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Feb 1, 2021

उदंती.com, फरवरी-2021

वर्ष-13, अंक-6

कोई दुःख मनुष्य के साहस से बड़ा नहीं

वही हारा जो लड़ा नहीं।

-कुँवर नारायण


इस अंक में

अनकहीः धरती छूती अम्बर  - डॉ. रत्ना वर्मा

आलेखः शिक्षा- स्कूल खोलें या न खोलें -डॉ. सुशील जोशी

यात्राः उज़्बेकिस्तान : मज़हबी पाबंदियों से मुक्त एक  देश -देवमणि पाण्डेय

पर्यावरणः जलवायु परिवर्तन और कोविड-19 संकट –स्रोत फीचर्स

नवगीतः दिल्ली के उन राजपथों से  -शिवानन्द सिंह सहयोगी

व्यंग्यः पहले आप सुसाइड नोट लिख डालें -धर्मपाल महेंद्र जैन

आलेखः जीवन का आनन्द -जेन्नी शबनम

संस्कृतिः लोक- चित्रांकन की अद्भूत परंपरा गोदना -प्रो. अश्विनी केशरवानी

कहानीतस्वीर का दूसरा रुख  -रोचिका अरुण शर्मा 

लघुकथाएँ-  सुंदरता,  वहाँ है पानी,  चकमा,  मुझसे पूछा था क्या -सीमा व्यास

कविताः इन दिनों कविताएँ लिखती है मुझे -सत्या शर्मा  'कीर्ति '

लघुकथाः महँगी धूप  -रवि प्रभाकर

बाल कविताएँ-  स्वच्छ भारत,  ताऊ जी की बुक स्टाल  -चक्रधर शुक्ल

किताबें- जीवन के अनुभवों की सीख बाँटते ताँका -रमेश कुमार सोनी

दो मुक्तकः -गुंजन अग्रवाल 

जीवन दर्शनः गृहिणी की गरिमा -विजय जोशी

अनकहीः धरती छूती अम्बर

 - डॉ. रत्ना वर्मा

कौन विश्वास करेगा कि घर- घर जाकर झाड़ू- पोंछा का काम करने वाली या मजदूरी करने वाली किसी महिला को पद्मश्री का सम्मान मिल सकता है... लेकिन हमारे देश के गणतंत्र में यह सम्भव है और आपको यह विश्वास करना होगा ; क्योंकि हमारे देश में अच्छे कामों की कद्र होती है। कला कहीं भी कभी भी जन्म ले सकती है , इसके लिए ऊँची शिक्षा, कोई डिग्री या ऊँचा ओहदा जरूरी नहीं है। इसे साबित किया है देश की दो कलाकार महिलाओं ने।  

26 जनवरी गणतंत्र दिवस के अवसर पर प्रति वर्ष विभिन्न क्षेत्रों में उत्कृष्ट कार्य करने वाले विशिष्ट मनीषियों को पद्म पुरस्कार से सम्मानित किया जाता है। अनेक नामी गिरामी लोग पद्मविभूषण, पद्मभूषण और पद्मश्री से विभूषित किए जाते हैं। इन्हीं में से इस वर्ष एक नाम है मिथिला पेंटिंग के क्षेत्र में योगदान के लिए बिहार के मधुबनी ज़िले के रांटी गाँव की 53 वर्षीय दुलारी देवी। विभिन्न प्रकार के लगभग आठ हजार से भी अधिक चित्र बना चुकी मछुआरा जाति में जन्मीं दुलारी देवी का यहाँ तक का सफर आसान नहीं रहा है  वे कभी स्कूल नहीं जा पाईं। बचपन में शादी हो गई, कम उम्र में एक बच्ची की माँ बन गईं, जिसकी कुछ समय पश्चात् मृत्यु हो गई पति के ताने सहते हुए जब बर्दाश्त नहीं हुआ, तो पति से अलग हो गईं और फिर शुरू हु जीवन को चलाए रखने की जद्दोजहद। लाख मुसीबत आईं; पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी माँ के घर की आर्थिक हालत भी अच्छी नहीं थी। अतः दुलारी भी अपनी  माँ के साथ पड़ोस में रहने वाली मिथिला पेंटिंग की मशहूर आर्टिस्ट महासुंदरी देवी और कर्पूरी देवी के घर झाड़ू-पोंछा का काम करने लगीं। उन दोनों को चित्रकारी करते देख दुलारी का कलाकार मन भी कुछ बनाने के लिए मचलने लगा, जिसे पूरा करने के लिए वह अपने  ही घर-आँगन की दीवारों पर मिट्टी से चित्र बनाने लगीं धीरे-धीरे उनके बनाए चित्रों को भी सराहना मिलने लगी। कर्पूरी देवी की संगत और प्रोत्साहन ने उन्हें हिम्मत दी और आगे बढ़ने का रास्ता दिखाया। फिर एक समय ऐसा आया कि मिथिला पेंटिंग के क्षेत्र में उनकी अपनी अलग पहचान बन गई। आज परिणाम आप सबके सामने है- वे देश के सर्वोच्च सम्मान पद्मश्री से विभूषित की गईँ हैं।

इसी तरह मध्यप्रदेश की भीली शैली चित्रकला के लिए चर्चित कलाकार भूरी बाई को भी पद्मश्री दिए जाने की घोषणा हुई है। झाबुआ जिले के पिटोल गाँव में भील समुदाय में जन्मी भूरी बाई का जीवन भी दुलारी देवी की तरह ही संघर्ष से भरा रहा है।  वह भील जनजाति की ऐसी पहली महिला हैं, जिन्होंने काग़ज़ और कैनवास पर चित्र उकेरे हैं। भूरी बाई भोपाल स्थित भारत भवन में कला सीखने नहीं , बल्कि मजदूरी करने आई थीं मजदूरी करते- करते कब वे चित्रकारी करने लग गईं, वे खुद भी नहीं जानती। भारत भवन में आई, तो वे मजदूर बनकर थी; पर वहाँ से निकली तो चित्रकारी का हूनर सीख कर... अस्सी के दशक में मशहूर कलाकार जगदीश स्वामीनाथन जब भोपाल स्थित भारत भवन के निदेशक थे, तब उन्होंने भूरी बाई को चित्रकारी करते देखा, तो उन्होंने उसकी चित्रकला को दिशा प्रदान की और चित्र बनाने के लिए प्रेरित किया था। तभी तो भूरी बाई आज भी स्वामीनाथन जी को याद करते हुए कहती हैं, ‘ऊपर जाने के बाद भी वे मुझे कला बाँट रहे हैं, वे मेरे गुरु तो थे ही, पर मैं उन्हें देव के रूप में मानती हूँ।

कला के क्षेत्र में जमीन से जुड़ी इन दोनों महिलाओं को मिले देश के सर्वोच्च सम्मान का उल्लेख करने का तात्पर्य यहाँ इस बात को रेखांकित करना है कि वास्तव में असली गणतंत्र यही है। अन्यथा आजकल तो पुरस्कार और सम्मान खरीदे जाने लगे हैं, जो सिफारिशों के आधार पर आसानी से प्राप्त हो जाते हैं। लेकिन जब दुलारी देवी और भूरी बाई जैसे नामों की घोषणा होती है, तो हर देशवासी का सर सम्मान से ऊँचा हो जाता है। तब यह कहना ही पड़ता है कि देश का तंत्र अभी मरा नहीं है।

दुलारी देवी और भूरी बाई के सम्मानित होने से मात्र वे उनका प्रदेश और उनकी कला ही सम्मानित नहीं हुई है;  बल्कि वे देश भर में विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाली उन हजारों- हजार महिलाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत भी बनी हैं। जाहिर है इन दोनों को सम्मानित होते हुए देखकर वे सब भी अपने काम के प्रति ज्यादा उत्साह से काम करेंगी तथा उनके मन में यह विश्वास पैदा होगा कि एक दिन उनके काम की भी कद्र होगी। इन दोनों ने देश की उन तमाम महिलाओं को, जो जमीन से जुड़ी हुई चुपचाप अपना काम किए जा रहीं हैं, मुसीबतों से सामना करने की हिम्मत दी है।

यह प्रसन्नता की बात है कि हमारे देश में पिछले कुछ वर्षों से ऐसे व्यक्तियों को सम्मानित करने की परम्परा का शुभारंभ हुआ है,जो न नाम चाहते न शोहरत न पैसा। अतः जरूरी है कि दूर-दराज गाँव में रहते हुए चुपचाप देश के लिए काम करने वाले उन मनीषियों को ढूँढकर लाना होगा। राजनीति की उठापटक के चलते अक्सर अच्छा काम करने वाले को हाशिए पर केल दिया जाता है। जबकि होना तो यह चाहिए कि उन्हें न केवल सम्मानित करें, बल्कि उनके काम को बढ़ावा देने के लिए उनका सहयोग करें, उन्हें आर्थिक रूप से सबल बनाएँ;  ताकि वे अपना काम और अधिक अच्छे से कर पाएँ।

यह भी देखा गया है -सम्मान पाने वाले बहुत से प्रबुद्ध व्यक्ति बाद के वर्षों में गुमनामी के अँधेरे में खो जाते हैं, मेडल और शॉल श्रीफल देकर कई बार सरकार अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेती है। विश्वास है हमारे गणतांत्रिक देश में इस पर भी विचार किया जाएगा और जिन गणों की बदौलत उनका तंत्र टिका है उनकी पूछ-परख की जाएगी। जो ज़मीन से जुड़े हैं , वे इसी तरह आकाश छूते रहेंगे। इससे हमारा गणतंत्र और सशक्त होगा

आलेख-ः शिक्षा- स्कूल खोलें या न खोलें

-डॉ. सुशील जोशी

पिछले 10 माह से देश के स्कूल कमोबेश बंद पड़े हैं। कहने को तो रिमोट शिक्षा की व्यवस्था की गई है ; लेकिन उसकी अपनी समस्याएँ  हैं। वैसे तो केन्द्र  सरकार ने अक्टूबर में आदेश जारी कर दिए थे कि राज्य अपने विवेक के अनुसार स्कूल खोलने का निर्णय ले सकते हैं;  किंतु अधिकतर राज्यों ने स्कूल न खोलने या आंशिक रूप से खोलने का ही निर्णय लिया है। इस संदर्भ में मुख्य सवाल यह है कि स्कूल खोलने या बंद रखने का निर्णय किन आधारों पर लिया जाएगा।

पहले तो यह देखना होगा कि हमारे सामने विकल्प क्या हैं। पहला विकल्प तो यही है कि सब कुछ सामान्य हो जाए और सारे स्कूल पहले की भाँति (जैसे लॉकडाउन से पहले थे) चलने लगें। इसका मतलब यह तो नहीं लगाया जा सकता कि सब कुछ ठीक हो गया; क्योंकि देश में शिक्षा की हालत को लेकर कई अन्य चिंताएँ  तो बनी रहेंगी।

दूसरा विकल्प है- स्कूलों को पूरी तरह बंद रखना और तीसरा विकल्प है- स्कूलों को आंशिक रूप से खोलना यानी कुछ कक्षाएँ  शुरू कर देना या प्रत्येक कक्षा में सीमित संख्या में छात्रों को आने देना। स्कूल बंद रखने का मतलब होगा कि देश के 15 लाख से ज़्यादा स्कूलों में दाखिल 28 करोड़ बच्चे घरों में बंद रहेंगे और संभव हुआ तो ऑनलाइन कुछ सीखने की कोशिश करेंगे ; लेकिन इसके साथ जुड़े कई मसले हैं।

सबसे पहला मुद्दा तो ऑनलाइन शिक्षा तक पहुँच का है। यूनिसे की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में मात्र 23 प्रतिशत घरों में इंटरनेट कनेक्शन हैं, जिनके माध्यम से ऑनलाइन शिक्षा तक पहुँच बनाई जा सकती है। दुनिया भर में देखें तो ऐसे डिजिटल-वंचित बच्चों की संख्या 50 करोड़ के आसपास है। इस मामले में विशाल ग्रामीण-शहरी अंतर भी है। इंटरनेट उपलब्धता में इस अंतर का स्पष्ट परिणाम यह होगा कि सीखने के मामले में खाई और बढ़ेगी। स्मार्ट फोन वगैरह भी काफ़ी कम परिवारों के पास हैं और यदि हैं भी, तो वे पूरे परिवार के इस्तेमाल के लिए हैं। ज़ाहिर है, ग्रामीण बच्चे, लड़कियाँ  और शहरी गरीब बच्चे पिछड़ जाएँगे।

यह सही है कि शासन की ओर से यह प्रयास किया गया है कि इंटरनेट से स्वतंत्र प्लेटफ़ार्म्स (जैसे टेलीविज़न) पर भी शिक्षा का उपक्रम किया जाए ; लेकिन उसकी समस्याएँ  भी कम नहीं हैं। एक तो इस शैली में मानकर चला जाता है कि पर्दे पर किसी जानकार को सुनकर शिक्षा पूरी हो जाती है। इस माध्यम में बच्चों और शिक्षक के बीच किसी वार्तालाप के लिए कोई गुंजाइश नहीं होती। दूसरी बात यह है कि लगभग सारे शिक्षक बताएँगे कि बच्चे कक्षा में लगातार ध्यान केंद्रित नहीं करते/कर पाते। शिक्षक की नज़र रहती है कि किसका ध्यान कब व कहाँ भटक रहा है। टेलीविज़न जैसा माध्यम तो इसमें कोई मदद नहीं कर सकता। यानी यह रिमोट शिक्षा एक ओर तो शिक्षा की गुणवत्ता को बिगाड़ेगी और साथ ही गरीब-अमीर, ग्रामीण-शहरी बच्चों के बीच तथा लड़के-लड़कियों के बीच असमानता को बढ़ाएगी।

यूनिसेफ की उक्त रिपोर्ट में आगाह किया गया है कि रिमोट शिक्षा के माध्यम उपलब्ध होने के बावजूद शायद बच्चे उतने अच्छे से न सीख पाएँ ; क्योंकि घर के परिवेश में कई अन्य दबाव भी काम करते हैं। यदि बच्ची/बच्चा स्कूल चला जाए, तो उतने घंटे तो समझिए, ‘सीखने’ के लिए आरक्षित हो गए ; लेकिन वह घर पर ही है, तो कई अन्य प्राथमिकताएँ  सिर उठाने लगती हैं।

अधिकतर लोग शायद यह तो स्वीकार करेंगे कि बच्चे स्कूल सिर्फ़ ‘पढ़ाई’ करने नहीं जाते। स्कूल हमजोलियों से मेलजोल का एक स्थान भी होता है, जहाँ तमाम तरह के खेलकूद होते हैं, रिश्ते-नाते बनते हैं। स्कूल बंद रहने से बच्चे इन महत्त्वपूर्ण सामाजिक अवसरों से वंचित हो रहे हैं। यह बात कई अध्ययनों में उभरी है कि सतत माता-पिता की निगरानी में रहना और हमउम्र बच्चों के साथ मेलजोल न होना बच्चों के लिए मानसिक दबाव पैदा कर रहा है और मनोवैज्ञानिक समस्याएँ  भी। माता-पिता के लिए जो समस्याएँ  सामने आ रही हैं, वे तो सूद के रूप में हैं। वॉशिंगटन स्थित चिल्ड्रन नेशनल हॉस्पिटल की डॉ. डेनियल डूली ने कहा है कि स्कूल बंद होने की वह से शिक्षा का तो नुकसान हुआ ही है, मानसिक स्वास्थ्य, कुपोषण वगैरह के खतरे भी बढ़े हैं।

एक मुद्दा मध्याह्न भोजन यानी मिडडे मील का भी है। मिडडे मील को दुनिया का सबसे बड़ा पोषण कार्यक्रम कहा गया है। इसके तहत दिन में एक बार कक्षा 1 से 8 तक के सारे स्कूली बच्चों को पौष्टिक भोजन प्राप्त होता है। इनकी संख्या करीब 6 करोड़ होगी। इतने ही बच्चों को आँगनवाड़ी से भोजन दिया जाता है और वे भी बंद हैं। यह उनके पोषण स्तर को बेहतर करने में एक महत्त्वपूर्ण योगदान देता है। हो सकता है, यह योजना बहुत अच्छी तरह से लागू न हुई हो, फिर भी इसने स्कूली बच्चों की सेहत पर सकारात्मक असर डाला है। स्कूल बंद मतलब मिड डे मील भी बंद। भारत में कुपोषण की स्थिति को देखते हुए यह एक बहुत बड़ा व महत्त्वपूर्ण नुकसान है।

कुल मिलाकर स्कूल बंद रहने का मतलब बच्चों के लिए संज्ञानात्मक विकास और तंदुरुस्ती में ज़बरस्त नुकसान। इसके साथ-साथ खेलकूद का अभाव, हमउम्र बच्चों से मेलजोल के अभाव वगैरह का मनोवैज्ञानिक असर तो हो ही रहा है। इसके अलावा, कई संस्थाओं ने आशंका व्यक्त की है कि यदि यह साल इसी तरह गया तो 2021 में बड़ी संख्या में बच्चे शायद स्कूल न लौटें, नए दाखिलों की तो बात ही जाने दें। स्कूलों में दाखिलों को लेकर जो प्रगति पिछले एक-डेढ़ दशकों में हुई है, वह शायद वापिस पुरानी स्थिति में पहुँच जाए। लैंसेट के एक शोध पत्र में यह भी शंका व्यक्त की गई है कि इस तरह स्कूल बंद रहने से बाल-विवाह में भी वृद्धि की संभावना है।

तो स्कूलों को जल्द से जल्द बहाल करने के पक्ष में काफ़ी दलीलें हैं ; लेकिन यदि सरकारें स्कूलों को नहीं खोल रही हैं, तो यकीनन कुछ कारण होंगे। सरकार तो सरकार, माता-पिता भी कह रहे हैं कि स्कूल खुलेंगे, तो भी वे अपने बच्चों को नहीं भेजेंगे। एक सर्वेक्षण में 70 प्रतिशत अभिभावकों ने यह राय व्यक्त की है। वैसे यदि पालकों को कहा जाएगा कि वे बच्चों को स्कूल अपनी ज़िम्मेदारी पर ही भेजें, तो पालकों का कोई अन्य जवाब हो भी नहीं सकता। कई स्कूल प्रबंधन भी ऐसा ही सोचते हैं। और इन सबकी हिचक का प्रमुख (या शायद एकमात्र) कारण है कि स्कूल में भीड़-भाड़ होगी, बच्चों के बीच निकटता होगी, बच्चे मास्क वगैरह भूल जाएँ गे और खुद संक्रमित होंगे, और संक्रमण को घर ले आएँ गे। कहा जा रहा है कि स्कूल संक्रमण प्रसार के अड्डे बन जाएँगे। इसी मूल चिंता के चलते समाज में स्कूल खोलने के विरुद्ध माहौल बना है। तो सवाल है कि यह चिंता कितनी जायज़ है।

पिछले दिनों कई देशों में स्कूल पूर्ण या आंशिक रूप से खोले गए हैं। भारत में भी कुछ राज्यों ने स्कूल खोले हैं। कहना न होगा कि स्कूल खोलने को लेकर केन्द्र सरकार द्वारा प्रोटोकॉल जारी किए गए हैं और शायद शत प्रतिशत नहीं; लेकिन इनका पालन भी हुआ है, तो उनसे किस तरह के आँकड़े व अनुभव मिले हैं।

स्विटज़लैंड स्थित इनसाइट्स फॉर एजूकेशन नामक एक संस्था ने स्कूल खोलने के बाद के अनुभवों का एक अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन किया था। उनके अध्ययन में 191 देशों के अनुभवों का विश्लेषण किया गया है। रिपोर्ट का पहला चौंकाने वाला निष्कर्ष यह है कि कोविड-19 वैश्विक महामारी ने दुनिया भर में बच्चों की शिक्षा के 3 खरब स्कूल दिवसों की हानि की है।

बहरहाल, रिपोर्ट का सबसे महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष यह है कि स्कूलों के खुलने और संक्रमण दर में वृद्धि के बीच कोई सम्बन्ध  नहीं है। इनसाइट्स फॉर एजूकेशन की मुख्य कार्यकारी अधिकारी रैण्डा ग्रोब-ज़कारी का कहना है कि यह तो सही है कि स्कूल खोलने या ना खोलने का निर्णय तो स्थानीय परिस्थितियों पर निर्भर करेगा ; लेकिन कुछ मान्यताओं की छानबीन आवश्यक है। जैसे यह मान लिया गया है स्कूल खुले तो संक्रमण फैलने की दर में उछाल आएगा और स्कूल बंद रखने से संक्रमण फैलने की दर कम रहेगी। देखना यह है कि विभिन्न देशों का अनुभव क्या कहता है। इसे समझने के लिए शोधकर्ताओं ने 191 अलग-अलग देशों में अपनाए गए तरीकों और उनके परिणामों का विश्लेषण किया है।

जिन देशों का अध्ययन किया गया उनमें से कम से कम 92 देशों में स्कूल खोले गए हैं। इनमें से कुछ देश तो ऐसे भी थे ज्हाँ  कोविड-19 काफी अधिक था। रिपोर्ट में बताया गया है कि फ्रांस व स्पैन समेत 52 देशों में बच्चे अगस्त और सितंबर में स्कूल आने लगे थे। ये सभी वे देश हैं जहाँ लॉकडाउन के दौरान संक्रमण दर बढ़ रही थी ; लेकिन स्कूल खुलने के बाद और नहीं बढ़ी थी। दूसरी ओर, यू.के. व हंगरी में स्कूल खुलने के बाद संक्रमण दर बढ़ी थी। 52 देशों का विश्लेषण बताता है कि संक्रमण दर बढ़ने का स्कूल खुलने से कोई सम्बन्ध  नहीं दिखता। इसके लिए अन्य परिस्थितियों पर विचार करना होगा। यूएस में भी स्कूल खुलने और संक्रमण दर में वृद्धि का कोई सीधा सम्बन्ध  स्थापित नहीं हुआ है।

भारत में कुछ राज्यों ने स्कूल खोलने का निर्णय लिया है ; राज्यों में कक्षा 9 तथा उससे ऊपर की कक्षाओं को ही शुरू किया गया है। इस संदर्भ में आंध्र प्रदेश की रिपोर्ट है कि वहाँ स्कूल खुलने के बाद राज्य के कुल 1.89 लाख शिक्षकों में से लगभग 71 हज़ार की जाँच की गई और उनमें से 829 (1.17 प्रतिशत) पॉज़िटिव पाए गए। कुल 96 हज़ार छात्रों की जाँच में 575 (0.6 प्रतिशत) पॉज़िटिव निकले। राज्य के शिक्षा आयुक्त ने माना है कि ये आँकड़े कदापि चिंताजनक नहीं हैं; क्योंकि पहली बात तो यह है कि शिक्षकों की जाँच स्कूल खुलने से पहले की गई थी,  जिसके परिणाम स्कूल खुलने के बाद आए हैं।

मिशिगन विश्वविद्यालय चिकित्सा अध्ययन शाला की संक्रामक रोग विशेषज्ञ डॉ. प्रीति मालनी ने स्कूल खोलने के बारे में कहा है कि अब तक उपलब्ध आँकड़ों से नहीं लगता कि स्कूल सुपरस्प्रेडर स्थान हैं। दरअसल ऐसा लगता है कि स्कूल अपने इलाके के सामान्य रुझान को ही प्रतिबिंबित करते हैं। स्पैन के पोलीटेक्निक विश्वविद्यालय के एनरिक अल्वारेज़ ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि स्पैन में दूसरी लहर में संक्रमणों में वृद्धि स्कूल खुलने से कई सप्ताह पहले शुरू हो गई थी और स्कूल खुलने के तीन सप्ताह बाद गिरने लगी थी। कहीं भी यह नहीं देखा गया कि स्कूल खुलने से संक्रमण के प्रसार में वृद्धि हुई हो। और उनके आँकड़े बताते हैं कि स्कूल संक्रमण फैलाने के हॉट-स्पॉट तो कदापि नहीं बने हैं। अलबत्ता, उन्होंने स्पष्ट किया है कि यह स्पैन की बात है जहाँ जाँच और संपर्कों की खोज काफी व्यवस्थित रूप से की जाती है। इसके अलावा स्पैन में मास्क पहनना, शारीरिक दूरी बनाए रखना तथा साफ-सफाई का भी विशेष ध्यान रखा जा रहा है।

इसी प्रकार से थाईलैंड व दक्षिण अफ्रीका में स्कूल पूरी तरह खोल दिए गए और संक्रमण के फैलाव पर इसका कोई असर नहीं देखा गया। वियतनाम व गाम्बिया में गर्मी की छुट्टियों में मामले बढ़े ; लेकिन स्कूल खुलने के बाद कम हो गए। जापान में भी पहले तो मामले बढ़े ; लेकिन फिर घटने लगे। इस पूरे दौरान स्कूल खुले रहे। सिर्फ यू.के. में ही देखा गया कि स्कूल खुलने के समय के बाद से संक्रमणों में वृद्धि हुई।

अधिकतर  देशों में, और खासकर यू.एस. व यू.के. में वैज्ञानिकों का मत है कि कहीं-कहीं स्कूल खुलने के बाद संक्रमण दर में वृद्धि हुई है ; लेकिन इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि ऐसा स्कूल खुलने के कारण हुआ है। साथ ही वे कहते हैं कि इस बात का भी कोई प्रमाण नहीं है कि इसमें स्कूलों की कोई भूमिका नहीं रही है।

महामारी और स्कूल खोलने के संदर्भ में एक महत्त्वपूर्ण सवाल यह उठता रहा है कि क्या बच्चे कम संक्रमित होते हैं और संक्रमण को कम फैलाते हैं। सामान्य आँकड़ों से पता चला है कि संक्रमित लोगों में बच्चे सबसे कम हैं। इसकी कई व्याख्याएँ  प्रस्तुत की गई हैं और काफी मतभेद भी हैं। कुछ विशेषज्ञों का मत है कि बच्चों की प्रतिरक्षा प्रणाली अप्रशिक्षित होने की वजह से वे सुरक्षित रहते हैं। इसके विपरीत कुछ लोगों का कहना है कि यदि ऐसा होता तो वे अन्य संक्रमणों से भी सुरक्षित रहते ; लेकिन हकीकत अलग है। कुछ लोगों को कहना है कि बच्चों के फेफड़ों की कम कोशिकाओं में वे ग्राही (ACE2 ग्राही) होते हैं जो कोरोनावायरस को कोशिका में प्रवेश का रास्ता प्रदान करते हैं। यह भी कहा गया है कि बच्चे संक्रमण को बहुत अधिक नहीं फैलाते;  क्योंकि उनके फेफड़े छोटे होते हैं और उनकी छींक या खाँसी के साथ निकली बूँदों में वायरस की संख्या कम होती है और ये बूँदें बहुत दूर तक नहीं जातीं।

बहरहाल, मामला यह है कि  अधिकतर  आँकड़े दर्शाते हैं कि स्कूल कोविड-19 वायरस फैलाने के प्रमुख या बड़े स्रोत नहीं हैं। यह भी स्पष्ट है कि स्कूलों के बंद रहने का शैक्षणिक व स्वास्थ्य सम्बन्धी खामियाजा खास तौर से गरीब व वंचित तबके के बच्चों को भुगतना पड़ रहा है। इसलिए इस मुद्दे को मात्र प्रशासनिक सहूलियत के नज़रिए से न देखकर व्यापक अर्थों में देखकर निर्णय करने की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)

यात्रा उज़्बेकिस्तान : मज़हबी पाबंदियों से मुक्त एक इस्लामिक देश


 - देवमणि पाण्डेय

इस्लामिक देशों के बारे हमारे मन में एक अलग ही इमेज़ होती है। मगर सन् 2012 में उज़्बेकिस्तान पहुँचकर पाँच दिन ताशकंद में और एक दिन समरकंद में घूमते हुए जो सामाजिक, सांस्कृतिक और मज़हबी मंज़र नज़र आया, वह हमें हैरत में डाल देने वाला था। उज़्बेकिस्तान एक जनतांत्रिक इस्लामिक देश है। मगर यहाँ का जीवन अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान और सऊदी अरब के इस्लामपरस्त लोगों से बिल्कुल अलग है। हमें यहाँ सड़क, मैदान या किसी मुहल्ले में कहीं भी कोई मस्जिद, मक़तब या मदरसा नज़र नहीं आया। कहीं कोई अज़ान नहीं सुनाई दी। यहाँ तक कि कोई चर्च या मंदिर भी दिखाई नहीं पड़ा। कोई महिला मज़हबी लिबास (बुर्क़ा) नहीं पहनती।

हमारे गाइड रुस्तम ने बताया कि समरकंद में अमीर तिमूर (तैमूर लंग) के मक़बरे के अंदर एक मस्ज़िद है और ताशकंद में हज़रत इमाम के मकबरे के अंदर एक मस्ज़िद है। मगर ये इबादत के बजाय पर्यटन के प्रमुख केन्द्र  हैं। कुछ लोग अपने घरों के अंदर नमाज़ अदा करते हैं मगर उसके लिए कोई वक़्त मुक़र्रर नहीं है। यहाँ मुस्लिम, ईसाई और ईश्वर को न मानने वाले वामपंथियों के बीच ज़ब़ान और मज़हब को लेकर कोई संघर्ष भी नहीं है। उज़्बेकिस्तान की राजधानी ताशकंद की जनसंख्या 30 लाख है। इनमें 90% मुसलमान हैं और 8% क्रिचियन हैं और 2% में बाकी दुनिया शामिल है। सन् 1991 में सोवियत यूनियन से अलग होकर एक आज़ाद देश बनने के बावजूद उज़्बेकिस्तान ने मज़हबी मरकज़ बनाने के बजाय मूलभूत सुविधाओं- शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार के विकास पर ज़ोर दिया। यहाँ बी.ए. तक सभी के लिए शिक्षा मुफ्त़ है।

 आज़ादी का स्मारक इंडिपेंडेंस स्क्वायर

उज़्बेकिस्तान की राजधानी ताशकंद का सबसे प्रमुख स्थल माना जाता है - इंडिपेंडेंस स्क्वायर। पहले इसका नाम था लेनिन स्क्वायर। सन् 1955 में जब यह बना था तो एक ऊँचे स्तम्भ पर लेनिन की आदमकद विशाल प्रतिमा स्थापित की गई थी। सन् 1991 में सोवियत यूनियन से आज़ाद होकर उज़्बेकिस्तान एक जनतांत्रिक इस्लामिक देश बन गया। लेनिन की प्रतिमा ध्वस्त कर दी गई और उसकी जगह एक ग्लोब स्थापित किया गया। इस ग्लोब पर उज़्बेकिस्तान का मानचित्र अंकित किया गया है। ग्लोब के नीचे अपनी गोद में शिशु लिए एक जवान माँ बैठी है। उसके चेहरे पर आत्मीय मुस्कान है। माँ बच्चे से कह रही है- 'बेटा तू बहुत ख़ुशक़िस्मत है जो आज़ाद मुल्क में पैदा हुआ'

इंडिपेंडेंस स्क्वायर के दूसरे कोने पर एक बूढ़ी माँ की उदासी में डूबी हुई प्रतिमा है। यह शोकमग्न माँ अपने उन बेटों का इंतज़ार कर रही है जो कभी नहीं लौटेंगे। द्वितीय विश्वयुद्ध में उज़्बेकिस्तान के छ लाख लोग मारे गए थे। उनकी याद में यहाँ एक अमर ज्योति अनवरत जल रही है। नज़दीक के बरामदे में ताम्रपत्रों पर इन शहीदों के नाम अंकित हैं। नाम के साथ उनके जन्म और मृत्यु का साल भी दर्ज किया गया है।

चौदह हज़ार शहीदों का स्मारक शहीद पार्क

ताशकन्द शहर के मध्य में टीवी टावर के पास हरियाली और फूलों से समृद्ध एक पार्क में शहीदों का भव्य स्मारक आकर्षण का प्रमुख केन्द्र  है। यह किसी युद्ध में शहीद हुए सैनिकों का स्मारक नहीं है। हमारे गाइड ने बताया कि यह उन 14000 बुद्धिजीवियों, विचारकों, लेखकों और कलाकारों की यादों का मरक़ज़ है, जिन्हें किसी समय उज़्बेकिस्तान को सोवियत रिपब्लिक का हिस्सा बनाने के लिए एक साथ,

एक जगह इकट्ठा करके क़त्ल करने के बाद यहीं दफ़ना दिया गया था। उस वक़्त यह एक निर्जन स्थान था। आज़ाद देश बनने पर इसे शहीद पार्क बनाया गया। पास से गुज़रती एक नदी की धारा को मोड़ कर इसके बीचों-बीच से गुज़ारा गया । पक्के किनारों वाली इस नदी, हरियाली और फूलों ने शहीद पार्क को बेहद ख़ूबसूरत बना दिया है। आज यह पार्क कला और साहित्य का पावन तीर्थ बना हुआ है और दूर-दूर से लोग शहीदों की स्मृति को सलाम करने के लिए आते हैं।

ताशकन्द समरकन्द और बुखारा

उज़्बेकिस्तान एक छोटा-सा, हरा-भरा और बहुत प्यारा देश है। यहाँ के तीन प्रमुख शहर- ताशकन्द, समरकन्द और बुखारा मशहूर हैं। ताश माने पत्थर और कंद माने शहर। ताशकन्द यानी पत्थरों का शहर। इसके चारों तरफ़ छोटे-छोटे पहाड़ हैं। वास्तुकला के नायाब नमूने हैं। यहाँ गगनचुम्बी इमारतें नहीं हैं ; क्यों कि यहाँ कभी-कभी तेज़ भूकम्प आते हैं। ताशकंद से चारवाक लेक जाते हुए रास्ते में एक  छोटा-सा क़स्बा नज़र आता है ग़ज़लकन्द। ग़ज़लकन्द यानी ग़ज़लों का शहर। यहाँ के लोग कहते हैं कि ग़ज़ल यहीं पैदा हुई और बाद में मक़बूल होकर पूरी दुनिया पर छा गई।

समर कहते हैं फल को। फलों ने समरकन्द को इतनी दौलत दी है कि इसे अमीर लोगों का शहर कहा जाता है। जगह-जगह अंगूर, सेब, चेरी, खुबानी, खरबूज़ और तरबूज़ दिखाई पड़ते हैं। यहाँ तक कि इस शहर की गलियों में भी लोहे के पाइप पर अंगूर की बेलें झूलती रहती हैं और राहगीरों को धूप से बचाती हैं। ड्राई फ्रूट का विशाल मार्केट भी यहीं है। सन् 1398

में जब अमीर तिमूर (तैमूर लंग) दिल्ली आया था तो वह समरकंद का बादशाह था। यहाँ तैमूर लंग का बनवाया हुआ एक शानदार मक़बरा है। इसके गुम्बद की नक़्क़ाशी में सोने का भरपूर उपयोग किया गया है। कहा जाता है कि उसने यह मक़बरा अपने बेटे के लिए बनवाया था। एक दुर्घटना में अपनी जान गँवाने पर ख़ुद तैमूर लंग को इसी में दफ़न होना पड़ा। चंगेज़ ख़ाँ, नादिर शाह और बाबर का भी समरक़ंद और बुखारा से ऐतिहासिक रिश्ता रहा है। वैसे बुखारा को सूफ़ियों का शहर माना जाता है। हमें बताया गया कि यह निज़ामुद्दीन औलिया की मुहब्बत तथा मुइनुद्दीन चिश्ती की इबादत का शहर है।


परदे से मुक्त महिलाओं का समाज

ताशकंद के प्रमुख बाज़ारों, चिमगान हिल, चारवाक लेन और समरकंद के विशाल ड्राई फ्रूट मार्केट में घूमते हुए हमने देखा कि यहाँ की महिलाएं परदा नहीं करतीं। बाज़ार में, रेस्तराँ में, शापिंग माल में वे मर्दों से अधिक संख्या में चुस्ती-फुर्ती से काम करती हुई नज़र आती हैं। वे देर रात तक आज़ादी से घूमती- फिरती हैं। हमारे गाइड ने बताया कि यहाँ लड़कों की तुलना में लड़कियों की संख्या दो गुनी है। काफ़ी महिलाएं ऊपरी दाँतों में सोना मढ़वाती हैं। वे जब हँसती या बोलती हैं, तो यह स्वर्णिम दंतपंक्ति बड़ी सुंदर लगती है। यहाँ की अधिकतर लड़कियाँ हाई हील पहनती हैं। होटल और रेस्तराँ में हाई हील पहनकर लड़कियाँ  बैली डांस करती हैं। जब वे बिजली की गति से नाचती हैं तो हाई हील पर उनका बैलेंस देखने लायक होता है।

आर्थिक आत्मनिर्भरता

उज़्बेकिस्तान में खेती-बाड़ी ज़बरदस्त है। गेहूँ, सब्ज़ियां, फल बहुतायत से पैदा होते हैं। कपास निर्यात करने में उज़्बेकिस्तान दुनिया में तीसरे नम्बर पर है। तेल और गैस भी भरपूर है। भारतीय मुद्रा में पेट्रोल 25 रुपये लीटर है। सात रुपये का टिकट लेकर मेट्रो ट्रेन या लो फ्लोर वातानुकूलित बस में पूरे दिन कहीं भी आ-जा सकते हैं। यहाँ मोटर सायकिल, बाइक या स्कूटर नहीं हैं। महज कारें, बसें और टैक्सियाँ ही नज़र आती हैं। इक्का-दुक्का अपवाद छोड़ दें तो अधिकतर कारें और टैक्सियाँ सफ़ेद रंग की ही हैं। यहाँ के लोगों में ख़ुद इतना अनुशासन है कि छ दिन में हमें कहीं हार्न की आवाज़ नहीं सुनाई पड़ी। हमारी बस के ड्राइवरों ने भी कभी हार्न नहीं बजाया।

अपराध मुक्त देश उज़्बेकिस्तान

उज़्बेकिस्तान एक अपराध मुक्त देश है। हमको यहाँ कहीं भी पुलिस के दर्शन नहीं हुए। गीतकार डॉ बुद्धिनाथ मिश्र के साथ सुबह 6 बजे मार्निंग वाक करते हुए हम संसद भवन के गेट पर चले गए। संसद भवन पर भी पुलिस का पहरा नहीं है। गाइड ने बताया कि यहाँ अपराध ज़ीरो है। न चोरी, न डकैती, न मारपीट, न भ्रष्टाचार। आम जनता को अंग्रेजी बिल्कुल नहीं आती। बस चंद लोगों को काम चलाऊ अंग्रेज़ी ही आती है। किसी दुकानदार से कुछ ख़रीदिए और अंग्रेज़ी में दाम पूछिए तो वह कुछ बोलता नहीं, झट से कलकुलेटर या मोबाइल स्क्रीन पर टाइप करके दाम दिखा देता है। कहीं अंग्रेज़ी का अख़बार भी नज़र नहीं आता। यहाँ तक कि हमारे चार सितारा होटल पार्क ट्यूरान की लॉबी में भी कोई अख़बार नहीं दिखाई पड़ा- चैन हो जाए अगर मुल्क में अख़बार न हो। उज़्बेकी ज़बान में कुछ अख़बार निकलते ज़रूर हैं मगर प्रसार बहुत कम है।

ताशकंद में सुख सुविधा और शांति

उज़्बेकिस्तान की राजधानी ताशकंद में हर तरफ़ हरियाली है, रंग-बिरंगे फूल हैं। न तो कोई घास पर बैठता है और न ही कोई घास पर चलता है । कोई फूल भी नहीं तोड़ता। ऐसे अलिखित नियमों का पालन हर इंसान करता है क्यों कि वे स्व-अनुशासित हैं। यूएस डॉलर की तुलना में स्थानीय मुद्रा सोम की क़ीमत बहुत कम है। सौ डॉलर में अढ़ाई लाख सोम मिलते हैं। चाय एक हज़ार, कॉफ़ी  दो हज़ार और टैक्सी का न्यूनतम किराया तीन हज़ार सोम है। ताशकंद में कई भारतीय होटल-रेस्तराँ हैं जहाँ भारतीय वेज़ और नानवेज़ भोजन मिल जाता है। पिछले 21 साल से राष्ट्रपति इस्लाम करीमोव अपने पद पर बने हुए हैं। पाँच राजनीतिक पार्टियाँ हैं मगर राजनीतिक उठापटक नहीं है। इस लिए यहाँ सुख, सुविधा और शांति है।

हमारे देश भारत के लिए उज़्बेकिस्तान के लोगों में बहुत प्यार है। शास्त्री स्ट्रीट में हमारे स्व. प्रधान मंत्री लालबहादुर शास्त्री की प्रतिमा को उन्होंने बहुत आदर से साफ़-सुथरा और सँभालकर रखा है। बच्चों से लेकर लड़कियाँ, मर्द और औरतें जब हमें देखते हैं तो बड़े प्यार से सिर झुकाकर या अदब से हाथ जोड़कर कहते हैं- नमस्ते। वे नमस्ते इतनी विनम्रता और म्यूज़िकल ढंग से बोलते हैं कि तबियत ख़ुश हो जाती है।

(सृजन सम्मान (छत्तीसगढ़) की ओर से पाँचवा अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन, ताशकंद, उज्बेकिस्तान में आयोजित किया गया था। उन्हीं के सौजन्य से 24 से 30 जून 2012 तक उज़्बेकिस्तान की यह साहित्यिक यात्रा सम्पन्न हुई थी। इसमें देश-विदेश से 135 हिन्दी रचनाकारों को आंत्रित किया गया था।)

सम्पर्क : बी-103, दिव्य स्तुति, कन्यापाड़ा,गोकुलधाम, फ़िलमसिटी रोड,गोरेगांव पूर्व, मुम्बई - 400 063,

फोन : 98210-82126, devmanipandey.blogspot.com

पर्यावरणः जलवायु परिवर्तन और कोविड-19 संकट


क साल पहले तक बढ़ते पर्यावरण संकट को लेकर लोगों में काफी चिंता थी; ज़रूरी कदम उठाने सम्बंधी युवा आंदोलन काफी ज़ोर-शोर से हो रहे थे। लेकिन कोविड-19 ने जलवायु संकट पर उठाए जा रहे कदमों और जागरूकता से लोगों का ध्यान हटा दिया। हकीकत में कोविड-19 और पर्यावरणीय संकट में कुछ समानताएँ हैं। दोनों ही संकट मानव गतिविधि के चलते उत्पन्न हुए हैं, और दोनों का आना अनपेक्षित नहीं था। इन दोनों ही संकटों को दूर करने या उनका सामना करने में देरी से कदम उठाए गए, अपर्याप्त कदम या गलत कदम उठाए गए, जिसके कारण जीवन की अनावश्यक हानि हुई। अभी भी हमारे पास मौका है कि हम सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा को बेहतर करें, एक टिकाऊ आर्थिक भविष्य बनाएँ और पृथ्वी पर बचे-खुचे प्राकृतिक संसाधनों और जैव विविधता की रक्षा करें।

यह तो जानी-मानी बात है कि स्वास्थ्य और जलवायु परिवर्तन एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। पिछले पाँच वर्षों से स्वास्थ्य और जलवायु परिवर्तन के लैंसेट काउंटडाउन ने जलवायु परिवर्तन के कारण स्वास्थ्य पर होने वाले प्रभावों को मापने वाले 40 से अधिक संकेतकों का विवरण दिया है और उन पर नज़र रखी हुई है। साल 2020 में प्रकाशित लैंसेट की रिपोर्ट में बढ़ती गर्मी से सम्बंधित मृत्यु दर, प्रवास और लोगों का विस्थापन, शहरी हरित क्षेत्र में कमी, कम कार्बन आहार (यानी जिस भोजन के सेवन से पर्यावरण को कम से कम नुकसान हो) और अत्यधिक तापमान के कारण श्रम क्षमता के नुकसान की आर्थिक लागत जैसे नए संकेतक भी शामिल किए गए। जितने अधिक संकेतक होंगे जलवायु परिवर्तन के स्वास्थ्य और स्वास्थ्य तंत्र पर पड़ने वाले प्रभावों को समझने में उतने ही मददगार होंगे। जैसे वायु प्रदूषण के कारण होने वाला दमा, वैश्विक खाद्य सुरक्षा की चुनौतियाँ और कृषि पैदावार में कमी के कारण अल्प आहार, हरित क्षेत्र में कमी से बढ़ती मानसिक स्वास्थ्य सम्बंधी तकलीफों का जोखिम और 65 वर्ष से अधिक आयु के लोगों में अधिक गर्मी का असर, जैसी समस्याओं को ठीक करने का सामर्थ्य स्वास्थ्य प्रणालियों की क्षमता पर निर्भर करता है, और यह क्षमता स्वास्थ्य सेवाओं के लचीलेपन पर निर्भर करती है। इन दो संकटों के कारण हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था पहले ही काफी दबाव में है।

लैंसेट काउंटडाउन में राष्ट्र-स्तरीय नीतियाँ दर्शाने वाले क्षेत्रीय डैटा को भी शामिल किया है। इस संदर्भ में लैंसेट काउंटडाउन की दी लैंसेट पब्लिक हेल्थ में एशिया की पहली क्षेत्रीय रिपोर्ट प्रकाशित हुई है, और ऑस्ट्रेलियाई एमजेए-लैंसेट काउंटडाउन की तीसरी वार्षिक रिपोर्ट प्रकाशित हुई है। विश्व में सर्वाधिक कार्बन उत्सर्जक और सर्वाधिक आबादी वाले देश के रूप में चीन की जलवायु परिवर्तन पर प्रतिक्रिया, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय, दोनों स्तरों पर बहुत मायने रखती है। रिपोर्ट बताती है कि बढ़ते तापमान के कारण बढ़ते स्वास्थ्य जोखिमों से निपटने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कदम उठाए जाने की ज़रूरत है। हालांकि 23 संकेतक बताते हैं कि कई क्षेत्रों में प्रभावशाली सुधार किए गए हैं, और जलवायु परिवर्तन से निपटने के प्रयास कर सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार करने की पहल भी देखी गई है। लेकिन इस पर चीन की प्रतिक्रिया अभी भी ढीली है।

जलवायु परिवर्तन को बढ़ाने वाले कारकों पर अंकुश लगाकर ज़ूनोटिक (जंतु-जनित) रोगों के उभरने और दोबारा उभरने को रोका जा सकता है। अधिकाधिक खेती, जानवरों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और वन्य जीवों के प्राकृतिक आवासों में बढ़ता मानव दखल ज़ूनोटिक रोगों से मानव संपर्क और उनके फैलने की संभावना को बढ़ाते हैं। विदेशी यात्राओं में वृद्धि और शहरों में बढ़ती आबादी के कारण ज़ूनोटिक रोग अधिक तेज़ी से फैलते हैं। जलवायु परिवर्तन के पर्यावरणीय स्वास्थ्य निर्धारकों के रूप में इन कारकों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

कोविड-19 और जलवायु संकट, दोनों इस तथ्य को और भी नुमाया करते हैं कि समाज के सबसे अधिक गरीब और हाशियाकृत लोग, जैसे प्रवासी और शरणार्थी लोग, हमेशा ही सर्वाधिक असुरक्षित होते हैं और इसके प्रभावों की सबसे अधिक मार झेलते हैं। जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में देखें तो इस संकट से सर्वाधिक प्रभावित लोगों का योगदान इस संकट को बनाने में सबसे कम है। इस वर्ष की काउंटडाउन रिपोर्ट के अनुसार कोई भी देश इस बढ़ती असमानता के कारण होने वाली जीवन की क्षति को बचाने के लिए प्रतिबद्ध दिखाई नहीं पड़ता।

कोविड-19 के प्रभावों से निपटना अब राष्ट्रों की वरीयता बन गया है और जलवायु संकट के मुद्दों से उनका ध्यान हट गया है। जिस तत्परता से राष्ट्रीय सरकारें कोविड-19 से हुई क्षति के लिए आर्थिक सुधार की योजनाएँ बना रहीं हैं और उन पर अमल कर रही हैं, उतनी ही तत्परता से जलवायु परिवर्तन और सामाजिक समानता के मुद्दों पर काम करने की ज़रूरत है। अब इन दोनों तरह के संकटों से एक साथ निपटना लाज़मी और अनिवार्य है। (स्रोत फीचर्स)

नवगीतः दिल्ली के उन राजपथों से


 -शिवानन्द सिंह सहयोगी’, मेरठ

शहरों में हैं,

पर शहरों की चकाचौंध से,

अभी अछूते हैं |

 

जिसका है घरबार न उसका

आसमान घर है,

मौसम की इस शीत लहर का

असमंजस, डर है,

मजदूरी के,

कई अभावों की छानी के

दर्द अकूते हैं |

 

दिल्ली के उन राजपथों से

मिलती पगडण्डी,

खपरैलों से छाई छत की

फटेहाल बंडी,

देखा भी है,

कई प्रेमचंदों के पग में,

फटहे जूते हैं |

 

गरमाहट के लिए न आते

किरणों के हीटर,

बिन बिजली उपभोग दौड़ते,

बिजली के मीटर,

घासफूस की,

झोंपड़ियों के छेद बूँद का

आँचल छूते हैं |

 

धुँधलेपन की इस बस्ती की

देह पियासी है.

रामराज्य के व्याकरणों की 

भूख उदासी है,

नई नीतियाँ

सब विकास की, कहाँ रुकी हैं?

किसके बूते हैं?