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Dec 28, 2011

उदंती.com-दिसम्बर 2011


मासिक पत्रिका वर्ष2, अंक 4, दिसम्बर 2011
हताश न होना ही सफलता का मूल है, और यही परम सुख है।
- वाल्मीकि

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अनकही: बढ़ती जनसंख्या के खतरे - डॉ. रत्ना वर्मा
नई दिल्ली के सौ साल: किलों और महलों का शहर - एम गोपालाकृष्णन
देसी और विदेशी संस्कृति का संगम- नौरिस प्रीतम
प्रेरक कथा:
पत्थर सींचना
पर्यावरण: कुछ यूं कि आधा किलो डब्बे ....
मुद्दा: ऑनलाइन जुबान पर ताला -लोकेन्द्र सिंह राजपूत
श्रद्धांजलि: 20वीं सदी का सदाबहार नायक - विनोद साव
देव साहब और उनकी नायिकाएँ...
मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया...- कृष्ण कुमार यादव
सेहत: पालक का हाथ और पोई का दिल... - डॉ. किशोर पंवार
हाइकु: मेरे कृष्ण मुरारी - डॉ. जेन्नी शबनम -खेलों में उपयोगी हो सकता है लाल रंग
जीव- जंतु: गैंडों को मिलेगा नया घर लेकिन.... - देवेन्द्र प्रकाश मिश्र
वाह भई वाह
कहानी: विसर्जन - डॉ. परदेशीराम वर्मा
व्यंग्य: एक अलमारी सौ चिंतन - प्रमोद ताम्बट
लघुकथाएं - आलोक कुमार सातपुते
ग़ज़ल: दर्द आंसू में ..., नींद की मेजबानी - जहीर कुरेशी
पिछले दिनों
स्मरणः भला ऐसे भी कोई जाता है - डॉ दुष्यंत
श्रद्धांजलिः सारंगी के उस्ताद सुल्तान खान
दुनिया के सात नए आश्चर्य

बढ़ती जनसंख्या के खतरे

बढ़ती जनसंख्या के खतरे
-डॉरत्ना वर्मा
साल के अंत में बीते दिनों की उपलब्धियों और नुकसान का लेखा- जोखा करने का एक रिवाज सा बन गया है, ताकि हम आने वाले साल को और बेहतर बना सकें। यूं तो हमने हर माह किसी न किसी समस्या और समाज के ज्वलंत मुद्दों को उठाया है, लेकिन साल के इस अंतिम माह में हम एक ऐसे मुद्दे को अपने पाठकों के साथ मिलकर उठाना चाहते हैं जो विश्व के लिए एक भयंकर समस्या के रूप में उभर कर सामने आ रही है- और वह है दुनिया भर में तेजी से बढ़ती जनसंख्या। हमें विश्वास है कि जनसंख्या को लेकर जिन समस्याओं की चर्चा जोर- शोर से मीडिया और समाज में इन दिनों की जा रही है उसके कारगर समाधान के लिए भी उतनी ही गंभीरता से चर्चा की जाएगी।
संयुक्त राष्ट्र संघ की घोषणा के अनुसार 31 अक्टूबर 2011 को विश्व की जनसंख्या 700 करोड़ हो गई है। इस आंकड़े को पंहुचाने वाली भारत में जन्मी किसान की बेटी नरगिस को सात अरबवाँ बच्चा घोषित किया गया है। बच्चों के अधिकारों के हित में काम करने वाली प्लान इंटरनेशनल संगठन के अनुसार भारत में कन्या भ्रूण- हत्या और असंतुलित लिंग अनुपात जैसी समस्याओं पर चेतना जागृत करने के लिये ही एक गरीब किसान की बेटी नरगिस को प्रतीकात्मक रूप से सात अरबवाँ बच्चा माना गया है।
जनसंख्या कोष ने जनसंख्या के सात अरब हो जाने का स्वागत तो किया है लेकिन चेतावनी भी दी है कि दुनिया के लिए इन परिस्थितियों में जीने के सीमित साधन उपलब्ध हैं। क्योंकि शताब्दी के अंत तक यह आंकड़ा दुगुना होने की सम्भावना है। किए गए आकलन के अनुसार भारत जैसे विकासशील देशों पर जनसंख्या का प्रभाव सर्वाधिक पड़ेगा। सन 2030 में आबादी के लिहाज से भारत विश्व का सर्वाधिक विशाल देश होगा और यह वृद्धि बेरोजगारी और निर्धनता को और अधिक बढ़ायेगी। जनसंख्या गणना 2011 के अनुसार भारत की आबादी 1210,193,422 (1.21 अरब) आंकी गई। भारत में हर एक मिनट में 51 बच्चों का जन्म होता है। नेशनल ज्योग्राफिक पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट में विश्व में प्रतिवर्ष आठ करोड़ बच्चों का जन्म हो रहा है। इसमें सबसे ज्यादा योगदान गरीब देशों का है। वर्ष 2001-11 के मध्य इसमें और अधिक वृद्धि दर्ज की गई है। 1960 में दुनिया की आबादी तीन अरब थी जो 1999 में छह अरब हो गई। संयुक्त राष्ट्र संघ ने 2025 तक यह जनसंख्या आठ अरब से अधिक होने का अनुमान व्यक्त किया है।
बढ़ती जनसंख्या न केवल भारत के लिए बल्कि सम्पूर्ण विश्व के लिए चिंता का विषय है। देश गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी, अल्पपोषण व खाद्यान संकट की ज्वाला में धधक रहा है, जो आतंकवाद, गुण्डागर्दी, भ्रष्टाचार, कालाबाजारी, हेराफेरी व तस्करी जैसी अवांछनीय गतिविधियों के बढ़ावा देने के लिए भी जिम्मेदार है। गरीबी निवारण हेतु क्रियान्वित तमाम योजनाओं के बावजूद भी सच्चाई यह है कि देश की लगभग 42 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करती है।
बढ़ती जनसंख्या हमारे पर्यावरण को भी प्रभावित कर रही है जो दिन प्रतिदिन विकराल होती चली जा रही है। जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, मृदा प्रदूषण जैसी समस्याओं का कारण बढ़ती जनसंख्या ही है और यह प्रदूषण मानव, पशु, पक्षी व वनस्पति के लिए खतरनाक साबित हो रही है। इन सभी भयावह दुष्परिणामों को दृष्टिगत रखते हुए यह बहुत जरूरी हो गया है कि देश का प्रत्येक नागरिक जनसंख्या के बढ़ते तूफान को रोकने के लिए हरसंभव सहयोग व योगदान दे। परिवार नियोजन कार्यक्रम के प्रभावी क्रियान्वयन, शिक्षा व जागरुकता का प्रचार तथा गरीबी, रुढि़वादिता व अंध विश्वासों के निवारणार्थ कड़े कदम उठाए। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष ने भी अपने वार्षिक रिपोर्ट में शिक्षा, युवाओं के लिए रोजगार के अवसर, बुजूर्गों की देखरेख, जल संसाधन, योजनाबद्ध शहरी विकास और जनसंख्या पर नियंत्रण जैसे अहम क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करने की जरुरत बताई है। यह एक ऐसी विकराल समस्या है जिसका निवारण एक दिन या एक उपाय मात्र से नहीं किया जा सकता। पूरी दुनिया को संयुक्त रूप से इसके लिए प्रयास करने होंगे। अफसोस जनक बात यह है कि हमारे देश के कर्णधार इन दिनों देश की समस्याओं के निवारण में ध्यान देने के बजाय अपनी कुर्सी बचाने में ज्यादा ध्यान देते हैं।
फिर भी हम उम्मीद करते हैं कि आने वाले वर्ष में जनसंख्या के इस बढ़ते विस्फोट से जूझने के लिए ऐसे तमाम उपाय किए जाएंगे जिससे आने वाली पीढ़ी एक स्वस्थ और सुकून भरे वातावरण में सांस लेते हुए खुशहाल जिंदगी जी सके।

देसी और विदेशी संस्कृति का संगम

1965 में सप्रू हाउस बनने के बाद तो जैसे दिल्ली की सांस्कृतिक काया पलट हो गयी। आधुनिक तकनीक और यंत्रों से लैस इस हॉल में संगीत समारोह होने लगे और विदेशी फिल्मों के शो भी शुरू हो गए। दिल्ली के मंडी हाउस को कला का अड्डा बनाने में सप्रू हाउस का बड़ा योगदान है।
सांस्कृतिक गलियारों से उभरती दिल्ली
आजादी से पहले भी दिल्ली में संगीत, मुशायरों और दूसरे सांस्कृतिक कार्यक्रमों की महफिलें जमती थी पर उनमे खास बात ये थी कि पुरानी दिल्ली में देसी कार्यक्रम होते थे तो नई दिल्ली में पश्चिमी संगीत और नृत्य का बोलबाला था।
पुरानी दिल्ली में संगीत कुछ ही लोगों या समुदाय तक सीमित था। यहां तक की महिलाओं की भागीदारी तो बिलकुल ना के बराबर थी। किसी हद तक तो उसे ठीक नजर से देखा भी नहीं जाता था इसीलिए अजमेरी गेट के करीब बदनाम जी बी रोड के कोठों से गूंजती गजल या ठुमरी की आवाज को ही संगीत की संज्ञा दी जाती थी। जो भारतीय संगीत होता भी था उसके आयोजन के लिए कोई बड़ा हॉल भी नहीं था। उस समय इन संगीत सम्मेलनों को संगीत की कांफ्रेंस कहा जाता था और यह अक्सर कुतुबमीनार या फिरोज शाह कोटला में बड़े घास के मैदानों में होती थी या फिर उन रईस लोगों के घर में जिन्हें संगीत से लगाव था।
दिल्ली की मशहूर सरोद वादक स्वर्गीय शरण रानी बेक्लिवाल के पति एस एस बेक्लिवाल के अनुसार 'उस समय सब तरफ पश्चिमी नाच और संगीत का बोलबाला था। संगीत और कला को ठीक नजर से नहीं देखा जाता था।' 77 साल के फादर जॉन कैल्ब के अनुसार 'लड़की तो लड़की, पुरुषों का संगीत सीखना भी अच्छा नहीं माना जाता था। मुझे याद है मैं तबला सीखने पहाडग़ंज जाता था हालांकि मैं पंडित हुस्न लाल भगत राम जी के पास जाता था जिन्होंने लता मंगेशकर को भी तालीम दी लेकिन लोग समझते थे कि मैं कोठे पर बजाने जा रहा हूँ।'
जहां तक नई दिल्ली की सवाल है तो कनॉट प्लेस के होटलों में या क्रिसमस जैसे त्योहारों पर डांस होता और बाकी दिनों में पश्चिमी शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम होते थे। रीगल सिनेमा हॉल उस समय सांस्कृतिक कार्यक्रमों का अड्डा माना जाता था। वहां अक्सर शेक्सपीयर के नाटक होते थे और जवान लोग एक पारसी महिला दीना रोड़ा से बॉल रूम डांस सीखने आते थे।
रीगल सिनेमा हॉल
कनॉट प्लेस में आए दिन शॉपिंग करने वाले शायद ही जानते हों की किसी समय यह इलाका दिल्ली का सांस्कृतिक अड्डा भी होता था। हिन्दुस्तानी स्कूल ऑफ म्यूजिक एंड डांसिंग की स्थापना 1936 में कनॉट प्लेस में हुई थी। संगीत नाटक अकादमी भी इसी सिनेमा हॉल से चालू हुआ था, और आज के दिनों का मशहूर गंधर्व महाविद्यालय भी कनॉट प्लेस के सी ब्लाक से शुरू हुआ था। मंडी हाउस का त्रिवेणी कला संगम भी 1951 में कनॉट प्लेस के एक कॉफी हाउस में शुरू हुआ था। गंधर्व महाविद्यालय आज दीन दयाल उपाध्याय मार्ग पर एक शानदार इमारत में चल रहा है और उसके संस्थापक पंडित विनय चन्द्र मृदुल के पुत्र और जाने माने गायक विपुल मृदुल उसके प्रिंसिपल हैं।
दिल्ली को पंडित नेहरु की देन
सही मायने में दिल्ली की सांस्कृतिक तस्वीर 1947 में ब्रिटिश राज के बाद ही बदली। इसका काफी श्रेय जाता है तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरु को। पंडित नेहरु ने संगीत और कला को काफी प्रोत्साहन दिया और एक के बाद एक बड़े हॉल दिल्ली में बने जहाँ कार्यक्रम होने लगे। 1952 में संगीत नाटक अकादमी, दो साल बाद साहित्य अकादमी और ललित कला अकादमी और 1959 में नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा दिल्ली को पंडित नेहरु की ही देन कहना होगा। इनके बाद शहर में 1961 में रवींद्र भवन का निर्माण हुआ। मौजूदा दौर में बदलावों की गवाह दिल्ली 1965 में सप्रू हाउस बनने के बाद तो जैसे दिल्ली की सांस्कृतिक काया पलट हो गयी। आधुनिक तकनीक और यंत्रों से लैस इस हॉल में संगीत समारोह होने लगे और विदेशी फिल्मों के शो भी शुरू हो गए। दरअसल दिल्ली के मंडी हाउस को कला का अड्डा बनाने में सप्रू हाउस का बड़ा योगदान है। वहां आने वाले कलाकारों की वजह से ही वहां पर नेशनल स्कूलऑफ ड्रामा, संगीत नाटक अकादमी और कमानी हाल का निर्माण हुआ। और तब दिल्ली में दौर शुरू हुआ भारतीय संगीत और कला का। यहां तक की 1960 में दिल्ली में मशहूर संगीत वाद्य यंत्रों की दुकान, गोदीन ने मजबूर होकर सितार और तबले आदि बेचना शुरू किया। उससे पहले इस दुकान पर सिर्फ पियानो ही बिकता था। दिल्ली ने बॉलीवुड को भी कई बड़े सितारे दिए जिनमें शाहरुख खान का नाम प्रमुख है। उनका एक्टिंग करियर मंडी हाउस से ही शुरू हुआ था। इसके इलावा नीना गुप्ता, अनंग देसाई, राम गोपाल बजाज ने भी मंडी हाउस की चाय की दुकानों से अपना कला जीवन आरम्भ किया। मशहूर पेंटर मकबूल फिजा हुसैन ने भी अपना काफी समय बंगाली मार्केट की दुकानों और ढाबों में बिताया।
दिल्ली की सांस्कृतिक धरोहर
आज जब नई दिल्ली की स्थापना के सौ वर्ष हो गए हैं तो उन कलाकारों को नहीं भुलाया जा सकता जिन्होंने दिल्ली शहर को देश विदेश में मान दिलाया। इनमें सरोद वादक शरण रानी, तबला वादक फय्याज खा और शफात खान, सारंगी नवाज सबरी खान, बिरजू महाराज, कत्थक नृत्यांगना उमा शर्मा, ओडिसी नृत्यांगना माधवी मृदुल के नाम शामिल हैं। वैसे कुछ ऐसे कलाकार भी हैं जो आए तो बाहर से थे लेकिन बसे दिल्ली में और उसे सम्मान भी दिया। इनमें पंडित रवि शंकर, उस्ताद अमजद अली खान शामिल हैं। संगीत और नृत्य के इलावा जाने माने लेखक खुशवंत सिंह भी दिल्ली की महान धरोहर का हिस्सा हैं। (नौरिस प्रीतम- डायचे वेले से)

किलों और महलों का शहर दिल्ली


ब्रिटिश वास्तुकला ने दिल्ली के किलों और महलों के बीच अपनी जगह बना ली। एड्विन लुटियंस ने इंडिया गेट, राष्ट्रपति भवन सहित नई दिल्ली को एक आधुनिक रूप दिया। दिल्ली कुल आठ शहरों को मिलाकर बनी है। 12 दिसंबर 2011 को नई दिल्ली की स्थापना हुए 100 साल हो गए। -
एम. गोपालाकृष्णन
सदियों से हिंदुस्तान पर हक जताने वाले सुल्तानों और शासकों ने दिल्ली को अपनी राजधानी बनाया। ब्रिटिश हुकूमत के साथ ही हर सल्तनत ने दिल्ली पर अपनी पहचान छोड़ी जिसके निशान कोने- कोने में मौजूद हैं। 100 साल पहले, अंग्रेज शासकों ने भारत की राजधानी को कोलकाता से दिल्ली लाने का फैसला लिया और नई दिल्ली बनाई। लेकिन दिल्ली का अपना इतिहास 3000 साल पुराना है। माना जाता है कि पांडवों ने इंद्रप्रस्थ का किला यमुना किनारे बनाया था, लगभग उसी जगह जहां आज मुगल जमाने में बना पुराना किला खड़ा है।
हर शासक ने दिल्ली को अपनी राजधानी के तौर पर एक अलग पहचान दी, वहीं सैंकड़ों बार दिल्ली पर हमले भी हुए। शासन के बदलने के साथ साथ, हर सुल्तान ने इलाके के एक हिस्से पर अपना किला बनाया और उसे एक नाम दिया। माना जाता है कि मेहरौली के पास लाल कोट में आठवीं शताब्दी में तोमर खानदान ने अपना राज्य स्थापित किया था लेकिन 10वीं शताब्दी में राजपूत राजा पृथ्वीराज चौहान ने किला राय पिथौड़ा के साथ पहली बार दिल्ली को एक पहचान दी। 13वीं शताब्दी में गुलाम वंश के कुतुबुद्दीन ऐबक और उसके बाद इल्तुतमिश ने कुतुब मीनार बनाया जो आज भी दिल्ली के सबसे बड़े आकर्षणों में से है। कुतुब मीनार को संयुक्त राष्ट्र ने विश्व के सांस्कृतिक धरोहर के रूप में भी घोषित किया है।
गुलाम वंश के बाद दिल्ली में एक के बाद एक तुर्की, मध्य एशियाई और अफगान वंशों ने शहर पर नियंत्रण पाने की कोशिश की। खिलजी, तुगलक, सैयद और लोधी वंश के सुल्तानों ने दिल्ली में कई किलों और छोटे शहरों का निर्माण किया। खिलजियों ने सीरी में अपनी राजधानी बसाई और शहर के पास एक किले का निर्माण किया। सीरी किले के निर्माण में आज भी अफगान और तुर्की प्रभाव देखा जा सकता है। 14वीं शताब्दी में गयासुद्दीन तुगलक ने मेहरौली के पास तुगलकाबाद की स्थापना की। किले के पुराने हिस्से और दीवारें आज भी देखी जा सकती हैं। लेकिन तुगलक शासन के चौथे शहंशाह फिरोजशाह कोटला ने तुगलकाबाद से बाहर निकलकर अपना अलग फिरोजशाह कोटला नाम का शहर बनाया। फेरोजशाह कोटला अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम इसी के सामने बना है।
16वीं से लेकर 19वीं शताब्दी तक दिल्ली की कला और वहां के रहन- सहन पर मुगल सल्तनत का प्रभाव रहा। मुगलों के समय में तुर्की, फारसी और भारतीय कलाओं के मिश्रण ने एक नई कला को जन्म दिया। जामा मस्जिद और लाल किला इसी वक्त में बनाए गए थे। दिल्ली दुनिया के सबसे पुराने शहरों में से एक है। लेकिन 1911 में नई दिल्ली की स्थापना हुई और ब्रिटिश वास्तुकला ने दिल्ली के किलों और महलों के बीच अपनी जगह बना ली। एड्विन लुटियंस ने इंडिया गेट, राष्ट्रपति भवन सहित नई दिल्ली को एक आधुनिक रूप दिया। दिल्ली कुल आठ शहरों को मिलाकर बनी है। 12 दिसंबर 2011 को नई दिल्ली की स्थापना हुए 100 साल हो गए। - एम. गोपालाकृष्णन

पत्थर सींचना

एक गर्म दोपहरी के दिन एक किसान बांसों के झुरमुट में बनी हुई जेन गुरु की कुटिया के पास रुका। उसने गुरु को एक वृक्ष ने नीचे बैठे देखा।
'खेती की हालत बहुत बुरी है। मुझे डर है कि इस साल गुजारा नहीं होगा', किसान ने चिंतित स्वर में कहा।
'तुम्हें चाहिए कि तुम पत्थरों को पानी दो', जेन गुरु ने कहा।
किसान ने जेन गुरु से इस बात का अर्थ पूछा और गुरु ने उसे यह कहानी सुनाई- एक किसान किसी जेन गुरु की कुटिया के पास से गुजरा और उसने देखा कि गुरु एक बाल्टी में पानी ले जा रहे थे। किसान ने उनसे पूछा कि वे पानी कहाँ ले जा रहे हैं। गुरु ने किसान को बताया कि वे पत्थरों को पानी देते हैं ताकि एक दिन उनपर वृक्ष उगें। किसान को इस बात पर बहुत आश्चर्य हुआ और वह आदर प्रदर्शित करते हुए झटपट वहां से मुस्कुराते हुए चला गया। जेन गुरु प्रतिदिन पत्थरों को पानी देते रहे और कुछ दिनों में पत्थरों पर काई उग आई। काई में बीज आ गिरे और अंकुरित हो गए।
'क्या यह कहानी सच है?', किसान ने आशामिश्रित कौतूहल से कहा।
जेन गुरु ने उस वृक्ष की ओर इशारा किया जिसके नीचे वह बैठे थे। किसान भी वहीं बैठ उस कहानी पर मनन करने लगा। www.hindizen.com से )

भारत के महानगरों को मारेगा मौसम

कुछ यूं कि आधा किलो डब्बे में दो किलो सामान
मैपलक्रोफ्ट ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है, 'इन शहरों में बढ़ती जनसंख्या का खराब प्रशासन, गरीबी, भ्रष्टाचार सहित अन्य सामाजिक आर्थिक कारण हैं जो निवासियों और व्यवसाय के लिए बड़ा खतरा हैं।'
जलवायु परिवर्तन का बुरा असर तेजी से बढ़ रहे शहरों पर पड़ सकता है। जलवायु परिवर्तन के खतरों को आंकने वाली संस्था की नई रिपोर्ट में यह कहा गया है। भारत, बांग्लादेश और अफ्रीका के बड़े शहर बहुत ज्यादा प्रभावित होंगे।
एशिया और अफ्रीका में तेजी से बढ़ती हुई मेगा सिटीज में जलवायु परिवर्तन से खतरे के बारे में मैपलक्रॉफ्ट कंपनी ने रिपोर्ट जारी की है। सर्वे में 200 देशों पर जलवायु परिवर्तन के असर को आंका गया है।
यह रिपोर्ट ऐसे समय में आई है जब एक ओर दुनिया की जनसंख्या सात अरब तक पहुंच गई है और दूसरी तरफ थाइलैंड के कई हिस्से और राजधानी बैंकॉक में डूबे हुए हैं।
दुनिया के तेजी से बढ़ रहे टॉप 20 देशों में भी उन्होंने जलवायु परिवर्तन के खतरे को आंका है। साल 2020 तक जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले देशों में हैती है जबकि थाइलैंड 37वें नंबर पर है।
बांग्लादेश की राजधानी ढाका सबसे ज्यादा खतरे में हैं। जबकि मनीला, कोलकाता, जकार्ता, किंशासा, लागोस, दिल्ली और गुआंगझू एक्सट्रीम से हाई रिस्क में हैं।
मैपलक्रोफ्ट ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है, 'इन शहरों में बढ़ती जनसंख्या का खराब प्रशासन, गरीबी, भ्रष्टाचार सहित अन्य सामाजिक आर्थिक कारण हैं जो निवासियों और व्यवसाय के लिए बड़ा खतरा हैं।'
इसका मतलब है कि मूलभूत संरचना को और विकसित करने की कोई जगह नहीं है। और अगर इन शहरों में जनसंख्या बढ़ जाती है तो आपात प्रणाली को प्रभावी नहीं बनाया जा सकेगा खासकर तब जब मौसम की मार अक्सर पडऩे लगेगी।
मैपलक्रोफ्ट की मुख्य पर्यावरण विश्लेषक चार्ली बेल्डन कहती हैं, 'इसका असर काफी आगे तक होगा। सिर्फ वहां के निवासियों कि लिए ही नहीं बल्कि व्यापार, राष्ट्रीय विकास और निवेश पर भी गहरा असर पड़ेगा। आर्थिक व्यवस्था गड़बड़ा जाएगी और इन देशों का आर्थिक महत्व प्रभावित होगा।'
मैपलक्रोफ्ट दुनिया भर में पर्यावरण से जुड़े मुद्दों का विश्लेषण करता है और लोगों पर उसके प्रभाव और गंभीरता पर नजर रखता है।
उदाहरण के लिए मनीला और फिलीपीन्स व्यावसायिक केंद्र हैं और चूंकि यहां जनसंख्या बहुत ज्यादा और यह लगातार बढ़ ही है तो उस पर बाढ़ और तूफान का असर भी तुलनात्मक रूप से ज्यादा होगा। वैज्ञानिकों का कहना है कि एशियाई क्षेत्रों में बारिश बहुत ज्यादा होगी। बताया जा रहा है कि 2010 से 2020 के बीच इन शहरों में और 22 लाख लोग और जुड़ जाएंगे।
बेल्डन के अनुसार, 'सिर्फ विकासशील देशों के शहर जलवायु परिवर्तन से प्रभावित नहीं हैं। उदाहरण के लिए ऑस्ट्रेलिया में आई बारिश के कारण हुई तबाही दिखाती है कि विकसित देशों के विकसित शहर भी बुरी तरह प्रभावित हो सकते हैं।'
मायामी आज भी उतने ही खतरे में है जितना सिंगापुर है। जबकि न्यूयॉर्क और सिडनी मध्यम रिस्क की श्रेणी में हैं। लंदन एकदम कम खतरे (लो रिस्क) पर है। बैंकॉक एक्सट्रीम रिस्क की कैटेगरी में है।
मुंबई, दिल्ली, कोलकाता और चेन्नई चारों हाई रिस्क में हैं। तेजी से बढ़ते इन शहरों में मकान बन रहे हैं, लेकिन रास्ते और बाकी सुविधाएं नहीं। जरा बारिश आई नहीं कि सड़कें लबालब हो जाती हैं। जनसंख्या बढ़ रही है और संरचना वैसी ही, कुछ यूं कि आधा किलो के डब्बे में कोई दो किलो सामान भर दे।

पालक का हाथ और पोई का दिल... फिर क्या मुश्किल

- डॉ. किशोर पँवार
आप लोगों में से कई ने पालक के भजिए के साथ पोई के भजिए भी खाए होंगे। यह एक बेल है जो सदाबहार और बहुवर्षीय है। इसे कई नामों से जाना जाता है जैसे मलाबार स्पीनेच, रेड वाइन स्पीनेच, क्लाइंबिंग स्पीनेच और पोई भाजी।
यदि आपसे कोई पूछे की पालक क्यों खाते हैं, तो शायद आपका जवाब यही होगा कि पालक में आयरन बहुत होता है। इसे खाने से खून बढ़ता है। मैंने तो यह भी देखा है कि पालक खाने वाले इसे लोहे की कड़ाही में बनाते हैं और तब तक पकाते हैं जब तक कड़ाही का लोहा पालक को और काला न कर दे। मेरे मामाजी ऐसे ही लोगों में से हैं। सवाल यह भी है कि कड़ाही से उतरा लोहा हमारे शरीर में कितना अवशोषित होता है और क्या वाकई फायदेमंद है? रासायनिक रूप से यह क्या है? शायद कोई भस्म बनती हो।
पालक खाने से ताकत भी मिलती है- 'पोपाई दी सेलर' को देखें तो यही लगता है कि इधर पालक का रस पिया और बन गए सुपरमैन। यदि पालक खाने से वाकई एकदम इतनी ताकत आती है तो फिर ग्लूकोज क्यों पिया जाए? कहीं तो कुछ गड़बड़ है। पालक में या ग्लूकोज में। सोचने वाली बात तो यह भी है कि आखिर ये ताकत किस बला का नाम है। विज्ञान की भाषा में बोलें तो ताकत यानी ऊर्जा। हम जो खाना खाते हैं उससे शरीर के दैनिक क्रियाकलापों के लिए ऊर्जा मिलती है।
कहते हैं कि ताकत तो दालों में ज्यादा होती है। वह भी उड़द की दाल में और ज्यादा। यह भी सुना है कि चिकनी चीजों में ताकत ज्यादा होती है जैसे गोंद, अरबी और भिण्डी आदि। पर इनमें तो म्यूसिलेज (चिकना पदार्थ) होता है जो एक प्रकार का कार्बोहाइड्रेट ही है। पोषण वैज्ञानिकों के अनुसार सबसे ज्यादा ताकत वसा खाने से मिलती है। उसके बाद प्रोटीन और कार्बोहाइड्रेट का नंबर आता है। यदि बराबर मात्रा ली जाए, तो कार्बोहाइड्रेट और प्रोटीन की अपेक्षा वसा में दो गुना ऊर्जा होती है।
चुस्त और दुरुस्त रहने के लिए डॉक्टर समुचित मात्रा में सब्जियों और मौसमी फल खाने की सलाह देते हैं। इनसे हमें खनिज लवण, विटामिन्स और एंटीऑक्सीडेन्ट्स मिलते हैं। ऊर्जा के हिसाब से भारतीय पोषण संस्थान हैदराबाद द्वारा प्रकाशित 'न्यूट्रीटिव वैल्यू ऑफ इंडियन फूड' में ऊर्जा, प्रोटीन, वसा और कार्बोहाइड्रेट के आधार पर खाद्य पदार्थों के पांच समूह बनाए गए है। पहला अनाज, दूसरा दाल एवं फलियां तीसरा दूध एवं मांस, चौथा फल एवं सब्जियां और पांचवां वसा एवं शर्करा। इनमें चार के सामने तो ऊर्जा लिखा है। परन्तु फल एवं सब्जियों को ऊर्जा का स्रोत नहीं माना गया है। ये विटामिन, कैल्शियम, केरोटीनॉइड्स, लौह एवं रेशे के स्रोत हैं।
तो फिर ताकत के विचार से पालक कहां है। कहीं यह भ्रम तो नहीं है हमारा। पालक में खूब सारे विटामिन्स, खनिज लवण, एंटीऑक्साडेन्टस और रेशा पदार्थ तो हैं पर शायद ताकत नहीं। और लोहा कितना? चलिए, यह पता लगाने के पहले थोड़ी पालक की जानकारी ले लें कि यह क्या है और इसका पता ठिकाना क्या है?
पालक राजगिरा कुल का एक वार्षिक शाकीय पौधा है जिसकी हाथ के आकार की पत्तियां सब्जी बनाने में काम आती है। इसकी उत्पत्ति प्राचीन पर्शिया (जिसे अब ईरान कहा जाता है) के आसपास हुई है। अरब व्यापारी इसे अपने साथ भारत ले आए। और यहां से यह नेपाल होते हुए चीन चला गया। जहां इसे ईरानी साग के नाम से जाना जाता है। संभवत: यह 647 ईस्वीं के आसपास नेपाल के रास्ते चीन पहुंचा। प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक इवन-अल-अवाम ने उसे हरी पत्तियों का सरदार कहा। तेरहवीं सदी में यह जर्मनी तक पहुंच चुका था। विश्व युद्ध में घायल फ्रेंच योद्धाओं, जो अत्यधिक रक्तस्त्राव के चलते कमजोर हो जाते थे, को पालक का रस मिली शराब परोसी जाती थी। पालक एन्टीऑक्सीडेन्टस, विटामिन ए, बी- 2, बी- 6, बी- 9, सी, ई और के का अच्छा स्रोत है। इसमें मैग्नीशियम, मेंगनीज, कैल्शियम, पोटेशियम और जिंक जैसे खनिज पदार्थ भी खूब मिलते हैं।
हाल ही में इसमेें रुबीस्कोलिन का भी पता चला है। परन्तु जब उसके लौह तत्व का मात्रात्मक विश्लेषण किया गया तो पता चला कि पालक में उतना लोहा नहीं है जितना एक समय माना जाता था। इस दिशा में हुई जांच पड़ताल बताती है कि पालक में लौह तत्व की मात्रा अन्य सब्जियों की तुलना में कोई अधिक नहीं है। लौह तत्व के हिसाब से पालक हमारी कई सब्जियों से उन्नीस तो क्या, सत्रह-अठारह भी नहीं है। बताते हैं कि पालक में प्रति 100 ग्राम केवल 1.7 से 2.7 मिलीग्राम लौह ही है। जबकि पहले यह मात्रा लगभग 35 मिलीग्राम मानी गई थी। पालक से ज्यादा लौह तो प्याज में है- 10 मिलीग्राम/ 100 ग्राम।
पालक की बात चली तो मुझे एक और पत्तेदार भाजी की याद आई। हालांकि इसे हम केवल बरसात के दिनों में पानी गिरने पर भजिए बनाने के लिए ही याद करते हैं। आप लोगों में से कई ने पालक के भजिए के साथ पोई के भजिए भी खाए होंगे। यह एक बेल है जो सदाबहार और बहुवर्षीय है। इसे कई नामों से जाना जाता है जैसे मलाबार स्पीनेच, रेड वाइन स्पीनेच, क्लाइंबिंग स्पीनेच और पोई भाजी। वनस्पति शास्त्री इसे बेसेला एल्बा कहना पसंद करते हैं। जबकि ईरानी पालक का वानस्पतिक नाम स्पिनेसिया ओलीरेसिया है। जहां पालक एमरेंथेसी कुल का सदस्य है, वहीं पोई को बेसेलेसी कुल में शामिल किया गया है। पोई की दो किस्में हमारे आसपास मिलती हैं एक हरी और दूसरी लाल। लाल किस्म की टहनियां लाल होती हैं और पत्तियों का निचला हिस्सा भी हल्का जामुनी, लाल होता है। ऐसा इसमें पाए जाने वाले एन्टीऑक्सीडेन्ट पदार्थ एंथोसायनीन के कारण होता है। इसका एक नाम देसी पालक (इंडियन स्पीनेच) भी है। जो पालक हम अधिकतर बाजार से खरीदकर खाते हैं वह तो पर्सियन साग यानी ईरानी पालक है। यह देश के सभी प्रांतों में घर आंगन के बगीचे में बोई जाती है या फिर आसपास अपने आप भी उग जाती है। इसका फैलाव चिडिय़ा, बुलबुलों की मदद से होता है जो इसके पके जामुनी फल खाते हैं और बीजों को यहां- वहां बिखेरते हैं। मैंने सोचा चलो आज खनिज तत्वों, विशेषकर लौह तत्व को लेकर जरा देसी- विदेशी पालकों की तुलना करें। इसके परिणाम से मुझे तो आश्चर्य हुआ ही और आपको भी होगा। क्योंकि इस मामले में यह देसी पालक जिसके पत्ते दिल के आकार के हैं, हाथ के आकार के पत्तों वाले पालक से कहीं बेहतर है।
पोई की दो किस्में हमारे आसपास मिलती हैं एक हरी और दूसरी लाल। लाल किस्म की टहनियां लाल होती हैं और पत्तियों का निचला हिस्सा भी हल्का जामुनी, लाल होता है। ऐसा इसमें पाए जाने वाले एन्टीऑक्सीडेन्ट पदार्थ एंथोसायनीन के कारण होता है।
पालक में प्रति 100 ग्राम लौह तत्व 1.7 से 2.7 मिलीग्राम और पोई में 10 मिलीग्राम है। यही हाल फॉस्फोरस के भी हैं - 100-100 ग्राम पालक और पोई में क्रमश: 21 में 35 मिलीग्राम फॉस्फोरस है। पोई में विटामिन सी भी लगभग तीन गुना ज्यादा है। सवाल यह भी है कि जो कुछ मात्रा पालक में लौह तत्व की है वह हमारे शरीर को लगता कितना है। पता चला कि पालक में जो कुछ भी लौह है वह शरीर में बहुत कम (लगभग 10 प्रतिशत) ही अवशोषित होता है यानि 100 ग्राम पालक के लौह का 0.25 मिलीग्राम ही अवशोषित होता है। यह भी पता चलता है कि पालक में जो अधिक मात्रा में ऑक्जलेट है वह भी लौह अवशोषण की राह में रोड़ा है। यह ऑक्जलेट आयरन को फेरस ऑक्जलेट में बदल देता है जो शरीर के किसी काम का नहीं। वैसे कुछ अध्ययन कहते हैं कि भोजन में ऑक्जेलिक अम्ल का उपयोग करने से लौह का अवशोषण बढ़ता है। यदि यह सच है कि विटामिन सी लौह तत्व के अवशोषण को बढ़ाता है तो इस लिहाज से भी पोई पालक से कहीं ज्यादा बेहतर है। क्योंकि इसमें लौह और विटामिन सी दोनों अधिक मात्रा में है।
कहना यह है कि पालक को लोहे की आशा में नहीं बल्कि खनिज लवण, विटामिन्स एवं केरोटिनॉइड्स के लिए खाइए और पोई भी खाइए। पालक का हाथ और पोई का दिल दोनों मिलें तो फिर क्या मुश्किल। (स्रोत फीचर्स)

ऑनलाइन जुबान पर ताला

- लोकेन्द्र सिंह राजपूत

आईटी एक्ट में कुछ ऐसे नियम जोड़ दिए हैं, जिनके बाद देश में इलेक्ट्रोनिक, मोबाइल और इंटरनेट समेत संचार साधनों पर सरकारी निगरानी हद से ज्यादा बढ़ गई है। यानी सरकार ने तो इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाले करीब 10 करोड़ हिन्दुस्तानियों की ऑनलाइन जुबान पर पहले ही ताला लगाने की व्यवस्था कर ली थी।
केन्द्रीय संचार एवं सूचना मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा है कि सरकार इंटरनेट और सोशल वेबसाइट्स पर प्रकाशित होने वाली आपत्तिजनक सामग्री को नियंत्रित करने के लिए जरूरी दिशा- निर्देश तैयार करेगी। मंत्री महोदय या तो चालकी से झूठ बोल गए या फिर बोलने की आजादी पर लगाम लगाने की उनकी मंशा अभी पूरी नहीं हो सकी है। वे हिन्दुस्तानियों को पूरी तरह गूंगा करना चाहते हैं। दरअसल, 11 अप्रैल 2011 को भारत सरकार के सूचना एवं प्रौद्योगिकी विभाग ने गुपचुप तरीके से सूचना प्रौद्योगिकी (संशोधित) कानून- 2008 में कांग्रेस की मंशानुरूप फेरबदल कर दिए हैं। विभाग ने आईटी एक्ट में कुछ ऐसे नियम जोड़ दिए हैं, जिनके बाद देश में इलेक्ट्रोनिक, मोबाइल और इंटरनेट समेत संचार साधनों पर सरकारी निगरानी हद से ज्यादा बढ़ गई है। यानी सरकार ने तो इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाले करीब 10 करोड़ हिन्दुस्तानियों की ऑनलाइन जुबान पर पहले ही ताला लगाने की व्यवस्था कर ली थी। सिब्बल साहब अब बता रहे हैं या कह सकते हैं वे ऑनलाइन अभिव्यक्ति की आजादी पर और मजबूत ताला लगाना चाहते हैं क्योंकि गूगल, फेसबुक और अन्य वेबसाइट्स ने सरकार के आदेश को पूरी तरह मामने से इनकार कर दिया है। वेबसाइट्स ने कहा कि सिर्फ विवादित होने पर वे किसी भी सामग्री को नहीं हटाएंगे। हालांकि आईटी एक्ट (संशोधित)-2008 के नए नियम 43-ए और 79 के मुताबिक सरकार किसी भी कंपनी के पास एकत्रित किसी भी व्यक्ति का डाटा हासिल कर सकती है। इसके लिए उसे किसी से इजाजत लेने की जरूरत नहीं होगी। साथ ही सरकार कथित आपत्तिजनक सामग्री प्रसारित करने पर किसी भी वेबसाइट, होस्ट वेबसाइट, सर्च इंजन और सोशल साइट को ब्लॉक कर सकती है। यह दीगर बात है कि अब तक गूगल और अन्य सोशल नेटवर्किंग साइट ने सरकार के निर्देशों का सौ फीसदी पालन नहीं किया।
अब तक आप अपने ब्लॉग, फेसबुक पेज, वेबसाइट या अन्य सोशल साइट पर तर्कों और सबूतों के आधार पर सरकार की नीतियों की आलोचना कर सकते थे। सरकार के खिलाफ आंदोलन को समर्थन दे सकते थे। भ्रष्ट मंत्रियों या अफसरों के खिलाफ लिख सकते थे। मंत्रियों- नेताओं के भड़काऊ बयानों के खिलाफ प्रतिक्रिया जाहिर कर सकते थे। लेकिन, अब यह उतना आसान नहीं रहेगा। खासकर 'सांप्रदायिक एवं लक्षित हिंसा निवारण अधिनियम-2011Ó तैयार करने वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद और कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और इस्लाम की गलत नीतियों का विरोध नहीं किया जा सकता। मंत्री कपिल सिब्बल ने सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह और पैगंबर के खिलाफ इंटरनेट परप्रसारित सामग्री को ही आपत्तिजनक माना है। इसीलिए सरकार ने गूगल, फेसबुक, माइक्रोसॉफ्ट और याहू के अधिकारियों से कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पैगंबर से जुड़ी कथित अपमानजनक सामग्री को हटाने को कहा था। बाकि किसी के बारे में कोई कुछ भी लिखे- छापे वह आपत्तिजनक नहीं। कांग्रेस के नेता- कार्यकर्ता हिन्दुत्व को गरियाएं, आतंकवादियों को 'आप' और 'जी' लगाकर संबोधित करें। मैडम सोनिया गांधी गुजरात के मुख्यमंत्री को 'मौत का सौदागर' कहे। कथित कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तुलना आतंकवादी संगठन सिमीÓ से करें। नई-नई राजनीति सीखे कांग्रेस के प्रवक्ता मनीष तिवारी समाजसेवी अन्ना हजारे के चरित्र पर कीचड़ उछाले। यह सब आपत्तिजनक नहीं है। मंत्री महोदय ने हिन्दुओं के खिलाफ प्रसारित सामग्री और हिन्दुओं के देवी- देवताओं के अभद्र चित्रों को भी आपत्तिजनक सामग्री नहीं माना है। ठीक वही मामला है मकबूल फिदा हुसैन हिन्दू देवताओं के नग्न चित्र बनाए तो यह अभिव्यक्ति की आजादी है। कलाकार की मौलिकता है। वहीं पैगंबर का कार्टून बनाने पर भी बावेला मचा दिया जाता है। रामायण के पात्रों के बारे में ऊल- जलूल विश्वविद्यालय में पढ़ाने पर भी कोई हल्ला नहीं। हल्ला मचाया भी जाता है इस तरह के विवादित पाठ को कोर्स से हटाने पर। कांग्रेस को चाहिए पहले अपने आंगन की सफाई करें फिर आवाम से बात करे। इस देश की जनता ने कांग्रेस को सत्ता की चाबी इसलिए नहीं दी कि उसकी मर्जी जो आए करे। लेकिन, सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने यही किया। इससे जनता में आक्रोश है। उसकी नीतियों को लेकर, उसके नेताओं के आचरण को लेकर और यह आक्रोश बाहर निकलता है इंटरनेट और सोशल वेबसाइट पर। वेब मीडिया एक ऐसा साधन है जो जनता को अपनी बात कहने की पूरी आजादी देता है। इतना ही नहीं यहां से उसकी आवाज दूर तक भी जाती है। माहौल भी बनता है। यह हम बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के आंदोलन के दौरान देख चुके हैं। दरअसल, देखा जाए तो कांग्रेस और उसके नेताओं के खिलाफ ही इंटरनेट और सोशल साइट पर लिखा जा रहा है। संभवत: कांग्रेस इसी बात से डरी हुई है। इसलिए वह संविधान प्रदत्त अभिव्यक्ति की आजादी को लगातार कुचलने के प्रयास करती दिखती है। कांग्रेसनीत यूपीए सरकार का बस चले तो वह पैदा होते ही हिन्दुस्तानियों के हलक में हाथ डालकर उनकी जुबान खींच ले।
आईटी एक्ट (संशोधित)-2008 के नए नियमों के मुताबिक अगर इंटरनेट पर किसी टिप्पणी, लेख या खबर पर सरकार को आपत्ति है तो उसे 36 घंटे के भीतर हटाना होगा। अन्यथा सरकार बिना नोटिस दिए संबंधित वेबसाइट के खिलाफ कार्रवाई कर सकती है। इंटरनेट पर प्रसारित जनभावनाओं से डरी कांग्रेसनीत यूपीए सरकार अभी तक 11 वेबसाइट को बिना कारण बताए ब्लॉक करवा चुकी है। आईटी एक्ट में संशोधन से पहले जनवरी 2010 से दिसंबर 2010 तक विभिन्न वेबसाइट्स को हटाने के लिए सरकार ने गूगल को 30 आवेदन भेजे, इनमें से 53 फीसदी साइट्स बंद कर दी गईं या उनसे कथित आपत्तिजनक सामग्री हटा दी गई। वहीं साल 2009 में गूगल को सरकार ने 142 आवेदन भेजे इनमें से 78 फीसदी वेबसाइट्स को ब्लॉक कर दिया गया या कथित आपत्तिजनक सामग्री हटा दी गई।
फासीवादी नक्शे कदम पर कांग्रेस: कांग्रेस के इस कदम से लोगों में काफी रोष है। कई राजनीतिक विशेषज्ञ और सामाजिक कार्यकर्ता बताते हैं कि कांग्रेसनीत यूपीए सरकार की नीतियों को देखकर तो यही लगता है कि यह फासीवादी, तालीबानी और साम्यवादी नक्शेकदम पर चल रही है। मंत्री महोदय हमारा देश चीन, म्यांमार, थाइलैंड, पाकिस्तान, बांग्लादेश, ईरान, उज्बेकिस्तान, वियतनाम और सउदी अरब नहीं है। भारत में लोकतंत्र है यहां सबको अपनी बात कहने की आजादी है। यह अधिकार उन्हें संविधान ने दिया है। कृपाकर उसे छीनने का प्रयास न कीजिए।

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बीसवीं सदी का सदाबहार नायक देवानंद

- विनोद साव
'एक्टिंग के मामले में दिलीप साहब और खूबसूरती में देव साहब का कोई सानी नहीं'। रोमांस से लबरेज देवानंद से इस देश के नौजवानों ने बोलना, चलना, कपड़े पहनना और बाल संवारना सीखा। जूतों के डिजाइन पर ध्यान दिए, सर पर किसम- किसम की टोपियां लगाई। बेल्ट में चौड़े और आकर्षक बकल लगाए। प्रौढ़ हो चुके लोगों ने गले की झुर्री दबाने के लिए स्कॉर्फ बांधना सीखा।
कभी आइंस्टीन ने गांधी जी के लिए कहा था कि 'आने वाली पीढ़ी इस बाद को लेकर अचंभित होगी कि हाड़ मांस से बना गांधी जैसा एक महामानव इस धरती में जन्मा था।' इस स्टेटमेंट में फेर-बदल कर फिल्म सितारे देवानंद और उम्दा शायर फिराक गोरखपुरी ने अपने लिए कहा था कि 'आने वाली सदी इस बात पर हैरां होगी कि बीसवीं सदीं में देवानंद भी था।' फिराक ने इसे अपने लिए कहा था। यह सही है कि देवानंद फिल्मी दुनिया के सबसे बड़े नार्सिस्ट (आत्ममुग्ध इंसान) थे। वे कई मायनों में बड़े थे और इसलिए अपनी नार्सिसम (आत्म-मुग्धता) को भी उन्होंने घनघोर रचनात्मकता में बदल डाला था। वे बहुत आईना प्रेमी थे। हरदम आइने के सामने खड़े होकर अपने को घंटों निहारा करते थे। इस आईना प्रेम ने उनके व्यक्तित्व को खूब निखारा था और उनके व्यक्तित्व ने सारे देश के जन- मानस को निखारा। मिथकों के एक स्वप्निल लोक में हमेशा विचरने वाले भारतीय जन- मानस ने आधुनिक संदर्भों में अपने सबसे बड़े नायक और महानायक चुने तो राजनीति, खेलकूद या सेना के क्षेत्रों से नहीं बल्कि फिल्मों से चुने और उन्हीं से सबसे ज्यादा प्रेरणा ग्रहण की।
ऐसे महानायकों में तीन महत्वपूर्ण व्यक्तित्व हुए - दिलीप कुमार, राजकपूर और देवानंद। तब धर्मवीर भारती के संपादन में 'धर्मयुग' एक ऐसी पत्रिका थी जो भारतीय साहित्य और विचार जगत की एक नायाब पत्रिका थी। इस पत्रिका में भारतीजी ने देवानंद का एक संस्मरण प्रकाशित किया था 'मेरी छोटी सी राजनीतिक दुनिया।' चूंकि देवानंद अंग्रेजी साहित्य में स्नातक थे इसलिए उन्होंने जीवन में जो कुछ भी लिखा वह अंग्रेजी में ही लिखा। उनके इस आलेख का हिंदी रुपांतर धर्मयुग में छपा था। इस आलेख के साथ एक तस्वीर छपी थी जिसमें जवाहर लाल नेहरु के साथ दिलीप, राज और देव की तस्वीर थी। इस चित्र में नेहरुजी ने टोपी नहीं पहनी है। चूंकि नेहरु भी अपने समय के एक बड़े महानायक थे और उन्हें 'नायकत्व' की गहरी समझ थी, इसलिए जीवन के जिस किसी भी क्षेत्र में कोई नायक हुआ तो उनका उन्होंने भरपूर सम्मान किया। नेहरुजी के हृदय में हिंदी सिने जगत के इन तीन महानायकों के प्रति भी बड़ा प्यार और सम्मान था। प्रधानमंत्री नेहरु ने अपने निज सचिव को हमेशा के लिए यह हिदायत दे रखी थी कि जब जब भी उनका बम्बई प्रवास हो वे रात्रि का भोज दिलीप, राज और देव साहब के साथ करेंगे और ऐसा होता रहा था। यह बाद के प्रधानमंत्रियों को भी सीखना चाहिए था। देव साहब नेहरु के लोकतांत्रिक व्यक्तित्व और उनके 'हीरोइजम' के बड़े कायल थे। तत्कालीन विदेश मंत्री कृष्ण मेनन से उनकी मित्रता थी। अस्पताल में भरती कृष्ण मेनन से जब उनकी अंतिम मुलाकात हुई तब कृशकाय कृष्ण मेनन और उनकी शिथिल होती काया का देवानंद ने अपने संस्मरण में बड़ा मार्मिक चित्रण किया है। इस संस्मरण आलेख से यह पता चलता है कि अपने समय की राजनीति, साहित्य और विचारों की दुनिया से देवानंद कितने उद्वेलित हुआ करते थे। नेहरु से निकटता होते हुए भी उन्होंने इंदिरा के राजनीतिक निर्णय के विरोध करने का साहस किया था। आपातकाल में अभिव्यक्ति पर हुई बंदिश के खिलाफ सामने आते हुए देवानंद ने एक नेशनल पार्टी के गठन की घोषणा कर डाली थी। जबकि सोनिया गांधी के प्रति सम्मान व्यक्त करते हुए उन्हें नेहरु का प्रिय लाल गुलाब भेंट किया था। प्रधानमंत्री वाजपेयी अपनी पाकिस्तान यात्रा में देवानंद को अपने साथ ले गए थे।
लाहौर कॉलेज के अंग्रेजी स्नातक देवानंद ने अपने समय के बड़े भारतीय अंग्रेजी लेखक आर.के.नारायणन के उपन्यास 'द गाइड' पर 1965 में हिंदी में फिल्म बनाई थी। ये फिल्मों के इतिहास की एक अनूठी घटना थी। तब बाद में उपन्यास की मुद्रित प्रति के मुखपृष्ठ पर देवानंद और वहीदा रहमान के चित्र छपा करते थे। गाइड उनके छोटे भाई विजय आनंद द्वारा निर्देंशित एक क्लासिक और उम्दा फिल्म थी। इस फिल्म में उदयपुर के लोकेशन को जबर्दस्त पिक्चराइज किया गया है। फिल्म में गाइड बने देवानंद की जब वहीदा से मुलाकात होती है तब देवानंद अपनी चिरपरिचित लहराती आवाज में उनके सामने जा खड़े होते हैं कहते हैं 'गाइड! आपको कहां जाना है?' तब अपने पति किशोर साहू पर नाराज वहीदा तुनकती हुई आगे बढ़ जाती है और देवानंद से कहती है 'जहन्नुम में।' तब देवानंद पलटकर अपने अंदाज में कहते हैं कि 'जहन्नुम में जाना था तो उदयपुर क्यों आईं मैडम इसे तो लोग जन्नत कहते हैं।' देव साहब की ऐसी कई अदायगी के दर्शक दीवाने हुआ करते थे। अपनी फिल्मों के लोकेशन के प्रति हमेशा सतर्क रहने वाले देवानंद का एक बार नेपाल सरकार ने इसीलिए सम्मान किया था क्योंकि देवानंद की फिल्मों- जॉनी मेरा नाम, हरे रामा हरे कृष्णा और ये गुलसितां हमारा में नेपाल के स्थानों को इतनी खूबसूरती से फिल्माया गया था कि उसके बाद नेपाल में पर्यटकों की संख्या में भारी इजाफा हुआ और वहां की सरकार को काफी मुनाफा हुआ था। ऐसे ही 'ज्वेल थीफ' में सिक्किम और उसकी राजधानी गंगटोक की सुन्दरता को उन्होंने खूब उभारा था। हिमालय के लोक जीवन और उसकी जीवन्तता को बखूबी फिल्माने के लिए उन्होंने सचिन देव बर्मन की संगीत कला का भरपूर प्रयोग किया था। अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं को उजागर करने के लिए देवानंद ने ही सबसे पहले पनप रही हिप्पी संस्कृति और एन.आर.आई.समस्या पर फिल्में बनाई थी। इस तरह वे अपने समय की आधुनिकता और नवीनता को हरदम पकडऩे की कोशिश करते थे।
अंग्रेजों के उपनिवेश बने रहे भारत और उसकी जनता पर अंग्रेजों का गहरा असर रहा है। अंग्रेजियत के इस प्रभाव को हमारे फिल्म जगत ने धरोहर की तरह संजोकर रखा है और अपनी सारी जादुई छटा को इसी पाश्चात्य ढंग से वह रुपहले परदे पर पेश करता रहा है। इन्हीं रुपहले परदों ने भारतीय जनमानस को पिछले सौ बरसों से ऐसा बांध के रखा है कि कट्टरपंथी और शुद्धतावादी लोग चाहें कितना भी कसमसा लें लेकिन कोई इस बंधन से मुक्ति नहीं पा सका है। लोग हमेशा फिल्मों और अदाकारों के सम्मोहन जाल में उलझे रहे हैं।
इस सम्मोहन जाल को बुनने में देवानंद को महारत हासिल थी। सही मायनों में वे बीसवीं सदी के सबसे ज्यादा सम्मोहक व्यक्तित्व थे। उनके परवर्ती हीरो धर्मेन्द्र जिनका 'अपीलिंग पर्सनलिटी' महिला दर्शकों को गरमाता आया है, ऐसे धर्मेन्द्र प्रभु चावला से हुई बातचीत में कहते हैं कि 'एक्टिंग के मामले में दिलीप साहब और खूबसूरती में देव साहब का कोई सानी नहीं'। रोमांस से लबरेज देवानंद से इस देश के नौजवानों ने बोलना, चलना, कपड़े पहनना और बाल संवारना सीखा। जूतों के डिजाइन पर ध्यान दिए, सर पर किसम- किसम की टोपियां लगाई। बेल्ट में चौड़े और आकर्षक बकल लगाए। प्रौढ़ हो चुके लोगों ने गले की झुर्री दबाने के लिए स्कॉर्फ बांधना सीखा।
स्वेटर उतारकर उसे गले में लपेटकर खड़े होने का अंदाज पाया। कस्बाई पसंद के चेक शर्ट पहने। फूल शर्ट की आस्तिन में 'कफलिन्स' टांके और तब कहीं जाकर लहराती आवाज में प्रेम का इजहार किया। अपने मोहक अंदाजों के कारण वे दर्शकों के सबसे बड़े आइकॉन हो गए थे। देव साहब ने अभी- अभी एक किताब भी लिखी 'लाइफ विद दी रोमान्स।' इसका विमोचन उन्होंने राष्ट्रपति अब्दुल कलाम से करवाया था। उनकी एक फिल्म का नाम भी था 'रोमान्स रोमान्स।' अपने अंतिम समय तक तरोताजा बने रहने वाले इस देव का दर्शन कोई इन्सान टी वी पर सबेरे- सबेरे कर लेता तो दिनभर उनके गाने गुनगुनाता हुआ तरोताजा और उर्जायुक्त रह सकता था। देव हमेशा आनंद देते थे। तब के समीक्षक उन्हें फिल्मों का च्यँवर ऋषि माना करते थे। आयुर्वेद के 'च्यँवर ऋषि' के बारे में यह माना गया है कि वे बूढ़े नहीं हुए और चिर युवा रहेे। लेकिन अंतिम रुप से भारतीय जनमानस में एक पाश्चात्य व्यक्तित्व ही उभरा। हमारे देशी पहनाव ओढ़ाव के बीच देवानंद के अपनाए पाश्चात्य ड्रेस कोड ही हमारे रोजमर्रा की पोशाक का हिस्सा बने। उन्होंने कभी पॉवर वाला चश्मा नहीं लगाया। कह सकते हैं कि हमारे देश के नौजवानों में 'पर्सनलिटी कल्ट' सबसे ज्यादा सदाबहार देवानंद से आया था। पिछले दिनों एक पुरस्कार समारोह में देव साहब ने कहा था कि 'मैं फिल्मों की दुनियां में इसीलिए आया क्योंकि यहां हमेशा एक्टिव रहा जा सकता है रिटायरमेंट कभी नहीं होता। रिटायरमेंट के डर से मैंने नौकरी छोड़ी और पॉलीटिक्स में नहीं गया।'
संपर्क: मुक्तनगर, दुर्ग छत्तीसगढ़ 491001 मो.9407984014, Email- vinod.sao1955@gmail.com

देव साहब और उनकी नायिकाएँ...

देवानंद ने कई नई अभिनेत्रियों को फिल्म दुनिया में ब्रेक दिया। उनके साथ काम करने वाली सफल नायिकाओं की लंबी फेहरिस्त है। फिल्मों में अभिनय के दौरान उनके साथ बिताए पलों को भीगी पलकों से याद कर रही हैं उनकी ये नायिकाएं-
वे मेरे पहले हीरो थे: वहीदा रहमान
देव के निधन से मुझे धक्का लगा। देव कई कारणों से विशेष थे। मैंने अपनी पहली हिंदी फिल्म सीआईडी उनके साथ की। वे न केवल मेरे पहले हीरो थे बल्कि मैंने सात फिल्में उनके साथ कीं। इनमें से तीन नवकेतन बैनर की थीं जिसे देव ने शुरू किया था। हमने सीआईडी, गाइड, कालाबाजार जैसी कुछ शानदार फिल्में कीं। गाइड के लिए मैंने उन्हें न कह दिया था लेकिन वे मुझे मनाते रहे और आज मैं उनका शुक्रिया अदा करती हूं। मुझे याद है जब हमारी फिल्म हिट होती तो हम खुश होते लेकिन कोई फिल्म अच्छा नहीं कर पाती तो मैं उदास हो जाती। तब देव मुझसे कहते, कभी पीछे नहीं देखना। जो हो गया सो हो गया। जब मैं पहली बार उनसे मिली, मैंने उन्हें देव साहब कह कर बुलाया। उन्होंने कहा, मुझे देव कह कर बुलाओ। मैं नई-नई आई थी इसलिए मेरे लिए ऐसा कहना संभव नहीं था लेकिन जब तक मैं उन्हें देव कह कर नहीं बुलाती तब तक वे मेरी बात सुनते ही नहीं थे। वे फिल्म इंडस्ट्री में सबसे बेहतरीन इंसान थे। उन्होंने कभी किसी के बारे में बुरा नहीं कहा।
सेट पर वे सबसे पहले पहुंचते थे: हेमा मालिनी
देव साहब और मैंने जॉनी मेरा नाम की। मैं नई- नई आई थी और वे बहुत बड़े स्टार थे लेकिन उन्होंने मुझे ऐसा कभी महसूस नहीं होने दिया। केबल कार पर गीत वादा तो निभाया... बिहार के राजगीर में फिल्माया गया था। भीड़ बेकाबू हो रही थी। उन्होंने मेरा बहुत ख्याल रखा। वे आशावादी थे। सैट पर पहुंचने वालों में वे सबसे पहले होते थे। उनके हाथ में छड़ी रहती थी। मैंने पूछा, आप यह छड़ी क्यों अपने साथ रखते हैं। उन्होंने कहा, यह उनके लिए है जो समय बर्बाद करते हैं। वे कभी थकते नहीं थे और जो उनके साथ कदम- ताल नहीं कर पाता था उसकी कभी प्रशंसा नहीं करते थे। उन्हें काम करते देखना किसी विटामिन टेबलेट खाने जैसा था।
मेरे लिए उन्होंने नियम तोड़ा: मुमताज
कोई भी देव साहब की जगह नहीं ले सकता। उन्होंने भारतीय सिनेमा की धारा ही बदल दी। वे आइकॉन थे। जब मैंने हरे रामा हरे कृष्णा साइन की तो उन्होंने फिल्म उद्योग के नियम को तोड़ा। तब किसी कलाकार को एक समय में छह से अधिक फिल्म साइन करने की इजाजत नहीं थी। लेकिन देव साहब ने मुझसे कहा, तुम्हें बंबई से बाहर ले जाना मेरा काम है और वे मुझे पुलिस सुरक्षा में काठमांडू ले गए। फिल्म उद्योग ने कड़ा एतराज जताया और उन्होंने कहा, मैंने प्रोजेक्ट के लिए उसे साइन किया है और मैं शूटिंग के लिए उसे साथ लेकर जाऊंगा। मैं देखता हूं मुझे कौन रोकता है।
निर्णय लेना मैंने उनसे सीखा: जीनत अमान
देव साहब कभी थकते नहीं थे। अंत तक वे अपने किए में भरोसा रखते थे। उन्होंने पूरी लगन के साथ अपनी फिल्में बनाई। वे फ्लॉप से कभी नहीं डरते थे। अपने कैरियर में निर्भीक होकर निर्णय लेना मैंने उनसे ही सीखा।
उनके साथ काम करना टे्रन में सफर जैसा: आशा पारेख
देव साहब कभी खाली नहीं बैठते थे। वे हमेशा सक्रिय रहते थे, आशा यह करो, आशा वह करो, वहां खड़े मत रहो, जाओ, जाओ। वे कभी नहीं रूकते थे। उनके साथ काम करना जैसे किसी एक्सप्रेस ट्रेन में सफर करने जैसा था। यात्रा कठोर लेकिन आनंददायक होती थी। वे पूर्ण फिल्मकार थे। सांस लेते, खाते यहां तक की सोते में भी उनके सामने सिनेमा ही रहता था। वे बहुत ऊर्जावान थे। सचमुच दूसरा देव आनंद कभी नहीं हो सकता।
एक खूबसूरत शिष्टाचारी इंसान: वैजयंतीमाला
मैं पहली बार अमरदीप के सैट पर देव साहब से मिली। एक खूबसूरत शिष्टाचारी इंसान और हां, लंबे भी (हंसते हुए)। मेरे समय में मैं लंबी हीरोइन थी। मुझे अपने लिए एक लंबा हीरो ही चाहिए था और देव साहब सही समय पर आए। वे पढ़े- लिखे, शिक्षित, सुसंस्कृत और विद्वान थे। मैं मानती हूं कि सिनेमाई पौरूष की सही व्याख्या उन्होंने ही की।

देवानंद मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया...

- कृष्ण कुमार यादव

देवानंद के बारे में कहा जाता है कि वो कभी हार न मानने वाले लोगों में से थे और 88 वर्ष की उम्र में पूरे जोश के साथ नई फिल्म बनाने की तैयारी में लगे हुए थे। उनका सबसे बड़ा सशक्त पक्ष यह रहा कि उनकी उम्र कुछ भी रही हो, उन्होंने खुद को हमेशा युवा ही माना।
भारत के स्क्रीन लीजेंड्स की अगर कभी लिस्ट बनाई जाएगी तो उसमें हिंदी फिल्मों के सदाबहार अभिनेता और निर्माता-निर्देशक देवानंद साहब का नाम सबसे ऊपर शुमार होगा। वह सही मायने में बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे और अभिनेता, निर्देशक तथा निर्माता के रूप में उन्होंने विभिन्न भूमिकाएं निभाईं। भारतीय सिनेमा के सदाबहार अभिनेता देवानंद ने 1946 में फिल्मी दुनिया में कदम रखा था और 88 साल की उम्र में इस सदाबहार नौजवान का ग्लैमर की दुनिया में 65 साल काम करने के बाद 4 दिसंबर, 2011 को लंदन में दिल का दौरा पडऩे से इंतकाल हो गया। देवानंद के बारे में कहा जाता है कि वो कभी हार न मानने वाले लोगों में से थे और 88 वर्ष की उम्र में पूरे जोश के साथ नई फिल्म बनाने की तैयारी में लगे हुए थे। उनका सबसे बड़ा सशक्त पक्ष यह रहा कि उनकी उम्र कुछ भी रही हो, उन्होंने खुद को हमेशा युवा ही माना। सामाजिक मुद्दों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का कोई मुकाबला नहीं था तथा सिनेमा में भी उन्होंने जिन मुद्दों को उठाया उनसे समाज में नए मापदंड स्थापित करने में मदद मिली। देवानंद हमेशा अपनी शर्तों पर जिए। देवानंद ने जिंदगी को कितनी खूबसूरती के साथ जिया, इसका अंदाजा उनकी आत्मकथा के शीर्षक 'रोमांसिंग विद लाइफ' से पता चलता है। 438 पृष्ठों की उनकी इस आत्मकथा का विमोचन खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने किया था। देवानंद का मानना था की उनकी आत्मकथा 'रोमांसिंग विद लाइफ' में उससे भी ज्यादा है जितना जमाना जानता है। पुस्तक में देवानंद ने अपनी युवावस्था, लाहौर, गुरदासपुर, फिल्मी दुनिया के संघर्ष, गुरुदत्त के साथ मित्रवत रिश्तों और सुरैया के साथ अपने संबंधों का उल्लेख किया है। इसके अलावा देवानंद ने अपने भाई विजय आनंद और चेतन आनंद के संबंध में भी इस किताब में लिखा है। एक बार उन्होंने कहा था कि रोमांस का मतलब महिलाओं के साथ हमबिस्तर होने से ही क्यों लगाया जाता है। इसके मायने किसी के हाथ को अपने हाथ में लेना और बात करना भी हो सकते हैं। यह उनकी जिन्दादिली ही थी।
देवानंद का जन्म पंजाब के गुरदासपुर जिले में 26 सितंबर, 1923 को हुआ था। उनका बचपन का नाम देवदत्त पिशोरीमल आनंद था। उनके पिता जी पेशे से वकील थे। देवानंद ने अंग्रेजी साहित्य में अपनी स्नातक की शिक्षा 1942 में लाहौर के मशहूर गवर्नमेंट कॉलेज से पूरी की। इस कॉलेज ने फिल्म और साहित्य जगत को बलराज साहनी, चेतन आनंद, बी.आर.चोपड़ा और खुशवंत सिंह जैसे शख्सियतें दी हैं। पर बहुत काम लोगों को पता होगा कि देवानंद के कैरियर की शुरुआत चिट्ठियों के साथ हुई थी। जी हाँ, देवानंद साहब की उम्र जब बमुश्किल 20-21 साल की थी, तो 1945 में उन्हें पहला ब्रेक मिला और देवानंद साहब को सेना में सेंसर ऑफिस में पहली नौकरी मिली। इस काम के लिए देव आनंद को 165 रूपये मासिक वेतन के रूप में मिला करता था जिसमें से 45 रूपये वह अपने परिवार के खर्च के लिए भेज दिया करते थे। उस समय द्वितीय विश्वयुद्ध चल रहा था। उनका काम होता था फौजियों की चिट्ठियों को सेंसर करना। सच में एक से एक बढ़कर रोमांटिक चिट्ठियाँ होती थी। एक चिट्ठी का जिक्र स्वयं देवानंद साहब बड़ी दिल्लगी से करते हैं, जिसमें एक मेजर ने अपनी बीवी को लिखा कि उसका मन कर रहा है कि वो इसी वक्त नौकरी छोड़कर उसकी बाहों में चला आए। बस इसी के बाद देवानंद साहब को भी ऐसा लगा कि मैं भी नौकरी छोड़ दूँ। बस फिर छोड़ दी नौकरी, लेकिन किस्मत की बात है कि उसके तीसरे ही दिन उन्हें प्रभात फिल्म्स से बुलावा आ गया और इस प्रकार देवानंद ने 1946 में फिल्मी दुनिया में कदम रखा और फिल्म थी -प्रभात स्टूडियो की 'हम एक हैं'। दुर्भाग्यवश यह फिल्म असफल ही रही। लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी।
वर्ष 1948 में प्रदर्शित फिल्म 'जिद्दी' देव आनंद के फिल्मी कॅरियर की पहली हिट फिल्म साबित हुई। इस फिल्म से वे बड़े अभिनेता के रुप में स्थापित हो गए। इसके बाद उन्हें कई फिल्में मिलीं। इस फिल्म की कामयाबी के बाद उन्होंने फिल्म निर्माण के क्षेत्र में कदम रख दिया और नवकेतन बैनर की स्थापना की।
नवकेतन के बैनर तले उन्होंने वर्ष 1950 में अपनी पहली फिल्म 'अफसर' का निर्माण किया जिसके निर्देशन की जिम्मेदारी उन्होंने अपने बड़े भाई चेतन आनंद को सौंपी।
इस फिल्म के लिए उन्होंने उस जमाने की जानी मानी अभिनेत्री सुरैया का चयन किया जबकि अभिनेता के रूप में देव आनंद खुद ही थे। इसके बाद देवानंद ने कई बेहतरीन फिल्में की और अपने अभिनय का लोहा मनवाया। इन फिल्मों में पेइंग गेस्ट, बाजी, ज्वेल थीफ, सीआईडी, जॉनी मेरा नाम, टैक्सी ड्राइवर, फंटुश, नौ दो ग्यारह, काला पानी, अमीर गरीब, हरे रामा हरे कृष्णा और देस परदेस का नाम लिया जा सकता है। देवानंद केवल अभिनेता ही नहीं थे उन्होंने फिल्मों का निर्देशन किया, फिल्में प्रोड्यूस भी कीं। नवकेतन फिल्म प्रोडक्शन के बैनर तले उन्होंने 35 से अधिक फिल्मों का निर्माण किया।
देवानंद प्रख्यात उपन्यासकार आर.के. नारायण से काफी प्रभावित थे और उनके उपन्यास गाइड पर फिल्म बनाना चाहते थे। आर.के. नारायणन की स्वीकृति के बाद देव आनंद ने फिल्म 'गाइड' का निर्माण किया जो देव आनंद के सिने कॅरियर की पहली रंगीन फिल्म थी। इस फिल्म के लिए देव आनंद को उनके जबर्दस्त अभिनय के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फिल्म फेयर पुरस्कार भी दिया गया।
देवानंद को दो फिल्मफेयर पुरस्कार मिले। 1958 में फिल्म काला पानी के लिए और फिर 1966 में गाइड के लिए। गाइड ने फिल्मफेयर अवार्ड में पांच अवार्डों का रिकार्ड भी बनाया। इतना ही नहीं गाइड 1966 में भारत की तरफ से ऑस्कर के लिए नामांकित भी हुई थी। आगे चलकर देवानंद ने नोबल पुरस्कार विजेता पर्ल बक के साथ मिलकर अंग्रेजी में भी गाइड का निर्माण किया था।
देवानंद अपने काले कोट की वजह से भी काफी चर्चा में रहे। देवानंद अपने अलग अंदाज और बोलने के तरीके के लिए काफी मशहूर थे। उनके सफेद कमीज और काले कोट के फैशन को तो युवाओं ने जैसे अपना ही बना लिया था और इसी समय एक ऐसा वाकया भी देखने को मिला जब न्यायालय ने उनके काले कोट को पहन कर घूमने पर पाबंदी लगा दी। वजह थी कुछ लड़कियों का उनके काले कोट के प्रति आसक्ति के कारण आत्महत्या कर लेना। दीवानगी में दो- चार लड़कियों ने जान दे दी। देवानंद के जानदार और शानदार अभिनय की बदौलत परदे पर जीवंत आकार लेने वाली प्रेम कहानियों ने लाखों युवाओं के दिलों में प्रेम की लहरें पैदा कीं लेकिन खुद देवानंद इस लिहाज से जिंदगी में काफी परेशानियों से गुजरे। देवानंद सुरैया को कभी भुला नहीं पाए और अक्सर उन्होंने सुरैया को अपनी जिंदगी का प्यार कहा है। वह भी इस हकीकत के बावजूद कि उन्होंने बाद में अभिनेत्री कल्पना कार्तिक से विवाह कर लिया था। वर्ष 2005 में जब सुरैया का निधन हुआ तो देवानंद उन लोगों में से एक थे जो उनके जनाजे के साथ थे। अपनी आत्मकथा में भी देवानंद ने सुरैया के साथ अपने संबंधों का उल्लेख किया है। जीनत अमान के साथ भी उनके प्यार के चर्चे खूब रहे। देवानंद ने 'हरे रामा हरे कृष्णा' के जरिए जीनत अमान की खोज की। अपनी आत्मकथा 'रोमांसिंग विद लाइफ' में उन्होंने लिखा कि वे जीनत अमान से बेहद प्यार करते थे और इसीलिए उन्हें अपनी फिल्म 'हरे रामा हरे कृष्णा' में अभिनेत्री बनाया था। लेकिन देवानंद का यह प्यार परवान चढऩे से पहले ही टूट गया, क्योंकि उन्होंने जीनत अमान को एक पार्टी में राजकपूर की बाहों में देख लिया था। गौरतलब है कि देवानंद ने कल्पना कार्तिक के साथ शादी की थी लेकिन उनकी शादी अधिक समय तक सफल नहीं हो सकी। दोनों साथ रहे लेकिन बाद में कल्पना ने एकाकी जीवन को गले लगा लिया। कई अभिनेत्रियों से उनके संबंधों को लेकर बातें उड़ीं, पर देवानंद अपनी ही धुन में मस्त व्यक्ति थे। टीना मुनीम, नताशा सिन्हा व एकता जैसी तमाम अभिनेत्रियों को मैदान में उतारने का श्रेय भी देवानंद को ही जाता है।
वर्ष 1970 में फिल्म प्रेम पुजारी के साथ देवानंद ने निर्देशन के क्षेत्र में भी कदम रख दिया। हालांकि यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह से नकार दी गई बावजूद इसके उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। उन पर फिल्माया गया गीत- 'मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया, हर फिक्र को धुंए में उड़ाता चला गया' उनके जीवन के भी बहुत करीब था। इसके बाद वर्ष 1971 में फिल्म हरे रामा हरे कृष्णा का भी निर्देशन किया जिसकी कामयाबी के बाद उन्होंने अपनी कई फिल्मों का निर्देशन भी किया। अभी सितम्बर 2011 में देवानंद जी की फिल्म चार्जशीट रिलीज हुई थी। फिल्मों में देवानंद के योगदान को देखते हुए उन्हें 1993 में फिल्मफेयर लाइफटाइम एचीवमेंट अवार्ड दिया गया। उन्हें 2001 में पद्म भूषण और 2002 में दादा साहब फाल्के पुरस्कार से भी नवाजा गया। देवानंद साहब के जाने से हिंदी फिल्म जगत का एक महत्वपूर्ण युग खत्म हो गया...श्रद्धांजलि।
संपर्क: निदेशक डाक सेवाएँ, अंडमान-निकोबार द्वीप समूह, पोर्टब्लेयर-744101,Email- kkyadav।y@rediffmail.com Blog- http://kkyadav.blogspot.com/

खेलों में उपयोगी हो सकता है लाल रंग


लाल रंग को अक्सर खतरे के प्रतीक के रूप में इंगित किया जाता है। परंतु हाल में किए एक एक अध्ययन के अनुसार लाल रंग क्षमता और गति का प्रतीक भी बन जाएगा। इमोशन जर्नल के अनुसार वैज्ञानिकों ने अपने अध्ययन में पाया कि इंसानों को जब लाल रंग दिखाया जाता है तो उनकी प्रतिक्रिया ज्यादा तेज और मजबूत हो जाती है।
वैज्ञानिकों का कहना है कि यह खोज भारत्तोलन जैसे खेलों में उपयोगी साबित हो सकता है जिसमें शक्ति और तेजी की जरूरत पड़ती है। अध्ययन करने वाले दल के अगुवा और न्यूयॉर्क के रोचेस्टर विश्वविद्यालय में मनोवैज्ञानिक एंड्रयू इलियट के अनुसार लाल हमारी शारीरिक प्रतिक्रियाओं को तेज करता है क्योंकि इसे खतरनाक रंग माना जाता है।
जबकि इससे पहले के अध्ययनों में कहा गया था कि लाल रंग हानिकारक होता है और लाल कमीज पहने विरोधियों से एथलीट के हारने की आशंका ज्यादा होती है। यहां तक कहा जाता था कि परीक्षा के पहले लाल रंग दिखाने से छात्रों का प्रदर्शन फीका पड़ जाता है। लेकिन अब मामला उलट भी हो सकता है। देखना यह होगा कि लाल रंग देखने के बाद खिलाड़ी या परीक्षार्थी अपना प्रदर्शन कितना बढिय़ा कर पाते हैं।

मेरे कृष्ण मुरारी

- डॉ. जेन्नी शबनम
रोई है आत्मा
तू ही है परमात्मा
कर विचार,
तेरी जोगन हारी
मेरे कृष्ण मुरारी।
चीर हरण
हर स्त्री की कहानी
बनी द्रौपदी,
कृष्ण, लो अवतार
करो स्त्री का- उद्धार।
तू हरजाई
की मुझसे ढिठाई
ओ मोरे कान्हा,
गोपियों संग रास
मुझे माना पराई।
रास रचाया
सबको भरमाया
नन्हा मोहन,
देकर गीता- ज्ञान
किया जग- कल्याण।
तेरी जोगन
तुझ में ही समाई
थी वो बावरी,
सह के सब पीर
बनी मीरा दीवानी।
हूँ पुजारिन
नाथ सिर्फ तुम्हारी
क्यों बिसराया
सुध न ली हमारी
क्यों समझा पराया?
ओ रे विधाता
तू क्यों न समझता?
जग की पीर,
आस जब से टूटी
सब हुए अधीर।
गर तू थामे
जो मेरी पतवार,
सागर हारे
भव- सागर पार
पहुँचूँ तेरे पास।
हे मेरे नाथ
कुछ करो निदान
हो जाऊँ पार
जीवन है सागर
है न खेवनहार
तू साथ नहीं
डगर अँधियारा
अब मैं हारी,
तू है पालनहारा
फैला दे उजियारा
मैं हूँ अकेली
साथ देना ईश्वर
दुर्गम पथ,
अन्तहीन डगर
चल- चल के हारी
मालूम नहीं
मिलती क्यों जिन्दगी
बेअख्तियार,
डोर जिसने थामी
उडऩे से वो रोके!

संपर्क- द्वारा: राजेश कुमार श्रीवास्तव, द्वितीय तल 5/7 सर्वप्रिय विहार नई दिल्ली -110016
ब्लॉग- http://lamhon-ka-safar.blogspot.com, Email- jenny.shabnam@gmal.com

गैंडों को मिलेगा नया घर लेकिन हाथी कहाँ जाएंगे?

- देवेन्द्र प्रकाश मिश्र

गैंडा जंगल के समीपतर्वी ग्रामीण क्षेत्रों के खेतों की फसलों को भारी नुकसान पहुंचाते हैं। इसके अतिरिक्त दो बार यह मानव हत्या भी कर चुके हैं। गैंडा द्वारा फसल एवं जनहानि का मुआवजा जो प्रदेश सरकार द्वारा तय किया गया है वह काफी कम है। इसके कारण क्षेत्रीय ग्रामीण गैंडों को दुश्मन की दृष्टि से देखते हैं।
उत्तर प्रदेश के एकमात्र दुधवा नेशनल पार्क के गैंडा परिवार पर मंडरा रहे आनुवांशिक प्रदूषण से निपटने के उद्देश्य से आसाम से जल्दी ही एक नर गैंडा दुधवा लाया जाएगा। नए गैंडा का परिवार बसाने के लिए गैंडा पुनर्वास परियोजना का क्षेत्रफल भी बढ़ाने की योजना है। इसके अंतर्गत सैकड़ों एकड़ में फैले प्राकृतिक भादीताल के वनक्षेत्र को ऊर्जाबाड़ से घेरकर संरक्षित किया जाएगा। दुधवा के तीस सदस्यीय गैंडा परिवार के लिए आशियाने का विस्तार भले ही ऊपर से ठीक- ठाक लग रहा हो लेकिन भादीताल इलाके को अपना पंसदीदा शरणगाह बनाकर रहने वाले लगभग चार दर्जन हाथी क्या ऊर्जा बाड़ के भीतर रह पाएंगे? यह स्वयं में विचारणीय प्रश्न है?
यद्यपि गैंडा एवं हाथी एक साथ रह सकते हैं यह भी सर्वविदित है लेकिन इनके बीच होने वाले संघर्ष को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। इन सभी परिस्थितियों पर अध्ययन और विचार विमर्श के बाद ऐसी दूरगामी परियोजना पर कार्य किया जाना हितकर होगा जिसमें दोंनों प्रजाति के वनपशु सुरक्षित रह सकें। कहीं ऐसा न हो कि अति उत्साह में गैंडा परियोजना का विस्तार कर दिया जाए और दुधवा के जंगल में रहने वाले हाथी पलायन को मजबूर हो जाएं।
दुधवा नेशनल पार्क में 'गैंडा पुनर्वास परियोजना' शुरू होने से पहले योजनाकारों ने यह तय किया था कि यहां की समिष्टि में तीस गैंडों को बाहर से लाकर बसाया जाएगा। इनकी संख्या जब पूरी हो जाएगी तब सभी गैंडों को ऊर्जाबाड़ के संरक्षित इलाका से निकालकर खुले जंगल में छोड़ दिया जाएगा। योजनाकारों का यह सपना तो साकार नहीं हो पाया, वरन् सन 1984 में शुरू की गई गैंडा पुनर्वास परियोजना तमाम उतार- चढ़ाव के झंझावतों को झेलकर सफलता के पायदान पर ऊपर चढ़ कर विश्व की एकमात्र अद्वितीय 'पुनर्वास' परियोजना होने का गौरव हासिल कर चुकी है। लेकिन दुधवा के गैंडा परिवार पर आनुवांशिक प्रदूषण यानी 'इनब्रीडिंग' का खतरा इस वजह से मंडरा रहा है क्योंकि यहां का गैंडा परिवार जो तीसरी पीढ़ी में पहुंच गया है वह सभी संताने पितामह गैंडा बांके से उत्पन्न हुई हैं। गैंडा पुर्नवास परियोजना दुधवा नेशनल पार्क की दक्षिण सोनारीपुर वनरेंज के 27 वर्ग किमी वनक्षेत्र को ऊर्जाबाड़ से घेरकर चलायी जा रही है। वर्तमान में तीस सदस्यीय गैंडा परिवार फैसिंग से घिरे जंगल में घूम रहा है। हालांकि इस परिवार के लगभग आधा दर्जन सदस्य नर एवं मादा विभिन्न कारणों के चलते फैंसिंग एरिया से बाहर खुले वनक्षेत्र के साथ ही समीपवर्ती ग्रामीणांचल में घूम रहे हैं। यह गैंडा जंगल के समीपतर्वी ग्रामीण क्षेत्रों के खेतों की फसलों को भारी नुकसान पहुंचाते हैं। इसके अतिरिक्त दो बार यह मानव हत्या भी कर चुके हैं। गैंडा द्वारा फसल एवं जनहानि का मुआवजा जो प्रदेश सरकार द्वारा तय किया गया है वह काफी कम है। इसके कारण क्षेत्रीय ग्रामीण गैंडों को दुश्मन की दृष्टि से देखते हैं। इन परिस्थितियों में अब गैंडा तथा मानव के बीच हो रहे संघर्ष का नया अध्याय इतिहास में जुड़ गया है।
दुधवा के गैंडा परिवार पर एक ही नर की संताने होने के कारण उन पर मंडरा रहे इनब्रीडिंग के खतरे की ओर तमाम बार विशेषज्ञों ने वन विभाग के आला अफसरों का ध्यान इंगित कराकर चिंता जाहिर करते हुए इस खतरे से निपटने के लिए बाहर से नर गैंडा दुधवा में लाने की भी वकालत की गई लेकिन नतीजा शून्य ही निकला। आखिर में तीस साल बाद प्रदेश की सरकार के कानों पर जूं रेंगी है। परिणाम स्वरूप दुधवा नेशनल पार्क द्वारा भेजी गई योजना को हरी झंडी दे दी गई है। इस योजना में गैंडों का प्राकृतिक वासस्थल का क्षेत्र बढ़ाए जाने तथा बाहर से गैंडा लाने का उल्लेख किया गया था। आसाम से गैंडा लाने की योजना को स्वीकार करके संरक्षित क्षेत्र को बढ़ाने के लिए बजट को भी स्वीकृति मिल गई है।
दक्षिण सोनारीपुर क्षेत्र की 27 वर्ग किमी फैसिंग एरिया के पास ही बेलरायां रेंज के भादीताल क्षेत्र को शामिल करके तेरह वर्ग किमी जंगल को ऊर्जाबाड़ से संरक्षित करके गैंडों का नया वासस्थल बनाया जाएगा। ऊपर से देखा जाए तो यह योजना दुधवा के गैंडों परिवार के लिए हित में है, लेकिन बीते आधा दशक से पड़ोसी देश नेपाल से माइग्रेट होकर आने वाले हाथियों ने दुधवा नेशनल पार्क के जंगल को अपना शरणगाह बना रखा है। इसमें भादीताल वाला जंगल उनका प्रिय प्राकृतिक वासस्थल है। यद्यपि इससे पूर्व नेपाल से दुधवा आने वाले हाथी ग्रीष्मकाल के समापन में आकर मानसून सत्र दुधवा में व्यतीत करने के बाद शीतकाल शुरू होने पर वापसी कर लेते थे। लेकिन अब लगभग चार दर्जन हाथी नेपाल वापसी करने के बजाय दुधवा में ही पूरे साल डेरा जमाए रहते हैं। अब अगर भादीताल वनक्षेत्र को गैंडा पुनर्वास परियोजना में फैसिंग करके शामिल कर दिया गया तो वहां रहने वाला लगभग पचास सदस्यीय हाथी परिवार कहां जाएगा? इस पर गैंडों के लिए नया वासस्थल चयनित करने वाले योजनाकारों ने ध्यान नहीं दिया है।
देश के बाहर हाथी और गैंडों के संघर्ष के इतिहास को देखा जाए तो सन् 1995- 96 में साउथ अफ्रीका के पिलायंसवर्ग नेशनल पार्क में हाथियों ने मदमस्त अवस्था में बिना किसी कारण कई गैंडों को मार डाला था। इसी दरम्यान केन्या में भी हाथियों द्वारा पालतू पशुओं को मार डालने की घटनाएं हुई थी। यह घटनाएं भी उस स्थिति में हुई थी जब हाथी जंगल के बाहर आने के लिए विभिन्न कारणों से मजबूर हुए थे। दुधवा के हाथियों को देखा जाए तो वह कभी- कभार जंगल के बाहर आकर उत्पात मचाते रहे हैं। जिसका नुकसान क्षेत्रीय किसानों को उठाना पड़ता है। हालांकि स्वयं हाथी भी नुकसान के भागीदार तब बन जाते हैं जब किसी हाथी को अपनी जान देनी पड़ जाती है। इसमें विगत माह जंगल से बाहर आए तीन हाथियों की खेतों में लगे बिजली के पोल के तारों से लगे करंट से झुलस कर मौत हो गई थी। इसके अतिरिक्त ट्रेन से टक्कर लगने से चार हाथियों के मरने की घटना भी दुधवा में हो चुकी है। अब अगर भादीताल वनक्षेत्र के तेरह वर्ग किमी एरिया को ऊर्जाबाड़ से घेर दिया जाएगा तो गैंडा उसमें रह सकते हैं, लेकिन हाथी बंदिश में रह पाएंगे? जवाब होगा शायद नहीं। इस स्थिति में बलशाली हाथी ऊर्जाबाड़ को तोड़कर बाहर आएंगे- जाएंगे। इनके बाद गैंडा भी संरक्षित इलाके के बाहर आ जाएंगे। इस स्थिति में गैंडा और हाथी के बीच संघर्ष होने की घटनाएं हो सकती हैं, जिनको रोकना आसान काम नहीं होगा। इसके अतिरिक्त असुरक्षित इलाका में विचरण करने से गैंडों के जीवन पर शिकारियों की कुदृष्टि का खतरा भी मंडराता रहेगा।
गैंडा पुनर्वास परियोजना के योजनाकारों ने पूर्व ही तय किया था कि तीस गैंडों को बाहर से लाकर उनको पुनर्वासित कराया जाएगा जब यह संख्या पूरी हो जाएगी तब सभी गैंडों को खुले जंगल में यानी ऊर्जाबाड़ के बाहर निकाल दिया जाएगा। तीस गैंडा तो बाहर से नहीं आ पाए वरन् यहां उनकी संख्या तीस तक जरूर पहुंच गई है, जो 27 वर्ग किमी वनक्षेत्र में उर्जावाड़ वाली बंदिश में घूम रहे हैं।
जंगल वनपशुओं का प्राकृतिक घर है उन्हें एक ही एरिया में बंद करके रखना उनके स्वास्थ्य के लिए भी हितकर नहीं माना जा सकता है। जंगल के सीमावर्ती ग्रामीणांचल में बढ़ रहे मानव एवं वन्यजीव संघर्ष को रोकने के लिए अब यह जरूरी हो गया है कि ऐसी कार्य योजना बनायी जाए जिससे वनपशु जंगल के बाहर न आ सके और मानव भी संवेदनशील जंगल सीमा के भीतर प्रवेश न कर सके। दुधवा में 'गैंडा पुनर्वास परियोजना' का विस्तार किया जा रहा है इसमें एक वनपशु यानी गैंडा को नया घर मिलेगा परन्तु दूसरे वनपशु हाथी को आशियाना छोडऩे के लिए मजबूर होना पड़ेगा। इनके बीच संघर्ष बढ़ेगा अलग से। इसको रोकने के लिए जरूरी हो गया है कि जंगल के भीतर वनक्षेत्र को ऊर्जाबाड़ से संरक्षित करने के बजाय वफरजोन के बाद कोर एरिया के वनक्षेत्र की बाउंड्री को तारों से घेर दिया जाए इससे कोर एरिया के विशाल जंगल में गैंडा, हाथी सुरक्षित स्वच्छंद विचरण करे तो उनके बीच संघर्ष भी नहीं होगा। यदि यह किसी कारण से संभव न हो तो केंद्र और प्रदेश की सरकारों को चाहिए कि वह वनपशु से होने वाली फसल क्षति एवं जनहानि की मुआवजा की धनराशि इतनी पर्याप्त कर दे जिससे किसानों के आंसू भी पुंछे साथ में उनका दुख भी कम हो जाए। क्षेत्र की पूरी परिस्थितियों को ध्यान में रखकर अगर सार्थक और कारगर प्रयास समय रहते नहीं किए गये तो भविष्य में जो भी परिणाम सामने आएंगे उसमें वनजीवों तथा मानव को नुकसान ही उठाना पड़ेगा। जिसमें सर्वाधिक क्षति वन्यप्राणियों के हिस्से में आएगी।
संपर्क- हिन्दुस्तान ऑफिस, नगर पालिका कॉम्प्लेक्स, निकट सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र, पलिया कला, जिला- खीरी (उप्र) मो. 09415166103 Email- dpmishra7@gmail.com

टेलीफोन के 150 साल

डेढ़ सौ साल पहले जब जर्मन वैज्ञानिक योहान फिलिप राइस ने तारों से जुड़े लकड़ी के एक गुटके में मुंह लगाकर बोला, 'घोड़े खीरे का सलाद नहीं खाते', तो उन्हें क्या पता था कि वह दुनिया में क्रांतिकारी बदलाव करने जा रहे हैं।
दुखद ये है कि राइस को बहुत कम लोग जानते हैं। राइस ने 150 साल पहले 26 अक्टूबर 1861 को फिजिकल सोसाइटी ऑफ फ्रैंकफर्ट में अपनी खोज पहली बार पेश की। उन्होंने अपने लेक्चर को नाम दिया, 'गैल्वेनिक इलेक्ट्रिसिटी के जरिये कितनी भी दूरी पर आवाजों का पुनरोत्पादन।'
जिंदा रहते तो
तब राइस सिर्फ 27 साल के थे। उन्होंने टेलीफोन पर पहले संचार के लिए जानबूझकर घोड़े और खीरे की बात की ताकि सुनने वाला हर शब्द ध्यान से सुने बिना समझ न पाए कि क्या कहा जा रहा है। उन्होंने अपनी फिजिक्स क्लास के लिए लकड़ी का एक कृत्रिम कान बना लिया था। इसमें उन्होंने इंसानी कान जैसी तकनीक का ही इस्तेमाल किया था। लेकिन राइस को ज्यादा प्रसिद्धि नहीं मिली। वह अपनी खोज से बहुत बड़ा कुछ बना भी नहीं पाए। उनका टेलीफोन एक ही तरफ से आवाज भेज सकता था। दूसरी तरफ बैठा आदमी उसी वक्त बात का जवाब नहीं दे पाता था। लेकिन उन्होंने शुरुआत कर दी थी। और वह इस खोज को आगे भी बढ़ा सकते थे, अगर वे जिंदा रहते। जनवरी 1874 में सिर्फ 40 साल की उम्र में टीबी ने जान ले ली। इसलिए पहले टेलीफोन के अविष्कार का श्रेय एलेग्जेंडर ग्राहम बेल को दिया जाता है। कान और मुंह पर लगाने वाले हिस्सों के साथ यह टेलीफोन 1870 के दशक में बाजार में आया और दूरसंचार की दुनिया ही बदल गई।
बेल को मिल गया मौका
बेल को 1876 में पहला अमेरिकी पेटेंट मिला और जल्दी ही उनकी बनाई वह अद्भुत चीज दुनिया भर में फैल गई। शुरुआत में इसका इस्तेमाल महिलाओं ने ही किया क्योंकि ज्यादा तीखी आवाज को दूसरी ओर सुन पाना आसान था। 1877-78 में थॉमस अल्वा एडिसन ने कार्बन माइक्रोफोन बनाया जो टेलीफोन में इस्तेमाल किया जा सकता था। अगले एक दशक तक यही कार्बन माइक्रोफोन टेलीफोन का आधार बना रहा। एडिसन ने यह बात कही कि टेलीफोन का पहले अविष्कारक योहान फिलिप राइस थे जबकि ग्राहम बेल उसे सार्वजनिक तौर पर पेश करने वाले पहले व्यक्ति बने। व्यवहारिक और व्यापारिक स्तर पर इस्तेमाल किया जा सकने वाले टेलीफोन के अविष्कार का श्रेय एडिसन ने खुद को दिया।
शुरुआत में टेलीफोन को लेकर लोग संदेह भरा नजरिया रखते थे। जब 1881 में बर्लिन में पहली टेलीफोन डायरेक्टरी छपी तो उसे मूर्खों की किताब कहा गया। तब टेलीफोन को अमीरों का नखरा माना जाता था। लेकिन ये ताने उसे घर- घर तक पहुंचने से रोक नहीं सके।
टेलीफोन ऑपरेटर तो अब बीती बिसरी चीज हो चुके हैं। लेकिन बीती सदी के आखिर तक भी टेलीफोन बहुत महंगी चीज रहा। डिजिटल तकनीक और खुले बाजारों ने टेलीफोन और फिर मोबाइल फोन के जरिए इस महान अविष्कार की किस्मत बदल दी है। आज यह सबसे बड़ी जरूरतों में शामिल हो चुका है। मार्केट रिसर्च कंपनी गार्टनर के मुताबिक पिछले साल 1.6 अरब मोबाइल फोन बेचे गए। इनमें से 20 फीसदी स्मार्ट फोन थे।

विसर्जन

- डॉ. परदेशीराम वर्मा
बकरी चराने वाले लड़कों के लिए यह इलाका एकदम निरापद था। इस पूरे क्षेत्र में बकरी पालन का व्यवसाय इसीलिए तो फल फूल रहा था। चारों ओर जंगल, पास में छोटी- छोटी पहाडिय़ां। पहाडिय़ों के बीच छोटे- छोटे मैदान। मैदान और पहाडिय़ों से सटकर बहती छोटी सी नदी और नदी के उपरी कछार पर बन गए टीले के उपर स्थित एक नामी गांव ढाबा। ढाबा का मतलब होता है भंडार। मगर यह ढाबा नाम का कोई एक ही गांव नहीं है इस क्षेत्र में। ढाबा नाम के तीन और गांव है, अत: पहचान के लिए हर ढाबा के साथ कोई विशेषण जोड़ दिया जाता है। मैं जिस ढाबा का जिक्र कर रहा हूँ उसे इस क्षेत्र में बोकरा ढाबा के नाम से जाना जाता है। बकरी पालन का व्यवसाय खूब फूला फला, इसीलिए होते- होते इसका नाम बोकरा ढाबा प्रचलित हो गया।
छत्तीसगढ़ी में बकरे को बोकरा ही कहते हैं। घर- घर तो यहां बकरे पलते हैं। सुबह हुई नहीं कि घरों से बकरों के दलों के साथ छोकरे निकल पड़ते हैं अपने निरापद चरागाह की ओर। इस चरागाह का नाम भी बोकरा डोंगरी है। अब तो गीतों में भी इस डोंगरी का नाम आने लगा है। छत्तीसगढ़ में एक लोकगीत भी प्रचलित है
'चलो जाबो रे
बोकरा चराय बर जी
बोकरा डोंगरी खार मन।'
अर्थात चलो साथियों, बोकरा डोंगरी में चले अपने अपने बकरे चराने के लिए आगे वर्णन आता है कि डोंगरी में घास बहुत है। पेड़ों की छाया है। पास में बहती है नदी।
यह बात भी सोची जा सकती है कि गांव का नाम 'बोकरा ढाबा' ही क्यों पड़ा। आखिर इस रूप में गांव की पहचान क्यों बनी -
हुआ यूं कि काशीराम यादव रोज की तरह अपनी बकरियां, भेड़ें लेकर पांच बरस पहले एक दिन बड़े फज़र निकला डोंगरी की ओर। साथ में उसका पंद्रह बरस का लड़का हीरा भी था। हीरा तालापार के स्कूल में आठवीं तक पढ़कर निठल्ला बैठ गया था। उसके घर में पूंजी के रूप में मात्र तीस बकरियां और भेड़ें थीं। बाप बकरी चराकर उसे आठवीं तक ही पढ़ा पाया। स्कूल तो इस क्षेत्र में दस मील दूर एक ही गांव में था। नदी के उस पार तालापार में वह स्कूल जाता था। ढाबा से सिर्फ दो लड़के अब तक आठवीं पास कर सके हैं। एक यह हीरा, दूसरा समारू। दोनों के बाप बकरी चराते थे। दोनों आठवीं पास करने के बाद खाली बैठ गये। नौकरी लगती तब कुछ और पढ़ लेते। घर की हालत इतनी अच्छी नहीं कि उनके बाप शहर भेजकर उन्हें आगे पढ़ा पाते। इसीलिए वे भी अपने बाप के साथ चल निकलते डोंगरी की ओर।
उस दिन कांशीराम के साथ हीरा भी जा रहा था। आगे- आगे बकरियां चर रही थी बकरियों के गले में टुनुन टुनुन बजती घंटियां। कुछ बड़ी बकरियों के गले में छोलछोला। एक दो गाय भी थीं। बहुत हरहरी थीं और भागती बहुत थी, इसीलिए उनके पावों में काशी ने लकड़ी का गोडार बांध दिया था। सब जानवर आगे आगे जा रहे थे। अभी मैदान आया ही था कि दो मोटर साइकिलों से लंबी लंबी मूँछोवाले चार लोग उतरकर खड़े हो गए। उनके हाथें में लाठियां थीं एक के हाथ में चिडिय़ां मारने की बंदूक भी थी। काशी को रोकरकर एक लम्बे से आदमी ने कहा, 'रूक बे बोकरा खेदा'। काशी को उसका यह कथन बुरा तो लगा, मगर वह जान गया कि या तो ये जंगल विभाग के आदमी हैं या पुलिस या फिर पास वाले कस्बे के दारू ठेकेदार के बंदे। हीरा के साथ सहमते हुए काशी उन्हें सलाम कर खड़ा हो गया।
उनमें से एक नौजवान ने कहा, 'भाई मियां, क्या आदमी का शिकार करना है चिडिय़ा तो साली कोई मरी नहीं।'
मूँछ वाले ने उसकी बात का मजा लेते हुए कहा, 'यार तुम भी हो अकल के दुश्मन। अरे भाई, आदमी तो यहां कोई रहता नहीं। बकरी चराते हैं सब साले। सभी जानवर की तरह हैं। तुम भी यार चश्मा लगाओं आंखों में। यह लंडूरा तुम्हें आदमी दिखता है क्या?'
कहते हुए उसने काशी के हाथ की बांसुरी छीन ली। हीरा ने अचानक चिल्लाकर कहा, 'बांसुरी क्यों छीनते हैं हमने क्या बिगाड़ा है तुम्हारा ' मुछियल ने एक लात हीरा के कूल्हे पर जमाते हुए कहा, 'तुम क्या बिगाड़ोगे साले बिगाडऩे के लिए चाहिए दम! अब जो भी बिगाडऩा होगा हम बिगाड़ेंगे।'
हीरा मार खाकर जमीन पर गिर गया। उसके मुंह से खून आने लगा। काशी दौड़ पड़ा बेटे को उठाने के लिए। तब तक चारों में से सबसे तगड़े लगने वाले व्यक्ति ने हुकुम दे दिया। 'उठा लो साले के दो बकरे। लौंडा तो लात खाकर सुधर ही गया। चलो डालो रवानगी।'
बकरों को जब उन्होंने कंधों पर लादा तो बाप बेटे उनके पीछे दौड़ पड़े। बकरे 'मैं मैं' कर अपने चरवाहे मालिकों से आर्तनाद कर छुडा़ लेने का आग्रह करते रह गए। बाप बेटे को दौड़ते देखा तो उन लोगों ने कुछ छर्रे भी बंदूक से चला दिए। काशी के पांव में छर्रा जा लगा। वह बावला हो गया। उसने उठाकर एक पत्थर पीछे वाले के पीठ पर दे मारा। पत्थर लगते ही वह तिलमिलाकर रूक गया। चारों वहीं मोटर साइकिल रोककर खड़े हो गए। उनमें से एक आदमी ने सबको रूक जाने को कहा और अकेला ही लहकते हुए आगे बढ़ा। उसने एक लम्बा सा चाकू निकाला और एक झटके में काशी के पेट में पूरा घुसा दिया। हीरा बाप से लिपटकर रोने लगा। तब तक और चरवाहे भी आने लगे। हत्यारे बकरों को लादकर भाग गए। उसी रात हीरा के सिर से बाप का साया हट गया।
'बोकरा ढाबा' में हुई यह पहली हत्या थी। चारों तरफ शोर उड़ गया कि काशी यादव दिन दहाड़े मार दिया गया। आसपास के गांवों में बात फैल गई। लोग कुछ दिन तो बोकरा डोंगरी की ओर बकरों के साथ नहीं आए, फिर सब भूल भाल गए।
अब हीरा ही घर का सयाना हो गया। अपनी विधवा मां और छोटे भाई बसंत का पालनहार। वह बकरियां चराता और घर का भार उठाता। साल भर बाद हीरा के गांव में एक दिन मरे हुए जानवर के शरीर से उठने वाली दुर्गंध भर गई। लोग ओक ओक करने लगे। सयानों ने बताया कि नदी के किनारे पर यहां से दस कोस की दूरी पर एक शराब का कारखाना खुला है। उसमें शराब बननी शुरू हो गई है। तब हीरा को पता चला कि यह जो मरे हुए जानवर के शरीर से उठने वाली गंध से भी बदबूदार गंध गांव में घुसी है, वह है क्या आखिर। फिर धीरे- धीरे एक और मुसीबत आने लगी। नदी का पानी भी दूषित होने लगा। बहकर जो चमचम चममच पानी आ रहा था वह कुछ- कुछ ललहू हो जाता था, मटमैला। उसका स्वाद भी कुछ कसैला होने लगा। बकरियां वह पानी पीकर बीमार होने लगी। कुछ मर भी गईं। आस- पास के गांव वाले परेशान होने लगे। बोकरा डोंगरी में हलचल कम हो गई। लड़के वहां डंडा पचरंगा खेलते, कबड्डी खुडुवा जमाते थे। मगर अब घूम-घामकर ही आ जाते। डोंगरी में लगे जंगली पेड़ों के पत्ते भी झडऩे लगे। त्राहि- त्राहि मचने लगी। गांववाले अधमरे हो गए। उन्हें कुछ भी न सूझता।
एक दिन हीरा ने देखा, एक जीप में चार पांच लोग गांव में आए। उनमें वही मुछियल तगड़ा जवान भी था जिसके छूरे से उसके बाप की जान गई थी। जीप बीच गांव में रूकी। उस जीप से एक अफसरनुमा व्यक्ति उतरा। अफसर ने कहा, 'पास में हमारा कारखाना है। वहां हम आपके गांव के लोगों को नौकरी देंगे। ये हमारे सुरक्षा अधिकारी हैं। आप जाकर इनसे गेट पर मिलिए। ये आपको भीतर भेज देंगे।' इतना कहकर मुछियल को साथ लेकर अफसर जीप में बैठने लगा। हीरा जीप के आगे जाकर बोला, 'रूकिए साहब।'
'क्या बात है भाई।' अफसर ने कहा।
'मैं हूँ हीरा।'
'तुम भी आ जाना।'
'मेरे बाप का नाम काशी। '
'उन्हें भी लेते आना।'
'वो अब नहीं हैं साहब।'
'ओ हो, मुझे दुख है।'
'दुख नहीं साहब, आपको काहे का दुख। जो लोगों की जान लेता है, वह तो आपका सुरक्षा अधिकारी है। दुख काहे का जो मारे जान, उसे तो आप सिर पर चढ़ाए घुम रहे हैं।'
अफसर अब जीप से उतर गया। मुछियल भी सर नवाए जमीन पर आ खड़ा हुआ।
गांव के लोग भी जमीन पर आ खड़े हुए। हीरा से सभी बातें सुनकर अफसर ने कहा, 'भाई हीरा, तुम हो हिम्मती नौजवान। हम तुमसे खुश हैं। हम तुम्हें अच्छी नौकरी देंगे। बाप तो अब है नहीं। जो हुआ सो हुआ। अब आगे की सोचो। गुस्से में काम नहीं बनता।'
हीरा ने कहा, 'साहब समय से सम्हलना जरूरी है। मुझे वह दिन भूलता नहीं जब इस आदमी ने छूरे से मेरे बाप को मार गिराया था, इसलिए बाप की लाश कंधे से उतरती नहींं है। मुझे लगता है कि धीरे- धीरे पूरा छत्तीसगढ़ उसी तरह जमीन पर गिरकर तड़पेगा, जैसे मेरा बाप तड़पा था। और उसकी लाश पर आप लोग एक के बाद एक कारखाने लगाकर मुंह में मिश्री घोलते हुए कहेंगे कि पीछे की भूलो और आगे बढ़ो। साहब, हम लोग मूरख तो हैं, मगर अंधे नहीं। देख रहे हैं सारा खेल। आंखें हमारी देखने भी लगी हैं साहब। लेकिन आप लोग आंखों में टोपा बांध रखे हैं।'
अब साहब उखड़ गए। उन्होंने कहा, 'लड़के, देख रहा हूँ कि बहुत चढ़ गए हो। बाप की गति देखकर भी सुधार नहीं हुआ है। ऐंठते ही जा रहे हो। फूंक देंगे तो सारा इलाका उजड़ जाएगा।'
अफसर अभी बात कर ही रहा था कि मुछियल ने निकाल लिया चाकू और हीरा के हाथ में थी तेंदूसार की लाठी। धाड़ की आवाज हुई और चाकू दूर जा गिरा। मुछियल का हाथ टूटकर झूल गया था। तब तक अफसर ने अपना पिस्तौल निकाल लिया था, मगर उसने देखा कि सैकड़ों नौजवान लाठियों से लैस होकर उसकी ओर 'मारो मारो' कहते हुए बढ़ रहे हैं।
मुछियल को जीप में बैठाकर अफसर वहां से भागने लगा। हीरा ने झट दौड़कर गिरा हुआ चाकू उठा लिया। खुली हुई जीप थी। सारे बोकरा ढाबा की बकरियां इधर उधर बगरकर चर रही थी। गांव के लोग तो वहीं उलझे खड़े थे। गांव टीले पर है इसलिए जीप नीचे की ओर सर्र से भाग रही थी। हीरा को पता नहीं क्या हुआ कि उसने उठाकर चाकू जीप की ओर फेंक दी।
चाकू लगा ठीक ड्राइवर के सिर पर। ड्राइवर का संतुलन बिगड़ गया। गाड़ी उलट- पलट हो गई और देखते ही देखते सवारो के साथ गहरी नदी में जा गिरी। नदी के जल में शराब का मैल घुला हुआ था। अचेत सवार जल के भीतर समाते चले गए।
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डॉ. परदेशी राम वर्मा की कहानी 'विसर्जन'

हिन्दी और छत्तीसगढ़ी में समान रूप से लिखकर देश भर में पहचान बनाने वाले चुनिंदा साहित्यकारों में से एक डॉ.परदेशी राम वर्मा ने कहानी, उपन्यास, संस्मरण, जीवनी, निबंध, शोध प्रबंध आदि सभी विधाओं में पर्याप्त लेखन किया है। उनके अब तक पाँच कथा संग्रह, दो उपन्यास, नौ संस्मरण एवं एक नाटक प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी कृति 'औरत खेत नहीं' कथा संग्रह को अखिल भारतीय साहित्य परिषद द्वारा मदारिया सम्मान प्राप्त हुआ है। तीन हिन्दी तथा एक छत्तीसगढ़ी कहानी पुरस्कृत हुई है। उनकी पत्रिका 'आरूग फूल' को मघ्यप्रदेश साहित्य परिषद का सप्रे सम्मान और उपन्यास 'प्रस्थान' को महन्त अस्मिता पुरस्कार प्राप्त हुआ है। उनके छत्तीसगढ़ी उपन्यास 'आवा' को रविशंकर विश्वविद्यालय में एमए हिन्दी के पाठयक्रम में सम्मिलित किया गया है। वे 'आगासदिया' पत्रिका का संपादन करते हैं।
उदंती के पिछले अंकों में 'हिन्दी की यादगार कहानियां' स्तंभ के अंतर्गत अब तक देश के 15 प्रसिद्ध कथाकारों की कहानियां प्रकाशित की जा चुकी हैं। जिसका संयोजन डॉ. परदेशी राम वर्मा कर रहे थे। उनकी कथा संग्रह 'औरत खेत नहीं' में प्रकाशित एक विशिष्ठ कहानी 'विसर्जन' के जरिए इस स्तंभ का समापन कर रहे हैं। इस कहानी में उन्होंने छत्तीसगढ़ के ग्रामीण जीवन की एक त्रासद भरी झांकी प्रस्तुत की है। आज से चार दशक पहले मध्यप्रदेश शासन ने नदी किनारे शराब का कारखाना डलवाया था जिससे पानी तो प्रदूषित हुआ ही युवा पीढ़ी नशे की गिरफ्त में आ गई, जिसका दुष्परिणाम आज तक गांवों में देखने को मिलता है। विश्वास है पाठकों को उनकी यह आंचलिक कहानी पसंद आयेगी।
- संपादक