बकरी चराने वाले लड़कों के लिए यह इलाका एकदम निरापद था। इस पूरे क्षेत्र में बकरी पालन का व्यवसाय इसीलिए तो फल फूल रहा था। चारों ओर जंगल, पास में छोटी- छोटी पहाडिय़ां। पहाडिय़ों के बीच छोटे- छोटे मैदान। मैदान और पहाडिय़ों से सटकर बहती छोटी सी नदी और नदी के उपरी कछार पर बन गए टीले के उपर स्थित एक नामी गांव ढाबा। ढाबा का मतलब होता है भंडार। मगर यह ढाबा नाम का कोई एक ही गांव नहीं है इस क्षेत्र में। ढाबा नाम के तीन और गांव है, अत: पहचान के लिए हर ढाबा के साथ कोई विशेषण जोड़ दिया जाता है। मैं जिस ढाबा का जिक्र कर रहा हूँ उसे इस क्षेत्र में बोकरा ढाबा के नाम से जाना जाता है। बकरी पालन का व्यवसाय खूब फूला फला, इसीलिए होते- होते इसका नाम बोकरा ढाबा प्रचलित हो गया।
छत्तीसगढ़ी में बकरे को बोकरा ही कहते हैं। घर- घर तो यहां बकरे पलते हैं। सुबह हुई नहीं कि घरों से बकरों के दलों के साथ छोकरे निकल पड़ते हैं अपने निरापद चरागाह की ओर। इस चरागाह का नाम भी बोकरा डोंगरी है। अब तो गीतों में भी इस डोंगरी का नाम आने लगा है। छत्तीसगढ़ में एक लोकगीत भी प्रचलित है
'चलो जाबो रे
बोकरा चराय बर जी
बोकरा डोंगरी खार मन।'
अर्थात चलो साथियों, बोकरा डोंगरी में चले अपने अपने बकरे चराने के लिए आगे वर्णन आता है कि डोंगरी में घास बहुत है। पेड़ों की छाया है। पास में बहती है नदी।
यह बात भी सोची जा सकती है कि गांव का नाम 'बोकरा ढाबा' ही क्यों पड़ा। आखिर इस रूप में गांव की पहचान क्यों बनी -
हुआ यूं कि काशीराम यादव रोज की तरह अपनी बकरियां, भेड़ें लेकर पांच बरस पहले एक दिन बड़े फज़र निकला डोंगरी की ओर। साथ में उसका पंद्रह बरस का लड़का हीरा भी था। हीरा तालापार के स्कूल में आठवीं तक पढ़कर निठल्ला बैठ गया था। उसके घर में पूंजी के रूप में मात्र तीस बकरियां और भेड़ें थीं। बाप बकरी चराकर उसे आठवीं तक ही पढ़ा पाया। स्कूल तो इस क्षेत्र में दस मील दूर एक ही गांव में था। नदी के उस पार तालापार में वह स्कूल जाता था। ढाबा से सिर्फ दो लड़के अब तक आठवीं पास कर सके हैं। एक यह हीरा, दूसरा समारू। दोनों के बाप बकरी चराते थे। दोनों आठवीं पास करने के बाद खाली बैठ गये। नौकरी लगती तब कुछ और पढ़ लेते। घर की हालत इतनी अच्छी नहीं कि उनके बाप शहर भेजकर उन्हें आगे पढ़ा पाते। इसीलिए वे भी अपने बाप के साथ चल निकलते डोंगरी की ओर।
उस दिन कांशीराम के साथ हीरा भी जा रहा था। आगे- आगे बकरियां चर रही थी बकरियों के गले में टुनुन टुनुन बजती घंटियां। कुछ बड़ी बकरियों के गले में छोलछोला। एक दो गाय भी थीं। बहुत हरहरी थीं और भागती बहुत थी, इसीलिए उनके पावों में काशी ने लकड़ी का गोडार बांध दिया था। सब जानवर आगे आगे जा रहे थे। अभी मैदान आया ही था कि दो मोटर साइकिलों से लंबी लंबी मूँछोवाले चार लोग उतरकर खड़े हो गए। उनके हाथें में लाठियां थीं एक के हाथ में चिडिय़ां मारने की बंदूक भी थी। काशी को रोकरकर एक लम्बे से आदमी ने कहा, 'रूक बे बोकरा खेदा'। काशी को उसका यह कथन बुरा तो लगा, मगर वह जान गया कि या तो ये जंगल विभाग के आदमी हैं या पुलिस या फिर पास वाले कस्बे के दारू ठेकेदार के बंदे। हीरा के साथ सहमते हुए काशी उन्हें सलाम कर खड़ा हो गया।
उनमें से एक नौजवान ने कहा, 'भाई मियां, क्या आदमी का शिकार करना है चिडिय़ा तो साली कोई मरी नहीं।'
मूँछ वाले ने उसकी बात का मजा लेते हुए कहा, 'यार तुम भी हो अकल के दुश्मन। अरे भाई, आदमी तो यहां कोई रहता नहीं। बकरी चराते हैं सब साले। सभी जानवर की तरह हैं। तुम भी यार चश्मा लगाओं आंखों में। यह लंडूरा तुम्हें आदमी दिखता है क्या?'
कहते हुए उसने काशी के हाथ की बांसुरी छीन ली। हीरा ने अचानक चिल्लाकर कहा, 'बांसुरी क्यों छीनते हैं हमने क्या बिगाड़ा है तुम्हारा ' मुछियल ने एक लात हीरा के कूल्हे पर जमाते हुए कहा, 'तुम क्या बिगाड़ोगे साले बिगाडऩे के लिए चाहिए दम! अब जो भी बिगाडऩा होगा हम बिगाड़ेंगे।'
हीरा मार खाकर जमीन पर गिर गया। उसके मुंह से खून आने लगा। काशी दौड़ पड़ा बेटे को उठाने के लिए। तब तक चारों में से सबसे तगड़े लगने वाले व्यक्ति ने हुकुम दे दिया। 'उठा लो साले के दो बकरे। लौंडा तो लात खाकर सुधर ही गया। चलो डालो रवानगी।'
बकरों को जब उन्होंने कंधों पर लादा तो बाप बेटे उनके पीछे दौड़ पड़े। बकरे 'मैं मैं' कर अपने चरवाहे मालिकों से आर्तनाद कर छुडा़ लेने का आग्रह करते रह गए। बाप बेटे को दौड़ते देखा तो उन लोगों ने कुछ छर्रे भी बंदूक से चला दिए। काशी के पांव में छर्रा जा लगा। वह बावला हो गया। उसने उठाकर एक पत्थर पीछे वाले के पीठ पर दे मारा। पत्थर लगते ही वह तिलमिलाकर रूक गया। चारों वहीं मोटर साइकिल रोककर खड़े हो गए। उनमें से एक आदमी ने सबको रूक जाने को कहा और अकेला ही लहकते हुए आगे बढ़ा। उसने एक लम्बा सा चाकू निकाला और एक झटके में काशी के पेट में पूरा घुसा दिया। हीरा बाप से लिपटकर रोने लगा। तब तक और चरवाहे भी आने लगे। हत्यारे बकरों को लादकर भाग गए। उसी रात हीरा के सिर से बाप का साया हट गया।
'बोकरा ढाबा' में हुई यह पहली हत्या थी। चारों तरफ शोर उड़ गया कि काशी यादव दिन दहाड़े मार दिया गया। आसपास के गांवों में बात फैल गई। लोग कुछ दिन तो बोकरा डोंगरी की ओर बकरों के साथ नहीं आए, फिर सब भूल भाल गए।
अब हीरा ही घर का सयाना हो गया। अपनी विधवा मां और छोटे भाई बसंत का पालनहार। वह बकरियां चराता और घर का भार उठाता। साल भर बाद हीरा के गांव में एक दिन मरे हुए जानवर के शरीर से उठने वाली दुर्गंध भर गई। लोग ओक ओक करने लगे। सयानों ने बताया कि नदी के किनारे पर यहां से दस कोस की दूरी पर एक शराब का कारखाना खुला है। उसमें शराब बननी शुरू हो गई है। तब हीरा को पता चला कि यह जो मरे हुए जानवर के शरीर से उठने वाली गंध से भी बदबूदार गंध गांव में घुसी है, वह है क्या आखिर। फिर धीरे- धीरे एक और मुसीबत आने लगी। नदी का पानी भी दूषित होने लगा। बहकर जो चमचम चममच पानी आ रहा था वह कुछ- कुछ ललहू हो जाता था, मटमैला। उसका स्वाद भी कुछ कसैला होने लगा। बकरियां वह पानी पीकर बीमार होने लगी। कुछ मर भी गईं। आस- पास के गांव वाले परेशान होने लगे। बोकरा डोंगरी में हलचल कम हो गई। लड़के वहां डंडा पचरंगा खेलते, कबड्डी खुडुवा जमाते थे। मगर अब घूम-घामकर ही आ जाते। डोंगरी में लगे जंगली पेड़ों के पत्ते भी झडऩे लगे। त्राहि- त्राहि मचने लगी। गांववाले अधमरे हो गए। उन्हें कुछ भी न सूझता।
एक दिन हीरा ने देखा, एक जीप में चार पांच लोग गांव में आए। उनमें वही मुछियल तगड़ा जवान भी था जिसके छूरे से उसके बाप की जान गई थी। जीप बीच गांव में रूकी। उस जीप से एक अफसरनुमा व्यक्ति उतरा। अफसर ने कहा, 'पास में हमारा कारखाना है। वहां हम आपके गांव के लोगों को नौकरी देंगे। ये हमारे सुरक्षा अधिकारी हैं। आप जाकर इनसे गेट पर मिलिए। ये आपको भीतर भेज देंगे।' इतना कहकर मुछियल को साथ लेकर अफसर जीप में बैठने लगा। हीरा जीप के आगे जाकर बोला, 'रूकिए साहब।'
'क्या बात है भाई।' अफसर ने कहा।
'मैं हूँ हीरा।'
'तुम भी आ जाना।'
'मेरे बाप का नाम काशी। '
'उन्हें भी लेते आना।'
'वो अब नहीं हैं साहब।'
'ओ हो, मुझे दुख है।'
'दुख नहीं साहब, आपको काहे का दुख। जो लोगों की जान लेता है, वह तो आपका सुरक्षा अधिकारी है। दुख काहे का जो मारे जान, उसे तो आप सिर पर चढ़ाए घुम रहे हैं।'
अफसर अब जीप से उतर गया। मुछियल भी सर नवाए जमीन पर आ खड़ा हुआ।
गांव के लोग भी जमीन पर आ खड़े हुए। हीरा से सभी बातें सुनकर अफसर ने कहा, 'भाई हीरा, तुम हो हिम्मती नौजवान। हम तुमसे खुश हैं। हम तुम्हें अच्छी नौकरी देंगे। बाप तो अब है नहीं। जो हुआ सो हुआ। अब आगे की सोचो। गुस्से में काम नहीं बनता।'
हीरा ने कहा, 'साहब समय से सम्हलना जरूरी है। मुझे वह दिन भूलता नहीं जब इस आदमी ने छूरे से मेरे बाप को मार गिराया था, इसलिए बाप की लाश कंधे से उतरती नहींं है। मुझे लगता है कि धीरे- धीरे पूरा छत्तीसगढ़ उसी तरह जमीन पर गिरकर तड़पेगा, जैसे मेरा बाप तड़पा था। और उसकी लाश पर आप लोग एक के बाद एक कारखाने लगाकर मुंह में मिश्री घोलते हुए कहेंगे कि पीछे की भूलो और आगे बढ़ो। साहब, हम लोग मूरख तो हैं, मगर अंधे नहीं। देख रहे हैं सारा खेल। आंखें हमारी देखने भी लगी हैं साहब। लेकिन आप लोग आंखों में टोपा बांध रखे हैं।'
अब साहब उखड़ गए। उन्होंने कहा, 'लड़के, देख रहा हूँ कि बहुत चढ़ गए हो। बाप की गति देखकर भी सुधार नहीं हुआ है। ऐंठते ही जा रहे हो। फूंक देंगे तो सारा इलाका उजड़ जाएगा।'
अफसर अभी बात कर ही रहा था कि मुछियल ने निकाल लिया चाकू और हीरा के हाथ में थी तेंदूसार की लाठी। धाड़ की आवाज हुई और चाकू दूर जा गिरा। मुछियल का हाथ टूटकर झूल गया था। तब तक अफसर ने अपना पिस्तौल निकाल लिया था, मगर उसने देखा कि सैकड़ों नौजवान लाठियों से लैस होकर उसकी ओर 'मारो मारो' कहते हुए बढ़ रहे हैं।
मुछियल को जीप में बैठाकर अफसर वहां से भागने लगा। हीरा ने झट दौड़कर गिरा हुआ चाकू उठा लिया। खुली हुई जीप थी। सारे बोकरा ढाबा की बकरियां इधर उधर बगरकर चर रही थी। गांव के लोग तो वहीं उलझे खड़े थे। गांव टीले पर है इसलिए जीप नीचे की ओर सर्र से भाग रही थी। हीरा को पता नहीं क्या हुआ कि उसने उठाकर चाकू जीप की ओर फेंक दी।
चाकू लगा ठीक ड्राइवर के सिर पर। ड्राइवर का संतुलन बिगड़ गया। गाड़ी उलट- पलट हो गई और देखते ही देखते सवारो के साथ गहरी नदी में जा गिरी। नदी के जल में शराब का मैल घुला हुआ था। अचेत सवार जल के भीतर समाते चले गए।
संपर्क: एलआईजी-18, आमदीनगर, हुडको, भिलाईनगर 490009, मो. 9827993494
डॉ. परदेशी राम वर्मा की कहानी 'विसर्जन'
हिन्दी और
छत्तीसगढ़ी में समान रूप से लिखकर देश भर में पहचान बनाने वाले चुनिंदा साहित्यकारों में से एक डॉ.परदेशी राम वर्मा ने कहानी, उपन्यास, संस्मरण, जीवनी, निबंध, शोध प्रबंध आदि सभी विधाओं में पर्याप्त लेखन किया है। उनके अब तक पाँच कथा संग्रह, दो उपन्यास, नौ संस्मरण एवं एक नाटक प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी कृति 'औरत खेत नहीं' कथा संग्रह को अखिल भारतीय साहित्य परिषद द्वारा मदारिया सम्मान प्राप्त हुआ है। तीन हिन्दी तथा एक छत्तीसगढ़ी कहानी पुरस्कृत हुई है। उनकी पत्रिका 'आरूग फूल' को मघ्यप्रदेश साहित्य परिषद का सप्रे सम्मान और उपन्यास 'प्रस्थान' को महन्त अस्मिता पुरस्कार प्राप्त हुआ है। उनके छत्तीसगढ़ी उपन्यास 'आवा' को रविशंकर विश्वविद्यालय में एमए हिन्दी के पाठयक्रम में सम्मिलित किया गया है। वे 'आगासदिया' पत्रिका का संपादन करते हैं।
उदंती के पिछले अंकों में 'हिन्दी की यादगार कहानियां' स्तंभ के अंतर्गत अब तक देश के 15 प्रसिद्ध कथाकारों की कहानियां प्रकाशित की जा चुकी हैं। जिसका संयोजन डॉ. परदेशी राम वर्मा कर रहे थे। उनकी कथा संग्रह 'औरत खेत नहीं' में प्रकाशित एक विशिष्ठ कहानी 'विसर्जन' के जरिए इस स्तंभ का समापन कर रहे हैं। इस कहानी में उन्होंने छत्तीसगढ़ के ग्रामीण जीवन की एक त्रासद भरी झांकी प्रस्तुत की है। आज से चार दशक पहले मध्यप्रदेश शासन ने नदी किनारे शराब का कारखाना डलवाया था जिससे पानी तो प्रदूषित हुआ ही युवा पीढ़ी नशे की गिरफ्त में आ गई, जिसका दुष्परिणाम आज तक गांवों में देखने को मिलता है। विश्वास है पाठकों को उनकी यह आंचलिक कहानी पसंद आयेगी।
- संपादक