पास अपरम्पार मधुर संगीत है । 

                                      – सिडनी शेल्डन

अनकहीः समाधान हमारे पास ही है... - डॉ.  रत्ना वर्मा

जल संकटः सूख रही हैं भारत की नदियाँ - प्रमोद भार्गव

 कविताः जब नदी भूली रास्ता - हरभगवान चावला

 प्रेरकः बंजर जमीन को उसने जंगल में बदल दिया

 प्रकृतिः पतझड़ के बाद पेड़ों को पानी कैसे मिलता है? - डॉ. किशोर पँवार

पर्यावरणः पत्ता पत्ता सूख चुका था पेड़ बिचारा करता क्या? - अंजू खरबंदा

 कविताः  1. गाँव चाहता है , 2. एक पिता - राजेश पाठक

जल संरक्षणः रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून - अपर्णा विश्वनाथ

 वर्षा जलः बूँद- बूँद अनमोल - दीपाली ठाकुर

जीवन दर्शनः समाज सुधार का सूत्र - विजय जोशी

 पर्यावरणः ...बहुमंजिली इमारतों का जंगल  - रेखा श्रीवास्तव

 व्यंग्यः कमाल का आदमी… - गिरीश पंकज

 कहानीः जियो और जीने दो - श्यामल बिहारी महतो

 कविताः पिताजी चले गए - प्रियदर्शी खैरा

 कविताः पिता नहीं उफ़ करता है - पीयूष श्रीवास्तव

 कविताः सपने में आते हैं पिता - सांत्वना श्रीकान्त

 लघुकथाः गुलाब के लिए - कस्तूरीलाल तागरा

 लघुकथाः सीख - अंजलि गुप्ता ‘सिफ़र’

 लेखकों की अजब गज़ब दुनियाः गिन कर शब्‍द लिखने वाले लेखक - सूरज प्रकाश

 किताबेंः समय के चाक पर : संवेदनशीलता का सफ़रनामा - विजय जोशी

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रचनाकारों से .... 

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अनकहीः समाधान हमारे पास ही है...

 - डॉ.  रत्ना वर्मा

आपमें से कितने लोग हैं, जो गर्मियों की रात में अपने घर के आँगन या छत पर खुले आसमान तले खाट डालकर चाँद और तारे देखते हुए सोए हैं? मेरी पीढ़ी के बहुत लोग ऐसे होंगे, जिन्होंने ऐसे पलों जिया होगा। हम गर्मियों की छुट्टियों में, जो तब दो माह की हुआ करती थी, अपने गाँव में बिताते थे। खपरैलवाला दो मंजिला घर, मिट्टी से छबाई की हुई मोटी- मोटी दीवारें और गाय के गोबर से लीपे हुए आँगन, बरामदा और फिर कमरे। कितनी भी तेज गर्मी हो, मिट्टी की मोटी दीवारों को भेद कर सूरज की गर्मी कमरों में घुस ही नहीं पाती थी। 
 रात के भोजन के बाद आँगन में कुएँ से पानी लाकर छींटा मारा जाता था, ताकि धरती की गर्मी थोड़ी कम हो जाए, फिर परिवार के प्रत्येक सदस्य के लिए खाट बिछाकर बिस्तर लगा दिया जाता और हम सब बच्चे किस्से- कहानियाँ सुनते, चाँद के छोटे- बड़े होते आकार के बारे में बातें करते और तारों की गितनी करते, सप्तऋषियों को ढूँढते हुए सपनों की दुनिया में सैर करते हुए चैन की नींद सो जाया करते थे। यह उस ज़माने की बात है, जब गाँव में बिजली भी नहीं पहुँची थी। तब पंखे की जरूरत भी महसूस नहीं होती थी। आप कल्पना ही कर सकते हैं कि तब का वातावरण कितना निर्मल और शुद्ध हुआ करता था। जाहिर है, हरियाली इतनी थी कि दिन की गर्मी की तपन शाम होते ही कम होने लगती थी और रात होते ही हवा ठंडी हो जाया करती थी। पीपल, बड़, आम, इमली और नीम के विशालकाय वृक्षों से घिरे गाँव में तालाब और पोखर इतने अधिक होते थे कि धरती का तापमान संतुलित रहता था। 
पर यह सुख बहुत सालों तक नहीं रहा। धीरे- धीरे खपरैल के घर सिमेंट की पक्की छत में बदलते चले गए। मिट्टी के आँगन जो गोबर से लिपे- पुते कीटाणुरहित और स्वच्छ होते थे, फर्श में तब्दील होने लगे। गाँव के आस- पास के जंगल कटने लगे और धरती बंजर होने लगी। तालाब और पोखर भी सिमटते चले गए। लघु उद्योग- धंधों और कृषि पर निर्भर गाँव की अर्थव्यवस्था डगमगाने लगी। कुल मिलाकर गांधी जी ने ग्राम स्वराज्य का जो सपना देखा था, वह सब  एक- एक करके ऊँची- ऊँची गगनचुम्बी इमारतों, धुँआ उगलते कल- कारखानों और सरपट दौड़ती मोटर- गाड़ियों के शोर तले कहीं दबती चला गया। ऐसे माहौल में ताजी और ठंडी हवा का झोंका आए भी तो कहाँ से आए। तभी तो अब हमारी पीढ़ी के लोग छत और आँगन में खाट डालकर सोने की बात किस्से कहानियों की तरह वर्तमान पीढ़ी को सुनाते हैं, और वे आश्चर्य के साथ कहते हैं कि मच्छरों की इस भनभनाहट में दो पल भी छत पर खड़े नहीं हो सकते, रात भर सोना तो दूर की बात है। 
पर ऐसे किस्से- कहानियों को सुनाते हुए हमें यह भी याद रखना चाहिए कि साथ- साथ बच्चों को यह भी बताते चलें कि आखिर हम क्यों अब खुले आसमान तले सो नहीं सकते, क्यों बिना एयर कंडीशनर और पंखों के बिना जीवन गुजारना दूभर हो गया है ? विकास की इस  अंधी दौ़ड़ में शुद्ध हवा, शुद्ध पानी और शुद्ध भोजन की कमी क्यों होते जा रही है? जब तक हम उन्हें इनके पीछे का सच सब नहीं बताएँगे, वे पुरानी गलतियों से सबक नहीं लेंगे। 
 यह तो सर्वविदित है कि जनसंख्या वृद्धि के कारण मनुष्य दिन-प्रतिदिन जंगल को काटते हुए जमीन पर कब्जा करते चले जा रहा है। खाद्य पदार्थों की आपूर्ति के लिए रासायनिक खादों का प्रयोग किया जा रहा है, जिससे हमारी उपजाऊ जमीन तो प्रदूषित हो ही गई है, इन रासायनिक कीटाणुओं ने धरती के जल भी प्रदूषित कर दिया है। जनसंख्या बढ़ी, तो यातायात के नए नए साधन भी बढ़े, जिसके कारण ध्वनि एवं वायु प्रदूषित इतना बढ़ा कि सुनने और साँस लेने में तकलीफ होने लगी। इन सबके चलते नई- नई बीमारियों ने मनुष्य को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। इन सबका जिम्मेदार कोई दूसरा नहीं, हम स्वयं है, हमारी बदलती जीवनशैली है, हमारा बदलता खान- पान है। 
सभ्यता के विकास के साथ- साथ मनुष्य ने कई नए आविष्कार तो कर लिये और उन्नति के अनेक सोपान भी पार कर लिये;  परंतु औद्योगीकरण एवं नगरीकरण की बढ़ती इस प्रवृत्ति से धरती की आबो-हवा इतनी प्रदूषित होती चली गई कि हमने अपना जीवन ही असुरक्षित कर लिया। और अब इस समस्या से पूरा विश्व इस चिंता में है कि इसका निराकरण कैसे किया जाए? क्योंकि कहीं बहुत ज्यादा गर्मी है, तो कहीं बहुत ज्यादा ठंड। गौर किया जाए, तो प्रदूषण वृद्धि का एक बड़ा कारण मानव की वे अवांछित गतिविधियाँ हैं, जो प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन करते हुए इस पृथ्वी को कूड़े-कचरे का ढेर बना रही है। कूड़े-कचरे के बढ़ते इस जंगल के कारण जल, वायु और भूमि जिस तेजी से प्रदूषित हो रही है, वह सम्पूर्ण जगत् के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं। 
अब प्रश्न यही है कि ऐसा क्या करें कि इस वैश्विक समस्या का समाधान मिले? दरअसल इसके जवाब में सवाल ही ज्यादा उठ रहे है कि क्या हम फिर से गोबर से लिपे छप्पर वाले घर में रह सकते हैं? या आज बन रही इमारतों को इतना हवादार बना सकते हैं कि कमरों में एसी की जरूरत न हो! क्या हम अपनी उपजाऊ भूमि को रासायनिक दवाओं से मुक्त कर सकते हैं? क्या हम अपने रहने वाले स्थान को कूड़े- कचरे से मुक्त साफ- सुथरा बना कर रख सकते हैं, क्या हममें से प्रत्येक इंसान प्लास्टिक का उपयोग न करने का संकल्प ले सकता है? इस तरह के ढेरों सवाल हैं, जिनके जवाब हम सबके पास ही हैं । तो जाहिर है इन सबका हल भी हमारे पास ही है, जरूरत उस पर अमल करने की है।

जल संकटः सूख रही हैं भारत की नदियाँ

 - प्रमोद भार्गव

अमेरिका के न्यूयॉर्क में पाँच दशकों के बाद शुद्ध और मीठे (ताज़े) पानी के लिए जल सम्मेलन संपन्न हुआ है। इस सम्मेलन में हिमालय से निकलने वाली गंगा समेत दस प्रमुख नदियों के भविष्य में सूख जाने की गंभीर चिंता जताई गई है। सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंतोनियो गुतारेस ने आगाह किया कि ‘आने वाले दशकों में जलवायु संकट के कारण हिमनदों (ग्लेशियर) का आकार घटने से भारत की सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी नदियाँ जल-प्रवाह घट जाने से सूख सकती हैं। 

हिमनद पृथ्वी पर जीवन के लिए आवश्यक हैं। दुनिया के 10 प्रतिशत हिस्से में हिमनद हैं, जो दुनिया के लिए शुद्ध जल का बड़ा स्रोत हैं। यह चिंता इसलिए है, क्योंकि मानवीय गतिविधियाँ पृथ्वी के तापमान को खतरनाक स्तर तक ले जा रही हैं, जो हिमनदों के निरंतर पिघलने का कारण बन रहा है। गुतारेस ने यह वक्तव्य इंटरनेशनल ईयर ऑफ ग्लेशियर प्रिज़र्वेशन विषय पर आयोजित कार्यक्रम में दिया। इस आयोजन में जारी रिपोर्ट के अनुसार 2050 तक आने वाले जल संकट से प्रभावित होने वाले देशों में भारत प्रमुख होगा।    

गंगा, ब्रह्मपुत्र समेत एशिया की दस नदियों का उद्गम हिमालय से ही होता है। अन्य नदियाँ झेलम, चिनाव, व्यास, रावी, सरस्वती और यमुना हैं। ये नदियाँ सामूहिक रूप से 1.3 अरब लोगों को ताज़ा (मीठा) पानी उपलब्ध कराती हैं। 

पानी की समस्या से प्रभावित लोगों में से अस्सी प्रतिशत एशिया में हैं। यह समस्या भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और चीन में सबसे ज़्यादा है। सीएसई की पर्यावरण स्थिति रिपोर्ट 2023 के अनुसार देश में 2031 में पानी की प्रति व्यक्ति वार्षिक औसत उपलब्धता 1367 घन मीटर रह जाएगी जो 1950 में 3000-4000 घन मीटर थी। विडंबना है कि जहाँ पानी की उपलब्धता घट रही है, वहीं पानी की खपत बढ़ रही है। रिपोर्ट के अनुसार 2017 में पानी की ज़रूरत जहाँ 1100 अरब घन मीटर थी, वह बढ़कर 2050 में 1447 घन मीटर हो जाएगी। खेती के लिए 200 घन मीटर अतिरिक्त पानी की ज़रूरत होगी। सीएसई रिपोर्ट के मुताबिक गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना नदी प्रणाली का जलग्रहण क्षेत्र कुल नदी जलग्रहण क्षेत्र का 43 प्रतिशत है। इनमें पानी का कम होना देश में बड़ा जल संकट पैदा कर सकता है। भारत में दुनिया की 17.74 प्रतिशत आबादी है, जबकि उसके पास मीठे पानी के स्रोत केवल 4.5 प्रतिशत ही हैं। तो, नदियाँ सूखने के संकेत चिंताजनक हैं।  

हिमालयी नदियों के सूखने की चेतावनी इसलिए सच लगती है, क्योंकि कनाडा की स्लिम्स नदी के सूखने का घटनाक्रम एवं नाटकीय बदलाव एक ठोस सच्चाई के रूप में छह साल पहले सामने आ चुका है। इस घटना को भू-विज्ञानियों ने ‘नदी के चोरी हो जाने’ की उपमा दी थी। ऐसा इसलिए कहा गया, क्योंकि नदियों के सूखने अथवा मार्ग बदलने में हज़ारों साल लगते हैं, जबकि यह नदी चार दिन के भीतर ही सूख गई थी। नदी के विलुप्त हो जाने का कारण जलवायु परिवर्तन माना गया था। तापमान बढ़ा और कास्कावुल्श नामक हिमनद जो इस नदी का उद्गम स्रोत है, वह तेज़ी से पिघलने लगा। नतीजतन सदियों पुरानी स्लिम्स नदी 26 से 29 मई 2016 के बीच सूख गई। जबकि इस नदी का जलभराव क्षेत्र 150 मीटर चौड़ा था। 

आधुनिक इतिहास में इस तरह से नदी का सूखना विश्व में पहला मामला था। प्राकृतिक संपदा के दोहन के बूते औद्योगिक विकास में लगे मनुष्य को यह चेतावनी भी है कि यदि विकास का स्वरूप नहीं बदला गया, तो मनुष्य समेत संपूर्ण जीव जगत का संकट में आना तय है। 

वाशिंगटन विश्वविद्यालय के भू-गर्भशास्त्री डेनियल शुगर के नेतृत्व में शोधकर्ताओं का एक दल स्लिम्स नदी की पड़ताल करने मौके पर पहुँचा था। लेकिन उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि अब वहाँ कोई नदी रह ही नहीं गई थी। न केवल नदी का पानी गायब हुआ था, बल्कि भौगोलिक परिस्थिति भी पूरी तरह बदल गई थी। इन विशेषज्ञों ने नदी के विलुप्त होने की यह रिपोर्ट ‘रिवर पायरेसी’ शीर्षक से नेचर में प्रकाशित की है। रिपोर्ट के मुताबिक ज़्यादा गर्मी की वजह से कास्कावुल्श हिमनद की बर्फ तेज़ी से पिघलने लगी और इस कारण पानी का बहाव काफी तेज़ हो गया। जल के इस तेज़ प्रवाह ने हज़ारों साल से बह रही स्लिम्स नदी के पारंपरिक रास्तों से दूर अपना अलग रास्ता बना लिया। अब नई स्लिम्स नदी विपरीत दिशा में अलास्का की खाड़ी की ओर बह रही है, जबकि पहले यह नदी प्रशांत महासागर में जाकर गिरती थी।

जिस तरह से स्लिम्स नदी सूखी है, उसी तरह से हमारे यहाँ सरस्वती नदी के विलुप्त होने की कहानी संस्कृत के प्राचीन ग्रंथों में दर्ज है। गंगोत्री राष्ट्रीय उद्यान के द्वार खुलने के बाद जो ताज़ा रिपोर्ट सामने आई है, उससे पता चला है कि गंगोत्री का जिस हिमखंड से उद्गम स्रोत है, उसका आगे का 50 मीटर व्यास का हिस्सा भागीरथी के मुहाने पर गिरा हुआ है। हालांकि गोमुख पर तापमान कम होने के कारण यह हिमखंड अभी पिघलना शुरू नहीं हुआ है। यही वह गंगोत्री का गोमुख है, जहाँ से गंगा निकलती है। 2526 कि.मी. लंबी गंगा नदी देश की सबसे प्रमुख नदियों में से एक है। अनेक राज्यों के करीब 40 करोड़ लोग इस पर निर्भर हैं। इसे गंगोत्री हिमनद से पानी मिलता है; परंतु 87 साल से 30 कि.मी. लंबे हिमखंड से पौने दो कि.मी. हिस्सा पिघल चुका है। 

भारतीय हिमालय क्षेत्र में 9575 हिमनद हैं। इनमें से 968 हिमनद सिर्फ उत्तराखंड में हैं। यदि ये हिमनद तेज़ी से पिघलते हैं, तो भारत, पाकिस्तान और चीन में भयावह बाढ़ की स्थिति पैदा हो सकती है। 

इसी तरह अंटार्कटिका में हर साल औसतन 150 अरब टन बर्फ पिघल रही है, जबकि ग्रीनलैंड की बर्फ और भी तेज़ी से पिघल रही है। वहाँ हर साल 270 अरब टन बर्फ पिघलने के आँकड़े दर्ज किए गए हैं। यदि यही हालात बने रहे, तो समुद्र में बढ़ता जलस्तर और खारे पानी का नदियों के जलभराव क्षेत्र में प्रवेश इन विशाल डेल्टाओं के बड़े हिस्से को नष्ट कर देगा।                                          

अल्मोड़ा स्थित पंडित गोविंद वल्लभ पंत हिमालय पर्यावरण एवं विकास संस्थान के वैज्ञानिकों का मानना है कि हिमखंड का जो अगला हिस्सा टूटकर गिरा है, उसमें 2014 से बदलाव नज़र आ रहे थे। वैज्ञानिक इसका मुख्य कारण चतुरंगी और रक्तवर्ण हिमखंड का गोमुख हिमखंड पर बढ़ता दबाव मान रहे हैं। यह संस्था वर्ष 2000 से गोमुख हिमखंड का अध्ययन कर रही है। वैज्ञानिकों के अनुसार 28 कि.मी. लंबा और 2 से 4 कि.मी. चौड़ा गोमुख हिमखंड 3 अन्य हिमखंडों से घिरा है। इसके दाईं ओर कीर्ति तथा बाईं ओर चतुरंगी व रक्तवर्णी हिमखंड हैं। इस संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. कीर्ति कुमार ने बताया है कि हिमखंड की जो ताज़ा तस्वीरें और वीडियो देखने में आए हैं, उनसे पता चलता है कि गोमुख हिमखंड के दाईं ओर का हिस्सा आगे से टूटकर गिर पड़ा है। इसके कारण गोमुख की आकृति वाला हिस्सा दब गया है। यह बदलाव जलवायु परिवर्तन के कारण भी हो सकता है, लेकिन सामान्य तौर से भी हिमखंड टूटकर गिरते रहते हैं। 

साफ है, इस तरह से यदि गंगा के उद्गम स्रोतों के हिमखंडों के टूटने का सिलसिला बना रहता है, तो कालांतर में गंगा की अविरलता तो प्रभावित होगी ही, गंगा की विलुप्ति का खतरा भी बढ़ता चला जाएगा। 

गंगा का संकट टूटते हिमखंड का ही नहीं हैं, बल्कि औद्योगिक विकास का भी है। कुछ समय पूर्व अखिल भारतीय किसान मज़दूर संगठन की तरफ से बुलाई गई जल संसद में बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के जरिए जलस्रोतों के दुरुपयोग और इसकी छूट दिए जाने का भी विरोध किया था। कानपुर में गंगा के लिए चमड़ा, जूट और निजी बॉटलिंग प्लांट संकट बने हुए हैं। टिहरी बाँध बना तो सिंचाई के लिए था, लेकिन इसका पानी दिल्ली जैसे महानगरों में पेयजल आपूर्ति के लिए कंपनियों को दिया जा रहा है। गंगा के जलभराव क्षेत्र में खेतों के बीचों-बीच पेप्सी व कोक जैसी निजी कंपनियाँ बोतलबंद पानी के लिए बड़े-बड़े नलकूपों से पानी खींचकर एक ओर तो मोटा मुनाफा कमा रही हैं, वहीं खेतों में खड़ी फसल सुखाने का काम कर रही हैं। यमुना नदी से जेपी समूह के दो ताप बिजली घर प्रति घंटा 97 लाख लीटर पानी खींच रहे है। इससे जहाँ दिल्ली में जमुना पार इलाके के 10 लाख लोगों का जीवन प्रभावित होने का अंदेशा है, वहीं यमुना का जलभराव क्षेत्र तेज़ी से छीज रहा है।

ब्रिटिश अर्थशास्त्री ई.एफ. शुमाकर की किताब स्मॉल इज़ ब्यूटीफुल 1973 में प्रकाशित हुई थी। इसमें उन्होंने बड़े उद्योगों की बजाय छोटे उद्योग लगाने की तरफ दुनिया का ध्यान खींचा था। उनका सुझाव था कि प्राकृतिक संसाधनों का कम से कम उपयोग और ज़्यादा से ज़्यादा उत्पादन होना चाहिए। शुमाकर का मानना था कि प्रदूषण को झेलने की प्रकृति की भी एक सीमा होती है। सत्तर के दशक में उनकी इस चेतावनी का मज़ाक उड़ाया गया था; लेकिन अब जलवायु परिवर्तन पर काम करने वाले सरकारी और गैर-सरकारी संगठन शुमाकर की चेतावनी को स्वीकार रहे हैं। वैश्विक मौसम जिस तरह से करवट ले रहा है, उसका असर अब पूरी दुनिया पर दिखाई देने लगा है। भविष्य में इसका सबसे ज़्यादा खतरा एशियाई देशों पर पड़ेगा। एशिया में गरम दिन बढ़ सकते हैं या फिर सर्दी के दिनों की संख्या बढ़ सकती है। एकाएक भारी बारिश की घटनाएँ हो सकती हैं या फिर अचानक बादल फटने की घटनाएँ घट सकती हैं। न्यूनतम और अधिकतम दोनों तरह के तापमान में खासा परिवर्तन देखने में आ सकता है। इसका असर पारिस्थितिक तंत्र पर तो पड़ेगा ही, मानव समेत तमाम जंतुओं और पेड़-पौधों की ज़िंदगी पर भी पड़ेगा। लिहाज़ा, समय रहते चेतने की ज़रूरत है। स्लिम्स नदी का लुप्त होना और 10 हिमालयी नदियों के सूखने की चेतावनी को गंभीरता से लेने की ज़रूरत है। 

कविताः जब नदी भूली रास्ता

 




 - हरभगवान चावला

नदी अभी बच्ची थी

हठी थी

पहाड़ पिता की गोद छोड़

निकल गई टहलने अकेली

फिर वह रास्ता भटक गई

उसने न कोई शहर देखा था

न रेलवे स्टेशन

न राजमार्ग

न कोई अमूल्य ऐतिहासिक धरोहर

न किसी से उसकी पहचान ही थी

वह कभी अपने घर नहीं लौटी

ओ मनुष्यो!

ओ पशुओ!

ओ पक्षियो!

ओ वनस्पतियो!

उस ज़िद को शुक्रिया कहो

जिसने नदी को पिता की गोद से उतारा

उस पल को भी शुक्रिया कहो

जब नदी भूली अपना रास्ता।

सम्पर्कः 406, सेक्टर- 20, सिरसा, 125055,  (हरियाणा)

जल संरक्षणः रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून

 -  अपर्णा विश्वनाथ

प्रकृति प्रदत्त नि:शुल्क पानी को बढ़ती जनसंख्या और मनुष्यों की लापरवाहियों ने सशुल्क बना दिया। नतीजों की परवाह किए बगैर, हम थोड़े से रुपये अदा करने के एवज में बेहिसाब पानी खर्च करते रहे हैं और आज नल में पानी नहीं है ... या नहीं आएगा सुनते ही हमारा दिमाग सातवें आसमान पर पहुँच जाता है। सोचने लगते हैं ...

ओह ! अब क्या होगा ?

फिर क्या, पूरा ध्यान और जद्दोजहद पानी को लेकर और पानी की कवायद शुरू। मौसम गर्मी का हुआ तो फिर क्या ही कहने। इस फ़िराक में कि कहीं से आ जाए पानी, सौ बार हम नल को टटोल आएँगे।

कल्पना कीजिए दो-तीन दिन पानी न आए, तो क्या माहौल होगा घरों में। घर के अंदर ही शीत युद्ध का माहौल-सा बन जाएगा। अशांत मन पानी की तलाश में और फिर पूरी दिनचर्या अस्त- व्यस्त।

लेकिन यह स्थिति बद से बदतर तब और हो जाएगी जब धरती का आँचल ही सूख जाएगा।

एक पल के लिए हम अन्न खाए बिना रहने की सोच सकते हैं, लेकिन बिना पानी के रहना, नहीं और यही अटल सत्य है।

इन सभी बातों का सार यही है कि हम मानव ‘जल के बिना’ की परिकल्पना भी नहीं कर सकते हैं, साथ ही पानी हमारे सामाजिक और आर्थिक प्रगति को प्रत्यक्ष रूप से भी प्रभावित करता है।

*रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून*

वर्षों पुराना यह दोहा मनुष्य के व्यवहार को लेकर कहा गया था; लेकिन आज यह सच साबित होता दिख रहा है, क्योंकि पानी की कमी, बर्बादी या किल्लत को लेकर व्यक्तिगत तौर पर किसी को कोई सरोकार नहीं। हम अक्सर लोगों से यह सुनने को मिलता है कि यह तो सरकार का काम है पानी मुहैया कराएँ। नहीं तो अपना अपना चापाकल ( बोर वेल ) खुदवाएँ।

क्या यह समस्या का समाधान है ?

क्या किसी ने सोचा कि अगर धरती ही सूख जाएगी तो चापाकल या सरकार कहाँ से पानी निकाल हम-आपको देंगें?

क्या हमने कभी यह सोचा कि धरती के अंदर पानी है भी कि नहीं ?

क्या इस साल बारिश हुई ?

अगर हाँ, तो क्या हमने बारिश के पानी को जमा किया ? ताकि अगले बरस बारिश न हो तो जमा किया हुआ पानी काम में आ सकें।

नहीं न,...क्योंकि इन सबको सोचने का जिम्मा हमने सरकारों पर जो छोड़ रखा है, कि निपट लेगी सरकार।

सोचा है किसी ने? कि सरकारें भी तभी कुछ कर सकती हैं जब धरती के अंदर पानी होगा।

हम अंदाजा भी नहीं लगा सकते हैं कि सूखी धरती पर रहने वालों का जीवन किस कदर बिखर जाएगा। इन विषयों और विवादों की गहराई में अगर हम जाएँ,  तो पानी हमारे सामाजिक और आर्थिक प्रगति को क्यों और कैसे सीधे तौर पर प्रभावित करता है यह स्पष्ट ज्ञात होगा।

*पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा* ने बढ़ते जल संकट और पानी के भयावह स्थिति को देखते हुए एक समय में यह कहा था कि अगला विश्वयुद्ध पानी को लेकर लड़ा जाएगा, अतिशयोक्ति नहीं।

राज्यों के बीच नदी के पानी को लेकर लड़ाई भारत में बड़े अंतर राज्यीय जल विवादों के उदाहरणों से हम में से अधिकतर लोग अवगत हैं। चाहे वह कावेरी जल विवाद, रावी- व्यास नदी जल विवाद, नर्मदा नदी जल विवाद हो या कृष्णा नदी जल विवाद। नदियों के जल को लेकर राज्य और देशों में कलह। क्योंकि पानी तो हर हाल में हर किसी को चाहिए।

अगली बार शायद जल को लेकर ही विश्व युद्ध हो जाए। इसे भी नकारा नहीं जा सकता है। आज अनेकानेक कारणों से, चाहे वह महामारी से हो या युद्ध से अनगिनत लाशों की खबर सबने देखी और सुनी; लेकिन बहुत जल्द ही यह भी दिन देखने, सुनने को मिलेगा कि पानी के अकाल के चलते अनगिनत लोग मरे। सोचिए जब चारों ओर पानी के बिना लाशें ही लाशें नजर आएँगी।

उस वक्त इस देश का क्या होगा ?

सेंटर फॉर साइंस ऐंड इन्वाइरनमेंट (सीएसई) की एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि 2030 तक देश में पानी का स्रोत ही खत्म हो जाएगा और सिर्फ बेंगलुरु ही नहीं, बल्कि देश के ऐसे कई शहर होंगे जो 2030 तक ‘डे जीरो’ की कगार पर पहुँच जाएँगे।

‘डे जीरो’ का मतलब उस दिन से है जब किसी शहर के पास उपलब्ध पानी के स्रोत खत्म हो जाएँगे और वे पानी की आपूर्ति के लिए पूरी तरह अन्य साधनों पर निर्भर हो जाएँगे; क्योंकि दुनिया भर में जितना मीठा पानी मौजूद है, उसमें से भारत के पास सिर्फ 4 फीसदी ही पीने लायक पानी बचा है।

आपदा कोई भी हो परिणाम गंभीर रूप में सामने आती हैं, लेकिन दूसरे प्राकृतिक आपदाओं की तुलना में सूखे का प्रभाव अधिक गंभीर होता है। सूखे की स्थिति को हम जटिल और खतरनाक इसलिए भी कह सकते हैं कि यह सामाजिक और आर्थिक प्रगति को प्रभावित करने के साथ ही जीवन के लिए जटिल चुनौतियों को भी जन्म देती है।

मौसम संबंधी सूखा तब होता है, जब किसी क्षेत्र में शुष्क मौसम हावी होता है। हाइड्रोलॉजिकल सूखा तब होता है, जब कम पानी की आपूर्ति स्पष्ट हो जाती है, खासकर नदियों, जलाशयों और भूजल स्तरों में; आमतौर पर कई महीनों के मौसम संबंधी सूखे के बाद। कृषि सूखा तब होता है जब फसलें प्रभावित हो जाती हैं और सामाजिक आर्थिक सूखा विभिन्न वस्तुओं की आपूर्ति और मांग को सूखे से जोड़ता है।

मौसम संबंधी सूखा तेजी से शुरू और समाप्त हो सकता है, जबकि हाइड्रोलॉजिकल और अन्य प्रकार के सूखे को विकसित होने में अपेक्षाकृत अधिक समय लगता है। सूखे से होने वाली हानि सभी प्राकृतिक आपदाओं से होने वाले कुल नुकसान का लगभग 22 प्रतिशत है, जो कि बहुत गंभीर है।

पानी हमारे शरीर के बाहर के साथ- साथ अंदर के लिए भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। मात्र -

‘जल का दुरुपयोग न करें’

‘पानी बचाओ’

‘जल ही जीवन है ‘

‘जल है तो कल है’ आदि स्लोगन का नारा लगाने से पानी नहीं बचता है। रोजमर्रा की जिंदगी में अमल में भी लाना चाहिए। हमें केवल अपने अधिकारों के ही नहीं वरन् कर्तव्यों का भी पालन करना चाहिए।

महात्मा गांधी ने कहा था कि अधिकार एवं कर्तव्य दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू कहा है। पानी को बर्बाद होने से बचाना हमारा ही कर्तव्य है।

इस समय पानी के संरक्षण के लिए सर्वप्रथम वैज्ञानिक आविष्कार की नहीं बल्कि वैचारिक आविष्कारों की आवश्यकता है। कुछ जिम्मेवारी या कर्तव्य को हम अपने घरों में रहकर निभा सकते हैं।

पानी संरक्षण में अगर हर एक व्यक्ति अपनी भागीदारी निभाएँ, तो निःसंदेह धरती को सूखने से बचाया जा सकता है। कहावत कि बूँद-बूँद सागर भरता है। उसी तरह हर एक व्यक्ति की भागीदारी से हम धरती के अंदर पानी को सहेज कर रख सकते हैं और सूखने से बचा सकते हैं।

आज की पीढ़ी प्रकृति प्रदत्त पानी को बोतल में बंद बिकता देख रही हैं। पानी अगर बर्बाद होता रहा तो आने वाली पीढ़ी पता नहीं जल को किस रूप में देख पाएँगे।

क्या यह हमारा कर्तव्य नहीं कि हम अपनी आने वाली पीढ़ी को हरी-भरी धरती सौंपें।

इसके लिए आज हमें जल का उपयोग बुद्धिमानी से करने के साथ कुछ छोटे- छोटे मगर महत्त्वपूर्ण बातों को अमल में लाना होगा।

अपने दैनिक जीवन में इसकी हम शुरुआत कर सकते हैं।

★पानी के संरक्षण में सबसे पहले पानी के अपव्यय को रोकने के लिए निम्नलिखित पर अंकुश लगाकर या कम करके कर सकते हैं :

★नल से पानी के रिसाव को बंद करें।

★नहाने के लिए शॉवर की जगह बकेट में पानी का इस्तेमाल करें।

★वॉश बेसिन में पानी धीरे चलाएँ या ब्रश करने के लिए मग में पानी लें।

★उपयोग में न होने पर नल को खुला न छोड़ें।

★घरेलू उपयोग से या किचन से निकला पानी का निष्कासन सीधे बगीचे में हो ऐसा इंतजाम करना चाहिए।

★वाहनों को साफ करने के लिए कम से कम पानी का इस्तेमाल करें।

★ लॉन या बगीचे में भी पानी का अपव्यय न होने दें।

उपर्युक्त सभी बातें हैं तो साधारण, लेकिन इन्हें अमल में लाकर हम असाधारण जल संकट से निजात पा सकते हैं।

★इसके अलावा वृहत् पैमाने पर अपने- अपने राज्यों में जल- संसाधन विभाग द्वारा कुएँ, तालाब या नहर खुदवाने के सुझाव तथा पुराने जर्जरीभूत जलस्रोत को दुरुस्त करने की कवायद कर सकते हैं।

★वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम घर- घर में तैयार किया जाए।

सरकार द्वारा पेड़ों की अवैध कटाई पर रोक लगाई जाए।

★नए पेड़ उगाएँ ताकि वर्षा का जल इनके जड़ों में जमा होता रहें। पेड़ की गहरी जड़ें पानी को सोख नमी को बरकरार रखते हैं। धरती को सूखने नहीं देते।

★स्थानीय विद्यालयों में जल-संसाधन और संरक्षण के विषयों पर बच्चों को अवगत कराने तथा स्थानीय लोगों में जल संकट और बचाव के प्रति जागरूकता लाने के लिए अभियान या रैलियाँ निकालना।

★वैचारिक तथ्य यह है कि धरती हरी-भरी रहे इसका सारा दारोमदार बारिश पर टिका हुआ है। कलकल बहती नदियाँ भी तभी होंगी और हमारे नलों में पानी।

★ हम सबकी सामूहिक तौर पर यह जिम्मेदारी है कि धरती को सूखने से बचाने के लिए चिंतित होने के बजाय नियंत्रण और प्राकृतिक उपायों पर अमल करें और ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगाएँ।

प्रकृतिः पतझड़ के बाद पेड़ों को पानी कैसे मिलता है?

- डॉ. किशोर पंवार

सतपुड़ा, विंध्याचल या अरावली पर्वत शृंखलाओं के जंगलों में कभी फरवरी- मार्च के महीनों में पैदल चलकर देखिए; सूखे पत्तों की चरमराहट की आवाज़ साफ सुनाई देगी। मानो पत्ते कह रहे हों कि जनाब आप पतझड़ी जंगल में विचर रहे हैं। इन जंगलों में कहीं-कहीं पर तो सूखे पत्तों की यह चादर एक फीट तक मोटी होती है, जो सेमल, पलाश, अमलतास, सागौन वगैरह के पत्तों के गिरने से बनी होती है।

अप्रैल- मई के महीनों में जब तेज़ गर्म हवाएँ चल रही होती हैं, हवा भी सूखी होती है, धरती का कंठ भी सूखने लगता है। उस समय देखने में आता है कि इन पतझड़ी पेड़ों के ठूँठ हरे होने लगते हैं। पलाश, अमलतास, सुनहरी टेबेबुइया और पांगरा फूलने लगते हैं। लेकिन बिना पानी के यह कैसे संभव है? हमारे बाग-बगीचों की तरह जंगल में तो कोई पानी देने भी नहीं जाता। तब पेड़ों पर फूटने वाली नई कोपलों और फूलों के लिए भोजन-पानी कहाँ से आता है? जबकि ये पेड़ अपनी पाक शालाएँ (पत्तियाँ) तो दो महीने पहले ही झाड़ चुके थे।

इस सवाल का जवाब एक शब्द ‘सुप्तावस्था’ में छुपा हुआ है। दरअसल ये पेड़-पौधे आने वाले सूखे गर्म दिनों को भाँप लेते हैं; अत: आने वाली गर्मियों (या ठंडे देशों में जाड़े) के मुश्किल दिनों को टालने के लिए ये पेड़ दो-तीन महीनों की विश्राम की अवस्था में चले जाते हैं, लेकिन पूरी तैयारी के साथ। जब तैयारी पूरी हो जाती है, तब सूचना- पटल के रूप में पेड़ों की ये लाल-पीली पत्तियाँ इन पेड़ों की टहनियों पर टँगी नज़र आती हैं कि अब दुकान बंद हो गई है। फिर कुछ ही दिनों में हवा के झोंकों से ये पत्तियाँ भी गिर जाती हैं।

इन पतझड़ी पेड़ों की ही तरह ठंडे देशों में ग्रिज़ली बेयर यानी भूरा भालू और डोरमाइस, जो कि एक प्रकार का चूहे जैसा रात्रिचर जीव है, सुप्तावस्था (या शीतनिद्रा) में चले जाते हैं। ग्रिज़ली भालू जाड़ा पड़ने के पहले खा-खाकर अपने शरीर में वसा की इतनी मोटी परत चढ़ा लेता है कि पूरी सर्दियों जीवित रह सके।

पतझड़ी पेड़ भी सुप्तावस्था की तैयारी बिल्कुल ऐसे ही करते हैं। सूर्य की ऊर्जा से वे शर्करा और अन्य पदार्थ बनाते हैं, जिन्हें वे अपनी त्वचा के नीचे भंडारित करके रखते हैं। पेड़ों की त्वचा यानी उनकी मोटी छाल, जो ऊपर से तो मरी-मरी लगती है पर अंदर से जीवित होती है। एक निश्चित बिंदु पर आकर पेड़ों का पेट भर जाता है; इस स्थिति में पेड़ थोड़े मोटे भी लगने लगते हैं। ठंडे देशों के चेरी कुल के जंगली पेड़ों की पत्तियाँ अक्टूबर के पहले ही लाल होने लगती हैं और इसका सीधा अर्थ यह होता है कि उनकी छाल और जड़ों में भोजन संग्रह करने वाले स्थान भर चुके हैं, और यदि वे और शर्करा बनाते हैं तो उसे भंडारित करने के लिए अब उनके पास कोई जगह नहीं बची है।

ठंडे देशों में पहली जोरदार बर्फबारी होने तक, उन्हें अपनी सभी गतिविधियाँ बंद करनी होती हैं। इसका एक

महत्त्वपूर्ण कारण पानी है; सजीवों के उपयोग हेतु इसे तरल अवस्था में होना ज़रूरी होता है; परंतु लगता है कुछ पेड़ अभी जाड़े के मूड में नहीं हैं। ऐसा दो कारणों से होता है- पहला कि वे अंतिम गर्म दिनों का उपयोग ऊर्जा- संग्रह के लिए करते रहते हैं, और दूसरा अधिकतर प्रजातियाँ पत्तियों से ऊर्जा- संग्रह कर अपने तनों और जड़ों में भोजन भेजने में लगी होती हैं। और सबसे महत्त्वपूर्ण यह कि उन्हें अपने हरे रंग के क्लोरोफिल को उसके घटकों में तोड़कर उन घटकों को संग्रह करना होता है, ताकि आने वाले बसंत में नई पत्तियों में क्लोरोफिल के निर्माण में इनका उपयोग हो सके।।

गर्म देशों के हों या ठंडे देशों के पतझड़ी पेड़ों के लिए बासी पत्तियों को गिराना एक प्रभावी सुरक्षा योजना होती है। यह पेड़ों के लिए अपने व्यर्थ या अवांछित पदार्थों को त्यागने का एक अवसर भी होता है। व्यर्थ पदार्थ ज़मीन पर इधर-उधर उनकी त्यागी हुई पत्तियों के रूप में उड़ते रहते हैं। जब पत्तियों में भंडारित ऊर्जा वापस शाखाओं और जड़ों में अवशोषित कर ली जाती है, तब पेड़ों की कोशिकाओं में एक विलगन परत बनती है, जो पत्तियों और शाखाओं के बीच का संपर्क बंद कर देती है। ऐसे में हल्की हवा का झोंका लगते ही पत्तियाँ ज़मीन पर आ जाती है।

यह तो हुई ऊर्जा की बात। पानी की व्यवस्था के लिए जब पानी उपलब्ध होता है, तब जड़ें उसे तनों की छाल में व स्वयं अपने आप में संग्रह करती रहती हैं। पौधों का एक नाम पादप भी है, अर्थात्  पाँव से पानी पीने वाले जीव। पाँव  (जड़ों) से पीकर पानी को तने और जड़ों में संग्रह कर लिया जाता है। 

मई-जून के महीनों में इन मृतप्राय पेड़ों में नई पत्तियाँ और फूलों के खिलने के लिए जो ऊर्जा और पानी लगते हैं, वे शाखाओं और जड़ों के इसी संग्रह से मिलते हैं। किंतु अब बहाव की दिशा उल्टी है।

पानी का परिवहन

वनस्पति विज्ञान की किताबें कहती हैं कि सौ से डेढ़ सौ फीट ऊँचे पेड़ों में पानी को ज़मीन से खींचकर शीर्ष तक पहुँचाने में पत्तियों में होने वाली वाष्प उत्सर्जन क्रिया की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। इस सिद्धांत को वाष्पोत्सर्जन खिंचाव बल नाम दिया गया है। पर यह सवाल गर्मियों के दिन में बड़ा रोचक हो जाता है - जब पेड़ों पर पानी खींचने वाले छोटे-छोटे पंप अर्थात पत्तियाँ नहीं हैं, तो फिर पत्ती विहीन पेड़ों के शीर्ष पर फूटने वाली नई कोपल और कलियों को पानी कौन और कैसे पहुंचाता है। अत: लगता है मामला कुछ और भी है जो हम अभी तक नहीं जानते। सचमुच प्रकृति के क्रियाकलाप अद्भुत हैं और जानने को आज भी बहुत कुछ है। (स्रोत फीचर्स)

प्रेरकः ... बंजर जमीन को उसने जंगल में बदल दिया


 मणिपुर 
(पश्चिम इम्फाल) के 47 वर्षीय मोइरंगथेम लोइया ने ऐसी मिसाल कायम की है, जिन्होंने लगी-लगाई जॉब छोड़कर ग्लोबल वॉर्मिंग के खिलाफ़ लगभग दो दशक लंबा संघर्ष करते हुए तीन सौ एकड़ बंजर ज़मीन को जंगल में बदल डाला। इस जंगल में अब हज़ारों तरह के पौधों की कई प्रजातियां हैं। जिसे दुनिया भर के पर्यटक देखने आते हैं।

मोइरंगथेम लोइया ने  बीस साल पहले इस अद्भूत काम की शुरुआत की थी।  दो दशक पहले इम्फाल शहर के बाहरी इलाके लंगोल हिल रेंज में पेड़ लगाना शुरू किया। उरीपोक खैदेम लीकाई इलाके के रहने वाले लोइया बचपन से ही प्रकृति प्रेमी हैं। साल 2000 की शुरुआत में चेन्नई से कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद कोबरू पर्वत पर गए तो बड़े पैमाने पर जंगलों की कटाई देखकर उन्हें बहुत दुःख हुआ। 

वह कहते हैं, “मुझे प्रकृति माँ को वो सब लौटाने की इच्छा महसूस हुई, जो हम इंसानों ने आधुनिकता के नाम पर नष्ट कर दिया है।”  वहाँ की स्थिति देखकर उनने सोचा कि बंजर ज़मीन को भी समय और समर्पण के साथ घने हरे-भरे जंगल में बदला जा सकता है। बस फिर क्याथा उसी दिन लोइया ने अपनी नौकरी छोड़ दी और वहीं पुनशिलोक में एक छोटी सी झोपड़ी बनाकर रहने लगे और पेड़ लगाना शुरू कर दिया। अकेले ही पेड़ लगाते लगाते छह साल गुज़र गए।  उन्होंने  वहाँ मगोलिया, ओक, बांस, टीक, फिकस आदि के पेड़ उगा दिए। 

लोइया के काम को देखकर उनके कुछ दोस्तों ने भी उनका साथ दिया। 2003 में लोइया और उनके साथियों ने वाइल्डलाइफ ऐंड हैबिटैट प्रोटेक्शन सोसायटी (WAHPS) बनाई। इस संस्था के वॉलंटियर्स भी वृक्षारोपण में जुट गए। इसके बाद तो वन विभाग भी उनके समर्थन में आ गया और मदद करने लगा। आज उनकी संस्था पुनशिलोक वन के संरक्षण, अवैध शिकार और जंगल की आग से लड़ने के लिए समर्पित है। 

अपनी पहल के दो दशक बाद, आज लोइया के जुनून और मेहनत का ही नतीजा है कि लगभग तीन सौ एकड़ का इलाका हरियाली से लहलहा रहा है। उनके बसाये हुए जंगल में इस समय बांस की दो दर्जन से ज़्यादा प्रजातियों के अलावा दो से ढाई सौ औषधीय पेड़-पौधे भी हैं। जंगल बस गया तो उसमें चीता, हिरण, भालू, तेंदुआ, साही जैसी कई वन्य प्रजातियाँ भी रहने लगी हैं। देखते देखते पूरा जंगल अब पक्षियों की आवाज़ से गूंजने लगा है।  इतना ही नहीं, हज़ारों पेड़-पौधों से क्षेत्र के तापमान में भी गिरावट आई है।

उनके तीन सौ एकड़ में फैले पुनशिलोक जंगल में अब देश-विदेशों से पर्यटक भी घूमने आते हैं। अपनी कड़ी मेहनत से मोइरंगथेम लोइया ने इस वीरान जगह को हरा-भरा बना दिया है। उनको इस काम में राज्य सरकार से भी पूरा प्रोत्साहन मिला है। लोइया का मानना है कि एक जंगल को उगाना और उसका पालन-पोषण करना ज़िंदगी भर का काम है। 

पर्यावरणः पत्ता- पत्ता सूख चुका था, पेड़ बिचारा करता क्या

  - अंजू खरबंदा

1. लघु लेख

धूप का जंगल, नंगे पाँवों, एक बंजारा करता क्या 

रेत का दरिया, रेत के झरने, प्यास का मारा करता क्या

बादल- बादल आग लगी थी, छाया तरसे छाया को

पत्ता- पत्ता सूख चुका था, पेड़ बिचारा करता क्या?

शायर अंसार कम्बरी जी की ये पंक्तियाँ घोर पर्यावरणीय संकट की समस्या पर प्रकाश डालती है। जैसा कि हम सब जानते हैं औद्योगिक क्रांति के बाद पृथ्वी के औसत तापमान में वृद्धि हुई है और इसका सीधा सा कारण ग्लोबल वार्मिंग है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार हर साल 2 से 4 लाख लोगों की मौत का कारण वायु प्रदूषण है। भारत में सबसे बड़ी प्रदूषण आपदा 1984 में भोपाल में घटी। इसकी यादें आज भी भारतीय मानस पटल पर हैं।

हाल ही में प्रकाशित एक ताजा रिपोर्ट में कहा गया कि प्रदूषण के कारण दिल्ली में सालाना 10000 से 30000 जानें जा रही हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक नई रिपोर्ट में दुनिया के 20 सबसे प्रदूषित शहरों की सूची में दसवें स्थान पर भारत है, जिसमें दिल्ली का प्रथम स्थान है।

यू. एस. ए. के लॉस एंजलिस में तो इतना बुरा हाल है कि एक स्कूल के खेल के मैदान पर चेतावनी लिखी गई है :

‘सावधान अअत्यधिक धुएँ की स्थिति में व्यायाम न करें, ना गहरी साँस ले।'

हम विकास की बड़ी-बड़ी बातें तो करते हैं ;परंतु यह सोचने की बात यह है कि ऐसा तीव्र अंधाधुंध विकास किस काम का, जिसका लाभ अपने निवासियों व विश्व को लाभदायक रूप में न मिल सके।

 हम यह क्यों भूल जाते हैं कि विकास पर्यावरण की कीमत पर नहीं किया जा सकता, इसमें अंततः मनुष्य की ही हार है। व्यक्ति बिना हवा पानी व स्वच्छ पर्यावरण के जिंदा नहीं रह सकता, अगर हम अब भी अपनी भूल को स्वीकार नहीं करते, तो हम जिन नागरिकों के लिए विकास तीव्र कर रहे हैं, शायद वे उस विकास को देखने के लिए जिंदा ही न रहें;  क्योंकि

"जब आखिरी पेड़ कट जाएगा, 

आखिरी नदी के पानी में जहर घुल जाएगा 

और आखिरी मछली का शिकार हो जाएगा, 

तब इंसान को एहसास होगा कि वह पैसे नहीं खा सकता। "

 लघुकथा

पीर 

"तुम लोग फिर आ धमके?"

"अरे हर वर्ष तो तुम बड़े प्रफुल्लित हो उठते थे हमारे आने से! ये अचानक इस वर्ष क्या हो गया!"

"हाँ होता था प्रफुल्लित... करता था बेकरारी से इंतजार!  तुम्हारे आते ही वीरान वादियाँ जो गुलजार हो उठती थीं, उदास फिज़ाएँ जो महकने लगती थीं, पूरे बरस शून्य तकते निरुत्साह दुकानदारों के चेहरे पर उत्साह की रंगीनियाँ जो छा जाती  थीं... ।"

"थी... माने?"

सीने पर एक घूँसा- सा पड़ा, उसके इन शब्दों ने पर्यटकों को स्तब्ध कर दिया; पर उनके प्रश्न पर ध्यान दिये बिना वह अपनी ही रौ में बोले चला जा रहा था

"...और इस इंतजार के बदले मुझे क्या मिला?

कूड़े के ढेर, प्लास्टिक की खाली बोतलें, चिप्स के रैपर और... और...!"-कहते कहते पर्वत की साँस उखड़ने लगी और जुबान लड़खड़ाने लगी ।

"जाओ चले जाओ यहाँ से! स्वार्थी कहीं के! मैं बेवकूफ!अशर्फियाँ लुटाकर कोयलों पर मोहर लगाता रहा! तुम खुद तो रोगी जीवन जीने के आदी हो और आज मुझे भी... मुझे भी रोगी बनाकर छोड़ा तुमने!"

एक पल को रुका और विरक्त स्वर में आक्रोश से भर बोला-"अब तुम्हारे आने से यहाँ रौनक नहीं मनहूसियत फैलने लगती है!"

सम्पर्कः 207 द्वितीय तल, भाई परमानंद कालोनी, दिल्ली

दो कविताएँ

 







- राजेश पाठक

1.  गाँव चाहता है 

 बचा रहे भोलापन व अपनापन भी

बची रहे पुरखों की विरासत

बचे रहें दो जोड़े बैल और

बची रहे कुछ धुर ही सही

पर उपजाऊ जमीन

गांव नहीं चाहता

पूरा का पूरा शहर बनना

कि उसकी उपजाऊ जमीन पर

उगने लगें मकान की फसलें

वह चाहता है बची रहें संवेदनशील नस्लें

गांव को पूरा का पूरा शहर बनाने की कवायद

ठीक वैसे ही है

जैसे कोई मां - बाप थोप जाते हैं

अपने बच्चों के माथे पर

अपनी महत्वाकांक्षाओं के बोझ

बिना उनकी क्षमता, रूचि व प्रकृति के जाने,,,








2. एक पिता

अच्छी -बुरी सभी परिस्थितियों में

लुटा देता है सर्वस्व

वह टूटता रहता है शनै:- शनै:

संतानों की प्रगति वास्ते

जैसे अतिशय शीत व अतिशय उष्णता से 

टूटता रहता है पहाड़

और इस तरह धीरे -धीरे पूरा टूटकर

बना जाता है सुगम व सरल रास्ता 

पिता भी सब कुछ खोकर

बनाता है सुगम रास्ता

अपनी संतानों के लिए

पिता पहाड़ होता है,,,

सम्पर्कः  नया रोड फुसरो, पोस्ट - फुसरो बाजार, जिला- बोकारो- 829144 (झारखंड) 

वर्षा जलः बून्द- बून्द अनमोल

 - दीपाली ठाकुर

इस बार पूरा अप्रैल माह बरसाती फुहारों के कारण आषाढ़ सा भरमाता रहा, तपती धरती पर टप टपा टप कर पड़ती बूँदों का संगीत, उनकी सौंधी गंध सबका मन भी जैसे भीगा-भीगा- सा हो जाता है । ऐसे ही एक दिन बहुत अच्छी बारिश के बाद मैं अपनी छत पर खड़ी पीछे एक निर्माणाधीन मकान में चौकीदार के बच्चों को खेलता देख रही थी, कॉलम के बड़े गड्ढों में भरे पानी में गिट्टी फेंकते खुश होते उन भाई बहन को देखते-देखते अचानक मैं सोचने लगी कि अगर द्रोणिका के असर से बारिश न हुई होती, तो रायपुर तो अब तक कैसा तप रहा होता। प्रकृति ने भी वर्षा नामक कैसा सुंदर उपहार दिया है। बारिश के पानी से भरे गड्ढों को देखकर एक बात और याद आ गई। बात नब्बे के दशक की है- बेमेतरा में नल से आने वाले पीने के पानी से दाल नहीं गलती थी। हमारे हैंडपम्प का पानी सूख चुका था, सो हम पड़ोस के बोर से पानी लाकर काम चलाते थे। उन्हीं दिनों जब बारिश होती, तो माँ झट किसी बर्तन-भगोने में वो पानी इकट्ठा कर लेती ओर जब तक बारिश से सहेजा हुआ पानी हमारे पास होता, हम अमीर होते, पड़ोस  में माँगने जो नहीं जाना पड़ता।

सचमुच अगर बारिश से मिलने वाला अधिकांश पानी हम सहेज लें, तो पानी की समस्या ही न रहे। अखबार में आए दिन पानी की किल्लत की खबरों को पढ़कर आज से अधिक आने वाले कल की चिंता सताती है। हम मैदानी भागों में बसे लोग प्राकृतिक आपदाओं से परे, सुविधाओं में रहने वाले प्राकृतिक संसाधनों जैसे पानी का दुरुपयोग कुछ अधिक ही कर जाते है ।

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर का भूजल स्तर साल दर साल घट रहा है. केन्द्रीय भूजल बोर्ड की रिपोर्ट के मुताबिक रायपुर में पिछले 10 सालों के दौरान भूजल स्तर तेजी से नीचे गिरा है. हर साल रायपुर का औसत जल स्तर 1 मीटर नीचे जा रहा है, जो राजधानी में रहने वालों के लिए अलार्म की स्थिति है. अगर यही हालात रहे, तो आने वाले दिनों में लोगों को ग्राउंड वाटर नसीब नहीं होगा. राजधानी की बढ़ती आबादी ने जमीन के भीतर के पानी को भी नहीं बख्शा। हालात ये है कि धीरे-धीरे भूजल स्तर नीचे चला जा रहा है और रायपुर सीमेंट और कंक्रीट के जंगल में तब्दील हो गया है। यहाँ के तालाब सिकुड़कर गड्ढों में तब्दील हो गए हैं और अधिकतर कुओं को पाट दिया गया। किसी समय तीन सौ तालाब वाली राजधानी अब पानी के लिए त्राहि- त्राहि कर रही है। नतीजा यह हुआ कि इसका सीधा प्रभाव धरती की जल अवशोषण- क्षमता पर पड़ा और बीते 10 सालों में हर साल एक से डेढ़ मीटर वॉटर लेवल नीचे जाता जा रहा है। क्या यह केवल रायपुर के संबंध में है? भू जल स्तर को लेकर पूरे देश का यही हाल होता जा रहा है। देश का भविष्य पूरी तरह से पानी की उपलब्धता और गुणवत्ता पर टिका हुआ है, फिर भी हम हैं कि अब तक नींद से नहीं जागे। जिसे पानी मिल रहा है, उसके लिए सब ठीक है। बाकी किसकी प्यास बुझ रही है, किसकी नहीं, इससे किसी का कोई लेना देना नहीं। महानगरों में हालात बहुत मुश्किल होते जा रहे हैं। दिन-ब-दिन पानी की समस्या गरीब जनता को शहर छोड़ने पर मजबूर कर रही है। ये अनुमान लगाया जा रहा है कि आने वाले 5 सालों में पानी की समस्या एक विकराल रूप ले लेगी। सवा सौ अरब की आबादी वाले देश में पानी की किल्लत किसानों को आत्महत्या करने पर मजबूर कर देती है और पीने के पानी की बात करें, तो लगभग हर शहर में पानी के टैंकर के पीछे बाल्टी और ड्रम लिये लोगों की लंबी कतारें लगती हैं। बीते सालों की तरह इस साल भी सामान्य से कम बारिश का अनुमान लगाया जा रहा है। देश के लगभग सभी इलाकों में ठीक-ठाक बारिश होती है। इसके बावजूद देश में हर जगह का जलस्तर काफी तेजी से नीचे गिर रहा है। फिर हम पानी को बचाने के लिए गंभीर क्यों नहीं हैं? हम पानी के लिए पारंपरिक जल स्रोतों से अलग नए विकल्पों के बारे में क्यों नहीं सोचते?

कौन बनेगा करोड़पति के कर्मवीर विशेष एपिसोड में बैंगलोर निवासी ए आर शिवकुमार से मिलवाया था जो लगभग 22 वर्षों से केवल वर्षाजल संग्रह कर उसी का उपयोग अपने दैनिक जीवन में करते हैं। विजयनगर बेंगलुरु में निर्मित उनका घर ‘सौरभ’ 1994 से पानी के लिए केवल वर्षा के संगृहीत जल पर ही निर्भर है

असल में शिवकुमार जी का पूरा जीवन पर्यावरण के मामले में बहुत ही प्रेरक है। आइए एक नजर उनके काम पर डालते हैं। सन्1994 -95 के दौरान जब वे अपना घर बना रहे थे, तब उनके दिमाग में यह खयाल आया कि बारिश का पानी हम बेकार क्यों होने देंते हैं? उन्होंने सोचा कि कोई ऐसा उपाय खोजा जाए कि जिससे बारिश का पानी बेकार न जाए और उनके काम में लाया जा सके। इसके लिए उन्होंने खूब माथापच्ची की। सबसे पहले उन्होंने यह पता लगाने की कोशिश की कि एक साधारण परिवार में कितने पानी की आवश्यकता होती है? जब वे जानकारियाँ जुटा रहे थे, तो उन्हें पता चला कि एक औसत परिवार की लगभग सभी जरूरतें 500 लीटर पानी में पूरी हो जाती हैं। WHO यानी वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन का डेटा भी यही कहता है। फिर उन्होंने गणित लगाना शुरू किया कि पिछले सौ सालों में बेंगलुरु शहर में कितनी बारिश हुई है। उन्हें यह  जानकर आश्चर्य हुआ कि बुरे से बुरे मॉनसून से पानी की सभी जरूरतें पूरी की जा सकती हैं। बस फिर क्या था शिवकुमार ने ठान लिया कि वे अपने घर में भी RWH (रेन वाटर हार्वेस्टिंग) सिस्टम लगवाएँगे और बारिश के पानी से ही अपनी जरूरतें पूरी करेंगे। शिवकुमार कहते हैं, 'मैंने थोड़ी सी कैलकुलेशन की, तो मुझे पता चला कि साल में लगभग 90 से 100 दिनों की बारिश होती है। तो इससे मैं लगभग 45,000 लीटर पानी तो इकट्ठा ही कर लूँगा। यदि मैं जमीन के नीचे टैंक बनवाता, तो मुझे मोटर की जरूरत पड़ती और उसके लिए अलग से बिजली का खर्च आता।' बिजली के खर्च से बचने के लिए शिवकुमार ने ज़मीन के नीचे टैंक बनवाने की बजाय छत पर ही टैंक बनवाये हैं। उन्होंने हर टैंक में वॉटर फिल्टर लगा रखा है, जिससे पानी साफ होकर उन तक पहुँचता है। ये फिल्टर उन्होंने खुद बनाए हैं और इसका पेटेंट भी उनके पास है। पानी की एक-एक बूँद की अहमियत समझने वाले शिवकुमार के घर में एक रिचार्ज पिट भी है, जिसमें इस्तेमाल हो चुका पानी पहुँचता है और जमीन का वॉटर लेवल भी सुधरता है। आप जानकर शायद चौंक जाएँ, लेकिन यह सच है कि सिर्फ एक साल के भीतर उनके घर के आसपास का जलस्तर 200 फुट से उठकर 40 फुट तक आ गया है। उन्होंने अपने घर में मोटर भी लगवा रखी है। बारिश के पानी से जमीन का पानी रिचार्ज होता है और वे मोटर के सहारे पानी खींचकर अपनी जरूरतें पूरी करते हैं।

ऐसा ही एक और उदाहरण है, जिन्होंने माइक्रो लेवल पर इसका समाधान निकाल लिया, जिसके बाद ना सिर्फ उनकी सिंचाई की जरूरत पूरी हुई; बल्कि अन्य ग्रामीण भी इसका अनुसरण कर रहे हैं। नैनीताल जिले में ग्रामीणों के समूह जनमैत्री संगठन से जल- संरक्षण का अनोखा तरीका निकाला। ड्राप पर क्रॉप की मुहिम को जनमैत्री संगठन आगे बढ़ा रहा है। जनमैत्री संगठन जल संरक्षण को लेकर अनूठी पहल कर रहा है। संगठन ने अपने क्षेत्र में बारिश के पानी के संरक्षण के लिए 10 से 30 हजार लीटर के 700 जल-संग्रह टैंक  बनाए  हैं।  इस अभियान के तहत ग्रामीण  अपनी जमीन  पर गड्ढा खोदते हैं और उन्हें पॉलीथिन शीट उपलब्ध कराने का कार्य संगठन करता है। यह संगठन 2010 से जल संरक्षण  की मुहिम में जुटा है।  नदी के जलागम क्षेत्र को संरक्षित करने, चाल खाल खोदने, स्रोतों की सफाई करने के साथ ही जल संरक्षण को लेकर जनजागरूकता यात्राएँ और गाँवों में बैठकें भी आयोजित की जा रही हैं। शासन या सरकार अपने स्तर पर इन मुद्दों पर काम कर रहे हैं । हमें भी शिवकुमार जी की तरह निजी तौर पर कोशिश करनी चाहिए।

कुछ प्राचीन उदाहरण हमें अपने पूर्वजों की दूरदर्शिता और उनके ज्ञान को लेकर गर्व का अनुभव कराते हैं, उनमें से एक है-

भारतीय पुरातत्त्व विभाग के अधीन संरक्षित रायसेन किले का निर्माण तीसरी शताब्दी में हुआ था। निर्माण कराने वाले राजा रायसिंह ने राजशाही परिवार के लोगों के लिए शुद्ध पेयजल की व्यवस्था के लिए छत से वर्षा जल-संग्रहण प्रणाली बनवाई। इस जल- संग्रह प्रणाली के तहत भूमि पर 50 फीट लंबा, 30 फीट चौड़ा और 20 फीट गहरा टैंक बना है। इस टैंक में करीब 30 हजार लीटर वर्षा जल एकत्र किया जा सकता है। किले की छत से वर्षा जल को टैंक तक पहुँचाने के लिए नालियाँ बनी हैं। छत से लेकर भूमिगत जल-संग्रहण टैंक की सतह तक का सम्पूर्ण निर्माण लाल बलुआ पत्थर से किया गया है। टैंक से ओवरफ्लो होने पर पानी करीब 500 मीटर दूर बने तालाब में पहुँचता है। यानी अतिरिक्त जल को भी यहां व्यर्थ नहीं जाने दिया जाता है। दिलचस्प बात यह है कि यह प्राचीन रूफ वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम अब भी सफलतापूर्वक काम कर रहा है। दूसरा है- गुजरात का धौलावीरा नगर, जो वर्षा जल- संग्रहण के दृष्टिकोण से आधुनिक युग के इंजीनियरों के लिए प्रेरणास्रोत है।

क्या आपको अपने दादा, नाना की बातें याद हैं, जो कहते थे पेड़ लगाना पुण्य का काम है, कुएँ या तालाब खुदवाना पुण्य का काम है खैर पाप-पुण्य से परे अगर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाए, तो ये सारे काम अगली पीढ़ी के लिए प्रकृति के इन उपहारों को सँजो लेने भर का सुंदर सराहनीय प्रयास है।

माता- पिता अपने बच्चों के सुरक्षित भविष्य के लिए पैसे जमा करते है।  वर्तमान की दशा से अनुमान लगाया जा सकता है कि एक-एक साँस और एक -एक बूँद कितनी कीमती है और हो जाएगी क्या हम कभी इतने रुपये, धन- संपत्ति जोड़ पाएँगे, जो हमारी अगली पीढ़ी का जीवन सुरक्षित कर पाए? अगर उत्तर हाँ में बदलना है, तो हमें प्राकृतिक संसाधनों को अपनी संपदा मानकर उनकी सुरक्षा उनके संरक्षण की तरफ ध्यान देना होगा। यह हमारी नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि जो हमें प्रकृति से मिलाकर उसे आने वाली पीढ़ियों के लिए भी बचाकर रखा जाए । कोरोना काल के दौरान हर एक व्यक्ति इतना समझ चुका है कि पैसों से सब कुछ, नही खरीदा जा सकता। घर-घर RWH (रेन वाटर हार्वेस्टिंग) का अमल इसी प्रयास की ओर एक कदम होगा तो आइए हम सब एक कदम बढ़ाएँ।

सम्पर्कः रोहिणीपुरम रायपुर

जीवन दर्शनः समाज सुधार का सूत्र

 - विजय जोशी - पूर्व ग्रुप महाप्रबंधक, भेल, भोपाल (म. प्र.)

आदमी पत्थर की मूरत नहीं है। जीवंत, जाग्रत एवं जोश से परिपूर्ण एक सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण इकाई है समाज की। आदतें ही समाज के समक्ष उसकी उपस्थिति दर्ज कराती है। जीवन में सुधार की संभावना सदैव बनी रहती है बशर्ते हमारा आचरण लचीला हो। पर कई बार ऐसी घटना भी घटित हो जाती है, जिसके कारण व्यक्ति के आचार, विचार एवं व्यवहार में अचानक परिवर्तन हो जाता है और सोच सकारात्मक। 

कबीर फक्कड़ संत थे। उनकी पत्नी लोई भी उन जैसी ही थी। एक किंवदंती  के अनुसार एक दिन एकाएक कुछ मेहमानों का उनके  घर पर पदार्पण हो गया और चूंकि उस दिन वर्षा के कारण खुद का बनाया कपड़ा बेचने के लिये कबीर बाजार नहीं जा पाये थे, अत: घर में स्थिति फाँकेनुमा थी। इतना आटा, दाल भी न थी कि अतिथियों का स्वागत किया जा सके । कबीर ने पत्नी से कहा – तुम पंसारी से आटा, दाल कुछ दिनों के लिए उधार मांग लाओ। पर गरीब जुलाहे को उधार कौन देता है। आखिरकार एक दुकानदार ने सामान देना स्वीकार कर लिया इस शर्त के साथ कि लोई एक रात उसके घर उसके साथ बिताये। लोई शर्त सुनकर हैरान हो गई और कुछ न बोल पाई। दुकानदार ने इसे स्वीकृति समझकर आटा, दाल दे दिया।

शाम को जब मेहमान विदा हो गए तो उसने यह बात कबीर को बताई। कबीर ने दुकानदार को समझा बुझाकर सही मार्ग पर लाने का निश्चय किया तथा लोई को तैयार हो जाने के लिये कहा। और जब लोई तैयार हो गई तो चूंकि वर्षा हो रही थी सो उसे कंबल उढ़ाते हुए कंधे पर उठाकर दुकानदार के घर पहुँच गए।

दुकानदार को आश्चर्य हुआ कि न तो लोई के कपड़े भीगे थे और न ही पाँवों में कीचड़ लगा था। पूछने पर लोई ने बताया कि उसके पति खुद उसे उठाकर लाये हैं। दुकानदार भौंचक्का रह गया। हालांकि  लोई शांत स्वरूपा ही बनी रही। दुकानदार को विश्वास नहीं हो पा रहा था कि खुद कबीर ने इसे अंजाम दिया था और जब लोई ने कहा कि कबीर अभी भी बाहर बैठे हैं उसे वापिस ले जाने के लिए तो वह शर्म से पानी पानी हो गया। उसे अपने किए पर आत्मग्लानि हुई और वह कबीर के चरणों में गिर पड़ा। बार-बार शर्मिंदा होकर उनसे माफी मांगने लगा। कबीर ने दुकानदार को क्षमा भी कर दिया। उसी दिन से वह उनका शिष्य भी बन गया ।

बात का संदर्भ बहुत सरल और स्पष्ट है। अप्रिय प्रसंग होने पर  स्वयं के स्वभाव से दूसरे में परिवर्तन का यह उत्तम उदाहरण है। महात्मा गांधी भी कहा करते थे हमें पापी से नहीं अपितु पाप से घृणा करना चाहिए। यही इस प्रसंग का सार है।   

सम्पर्क: 8/ सेक्टर-2, शांति निकेतन (चेतक सेतु के पास), भोपाल-462023,
 मो. 09826042641, E-mail- v.joshi415@gmail.com

पर्यावरण दिवसः बहुमंजिली इमारतों का जंगल ...

- रेखा श्रीवास्तव

   विश्व पर्यावरण दिवस की आवश्यकता संयुक्त राष्ट्र संघ ने महसूस की और इसीलिए प्रतिवर्ष 5 जून को इस दिवस को मनाने के लिए निश्चित किया गया । विश्व में लगभग 100 देश विश्व पर्यावरण दिवस मनाते हैं। आज चारों ओर धरती पर हरियाली के स्थान पर बड़ी बड़ी बहुमंजिली इमारतें ही दिखाई दे रहीं हैं । इन इमारतों के जंगल में धरती की हरियाली कहीं खो चुकी है। 

 नेशनल हाईवे के निर्माण के नाम पर मीलों लंबे रास्ते तो दिखाई देते हैं पर राहगीर एक कतरा छाँव के लिए तरसता रह जाता है। पथिक पहले पैदल चलते हुए, पेड़ों के नीचे सुस्ताकर कुँए का शीतल जल पीकर आगे का रास्ता तय करते थे। पर अब तो कुछ भी शेष नहीं बचा। अगर हम धरती पर वृक्षों को नहीं रहने देंगे तो हमें कहाँ से और कैसे छाया मिल पाएगी?

मानव सुख की कीमत :

  दिन पर दिन आगे बढ़ रही  हमारी वैज्ञानिक प्रगति और नए संसाधनों से हम सुख तो उठा रहे हैं, लेकिन प्रगति के साथ अपने लिए पर्यावरण में विष भी घोलते चले जा रहे हैं।

पेड़ों - पौधे नहीं होंगे, नदी- तालाब नहीं होंगे तो जरा सोचिए पशु- पक्षी कहाँ शरण लेंगे। इस भयंकर गर्मी में वृक्षों के लगातार कम होने से पशु- पक्षी काल के गाल में समाते चले जा रहे हैं। गाँव के खेत, तालाब सब धीरे- धीरे खत्म होते चले जा रहे हैं। जमीन बंजर बनती चली जा रही है। 

   खेतों का व्यावसायिक प्रयोग होने लगा है कुछ क्षणों का सुख समझ कर हम अपनी ही साल दर साल आजीविका देने वाले खेतों को बेच कर शहर में बसने का सपना पूरा करने लगे हैं, क्योंकि शहर और गाँव से लगे हुए खेत और बाग़ कहीं हाईवे और सड़क बनाने के नाम पर तो कहीं अपार्टमेंट और फैक्टरी लगाने के लिए उजाड़े जाने लगे हैं। अगर उनका मालिक नहीं भी बेचना चाहता है तो भी  विभिन्न तरीकों से बेहतर जिंदगी का लालच देकर उन्हें अपना खेत अपनी जमीन बेचने को मजबूर कर दिया जाता है।  वे भी मुआवजा लेकर हमेशा के लिए अपनी रोजी-रोटी और अपनी धरती माँ से नाता तोड़ लेते हैं पर यह कितने दिन की खुशी है? आज का किसान अपनी धरती अपनी जमीन से बेदखल होकर मजदूर बनते चले जा रहा है। 

    जिन खेतों में लहलहाती फसलें ,

     अब उन पर इमारतें उग रही हैं ।

                                   - अज्ञात

     ये पंक्तियाँ हमें आईना दिखा रही हैं ।

इन ऊँची- ऊँची इमारतों और इनके प्रत्येक कमरे में एअर कंडीशनर लगे होते हैं।  गर्मी के कहर से बचने के लिए हम अब पंखा और कूलर को छोड़ कर एयर कंडीशनर की ओर बढ़ गए हैं। पर क्या आप जानते हैं आपको मिलने वाला ठंडक का यह सुख आपके पर्यावरण को कितना प्रदूषित कर रहा है, इससे उत्सर्जित होने वाली गैस दूर- दूर तक लगे पेड़ पौधों को सुखाने के लिए पर्याप्त है । 

 सरकार प्रकृति को बचाने के लिए अनेक कार्यक्रम बनाती तो है, पर्यावरण को शुद्ध बनाए रखने के लिए लम्बी चौड़ी योजनाएँ भी बनती है और फिर एक दिन वह सब फाइलों में दब कर दम तोड़ जाती है ।  हम सौदा करते है अपने फायदे के लिए, लेकिन ये भूल रहे है कि हम उसी पर्यावरण में  विष घोल रहे है, जिसमें उन्हें ही नहीं बल्कि हमें भी रहना है। 

मोबाइल टावर : 

हमारे वातावरण को प्रदूषित करने में इन ऊँची- ऊँची गगनचुम्बी मोबाइल टावरों का भी बहुत बड़ा हाथ है। इन टावरों ने खेतों, घरों की छतों और न जाने कहाँ-कहाँ कब्जा जमा लिया है। इन आधुनिक उपकरणों ने इंसान के जीवन को यदि सुगम बनाया है, तो नुकसान भी कम नहीं किया है। हम उससे मिलने वाले लाभ को देखते हैं, उससे हो रहे कई गुना अधिक नुकसान की ओर ध्यान ही नहीं देते।  

चिकित्सकीय कचरा :

जैसे-जैसे बीमारियाँ बढ़ती जा रही हैं वैसे-वैसे शहरों में निजी चिकित्सालयों की संख्या भी बढ़ती चली जा रही है। आप किसी भी मोहल्ले, सड़क से गुजरिए आपको प्रत्येक गली में चिकित्सालय का बोर्ड दिखाई दे जाएगा। और उसके साथ -साथ उस चिकित्सालय के आजू- बाजू पर्यावरण को दूषित करने वाला जैविक चिकित्सकीय कचरा नजर आ जाएगा है । जिस तेजी से नर्सिंगहोम खुलते चले जा रहे है, उतना ही अधिक कचरे का निष्कासन बढ़ रहा है । उसके निस्तारण के प्रति कोई भी सजग नहीं है। ऐसे में यह सोचने को मजबूर होना पड़ता है कि आखिर ये जीवन रक्षक केन्द्र है या बीमारी फैलाने के स्रोत? 

  हम औरों को दोष क्यों दें ? अगर हम बहुत बारीकी से देखें, तो पाएँगे कि हम ही अपने पर्यावरण को प्रदूषित करते चले जा रहे हैं। अब हमें  सोचना यही है कि इसे कैसे रोक सकते हैं ? तो मैं यही कहना चाहूँगी कि यह काम हम सिर्फ और सिर्फ अपने ही प्रयास से कर सकते हैं। क्योंकि अपना घर और अपने वातावरण को आप ही देखेंगे न, तो साफ- सुथरा भी आपको ही बनाए रखना होगा।  

तो आइए कुछ सामान्य सा प्रयास कर पर्यावरण दिवस को सार्थक बना लें। और अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए कुछ बेहतर वातावरण छोड़कर जाए-

* अगर हमारे घर के आस- पास खाली जगह है, तो वहाँ पेड़- पौधे अवश्य लगाएँ और यदि नहीं है, तो जहाँ पर खाली जमीन दिखे वहाँ पौधा रोपण करें और उनकी तब तक देखभाल करें जब तक वे वृक्ष न बन जाए। सरकार वृक्षारोपण के नाम पर करती तो बहुत कुछ है लेकिन वे सिर्फ खाना पूर्ति करते हैं उनका काम सिर्फ फाइलों में आँकड़े दिखाने के लिए होता है। पर हमारा और आपका कर्तव्य है कि उन वृक्षों को सुरक्षित रखने के का प्रयास करें।

*  प्लास्टिक के डिस्पोजल वस्तुओं का प्रयोग करने से बेहतर होगा कि पहले की तरह धातु के बर्तनों का प्रयोग किया जाए या फिर मिट्टी से बने पात्रों का, जो वास्तव में शुद्धता को कायम तो रखते ही हैं, पर्यावरण के लिए घातक भी नहीं होते।

* अगर संभव हो, तो सौर ऊर्जा का प्रयोग करने का प्रयास करें, जिससे हमारी जरूरत तो पूरी होगी साथ ही प्राकृतिक ऊर्जा का सदुपयोग भी होगा।

* फल और सब्जी के छिलकों को बाहर सड़कों पर सड़ने के लिए नहीं, छोड़े बल्कि उन्हें एक बर्तन में इकठ्ठा कर जानवरों को खिला दें। या फिर उनको एक बड़े गमले में मिट्टी के साथ डालती जाए कुछ दिनों में वह खाद बनकर हमारे पौधों को जीवन देने लगेगा। 

* गाड़ी जहाँ तक हो डीजल और पेट्रोल के साथ CNG और LPG से चलने के विकल्प वाली लें, ताकि कुछ प्रदूषण को रोका जा सके। अगर थोड़े दूर जाने के लिए पैदल या फिर सार्वजनिक साधनों का प्रयोग करें तो वह पर्यावरण के हित में होगा और आपके हित में भी। अब तो बैटरी से चलने वाली गाड़ियाँ भी आ चुकी हैं। 

* आपके घर के आस पास अगर पार्क हो, तो उसको हरा-भरा बनाये रखने में सहयोग दें, न कि उन्हें उजाड़ने में। पौधे सूख गए हों तो उनके स्थान पर आप नए पौधे लगा दें। सुबह शाम टहलने के साथ उनमें पानी भी डालने का काम कर सकते हैं, यह हम सबकी सामूहिक जिम्मेदारी है।

इस पर्यावरण दिवस को सार्थक बनाने के लिए आइए हम सब मिलकर थोड़ा- थोड़ा प्रयास करते चलें ताकि आने वाली पीढ़ी हमें यह न कहे कि आपने तो हमारे लिए न शुद्ध हवा रहने दी न शुद्ध पानी। 

व्यंग्यः कमाल का आदमी

  - गिरीश पंकज 

वन्स अपॉन ए टाइम, किसी प्रदेश की किसी राजधानी में एक मज़ेदार आदमी रहता था। लोग उसे कहते थे कि वो कमाल का आदमी है।

वैसे आदमी तो वो ‘कमला’ का था  लेकिन अकसर कमाल करता रहता था इसलिए लोग कहते थे ‘कमाल का आदमी है’। यानी रामलुभाया। 

उनकी सुबह किसी मंत्री की चौखट से शुरू होती और शाम किसी अफसर की चौखट पर दम तोड़ती। 

अपने देश के  हर शहर में अनेक रामलुभाया मिल जाते है। जो दिन भर मिठाई के डब्बे और बुके या गिफ्ट देने के पुनीत-कार्य में युद्धस्तर पर लगे रहते हैं। ये लोग किसी को बुके थमा देंगे, किसी को काजू कतली वाला डब्बा भेंट करके आ जाएँगे।

 लोग भी सोचते है कि आखिर ये करता क्या है? किस तरह का ‘आइटम सांग’ है? राइट है या राँग है?  जिस मंत्री- अफसर को ये सज्जन काजू कतली या काजू- किशमिश के डब्बे भेंट करते हैं, वे भी यकबयक समझ नहीं पाते कि सामने वाले के मन में क्या चल रहा है। इसकी ‘पॉलीट्रिक्स’ क्या है, ये बिंदास बंदा चाहता क्या है? इस दुनिया में लोग बिना किसी स्वार्थ के कटे पर भी  लघु- शंका नहीं करते और ये पट्ठा दो- तीन सौ रुपये का बुके ले कर आ रहा है, साथ में पाँच सौ रुपये वाली मिठाई गिफ्ट कर रहा है। 

चक्कर क्या है,....?

लफड़ा क्या है..... ?

इसके दिल में किस काम को सुलटाने की पृष्ठभूमि तैयार हो कर बैठी है... ? 

रामलुभाया उस दिन एक मंत्री जी के घर बुके ले कर पधारे। 

मंत्री जी पहले भी इनसे बुके लेते रहे हैं इसलिए रामलुभाया को देख कर फौरन हाथ आगे बढ़ा कर बुके स्वीकार किया, फिर मिठाई का डब्बा भी ले लिया। और बत्तीसी दिखने लगे। कुछ देर तक घूरने के बाद रामलुभाया को बैठने के लिए कहा और फोन उठा कर अपने सेवक को आदेश दिया, ‘नाश्ता तो लगा दो।’ 

सेवक थोड़ी देर बाद चना- मुर्रा और मिर्ची-प्याज के साथ हाजिर हो गया। मंत्री जी का प्रिय नाश्ता।

 यह देख कर मंत्री जी ने मुस्कराते हुए कहा, ‘अरे रामू, ये अपने गाँव के मतदाता-मेहमान नहीं है, जो तुम चना-मुर्रा में निबटा रहे हो? कमाल करते हो भाई। अरे, ये शहरी सेठ लोग हैं। काजू- किशमिश खाते है। जाओ बढ़िया नाश्ता ले आओ। और हाँ, मिठाई के इस डब्बे का भी पूरा उपयोग कर लेना।’ 

रामू ने बाद सेठीय- नाश्ता परोस दिया, रामलुभाया धन्य हो गए मंत्री जी ने पूछा- ‘और सब ठीक है?’

 रामलुभाया अपने शरीर को विनम्रता के साथ हिलाते हुए कहा, ‘ सब आपकी कृपा है।’ 

‘बाल -बच्चे राजी-खुशी से हैं?’ मंत्री ने फिर पूछा तो रामलुभाया ने फिर वही दुहराया, ‘सब आपकी कृपा है?’ 

राम लुभाया अपने काम की बात बोल ही नहीं रहे थे। मंत्री जी भी जान रहे थे कि ये पट्ठा अभी कुछ नहीं बोलेगा. जब जाने लगेगा, तब धीरे -से अपनी बात रखेगा। ये बुके-मिठाई और गिफ्ट देने वाले बड़े कलाकार होते हैं, सीधे- सीधे मुद्दे पर नहीं आते। सीधे-सीधे तो मूरख किस्म का आम आदमी आता है. न ससुरा बुके देता है, और न मिठाई, और कहता है मेरा ये काम है, हो जाना चाहिए।’ ऐसे लोगों का काम- काम ही रह जाता है और खास लोगो का काम दन्न से हो जाता है। 

तो रामलुभाया कुछ बोल ही नहीं रहे थे, और मंत्री जी मन -ही -मन मज़े ले रहे थे।

 मंत्री जी बोले, ‘मौसम कैसे पल-पल रंग बदल रहा है।’ 

रामलुभाया  ने स्वर से स्वर मिलाया, ‘जी, पल-पल बदल रहा है। क्या कीजिएगा.’  

मंत्री ने फिर रामलुभाया को पलटी मारने के लिए मज़बूर किया, ‘वैसे इस बार मौसम का रुख पहले से तो बेहतर है, क्यों?’ 

रामलुभाया ने छूटते ही कहा, ‘सही फरमा रहे हैं आप, पहले से काफी बेहतर हो गया है।’ 


रामलुभाया की बातें सुनकर मंत्री जी हँस पड़े ‘बड़े ही मजेदार आदमी हैं? और ये बुके कहाँ से बनवाते है आप? देख कर तबीयत खुश हो जाती है। हमारी पत्नी निहारती रहती है इसको, और मिठाई तो बहुतई लाज़वाब होती है।  हमारा टॉमी लपककर खाता है। माँ क़सम, उसे बड़ी प्रिय लगती  हैं।’ 

रामलुभाया को कुछ समय तक समझ नहीं आया कि टॉमी कौन? कुत्ता या इनका नौकर? वैसे अक्सर कुत्ते को ही टॉमी कहते हैं, मगर मंत्री के यहाँ पता नहीं किसको कहते हैं। 

रामलुभाया को बाद में जैसे ही समझ में आया कि उन्हें निबटाने में लगे हैं, तो जेब से एक लिफाफा निकाला और बोले, ‘इसे देख लीजिएगा . अब चलता हूँ। कुछ और लोगों से मिलना है।’

मंत्री जी मुस्कराते रहे और कमला के कमाल- पति ने फिर पलटकर नहीं देखा।

सम्पर्कः सेक़्टर -3, एचआईजी - 2/ 2 ,  दीनदयाल उपाध्याय नगर, रायपुर- 492010, मोबाइल : 87709 69574

कहानीः जियो और जीने दो

 -   श्यामल बिहारी महतो
‘आखिर
उसने जो कहा, कर ही डाला’ 

मंच पर हमने नेताओं का रूप बदलते, पार्टी बदलते और नीति बदलते भी देखा है। लेकिन यह आदमी तो जरा भी नहीं बदला। लोग क्या कहेंगे, लोग क्या सोचेंगे -एक पल भी नहीं सोचा। अपने भाव, अपनी विचारों को खुला रूप देते, सार्वजनिक करते हुए उन्हें ज़रा भी संकोच नहीं हुआ। ज़रा भी सोचा -विचारा नहीं उसने। डंके की चोट पर, एक दम से खुला-खुला! आओ बुढ़वा खेलें होली। अपने रंग हजार। जीवन एक बार ही मिलता है -बार-बार नहीं। जितना हो सके, हँसी -खुशी से जी लो। यह दुनिया एक मुसाफिरखाना है। एक सराय है। रैन बसेरा। जीने के लिए जो साँसें मिली है, उसे पूरा पूरा जी लो। यह जीवन भी एक सराय ही है । यहाँ कोई अपना कोई पराया नहीं। पैसा हैं तो प्यार है, पावर है तो सब हैं, पास-पास ! क्योंकि पैसा है तो प्रेम है । पैसा नहीं तो सब तरफ विरानी, उजाड़ ! मलाल ! ऐसा जीवन से अच्छा है प्रेम से दो पल जी लो -जी उठोगे’ 

यह किसी महान संत का विचार या किसी दार्शनिक की कही बात नहीं थी। बल्कि अपने ही गाँव के शंभू काका का कथन था।

वह एक बुजुर्ग सम्मेलन था। खुला मंच था। हर किसी को अपनी बात रखने की खुली छूट दी गई थी। और कहने वाले भी कहने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ रहे थे। किसी ने जीवन की तरक्की में आई रुकावटों का रोना रोया, कोई पेंशन लागू न होने पर रुदन विलाप किया तो कोई महँगाई पर भस्म कर देने वाली विचारों से सरकार को श्रद्धांजलि देकर उत्तर गया; लेकिन शंभूवा काका एक दम निराले निकले। उसकी एक एक बात निराली थी। बातों से लगता जैसे कोई युवा किसी वार्षिक सम्मेलन में अपने जीवन के सपनों को सार्वजनिक कर रहा हो ‘सोचता हूँ फिर सांघा बिहा कर लूँ’ कह लोगों को चौंकाया था। उसने कहना जारी रखा ‘काफी दिन हो गए शादी किए। जब हमारी शादी हुई थी, बाराती पैदल और दुल्हा गरूगाड़ी ( बैलगाड़ी) पर होता। तब तिलक-दहेज नहीं होता, दुल्हन ही दहेज है, कहा जाता । पहले वरमाला नहीं होता, दूल्हे का द्वार लगी होता,  शादी के पहले लड़का लड़की को देख नहीं पाता, अब वरमाला के साथ ही लड़के को लड़की सौंप दी जाती है’ देखा- देखी कर लो, संग-संग नाच लो, फोटो सोटो खिंचवा लो ‘यह देख मेरा भी जिया ललचा उठा। और इसी के साथ फिर सांघा करने को, मेरा मन मचलने लगा। पहले बेरोजगार था, एक साइकिल और एक गाय तिलक दहेज के रूप में लड़की के साथ भेज दिया गया था। अब रोज़गार में हूँ । नौकरी है, अच्छी खासी सेलरी है, घर है, गाड़ी है, बैंक बैलेंस है, यार दोस्तों के बीच अच्छी पकड़ है, किसी चीज की कोई कमी नहीं है। बस रात को उल्लू की तरह जागता रहता हूँ। पहली वाली तो बेवफा निकली, लोक छोड़ परलोक में जा बसी। उसकी याद में आँसू बहाता रहता हूँ। मुझे रोता देख एक दिन उसने आकर कहा ‘मेरी याद में कब तक आँसू बहाते रहोगे, दूसरी कर ले, तुम्हें तकलीफ़ होती होगी’ मैं मान गया। अब मन फिर बाप बनने को उकसा रहा है । तिलक दहेज नहीं चाहिए, सिर्फ एक जोड़ी कपड़े में लड़की विदा कर दो..!’ वह एक पल को रुका था । सभा स्थल में खुसर- फुसर होने लगी थी ‘किस सनकी पागल को माइक थमा दिया गया है, जो मन में आ रहा है, बके जा रहा है..!’

‘कल और आज का फर्क बता रहा है...!’ कोई बोल उठा।

‘हमें तो लग रहा है, यह सभा को संबोधित नहीं, अपनी दूसरी शादी का प्लान बता रहा है...!’

‘पर बोल तो अच्छा रहा है...!’ उस पर लोग बोलना शुरू कर दिए  थे।

पर शंभूवा काका का रेडियो बंद नहीं हुआ था। विविध भारती की तरह उसने चालू रखा- बुजुर्गों ने भी फ़रमाया है कि यह दुनिया एक सराय है। एक मुसाफिर खाना है। जब तक जीवन है जिते ही जाना है । यही नहीं, लोगों को बीच- बीच में शादी- बिहा करते रहना चाहिए, जैसे पहले के बुढ़- बुजुर्ग किया करते थे और जैसे आज के नेता लोग बीच- बीच में पार्टी बदलते रहते हैं और लड़कियाँ दोस्त ! फिर हम पीछे क्यों रहें? आखिर उम्र ही क्या हुई है मेरी!  पचपन का हूँ पर दिल तो बचपन का है, अच्छी खासी सेलरी है और क्या चाहिए। आज की लड़कियों को ? पैसे वाला हो तो आज की लड़कियाँ बुढ़ा-सुढा, काला- गोरा और ठिगना भी नहीं देखती और सीधे हाँ कर झपट लेती है- जैसे बाज़ कबूतरों पर झपटता है..!’ 

‘कर लो! कर लो!’  कुछ ने उकसाने वाली आवाज लगाई।

‘तशेड़ी, नशेड़ी, गंजेड़ी, चार पाँच लाख तिलक पा रहा है...! ‘शंभूवा काका कहते रहे’ माना कि वे कुँवारे हैं, अरे, तो हमें भी कुँवारे समझ लो न, घंटा भी फर्क नहीं पड़ेगा। बोलो, कोई मेरा दुबारा बिहा करवा सकते हैं, कोई दूर द्रष्टा ! कोई महानुभाव है! बिहा सिर्फ मेरे साथ होगा, हमारे घर परिवार के साथ नहीं । जीवन भर का साथ मैं दूँगा। हमारे घर परिवार से उसका कोई लेना देना नहीं रहेगा । परिवार का किसी तरह का भार उस पर पड़ने नहीं दूँगा। खाना भी उसे बनाना नहीं पड़ेगा । बर्तन भी माँजने नहीं पड़ेंगे ; लेकिन लड़की किसी जाति की नहीं होनी चाहिए- बस सिर्फ लड़की होनी चाहिए। वह फेसबुक, वाट्सएप, ट्वीटर और इंस्टाग्राम वगैरह में सिर्फ चेटिंग करने का काम करेगी, हमेशा ऑनलाइन रहेगी और ऑनलाइन खाना मँगवाकर मुझे खिलाएगी और खुद भी खाएगी। सप्ताह में एक दिन हम किसी पार्क में घूमने जाएँगे, फोटो शूट करेंगे और फिर किसी दिन किसी नदी में नहाते, किसी झरने के नीचे अपनी कोमल देह को सहलाते- नहलाते वो फोटो शूट करेंगी..! फिर उसे फेसबुक पर अपलोड़ करेंगी । इंस्टाग्राम में चेपेंगी और हर साल हम शादी सालगिरह मनाएँगे, जो अभी तक हमने पहली के साथ नहीं मनाए थे..! 

क्या कहा आपने ? पहली शादी के बारे बताऊँ, और बेटा- बेटी के बारे भी बताऊँ, ठीक है तो सुनिए..

चालीस साल पहले बिना तिलक दहेज की मेरी शादी हुई थी। तब मेरी उम्र यही कोई बारह साल की होगी, और हाई स्कूल में वर्ग आठ में पढ़ता था। मूँछ दाढ़ी अभी निकली नहीं थी और हाथ में मोबाइल नहीं, कॉपी किताबें होती थीं। आज तो पैदा होते ही बच्चों के हाथ में मोबाइल आ जाता है और कितने तो मोबाइल के साथ ही पेट से निकल आते हैं, जैसे महाभारत का कर्ण कवच कुंडल पहने पैदा हुआ था । हमारे भी तीन बेटे पैदा हुए। जैसे किसी युग में तीन भगवान पैदा हुए थे, ब्रह्मा, विष्णु और महेश ! तब से कइयों युग गुजर गए;  लेकिन अब धरती पर भगवानों ने पैदा होना बंद कर दिया। अब वे सिर्फ स्वर्ग और नरक का काम देखते हैं । हालाँकि हमारे तीनों बेटे बड़ी सरलता से पैदा हुए। किसी ने हस्पताल का मुँह नहीं देखा और न आज के बच्चों की तरह किसी हस्पताल का नाम उनके नामों के साथ जुड़ा! पर सभी के साथ कुसराइन (गाँव में बच्चा पैदा कराने वाली) नाम जरूर जुड़ा हुआ था। अपने लालन पालन में भी उन तीनों ने कोई मुश्किल पैदा होने नहीं दी और तीनों जर्मन शेफर्ड की तरह पले -बढ़े ! बड़े हुए तो, एक-एक कर हमने तीनों की शादी कर दी, तब भी वो नहीं बदले, तब भी वो तीनों जर्मन शेफर्ड की तरह आज्ञाकारी बने रहे। लेकिन मेरे नहीं - अपनी-अपनी पत्नियों के ! तभी से उनकी सोच बदली थीं - हमारे प्रति। अपने बाप के प्रति। बाप के जीवन और ज़िन्दगी के प्रति। साल भर पहले की बात है। छह माह पहले पत्नी मर चुकी थी। बाहर कड़ाके की ठंड पड़ रही थी । मैं अपने कमरे में कंबल ओढ़े गठरी बने बैठा हुआ था। तभी सुबह आँगन में आग के अलाव को घेरे तीनों जर्मन शेफर्ड बेटों के बीच गुफ्तगू हो रही थी। शुरुआत बड़े ने की। कह रहा था ‘रिटायर होने के पहले अगर बाप किसी कारणवश मर जाता है, तो बाजार चौक की वो दस डिसमिल वाली जमीन मैं लूँगा। उसपर मैं एक शानदार  ‘शंभू मार्केट’ प्लेस बनाऊँगा और सभी किराए पर लगा दूँगा। यही मेरा रोजी रोजगार होगा ..।"

‘नहीं, नहीं, ऐसा नहीं होगा...।‘ मांझिल ने एतराज जताया ‘उसमें मेरा भी हिस्सा होगा। बाप के मरने के बाद मिलने वाले सारे पैसे हम दोनों बाँट लेंगे ..।’

‘आप दोनों तो बड़े मतलबी निकले। जमीन में दोनों का हिस्सा, रुपये भी दोनों बांट लेंगे और मैं क्या बाबा का घंटा बजाऊँगा। मैं क्या पेड़ की खोंढर से पैदा हुआ हूँ!’ छोटका छटाँक भर उछल पड़ा था ।

‘अरे छोटे, नाराज़ काहे होते हो । तुम्हारे लिए नौकरी तो हम दोनों छोड़ ही रहे हैं। तुम मज़े से नौकरी करना...।’

‘नहीं, नहीं, भले पैसे मत देना, लेकिन मार्केट में दो कमरा मुझे भी चाहिए...!’

‘ठीक है, मंजूर...।’ बड़ा बोला।

‘ठीक है ..।‘ मंझिला भी सहमत।

‘तो फिर ठीक है, तब मुझे एतराज नहीं।’

तीनों ने मेरा उसी दिन तेरहवीं पार कर दिया ।

‘आज के श्रवण!’ भीड़ से किसी ने कहा।

‘तभी मैंने निश्चय कर लिया, जर्मन शेफर्ड बेटों की सोच और उनके हसीन सपने पर सुतली बम लगाने का...!’ शंभूवा काका कहते चले गए …मैंने अपना और बेटों के प्लान के बारे अपने कुछ खाल दोस्तों को बताए। कुछ ने मजाक में लिया और कुछ ने बेहद गंभीरता से।

‘गजब की कुंठित चाहत, बाप अभी मरा नहीं और घर में जलाने के समान आ गए ..!’ एक साथी ने कहा 

‘आज कोई अपना नहीं, सबका सपना मनी-मनी!’ दूसरा बोला ।

‘शंभू दा, जिंदगी तो वही है, जो अपनी मर्ज़ी से जिया जाए, कौन क्या कहता है, क्या सोचता है, कान देने की जरूरत नहीं...!’ तीसरे ने जीवन की लॉजिक बताया।

उस दिन के बाद से ही मैंने रातों को सोना कम कर दिया और जागना शुरू कर दिया। कहीं ऐसा न हो जिस छत के नीचे की कड़ी से,  जिसे बेटों के लिए कभी झूले लगा दिए थे, वही बेटे बकरे की भांति मुझे टांग दें ..!" शंभूवा काका की बातों ने एक समा सा ही बाँध दिया था। कहिए तो कुछ -कुछ सहमा सा दिया था । जो लोग शुरू में उनकी बातों से उकता कर जाने को उठे थे, पुनः अपनी जगह पर दिल थाम कर बैठ गए थे । शाम होनी अभी बाकी थी। उनका भी और उस सभा का भी।

जीवन की ढलान पर शंभूवा काका के अंदर एक तूफान सा उठा था। समाज की गोष्ठी- बैठकों में जाते रहता था। कह रहा था ‘एक दिन समाज की मीटिंग से शाम को रामगढ़ से घर लौट रहा था। गोला चौक में दो स्त्री– पुरुष, बग़ल में एक लड़की गाड़ी के इंतजार में खड़े थे। पता चला पेट्रोलियम पदार्थों के मूल्य वृद्धि के विरोध में सवारी गाड़ियाँ दिन भर रोड पर नहीं चली। और शाम हो चली थी। पर गाड़ियों का अब भी पता नहीं था। तीनों परेशान दिखे। मैंने गाड़ी रोक दी और बाहर निकल आया। पूछा- ‘क्या बात है..?’

‘हमें बहादुरपुर जाना है और कोई गाड़ी मिल नहीं रही है...।’ लड़की ने बताया।

‘मैं उधर ही जा रहा हूँ, फुसरो, चाहो तो मेरे साथ आप लोग चल सकते हैं।’

‘डेढ़ दो घंटा से खड़े हैं, एक भी गाड़ी नहीं आई...!’ स्त्री ने आदमी की ओर देखा।

‘और रुकना ठीक नहीं है...!’ आदमी का मुँह धीरे से खुला।

‘माँ, आओ, इन्हीं के साथ चलते हैं...!’ लड़की बोली और गाड़ी के बग़ल में आकर खड़ी हो गई। मैंने गेट खोल दिए। वह आगे मेरे बगल की सीट पर आकर बैठ गई। माँ बाप दोनों पीछे की सीट पर समा गये। मैंने गाड़ी आगे बढ़ा दी। पहली बार मैंने लड़की का अवलोकन किया। गौर से देखा। अंदर से महसूस किया। मासूम लगी। वह आगे देख रही थी। सूनी माँग! पर आँखों में सपनों की उड़ान बाकी!

लड़की विधवा थी और पेट से भी थी। कुदरत की करिश्मा कहिए या जीवन का संयोग। घंटा भर पहले मीटिंग में विधवा विवाह पर मेरे जोरदार भाषण को लोगों ने तालियों की गड़गड़ाहट से स्वागत किया था । मैं कह रहा था ‘हर विधवा स्त्री को, एक और ज़िन्दगी जीने का अवसर मिलना चाहिए। एक ही जिन्दगी में उसका सब कुछ खत्म नहीं हो जाता..!’ अपनी ही कही बातें याद आ रही थीं मुझे।

‘आप क्या करते हैं...?’ अचानक से वह पूछ बैठी।

‘नौकरी...!’ 

‘घर कहाँ हुआ...?’ 

‘मुंगो गाँव...!’

‘पत्नी क्या करती है?’ 

‘वह चल बसी, इस दुनिया में नहीं है...!’ 

वह चुप हो गई। एक बार उसने मुझे देखा और कुछ पल मूड़ी गड़ाए बैठी रही । शायद कुछ सोचने लगी थी । मेरे बारे, अपने बारे या फिर समय की विडंबना पर। 

बहादुरपुर आ गया था । सामने था विशाल शिव मंदिर। बूढ़ा बाबा का एक और घर ! मैंने गाड़ी रोक दी और बाहर निकल आया। पूर्णिमा का चाँद आसमान पर उग आया था । इक्का- दुक्का लोग आ जा रहे थे । जैसे शाम को लोग टहल को निकले हों। सब की अपनी धून, अपनी चाल! 

‘बाहर आ जाओ.,!’ मैंने लड़की से कहा। वह बेधड़क गाड़ी से नीचे उतर आई। आगे बढ़कर मैंने उसका हाथ थाम लिया। वह सहजता के साथ मेरे सामने खड़ी हो गई । निरखने-सा भाव-मुद्रा! ऊपर-नीचे ताकने लगी। 

उसकी कोमल हथेलियों को सहलाते हुए मैंने कहा- ‘मेरे साथ, हमारे घर चलोगी? मैं भी जीवन में अकेला हूँ, अब तुम भी अकेली हो गई हो। शायद इसीलिए जीवन के मोड़ पर किस्मत ने हम दोनों को मिलाया है । उम्र में भले बड़ा हूँ पर बूढ़ा नहीं हूँ। आखिरी साँस तक साथ दूँगा। कभी किसी चीज की कमी होने नहीं दूँगा...!’ 

‘मैं... मेरे पेट में बच्चा पल रहा है...!’ वह हकलाई थी।

‘सब कुछ देख, समझकर ही मैंने यह प्रस्ताव रखा है, बच्चा, तुम्हारे नयनों का तारा होगा और मैं तुम दोनों का माली- शंभू माली... शंभू नाम है मेरा!’

‘ मैं फूलमती, फूलमती महतो.!’  उसने मेरी आँखों में झाँका। जहाँ उसे एक पूरा जीवन मंडल विराजमान नजर आया । तब उसने माँ बाप की ओर देखा, हमें गाड़ी से उतरे देख वे दोनों भी उतर गए थे और अचंभित भावपूर्ण नजरों से हम दोनों को देख रहे थे.. 

‘फिर क्या हुआ...?’ भीड़ ने पूछा ।

‘क्या आप लड़की को साथ लेते आए...?’

‘लड़की के माता पिता ने क्या कहा...?’ 

‘तभी उसकी माँ आगे बढ़ी थी...!’ सवालों के जवाब समेटते हुए शंभूवा काका ने कहा-  पहले तो उसने बेटी के सर पे हाथ रखा और मंदिर के अंदर चली गई। लौटी, तो उसके हाथ में कागज से लिपटी सिन्दूर की पुड़िया थी। पुड़िया उसने मेरे हाथ पर रख दी और बेटी से कहा –‘यह सिन्दूर माँग में भर लो बेटी! भगवान घर का है, सदा जगमगाती रहेगी..!’ 

‘शादी के छह माह बाद ही तुम्हारी किस्मत में छेद हो गया। अब उसी किस्मत ने तुम्हें एक मौका फिर दिया है, जाओ बेटी, इस फ़रिश्ते के साथ सदा खुश रहना!’ बाप ने फूलमती के सर पर हाथ रख  दिया था..! 

‘घर में स्वागत हुआ या आफ़त आई...!’ किसी ने बीच में फिर पूछ बैठा।

‘धमाका हुआ! जर्मन शेफर्ड बेटों के सपनों पर सुतली बम फट गया..!’ शंभूवा काका ने जैसे जीत की डफ़ली बजाते कहा था ‘बहादुरपुर से छूटे, तो हम सीधे बोकारो मॉल में जा घुसे। फूलमती की वेशभूषा भी तो बदलनी थी । नये परिधानों में वह सचमुच की फूलकुमारी लग रही थी। खुद का नया रूप देख खुद से शर्मा गई और देर तक मुझसे लिपटी रही । रास्ते में हमने एक होटल में खाना खाया। घर पहुँचे तो रात काफी हो चुकी थी और सभी अपने- अपने कमरे में गहरी नींद सो रहे थे। हमने किसी को जगाया नहीं और हमेशा की तरह किसी ने उठकर हमसे पूछा नहीं कि ‘खाकर आ रहे हो, या खाना भी है..!’ हमेशा की तरह हमने अपने पास की चाबी का इस्तेमाल किया। पहले गाड़ी अंदर की फिर फूलमती को बाहों में लिए अंदर अपने कमरे में समा गए। लगा बहुत बड़ी जंग जीतकर लौटा हूँ। सोए, तो दोनों यही दुआ कर रहे थे कि इस रात की फिर सुबह न हो। लेकिन फिर सूरज उगा, फिर सुबह हुई, और ऐसी सुबह हुई कि बहुतों के सालों- साल की नींद उड़ा दी। कौवे छत की मुँडेर से उड़ गए और मैना ने डाल बदलने से मना कर दिया। 

सुबह सबसे पहले फूलमती ही उठी। शौचालय से निवृत्त होकर मुझे उठाया। आँगन में जर्मन शेफर्ड पुत्रों को अपनी पत्नियों के संग खड़े पाया। बड़ा पुत्र दहकते अंगारो-सी आँख किए आगे बढ़ आया- " पापा, यह आपने क्या कहर बरपाया? बुढ़ापे में दूसरी शादी कर ली..!" 

बड़े की शह पाकर मांझिल भी बढ़ आया -

‘लोग क्या कहेंगे, ज़रा भी न सोचा, खुद को जवान समझा, क्या है यह लोचा...?’

तभी छोटा फुसफुसाया- ‘खाने को बप्पा को कोई नहीं पूछता था। आज बप्पा ने हम सबके खाने में जहर मिलाया..!’ 

‘कल तक बप्पा को कोई पूछ नहीं रहा था। आज बप्पा का किसी का साथ पाना बहुत अखर रहा है। जाओ तीनों मिल बना लो शंभू मार्केट। लगा दो किराए पर, हम चले अपनी राह...!’ कह साबुन तौलिया लिये मैं बॉथरूम में जा घुसा और फूलमती मुर्झाए सूरजमुखी के पौधों को पानी देने लगी...। 

सम्पर्कः बोकारो, झारखंड, फ़ोन नं 6204131994