सावन का आना लगे
जैसे इक
वरदान
- गिरीश पंकज
झूम-झूम मृदु गरज-गरज घन घोर
राग अमर, अम्बर
में भर निज रोर।
बारिश आते ही सहसा निराला की ये पंक्तियाँ
कौंध जाती हैं। उनकी लम्बी कविता ‘बादल राग’ पढ़ो, तो लगता है जैसे बारिश की लाइव-कामेंट्री हो
रही है। सावन के आते ही न जाने कितनी मनोहारी काव्य-पंक्तियाँ स्मृति के आकाश में
बादल बनकर छाने लगती हैं।
आखिर तप्त-धरा की आत्मा को तृप्त करने के
लिए अंतत: बादलों का काफिला पहुँच ही गया।
सूरज की अग्नि-वृष्टि से धरती और उसके
निवासी झुलस रहे थे और प्रार्थना कर रहे थे कि प्रभो! इस
ग्रीष्म दैत्य से मुक्ति दिलाइए। अन्तत: प्रार्थना सुन ली गई और धरती पर नेह की
बारिश होने लगी। चारों तरफ खुशहाली-सी छा गई। प्रकृति चहक-सी उठी। जैसे वो चिड़िया
हो। नाच उठे बाल-मन। निकल पड़े सड़कों पर धूम मचाने। जब-जब बारिश आती है, मन बचपन में लौट जाता है जब पहली फुहार पड़ते ही मनमयूर -सा नाच उठता था ।
माता-पिता के डाँटने के बावजूद हम सड़कों पर आ
नाचने लगते थे। गाने लगते थे गीत - 'बरसो राम धड़ाके
से’। कभी मेरे कविमन ने यह गीत रचा था-
प्यासे मन की जैसे प्यास बुझाने आए।
जलती धरती को बादल हरसाने आए ।
झुलस-झुलस कर धरा हो गई थी ज्यों बंजर,
उसको फिर से प्रेम लुटा सरसाने आए।
प्यासे जन की जैसे प्यास बुझाने आए।।
जीवन में जल का महत्त्व है। बिना जल के न
आज है, न
कल है। ग्रीष्मकाल में जल का महत्त्व समझ में आने लगता है। नदियाँ सूखने लगती हैं।
तालाब सिकुडऩे लगते हैं। कुओं का जल लुप्त होने लगता है। क्या शहर, क्या गाँव, हर कहीं जल के लिए हाय-तौबा का दृश्य आम
हो जाता है। हर साल यही होता है ;मगर बारिश के आने के बाद भी
हम जल-संचय की ओर ध्यान नहीं दे पाते। सोचते हैं -इतना इफ़रात
जल तो है। लेकिन वही होता है, धीरे-धीरे जल धरती में समाता
चला जाता है। सूख जाता है। ठीक है कि धरा के अंतस्तल को भी जल चाहिए; लेकिन बाहर भी जल जरूरी है। सिंचाई के लिए, पीने के
लिए। मनुष्य और अन्य जीवों के जीने के लिए। रहीम ने कहा है
रहिमन पानी राखिए, बिन
बानी सब सून।
पानी गए न ऊबरे, मोती,
मानुष, चून।।
पानी को बचाना खुद को बचाना है। धरती को
बचाना है। संसार को बचाना है। लेकिन हम इस मामले में गंभीर नहीं होते । पहले कभी
हम गम्भीर हुआ करते थे। तालाब और कुँओं को निर्माण करते थे और ऐसी सुन्दर विधि से
करते थे कि वर्षों तक उनमें पानी भरा रहता था। अब हाइटेक हो गए हैं , तो
हमारा वह ज्ञान ही बिला गया है। अब तो जो तालाब बचे हैं, उन्हें
पाटकर विकास की नई भद्दी-सी इबारत लिखने पर आमादा हैं। तालाबों और कुँओं को पाटकर
दीवारों पर नदी-तालाबों के चित्र बनाने पर जोर दिया जा रहा है। सौंदर्यीकरण के नाम पर तालाब पाटे जा रहे हैं।
चालाकी के साथ उनका रकबा कम किया जा रहा है। और ये काम कर रहे हैं- कुछ अफसर,
कुछ नेता और कुछ ठेकेदार। धनार्जन की मानसिकता से ग्रस्त सिस्टम
धीरे-धीरे धरती को बाँझ बनाने के उपक्रम कर रहा है। यह और बात है कि धरती अभी भी
बची हुई है। हरीतिमा के दृश्य कम नहीं हुए
हैं। बारिश अब भी होती है, जमकर होती है और बाँझ-सी होती
धरती को वह फिर से उपयोगी बना देती है; लेकिन प्रश्न यह है
कि कब तक?
गाँव की रामकली, सुरसतिया,
फूलवती, चैती और भी न जाने कितनी ही महिलाएँ
बारिश के जल का उपयोग जानती हैं। वे मुलतानी मिट्टी को बारिश के जल में डुबोकर
रखती हैं और फिर उसे प्रात:काल चेहरे पर लगाकर चमक उठती हैं। बारिश के जल से चेहरे
को धोने का नुस्खा पुराना है; लेकिन लोग करते नहीं। अब तो हम
भयग्रस्त लोग हैं। वैसे यह भय यूँ ही नहीं है। पता नहीं बरसने वाले जल में कौन-सा
जहरीला रसायन घुलकर उतर रहा हो। फिर भी इसकी संभावना उन क्षेत्रों में कम होती है,
जहाँ हरियाली वरदान की तरह पसरी होती है। औद्योगिक क्षेत्रों में
बारिश के जल से मुँह धोने के का कुपरिणाम भी हो सकता है। फिर भी प्रदूषिण-रहित क्षेत्रों में बारिश का पानी वरदान से कम नहीं।
आने वाले समय में हम शायद सावन का, बारिश
का वैसा आनन्द नहीं ले पाएँ, जैसा कभी लेते रहे। एक समय था
जब बारिश होते ही कवि-मन से कविताएँ फूट पड़ती थीं। न जाने कितने ही कवियों ने
बारिश पर, सावन पर कविताएँ लिखीं। ये लिखी नहीं, उतरी हैं। अमीर ख़ुसरो से लेकर निराला, पंत और
महादेवी तथा उसके बाद के अनेक कवियों ने भी अपने को कविता के माध्यम से अभिव्यक्त
किया। नई कविताओं के कवियों ने भी अपने हिसाब से बारिश का स्वागत किया। बारिश से
उपजने वाली विसंगतियों को भी रेखांकित किया। त्रासदी भी लाती है बारिश;लेकिन अकसर उत्साह का संचरण अधिक करती है। अमीर ख़ुसरो की ये पंक्तियाँ
देखें-
आ घिर आई दई मारी घटा कारी
बन बोलनलागे मोर।
दैयारी बन बोलन लागे मोर।
रिम-झिम रिम-झिम बरसन लागी
छाई री चहुँ ओर।
और अमीर ख़ुसरो की ये अमर पंक्तियाँ तो
सावन में अकसर याद आ ही जाती हैं कि
अम्मा मेरे बाबा को भेजो री कि सावन आया
बेटी तेरा बाबा तो बूढ़ा री कि सावन आया।
....
अब तो वाट्सएप के दौर में हैं। नि:शुल्क
बातचीत भी होने लगी है। फेसबुक मैसेंजर और वाट्सएप के जरिये। अब न चिट्टी है, न
तार है। अब तो जैसे हॉटलाइन है। फ़ोन उठाया और माँ से बात करती है लड़कियाँ। कोई
लेने आ रहा है, तो ठीक वरना खुद टिकट कटवाया और पहुँच गई
मायके। हालाँकि वैसी मायकेवाली प्रवृत्तियाँ भी धीरे-धीरे कम होती जा रही हैं,
क्योंकि अक्सर ससुराल का सुख बाँध लेता है। बारिश में दो दिल जैसे
एक प्राण हो जाते हैं। सब कुछ भूलकरप्रेमरस में स्नान करता मन सावन की जीवंत
पक्तियाँ रचने लगता है। सारी कटुताएँ बारिश के जल में धुल जाती हैं। प्रेमी मन हो,
या दम्पती, सब प्रेम में डूबकर बारिश में में
फिर पुनर्नवा हो जाते हैं। बारिश केवल धरती को ही तृप्त नहीं करती, यह हर उस मन को भी तृप्त करती है, जो जीवन्त रहना
चाहता है। मृदुभावों के अमर चितेरे पंत ने भी अनेक रंजक गीत लिखे है सावन पर। चार
पंक्तियाँ देखिये-
पकड़ वारि की धार झूलता है मेरा मन,
आओ रे सब घेरकर गाओ सावन।
इंद्रधनुष के झूले में झूलें सब जन,
फिर फिर आए जीवन में सावन मनभावन।
फिर फिर आए जीवन में सावन मन भावन।
कवि की यह चाहत केवल कवि की चाहत नहीं है, हम
सबकी है। धरती की है। जीव-जंतुओं की है। यह चाहत सलामत रहे, सार्थक
होती रहे ,इसके लिए ज़रूरी है कि हम धरती का शृंगार करते
रहें। हरियाली बनी रहे। पेड़ सलामत रहें। तालाब बचे रहें। कुएँ भी रहें। नहरें
रहें। जल संचित रहे। जल है तो जल है। और हमारा सुन्दर कल है। बिना जल के जलकर मरना संभावित है। 'ग्लोबल वार्मिंग’ के इस भीषण समय में पूरी दुनिया
चिंतित है। चेतावनी दी गई है कि तीसरा विश्व युद्ध अगर कभी होगा तो पानी के लिए
होगा। हमारे जीवन में अक्सर पानी के लिए युद्ध की नौबत आती रही है और समाचार भी
प्रकाशित होते रहे हैं कि पानी के कारण फलाँ-फलाँ की जान गई। इसलिए ज़रूरी है कि जल
बचे और उसका समान, सुन्दर और न्यायसंगत बँटवारा भी हो। नदियों को
आपस में जोड़ऩे का उपक्रम हो। ऐसा हुआ तो धरती सदानीरा रहेगी। छत्तीसगढ़ की
खारुन
और अरपा जैसी नदियाँ अकसर सूखी रहती हैं। बारिश में जरूर वे लबालब हो जाती हैं।
क्या उन तमाम नदियों को हम सदानीरा रखने का कोई उपक्रम नहीं कर सकते? इस दिशा में चिंतन की आवश्यकता है। हमारे जैसे लोग सावन आते ही सावन से
रोमांस तो करते ही हैं, पर यह भी सोचते हैं कि यह रोमांस
बरकरार रहे। पर्यावरण बचा रहे। बारिश के वेग को धरती सह सके। हजारों लोग बाढ़ में
बह जाते हैं। करोड़ों-अरबों की सम्पत्ति नष्ट हो जाती है। न जाने कितने पशु
काल-कवलित हो जाते हैं। उन सबसे बचने की तैयारी भी जरूरी है। केवल बादल राग या
सावन-गान से जीवन सुखमय नहीं हो सकता, उसके सुख को संरक्षित
करने की दिशा में भी चिंतन-मनन जरूरी है।
बारिश का जल जीवन को शीतलता प्रदान करता
है। हमारा जीवन भी बारिश की तरह बने। हम बरसें प्यार बनकर। हम बरसें उदार बनकर। हम
बरसें दयावान बनकर। हम बरसें मनुष्य बनकर। हम बरसें सत्य बनकर। हम बरसें करुणा बनकर।
हम बरसें लोक मंगल के लिए।
सावन यही संदेश देता है कि हमारे भीतर का
हरापन बचा रहे। हमारा भी और लोक का भी। एक दोहे से अपने भावों को यही विराम दे रहा
हूँ कि
सावन का आना लगे, जैसे
इक वरदान।
अधरों पर इस धरा के, बिखर
गई मुसकान।
सम्पर्क: कृष्णकुटीर, एचआइजी-2, घर-नं. 2, सेक्टर -3, दीनदयाल
उपाध्याय नगर, रायपुर-492010, मोबाइल -
8770969574, संपादक, सद्भावना दर्पण,
पूर्व सदस्य, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली (2008-2012),7 उपन्यास, 15 व्यंग्य संग्रह सहित 50 पुस्तकें। 1- http://sadbhawanadarpan.blogspot.com, 2 -http://girishpankajkevyangya.blogspot.com, 3 – http://girish-pankaj.blogspot.com