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Dec 6, 2020

उदंती.com, दिसम्बर-2020

चित्र- सुधा भार्गव
वर्ष- 13, अंक- 4

अगर आप आपदाओं के बारे में सोचेंगे, तो वह आ ही जाएगी, अगर आप मृत्यु के बारे में गंभीरता से सोचते हैं, तो आप अपनी मौत की ओर बढ़ने लगते हैं, जब आप सकारात्मक और स्वेच्छा से सोचेंगे, तब  विश्वास और निष्ठा के साथ आपका जीवन सुरक्षित हो जाएगा।    

-स्वामी विवेकानंद 


 अनकहीः जाते हुए साल में... - डॉ. रत्ना वर्मा

आलेखः घृणा का स्थान - प्रेमचंद

स्मरणः साहित्य  के मूक साधक- पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी - विनोद साव

आलेखः छत्तीसगढ़ और उड़ीसा की साझी संस्कृति - प्रो. अश्विनी केशरवानी

जयंतीः डॉ. राजेन्द्र प्रसाद - शुचिता का सफ़रनामा - विजय जोशी 

किताबेंः जाबाज़ वीरों की सत्य कहानियाँ - स्वराज सिंह

कहानीः  पूरा चाँद अधूरी बातें -भावना सक्सैना

ग़ज़लः अधूरा रह गया - रमेशराज

लघुकथा ः 1- प्रहरी, 2मतदान से पहले - श्याम सुन्दर अग्रवाल

नवगीतः जागो! गाँव बहुत पिछड़े हैं  - शिवानन्द सिंह सहयोगी

क्षणिकाएँः  वक्त की रेत पर, छोड़ने  हैं निशाँ...! - प्रीति अग्रवाल

लघुकथाः अंतिम अहसास -पूनम सिंह

कविताः आखिरी पन्ना -रमेश कुमार सोनी 

क्षणिकाएँः  स्मृतियाँ रश्मि शर्मा

व्यंग्यः दया के पात्र -विनय कुमार पाठक

कविताः हाँ मैं नारी हूँ! -डॉ. सुरंगमा  यादव 

पर्यावरणः  हरित पटाखेपर्यावरण और स्वास्थ्य - सुदर्शन सोलंकी

कोविड-19ः   इस महामारी का अंत कैसे होगा?

प्रेरकः ज़िंदगी की शाम -निशांत


आवरण- सुधा भार्गव की पेंटिंग -  विभिन्न विधाओं पर लेखन-  कहानी, लोककथा, लघुकथा, बालसाहित्य, निबंध,  संस्मरण तथा कविताएँ। २१ वर्षों तक बिरला हाई स्कूल कलकत्ता में शिक्षण कार्य। किताबें सभी विधाओं में प्रकाशित। समय- समय पर संकलनों व अन्तर्जाल पत्रिका में  रचनाएँ प्रकाशित। कोरोना के बाद  kindle ebook पब्लिशिंग से जुड़ीं । बालसाहित्य से सम्बंधित उनकी 6 किताबों को kindle. amajon पर देखा जा सकता है। अपनी चित्रकला के बारे में सुधा जी कहती हैं - क्लांति से छुटकारा पाने के लिए उँगलियों ने तूलिका पकड़ी और रंगों में खो गई।  उपर्युक्त पेंटिंग भी कोरोना काल की उपज है। जिसका शीर्षक दिया है -सतरंगी सपने। इसको बनाने के बाद मुझे वैसा ही सुकून मिला जैसे प्यासे को पानी पीने के बाद।

अनकही- जाते हुए साल में...

- डॉ. रत्ना वर्मा

2020 के जाते हुए इस साल ने हमें बहुत कुछ सिखाया है। इस कठिन समय में अपने परिवार का साथ कितना जरूरी है, यह तो सबने जान ही लिया है; पर जो सबसे बड़ी बात हमने इस दौर में सीखी है, वह है हिम्मत के साथ इस मुसीबत का सामना करना, खुश रहना, खुशियाँ बाँटना, दूसरों के दुःख में शामिल होना और उन्हें दूर करने का प्रयास करना, तथा हर हाल में सकारात्मक बने रहना। यही मानव का स्वभाव भी है।

उपर्युक्त संदर्भ में एक बात याद आ रही है - चार साल पहले जब हमने अपने नए घर में प्रवेश किया, तो घर के सामने वाले बगीचे में गुलाबी फूलों वाले कचनार के दो पेड़ लगे थे, जबकि बिल्डर ने वहाँ चार कचनार के पेड़ लगाए थे, दरअसल जिसने हमारे सामने वाला घर लिया था, उन्होंने अपने घर के सामने लगे दो कचनार के पेड़ कटवा दिए थे कारण पूछने पर पता चला कि वास्तु के नरिए से वे अपने घर के सामने कोई बड़ा पेड़ नहीं चाहते थे। पेड़ किसी को नुकसान पहुँचा सकते हैं, यह बात हमें कुछ अजीब-सी लगी थी... पर अपना- अपना विश्वास या कहें अंधविश्वास। यह भी सच है कि नया घर बनवाने के पहले वास्तु का ध्यान सभी रखते है, क्योंकि हर इंसान चाहता है कि जिस घर में वे जिंदगी गुजारने वाले हैं, वह घर हर तरफ से सकारात्मक ऊर्जा से भरा हो, परिवार में सुख- समृद्धि हो, सब स्वस्थ और प्रसन्न रहें। इसके लिए सब अलग- अलग तरीके से उपाय करते हैं। बड़े- बुज़ुर्ग अपने अनुभव से कहते भी हैं कि घर ऐसा होना चाहिए, जहाँ र्याप्त प्राकृतिक रोशनी पहुँचे, शुद्ध हवा आए, घर के आस-पास गंदगी न हो, हरे- भरे पेड़- पौधे हों, तुलसी का पौधा हो आदि आदि... अक्सर यह भी कहते सुना गया है कि आपके घर का मुख्य दरवाज़ा बाहर तरफ खुलने वाला नहीं होना चाहिए। ऐसा होने पर वह घर की ऊर्जा को बाहर की ओर ढकेल देता है। दरवाज़ा बाहर खुलने से ऊर्जा बाहर कैसे जाएगी यह तो नहीं पता पर यह अवश्य सत्य है कि यदि आप अपने घर के आस-पास सकारात्मक ऊर्जा बिखरने वाला वातावरण बनाए रखेंगे तथा आपका परिवार और आपके आस- पास रहने वाले लोग खुशमिजाज होंगे तो दरवाजा अंदर खुले या बाहर सकारात्मक ऊर्जा कहीं नहीं जाने वालीवह आपके भीतर ही रहेगी।

कहने का तात्पर्य यह है कि जब से कोरोना जैसी महामारी ने हमारे जीवन में प्रवेश किया है, तब से पॉजिटिव- निगेटिव जैसे कुछ शब्द भी हमारी जिंदगी का हिस्सा बन गए हैं। मास्क लगाना, हाथ धोना और एक निश्चित दूरी बनाकर रहना जैसी कुछ बातों को हम सबने अपना लिया है, लेकिन यह भी सत्य है कि इस परिस्थिति में बहुत लोगों के भीतर अवसाद और निराशा की भावना भी घर करते जा रही है। स्कूल कॉलेज बंद हैं, तो बच्चे घर में रहकर और ऑनलाइन पढ़ाई करके ऊब चुके हैं। घर पर रहकर काम करने का अपना अलग की आनंद भले ही हो क्योंकि आपको दिनभर परिवार के बीच रहने का सुख मिलता है, माँ या पत्नी के हाथ का गरम खाना मिलता है तथा सुबह सुबह ऑफिस जाने की हड़बड़ी से भी मुक्ति मिल गई है... पर काम के बाद फिर घर में ही बैठे रहना एक सज़ा जैसी लगने लग गई है...  गृहणियों को भी ऑनलाइन शॉपिंग या फोन करके घर पर ही राशन और सब्जियाँ आदि मँगाने की आदत भले ही हो गई है, पर घर में रहते-रहते वे भी ऊब गईं हैं। छुट्टियों में घुमने जाना, पिकनिक करना, होटलिंग करना, सिनेमा हॉल में बैठकर पिक्चर देखना... जैसे बहुत सारे शौक से सब वंचित हो गए हैं।

कुल मिलाकर इस दिनचर्या से अलग कुछ तो हर किसी को चाहिए। व्यक्ति दो माह, चा माह या एक साल एक बँधी- बँधाई जिंदगी में अपने आपको बाँध ले, उसके बाद तो थोड़ी निराशा और अवसाद के क्षण आ ही जाते हैं। सबके  भीतर यह भावना आती है कि वह अपनी मन-मर्जी से जहाँ चाहे आ जा सके, तो जीवन कितना सुकून-भरा हो। पर आज स्थिति ये है कि परिवार का कोई भी सदस्य बाहर से घर आता है तो सुरक्षा की दृष्टि से न बच्चों के समीप जाता न किसी से मिलता और न ही घर की किसी वस्तु को हाथ लगाता तथा पूरी तरह स्वच्छ होकर ही वह परिवार के लोगों से मिलता है। मैं एक ऐसे परिवार को जानती हूँ, जहाँ के दो सदस्य घर पर रह कर काम करते हैं और तीन सदस्य काम के सिलसिले में बाहर जाते हैं, वे सब जब घर में एक साथ होते हैं, तब भी दिन और रात मास्क पहनकर ही रहते हैं। ऐसे कई तरह के बंधन कई बार खीझ पैदा कर देते हैं।

इन सबके बावजूद इस महामारी के बाद से बहुत कुछ सकारात्मक परिणाम भी सामने आए हैं, जैसे एक साथ रहते हुए बच्चे कुछ- कुछ घरेलू हो गए हैं, अपने माता- पिता का हाथ बटाने लगे हैं।  घर में रहकर काम करने वाले युवाओं ने भी अपने काम को सबके बीच घर में रहते हुए करना सीख लिया है, बड़े- बुज़ुर्ग आराम से हैं, पति- पत्नी भी अपने रोर्रा के झगड़ों के साथ खुश हैं; क्योंकि वे जानते हैं कि वे सब सुरक्षित हैं। कहने का तात्पर्य यही है कि वर्तमान हालात में रहते हुए भी हमें दुःख, अवसाद और निराशा को पास आने से हर हाल में रोकना है।

यह तो हुई एक परिवार या एक व्यक्ति के सकारात्मक या नकारात्मक सोच की बात;  पर इसके साथ एक दूसरे पक्ष भी है, जिसे हमें नरअंदाज़ नहीं करना है... हमारे देश में एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है जिनके पास काम नहीं है अथवा इन दिनों उनकी रोजी-रोटी छिन गई है, वे अपना घर चलाने के लिए ऐसे काम करने को मजबूर हो गए हैं, जो उनके स्तर का नहीं है। इसी एक बहुत बड़े वर्ग के लिए ही इस समय एकजुट होकर काम करने की जरूरत है... यहाँ सिर्फ एक उदाहरण देना चाहूँगी... कोविड के चलते बहुत सारे निजी स्कूल बंद हो गए हैं परिणाम शिक्षकों से लेकर स्कूल प्रबंधन के अन्य कर्मचारी बेकार हो गए हैं... सुनने में यहाँ तक आया है कि कई शिक्षकों को अपने परिवार के लिए मदूरी करके दो जून की रोटी की व्यवस्था करनी पड़ रही है। यह एक गंभीर समस्या है और सरकारी, तथा गैरसरकारी स्तर पर इसका समाधान निकालना ही चाहिए। इसी प्रकार की स्थिति अन्य कई छोटे- बड़े उद्योग- धंधों के बंद होने पर उत्पन्न हो गई है। इस मुसीबत की घड़ी में सरकार के साथ बहुत सारे हाथ सहयोग के लिए आगे बढ़े हैं और बहुतों की ज़िन्दगी को उन्होंने सँवारा है, पर समस्या की विकरालता को देखते हुए यह सहयोग समुद्र में बूँद की तरह है। इस बूँद को हमें बढ़ाना होगा। आखिर बूँद-बूँद से ही घड़ा भरता है।  

 तो आइए... कोरोना के टेस्ट में सबका परिणाम निगेटिव आए ऐसी प्रार्थना करते हुए हम एक- दूसरे को सकारात्मक ऊर्जा इस विश्वास के साथ बाँटें, कि जाते हुए साल के साथ हम सबके जीवन से कोरोना भी बिदा हो जाए।

आलेख- घृणा का स्थान


-प्रेमचंद

निंदा, क्रोध और घृणा ये सभी दुर्गुण हैं, लेकिन मानव जीवन में से अगर इन दुर्गुणों को निकल दीजिए, तो संसार नरक हो जायेगा। यह निंदा का ही भय है, जो दुराचारियों पर अंकुश का काम करता है। यह क्रोध ही है, जो न्याय और सत्य की रक्षा करता है और यह घृणा ही है जो पाखंड और धूर्तता का दमन करती है। निंदा का भय न हो, क्रोध का आतंक न हो, घृणा की धाक न हो तो जीवन विश्रृंखल हो जाय और समाज नष्ट हो जाय। इनका जब हम दुरुपयोग करते हैं, तभी ये दुर्गुण हो जाते हैं, लेकिन दुरुपयोग तो अगर दया, करुणा, प्रशंसा और भक्ति का भी किया जाय, तो वह दुर्गुण हो जायेंगे। अंधी दया अपने पात्र को पुरुषार्थ-हीन बना देती है, अंधी करुणा कायर, अंधी प्रशंसा घमंडी और अंधी भक्ति धूर्त। प्रकृति जो कुछ करती है, जीवन की रक्षा ही के लिए करती है। आत्म-रक्षा प्राणी का सबसे बड़ा धर्म है और हमारी सभी भावनाएँ और मनोवृत्तियाँ इसी उद्देश्य की पूर्ति करती हैं।

कौन नहीं जानता कि वही विष, जो प्राणों का नाश कर सकता है, प्राणों का संकट भी दूर कर सकता है। अवसर और अवस्था का भेद है। मनुष्य को गंदगी से, दुर्गन्ध से, जघन्य वस्तुओं से क्यों स्वाभाविक घृणा होती है? केवल इसलिए कि गंदगी और दुर्गन्ध से बचे रहना उसकी आत्म-रक्षा के लिए आवश्यक है। जिन प्राणियों में घृणा का भाव विकसित नहीं हुआ, उनकी रक्षा के लिए प्रकृति ने उनमें दबकने, दम साथ लेने या छिप जाने की शक्ति डाल दी है। मनुष्य विकास-क्षेत्र में उन्नति करते-करते इस पद को पहुँच गया है कि उसे हानिकर वस्तुओं से आप ही आप घृणा हो जाती है। घृणा का ही उग्र रूप भय है और परिष्कृत रूप विवेक। ये तीनों एक ही वस्तु के नाम हैं, उनमें केवल मात्रा का अंतर है।

तो घृणा स्वाभाविक मनोवृति है और प्रकृति द्वारा आत्म-रक्षा के लिए सिरजी गयी है। या यों कहो कि वह आत्म-रक्षा का ही एक रूप है। अगर हम उससे वंचित हो जाएँ, तो हमारा अस्तित्व बहुत दिन न रहे। जिस वस्तु का जीवन में इतना मूल्य है, उसे शिथिल होने देना, अपने पाँव में कुल्हाड़ी मारना है। हममें अगर भय न हो तो साहस का उदय कहाँ से हो। बल्कि जिस तरह घृणा का उग्र रूप भय है, उसी तरह भय का प्रचंड रूप ही साहस है। जरूरत केवल इस बात की है कि घृणा का परित्याग करके उसे विवेक बना दें। इसका अर्थ यही है कि हम व्यक्तियों से घृणा न करके उनके बुरे आचरण से घृणा करें। धूर्त से हमें क्यों घृणा होती है? इसलिए कि उसमें धूर्तता है। अगर आज वह धूर्तता का परित्याग कर दे, तो हमारी घृणा भी जाती रहेगी।

 एक शराबी के मुँह से शराब की दुर्गन्ध आने के कारण हमें उससे घृणा होती है, लेकिन थोड़ी देर के बाद जब उसका नशा उतर जाता है और उसके मुँह से दुर्गन्ध आना बंद हो जाती है, तो हमारी घृणा भी गायब हो जाती है। एक पाखंडी पुजारी को सरल ग्रामीणों को ठगते देखकर हमें उससे घृणा होती है, लेकिन कल उसी पुजारी को हम ग्रामीणों की सेवा करते देखें, तो हमें उससे भक्ति होगी। घृणा का उद्देश्य ही यह है कि उससे बुराइयों का परिष्कार हो।

पाखंड, धूर्त्तता, अन्याय, बलात्कार और ऐसी ही अन्य दुष्प्रवृत्तियों के प्रति हमारे अंदर जितनी ही प्रचंड घृणा हो, उतनी ही कल्याणकारी होगी। घृणा के शिथिल होने से ही हम बहुधा स्वयं उन्हीं बुराइयों में पड़ जाते हैं और स्वयं वैसा ही घृणित व्यवहार करने लगते हैं। जिसमें प्रचंड घृणा है, वह जान पर खेलकर भी उनसे अपनी रक्षा करेगा और तभी उनकी जड़ खोदकर फेंक देने में वह अपने प्राणों की बाजी लगा देगा। महात्मा गाँधी इसलिए अछूतपन को मिटाने के लिए अपने जीवन का बलिदान कर रहे हैं कि उन्हें अछूतपन से प्रचण्ड घृणा है।

जीवन में जब घृणा का इतना महत्त्व है, तो साहित्य कैसे उसकी उपेक्षा कर सकता है, जो जीवन का ही प्रतिबिंब है? मानव-हृदय आदि से ही सु और कु का रंगस्थल रहा है और साहित्य की सृष्टि ही इसलिए हुई कि संसार में जो सु या सुंदर है और इसलिए कल्याणकर है, उसके प्रति मनुष्य में प्रेम उत्पन्न हो और कु या असुंदर और इसलिए असत्य वस्तुओं से घृणा। साहित्य और कला का यही मुख्य उद्देश्य है। कु और ‘’सु का संग्राम ही साहित्य का इतिहास है। प्राचीन साहित्य धर्म और ईश्वर द्रोहियों के प्रति घृणा और उनके अनुयायियों के प्रति श्रद्धा और भक्ति के भावों की सृष्टि करता रहा। (‘जीवन और साहित्य में घृणा का स्थानसे)

आलेख- छत्तीसगढ़ और उड़ीसा की साझी संस्कृति- महानदी


-प्रो. अश्विनी केशरवानी

 महानदी, छत्तीसगढ़ प्रदेश एवं उड़ीसा की अधिकांश भूमि़ को सिंचित ही नहीं करती, वरन् दोनों प्रदेशों की सांस्कृतिक परम्पराओं को जोड़ती भी है। आज भी छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक परम्पराएँ सिहावा से लेकर महानदी के तट पर बसे ऐतिहासिक और पौराणिक नगर सोनपुर, उड़ीसा तक मिलती है। यह भी सही है कि उड़ीसा और पूर्वी छत्तीसगढ़ का सीमांकन महानदी करती है और इसके तट पर बसे ग्रामों में सांस्कृतिक साम्य दिखाई देता है। सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ में उड़िया संस्कृति की स्पष्ट छाप देखी जा सकती है। चाहे मेला- मड़ई हो या रथयात्रा, उसमें उड़ीसा का उखरा प्रमुख रूप से मिलता है। इसी प्रकार जगन्नाथ पुरी की रथयात्रा उड़ीसा का एक प्रमुख पर्व है जिसे छत्तीसगढ़ के अन्यान्य ग्रामों-सारंगढ़, रायगढ़, चंद्रपुर, सक्ती, रायपुर, राजिम, शिवरीनारायण, बिलासपुर और बस्तर में बड़े धूमधाम से आज भी मनाया जाता है। महानदी के तट पर बसे सांस्कृतिक केंद्रों क्रमशः सिहावा, सिरपुर, राजिम, खरौद, शिवरीनारायण, चंद्रपुर, पुजारीपाली, संबलपुर और सोनपुर के अलावा आरंग, सरायपाली, बसना, सारंगढ़, रायगढ़, बालपुर और हसुवा आदि नगरों में एक साम्य है। छत्तीसगढ़ और उड़ीसा की सांस्कृतिक परम्परा को प्रदर्शित करने वाले भित्ति चित्र महानदी के तटीय अथवा पास में स्थित ग्रामों में आज भी देखने को मिलते हैं।

इतिहास साक्षी है कि उड़ीसा का संबलपुर सन् 1905 तक छत्तीसगढ़ के अंतर्गत था। अक्टूबर सन् 1905 में सम्बलपुर, बंगाल प्रान्त में स्थानान्तरित किया गया। आगे जब उड़ीसा प्रांत बना तब सम्बलपुर उसमें सम्मिलित किया गया। इसी समय चन्द्रपुर-पदमपुर और मालखरौदा स्टैट तथा नौ गौंटियाई खालसा गाँव छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिलान्तर्गत जांजगीर तहसील में स्थानान्तरित की गयी। जब जिलों का पुनर्गठन किया गया तब सरसींवा खालसा और भटगाँव, बिलाईगढ़-कटगी, लवन, सोनाखान जमींदारी को रायपुर जिला में स्थानान्तरित कर दिया गया।

 छत्तीसगढ़़ का नाम सुनते ही सोचा जाता है कि इस क्षेत्र में 36 गढ़ या किले होंगे। वास्तव में गढ़शब्द का अर्थ होता है-प्रशासनिक भवन या किला। प्रसिद्ध संक्षेाभ के ताम्रपत्र के  अष्टादश अटवी राज्यसे ऐसा संकेत मिलता है कि अट्ठारह राज्यों के समूह की परम्परा छठी शताब्दी से चली आ रही है। रतनपुर और रायपुर के 18-18 गढ़ों के संयुक्त रूप के फलस्वरूप छत्तीसगढ़ बना है। लाला प्रदुम्न सिंह लिखते हैं कि प्राचीन काल में छत्तीसगढ़ विभाग में छत्तीस राजा राज्य करते थे, इसमें 36 राजधानियाँ थी। प्रत्येक राजधानी में एक-एक गढ़ था। 36 गढ़ होने के कारण इस भूभाग का नाम छत्तीसगढ़ पड़ा (लाला प्रदुम्न सिंह, नागवंश, पृ0 2)  चीजम साहब बहादुर ने 36 गढ़ों की सूची दी है और हेविट साहब बहादुर ने तो अपनी सेटलमेंट रिपोर्ट में उन गढ़ों के नाम, ग्रामों की संख्या के साथ दिए हैं, जो शिवनाथ नदी के उत्तर में रतनपुर राजधानी के अंतर्गत और दक्षिण में रायपुर राजधानी के अंतर्गत थे ( सी. यू. बिल्स: जर्नल ऑफ एशियाटिक सोसायटी पृ. 199, 210 )। छत्तीसगढ़ शब्द की उत्पत्ति के विषय में एक संदेह और होता है कि कहीं इस शब्द का सम्बंध इस प्रान्त में रहने वाली छत्तीस कुरियों से तो नहीं ? रतनपुर निवासी श्री गोपालचंद्र मिश्र कृत खूबतमाशा और श्री रेवाराम कृत विक्रमविलासमें मिलता है-बसे छत्तीस कुरी सब दिन के बसवासी सब सबके। कवि रेवाराम ने विक्रमविलास में लिखा है-

 बसत नगर सीमा की खानी, चारी बरन निज धर्म निदान

 और कुरी छत्तिस है तहाँ, रूप राशि गुन  पूरन महाँ ।             

छत्तीसगढ़ के नरेशों ने त्रिकलिंगाधिपतिऔर त्रिपुरीशआदि संख्या विरुद्ध शब्दों को सदबहुमान धारण किया था और इनका संकेत उनके ताम्र शासनों में भी मिलता है। इस आधार पर पंडित लोचनप्रसाद पाण्डेय ने यह तात्पर्य निकाला कि मध्ययुग में किसी राज्य की समर विजित शक्ति और महत्ता बतलाने के लिए उनका मान गढ़ों की संख्या से लगाया जाता था। जैसे बावनगढ़ मंडला, छत्तीसगढ़ रतनपुर आदि। उनका कथन है कि इस प्रान्त को छत्तीसगढ़-रतनपुर  कहते थे। कालान्तर में रतनपुर शब्द का लोप हो गया और पूर्व विशेषण छत्तीसगढ़ राजा तथैव राज्य का अभिधान बन गया (हीरालाल: छत्तीसगढ़ी ग्रामर, प्रस्तावना पृ. 4)। संख्या-विरूद शब्दों का प्रयोग मध्यकाल में स्थान अथवा राज्य के महत्त्व को सूचित करने के लिए प्रचलित था। उदाहरणार्थ देखिये-

दुर्ग अठारह अमित छवि सम्बलपुर परसिद्ध।

गढ़ सत्रह कोउ ना आए नमक छोड़ी अकबर के भ।।

इसके अतिरिक्त देवार जाति के गा जाने वाले गोपल्ला गीत में ऐसे और भी अभिधान हमें देखने को मिलते हैं-  अनलेख गढ़ चांदा, अस्सीगढ़ दुर्ग-धमधा, बावनगढ़ गढ़ा, बावनगढ़ मंडला, अठारहगढ़ रतनपुर, अठारहगढ़ रइपुर, सोरागढ़ नागपुर, सोरागढ़ बलौदा, सातगढ़ संजारी, सातगढ़ कोरिया, बयालिसगांव भटगाँव, बारागाँव पौंसरा, बाइस डंड उड़ियान, सोरा डंड सिरगुजा। (प्रहलाद दुबे कृत जयचन्द्रिका, हस्तलिखित)।

छत्तीसगढ़ और उड़ीसा में रियासतें ब्रिटिश शासन, जागीर, पिंरस पैलेट्री आदि का प्रशासनिक स्तर पर उल्लेख मिलता है। विभिन्न जाति, वर्ग और देशी रियासतें छत्तीसगढ़ में भी थी, जैसे सोमवंशी, हैहयवंशी, वैष्णवपंथी महंत आदि। हैहयवंशी़ राजाओं का राज्य जबलपुर से संबलपुर तक था। इनकी पहली राजधानी जबलपुर के पास त्रिपुरी में थी, लेकिन आसफअली के अनुसार सन् 1756 में हुए युद्ध में यह वंश समाप्त हो गया। इसके पूर्व आठवीं शताब्दी में इस वंश की एक शाखा रतनपुर आ गयी थी। इसके पूर्व यहाँ सोमवंशी राजाओं का शासन था, तब इस क्षेत्र को दक्षिण कोसलकहा जाता था। सोमवंशी राजाओं की राजधानी उड़ीसा के सोनपुर में थी। छत्तीसगढ़ को परिभाषित करते हुए रतनपुर के कवि श्री गोपाल मिश्र ने सन् 1689 में लिखा है-

छत्तीसगढ़ गाढ़े जहाँ बड़े गढ़ोई जानि

सेवा स्वामिन को रहैं सकें ऐंड़ को मानि।

150 वर्ष बाद रतनपुर के बाबू रेवाराम कायस्थ ने अपने विक्रम विलासमें छत्तीसगढ़शब्द का प्रयोग किया है-

तिनमें दक्षिण कोसल देसा, हँ हरि ओतु केसरी बेसा।

तासु मध्य छत्तीसगढ़ पावन, पुण्यभूमि सुर मुनि मन भावन।

रत्नपुरी तिनमें है नायक, कासी सम सब विधि सुख दायक।

छत्तीसगढ़ की चौदह देशी रियासतें अंग्रेजी और भोंसला राजाओं से संधि के फलस्वरूप एक निश्चित राशि बतौर नजराने ब्रिटिश कम्पनी को देती थी। इन देशी रियासतों में बस्तर, कांकेर, सारंगढ़, रायगढ़, सक्ती, उदयपुर, जशपुर, सरगुजा, कोरिया, चांगभखार, खैरागढ़, छुईखदान, राजनांदगाँव, कवर्धा, प्रमुख थे। इन देशी रियासतों में बंगाल के छोटा नागपुर क्षेत्र से पाँच रियासत क्रमशः सरगुजा, उदयपुर, जशपुर, कोरिया और चांगभखार को जहाँ छत्तीसगढ़ में मिलाया गया, वहाँ छत्तीसगढ़ की पाँच रियासतें क्रमशः कालाहाँडी, संबलपुर, पटना, बालांगीर और खरियार उड़ीसा में मिला दी गयीं।

इतिहास: ईसा पूर्व से

छत्तीसगढ़ के साहित्यकार और पुरातत्वविद् पंडित लोचनप्रसाद पाण्डेय श्री विष्णु यज्ञ स्मारक ग्रंथमें लिखते हैं- प्राचीन साहित्य के द्वारा कोसल देश पर जो प्रकाश पड़ता है उसके अनुसार उसका इतिहास 700 ईसा पूर्व का है।  महावैयाकरण पाणिनी ने अपने व्याकरण में कलिंग और कोसल सम्बंधी सूत्र लिखे हैं। अनेक भाष्यकारों का मत है कि कोसलशब्द का प्रयोग यहाँ पर दक्षिण कोसलके लिए किया गया है। ईसा पूर्व 300 की ब्राह्मी लिपि में लिखित दो ताम्र मुद्राएँ लंदन के ब्रिटिश म्यूजियम में संगृहीत हैं। इस  पर कोसल चेदि की राजधानी त्रिपुरीनाम अंकित है। साथ ही स्वस्ति सहित सरित और शैल के तीन चिह्न बने हैं, मानो यह तीन राज्य कोसल, मैकल और चेदि के द्योतक हैं।

ह्वेनसांग की यात्रा

प्रयाग (इलाहाबाद) के किले  में स्थित स्तम्भ में जो उत्कीर्ण लेख है उसमें कोसल का उल्लेख है। उसमें यह भी बताया गया है कि कोसल दक्षिणपथ के राज्यों में से एक है। प्रसिद्ध चीनी यात्री व्हे ह्वेनसांग ने सन् 619 में दक्षिण कोसल की यात्रा की थी। उसने इसकी सीमाओं के बारे में जो बातें लिखीं हैं, वे यथार्थ के बहुत करीब जान पड़ती हैं। उसके अनुसार दक्षिण का विस्तार लगभग दो हजार मील के वृत्त में था। इसके मध्य में रायपुर, दुर्ग, बिलासपुर, रायगढ़ और सम्बलपुर जिले का अधिेकांश भाग आता था। उत्तर में इसकी सीमा अमरकंटक को पार कर गई थी। अमरकंटक जो नर्मदा नदी का उद्गम स्थान है, मैकल पहाड़ की श्रेणियों के अंतर्गत आता है। रायपुर, रायगढ़ और सरगुजा जिलों की ईशान कोण में फैली हुई ये श्रेणियाँ उसकी सीमा बनाती है। पश्चिम भाग में इसकी सीमा दुर्ग और रायपुर जिलों के शेष भाग को समेटती हुई सिहावा तक चली जाती है और बैनगंगा को पार कर बराबर की सीमा को छूने लगती है। दक्षिण में इसका विस्तार बस्तर तक था, जबकि यह पूर्व में महानदी की उपरी घाटियों को समावेशित करती हुई सोनपुर तक चली गयी थी, जिससे पटना, बामड़ा, कालाहाँडी आदि भी इसके अंतर्गत आ जाते थे जहाँ से सोमवंशी राजाओं की प्रशस्तियाँ प्राप्त हुई हैं। पंडित लोचनप्रसाद पाण्डेय के अनुसार दक्षिण कोसल की सीमा इस प्रकार थी-उत्तर में गंगा, दक्षिण में गोदावरी, पश्चिम में उज्जैन और पूर्व में समुद्र के तट पर स्थित पाली (उड़ीसा)। उज्जैन को दक्षिण कोसल के पश्चिम में बताने वाला महाभारत के वन पर्व का श्लोक इस प्रकार है-

गोसहस्र फलं विंद्यात् कुलंचैव समुद्धरेत्।

कोसलां तुसमासाद्य कालतीर्थमुप स्पृशेत्।। ( अध्याय 84, वन पर्व )

जहाँ हीरे मिलते थे

श्री प्यारेलाल गुप्त द्वारा लिखित प्राचीन छत्तीसगढ़के अनुसार गिल्बन नामक एक अंग्रेज लेखक ने लिखा है कि संबलपुर के निकट हीराकूट नामक एक छोटा- सा द्वीप है जहाँ हीरा मिलता है। इन हीरों की रोम में बड़ी खपत थी। उनके लेख से सिद्ध होता है कि कोसल का व्यापार रोम से था और रोम के सिक्के जो महानदी की रेत में पा हैं, इसके प्रमाण हैं। ह्वेनसांग ने भी लिखा है कि मध्यप्रदेश से हीरा लेकर लोग कलिंग में बेचा करते थे। यह महानदी के तट पर स्थित कोसल देशान्तर्गत संबक या संबलपुर छोड़ दूसरा नगर नहीं है।

सांस्कृतिक परम्परा के द्योतक भित्ति चित्र

महानदी के तटवर्ती ग्राम्यांचलों में घरों की दीवारों में छत्तीसगढ़ और उड़ीसा की साक्षी लोक परम्परा के भित्ति चित्र मिलते हैं। सन 1985 में महानदी के तटवर्ती ग्राम बालपुर में सर्वप्रथम पत्रकार श्री सतीश जायसवाल ने लोक चित्रांकन की  इस शैली की पहचान की। उन्होंने बताया कि इस भित्ति चित्र में श्रीकृष्ण चरित्र, जगन्नाथ चरित्र, और रामायण के प्रसंग प्रमुख रूप से होते हैं। इनमें गणेश, लक्ष्मी, राधाकृष्ण, राम लक्ष्मण जानकी और हनुमान, राम का वनगमन, स्वर्ण मृग, शेर, धनुर्धर शिकारी के अलावा मछली, मोर का जोड़ा आदि मिलता है। इनके रंग संयोजन भगवान जगन्नाथ की मूर्ति के रंगों से मिलते हैं, इनका रंग हल्का होता है क्योंकि इसमें प्रयुक्त होने वाले नैसर्गिक रंग वृक्षों की छाल, वनस्पति, कोयला और पत्थर के चूर्ण आदि से तैयार किये जाते हैं। इन भित्ति चित्रों को बनाने वाले लोक कलाकार निषाद-केंवट, धीवर, मछुवारे अथवा शबर जाति के भाट होते हैं। इन्हें बिरतिया भी कहा जाता है।

 मैंने इन भित्ति चित्रों को अपने पैत्रिक गाँव हसुवा में देखा। हसुवा ग्राम पहले जगन्नाथ मंदिर पुरी में चढ़ा ग्राम था जिसे हमारे पूर्वज श्री धीरसाय साव ने अपने पुत्रों मयाराम, मनसाराम और सरधाराम के नाम से खरीदा था। यहाँ इन भित्ति चित्रों को देखकर मेरी उत्सुकता बढ़ी और मैंने यहाँ के पूर्व सरपंच श्री गोरेलाल केशरवानी से इसकी जानकारी चाही थी। उन्होंने मुझे बताया कि इन भित्ति चित्रों को बनाने वाले भाट उड़ीसा प्रांत से आते हैं। ये लोग प्रतिवर्ष कार्तिक और जेठ मास के बीच आते हैं, घरों की दीवारों में चित्र बनाते हैं और उड़िया में कोई गीत गाते हैं। बदले में चावल लेते हैं। आजकल पैसे भी लेते हैं। ये चित्र साल भर दीवारों में बने होते हैं। इन लोक चित्रकार में निषाद यजमान मुख्य रूप से महानदी के तटवर्ती ग्राम्यांचलों में रहते हैं। इसलिए भित्ति चित्रांकन की यह लोक परम्परा महानदी के तटवर्ती ग्रामों में अधिक दिखती है। लेकिन मध्य उड़ीसा के कृषि प्रधान गाँवों में यह लोक चित्रांकन की परम्परा अनुष्ठानिक हो जाती है। यहाँ की गृहस्थ और अविवाहित युवतियाँ दशहरा के दिन से अपने अपने घरों में भित्ति चित्र बनाती हैं। भित्ति चित्रांकन की यह परम्परा कृषि आधारित समृद्धि ग्रामीण समाज में एक शुद्ध लोककला के रूप में पोषित हुई दिखती है। महानदी से सिंचित कृषि ग्रामों में इनके भित्ति चित्रों की बहुलता होती है। लेकिन जैसे जैसे महानदी के तट से दूर होते हैं या सूखाग्रस्त इलाके की ओर बढ़ते हैं, ये भित्ति चित्र कम होने लगते हैं। इसी प्रकार सड़क के भीतर की ओर बसे हुए गाँवों में तो ये भित्ति चित्र खूब देखने को मिलते हैं, लेकिन जैसे -जैसे सड़क की ओर आते हैं ये कम होते जाते हैं। भित्ति चित्रांकन की महानदी घाटी की यह लोक परम्परा कितनी पुरानी है तथा इसके विकास का क्रम क्या रहा है, इसकी प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती। वनों और पहाड़ों के बीच बसा एक छोटा-सा गाँव ओंगना प्रागैतिहासिक शैलचित्रों के कारण आज पुरावेत्ताओं की दुनिया में महत्त्व और ख्याति पा गया है। पहाड़ी चट्टानों पर गैरिक रेखाओं से बने इन शैलचित्रों को देखने के लिए देशी और विदेशी पर्यटक यहाँ आते हैं। पर इनमें से बहुत कम लोग शैलचित्रों और अर्थो को समझतें हैं। पर्यटकों को कोई बताता भी नहीं कि इस ओंगना ग्राम में समसामयिक जन जीवन भी विद्यमान है, इनकी लोक परम्पराएँ जीवित है। यहाँ उड़िया मूल के कोलताकृषक रहते हैं। इन कोलता कृषकों को मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग में शामिल कर लिया गया है।

उड़ीसा राज्य के गठन के पूर्व उदयपुर की आदिवासी रियासत तत्कालीन मध्य प्रांत बरार के अंतर्गत संबलपुर थी। धरमजयगढ़ उसका मुख्यालय था। उड़ीसा राज्य के बनते ही संबलपुर तो मध्य प्रांत-बरार से अलग होकर इस नये प्रांत में सम्मिलित हो गया। लेकिन यह आदिवासी रियासत तत्कालीन मध्य प्रदेश में सम्मिलित कर ली गयी। इसके साथ ही ओंगना ग्राम भी तत्कालीन मध्य प्रदेश और वर्तमान छत्तीसगढ़ में आ गया।

छत्तीसगढ़ की पूर्वी सीमा पर उड़ीसा से लगा एक प्रमुख गढ़ तथा वर्तमान में रायगढ़ जिले का एक प्रमुख तहसील मुख्यालय सारंगढ़ है। यहाँ छत्तीसगढ़ी और उड़िया संस्कृति का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है। चाहे रथ यात्रा पर्व हो या दशहरा, दोनों की साझी सांस्कृतिक परम्परा का समन्वय पर्व होता है। बालपुर का पाण्डेय परिवार साहित्यिक गतिविधियों से पूरी तरह से जुड़ा हुआ है। पुरातत्वविद् और सुप्रसिद्ध साहित्यकार पंडित लोचनप्रसाद पाण्डेय कई भाषाओं के साथ उड़िया भाषा के भी ज्ञाता थे। उन्होंने इन भाषाओं में कई पुस्तकें लिखी हैं। अतः बालपुर को भी उड़िया भाषी और हिन्दी भाषी लोगों का संधिस्थल कहा जा सकता है; क्योंकि उनके काव्यों में उड़िया और छत्तीसगढ़ी संस्कृति का स्पष्ट प्रभाव देखने को मिलता हैं पूर्वी छत्तीसगढ़ और पश्चिमी उड़ीसा के बीच सांस्कृतिक और सामाजिक परम्पराओं में व्याप्त एकरूपता इनका प्रमुख आधार है। पंडित मुकुटधर पांण्डेय ने भी लिखा है:-

किंशुक कानन आवेष्ठित वह महानदी तट-देश।

सरस इक्षु के दंड, धान की नवमंजरी विशेष।।

सम्पर्कःराघव’, डागा कालोनी, चाम्पा-495671 (छ.ग.)


पूण्य स्मरण - 18 दिसम्बर: साहित्य के मूक साधक- पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

- विनोद साव

आधुनिक काल में हिन्दी निबंधों के विकास का पहला युग भारतेंदु युग कहलाया और दूसरा युग द्विवेदी युग। तीसरा युग शुक्ल युग। इस तीसरे युग में रामचंद शुक्ल के साथ बाबू गुलाबरायपदुमलाल पुन्नालाल बख्शीजयशंकर प्रसाद आदि हुए थे।  बक्शी जी का नाम पदुमलाल थानाम के साथ वे पिता का नाम पुन्नालाल लगाते थे। अनेक विधाओं में लिखने के बाद निबंधकार के रूप में उन्हें ख्याति मिली। अपनी विशिष्ट शैली में उनके निबंध मौलिकता और नवीनता लिए हुए हैं जो अपने समय से पहले आधुनिक खड़ी बोली में मँजे हुए हैं। उनकी भाषा प्रेमचंद जैसी निश्छल और साफगोई से भरी भाषा थी। आज हम प्रेमचंद और बख्शी जैसी आधुनिक ललित भाषा को ‘एडॉप्ट’ किए हुए हैं।

बख्शी जी छत्तीसगढ़ की माटी की देन है। उन्होंने ‘छत्तीसगढ़ की आत्मा’ कहानी लिखी है। इसमें वे लिखते हैं ‘छत्तीसगढ़ के जनजीवन में चरित्र की एक ऐसी उज्ज्वलता हैजो अन्यत्र नहीं पा जाती। वे स्वयं धोखा नहीं देते। वे स्वयं कष्ट सह लेते हैं पर दूसरों को कष्ट नहीं देते। वे कठिन परिस्थितियों में भी स्नेह और ममत्व नहीं छोड़ते। जो इस आत्मा से परिचित नहीं होते वे छत्तीसगढ़ के जीवन की महिमा व्यक्त नहीं करते।’ लोककला निर्देशक रामचंद देशमुख बताते थे कि ‘चंदैनी गोंदा’ के बाद ‘कारी’ नामक लोक-प्रस्तुति तैयार करने की प्रेरणा मुझे बख्शी जी की इसी कहानी और उसकी नायिका से मिली थी।

बख्शी जी के जन्मशताब्दी वर्ष 1994 में भिलाई में तीन दिवसीय राष्ट्रीय साहित्य सम्मलेन राजनयिक व गाँधी विचारक कनक तिवारी जी के संयोजन में रखा गया था। सम्मलेन में कथाकार कमलेश्वर आह्वान कर रहे थे कि ‘हिन्दी साहित्य के इतिहास में जिसे द्विवेदी युग कहा जाता हैउसे द्विवेदी जी को प्रणाम अर्पित करते हुए सप्रे युग भी कहा जाना चाहिए। हिन्दी कहानी और हिन्दी गद्य को माधव राव सप्रे और बाद में बख्शी जी ने बड़ी ऊँचाई दी। इन दोनों सृजनकारों ने हिन्दी साहित्य के आधुनिकीकरण और गद्य को दिशा दी है; लेकिन हिन्दी साहित्य का वर्णवादी इतिहास इन दोनों व्यक्तित्वों के बारे में मौन है। आचार्य शुक्ल का इतिहास सप्रेजी के बारे में मौन है, तो बाद के इतिहासकारों के विवरण बख्शी जी के बारे में खामोश हैं।

अपने निबंध ‘साहित्य और शिक्षा’ में बख्शी जी लिखते हैं ‘लोकरुचि  बदलती रहती है और उसी के अनुसार ग्रंथों की लोकप्रियता भी बढती-घटती रहती है। वर्तमान युग प्रचार का युग है। राजनीति की तरह साहित्य में भी प्रचार का बड़ा महत्त्व है। ढोल पीटकर या नगाडा बजाकर यदि कोई जनता का मत प्राप्त कर मंत्री बन सकता है, तो साहित्य के क्षेत्र में भी यथेष्ट ढोल पीटकर कोई लेखक या कवि गौरव के शिखर पर पहुँच कर विशेष ख्याति भी प्राप्त कर सकता है।

उन्होंने कवि सम्मेलनों में कवियों के वाणी चातुर्य को देखकर ही लिखा है कि, “प्रेम के मधुर सपनों में लीन होकर जो अवसाद से पूर्ण होकर नि:श्वास लेता है, उसे रोगग्रस्त समझना चाहिए... इसी प्रकार रौद्र रस या वीर रस का कवि जब यह चीत्कार करता है कि मैं चाहूँ तो अपनी वाणी से आग लगा दूँ। सब कुछ नष्ट भ्रष्ट कर दूँ और अपने गान से पृथ्वी को विचलित कर दूँ, तब उसके गान को भी विकृत मस्तिष्क का प्रलाप समझना चाहिए।

मंचीय कवियों को सीख देते हुए साहित्य की बगिया के माली ने आगे इसी निबंध में लिखा है कि शब्दों की कामना से सर्जना र्जा नहीं आती। इसके लिए कठोर साधना का प्रयास करना पड़ता है।उनके अनुसार कवि सम्मेलनों में केवल स्वर को ही महत्त्व मिलता है। स्वर-माधुर्य का सम्बन्ध संगीत से है। काव्य-माधुर्य कुछ और होता है;  क्योंकि काव्य का भाव सौन्दर्य तो मन के द्वारा नियंत्रित होता है।बख्शी जी स्वर माधुर्य को ही कविता का आश्रय नहीं मानते हैं। उनके अनुसार कविता में विशुद्ध भाव होगा, जितना ही चितरंजन स्वरूप होगा, उतनी ही उसकी महत्ता है।’   

कवि सम्मेलनों में पढ़ी जाने वाली रचनाओं के सन्दर्भ में उनका स्पष्ट मत है कि इन रचनाओं का उद्देश्य केवल श्रोताओं का मनोविनोद ही होता है। वे मनोविनोद के लिए ही कवि सम्मेलनों में जाते हैं। कवि सम्मेलनों में भाव -भरी गूढ़ रचनाएँ छूट जाती हैं। जिन रचनाओं में भाव की सूक्ष्मता है अथवा जो आकर्षक ढंग से नहीं पढ़ी गई है अथवा जिनमें कवित्व कला का सच्चा निर्देशन नहीं है, वे प्रायः लोकप्रिय नहीं हो सकतीं। भावुकता तथा नाटकीय ढंग से प्रस्तुत की गई रचनाएँ सम्मान पा जाती हैं इनमें कवि की भाव भंगिमाओं का भी अपना स्थान रहता है।

वास्तव में कविता धर्म तो लोकरुचि का विस्तार करना है पर कवि सम्मलेन में श्रोता रुचिका ही ध्यान रखा जाता है। आखिर बख्शी जी की भविष्यवाणी सिद्ध हुई। अब कवि सम्मेलनों में रुचि आई है, जहाँ हो रहे हैं उनमें व्यंग्य रचनाओं को ही सुना जाता है।

हास्य-व्यंगात्मक शैली तथा भाषा बख्शी जी के ललित निबंधों में प्रयुक्त हुई है। आत्मपरक निबंधों में इस शैली को अपनाया गया है - ‘क्या लिखूँ निबंध’ उनकी आत्मव्यंजक शैली का सुंदर नमूना है। इसमें लेखक की निजता और उसका व्यक्तित्व उभरकर सामने आता है। उनके विनोदप्रिय व्यक्तित्व का उल्लेख करते हुए धमतरी के रामायणी दाउद-खाँ एक बार एक प्रसंग सुना रहे थे कि खैरागढ़ में एक मारवाड़ी अपनी अंतिम साँसें ले रहा था। तब उनका एक सेवक दौड़ते हुए बख्शी जी के पास आया और कहा - ‘मास्टर जी.. मालिक ने खटिया पकड़ ली है और आपको याद कर रहे हैं। चलिए ज़ल्दी चलिए।’ यह सुनकर बख्शी जी बोले – ‘जाओ तुम्हारे मालिक से कहना कि कुछ नहीं होगा। वो मारवाड़ी मरेगा नहीं.. अभी इतने गुनाह बाकी हैं उन्हें कौन करेगा?’

प्रसिद्ध व्यंग्यकार रवीन्द्रनाथ त्यागी अपने संस्मरण ‘पचास वर्ष पूर्व का प्रयाग’ में लिखते हैं ‘बख्शी जी अत्यंत साधारण स्तर का जीवन जीते थे, पर साहित्य पर उनकी असाधारण पकड़ थी। साहित्य के अतिरिक्त कोई और शगल उनका था ही नहीं। वे बहुत ही दीन व संकोची स्वाभाव के व्यक्ति थे, जिन्होंने विश्व साहित्य का गहरा अध्ययन किया था। वे प्रेमचंद और पंत के भक्त अनुचर थे। देवबिहारी और मतिराम जैसे कवियों के प्रेमी थे; पर पद्माकर से उन्हें इतना मोह था कि कुछ कहा ही नहीं जा सकता। देवकीनंदन खत्री व मैथिलीशरण गुप्त के उपासक थे; पर वे यह कहने में कोई संकोच नहीं करते थे -‘भविष्य जो है वह प्रेमचंदजैनेंद्रकुमारपंत और निराला का ही हैकिसी और का नहीं।

बख्शी जी को देखकर पता चलता था कि एक समर्पित साहित्यकार कैसा होता है। मित्रों के दबाव के फलस्वरूप उन्होंने विश्व साहित्य का अनुशीलन’ नामक आलोचनात्मक निबंध संग्रह भी लिखे, जो मील के पत्थर हैं। वे साहित्य के मूक साधक थे और इस कारण भी उनको उचित सम्मान नहीं मिला; हालाँकि उनमें महान प्रतिभा थी। निराला जी भी उनकी प्रतिभा के कायल थे और पंत जी उन पर जान देते थे।

पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी ‘सरस्वती’ के संपादक बनकर जब फिर प्रयाग आए, तो पत्रिका का स्तर बहुत ही ज़ल्दी ऊपर उठने लगा। वे हिन्दी के महानतम निबंधकार हैं। गुलेरीजी की ‘उसने कहा था’ नामक कहानी की भाँतिबख्शी जी का रामलाल पंडित’ नामक एक निबंध ही उन्हें अमर रखने के लिए काफी है। यह दुखद है कि विद्यानिवास मिश्र ने जब निबंध संग्रह तैयार किया, तो उन्होंने ‘आधुनिक निबंधावली’ में राम मनोहर लोहिया और कमलापति त्रिपाठी जैसे लोगों की रचनाओं को शामिल किया, पर बख्शी जी को लेना वे भूल गए।

वे लगभग दो वर्ष प्रयाग में रहे। उसके बाद उन्होंने इंडियन प्रेस के मालिक हरिकेशव घोष (पटल बाबू) से सदा के लिए विदा माँगी। पटल बाबू ने उन्हें रोकने की बहुत कोशिश की; पर पता नहीं क्योंबख्शी जी ने अपने गाँव जाने की जिद न छोड़ी। प्रयाग छोड़ने से पहले उन्होंने संगम में स्नान कियापंत और निराला से अंतिम भेंट कीहिंदू-होस्टल के कर्ता-धर्ता देवीदत्त शुक्ल के साथ भोजन किया और नौसिखियों को आशीर्वाद भी दिया और कहा कि ‘सच्चा साहित्यकार वही हो सकता है, जिसमें सृजन का सुख होगा। सृजन के सुख के सामने प्रशंसापुरस्कार व यश कोई मायने नहीं रखते। साहित्य का सच्चा समीक्षक मात्र काल हैऔर कोई नहीं। उन्होंने यह भी कहा कि ‘पुराने साहित्यकारों को सदैव पढ़ते रहना चाहिए। पुराने को जाने बिना आप नया नहीं लिख सकते।

त्यागी जी लिखते हैं कि ‘उनको छोड़ने मैं स्टेशन गया और जब गाड़ी चली , तो प्रयाग को सदा के लिए छोड़ते हुए वे अत्यंत भावुक हो उठे। सभी लोगों की आँखों में आँसुओं के अतिरिक्त और कुछ नहीं था। अपने जीवन में मैंने अनेक बड़े -बड़े साहित्यकार देखे पर बख्शी जी जैसा विरक्त और नि:संग व्यक्ति कोई और नहीं देखा। बख्शी जी के जाने के बाद ‘सरस्वती छपती तो रही; पर उसमें अब पहले जैसी बात नहीं रही थी।

हरिशंकर परसाई जैसे उद्भट विद्वान विचारक भी बख्शी जी का लोहा मानते थेकहते थे- ‘बख्शी जी अत्यंत अध्ययनशील रचनाकार थे। विश्व कथा साहित्य का जितना अध्ययन और ज्ञान उन्हें था वह अन्यत्र दुर्लभ है।

पाश्चात्य प्रभाव और अपनी वैश्विक दृष्टि के बाद भी लेखक की स्थानीयता को लेकर प्रतिष्ठित आलोचक प्रमोद वर्मा जी की बख्शी जी जैसे निपट स्थानीयपन से भरे व्यक्तित्व पर यह टिप्पणी विचारणीय है- ‘स्थान और क्षेत्र से जुड़ी समस्याओं को रेखांकित करने ओर माँगों की पूर्ति के लिए संगठित होने और आंदोलन करने के लिए तो हम आज झट से तैयार हो जाते हैं;  लेकिन स्थानीयता और क्षेत्रीयता की अपनी विशिष्ट पहचान को कायम रखने की भला कितनी चिन्ता करते हैंमध्यप्रदेश और उड़ीसा के सिवान पर स्थित बालपुर के लोचनप्रसाद और मुकुटधर पांडेय तथा खैरागढ़ के पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी पूरी तरह अपने गाँव घर के होने के कारण ही सम्पूर्ण हिन्दी भाषी क्षेत्र के हो सके थे। वे अपनी स्थानीयता और क्षेत्रीयता के प्रति बेहद सजग और क्षेत्रीय संस्कृति को लेकर बेहद गर्वित थे। अपनी क्षेत्रीयता और स्थानीयता को उन्होंने दुशाले की तरह नहीं वरन देह की तरह धारण करते हुए वे वस्तुतः सम्पूर्ण समाज और देश के थे। भाषा-भूषा और रहन-सहन इत्यादि से खाँटी देसी बल्कि देहाती लगते थे लेकिन सोच का क्षितिज उनका निश्चित रुप से हमसे बड़ा था। एकदम सार्वदेशिक और सार्वकालिक।

सम्पर्कः 9009884014

डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जयंती- 3 दिसम्बर

शुचिता का सफ़रनामा


-विजय जोशी (पूर्व ग्रुप महाप्रबंधक, भेल, भोपाल)


निर्मल मन जन सो मोहि पावा                         मोहि कपट ,छलछिद्र न भावा 

     स्वाधीनता के उपरांत हमारे प्रजातंत्र में मूल्य कैसे गिरे इसका साक्षात उदाहरण है हमारी राजनीतिजिसमें नीति तो हो गई तिरोहित और शेष रह गई येन केन प्रकारेण किसी भी तरह राज करने का लोभ तथा लालसा। यही कारण है कि आज़ादी के दौर का सबसे पवित्र शब्द नेता आज स्वार्थ तथा मौकापरस्ती का प्रतीक हो गया। यह तो हुई पहली बात।

    दूसरी यह कि अपनी धरती की सौंधी महक से उपजे तथा जमीन से जुड़े सज्जनसरलनिःस्वार्थ नेताओं को हमने वह सम्मान नहीं दिया जिसके वे अधिकारी थे। केवल कुछ आभिजात्यपूर्ण परिवारों का बंधक होकर रह गया हमारा प्रजातंत्रजो हमारी कृतघ्नता का सूचक है। तो आइए आज इन पलों में हम चिंतन करें राजनैतिक शुचिता की प्रतीक आत्मा देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के तीन प्रसंग से अपने पापों के प्रक्षालन हेतु।

1 बुद्धिमान : राजेंद्र बाबू बचपन से ही कितने ज़हीन थे इसका साक्षात प्रमाण प्रसंग- जब कलकत्ता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा में न केवल उन्हें प्रथम स्थान प्राप्त हुआ बल्कि 30 रु./ माह का वज़ीफा भी, जो उन दिनों बहुत अधिक था। कालांतर में प्रेसीडेंसी कालेज में परीक्षा के दौरान जब उन्होंने 10 में से केवल 5 प्रश्नों के उत्तर देने की बाध्यता से परे जाकर सब प्रश्नों के उत्तर देते हुए परीक्षक से कोई भी 5 के आकलन की सुविधा प्रदान की तो खुद परीक्षक ने उनकी उत्तर पुस्तिका पर लिखा कि परीक्षार्थी परीक्षक से अधिक बुद्धिमान हैजो आज भी रेकार्ड में सुरक्षित है। 

2 .   राष्ट्रधर्म : राजनैतिक शुचिता तथा कर्तव्य परायणता से परिपूर्ण। 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रपति समारोह के मुख्य अतिथि स्वरूप परेड की सलामी लेते हैं। वर्ष 1950 में समारोह की पूर्व रात्रि उनकी बहन भगवती देवी का निधन हो गया। उन कठिन पलों को किसी से भी न साझा करते हुए वे सुबह परेड में उपस्थित थे तथा समारोह समाप्ति के पश्चात् ही अंतिम क्रिया में सम्मिलित हुए। है क्या इतिहास में ऐसा कोई दूसरा उदाहरण।

3 गाँधी जी, आज़ादी के बाद स्वीकारी गई धर्मरहित राजनीति के पक्षधर नहीं थे। राजेंद्र बाबू भी गाँधी के समान ही निर्मलनिःस्वार्थधर्म विश्वासी व्यक्ति थे। उनके काल में जब सोमनाथ का जीर्णोद्धार हुआ तथा उन्हें लोकार्पण हेतु के. एम. मुंशी द्वारा आमंत्रित किया गया तो तत्कालीन राजनैतिक नेतृत्व की मनाही के बावजूद वे उस धार्मिक कम तथा सांस्कृतिक अधिक, समारोह में सम्मिलित हुए। यह बात दूसरी है कि इसकी उन्हें बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। खतरे में पड़ी दूसरी पारी के राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी के बारे में तो कहा जाता है कि सबसे बड़ा योगदान मौलाना आज़ाद का था। और तो और पद त्याग के बाद उन्हें देश का प्रथम पुरुष रह चुकने के बाद भी दिल्ली में एक अदना सा मकान तक मुहैया नहीं किया गया। नतीजतन उन्हें पटना लौटना पड़ा और वहाँ भी दिल्ली दरबार की सरकारी आवास न प्रदान करने के निर्देश के कारण सदाकत आश्रम में जीवन के अंतिम पल बेहद कठिन परिस्थितियों में गुजारने पड़े। उनके निधन पर दिल्ली से किसी की भी भागीदारी तक न केवल प्रतिबंधित की गई बल्कि उनके परम मित्र तत्कालीन राज्यपाल राजस्थान डॉ. सम्पूर्णानंद तक को अंतिम क्रिया में जाने से रोक दिया गयाराजधानी में उनके लिए समाधि स्थल तो बहुत दूर की बात है।

    अब सोचिये ऐसा कोई दूसरा उदाहरण देखने को मिल पाया हमें तथा हमारी आगत पीढ़ी को आज़ादी के उपरांत। कहाँ गए ऐसे लोग जिनका अपने प्राणों को देश पर उत्सर्ग करने के बावजूद इतिहास में कहीं नाम तक नहीं है। 

वक़्त की रेत पर कदमों के निशाँ मिलते हैं           जो लोग चले जाते हैं वो लोग कहाँ मिलते हैं 

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