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Jul 25, 2017

उदंती.com जुलाई 2017

उदंती.com  जुलाई 2017

पृथ्वी और आकाश, जंगल और मैदान, झीलें और नदियाँ, पहाड़ और समुद्रये सभी बेहतरीन शिक्षक हैं और हमें इतना कुछ सिखाते हैं, जितना हम किताबों सेनहीं सीख सकते। - जॉन लुब्बोक

पावस विशेष

कब आओगे घन

 कब आओगे घन (कुण्डलिया)

- डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा

बढ़ते -बढ़ते आज हो गई
उसकी पीर सघन
बाट जोहती रही धरा तुम
कब आओगे घन!

सोचा था महकेंगे जल्दी
गुंचे आशा के
समझाया फिर लाख तू मत गा
गीत निराशा के
बस में नहीं मनाना इसको
बिखरा जाए मन।

उजड़े बाग़-बगीचे सूने
मौसम बदला- सा
तड़की छाती, खेत ,घूमता
किसना पगला- सा
जोड़-तोड़कर चले ज़िंदगी
करता रहा जतन।

उमड़ी ममता कब तक रहती
धरती माँ बहरी
जला हृदय सागर का, उसकी
पीर हुई गहरी
टप-टप बरसे नयन मेघ के
रोया खूब गगन।

बाट जोहती रही धरा फिर
लो घिर आए घन।

 भिगो गई मन
धरती तपती आग -सी, करती हाहाकार,
बादल लेकर आ गए, तब बूँदें दो-चार।
तब बूँदें दो-चार, दे रहे हमें दिलासा,
बरसेंगे हम खूब, रखेंगे तुम्हें न प्यासा।
कलियाँ तजतीं प्राण, भला क्या धीरज धरती,
हुई बहुत बेहाल, विकल है कितनी धरती।। 1

दिनकर देता ताप जब, लेता नहीं विराम,
हरने को संताप, तब, आओ भी घनश्याम।
आओ भी घनश्याम, फूल, कलियाँ हर्षाएँ,
सरसें मन अविराम, मगन हो झूमे गाएँ।
धरा धार ले धीर, गीत खुशियों के सुनकर,
कुछ तो कम हो पीर, लगे मुस्काने दिनकर।। 2   

नन्ही बूँदें नाचतीं, ले हाथों में हाथ,
पुलकित है कितनी धरा, मेघ-सजन के साथ।
मेघ-सजन के साथ, सरस हैं सभी दिशाएँ,
पवन-पत्तियों संग, मगन मन मंगल गाएँ।
अब अँगना के फूल, ठुमककर नाचें कूदें,
भिगो गईं मन आज, धरा संग नन्ही बूँदें।। 3

कठिनाई के सामने, झुके न जिनके माथ,
जोड़े हैं उनको सदा, क़िस्मत ने भी हाथ।।
क़िस्मत ने भी हाथ, बढ़ाकर दिया सहारा,
मंज़िल ने ख़ुद राह, दिखाकर उन्हें पुकारा।
खिले ख़ुशी के फूल, सरस बगिया मुस्काई
सदा हुई निर्मूल, टिकी है कब कठिनाई।। 4 


सम्पर्क:॥-604 , प्रमुख हिल्स, छरवाडा रोड, वापी, जिला- वलसाड (गुजरात) 396191, मो. 9824321053

सावन की महक

 सावन की महक 
- डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति

सावन के महीने की पहली घटा थी। एकदम अँधेरा हो गया। कमरे की रोशनी कम लगने लगी और साथ ही लाइट चली गई।
कूलर -पंखे की बात तो नहीं थी पर अँधेरा, जैसे रात हो गई हो। काम तो क्या होना था, उमस होने लगी। खिड़कियाँ जो बंद थी।
सभी कर्मचारी बाहर आने लगे, बरामदों में।
राजकुमार ने अपने सामने पड़ी काम वाली फाइल पर एक निशानी रखकर बंद कर दिया। वह सोचने लगा- अब क्या करें। क्या पता है लाइट का!
बाहर बरामदें में बातें, गप्पे, हँसी-ठट्ठे का माहौल बना लगता था।
वह बाहर कहाँ जाएगा। उसने कभी इस कमरे से बाह पाँव नहीं रखा।
कभी- कभी दफ्तर का मुआयना करता है ,तो सबको पता चल जाता है और सभी अपनी सीटों पर दुबककर बैठ जाते हैं।
कमरे में वही सिलसिला... बेल।  चपरासी, यैस सर! उसे बुला। वह चीख पड़ा!
वह उठा। उसका मन काली घटा को देखकर बाहर का नज़ारा लेने को हुआ।
उसे लगा, उसके बाहर जाने से दफ्तर के सभी कर्मचारी खामोश हो जाएँगे। इधर- उधर छुपने लगेंगे। वह अँधेरे में गुम हो जाएँगे। उनकी हँसी रुक जाएगी।
वह सोचता -सोचता दरवाजे तक पहुँच गया। फिर एकदम रुक गया ।
तो क्या हुआ? उसका अंदर बोला।
नहीं! नहीं! उसका मन बदला और वह बंद खिड़की की तरफ हुआ।
खिड़की से पर्दा हटाया, खिड़की खोली। एकदम ठंडी हवा का झोंका आया और वह वापस आकर सीट पर बैठ गया। उसी समय आसमान में बिजली चमकी। बादल गरजे और बारिश शुरू हो गई।
सम्पर्क: 97- गुरु नानक ऐवन्यू, मजीठा रोड, अमृतसर, drdeeptiss@gmail.com

बात खुशियों की...

 बात

 खुशियों
 की... 
- डॉ. रत्ना वर्मा
बारिश का मौसम है और हमारे आसपास हरियाली दिखाई देने लगी है। पेड़-पौधों के पत्तों से धूल की परतों को बारिश ने धो दिया है और वे चमक रही हैं। रंग- बिरंगे फूलों में तितलियाँ और भौंरों का गुंजन सुनाई देने लगा है। तरह तरह के पंछी चहचहाते हुए इस डाल से उस डाल फुदक रहे हैं। बया अपना नया संसार बसाने तिनके तिनके जोड़कर खूबसूरत घोसला बनाने में जुट गई है । ऐसे खुशनुमा माहौल में बादलों का उमड़ना घुमड़ना देख कर मन प्रसन्न हो जाता है। रिमझिम बारिश में किसी को चाय और पकौड़े खाने का मन करने लगता है, तो कोई गरमा गरम भुट्टे का आनन्द लेना चाहता है। कहने का तात्पर्य यही कि भीषण गर्मी के बाद जब बादल बरसते हैं तो धरती की तपन को तो राहत मिलती ही है, हम सब भी सुकून की साँस लेते है... कुछ इसी तरह के खुशनुमा मौसम में आज बादलों को बरसते देख विचारों का एक ठंडा झोंका सा आया... और मैं सोचने लगी कि मौसम बदलता है तो हम अपने जीने का तरीका भी थोड़ा बहुत बदल लेते हैं। बदलाव जीवन का अंग है चाहे फिर वह मौसम हो या इंसान। पर प्रश्न यहाँ यह उठता है कि हम इस बदलाव को जीवन में ढालते कैसे है। अच्छा खाना, अच्छा पहनना और अच्छे से खुशी-खुशी जीवन गुजारना। यह तो हर कोई चाहता है, लेकिन क्या हम इतने मात्र से संतोष प्राप्त कर लेते है, समस्या यही है हमारी चाहतों का कोई अंत नहीं होता। अंतहीन चाहतों का नतीजा परेशानी, मुसीबतें और दुख। थोड़े में खुश होना हमें आता नहीं तो बहुत के बीच से खुश होने के कोई एक बहाना ढूँढ़ते हैं, पर खुशी कोई चीज तो है नहीं कि बाजार से खरीदी और खुश हो लिए। हाँ अक्सर लोग खुश होने के लिए पार्टी करते हैं, फिल्में देखते हैं और सोचते हैं कि हमने खुशी पा ली। पर सच तो यह है यह सब क्षणिक खुशी है।
जब हम अपने लिए अच्छा घर अच्छा काम और अच्छा परिवार पा लेते हैं अपनी और अपने परिवार की सभी ज़रूरतेँ बिना किसी परेशानी के पूरा कर लेते हैं, पैसा कमा रहे हैं तो उन्हें अच्छे से खर्च तो करना ही है सब कुछ है फिर भी और अच्छे की चाहत में भागते ही रहते हैं। अब आप ये कह सकते हैं कि अच्छा जीवन गुजार रहे हैं तो क्या चुपचाप बैठ जाएँ....क्येंकि परमसंतोषी जीव बनकर बैठ जाना भी तो जीवन को नीरस बना देता हैं । तब क्या करें, क्या चाहतों और उपभोग की वस्तुओं के पीछे भागना ही कुछ करते रहने का नाम है। क्या हम कुछ अलग हट कर थोड़ा सा दूसरों के लिए मानवता के नाम पर काम करके अपनी ऊर्जा को बनाए नहीं रख सकते, कर सकते हैं और बहुत अच्छे से कर सकते हैं। अपने लिए तो हम हर मुसीबत हर पहाड़ चढ़ने को तैयार रहते हैं तो थोड़ी मेहनत एक ऐसी खुशी से लिए जिसका कोई मोल नहीं होता भी कर लें-बहुत बड़ा करने या बहुत ज्यादा कुछ करने की बात मत सोचिए। अपने रोज की दिनचर्या में न सही महीने में एक दिन या साल में कुछ दिन समाज के लिए देश के, लिए, उपेक्षित, पीड़ित मानवता के लिए तो समय हम निकाल ही सकते हैं।
दसअसल आज हमनें अपना जीवन इतना अधिक उलझा लिया हैं कि बेहतर तरीके से जीना छोड़कर समस्याओं के जाल में उलझ गए हैं। जितनी जरुरत है उतनी आश्यकताओं में जीना सीखने के बजाए और अधिक और अधिक के पीछे भागते चले जाते हैं। इस भागमभाग में हम छोटी छोटी खुशियों के लिए भी तरसते रहते हैं। याद करने की कोशिश कीजिए कि आपने अपने पूरे परिवार के साथ एकसाथ बैठकर कब खाना खाया था। मुझे याद है अपने बचपन में हम सब भाई बहन दिन का तो नहीं पर रात का खाना एक साथ बैठकर खाते थे। टेबल में खाना लगते ही सबको खाने के लिए आवाज लगाई जाती थी और सब हाज़िर। स्कूल कॉलेज की बात हो या किसी की कोई आवश्यकता हो, कोई परेशानी हो सब कह सुन लिया जाता था और हल भी उसी समय निकाल लिया जाता था। कोई काम की बात न हो तो भी हँसी खुशी से गप्प- बाजी करते हुए खाना समाप्त करते थे। एक और बात जो आजकल के परिवारों में मुझे देखने को मिलती है वह ज़रूरत का समान खरीदने में –चाहे वह कपड़े हों, घर की सजावट का सामान हो या जेवर, बतर्न आदि...एक समय था जब साल में एक या दो बार खासकर दीपावली में नए कपड़े खरीदे जाते थे। बहुत उत्साह के साथ उस नए कपड़े को पहन कर दीपावली मनाते थे। आज नए कपड़े पहनने की वैसी खुशी महसूस ही नहीं होती। जन्म दिन मनाने जैसा कोई उत्सव तब होता ही नहीं था। कब जन्म दिन आया कब निकल गया याद ही नहीं रहता था। तो जन्म दिन पर कपड़े लेने का प्रश्न ही नहीं उठता था। अब तो कपड़े खरीदने का जैसे कोई अवसर ही नहीं होता बिना अवसर के ही जब चाहे तब कपड़े खरीद लिए जाते हैं। जरूरत हो या न हो। 50 प्रतिशत छूट जो चल रही है तो दो चार क्यों न ले लिया जाए। कपड़ों से आपका वार्डरोब कितना भर गया है यह बिना देखे। पर बात सिर्फ कपड़ों की नहीं है अपनी ज़रूरतों की हर चीज़ की है। हमने अपनी आवश्यकताएँ बढ़ा-बढ़ाकर ही जीवन को उलझा लिया है। खुशियाँ कहीं गुम हो गईं हैं। जो हमारे पास है उसमे खुश रहना हम सीख ही नहीं पाए हैं, जो नहीं है उसके पीछे भागते हुए खुशी ढ़ूँढ़ते हैं। परिणाम, मुसीबतों का पहाड़ खड़ा कर लेते हैं और दिन रात उसी का रोना।
तो जीवन बस इन्हीं आवश्यकताओँ को पूरा करते करते कट जाता है। जब सोचने बैठते हैं कि जीवन में किया क्या तो नतीज़ा शून्य निकलता है...अरे हमने तो कुछ किया ही नहीं बस भागते ही रहे। जीवन तो व्यर्थ ही चला गया।

तो आइए सब मिलकर थोड़ा- थोड़ा करके अपने अंदर की छोटी-छोटी खुशियों को हासिल करने का प्रयास करें। अब आप सोचेंगे छोटी खुशी क्या होती है- चलिए एक छोटे से उदाहरण से शुरू करते हैं- आप हर साल नए कपड़े खरीदते हैं । हर साल कुछ कपड़े पुराने भी हो जाते हैं- क्या करते हैं आप उनका- आपकी अलमारी के किसी कोने में पड़े जगह ही तो घेरते रहते हैं। तो साल में एक बार ऐसे कपड़ों को जो आप उपयोग में नहीं ला रहे हैं अलग करिये और उन लोगों तक पहुँचाने की कोशिश कीजिए जिन्हें इसकी जरूरत है। ऐसे बहुत लोग आपको अपने आसपास ही मिल जाएंगे। आपको अपनी अलमारी का वह कोना खाली होने पर तो खुशी मिलेगी ही पर ज्यादा खुशी मिलेगी किसी जरूरतमंद की आवश्यकता पूरी करके। ये तो हुई पुराने कपड़ों की बात किसी त्योहार में या दीपावली में आप अपने लिए ,तो नए कपड़े खरीदते ही हैं,एक बार आप कुछ ऐसे बच्चों को भी नए कपड़े दे कर देखिए जो दीवाली में तो क्या किसी भी अवसर पर कभी भी नए कपड़े नहीं पहन पाते। तब उनके चेहरे की खुशी देखकर आपको जो खुशी मिलेगी वह अनमोल होगी। इसी तरह की खुशी हम घर के अन्य सामान को देकर भी हासिल कर सकते हैं बशर्ते वे कपड़े, जूते चप्पल, बतर्न, गद्दे चादर, पर्दे, फर्नीचर आदि कुछ भी जिन्हें आप दे रहे हों वह उनके काम की हो। विदेशों में तो इस तरह की पुरानी चीजों को दान में देने के लिए सेंटर खुले होते हैं। लोग वहाँ अपना सामान रख जाते हैं जहाँ से जरूरतमंदों को सेंटर खुद ही पहुँचा देता है।  मुझे याद है एक दो साल पहले हमारे देश में भी कुछ इसी तरह का काम करने की कोशिश हुई थी। फेसबुक में एक खबर बहुत शेयर की गई थी- नेकी की दीवार  जिस पर लिखा था- जो आपके पास अधिक है यहाँ छोड़ जाएँ, जो आपकी ज़रूरत का है यहाँ से ले जाएँ – यह शहर का कोई सार्वजनिक जगह होता था जहाँ एक दीवार होती थी और सामने कुछ जगह दीवार में कुछ कीलें ठोंक दी जाती थीं और नीचे जमीन पर कोई बड़ा कपड़ा या चादर बिछा कर उसमें लोग अपने घर की अनुपयोगी पर सही काम आने वाली वस्तुएँ रख जाया करते थे, कपड़े दीवार में टाँग देते थे। जरूरतमंद व्यक्ति आते जाते अपने काम की वस्तु वहाँ से उठा कर ले जाता था। यह अभियान कितना सफल हुआ यह तो पता नहीं पर जिसने भी शुरू किया था उसकी नीयत साफ थी। यदि कुछ लोग मिलकर ऐसा कुछ काम माह में एक दिन वालिंटियर के तौर पर ही सही करना शुरू कर दें तो मेरा विचार है अपनी खुशी के साथ साथ हम दूसरे बहुत लोगों को खुशियाँ बाँट सकते हैं।

बात बारिश की खुशियों से हुई थी... पर खतम कहीं और की खुशियों से हो रही है। जो भी है बात तो खुशियों की ही है। 

सावन का आना लगे जैसे इक वरदान

सावन का आना लगे
जैसे इक वरदान
- गिरीश पंकज
झूम-झूम मृदु गरज-गरज घन घोर
राग अमर, अम्बर में भर निज रोर।
बारिश आते ही सहसा निराला की ये पंक्तियाँ कौंध जाती हैं। उनकी लम्बी कविता बादल राग पढ़ोतो लगता है जैसे बारिश की लाइव-कामेंट्री हो रही है। सावन के आते ही न जाने कितनी मनोहारी काव्य-पंक्तियाँ स्मृति के आकाश में बादल बनकर छाने लगती हैं।
आखिर तप्त-धरा की आत्मा को तृप्त करने के लिए अंतत: बादलों का काफिला पहुँच ही गया।
सूरज की अग्नि-वृष्टि से धरती और उसके निवासी झुलस रहे थे और प्रार्थना कर रहे थे कि प्रभो! इस ग्रीष्म दैत्य से मुक्ति दिलाइए। अन्तत: प्रार्थना सुन ली गई और धरती पर नेह की बारिश होने लगी। चारों तरफ खुशहाली-सी छा गई। प्रकृति चहक-सी उठी। जैसे वो चिड़िया हो। नाच उठे बाल-मन। निकल पड़े सड़कों पर धूम मचाने। जब-जब बारिश आती है, मन बचपन में लौट जाता है जब पहली फुहार पड़ते ही मनमयूर -सा नाच उठता था । माता-पिता के डाँटने के बावजूद हम सड़कों पर आ  नाचने लगते थे। गाने लगते थे गीत - 'बरसो राम धड़ाके से। कभी मेरे कविमन ने यह गीत रचा था-
प्यासे मन की जैसे प्यास बुझाने आए।
जलती धरती को बादल हरसाने आए ।
झुलस-झुलस कर धरा हो गई थी ज्यों बंजर,
उसको फिर से प्रेम लुटा सरसाने आए।
प्यासे जन की जैसे प्यास बुझाने आए।।
जीवन में जल का महत्त्व है। बिना जल के न आज है, न कल है। ग्रीष्मकाल में जल का महत्त्व समझ में आने लगता है। नदियाँ सूखने लगती हैं। तालाब सिकुडऩे लगते हैं। कुओं का जल लुप्त होने लगता है। क्या शहर, क्या गाँव, हर कहीं जल के लिए हाय-तौबा का दृश्य आम हो जाता है। हर साल यही होता है ;मगर बारिश के आने के बाद भी हम जल-संचय की ओर ध्यान नहीं दे पाते। सोचते हैं -इतना इफ़रात जल तो है। लेकिन वही होता है, धीरे-धीरे जल धरती में समाता चला जाता है। सूख जाता है। ठीक है कि धरा के अंतस्तल को भी जल चाहिए; लेकिन बाहर भी जल जरूरी है। सिंचाई के लिए, पीने के लिए। मनुष्य और अन्य जीवों के जीने के लिए। रहीम ने कहा है
रहिमन पानी राखिए, बिन बानी सब सून।
पानी गए न ऊबरे, मोती, मानुष, चून।।
पानी को बचाना खुद को बचाना है। धरती को बचाना है। संसार को बचाना है। लेकिन हम इस मामले में गंभीर नहीं होते । पहले कभी हम गम्भीर हुआ करते थे। तालाब और कुँओं को निर्माण करते थे और ऐसी सुन्दर विधि से करते थे कि वर्षों तक उनमें पानी भरा रहता था। अब हाइटेक हो गए हैं , तो हमारा वह ज्ञान ही बिला गया है। अब तो जो तालाब बचे हैं, उन्हें पाटकर विकास की नई भद्दी-सी इबारत लिखने पर आमादा हैं। तालाबों और कुँओं को पाटकर दीवारों पर नदी-तालाबों के चित्र बनाने पर जोर दिया जा रहा है।  सौंदर्यीकरण के नाम पर तालाब पाटे जा रहे हैं। चालाकी के साथ उनका रकबा कम किया जा रहा है। और ये काम कर रहे हैं- कुछ अफसर, कुछ नेता और कुछ ठेकेदार। धनार्जन की मानसिकता से ग्रस्त सिस्टम धीरे-धीरे धरती को बाँझ बनाने के उपक्रम कर रहा है। यह और बात है कि धरती अभी भी बची हुई है। हरीतिमा  के दृश्य कम नहीं हुए हैं। बारिश अब भी होती है, जमकर होती है और बाँझ-सी होती धरती को वह फिर से उपयोगी बना देती है; लेकिन प्रश्न यह है कि कब तक?
गाँव की रामकली, सुरसतिया, फूलवती, चैती और भी न जाने कितनी ही महिलाएँ बारिश के जल का उपयोग जानती हैं। वे मुलतानी मिट्टी को बारिश के जल में डुबोकर रखती हैं और फिर उसे प्रात:काल चेहरे पर लगाकर चमक उठती हैं। बारिश के जल से चेहरे को धोने का नुस्खा पुराना हैलेकिन लोग करते नहीं। अब तो हम भयग्रस्त लोग हैं। वैसे यह भय यूँ ही नहीं है। पता नहीं बरसने वाले जल में कौन-सा जहरीला रसायन घुलकर उतर रहा हो। फिर भी इसकी संभावना उन क्षेत्रों में कम होती है, जहाँ हरियाली वरदान की तरह पसरी होती है। औद्योगिक क्षेत्रों में बारिश के जल से मुँह धोने के का कुपरिणाम भी हो सकता है। फिर भी प्रदूषिण-रहित क्षेत्रों में बारिश का पानी वरदान से कम नहीं। 
आने वाले समय में हम शायद सावन का, बारिश का वैसा आनन्द नहीं ले पाएँ, जैसा कभी लेते रहे। एक समय था जब बारिश होते ही कवि-मन से कविताएँ फूट पड़ती थीं। न जाने कितने ही कवियों ने बारिश पर, सावन पर कविताएँ लिखीं। ये लिखी नहीं, उतरी हैं। अमीर ख़ुसरो से लेकर निराला, पंत और महादेवी तथा उसके बाद के अनेक कवियों ने भी अपने को कविता के माध्यम से अभिव्यक्त किया। नई कविताओं के कवियों ने भी अपने हिसाब से बारिश का स्वागत किया। बारिश से उपजने वाली विसंगतियों को भी रेखांकित किया। त्रासदी भी लाती है बारिश;लेकिन अकसर उत्साह का संचरण अधिक करती है। अमीर ख़ुसरो की ये पंक्तियाँ देखें-
आ घिर आई दई मारी घटा कारी
बन बोलनलागे मोर।
दैयारी बन बोलन लागे मोर।
रिम-झिम रिम-झिम बरसन लागी
छाई री चहुँ ओर।
और अमीर ख़ुसरो की ये अमर पंक्तियाँ तो सावन में अकसर याद आ ही जाती हैं कि
अम्मा मेरे बाबा को भेजो री कि सावन आया
बेटी तेरा बाबा तो बूढ़ा री कि सावन आया। .... 
अब तो वाट्सएप के दौर में हैं। नि:शुल्क बातचीत भी होने लगी है। फेसबुक मैसेंजर और वाट्सएप के जरिये। अब न चिट्टी है, न तार है। अब तो जैसे हॉटलाइन है। फ़ोन उठाया और माँ से बात करती है लड़कियाँ। कोई लेने आ रहा है, तो ठीक वरना खुद टिकट कटवाया और पहुँच गई मायके। हालाँकि वैसी मायकेवाली प्रवृत्तियाँ भी धीरे-धीरे कम होती जा रही हैं, क्योंकि अक्सर ससुराल का सुख बाँध लेता है। बारिश में दो दिल जैसे एक प्राण हो जाते हैं। सब कुछ भूलकरप्रेमरस में स्नान करता मन सावन की जीवंत पक्तियाँ रचने लगता है। सारी कटुताएँ बारिश के जल में धुल जाती हैं। प्रेमी मन हो, या दम्पती, सब प्रेम में डूबकर बारिश में में फिर पुनर्नवा हो जाते हैं। बारिश केवल धरती को ही तृप्त नहीं करती, यह हर उस मन को भी तृप्त करती है, जो जीवन्त रहना चाहता है। मृदुभावों के अमर चितेरे पंत ने भी अनेक रंजक गीत लिखे है सावन पर। चार पंक्तियाँ देखिये-
पकड़ वारि की धार झूलता है मेरा मन,
आओ रे सब घेरकर गाओ सावन।
इंद्रधनुष के झूले में झूलें सब जन,
फिर फिर आए जीवन में सावन मनभावन।
फिर फिर आए जीवन में सावन मन भावन।
 कवि की यह चाहत केवल कवि की चाहत नहीं है, हम सबकी है। धरती की है। जीव-जंतुओं की है। यह चाहत सलामत रहे, सार्थक होती रहे ,इसके लिए ज़रूरी है कि हम धरती का शृंगार करते रहें। हरियाली बनी रहे। पेड़ सलामत रहें। तालाब बचे रहें। कुएँ भी रहें। नहरें रहें। जल संचित रहे। जल है तो जल है। और हमारा सुन्दर  कल है। बिना जल के जलकर मरना संभावित है। 'ग्लोबल वार्मिंगके इस भीषण समय में पूरी दुनिया चिंतित है। चेतावनी दी गई है कि तीसरा विश्व युद्ध अगर कभी होगा तो पानी के लिए होगा। हमारे जीवन में अक्सर पानी के लिए युद्ध की नौबत आती रही है और समाचार भी प्रकाशित होते रहे हैं कि पानी के कारण फलाँ-फलाँ की जान गई। इसलिए ज़रूरी है कि जल बचे और उसका समान,  सुन्दर और न्यायसंगत बँटवारा भी हो। नदियों को आपस में जोड़ऩे का उपक्रम हो। ऐसा हुआ तो धरती सदानीरा रहेगी। छत्तीसगढ़ की
खारुन और अरपा जैसी नदियाँ अकसर सूखी रहती हैं। बारिश में जरूर वे लबालब हो जाती हैं। क्या उन तमाम नदियों को हम सदानीरा रखने का कोई उपक्रम नहीं कर सकते? इस दिशा में चिंतन की आवश्यकता है। हमारे जैसे लोग सावन आते ही सावन से रोमांस तो करते ही हैं, पर यह भी सोचते हैं कि यह रोमांस बरकरार रहे। पर्यावरण बचा रहे। बारिश के वेग को धरती सह सके। हजारों लोग बाढ़ में बह जाते हैं। करोड़ों-अरबों की सम्पत्ति नष्ट हो जाती है। न जाने कितने पशु काल-कवलित हो जाते हैं। उन सबसे बचने की तैयारी भी जरूरी है। केवल बादल राग या सावन-गान से जीवन सुखमय नहीं हो सकता, उसके सुख को संरक्षित करने की दिशा में भी चिंतन-मनन जरूरी है। 
बारिश का जल जीवन को शीतलता प्रदान करता है। हमारा जीवन भी बारिश की तरह बने। हम बरसें प्यार बनकर। हम बरसें उदार बनकर। हम बरसें दयावान बनकर। हम बरसें मनुष्य बनकर। हम बरसें सत्य बनकर। हम बरसें करुणा बनकर। हम बरसें लोक मंगल के लिए।
सावन यही संदेश देता है कि हमारे भीतर का हरापन बचा रहे। हमारा भी और लोक का भी। एक दोहे से अपने भावों को यही विराम दे रहा हूँ कि
सावन का आना लगे, जैसे इक वरदान।
अधरों पर इस धरा के, बिखर गई मुसकान।
सम्पर्क: कृष्णकुटीर, एचआइजी-2, घर-नं. 2, सेक्टर -3, दीनदयाल उपाध्याय नगर, रायपुर-492010, मोबाइल - 8770969574, संपादक, सद्भावना दर्पण, पूर्व सदस्य, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली (2008-2012),7 उपन्यास, 15 व्यंग्य संग्रह सहित 50 पुस्तकें। 1- http://sadbhawanadarpan.blogspot.com, 2 -http://girishpankajkevyangya.blogspot.com, 3 – http://girish-pankaj.blogspot.com

हुए विवश बादल

1. हुए विवश बादल के आगे

– रमेशराज

बड़ा तेज उमड़ा है बादल
गुस्से में निकला है बादल
अब छुपने को जगह टटोलो
खोलो झट से छाता खोलो।

दइया-दइया इतना पानी
बादल करे खूब मनमानी
साँय-साँय चलती पुरवाई
आई कैसी आफत आई।

ऐसे गिरता मोटा ओला
जैसे किसी तोप का गोला
अपनी-अपनी चाँद बचाओ
लोहे के अब टोप लगाओ।

घर से बाहर चलें जरा-सा
बूँदें जड़तीं कड़ा तमाचा
कड़के बिजली अति डर लागे
हुए विवश बादल के आगे।

2. सावन है
मनभावन हरियाली छायी
खेत लगे कितने सुखदायी
कोयल बोले मीठे बोल
सावन आया, सावन आया।

रिमझिम-रिमझिम बादल बरसें
पानी को अब लोग न तरसें
पक्षी करते फिरें किलोल
सावन आया, सावन आया।

कभी इधर से कभी उधर से
घुमड़-घुमड़ बादल के घर से
आए लो बूँदों के टोल
सावन आया, सावन आया।

कहीं फिसल ना जाना भाई
लुढ़कोगे यदि दौड़ लगाई
खोल अरे भई छाता खोल
सावन आया, सावन आया।।

3. रिमझिम रिमझिम
करते हैं आयोजित कोई
जिस दिन भी कवि सम्मेलन बादल।
तो धरती पर ले आते हैं
रिमझिम-रिमझिम सावन बादल।

राम-कथा सुनने वर्षा की
निकलें बच्चे घर से बाहर
जोर-जोर से करें गर्जना
बने हुए तब रावन बादल।

आसमान की छटा निराली
देख-देख मन हरषाता है
साँझ हुए फिर लगें दिखाने
इन्द्रधनुष के कंगन बादल।

एक कहानी वही पुरानी
नरसी-भात भरे ज्यों कान्हा
उसी तरह से खूब लुटाते
फिरते बूँदों का धन बादल।

बड़ी निराली तोपें इनकी
पड़ी किसी को कब दिखलाई
जब ओलों के गोले फेंकें
फेंकें खूब दनादन बादल।

 4. बादल
हौले-हौले, कभी घुमड़कर
काले-भूरे आयें बादल
बच्चों की खातिर लिख देते
बूँदों  की कविताएँ बादल।

बच्चे जब लू में तपते हैं,
सूरज आग उगल जाता है
बच्चों से शीतल छाया की
कहते मधुर कथाएँ बादल।

बच्चों को हैं अच्छे लगते
हरे खेत औफूल खिले
जन्नत-सी सौगातें भू पर
हर सावन में लाएँ बादल।

कंचे-कौड़ी की शक्लों में
भूरे-भूरे प्यारे-प्यारे
कभी-कभी तो ओले अनगिन
बच्चों को दे जाएँ बादल।

सम्पर्क: 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001