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Jan 1, 2023

उदंती.com, जनवरी 2023

वर्ष- 15, अंक- 5

मुड़-मुड़कर क्या देखना, पीछे उड़ती धूल ।

फूलों की खेती करो, हट जाएँगे शूल ।। 

                             - रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

इस अंक में 

अनकहीः नया साल, नया दिन, नया संकल्प  - डॉ. रत्ना वर्मा

आलेखः मकर संक्रांति- भारतीय संस्कृति में सूर्य - प्रमोद भार्गव

दोहेः सुबह सुहानी धूप - शील कौशिक

धरोहरः सिरपुर में है विश्व का सबसे बड़ा बौद्ध विहार - डॉ. रत्ना वर्मा

संस्मरणः पचासी पतझड़ - निर्देश निधि

चोकाः मैं सूरज हूँ - रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

आलेखः युवा भारत का अमृत महोत्सव - डॉ. जेन्नी शबनम

बाल कहानीः दादा जी की नसीहतें - पवित्रा अग्रवाल

कहानीः अजनबी - प्रियंका गुप्ता  

तीन लघुकथाएँः वर्तमान का दंश, खूबसूरत, पहेली - डॉ . सुषमा गुप्ता

कविताः दुआ का पौधा  - रश्मि विभा त्रिपाठी

दो लघुकथाएँः 1. पपेट शो, 2.देवो भवः - दीपाली ठाकुर

बाल कविताः खुद सूरज बन जाओ न - प्रभुदयाल श्रीवास्तव

व्यंग्यः भैया जी - शंकर लाल माहेश्वरी

कविताः हो उदय अब सूर्य कोई - मीनाक्षी शर्मा ‘मनस्वी’

आलेखः मनुष्यता का विचार देने वाले स्वामी विवेकानंद - प्रमोद भार्गव

जीवन दर्शनः माटी कहे कुम्हार से: निर्णय से नियति - विजय जोशी

अनकहीः नया साल, नया दिन, नया संकल्प

 - डॉ. रत्ना वर्मा

...तो आप कैसे शुरूआत कर रहे हैं नए साल के दिन और क्या नया करने का सोचा है इस साल, कोई नया संकल्प, नया काम आदि आदि? साल के खत्म होते- होते सबकी जुबान पर इसी तरह का सवाल होता है। पर खुशियाँ मनाने के सबके अपने- अपने तरीके होते हैं। कोई दोस्त के साथ या परिवार के साथ बाहर छुट्टियाँ मनाने जाता है, तो कोई पार्टी करके खुश होता है, बहुत से ऐसे हैं, जो कहते हैं नए साल का पहला दिन परिवार के साथ बिताएँगे। अधिकतर तो घर पर रहकर टीवी देखते हुए नए साल का स्वागत करते हैं। कहने का तात्पर्य यही कि स्वागत सब करते हैं, तरीके चाहे सबके कितने ही अलग क्यों न हो। 

हम सबने देखा है कि पिछले दो साल से आम लोगों ने अपने जीवन को देखने का नज़रिया बदल दिया है। कहते हैं- जिंदगी के हादसे, मुसीबतें और परेशानियाँ व्यक्ति को सबक सिखाती हैं। यही सबक हम सबने पिछले सालों में आई स्वास्थ्य सम्बंधी मुसीबतों से सीखा है कि जीवन, सिर्फ भाग- दौड़ करते हुए जीने का नाम नहीं है; बल्कि जितना जीवन हमें मिला है, उसको अपनों के साथ खुशियाँ मनाते हुए स्वस्थ मानसिकता से जीने का नाम है। कोरोना जैसी महामारी ने हम सबके जीवन में उथल- पुथल मचाकर एक नए नजरिए से जीवन को जीने का संदेश दिया है, बहुतों ने इसे गंभीरता से लिया भी है और अपने नजरिए में बदलाव करते हुए जीवन को सहज, सरल और ज्यादा खुशहाल बनाने की दिशा में सोचना शुरू भी कर दिया है।

जीवन की राह बहुत कठिन है, जहाँ अनगिनत उतार- चढ़ाव आते हैं। खुशियाँ हैं, तो दुःख भी कम नहीं है। दरअसल सुख और दुःख दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। पर इन दोनों के बीच संतुलन बनाकर ही जीने का आनंद उठाया जा सकता है। किसी एक पल में दुःख आ जाने से हम निराश हो जाते हैं और जीने की सारी उम्मीद छोड़ देते हैं, बस यहीं एक गलती कर बैठते हैं । पर यह मनुष्य का स्वभाव है कि वह पिछली मुसीबतों को बहुत जल्दी भूल जाता है। ‘बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुध लेय’ की तर्ज पर लोग बस आगे बढ़ना चाहते हैं । यह सही भी है कि दुःखों को भूल कर खुशियों को साथ लेकर आगे बढ़ना ही जिंदगी है;  परंतु पिछली गलतियों से बिना सबक लिये, आगे बढ़ना गलत होगा।

जो व्यक्ति यह कहते हुए केवल धन कमाने में लगा रहता है कि परिवार के लिए, बच्चों के भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए धन कमा रहा हूँ, ऐसे लोगों को अब लोग नसीहतें देने लगे हैं कि यह सब तो ठीक है;  पर इसके पीछे अपने आपको खत्म मत करो कि अपनों के साथ दो पल खुशियों के भी न बीता पाओ या फिर दूसरों के लिए जीते – जीते ऐसा न हो कि स्वयं आपके अपने सपने, आपकी इच्छाएँ, चाहते सब दबी रह जाएँ और अंत में आपको पछताना पड़े कि अरे इतना सब समझौता करके जीने से तो अच्छा था कि थोड़ा समय अपनी खुशियों को भी दे देते। पैसा ही महत्त्वपूर्ण नहीं है, जितना आपके पास है, उतने में खुश रहना सीखना होगा। गलत तरीके से धन कमाना या दिन रात बस धन कमाने में ही लगे रहना, तो बेहतर जीवन जीने का तरीका नहीं है।

इन सबके बीच आज यहाँ सिर्फ एक बात कहना चाहूँगी। जिस युवा पीढ़ी की ओर उम्मीद भरी नजरों से  पूरा भारत देख रहा है, यह कहते हुए कि यही वह पीढ़ी है जो हमारे देश को विकास की ऊँचाइयों पर ले जाएगी, वह कुछ भटकता सा नजर आ रहा है।  पिछले दिनों हमने देखा कि युवाओं में डिप्रेशन के मामले बढ़ते जा रहे हैं, यही नहीं  बात आत्महत्या तक पहुँच जाती है।  इसका एक अहम कारण परिवार और समाज से दूर जिंदगी के थपेड़ों में उनका अकेले पड़ जाना। है। दरअसल बहुत जल्दी आगे बढ़ने की होड़ में वे सही रास्ता नहीं चुन पाते।  गलत राहों पर चलकर वे कुहरे- भरी जिंदगी में घिर जाते हैं कि वहाँ से उनका निकलना मुश्किल होता है।  कहने का तात्पर्य यहाँ यही है कि हम एक सामाजिक प्राणी हैं, परिवार समाज और दोस्तों के बिना अकेले जीवन नहीं गुजार सकते; इसलिए न तो माता पिता को अपने बच्चों को अकेला छोड़ना चाहिए और न ही बच्चों को सब छोड़कर अकेले निकल जाना चाहिए।

        ऐसे में बेहतर जीवन जीने के लिए हमें बस कुछ छोटी- छोटी बातों को अपने जीवन में ढालना होगा- खुशी छोटी हो या बड़ी,  उसमें खुश होना सीखना होगा, जिंदगी को जीने के लिए रिश्ते को अहमियत देना होगा- चाहे वे दोस्त हों या परिवार। सफलता के लिए मेहनत करना होगा, दूसरों के साथ अपनी खुशी और दुःख को साझा करने की आदत डालनी होगी, किसी ने हमारे साथ गलत किया, तो हम भी उसके साथ गलत करें यह सोच बदलनी होगी।

सार यही कि जिंदगी के हर पल को खुशी के साथ, सबके साथ मिलकर जीना सीखें और इस जिंदगी में मिले इस उजाले के लिए भगवान का शुक्रिया व्यक्त करना न भूलें। जीवन को सकारात्मकता, आशा और उम्मीद के साथ जिएँ। नए वर्ष पर सबका जीवन सुखमय हों, उज्ज्वल हो,  शुभ हों इन्हीं कामनाओं के साथ- नासिर राव के शब्दों में- 

जब उजाला गली से गुज़रने लगा, 

सब अँधेरों का चेहरा उतरने लगा ।

                    

आलेखः 14 जनवरी मकर संक्रांति- भारतीय संस्कृति में सूर्य

- प्रमोद भार्गव 

आमतौर से सूर्य को प्रकाश और गर्मी का अक्षुण्ण स्त्रोत माना जाता है, लेकिन अब वैज्ञानिक यह जान गए हैं कि यदि सूर्य का अस्तित्व समाप्त हो जाए तो पृथ्वी पर विचरण करने वाले सभी जीव-जंतु तीन दिन के भीतर मृत्यु को प्राप्त हो जाएंगे। सूर्य के हमेशा के लिए अंधकार में डूबने के भीतर वायुमण्डल में मौजूद समूची जलवाष्प ठण्डी होकर बर्फ के रूप में गिर जाएगी और असहनीय शीतलता से कोई भी प्राणी जीवित नहीं रह पाएगा। करीब 50 करोड़ साल पहले से प्रकाशामन सूर्य की प्राणदायिनी ऊर्जा की रहस्य-शक्ति को हमारे ॠषि-मुनियों ने पांच हजार साल पहले ही जान लिया था और वे ऋग्वेद में लिख गए थे, 'आप्रा द्यावा पृथिवी अंतरिक्षः सूर्य आत्मा जगतस्थश्च।' अर्थात विश्व की चर तथा अचर वस्तुओं की आत्मा सूर्य ही है। ऋग्वेद के मंत्र में सूर्य का आध्यात्मिक और वैज्ञानिक महत्व उल्लेखित है। प्रकृति के रहस्यों के प्रति जिज्ञासु ऋषियों ने हजारों साल पहले जिस सत्य का अनुभव किया था, उसकी विज्ञान- सम्मत पुष्टि अब 21वीं सदी में वैज्ञानिक प्रयोगों से संभव हो रही है।

सौर मंडल के सौर ग्रह, उपग्रह और उसमें स्थित जीवधारी सूर्य से ही जीवन प्राप्त कर रहें हैं। पृथ्वी पर जीवन का आधार सूर्य ही है। सभी जीव-जंतु और वनस्पति जगत का जीवन चक्र सूर्य पर ही पूर्ण रूप से आश्रित है। सूर्य के इन्हीं गुणों के कारण वैदिक काल में अनेक काव्यात्मक सूक्तों की रचना की गई और ऐतिहासिक काल में सूर्य मंदिरों का निर्माण कराया गया। आदिमानव को सूर्य इसलिए चमत्कृत व प्रभावित करता था, क्योंकि वह अंधकार से मुक्ति दिलाता था और ठण्ड से बचाता था। सूर्य के प्रदेय में कोई भेद नहीं है। काल -गणना का दिशा बोध भी मनुष्य को सूर्य ने ही दिया। इसलिए दुनिया की सभी जातियों और सभ्यताओं ने सूर्य को देवता के रूप में पूजा और अपनी-अपनी कल्पनाओं व लोकानुरूप मिथक गढ़े, जो किंवदंतियों के रूप में हमारे पास आज भी सुरक्षित हैं।

भारतीय परिप्रेक्ष्य में वैदिक काल में सूर्योपासना ज्ञान और प्रकाश के एकीकरण के लिए की जाती थी। तैतरीय-संहिता में उल्लेख है कि सूर्य के प्रकाश से ही चंद्रमा चमकता है। 'छांदोग्य उपनिषद्' में सूर्य को ब्रह्म बताया गया है। गायत्री मंत्र में सूर्य को तेज और बुद्धि का पर्याय माना गया है। रामायण में राम, रावण से युद्ध का श्रीगणेश करने से पहले सूर्य की स्तुति करते हैं। महाभारत में तो कर्ण को सूर्य-पुत्र ही बताया गया है। कनिष्क तथा हुविष्क के सिक्कों पर सूर्य का अंकन है। कुषाणों ने अनेक नयनाभिराम सूर्य प्रतिमाओं का निर्माण कराया। हर्ष के राजकवि मयूर ने सूर्य की वंदना में सौ श्लोकों की रचना की। सूर्य की किरणों से चिकित्सा पर कई पुस्तकें लिखी गई हैं। यजुर्वेद में स्पष्ट कहा गया है कि अंतरिक्ष में व्याप्त सभी विकीरणों में सूर्य की किरणें ही जीव जगत के लिए लाभदायी हैं। 1582 में मुगल सम्राट अकबर ने एक नए धर्म 'दीन ऐ इलाही' की शुरूआत की थी, जिसमें सूर्य पूजा का ही सर्वाधिक महत्व दर्शाया गया था।

वैदिक रूप में सूर्य को काल गणना का कारण मान लिया गया था। ऋतुओं में परिवर्तन का करण भी सूर्य को माना गया। वैदिक समय में ऋतुचक्र के आधार पर सौर वर्ष या प्रकाश वर्ष की गणना शुरू हो गई थी, जिसमें एक वर्ष में 360 दिन रखे गए। वर्ष को वैदिक ग्रंथों में संवत्सर नाम से जाना जाता है। नक्षत्र, वार और ग्रहों के छह महीने तक सूर्योदय उत्तर-पूर्व क्षितिज से, अगले छह माह दक्षिण पूर्व क्षितिज से होता है। इसलिए सूर्य का काल विभाजन उत्तरायण और दक्षिणायन के रूप में है। उत्तरायण के शुरू होने के दिन से ही रातें छोटी और दिन बड़े होने लगते हैं। यही दिन मकर तथा कर्क राशि से सूर्य को जोड़ता है। इसलिए उस दिन भारत में मकर-संक्रांति का पर्व मनाने की परंपरा है। वेदकाल में यह साफ तौर से पता लगा लिया था कि प्रकाश, उर्जा, वायु और वर्ष के लिए समस्त भूमण्डल सूर्य पर ही निर्भर है। वेदकालीन सूर्य में सात प्रकार की किरणें और सूर्य रथ में सात घोड़ों के जुते होने का उल्लेख है। सूर्य रथ का होना और उसमें घोड़ों का जुता होना अतिरंजनापूर्ण लगता है। हालाँकि सूर्य रथ की कल्पना काल की गति के रूप में की गई। सात प्रकार की किरणों को खोजने में आधुनिक वैज्ञानिक भी लगे हैं। नए शोधों से ज्ञात हुआ है कि सूर्य किरणों के अदृश्य हिस्से में अवरक्त और पराबैंग्नी किरणें होती हैं। भूमण्डल को गर्म रखने और जैव रासायनिक क्रियाओं को छिप्र रखने का कार्य अवरक्त किरणें और जीवधारियों के शरीर में रोग प्रतिरोधात्मक क्षमता बढ़ाने का काम पराबैंग्नी किरणें करती हैं।

वेदकालीन सूर्यलोक में दो देवियों की भी कल्पना की गई है। ये हैं, उषा और सूर्या। ऋग्वेद में उषा की वंदना सूर्यों के साथ बीस सूक्तों में की गई है। सूर्योदय के समय अंधेरे और उजाले के बीच जो संधिवेला है, वही उषा की प्रतीक है। सौर देवी सूत्रों की ऋग्वेद में पूरे सूक्त में स्तूति की है। भूमण्डल को प्रकाशित करने का कारण उषा ही मानी जाती है।

दुनिया के सबसे बड़े मेले सिंहस्थ और कुंभ भी सूर्य के एक निश्चित स्थिति में आने पर लगते हैं। सिंहस्थ का पर्व तब मनाया जाता है, जब सिंह राशि में सूर्य आता है। इसमें स्नान एक निश्चित मुर्हूत्त में किया जाता है। वैदिक ग्रंथों के अनुसार देव और दानवों ने समुद्र-मंथन के दौरान अमृत कलश प्राप्त किया था। इसे लेकर विवाद हुआ। तब विष्णु ने सुंदरी रूप रखकर देवताओं को अमृत और दानवों को मदिरा पान कराया। राहु ने यह बात पकड़ ली। वह अमृत कलश लेकर भागा। विष्णु ने सुदर्शन चक्र छोड़कर राहु का सिर धड़ से अलग कर दिया। इससे सिर 'राहु' और धड़ 'केतु' कहलाया। इस छीना-झपटी में जहाँ-जहाँ अमृत की बूंदें गिरीं, वहाँ-वहाँ सिंहस्थ और कुंभ के मेले लगने लगे।

इस वैदिक घटना को वैज्ञानिक संदर्भ में भी देखा जा रहा है। इस आख्यान एवं वैज्ञानिक शोध के बीच सामंजस्य बिठाया जा रहा है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक डां राम श्रीवास्तव का इस सिलसिले में कहना है, 'हमारे सौर मंडल में एमएस 403 का एक तारा है। यह हमारे सूर्य से दस हजार गुना बड़ा सूर्य है। इसे एक ब्लैक होल निगल रहा है। जिस तरह से शेर के मुँह से अपने को छुड़ाने को जानवर भागता है, ठीक उसी तरह यह दस हजार गुना बड़ा सूर्य ब्लैक होल के चारों ओर छूटकर भागने के लिए चक्कर काट रहा है। इस पूरी प्रक्रिया में जैसे किसी अनारदाने से आतिशबाजी की चिंगरियाँ  निकलती हैं, एम एस 433 के दोनों ओर यह अतिशबाजी निकल रही है। वैज्ञानिकों ने इसके प्रकाश का जब परीक्षण किया तो पाया कि 433 में ऐसे अनेक तत्व हैं, जिन्हें हमारा विज्ञान आज भी नहीं पहचानता। आज भी ऐसे तत्व अन्य किसी तारे में मौजूद नहीं हैं। यह भी एक विचित्र संयोग है, जब सिंहस्थ का मेला लगता है तो एसएस 433 सूर्य के साथ सिंह राशि में बीचों-बीच स्थित रहता है और सिंहस्थ व कुंभ स्नान के समय इससे निकलने वाला प्रकाश तथा आतिशबाजी सीधे पृथ्वी की ओर इंगित रहते हैं। मसलन हमारे ऋषि-मुनियों ने सूर्य के अनेक रहस्यों को जानने के साथ मनुष्य के लिए उसकी उपयोगिता भी जान ली थी। इसलिए सिंहस्थ और कुंभ जैसे मेलों की शुरूआत हुई।


ऋग्वेद में सूर्यग्रहण का भी उल्लेख है। प्रसिद्ध ऋषि अत्रि सूर्य को सूर्यग्रहण से मुक्त कराने का उपाय भी जानते थे।  ऋग्वेद में उल्लेख है कि अंधकार रूपी स्वर्भानू असुर ने सूर्य को ग्रस लिया
, तब अत्रि ने उसे अपने प्रताप के ग्रहण से छुड़ाया। ब्रह्माण्ड में घटी इस तरह की घटनाओं के प्रतिफलस्वरूप  ही लोक जीवन से पुराकथाओं और मिथकों का जन्म हुआ। इसी तारतम्य में भारतीय संदर्भ में प्रमुख कथा है, '
एक बार गणेश जी भरपूर आहार ग्रहण करने के बाद आराम कर रहे थे। इसी समय उन्होंने सूर्य और चंद्रमा को अपने ऊपर हँसते पाया। इससे गणेश क्रोधित हो गए और उन्होंने कमर में लिपटे अजगर को आदेश दिया की वह ब्रह्माण्ड में पड़े इन पिण्डों को निगल जाए। अजगर  ने सूर्य को निगलना शुरू कर दिया और पूरी दुनिया अंधकार में डूब गई। चराचर में हाहाकर मचने लगा। तब भूलोकवासियों ने गणेश से इस संकट से मुक्त कराने की प्रार्थना की। गणेश पिघल गये। लेकिन उन्होंने एक शर्त रखी की
, सूर्य व चंद्र को अपने किए का आभास कराने के लिए वे कुछ निर्धारित दिनों में आंशिक रूप से फिर सूर्य को निगल लिया करेंगे। इस मिथक के आधार पर ही संभवतः सूर्य ग्रहण देखने की जिज्ञासा जनमानस में उत्पन्न हुई।

इस कथा के पीछे वैज्ञानिक मत है कि पूर्ण सूर्यग्रहण से करीब 30 सैकेण्ड पहले आकाश में एकदम अंधेरा छा जाता है और सूर्य कि किरणें ग्रहण के एक कोने से मुक्त होने लगती हैं, तब आकाश में ऐसी तरंगें फैल जाती हैं, जैसे कि लाखों साँपों के उलझे हुए गुच्छे फैल गए हों। पूर्ण ग्रहण समाप्त होने के बाद ऐसा ही अनुभव होता रहता है। करीब छह हजार साल पहले किए एक पूर्ण सूर्यग्रहण के अध्ययन से अनुमान लगाया गया कि दो धुरियाँ  हैं, पहली जिस पर धरती घूमती है और सूर्य का चक्कर लगाती है, दूसरी धुरी जिस पर चंद्रमा धरती का चक्कर लगाता है। जिन बिंदुओं पर आकर वे एक दूसरे से मिलते हैं, उन्हें राहु और केतु कहा जाता है। ग्रहण का प्रभाव तभी सामने आता है जब सूर्य और चंद्रमा एक सीध में आमने-सामने आकर परस्पर निकट से निकलते हैं।  

सम्पर्कः शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी म.प्र., मो. 09425488224, 09981061100

दोहेः सुबह सुहानी धूप

 - शील कौशिक

चकाचौंध है शहर में, पर चुप हैं मनमीत।

हवा शहर की ले गई, गौरैया के गीत।।

 

सोई है संवेदना, सोए हैं सम्बन्ध।

वासंती अहसास का, कैसे हो अनुबन्ध।।

 

चिड़िया बैठी डाल पर, रस्ता रही निहार।

बिछुड़े साथी जब मिलें, आए तभी बहार।।

 

हवा निगोड़ी गुम हुई, कहाँ गयी बदजात।

बढ़ी निराशा वृक्ष की, चुप बैठे हैं पात।।

 

ऋतुपति की पदचाप सुन, उपवन करे पुकार।

कोयल-भँवरे, गुल-कली, दौड़े बाँह पसार।।

 

हुलस-हुलसकर कह रही, गेहूँ की हर बाल।

सखी! सयानी हम हुईं, कब पहुँचें ससुराल।।

 

पवन बसंती छू गई, जब से मेरा गात।

चंचल मन उड़ता फिरे, कहने को निज बात।।

 

रंग और मकरंद की, हुई खूब बरसात।

मद में डूबे सब करें, ऋतु बसंत की बात।।

 

पीत चुनरिया ओढ़कर, निखरा सरसों वेश।

हरियाला परिधान है,  दुल्हन- सा परिवेश।।

 

त्याग-भावना फूल की, देती है संदेश।

कुछ दिन का जीवन मिला, महकाओ परिवेश

 

ठिर-ठिर सर्दी आ गई, जमी धूप में खाट।

तेज हवा ज्यों ही चली, लगी धुंध की बाट।।

 

था-थैया कत्थक करे, सुबह सुहानी धूप।

कौतुक यह सब देखते, कैसा रूप अनूप।।

 

करके माथे पर तिलक, सकुचाती है धूप।

मैं भी भैया क्या करूँ, मैका लगे अनूप।।

 

कुहरे का पहरा लगा, प्रकृति हो गई मौन।

सूरज दादा हैं छुपे, टक्कर ले अब कौन।।

धरोहरः सिरपुर में है विश्व का सबसे बड़ा बौद्ध विहार


 - डॉ. रत्ना वर्मा

इस बार जब सिरपुर की यात्रा पर जाना हुआ तो लक्ष्मण मंदिर, राम मंदिर और के अलावा जिन स्थानों पर अधिक समय हमने बिताया, वह यहाँ अलग- अलग जगह पर मिले विभिन्न बौद्ध विहारों की यात्रा थी जो अपने आप में बेहद रोमांचक और यादगार रही। मेरे लिए यह गौरव का विषय है कि मैं उस प्रदेश की निवासी हूँ जहाँ सिरपुर है और इसी सिरपुर में विश्व का सबसे बड़ा बौद्ध विहार है।

पिछले अनेक वर्षों से की जा रही सिरपुर की खुदाई में हर बार कुछ नया देखने को मिलता है यही कारण है कि सिरपुर की यात्रा मेरे लिए हमेशा एक अलग और नया अनुभव देने वाला होता है।  बस यहाँ एक कमी बहुत खलती है और वह है ठहरने और भोजन की समुचित व्यवस्था का न होना। इतनी भव्यता समेटे होने के बावजूद भी पर्यटन के रूप में इस क्षेत्र का जैसा विकास होना चाहिए नहीं हो पा रहा है। शायद हम इसके विश्व धरोहर में शामिल होने की बाट जोह रहे हैं।

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से लगभग 85 किलोमीटर की दूरी पर स्थित सिरपुर में छठवीं शताब्दी के 184 टीलों को खुदाई के लिए तय किया गया था,  खुदाई अभी भी जारी है जिसमें शिवमंदिर, विष्णु मंदिर, बौद्ध विहार, लक्षमण मंदिर, जैन विहार, राजमहल, सुरंग टीला, बाजार के साथ यज्ञशाला, स्तूप और रहवासी मकानों के अवशेष मिले हैं। आगे की खुदाई में न जाने और क्या क्या  मिलेगा।

केंद्र सरकार ने देश के पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए बौद्ध सर्किट तैयार किया है। इसी बौद्ध सर्किट में छत्तीसगढ़ के ऐतिहासिक पुरातात्विक स्थल सिरपुर को शामिल कर लिया गया है।। सिरपुर को बौद्ध सर्किट-3 में जगह दी गई है। ज्ञात रहे कि बौद्ध सर्किट एक में गया, वाराणसी, कुशीनगर, और लुंबनी (नेपाल) की यात्रा  शामिल है। लुम्बिनी - जहाँ भगवान बुद्ध का जन्म हुआ था, बोधगया- जहाँ उन्होंने आत्मज्ञान प्राप्त किया, सारनाथ, जहाँ उन्होंने प्रचार किया, कुशीनगर जहाँ उन्हें मुक्ति मिली।

जैसा कि इतिहास में दर्ज है ईसा पूर्व छठवीं शताब्दी में चीनी यात्री ह्वेनसांग सिरपुर आए थे। उन्होंने अपने यात्रा वृतांत में जिस राजधानी का जिक्र किया है वह सिरपुर ही है। चीनी यात्री ह्वेनसांग की भारत यात्रा पर थामस वार्ट्स ऑन युवांग चांग की ट्रेवल्स इन इंडिया नामक पुस्तक भी प्रकाशित हुई थी। व्हेन सांग की यात्रा वृत्तांत में सिरपुर का उल्लेख है। ह्वेनसांग ने सन्‌ 618 में छत्तीसगढ़ की पहली यात्रा की थी।  जब इस स्थान की खुदाई की गई तो वे सभी बातें सत्य पाई गई जिनका उल्लेख ह्वेनसांग ने अपनी यात्रा वृत्तांत में किया है। उनके अनुसार यह तथ्य भी उजागर हुआ है कि भगवान बुद्ध के चरण भी छत्तीसगढ़ में पड़े थे।

ह्वेनसांग ने श्रीपुर के दक्षिण की ओर एक पुराने बिहार एवं अशोक स्तूप का वर्णन किया था, जहाँ भगवान बुद्ध ने शास्त्रार्थ में विद्वानों को पराजित कर अपनी आलौकिक शक्ति का प्रदर्शन किया था। इतिहासकारों के अनुसार यह बात भी प्रमाणित होती है कि जहाँ- जहाँ भगवान बुद्ध के चरण पड़े वहाँ वहाँ अशोक स्तूप का निर्माण कराया गया था। ह्वेनसांग के यात्रा वृतांत में यह बात प्रमाणित भी होती है।

सिरपुर में अब तक 10 बौद्ध विहार और लगभग 10000 बौद्ध भिक्षुओं के अध्ययन के पुख्ता प्रमाण मिल चुके हैं। इसके अलावा यहाँ कई बौद्ध स्तूप और बौद्ध विद्वान नागार्जुन के आने के प्रमाण मिले हैं। यह स्थल गया के बौद्ध स्थल से भी बड़ा है। अभी तक यह माना जाता रहा है कि नालंदा, तक्षशिला और पाटिल पुत्र ही शिक्षा के स्तंभ रहे है तथा नालंदा का बौद्ध विहार ही सबसे बड़ा है। लेकिन सिरपुर में प्राप्त बौद्ध विहारों ने इस बात को गलत साबित कर दिया है। क्योंकि अब तक नालंदा में चार बौद्ध विहार मिले हैं, जबकि सिरपुर में दस बौद्ध विहार पाए गए हैं। जहाँ  छह- छह फुट की बुद्ध की मूर्तियाँ भी मिली हैं। सबसे खास बात है कि सिरपुर के बौद्ध विहार दो मंजिल वाले हैं जबकि नालंदा का विहार एक मंजिला ही हैं । इन विहारों में घूमते हुए आप इस स्थल की भव्यता को महसूस कर सकते हैं। मैं तो सोचने पर मजबूर हो गई कि वाह क्या  दौर रहा होगा और क्या उस दौर के लोग रहे होंगे जिन्होंने ऐसी संरचना रची।

खुदाई में प्राप्त अवशेषों और उनके अध्ययन के बाद यह प्रमाणित हुआ है कि प्राचीन समय में सिरपुर एक अतिविकसित और समृद्ध राजधानी थी, यहाँ से विदेशों के साथ व्यापार किया जाता था। अवशेष बताते हैं कि यहाँ सोने-चाँदी के गहने बनाने के साँचे थे।  अस्पताल, था। इस स्थान पर बंदरगाह होने के प्रमाण भी मिले हैं जो हजारों साल पहले यहाँ जहाज चलने की बात को प्रमाणित करते हैं।

तीवर देव बौद्ध विहार

दक्षिण कोसल में 2002-03 के उत्खनन में प्राप्त अब तक के सबसे बड़े विहार के रूप में तीवर देव बौद्धविहार का नाम लिया जाता है। तीवर देव महाविहार विशाल और भव्य है। इसकी शिल्पकला अद्भुत है। यह बौद्ध विहार लगभग 902 वर्ग मीटर में फैला है। इसे दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम विहार के मध्य में 16 अलंकृत प्रस्तर स्तंभों वाला मंण्डप है। इन पर ध्यान मुद्रा में बुद्ध, सिंह, मोर, चक्र आदि का उकेरे गए हैं।

गर्भ गृह के पश्चिम में भगवान बुद्ध की प्रतिमा स्थापित है। इन इस विहार में चारों ओर भिक्षुओं के रहने के लिए कमरे हैं। बीच में आंगन है। गर्भगृह है। गर्भगृह के सामने वाले मंण्डप के चारों ओर गलियारा है। इस विहार में जल निकासी के लिए भूमिगत नालियों के अवशेष मिले हैं। इस विहार के प्रवेश द्वार हाथी तथा युगल मूर्तियों से सज्जित द्वार बेहद खूबसूरत है। सिरपुर से बौद्धधर्म से संबंधित पाषाण प्रतिमाओं के अतिरिक्त धातु प्रतिमाएँ तथा मृण्मय पुरावशेष भी उपलब्ध हुए हैं।

मध्यप्रदेश के स्थित साँची के स्तूप की तरह बौद्ध विहारों में जातक कथाओं का अंकन है और पंचतंत्र की चित्रकथाएँ जैसे मगरमच्छ, वानर आदि की कथाएँ उकेरी गई है। एक स्तंभ में कुम्हार द्वारा चाक पर मिट्टी के बर्तन बनाने का दृश्य उस दौर के व्यवसाय एवं उसके महत्त्व को दर्शाते हैं। सिरपुर की सभी मूर्तियाँ पत्थर से बनी हुई है। यहाँ हंस और मयूर के चित्र बहुतायत से मिलते हैं। शिव पार्वती और गणेश की प्रतिमा तथा महिषासुरमर्दिनी की मूर्तियों के साथ गंगा की मूर्तियाँ भी है।

इस स्थान में विहार के साथ एक बौद्ध भिक्षुणी विहार भी स्थित है। कहते हैं कि जब वज्रयान संप्रदाय का उद्धव हुआ तब से भिक्षुणियों के लिए अलग विहार बनाकर उनके रहने की व्यवस्था की गयी। उत्खनन में वज्रयान का प्रतीक धातु का वज्र भी प्राप्त हुआ है। साथ ही यहाँ बड़ी संख्या में सीपी तथा काँच की चूडियाँ मिली है। प्राप्त मुद्राओं पर बौद्ध धर्म से संबंधित सूक्तियाँ अंकित है। बुद्ध के अलावा अन्य मूर्तियों में सातवीं शताब्दी के बौद्ध बीजमंत्र उत्कीर्ण है। गंधेश्वर मंदिर में मिली बुद्ध की प्रतिमा में आठवीं शताब्दी के अक्षरों में बौद्धमंत्र उत्कीर्ण है। बताया जाता है कि आनंद प्रभु कुटी विहार का उपयोग बौद्ध भिक्षु-भिक्षुणियों द्वारा आवास हेतु किया जाता था।

इस विहार में सीढ़ियाँ भी मिली हैं, जिससे अनुमान लगाया गया कि यह विहार दो मंजिला रहा होगा। क्योंकि ह्वेनसांग ने 10,000 बौद्ध भिक्षुओं के सिरपुर में निवास करने का जिक्र किया है। हर मठ में एक सीढ़ी है। जिससे ऊपर जाया जा सकता है। यहाँ एक प्रवेश द्वार है। इससे लगा कमरा कोषागार लगता है। इसलिए कि कोषागार में जाने के लिए समीप ही एक कमरे की दीवार के आधार के साथ खिड़कीनुमा पल्ला होने का संकेत मिलता है। अन्न भंडार और कोषागर की व्यवस्था हर मठ में देखने को मिलती है। सामूहिक अध्ययन के लिए एक बड़ा कमरा है। कुछ कमरे छोटे तथा कुछ बड़े हैं।

सिरपुर में सभी बौद्ध विहार उच्चकोटि की ईटों से निर्मित हैं। विहारों की तल योजना में गुप्तकालीन मंदिर तथा आवासीय भवन का निर्माण किया गया है। विहार में भिक्षुओं के ध्यान, निवास, स्नान के अलावा अध्यापन की सुविधाएँ थी। खुदाई में 43 रिहायशी कमरों के अवशेष मिले हैं। प्रत्येक विहार के सामने बरामदा और सभागृह है। पीछे की ओर भिक्षुओं के निवास स्थल है। कुछ कमरे बड़े हैं, कुछ बहुत ही छोटे हैं। महाशिवगुप्त बालार्जुन के शासन काल में आनंद प्रभु नामक बौद्ध भिक्षु ने विहार का निर्माण कराया था। आनंद प्रभु कुटी विहार में 16 पत्थर के स्तंभ हैं। सभा मंडल, छज्जा और मूर्तियाँ इसी पर आधारित हैं। बुद्ध की एक प्रतिमा है जो बंद कमरे में है। इस प्रतिमा के दक्षिण दिशा में पद्मपाणि की पूर्ण आकार की प्रतिमा है। देव मंदिर के दक्षिण में गंगा की और वाम में यमुना की प्रतिमा है। मठ के बरामदे में 14 कमरे हैं। सभी में आले हैं। एक आला दरवाजे की सांकल के लिए, दूसरा दीपक के लिए, तीसरा ताले के लिए और चौथा वहाँ निवास करने वाले भिक्षुओं के सामान रखने के लिए था।

स्वस्तिक विहार

पास ही एक और ध्वस्त विहार भी उत्खनन से प्रकाश में आया है। तल योजना के आधार पर इसे स्वस्तिक विहार के नाम से जाना जाता है। यहाँ भी भूमिस्पर्श मुद्रा में बुद्ध की प्रतिमा प्रस्थापित है। यह विहार भी बौद्ध भिक्षुओं के रहने की व्यवस्था, उनके ध्यान के लिए अलग अलग कमरे की व्यवस्था दिखाई देती है।

सबसे बड़ा बाजार

सबसे अनोखा है उत्खनन में प्राप्त विश्व के सबसे बड़े सुव्यवस्थित बाजार को देखना, जो यह बताता है कि छठी-सातवीं शताब्दी में सिरपुर एक अति विकसित राजधानी थी जहाँ देश- विदेश से व्यापार होता था। खुदाई में अष्टधातु की मूर्तियाँ बनाने के कारखाने के प्रमाण मिले हैं। इस कारखाने में धातुओं को गलाने की घरिया और मूर्तियों को बनाने में प्रयुक्त होने वाली धातुओं की ईटें प्राप्त हुई हैं।  सिरपुर के पास ही महानदी पर नदी बंदरगाह आज भी विद्यमान है। इन प्रमाणों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि पहले महानदी में पानी की मात्रा ज्यादा होती होगी कि उसमें जहाज आया जाया करते थे।

 सातवीं शताब्दी के पश्चात इस क्षेत्र में जबरदस्त भूकंप आया, जिसके कारण पूरा सिरपुर ध्वस्त हो गया। यहाँ के पुरातात्विक उत्खनन में इस बाढ़ और भूकंप के प्रमाण के रूप में सुरंग टीले के मंदिरों में सीढ़ियों के टेढ़े होने और मंदिरों व भवनों की दीवालों पर पानी के रुकने के साथ बाढ़ के महीन रेत युक्त मिट्टी दीवारों के एक निश्चित दूरी पर जमने के निशान मिलते हैं।

संस्मरणः पचासी पतझड़

- निर्देश निधि
 उस बार जब मैंने उसे देखा, तो लगा जैसे वह पचासी वसंतों में खिले फूलों की महक के स्थान पर सिर्फ पचासी पतझड़ों की वीरानी ओढ़े बैठी थी बुआ। घर में बेटा- बहू, पोती- पोते, धेवती- धेवते सबकी उपस्थिति में भी वह घर से अलग- थलग घेर में बनी एक एकांत कोठरी में अकेली पड़ी थी। देखकर दिल धक से रह गया था बस। पचासी पतझड़ों ने उसकी आँखें बुढ़ा दी थीं। मेरी वह सौन्दर्य- भरी बुआ एक झुर्रीदार बूढ़ी में परिवर्तित हो गई थी । कोसों पैदल चल लेने के अभ्यस्त उसके पाँव घर का आँगन पार करते भी डगमगा रहे थे । भंडारे की साफ- सफाई करते वक्त मन- मन भर की बोरियाँ इधर से उधर पटक देने वाली वह बलिष्ठ बुआ अब धड़ी भर धान की पोटली भी क्या ही उठा पाती होगी। खैर, अब तो उसे इस सबकी ज़रूरत भी नहीं थी। पर इस उम्र में थका देने के लिए अपने शरीर की सेवा में क्या कुछ कम ऊर्जा खर्च होती है । अब बुआ बुढ़ापे और बीमारी के मेल- जोल से पूरी तरह थक गई थी । जीवन के साथ मिली ऊर्जा चुक गई थी और जीवन शेष रह गया था । शायद उसने ऊर्जा का खर्चा अधिक कर दिया था, बुढ़ापे के लिए शेष कुछ रखा नहीं था । कह सकते हैं कि ऊर्जा और जीवन का अनुपात गड़बड़ा गया था ।

मैंने एक- दूसरे के लिए इतनी जान देने वाले भाई- बहन कभी देखे ही ना थे, जैसे अपनी बुआ और अपने पिता। मेरे पिता अपने परिवार की ज़िम्मेदारी के साथ- साथ मेरी बुआ के परिवार की ज़िम्मेदारी भी शिद्दत से उठाते रहे थे। यूँ बुआ को किसी मरे- गिरे परिवार में तो ब्याह कर नहीं गए थे मेरे दादा; पर उसके ननद- देवरों की अधिक जिम्मेदारियों के कारण गाहे- बगाहे उसे मेरे पिता की, मेरे पिता क्यों अपने भाई की  सहायता की आवश्यकता पड़ ही जाती, और भाई मुस्तैदी से सहायता में जुट जाता। 

एक– दूसरे के परिवार और बच्चों के लिए जान कुर्बान रहती दोनों की । उनके इसी व्यवहार के रहते मैंने भी अपने बचपन से लगाकर युवावस्था तक अपनी प्यारी बुआ के गाड़े स्नेह का आसव छककर पिया था। किशोरावस्था मुझे माँ और पिता विहीन कर गई। बुआ तड़प उठी, उसके मन का दुःख- ताप बुझाए ना बुझता था। जैसे सघन कोहरे वाली रातों में धुआँ ऊपर ना उठ पाए वैसे ही बुआ का दुःख फिर - फिर उसके सीने में लौट आता । बड़े कठोर शब्द निकाले उसने अपने मुँह से, “मेरे भैया के जाने से उसका और मेरा, दोनों परिवार अनाथ हुए, इससे तो महेंदर के पिता जी ना होते तो मेरा भैया दोनों परिवारों को आराम से पाल लेता।”  जैसा कि मैंने पहले भी कहा था कि सैकड़ों बीघा के मालिक मेरे फूफा जी यूँ इतने गए गुजरे भी ना थे, पर ना जाने कैसे उन्हें मेरे पिता की सहायता की आवश्यकता रहती ही थी। और बहन के परिवार के भी फ़िकरमंद मेरे पिता सारे काम- काज त्यागकर उन्हें सहायता देने दौड़ पड़ते। मेरे पिता नहीं रहे थे, और नहीं रहा था मेरी बुआ का लाड़ला इकलौता और प्यारा भाई भी। मैं तो अनाथ हो ही गई थी;  पर मुझसे अधिक अनाथ तो बुआ हो गई थी । उसके पास तो भाई- भावज, भतीजी- भतीजों के किस्सों के सिवा कुछ और था ही नहीं।

अंततः पिता जी के न होने से गाँव घर- बार सब कुछ एक झटके में छूट गया था। जैसे ध्वनि -तरंगों में कोई बल आ गया था और जीवन का संगीत कानों तक पहुँचता ही ना था । आठ अक्तूबर उन्नीस सौ छियत्तर की सुबह - सुबह यह दुर्घटना घटी, कैसा विचित्र संयोग है कि आज ठीक तेंतालीस बरस बाद आठ अक्तूबर दो हज़ार उन्नीस के दिन मैं इस दुर्घटना का उल्लेख पहली बार तिथि के साथ कर रही हूँ। हमारा गाँव छूट गया, अनाथ हुए हम सब बहन- भाई बिजनौर चले आए।  

बुआ का गाँव कंबौर, बिजनौर से तीन या चार किलोमीटर ही है;  अतः वह अब हमारे पास की निवासी हो गई । जब भी उसका मन हमसे मिलने को उमड़ता वह बिना सोचे - विचारे घर से निकल पड़ती । जाड़ों में ऐसी करारी मूँगफलियाँ भूनकर लाती, जो बादाम को भी मात दे दें । कभी आम ले आती, कभी अमरूद लाती, कभी गन्ने के टुकड़े छील - छीलकर लाती, कभी गन्ने का रस ही पिरवाकर ले आती । कभी ताजा बना गुड़ - शक्कर, कभी राब, कभी झड़बेरी के देसी बेर ही रास्ते से तोड़कर ले आती, मसलन किसी सीजन की कोई ऐसी चीज़ ना थी, जो बुआ की पहुँच में होती और हम ना खाते - पीते ।    

कोई बैल गाड़ी या भैंसा - बुग्घी कभी मिल जाती, तो बुआ उसमें बैठकर बिजनौर तक आ जाती अन्यथा पैदल – पैदल ही चल देती । ना अघन – फूँस के जाड़े से ठिठुरन की परवाह करती, ना शरीर का सारा पानी उलीचकर रख देने वाली गर्मी से डरती, ना मूसलाधार बरसते सावन - भादों की रौ में बहती और ना ही बसंत की महकती बयार उसे बहकाकर आने से रोक पाती । एक निश्चित अंतराल के बाद एक- आध दिन के हेर- फेर से उसका आना निरंतर होता। अगर घर तक आने का समय ना होता, तो वह मेरे स्कूल ही पहुँच जाती । आकर स्कूल के लॉन में बैठ जाती, धैर्यपूर्वक इंटरवल की प्रतीक्षा करती और घंटी बजते ही चपरासी के हाथ मुझे बुला भेजती । मैं अपना खाना भी वहीं बुआ के पास ही बैठकर खाती । अकसर वह मेरे लिए भी खाना लाती और हम दोनों बुआ - भतीजी वहीं लॉन की घास के हरे कालीन पर बैठकर खाना खाते । मेरे पिता के ना होने ने उस पर बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी डाल दी थी जैसे ।

आधे घंटे के दौरान उसका हाथ दसियों बार मेरे सिर पर चला जाता । उस समय मुझमें आज - कल की लड़कियों की तरह बालों में स्टाइल बनाने का ना होश था ना हुनर ही, जो बुआ के हाथ से हेयर स्टाइल बिगड़ जाने का जोखिम हो । वह आशीष देती और मेरा कपाल उसे भीतर तक सोखकर आश्वस्त होता । मन शांति और स्नेह के बख्तरबंद सी सुरक्षा और संतुष्टि से भर उठता । माँ- पिता जी के असमय चले जाने से हुआ गहरा घाव बुआ के प्यार के मरहम से थोड़ा कम टीसता ।

बुआ कई- कई दिनों तक हमारे साथ रहने आ जातीं। बचपन में अंग्रेजों के समय के जो तमाम किस्से उनसे सुने थे, मैं उन्हें अपनी किशोर स्मृति में सदा के लिए सुरक्षित कर लेने के लिए फिर से सुनती। वे अपने बचपन में अपने भाई से हुए अपने बाल सुलभ झगड़ों से लेकर अपने संघर्षों में एक - दूसरे के साथ बिना किसी शर्त खड़े रहने के किस्से भी खूब सुनाती। और उनका भाई किस तरह उन्हें निरापद कर देता वे उसके यशोगान भी सुनाया करतीं । धीरे - धीरे माँ - पिता के चले जाने के घाव भरने लगे, पर उदासी तो सदा के लिए मन पर अंकित हो गई और मैं चुलबुली चहकती लड़की से गंभीर सी और कम हँसने- बोलने वाली लड़कियों में शामिल हो गई, या कर दी गई ।

बड़ी हुई, पढ़ी - लिखी, फिर ब्याह होकर डॉ. साहब के साथ बुलंदशहर आ गई । बड़े से संयुक्त परिवार में व्यस्तता हदें पार कर गई । पढ़ाई - लिखाई को चूल्हे - चौके ने रिप्लेस कर दिया। सासू माँ भी एक व्यस्त डॉक्टर थीं;  अतः मैं एक पूर्णकालिक गृहिणी  के संकुचित माने जाने वाले विस्तृत दायरे में कैद होकर रह गई। कैद भी हुई इतनी कि फ्रस्ट्रेट होने की याद भी नहीं आई कि मैंने अपना बना - बनाया कैरियर छोड़ा था और यहाँ दो पंक्तियाँ पढ़ने तक की मोहलत नहीं थी। जो स्थिति रही उसमें बुआ से मिलना भी कहाँ हो पाता। बरसों तक उससे ठीक से मिलना संभव हुआ ही नहीं ; क्योंकि बिजनौर यानी पीहर जाना ही बहुत कम समय के लिए हो पाया । सही मायनों में असन्तुष्ट या फ्रस्ट्रेट होने की याद भी तब आई, जब खुले शब्दों में मुझे घर की परिचारिका घोषित कर दिया। खैर यह पीड़ादायी किस्सा फिर सही, अभी तो बस बुआ। ऐसे में मैं और बुआ एक- दूसरे से अपने - अपने संवेगों के माध्यम से जुड़े रहे । बुआ के घर जाकर कुछ घंटों के लिए ही मिलना संभव हो पाता, वह भी कभी- कभार। उसका भी बिजनौर आना काफी कम हो गया था। 

उस बार मैं, भाभी मेरा बड़ा भतीजा राज भास्कर और मेरा बेटा वरुण, बुआ से मिलने उसके गाँव गए थे । इस बार मुझे उसकी आँखों से गुजरे हुए पचासी वसंतों की जगह उनमें पचासी पतझड़ झड़े हुए ज़रूर दिखाई दिए थे । अपनी बुढ़ाई आँखों को थोड़ा सिकोड़कर उसने, बड़े होते वरुण को देखा और पल में उसे पहचानकर उत्तर जानते हुए भी, बात को प्रश्न बनाकर बोली, “दिशु है ?” वह वरुण को उसके बचपन के इसी नाम से पुकारती थी। “हाँ बुआ दिशु ही है ।” वरुण को बुआ ने अपने पास बैठा लिया मेरे हिस्से के आशीषों की पोटली भी उसी के सिर पर खोलती रही। वरुण को हँडिया में हारे में उबलता हुआ गुलाबी दूध बहुत पसंद है; अतः उसके लिए लुटिया भर दूध हारे में से निकलवा लिया गया । मलाई न खाने पर खूब देर तक बोली । तेरा नाना तो हँडिया की सारी मलाई खा जाता था,  देखा नहीं तूने कितना लईम - शईम था; अगर देखता तो देखता ही रह जाता । खैर वह कितना भी बोली पर वरुण मलाई नहीं खाता, सो उसने नहीं खाई ।

घेर में बनी कोठरी के एकांत से ऊब गई होगी शायद;  इसीलिए भाभी को देखते ही उनके साथ बिजनौर उनके घर आने की हठ करने लगी थी, बच्चों की तरह । अपनी पोती से बोली, मेरे कपड़े रख दे चार - पाँच धोती, कुर्ते रख और एक मेरा नया वाला तौलिया रख दे । और हाँ मेरी वे दोनों नई धोती ज़रूर रखना जो मुझे सुरेखा ने दी थीं, जब मैं गई थी पिछली बार । मैं जाऊँगी अपने भैया इंदरबीर (इंद्रवीर) के पास । वे बड़े भैया का नाम लेकर बोलीं। मैं मन ही मन सोच रही थी कि स्त्री कितनी भी बूढ़ी क्यों ना हो जाए उसका नई साड़ियों के प्रति मोह कहाँ छूटता है, वह तो बरकरार रहता है सदा, जैसे पचासी बरस की बुआ का बरकरार था। बुआ उस समय बहुत अस्वस्थ और अशक्त थीं अतः उसके बेटे ने उसे ले जाने की सलाह नहीं दी । भाभी भी हिम्मत नहीं बटोर पाईं । पर बुआ तो बिलकुल वैसी ही ज़िद पर अड़ गई जैसी ज़िद उसने कभी तब की होगी जब ग्यारह बरस की नादान उम्र में ब्याह कर ससुराल आई थी और उसके पिता कभी यूँ ही उससे मिलने चले आए होंगे और वह घर चलने की ज़िद पर अड़ गई होगी और उसके पिता को उसे जबरन छोड़कर जाना पड़ा होगा । हम भी उसे छोड़कर चले आए थे।

भास्कर (मेरा बड़ा भतीजा) उन्हें ले चलने के लिए ज़िद करने लगा कि जब उनका इतना मन है, तो लेकर ही जाऊँगा। भास्कर का क्या वह एक बार जून की छुट्टियों में मेरी ससुराल आया । घर में तमाम मेहमान आए हुए थे करीब बारह - पंद्रह  लोग रहे होंगे कुल मिलाकर। पहले रिश्तेदारियों में जाने का खूब समय था लोगों के पास । मेरी ननदें, उन ननदों के ननद - देवर, मेरे सगे देवर, फुफेरे देवर, एक मेरी सासू माँ, एक उनकी बड़ी बहन और भी कोई जन, और खाना बनाने वाली अकेली मैं । तब भास्कर बच्चा ही था आठवीं या नौवीं कक्षा में पढ़ता रहा होगा, थोड़ा सा नासमझ पर कुछ - कुछ समझदार भी । जब रात में पचासियों चपातियाँ बनाते रहकर भी सबका खाना न निपटा तो जून की भीषण गर्मी के कारण मुझे उल्टियाँ आ गईं। निर्दयता यह कि बची हुई चपातियाँ बनाने के लिए भी कोई नहीं हिला। पाँच मिनिट सुस्ताकर वे भी बनानी मुझे ही पड़ीं । यह देखकर भास्कर नाराज़ हो गया और डॉक्टर साहब सहित मेरे सारे ससुरालियों के सामने ही बोला, “बुआ जी कल सामान लगा लेना मैं कल जाऊँगा और आपको भी लेकर ही जाऊँगा। इस बारात का खाना बनाने के लिए यहाँ छोड़कर नहीं जा सकता ।”  मैं सुन्न और सब शून्य रह गए, कोई कुछ नहीं बोला। वही भास्कर अब बड़ा होकर अपने पिता की बुआ को भी अपने घर ले जाने की ज़िद करने लगा। पर बुआ वाकई बहुत अशक्त थी उसे लाया नहीं जा सकता था उसकी बाल सुलभ हठ से घबराकर उसके बेटे ने हमें सुझाया कि आप लोग चुपचाप निकल जाओ, माँ को मैं पीछे घेर में लिए जा रहा हूँ । और हमने उसकी यह निकृष्ट सलाह मान भी ली और हम चुपचाप चले आने की भूल कर बैठे।

अगले ही दिन मैं बुलन्दशहर लौट आई । मेरे लौट आने के ठीक चौथे दिन बुआ ने शरीर छोड़ दिया । खिन्न होकर बोली होगी जाओ तुम। मुझे नहीं ले जाते, तो मैं खुद ही चली जा रही हूँ, वो भी कभी ना आने के लिए। उसके बेटे ने बताया कि बहुत नाराज़ हुई थी उस दिन वह। इतनी नाराज़ हुई कि हमेशा के लिए ही नाराज़ हो गई। वह नाराज़ हुई और हमें अपनी नाराजगी के अनुपात से कहीं ज़्यादा पश्चाताप से भर गई । सोचती हूँ उसे धोखा देकर चले आने और उसके इस तरह नाराज़ होकर चले जाने के सघन पश्चाताप से क्या मेरा जीवन कभी रिक्त हो पाएगा…

सम्पर्कः विद्या भवन, कचहरी रोड, बुलंदशहर (उप्र)-203001, ईमेल-  nirdesh.nidhi@gmail.com, मो. 93584-88084

चोकाः मैं सूरज हूँ


- रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ 

मैं सूरज हूँ

अस्ताचल जाऊँगा

भोर होते  ही

फिर चला आऊँगा

द्वार तुम्हारे

किरनों का दोना ले

गीत अर्घ्य दे

मैं गुनगुनाऊँगा

रोकेंगे लोग,

न रुकूँगा  कभी मैं

मिटाना चाहें

कैसे मिटूँगा भला

खेत-क्यार में

अंकुर बनकर

उग जाऊँगा

शब्दों के सौरभ से

सींच-सींच मैं

फूल बन जाऊँगा

आँगन में आ

तुमको रिझाऊँगा

छूकर तुम्हें

गले लग जाऊँगा

दर्द भी पी जाऊँगा।