-डॉ. सुशील जोशी
पिछले 10 माह से देश के स्कूल कमोबेश बंद पड़े हैं। कहने को
तो रिमोट शिक्षा की व्यवस्था की गई है ; लेकिन
उसकी अपनी समस्याएँ हैं। वैसे तो केन्द्र सरकार ने अक्टूबर में आदेश जारी कर दिए थे कि
राज्य अपने विवेक के अनुसार स्कूल खोलने का निर्णय ले सकते हैं; किंतु अधिकतर राज्यों ने स्कूल न खोलने या आंशिक रूप से खोलने का ही निर्णय लिया है।
इस संदर्भ में मुख्य सवाल यह है कि स्कूल खोलने या बंद रखने का निर्णय किन आधारों
पर लिया जाएगा।
पहले तो यह देखना होगा कि हमारे सामने विकल्प क्या हैं।
पहला विकल्प तो यही है कि सब कुछ सामान्य हो जाए और सारे स्कूल पहले की भाँति (जैसे लॉकडाउन से पहले थे) चलने लगें। इसका मतलब यह तो
नहीं लगाया जा सकता कि सब कुछ ठीक हो गया; क्योंकि देश में
शिक्षा की हालत को लेकर कई अन्य चिंताएँ
तो बनी रहेंगी।
दूसरा विकल्प है-
स्कूलों को पूरी तरह बंद रखना और तीसरा विकल्प है- स्कूलों
को आंशिक रूप से खोलना यानी कुछ कक्षाएँ
शुरू कर देना या प्रत्येक कक्षा में सीमित संख्या में छात्रों को आने देना।
स्कूल बंद रखने का मतलब होगा कि देश के 15 लाख से ज़्यादा स्कूलों में दाखिल 28
करोड़ बच्चे घरों में बंद रहेंगे और संभव हुआ तो ऑनलाइन कुछ सीखने की कोशिश करेंगे ;
लेकिन इसके साथ जुड़े कई मसले हैं।
सबसे पहला मुद्दा तो ऑनलाइन शिक्षा तक पहुँच का है। यूनिसेफ़ की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में
मात्र 23 प्रतिशत घरों में इंटरनेट कनेक्शन हैं, जिनके
माध्यम से ऑनलाइन शिक्षा तक पहुँच बनाई जा सकती है। दुनिया भर में देखें तो ऐसे
डिजिटल-वंचित बच्चों की संख्या 50 करोड़ के आसपास है। इस मामले में विशाल
ग्रामीण-शहरी अंतर भी है। इंटरनेट उपलब्धता में इस अंतर का स्पष्ट परिणाम यह होगा
कि सीखने के मामले में खाई और बढ़ेगी। स्मार्ट फोन वगैरह भी काफ़ी कम परिवारों के पास हैं और यदि हैं भी, तो वे पूरे परिवार के इस्तेमाल के लिए हैं। ज़ाहिर है, ग्रामीण बच्चे, लड़कियाँ और शहरी गरीब बच्चे पिछड़
जाएँगे।
यह सही है कि शासन की ओर से यह प्रयास किया गया है कि
इंटरनेट से स्वतंत्र प्लेटफ़ार्म्स (जैसे टेलीविज़न) पर भी शिक्षा का
उपक्रम किया जाए ; लेकिन उसकी समस्याएँ भी कम नहीं हैं। एक तो इस शैली में मानकर चला
जाता है कि पर्दे पर किसी जानकार को सुनकर शिक्षा पूरी हो जाती है। इस माध्यम में
बच्चों और शिक्षक के बीच किसी वार्तालाप के लिए कोई गुंजाइश नहीं होती। दूसरी बात
यह है कि लगभग सारे शिक्षक बताएँगे कि बच्चे कक्षा में लगातार ध्यान केंद्रित नहीं
करते/कर पाते। शिक्षक की नज़र रहती है कि किसका ध्यान कब व कहाँ भटक रहा है।
टेलीविज़न जैसा माध्यम तो इसमें कोई मदद नहीं कर सकता। यानी यह रिमोट शिक्षा एक ओर
तो शिक्षा की गुणवत्ता को बिगाड़ेगी और साथ ही गरीब-अमीर, ग्रामीण-शहरी बच्चों के बीच तथा लड़के-लड़कियों के बीच
असमानता को बढ़ाएगी।
यूनिसेफ की उक्त रिपोर्ट में आगाह किया गया है कि रिमोट शिक्षा
के माध्यम उपलब्ध होने के बावजूद शायद बच्चे उतने अच्छे से न सीख पाएँ ; क्योंकि घर के परिवेश में कई अन्य दबाव भी काम करते हैं। यदि बच्ची/बच्चा
स्कूल चला जाए, तो उतने घंटे तो समझिए, ‘सीखने’ के लिए आरक्षित हो गए ; लेकिन वह घर पर ही है, तो कई अन्य
प्राथमिकताएँ सिर उठाने लगती हैं।
अधिकतर लोग शायद यह
तो स्वीकार करेंगे कि बच्चे स्कूल सिर्फ़ ‘पढ़ाई’ करने नहीं
जाते। स्कूल हमजोलियों से मेलजोल का एक स्थान भी होता है,
जहाँ तमाम तरह के खेलकूद होते हैं, रिश्ते-नाते बनते हैं। स्कूल बंद रहने से बच्चे इन महत्त्वपूर्ण सामाजिक
अवसरों से वंचित हो रहे हैं। यह बात कई अध्ययनों में उभरी है कि सतत माता-पिता की
निगरानी में रहना और हमउम्र बच्चों के साथ मेलजोल न होना बच्चों के लिए मानसिक
दबाव पैदा कर रहा है और मनोवैज्ञानिक समस्याएँ
भी। माता-पिता के लिए जो समस्याएँ
सामने आ रही हैं,
वे तो सूद के रूप में हैं। वॉशिंगटन स्थित चिल्ड्रन नेशनल
हॉस्पिटल की डॉ. डेनियल डूली ने कहा है कि स्कूल बंद होने की वज़ह से शिक्षा का तो नुकसान हुआ ही है, मानसिक स्वास्थ्य, कुपोषण वगैरह के खतरे भी बढ़े हैं।
एक मुद्दा मध्याह्न
भोजन यानी मिडडे मील का भी है। मिडडे मील को दुनिया का सबसे बड़ा पोषण कार्यक्रम
कहा गया है। इसके तहत दिन में एक बार कक्षा 1 से 8 तक के सारे स्कूली बच्चों को
पौष्टिक भोजन प्राप्त होता है। इनकी संख्या करीब 6 करोड़ होगी। इतने ही बच्चों को
आँगनवाड़ी से भोजन दिया जाता है और वे भी बंद हैं। यह उनके पोषण स्तर को बेहतर करने
में एक महत्त्वपूर्ण योगदान देता है। हो सकता है, यह योजना
बहुत अच्छी तरह से लागू न हुई हो, फिर भी इसने स्कूली बच्चों की सेहत पर सकारात्मक असर डाला है। स्कूल बंद मतलब
मिड डे मील भी बंद। भारत में कुपोषण की स्थिति को देखते हुए यह एक बहुत बड़ा व
महत्त्वपूर्ण नुकसान है।
कुल मिलाकर स्कूल बंद रहने का मतलब बच्चों के लिए
संज्ञानात्मक विकास और तंदुरुस्ती में ज़बरदस्त
नुकसान। इसके साथ-साथ खेलकूद का अभाव, हमउम्र बच्चों से मेलजोल के अभाव वगैरह का मनोवैज्ञानिक असर तो हो ही रहा है।
इसके अलावा,
कई संस्थाओं ने आशंका व्यक्त की है कि यदि यह साल इसी तरह
गया तो 2021 में बड़ी संख्या में बच्चे शायद स्कूल न लौटें, नए दाखिलों की तो बात ही जाने दें। स्कूलों में दाखिलों को
लेकर जो प्रगति पिछले एक-डेढ़ दशकों में हुई है, वह
शायद वापिस पुरानी स्थिति में पहुँच जाए। लैंसेट के एक शोध पत्र में यह भी
शंका व्यक्त की गई है कि इस तरह स्कूल बंद रहने से बाल-विवाह में भी वृद्धि की
संभावना है।
तो स्कूलों को जल्द से जल्द बहाल करने के पक्ष में काफ़ी दलीलें हैं ; लेकिन यदि सरकारें
स्कूलों को नहीं खोल रही हैं, तो यकीनन कुछ कारण होंगे। सरकार तो सरकार, माता-पिता भी कह रहे हैं कि स्कूल खुलेंगे, तो
भी वे अपने बच्चों को नहीं भेजेंगे। एक सर्वेक्षण में 70 प्रतिशत अभिभावकों ने यह
राय व्यक्त की है। वैसे यदि पालकों को कहा जाएगा कि वे बच्चों को स्कूल अपनी
ज़िम्मेदारी पर ही भेजें, तो पालकों का कोई
अन्य जवाब हो भी नहीं सकता। कई स्कूल प्रबंधन भी ऐसा ही सोचते हैं। और इन सबकी
हिचक का प्रमुख (या शायद एकमात्र) कारण है कि स्कूल में भीड़-भाड़ होगी, बच्चों के बीच निकटता होगी, बच्चे मास्क वगैरह
भूल जाएँ गे और खुद संक्रमित होंगे, और संक्रमण को घर ले आएँ गे। कहा जा रहा है कि स्कूल संक्रमण प्रसार के अड्डे
बन जाएँगे। इसी मूल चिंता के चलते समाज में स्कूल खोलने के विरुद्ध माहौल बना है।
तो सवाल है कि यह चिंता कितनी जायज़ है।
पिछले दिनों कई देशों में स्कूल पूर्ण या आंशिक रूप से खोले
गए हैं। भारत में भी कुछ राज्यों ने स्कूल खोले हैं। कहना न होगा कि स्कूल खोलने
को लेकर केन्द्र सरकार द्वारा प्रोटोकॉल जारी किए गए
हैं और शायद शत प्रतिशत नहीं; लेकिन इनका पालन भी हुआ है, तो उनसे किस तरह के आँकड़े व अनुभव मिले हैं।
स्विटज़रलैंड स्थित इनसाइट्स फॉर
एजूकेशन नामक एक संस्था ने स्कूल खोलने के बाद के अनुभवों का एक अंतर्राष्ट्रीय
अध्ययन किया था। उनके अध्ययन में 191 देशों के अनुभवों का विश्लेषण किया गया है।
रिपोर्ट का पहला चौंकाने वाला निष्कर्ष यह है कि कोविड-19 वैश्विक महामारी ने
दुनिया भर में बच्चों की शिक्षा के 3 खरब स्कूल दिवसों की हानि की है।
बहरहाल, रिपोर्ट का सबसे
महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष यह है कि स्कूलों के खुलने और संक्रमण दर में वृद्धि के बीच
कोई सम्बन्ध नहीं है। इनसाइट्स फॉर
एजूकेशन की मुख्य कार्यकारी अधिकारी रैण्डा ग्रोब-ज़कारी का कहना है कि यह तो सही
है कि स्कूल खोलने या ना खोलने का निर्णय तो स्थानीय परिस्थितियों पर निर्भर करेगा
; लेकिन कुछ मान्यताओं की छानबीन आवश्यक है।
जैसे यह मान लिया गया है स्कूल खुले तो संक्रमण फैलने की दर में उछाल आएगा और
स्कूल बंद रखने से संक्रमण फैलने की दर कम रहेगी। देखना यह है कि विभिन्न देशों का
अनुभव क्या कहता है। इसे समझने के लिए शोधकर्ताओं ने 191 अलग-अलग देशों में अपनाए
गए तरीकों और उनके परिणामों का विश्लेषण किया है।
जिन देशों का अध्ययन किया गया उनमें से कम से कम 92 देशों
में स्कूल खोले गए हैं। इनमें से कुछ देश तो ऐसे भी थे ज्हाँ कोविड-19 काफी अधिक था। रिपोर्ट में बताया गया
है कि फ्रांस व स्पैन समेत 52 देशों में बच्चे अगस्त और सितंबर में स्कूल आने लगे
थे। ये सभी वे देश हैं जहाँ लॉकडाउन के दौरान संक्रमण दर बढ़ रही थी ; लेकिन स्कूल खुलने के बाद और नहीं बढ़ी थी। दूसरी ओर, यू.के. व हंगरी में स्कूल खुलने के बाद संक्रमण दर बढ़ी थी।
52 देशों का विश्लेषण बताता है कि संक्रमण दर बढ़ने का स्कूल खुलने से कोई
सम्बन्ध नहीं दिखता। इसके लिए अन्य परिस्थितियों
पर विचार करना होगा। यूएस में भी स्कूल खुलने और संक्रमण दर में वृद्धि का कोई
सीधा सम्बन्ध स्थापित नहीं हुआ है।
भारत में कुछ राज्यों ने स्कूल खोलने का निर्णय लिया है ; राज्यों में कक्षा 9 तथा उससे ऊपर की कक्षाओं को ही शुरू किया
गया है। इस संदर्भ में आंध्र प्रदेश की रिपोर्ट है कि वहाँ स्कूल खुलने के बाद
राज्य के कुल 1.89 लाख शिक्षकों में से लगभग 71 हज़ार की जाँच की गई और उनमें से
829 (1.17 प्रतिशत) पॉज़िटिव पाए गए। कुल 96 हज़ार छात्रों की जाँच में 575 (0.6
प्रतिशत) पॉज़िटिव निकले। राज्य के शिक्षा आयुक्त ने माना है कि ये आँकड़े कदापि
चिंताजनक नहीं हैं; क्योंकि पहली बात तो यह है कि शिक्षकों
की जाँच स्कूल खुलने से पहले की गई थी, जिसके परिणाम स्कूल खुलने के बाद आए हैं।
मिशिगन विश्वविद्यालय चिकित्सा अध्ययन शाला की संक्रामक रोग
विशेषज्ञ डॉ. प्रीति मालनी ने स्कूल खोलने के बारे में कहा है कि अब तक उपलब्ध
आँकड़ों से नहीं लगता कि स्कूल सुपरस्प्रेडर स्थान हैं। दरअसल ऐसा लगता है कि स्कूल
अपने इलाके के सामान्य रुझान को ही प्रतिबिंबित करते हैं। स्पैन के पोलीटेक्निक
विश्वविद्यालय के एनरिक अल्वारेज़ ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि स्पैन में दूसरी
लहर में संक्रमणों में वृद्धि स्कूल खुलने से कई सप्ताह पहले शुरू हो गई थी और
स्कूल खुलने के तीन सप्ताह बाद गिरने लगी थी। कहीं भी यह नहीं देखा गया कि स्कूल
खुलने से संक्रमण के प्रसार में वृद्धि हुई हो। और उनके आँकड़े बताते हैं कि स्कूल
संक्रमण फैलाने के हॉट-स्पॉट तो कदापि नहीं बने हैं। अलबत्ता, उन्होंने स्पष्ट किया है कि यह स्पैन की बात है जहाँ जाँच
और संपर्कों की खोज काफी व्यवस्थित रूप से की जाती है। इसके अलावा स्पैन में मास्क
पहनना,
शारीरिक दूरी बनाए रखना तथा साफ-सफाई का भी विशेष ध्यान रखा
जा रहा है।
इसी प्रकार से थाईलैंड व दक्षिण अफ्रीका में स्कूल पूरी तरह
खोल दिए गए और संक्रमण के फैलाव पर इसका कोई असर नहीं देखा गया। वियतनाम व
गाम्बिया में गर्मी की छुट्टियों में मामले बढ़े ; लेकिन स्कूल खुलने के बाद कम हो गए। जापान में भी पहले तो मामले बढ़े ;
लेकिन फिर घटने लगे। इस पूरे दौरान स्कूल खुले रहे। सिर्फ यू.के.
में ही देखा गया कि स्कूल खुलने के समय के बाद से संक्रमणों में वृद्धि हुई।
अधिकतर देशों में, और खासकर यू.एस. व यू.के. में वैज्ञानिकों का मत है कि कहीं-कहीं स्कूल खुलने
के बाद संक्रमण दर में वृद्धि हुई है ; लेकिन
इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि ऐसा स्कूल खुलने के कारण हुआ है। साथ ही वे कहते
हैं कि इस बात का भी कोई प्रमाण नहीं है कि इसमें स्कूलों की कोई भूमिका नहीं रही
है।
महामारी और स्कूल खोलने के संदर्भ में एक महत्त्वपूर्ण सवाल
यह उठता रहा है कि क्या बच्चे कम संक्रमित होते हैं और संक्रमण को कम फैलाते हैं।
सामान्य आँकड़ों से पता चला है कि संक्रमित लोगों में बच्चे सबसे कम हैं। इसकी कई
व्याख्याएँ प्रस्तुत की गई हैं और काफी
मतभेद भी हैं। कुछ विशेषज्ञों का मत है कि बच्चों की प्रतिरक्षा प्रणाली
अप्रशिक्षित होने की वजह से वे सुरक्षित रहते हैं। इसके विपरीत कुछ लोगों का कहना
है कि यदि ऐसा होता तो वे अन्य संक्रमणों से भी सुरक्षित रहते ; लेकिन हकीकत अलग है। कुछ लोगों को कहना है कि बच्चों के
फेफड़ों की कम कोशिकाओं में वे ग्राही (ACE2 ग्राही) होते हैं
जो कोरोनावायरस को कोशिका में प्रवेश का रास्ता प्रदान करते हैं। यह भी कहा गया है
कि बच्चे संक्रमण को बहुत अधिक नहीं फैलाते; क्योंकि उनके फेफड़े छोटे होते हैं और उनकी छींक
या खाँसी के साथ निकली बूँदों में वायरस की संख्या कम होती
है और ये बूँदें बहुत दूर तक नहीं जातीं।
बहरहाल,
मामला यह है कि
अधिकतर आँकड़े दर्शाते हैं कि स्कूल कोविड-19 वायरस
फैलाने के प्रमुख या बड़े स्रोत नहीं हैं। यह भी स्पष्ट है कि स्कूलों के बंद रहने
का शैक्षणिक व स्वास्थ्य सम्बन्धी खामियाजा खास तौर से गरीब
व वंचित तबके के बच्चों को भुगतना पड़ रहा है। इसलिए इस मुद्दे को मात्र प्रशासनिक
सहूलियत के नज़रिए से न देखकर व्यापक अर्थों में देखकर निर्णय करने की ज़रूरत है। (स्रोत
फीचर्स)