छत्तीसगढ़ में दीपावलीः
घर घर जगमगाए सुरहुत्ती का
दीया
छत्तीसगढ़
में दीपावली को सुरहुत्ती कहते हैं। सुर यानी सूर्य, हुत्ती यानी प्रकाश। चूँकि धान की बालियाँ पकने को हैं अत: उन्हें सूर्य
के तेज ताप की ज़रूरत है ताकि धान जल्दी पके। इसके साथ ही खूब सारे दीप प्रज्वलित कर फसलों को कीट पतंगों
से भी बचाया जा सके।
देखा जाए तो छत्तीसगढ़ में नवरात्रि की
शुरूआत के साथ ही दीपोत्सव की तैयारी शुरु
हो जाती है। जँवारा बोकर, नौ दिन तक जोत जलाकर, देवी की सेवा के बाद दशहरे का दिन
आता है। विजय का पर्व दशहरा बुराई पर अच्छाई की जीत के रुप में पूरे देश में मनाया
जाता है। छत्तीसगढ़ में भी गाँव गाँव में रावण का पुतला बनाकर रामलीला का आयोजन
किया जाता है और दशहरे के दिन राम के हाथों रावण को जला कर उसका नाश किया जाता है।
छत्तीसगढ़ के कई गाँवों में तो रावण की सीमेंट की पक्की मूर्तियाँ बनी हुईं हैं।

धनतेरस और नरक चौदस - छत्तीसगढ़ में घर-
आँगन को दीपों से जगमग करने की शुरुआत
धनतेरस के दिन से ही शुरू हो जाती है। इस दिन परिवर में सोना चाँदी या बर्तन
खरीदने की परंपरा है। लोग अपनी हैसियत के अनुसारकुछ न कुछ नया खरीदकर लाते हैं। अब
तो लोग नई गाड़ी या नया घर लेने के लिए धनतेरस के दिन का इंतजार करने लगे हैं।
धनतेरस के दिन साँझ ढलने के बाद घर के प्रमुख द्वार के बाहर चावल के आटे से चौक
पूर कर, जिसे हथेली की चार उँगलियों से उकेरा जाता है, के ऊपर पंक्तिबद्ध तेरह दिए
रखे जाते हैं। ये दिए भी चावल के आटे से ही
बनाए जाते हैं। द्वार पर इनकी गुलाल, बंदन और फूलों से पूजा करके होम- धूप
देकर, घर- परिवार में सुख- समृद्धि की
कामना की जाती है। इसी प्रकार दूसरे दिन
यानी नरक चौदस के दिन भी द्वार पर इसी प्रकार से पूजा की जाती है , हाँ इस दिन चावल
आटे का नहीं बल्कि काली मिट्टी से चौदह दिए बनाकर जलाए जाते हैं।
सुरहुत्ती यानी लक्ष्मी पूजा - इसके बाद
सुरहुत्ती अर्थात् लक्ष्मीपूजन के दिन शाम से ही घरों में चहल-पहल प्रारंभ हो जाती
है। घर की बड़ी-बूढ़ी महिलाएँ कामगारों को सुबह- सुबह आदेश देती हैं कि वे कुम्हार
के घर से जो नए दीये खरीदकर लाए गए हैं ,उन्हें
पानी में डूबा दें। कुछ घंटे बाद उन्हें पानी से निकालकर सुखाने कहती हैं, फिर रूई लेकर दिया जलाने के लिए ढेर सारी बाती
(बत्ती) बनवाती हैं। जैसे ही सूर्य डूबता है और अँधेरा छाने लगता है, दियों में तेल डलवा कर और उन्हें जलाकर पूरे घर में चारों तरफ रखवा देती
हैं।
इस प्रकार शाम ढलते ही सबके घर आँगन के
साथ गाँव भर के चौखट पर जगमग-जगमग माटी के दिये जलने लगते हैं। तुलसी चौरा में, जो
प्राय: गाँव के प्रत्येक घर के आँगन में मिल जाता है,
दीपों की ग्वालिन (कुम्हारों द्वारा बनाई गई दीयों से सजी महिला) जलाई
जाती है। आज के दिन घर का एक भी कोना अँधेरा नहीं रखा जाता। चाहे वह गाय कोठा हो,
धान कोठा, ब्यारा (जहाँ धान काट लाने के बाद रखे
जाते हैं) आदि घर के हर कोने में जलते हुए दीप रखे जाते हैं। छत्तीसगढ़ कृषि प्रधान
क्षेत्र है, इसलिए राजा राम के स्वागत में दीप जलाने
की परम्परा के साथ ही घर में आई फसल जो सबके लिए लक्ष्मी का रूप होती है, के
स्वागत में घर को प्रकाशमान किया जाता है। दरअसल गाँव के किसानों की यही असली
दीवाली होती है।
गाँवों में सुरहुती के दिन दीप जलाने के
साथ-साथ लक्ष्मी पूजा की परम्परा अभिजात्य परिवारों की देन कही जा सकती है क्योंकि
वृद्ध ग्रामीण जन कहते हैं कि पहले निम्न वर्गीय परिवारों में लक्ष्मी की पूजा
नहीं की जाती थी ; परंतु अब छोटे बड़े सभी
घरों में लक्ष्मी का चित्र रखकर उसकी आरती उतारी जाती है। पहले गाँव के लोग अपने
घर पशु- धन, अनाज आदि को ही लक्ष्मी मानते थे और उसी की पूजा
करते थे। अब भी पूजा का असली रूप यही है। दीप इन्हीं सबके लिए जलाए जाते हैं।
दरअसल छत्तीसगढ़ के किसान के लिए सोने के रंग से जगमगाते धान की उपज ही उनकी असली लक्ष्मी होती है, तभी
तो वे फसल पकने के बाद उसे घर में लाने के बाद धूम- धाम से दीपावली का त्योहार
मनाते हैं।
लक्ष्मी पूजा के दिन गेहूँ के आटे का
प्रसाद बनाया जाता है। गाँव के परिचित सज्जनों व समस्त बंधु-बांधवों को पूजा में
आमंत्रित किया जाता है। रावत नाचने आते हैं, महिलाएँ टोली बनाकर नुआ नाचती हैं और
बच्चे पटाखे फोड़कर खुशियाँ मनाते हैं।
किसी जमाने में अभिजात्य परिवारों में
बड़े किसानों जो जमींदार हुआ करते थे, के घरों में
लोहे की मजबूत तिजोरी रखी होती थी, तब बैंक में जेवर आदि रखने की परंपरा तो
नहीं थी ; अतः यह तिजोरी उनका व्यक्तिगत लॉकर होता था, जिसमें
उनके पैसे एवं महिलाओं के आभूषण रखे जाते थे। इस तिजोरी की दीवाली के दिन साफ-
सफाई की जाती थी, फिर उसकापट खोल लक्ष्मी
जी की मूर्ति रखकर उसमें रखे सोने चाँदी के आभूषणों की विधि-विधान से पूजा की जाती थी। ज़मींदारी
प्रथा के दौरान छोटे किसान ज़मींदारों के पास अपने बहूमूल्य जेवर, बर्तन और जमीन,
घर आदि गिरवी रखकर कर्ज लिया करते थे। वे सब जेवर भी ज़मींदार की तिजोरी की शोभा
बढ़ाते थे। जब अच्छी फसल होती तो छोटे किसान कर्ज चुकाकर अपनी धन- सम्पत्ति वापस
ले लिया करते थे। आज के दिन गाँव के बच्चे चावल के आटे का दिया बनाकर उन्हें गाँव
के अन्य घरों के तुलसी चौरा में जलाकर रखते हैं।
दीपदान करने की यह परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है। बदले में बच्चों को
घर मालकिन कुछ पैसे , मिठाई अथवा चाकलेट आदि भेंट दे कर उनका मान रखती हैं।
‘गौरा-गौरी पूजा’ – शिव पार्वती विवाह

मूर्ति बन जाने के बाद विवाह की रस्मों के पूर्व गाँव का बइगा, व
अन्य सदस्य गाँव के मुखिया को बुलाने जाते हैं फिर रात के पहले पहर
में सब मिल-जुल कर गौरा-गौरी को परघा कर लाते हैं। तत्पश्चात विधि
विधान से गौरी- गौरा के विवाह की सभी
रस्में सम्पन्न की जाती है और फिर
गौरा चौरा में लाकर लकड़ी का एक पटा रख कर उन्हें स्थापित कर दिया जाता है। यहाँ
उनकी पूजा के बाद रात भर गौरा गीत और सेवा का दौर चलता रहता है।
दूसरे दिन सुबह गौरा- गौरी को सिर पर उठाकर
पूरे गाँव में घूमाते हैं, गाँव वाले बीच-
बीच में रोककर उनकी पूजा करते हैं नारियल चढ़ाते हैं। पहले तो गाँव में एक ही
स्थान पर गौरा बिठाया जाता था पर अब प्रत्येक मोहल्ले में अलग- अलग गौरा बिठाने लगे हैं , लेकिन विर्सजन
के समय सभी एक कतार से निकलते हैं और अंत
में एक साथ ससम्मान उन्हें तालाब में
विसर्जित करने जाते हैं।
गौरा गौरी को जब परघा कर लाते हैं उस समय
गाँव वाले मिट्टी के कलश में कोई अन्न जैसे चावल, दाल या कोई पकवान बनाकर भेजते
हैं। इस अवसर परएक विशेष प्रकार के चावल का पकवान बनाने की परम्परा है। इस दिन कई
स्थानों पर चावल का ‘फरा’ बनाया जाता है। (छत्तीसढ़ का विशिष्ट पकवान) पके हुए चावल(भात) में थोड़ा चावल का आटा मिला कर उसे गूँथते हैं
फिर उसकी छोटी छोटी लोइयाँ बनाकर उसको दिये की बत्तियों की तरह बना लेते हैं। फिर
एकबड़े बर्तन में पानी उबालकर इसके ऊपर कपड़ा बाँध देते हैं और इस बटे हुए फरे को
कपड़े के ऊपर फैला देते हैं। इसके बाद उसे एकअन्य बर्तन से ढककर भाप से पकने देते
हैं। ( भाप से जिस प्रकार इडली बनती है बिल्कुल उसी प्रकार) पकने के बाद इसे घी से
या टमाटर की चटनी के साथ खाया जाता हैं। फरा को एक और विधि से भी पकाया जाता है
इसमें सीधे कढ़ाई में तेल डालकर लाल या हरी मिर्च तथा तिल का बघार देकर उसमें उतना
पानी डाल देते हैं ,जितने से पूरा फरा पक जाए और फिर कढ़ाई
को ढककर धीमी आँच में पकने देते हैं।
‘गोवर्धन पूजा’- गोपालकों का पर्व
छत्तीसगढ़ में
गोवर्धन पूजा का विशिष्ट स्थान है। सुरहुती के दूसरे दिन को इंद्र की सामन्ती
परंपरा के विरूद्ध श्री कृष्ण द्वारा गोवर्धन पर्वत की पूजा परंपरा की स्थापना
दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस दिन गाय बछड़ों की पूजा की जाती है,
उन्हें पकवान खिलाये जाते हैं। विभिन्न पकवानों के भोग लगाकर
अन्नकूट मनाया जाता है।

आज के दिनराऊत गाय-बैलों को तालाब ले
जाकर नहलाता है, उन्हें सजाता है। तब उनकी घरवालियाँ
(राऊताईन) गाय कोठों को साफ करके द्वार पर गोबर के दो पुतले प्रतीक स्वरूप देवता
बनाती हैं जिसे गोबरधन कहते हैं, इन्हें
बलराम व कृष्ण के प्रतीकके रूप में देखा जाता है। इन पुतलों को चारों ओर से गोबर
से घेर कर उनके ऊपर धान की बालियों, मेमरी (एकपौधा जिसके बीज
को ठंडाई के काम में लाया जाता है) की मंजरी व सिलियारी के फूलों से सजा दिया जाता
है। (ये दोनों पौधे इसी मौसम में उगते
हैं।) गोबरधन के सामने मिट्टी से बने कलश पर जिसमें जल भरा होता है, आम के पत्ते रख कर पत्तों से बने दोने में धान भर कर ऊपर मिट्टी का
दीपकजलाया जाता है। पूजा के बाद शाम को गाय इस गोबरधन के बने
पुतले को रौंदते हुए ही कोठे में प्रवेश करती है।
पुतले को रौंदते हुए ही कोठे में प्रवेश करती है।
पशुधन के लौटने के पूर्व घर की मालकिन इन
गोबर के पुतलों की पूजा करने जाती है। होम-धूप देकर, चंदन गुलाल तथा पीले चावल लगाकर फिर नारियल चढ़ाती हैं। आज के दिन नए चावल से बने खिचड़ी का भोग
लगाया जाता है। यह खिचड़ी नये चावल से नए
चूल्हे पर पकाया जाता है। इसमें चावल, मूँग का दाल, कुम्हड़ा,
कद्दू, घुइयाँ (कांदा) मिलाकर खिचड़ी तैयार की
जाती है। इस खिचड़ी में घर में बने अन्य
पकवान जैसे चावल के आटे की पूड़ी (चौसेला- यह भी छत्तीसगढ़ का विशेष पकवान है)
गेहूँ के आटे की पूड़ी (सोहारी) और उड़द
दाल का बड़ा बनाकर, सबको छोटे- छोटे
टुकड़े करके खिचड़ी में मिला दिया जाता हैं।


सुहई- पशुधन
को सुहई बाँधने की परंपरा गोवर्धन पूजा के दिन ही की जाती है । कई स्थानों में
देवउठनी के दिन भी सुहई बाँधा जाता है। सुहई पलाश की जड़ व मोर पंखों से बना एक
प्रकार का पशुओं के लिए बनाया गया गले का हार होता है। सुहई पहले राऊत स्वयं हाथ
से बनाया करता थे, पर अब तो यह रंग-बिरंगे
रूप में बाजार में बिकने लगे हैं। सुहई बाँधना आज के दिन का बहुत महत्त्वपूर्ण अंग
होता है। इस समय भी राऊत गाजे-बाजे के साथ
नाचता है व दोहे पढ़ता है तथा अपने मालिक
के सुख समृद्धि की कामना भी वह दोहे के माध्यम से करता है।
देवाला-हिन्दु घरों में प्राय: एक देवाला
होता है अर्थात पूजा कक्ष, जहाँ उनके कुल देवता स्थापित रहते हैं। गोवर्धन
-पूजा के दिन परिवार के लोग अपने इष्टदेव की पूजा करते हैं। राऊत के
घर भी जो पूजा कक्ष होता है, उसे देवाला कहा जाता है। यहाँ
उनके इष्टदेव दूल्हादेव की स्थापना होती है। यहीं राऊत के अस्त्र-शस्त्र भी टंगे
होते हैं। गोवर्धन-पूजा के दिन अपने कुल देव की पूजा के साथ
अस्त्र- शस्त्र की पूजा भी की जाती है।

काछन-
राउत जब सज-धजकर और अस्त्र-शस्त्र से लैस होकर नाचने निकलता है,
तब कहते हैं उस पर समस्त दैवी शक्तियाँ विराजमान हो जाती हैं। वह
अस्त्र-शस्त्र धारण कर जैसे ही देवाला से बाहर निकलता है, शस्त्र
चलाने लगता है और वह इसमें इतना मदमस्त हो जाता है कि थककर वहीं गिर जाता है तब
देवाला में होम-धूप देकर उसे होश में लाया जाता है। यह प्रक्रिया काछन कहलाती है।
‘रावत नाच’- शौर्य का प्रतीक


तुलसी पूजा- दीपावली
का यह पर्व इसके बाद भी देवउठनी यानी तुलसी पूजा के दिन तक जारी रहता है। जिसे
बोलचाल की भाषा में लोग छोटी दीवाली कहने लगे हैं। तुलसी पूजा के दिन भी मिट्टी के
दिए से घर आँगन को रोशन किया जाता है। बच्चे आज के दिन भी आतिशबाजी करते हैं। इस
दिन महिलाएँ व्रत रखती हैं और गन्ने का मंडप सजा कर तुलसी की पूजा करती हैं।
‘सुआ नाच’- नारी मन की अभिव्यक्ति
लक्ष्मी पूजा के दो –
तीन दिन पहले से ही गाँव की स्त्रियाँ व लड़कियाँ टोली बनाकर एक टोकनी में सुआ
(तोता) जो मिट्टी से बना होता है लेकर सुआ नाचने निकल पड़ती हैं। सुआ नाचने वाली
महिलाएँ छत्तीसगढ़ी लुगरा (साड़ी) पहनकर, अपने पारंपरिक जेवर जैसे ककनी, कड़ा, रूपिया, करधनी पाजेब बिछिया आदि पहनकर, पैरों में आलता और बालों में फूल लगाकर निकलती
हैं।
सुआ गीत गाती हुई वे लोगों के घरों में
प्रवेश करती हैं और आँगन के बीच सुआ की टोकनी रखकर मंडलाकार होकर गीत के साथ ताली
बजाती हुए नाचती हैं। दो समूहों में विभक्त महिलाओं के इस नृत्य में उनके पाँव का
तालमेल देखते ही बनता है। वे एक घर में तीन चार अलग- अलग प्रकार के गीत गाती हैं।
सुआ गीत नृत्य की खास बात है कि इस नृत्य-गीत में किसी भी वाद्य का प्रयोग नहीं
किया जाता। जबकि राऊत नाच में बहुत सारे वाद्य बजाए जाते हैं।

इन सुआ गीतों में भगवान राम और कृष्ण की
गाथाओं का वर्णन होता है। साथ ही नारी जीवन की विवशताएँ, सास ससुर की प्रताडऩा, ननंद के नखरे, मायके जाने की जल्दी, पति वियोग की व्यथा, पक्षियों के कलरव, आदि कई
विषय होते हैं , जिनके माध्यम से नारी के जीवन में आने वाले उतार- चढ़ाव का बखूबी
वर्णन होता है।
एक गीत में नारी जीवन की व्यथा का बखान
कुछ इस तरह किया गया है-
पइयां मैं लागौं चन्दा सुरूज के
रे सुअना।
तिरिया जनम झनि देय।
तिरिया जनम मोर गऊ के बरोबर
जहँ पठवय तहँ जाय।
अंगठिन मोरि मोरि घर लिपवावँय
फेर ननंद के मन नहि आय।
बांह पकड़ के सइयाँ घर लानय
फेर ससुर हर सटका बताय।
हमला तैं दिहे रे विदेस
पहली गवन करै डेहरी बइठारे
छोड़ि के चलय बनिजार।।
तुहूँ धनी जा था अनिज बनिज बर
कइसे के रइहौं ससुरार
सासे संग खाई बे ननद संग सोई बे
के लहुरा देवर मन भाय।
सासे डोकरिया मर हरजाही,
ननद पठोबौ ससुरार
लहुरा देवर मोर बेटवा बरोबर
कइसे रइहौं मन बाँध।
इस सुआ गीत में सूरज और चन्द्रमा से
विनती कर रही हैं कि मुझे अब तिरिया जन्म मत देना। स्त्री का जन्म गाय के बराबर
होता है एकदम सीधी सादी। उसे जहाँ भेजो चुपचाप चल देती है किसी से कोई शिकायत नहीं
करती।
अंत में घर की मालकिन उन्हें चावल, दीये के लिए तेल और यथाशक्ति कुछ पैसा देकर विदा करती हैं। महिलाएँ इस
बिदाई गीत में आशीर्वाद के रूप में इन पंक्तियों को गाती हैं-
जइसे ओ मइला लिहे दिहे
आना रे सुअना।
तइसे न दे बो असीस
अन धन लछमी म
तोरे घर भरै रे सुअना
जियो जुग लाख बरीस।।
‘हाथा’- छत्तीसगढ़
का लोक चित्र
हाथा
एक प्रकार का भित्ति चित्र है छत्तीसगढ़ में दीपावली के समय दीवारों पर बनायी जाने
वाली लोक कला है। जिसे छत्तीसगढ़ में हाथा
देना कहा जाता है। हाथा देने के पीछे लोक मान्यता है कि इससे घर में आई फसल और पशु
धन को किसी की नजर नहीं लगती और वे सुरक्षित रहते हैं। चूंकि दीपावली के समय ही
फसल काटी जाती है अतः उनकी रक्षा के निमित्त ही हाथा दिया जाता है। हाथा बनाने की
परम्परा लक्ष्मी पूजा के बाद दूसरे दिन गोवर्धन पूजा की सुबह फिर उसके बाद मातर के
दिन और कीर्तिक माह में जेठौउनी (देव उठनी) तक बनाने की परंपरा है।
हाथा गोपालक जाति राऊत की पत्नियाँ
जिसे रऊताईन कहा जाता है , अपने- अपने मालिकों (जो गाँव में
दाऊ या गौटिया कहलाते हैं ) के घर समूह में आशीष देते हुए गीत गाती हुई जाती हैं और
दीवारों पर हाथा देने की रस्म पूरा करती हैं। हाथा देने के लिए चावल के आटे का
इस्तेमाल किया जाता है, तथा उसमें खूबसूरती लाने
के लिए वे प्राकृतिक रंगों का भी प्रयोग करती हैं। आजकल कृत्रिम रंग का उपयोग होने लगा है,
जबकि पहले गेरू मिट्टी तथा पेड़ों के छाल और पत्तों से रंग बनाए
जाते थे। जब रऊताईन हाथा देने का कार्य संपन्न कर लेती है तब घर मालकिन उन्हें
चावल, दाल, सब्जी, आलू, भटा, नमक, मिर्च आदि भोज्य सामग्री के साथ
दीवाली पर बने विभिन्न पकवान जिसमें बड़ा- पूड़ी , मिठाइयाँ होती हैं भेंट स्वरूप देती हैं।
संभवतः इसका नाम हाथा इसलिए पड़ा है ;
क्योंकि ये हाथ की उँगलियों से बनाया जाता है। महिलाएँ अपनी दो
उँगलियों को रंग में डूबो- विभिन्न आकृतियाँ बनाती हैं। हाथा की आकृतियाँ भिन्न -भिन्न
होते हुए भी उनमें एक समरसता होती है, वे मंदिर की आकृति में
ऊपर की ओर नुकीले आकार में ढलती जाती हैं।
परंतु इसके लिए कोई एक नियम नहीं होता। हर कलाकार को स्वतंत्रता होती है कि
वह अपनी कला का खूबसूरती से प्रदर्शन करे। कुछ लोग हाथा देना को मांडना और रंगोली
या अल्पना से तुलना करते हैं पर वास्तव में न तो ये रंगोली है न मांडना और न ही
अल्पना, उसका एक प्रकार जरूर कह सकते हैं ; क्योंकि इस तरह दीवरों, आँगन तथा पूजा स्थान पर
रंगों से आकृति बनाए जाने की परम्परा भारत के लगभग हर प्रदेश में कायम हैं,
जो किसी न किसी रूप में सुख समृद्धि तथा टोटके के रूप में विद्यमान
हैं।
हाथा घर के कुछ प्रमुख स्थानों पर ही दिए
जाते हैं- जैसे तुलसी चौरा में घी का हाथा दिया जाता है। जिस कोठी में धान रखा
जाता हैं वहाँ और गाय कोठे में भी हाथा देना जरूरी होता है। घर के प्रमुख दरवाजे
में भी एक हाथा दिया जाता है। एक हाथा रसोई घर में, जिसे सीता चौक कहा जाता है, देना जरूरी होता है यह
भी घी से बनाया जाता है। सीता चौक को पवित्र माना जाता है और लोगों की ऐसी धारणा
है कि जिस स्थान पर सीता चौक बनाया जाता है , वह स्थान
पवित्र हो जाता है, इसीलिए पूजा के स्थान पर यह आकार बनाया
जाता है।
गोवर्धन-पूजा
के दिन राऊत सोहई बाँधने के पूर्व रसोई में हाथाजिसे घी से बनाया जाता है के ऊपर,
गाय के गोबर नई फसल का नया धान चिपकाकर, दोहा पारते (कहते) हुए नाचते-
गाते आते हैं और उस हाथा के ऊपर गोबर में सने धान का गोला चिपकाकर अपने मालिक की
सुख समृद्धि की कामना करते हुए आशीष देते हैं। इसी समय राऊतों को भी नारियल कपड़ा
आदि उपहार में दे कर उनका सम्मान करने की परंपरा है।
देवी उपासना का पर्व- ‘जँवारा’
नवरात्रि
का पर्व छत्तीसगढ़ में धूमधाम से मनाया जाता है।
छत्तीसगढ़ के प्रत्येक गाँव में ग्राम्य देवी के रूप में महामाया, शीतला माँ, मातादेवाला
का एक निश्चित स्थान होता है जहाँ दोनों नवरात्र चैत्र एवं क्वांर में जँवारा बोया जाता है । जिसमें नौ दिन तक अखण्ड ज्योति जलाने तथा साथ में व्रत
रखने की परम्परा है। इस अवसर पर नौ दिन तक जस गीत गाए जाते हैं। पहले दिन गाँव के
लोग मांदर के थापों के साथ जसगीत गाते हुए महामाया, शीतला,
माता देवाला मंदिर की ओर निकलते हैं। आदि शक्ति के प्रति अपनी
श्रद्धा को प्रगट करते हुए माता के सम्मान में जस गीत गाते हुए भक्त लोहे के बने नुकीले लम्बे तारों से अथवा
बगई के से बने मोटे रस्सी से पूरी ताकत से अपने शरीर पर प्रहार करते चलते हैं,
कहते हैं भक्ति में वे इतने लीन होते हैं कि उन्हें दर्द का अहसास भी नहीं होता
इतना ही नहीं नुकीले त्रिशूल से अपने जीभ, गाल व हाथों को
भेद लेते हैं जिसे बाना चढ़ाना या सांग चढ़ाना कहते
हैं।
जँवारा के इन सेवा गीतों और इसके साथ बजने वाले वाद्य यंत्रों की धुन में इतनी
शक्ति होती है कि जो भक्त माता की भक्ति
में तन मन से डूबा होता है तथा भक्ति भाव में लीन होता है कि जस गीत और उसके धुन से साथ- साथ थिरकने और
झूमने लगता है, छत्तीसगढ़
में इसे देवता चढ़ना या देवी आना कहते हैं । किसी भी स्त्री
या पुरुष पर जब देवता चढ़ जाता है अथवा देवी आ जाती है तो वे अपनी सुध-बुध खोकर
नाचने थिरकने लगते हैं। कई बार उनका यह थिरकना और नाचना इतना उग्र हो जाता है कि उन्हें सँभालना मुश्किल
होता है। तब उसे शांत करने के लिए दशांग का हूम देकर उसका धुँआ उसे सुँघाया जाता
है और उसके हाथ से देवी को नारियल चढ़वाकर
उसे शांत किया जाता है।

वैसे तो अधिकांश जँवारा सार्वजनिक रूप से देवस्थान में ही संयुक्त रूप से बोया
जाता है पर बहुत से परिवार व्यक्तिगत रूप से अपने घर पर भी जँवारा बोते हैं। घर
में भी उसी प्रकार से नौ दिन तक माता की सेवा पूरे नियम धर्म के साथ की जाती है। जँवारा का यह नौ दिन का अनुष्ठान
कोई परिवार मान्यता के रूप में भी करता है। इस अवसर पर पूरे परिवार को विशेष रूप से
आमंत्रित किया जाता है।
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