फुहारें पड़ रही हैं। हम सुस्ती से उठकर चाय पी ही रहे थे। अचानक ख़याल आया कि क्यों न इस मौसम का आनन्द लेने हम लौंग ड्राइव पर चलें। लाल रंग की मारुति 800 से निकल पड़े हम बिना पूर्व कार्यक्रम की रूपरेखा बनाए। कहाँ जाना है नहीं मालूम, पर बतकही करते हुए चले जा रहे हैं। हल्की भूख लगी तो झालमुढ़ी खरीद कर कागज़ के ठोंगे से ही निकाल-निकाल कर खा लिया। प्यास लगी तो सड़क किनारे किसी चापाकल पर अँजुरी से ठंडा-ठंडा पानी पी लिया। चाय की तलब लगी तो किसी चाय की टपरी पर कुल्हड़ में सुड़क-सुड़ककर इलायची वाली चाय पी ली। स्टीरिओ पर कोई मधुर गीत बज रहा है और साथ में हम गुनगुना रहे हैं, कभी कोई मज़ाक या कोई मजेदार चुटकुला। जोर की भूख लगी तो किसी सस्ते से ढाबे पर रोटी तरकारी दही खा लिया। कोई फ़िक्र नहीं कि लोग क्या सोचेंगे; जो मन को भाया वो कर रहे हैं। क्या मस्त दिन और ज़िन्दगी का मज़ा! कितना सुन्दर और सुखद है न! और इसपर बारिश तेज़ हो जाए। अहा! सोने में सुगन्ध!
अब भी याद है बचपन की वो झमाझम बारिश। खूब जी भर कर बारिश में नहाना और पेड़ पौधों को दुलराना। घर के सभी बर्तनों में बारिश का पानी भरकर रखना। छत को खूब रगड़-रगड़ कर धोना। छत की नाली को बंद कर एक छोटा तरणताल का रूप देकर उसमें छप-छप कूदना और कागज़ की नाव बना कर उसे तैराना। अँजुरी से पानी उलीच-उलीचकर घर के सभी लोगों को भिगो देना। घंटो कैसे निकल जाते, पता ही नहीं चलता था। सड़क पर लोगों को बारिश से बचने के लिए क्या-क्या जतन करते हुए देखना भी मन को बहुत भाता था। रिक्शा वाला खुद भीगकर सवारी को प्लास्टिक में छुपाए हुए है; लेकिन बारिश है कि अपने बौछारों से प्लास्टिक को उड़ा दे रही है। साइकिल सवार तेजी से भाग रहा है और बगल से गुजरने वाली गाड़ी के छींटे से कीचड़ में सन गया है। छोटे-छोटे बच्चे बारिश में उछल-कूद कर रहे हैं और उनकी माताएँ गुस्सा हो रही हैं कि ज्यादा भीगने से बीमार होंगे बच्चे। चिड़िया बारिश से छुपने के लिए ओसारे में छुप गई है और चीं-चीं कर अपने साथियों को छिपने के लिए बुला रही है। सब कुछ बहुत सुहावना होता था।
ऐसा दिन भी होता था कभी, जब हम बेफिक्र होते थे। न कोई डर न किसी से रंजिश। जीवन बस जीवन। चहकना, महकना और खिलखिलाना। धीरे-धीरे समय को तेजी का रोग लग गया। अब वह ठहरता ही नहीं। न अपने लिए न किसी अपनों के लिए। समय के पीछे हम सभी बेतहाशा भाग रहे हैं। यह सब बेसबब नहीं; लेकिन वक्त की कसौटी ने ऐसे ही परखने का मन बना लिया है। हम भाग रहे हैं बस भाग रहे हैं। न समय ठहरता है न मन न मानव। ठहर गए तो हार गए। भले इसके लिए सुकून को तिलांजलि दे दी गई। बस एक ही धुन कि सबसे आगे हम। आख़िर कब तक! जब समझ आए कि जीवन भर हम भागते रहे खुद को खर्च करते रहे और हाथ आया तो बस मलाल। काश! थोड़ा थमकर थोड़ा जीकर जीवन का लुत्फ़ उठाते।अक्सर सोचती हूँ कितना छोटा और सीमित होता है जीवन। सभी को काल कवलित होना ही है। फिर क्यों है इतना त्राहिमाम्। जन्म के बाद से ही खुद को साबित करने के लिए भेड़चाल में घुसना पड़ता है। कैसे सबसे आगे आया जाए। कितनी सुख सुविधा जुटाई जाए। राह चलें तो दस लोग बोले कि देखो वह कोई ख़ास जा रहा है। अमीरी दिखाने के लिए बड़ी और महँगी गाड़ियाँ, विशाल कोठी, ब्रांडेड कंपनी के वस्त्र, जबरदस्ती का रुआब। विशिष्ठ वर्ग का दिखने और उस जीवन-स्तर को बनाये रखने में आदमी सामान्य जीवन जी नहीं पाता है। धीरे-धीरे मनुष्य इतना दम्भी होता जा रहा है कि जीवन की छोटी-छोटी खुशियों का आनन्द नहीं ले पाता है। आदमी ने खुशी और आनन्द को को तवज्जो न देकर शोहरत दौलत को दिया। खूब कमाया और शान से लुटाया। पर अंत समय में सब कुछ हाथ से फिसल जाता है। परहेज़ी खाना, नियमित रूटीन, दवा, डॉक्टर और घरवालों पर बोझ। जिनके लिए जीवन भर कमाया और जीवन गँवाया वे भी अब दूर भागते हैं। यही जीवन का वर्तमान परिदृश्य और यही जीवन का सत्य!
आज चारों तरफ कोहराम मचा है। आपाधापी के
इस माहौल में हर आदमी दूसरे को गिरा कर खुद ऊपर उठना चाहता है। ईर्ष्या-द्वेष ने
हर आदमी के मन में घर बसा लिया है। सभी एक दूसरे को संदेह से देखते हैं।
ज़रा-ज़रा-सी बात पर आपा खो देते हैं। दूसरों के विचारों को सम्मान देना तो अब ऐसा
लगता है जैसे यह हमारी परम्परा का हिस्सा ही नहीं रह गया है। स्त्री और बच्चे बहुत
ज्यादा असुरक्षित हो चुके हैं। आज हर लोग डरे हुए हैं कि कब हमारे साथ क्या हो
जाए। छोटी-छोटी बातों को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लेते हैं। ऐसी-ऐसी हिंसक घटनाएँ
हो रही हैं कि मन विचलित हो जाता है,
रोंगटे खड़े हो जाते हैं। हम सभी खुद को बेबस महसूस
करते हैं। कैसे इन सबसे निजात पाया जाए?
जहाँ तक मैं सोचती हूँ कि मनुष्य की
मनोवृत्ति को सुधारा जाएगा तभी उसकी प्रवृत्ति सुधरेगी और समाज में समुचित बदलाव
हो सकता है। इस बदलाव की शुरुआत निःसंदेह घर और स्कूल से ही संभव है। हालाँकि इस
दिशा में स्वयं सेवी संस्थाएँ एवं समाज सुधारक प्रयासरत हैं। फिर भी हम असफल हो
रहे हैं और समाज में नफ़रत का वातवरण बढ़ता जा रहा है। हर माता पिता और स्कूल अपने
बच्चों को प्रेम व सम्मान देने का बीजारोपण बचपन से करे, तो मुमकिन है कि बदलाव
को एक नई दिशा मिलेगी। हर माता पिता निःसंकोच मनोविश्लेषक से मिलकर बच्चे की
मनोवृत्ति का पता करें और उनके निर्देशों का पालन करें। हर सरकारी अस्पतालों में
मनोविश्लेषण का विभाग होना चाहिए और बच्चों को जैसे टीकाकरण अनिवार्य होता है, वैसे ही यह भी अनिवार्य
होना चाहिए।
3 comments:
खुशियाँ इसलिए सहेजना चाहिए कि इसे बाँटकर बढ़ाया जा सके। अच्छा लेख-बधाई।
बहुत अच्छा लगा
समय के साथ-साथ जीवन शैली में भी परिवर्तन आ रहा है। कृत्रिमता बढ रही है । जब प्रकृति से होकर सरल जीवन जीना ही छोड़ दिया है तो आनन्द कहाँ से आएगा। बढ़िया आलेख। बधाई
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