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Apr 1, 2022

उदंती.com, अप्रैल- 2022


वर्ष- 14, अंक- 8

शिक्षण एक बहुत ही महान पेशा है, जो किसी व्यक्ति के चरित्र, क्षमता और भविष्य को आकार देता है। अगर लोग मुझे एक अच्छे शिक्षक के रूप में याद करते हैं, तो यह मेरे लिए सबसे बड़ा सम्मान होगा।                                                        - ए. पी. जे. अब्दुल कलाम

इस अंक में  

अनकहीः बच्चे पढ़ना- लिखना भूल गए? - डॉ. रत्ना वर्मा

आलेखः विज्ञान सम्मत है भारतीय काल-गणना -प्रमोद भार्गव

आज़ादी का अमृत महोत्सवः स्व की पुनर्स्थापना -अरुण शेखर

कविताः युद्ध के बीच - डॉ. नूतन गैरोला

विश्व पृथ्वी दिवसः पृथ्वी और मानवता को बचाने के लिए आहार - ज़ुबैर सिद्दिकी

कविता- पृथ्वी दिवसः पेड़ श्रीमद् भगवद् गीता का संदेश सुनाते हैं - समीर उपाध्याय

आधुनिक बोध कथा- 4ः गधे की कीमत - सूरज प्रकाश

कविताः यूक्रेन युद्ध - बसन्त राघव

इतिहास का तथ्यात्मक सत्यः ‘द कश्मीर फाइल्स’-प्रमोद भार्गव

कहानीः फ़ैसला - प्रेम गुप्ता ‘मानी’

यात्रा- संस्मरणः नेतरहाट- बाँस के जंगल या चीड़वन - रश्मि शर्मा

दो लघुकथाः 1. वात्सल्य की हिलोरें, 2. धन्ना सेठ - सुधा भार्गव

लघुकथाः मिल्कियत - संदीप तोमर

उर्दू व्यंग्यः कस्टम डिपार्टमेंट में मुशायरा - मूल रचना – इब्ने इंशा, अनुवाद – अखतर अली

बाल कविताः मैं भी झूमूँ गाऊँ - श्याम सुन्दर श्रीवास्तव ‘कोमल’

किताबेंः  डॉक्टर साहिबा का डॉगीज़ बीमार है  - नूतन मिश्रा

कविताः मेरी धरती  - मंगला शर्मा

विज्ञानः साफ-सफाई की अति हानिकारक हो सकती है - स्रोत फीचर्स

प्रेरकः लाल फूल वाला पेड़ – निशांत

जीवन दर्शनः मुडा: एक जापानी मंत्र- काल करे सो आज कर -विजय जोशी

अनकहीः बच्चे पढ़ना- लिखना भूल गए?

-डॉ. रत्ना वर्मा

कोरोनाकाल में स्कूलों की पढ़ाई बहुत ज्यादा प्रभावित हुई है, जिसका नुकसान स्कूली बच्चों को सबसे ज्यादा हुआ है । लगभग 16 महीने तक स्कूल बंद रहे। ऑनलाइन पढ़ाई की कोशिश की गई; परंतु वह कितनी कामयाब रहीयह सर्वज्ञात है, खासकर सरकारी स्कूलों में और वह भी दूर- दराज के ग्रामीण और पहाड़ी इलाकों में, जहाँ नेटवर्क समस्या के साथ– साथ बच्चों के पास स्मार्ट फोन का अभाव रहा है। सरकारी स्‍कूल में पढ़ने वाले अधिकतर बच्‍चे गरीब तबके से आते हैं, और ऐसे परिवार में सबके बीच एक फोन होता है। अभ‍िभावक काम पर जाते, तो फोन लेकर चले जाते, इससे बच्‍चे की पढ़ाई नहीं हो पाती थी। इतना ही नहीं, इस दौरान अनेक परिवारों के रोजगार छिन गए, बहुतों को अपने गाँव लौट जाना पड़ा। ऐसे में भला वे अपने बच्चों को ऑनलाइन पढ़ाई की सुविधा कैसे मुहैया करा पाते। बहुतों की तो आर्थिक कारणों से पढ़ाई भी छूट गई है।

 अब जबकि लगभग सभी स्‍कूल खुल गए हैं- बच्‍चे स्कूल तो आने लगे हैं;  पर एक अहम बात,  जो इनमें देखने को मिल रही है कि किताबों को पढ़कर अर्थ समझने में बच्‍चों को दिक्‍कत आ रही है। इतने लम्बे समय तक स्कूल न जाने की वजह से बच्चों में वह तेजी देखने को नहीं मिल रही। ऐसा होना स्वाभाविक भी है। आमने- सामने बैठकर शिक्षक और विद्यार्थी के बीच जो रिश्ता बनता है, वह मोबाइल के माध्यम से नहीं बन पाता है। विशेषकर छोटे बच्चों के लिए यह और भी बहुत मुश्किल है।

बच्‍चों की शिक्षा से जुड़े इसी नुकसान का आकलन करने के लिए अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय द्वारा किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि कोरोना के बीच स्‍कूल बंद होने से बच्‍चों ने प‍िछली कक्षाओं में जो सीखा था, वे उसे भूलने लगे । इसकी वजह से वर्तमान सत्र की कक्षाओं में उन्‍हें सीखने में द‍िक्‍कत आ रही है। इसका मुख्य कारण यह पाया गया कि ऑनलाइन क्‍लास  ठीक से संचालित नहीं हो पाए, इंटरनेट और मोबाइल जैसी सुविधाएँ सबको नहीं मिल पाईं और घर बैठकर पढ़ाई के प्रति अरुचि ने बच्‍चों को शिक्षा के लिहाज से पीछे धकेल दिया। इस दौरान पहली से तीसरी कक्षा में पढ़ने वाले बच्चों की पढ़ाई की ओर तो बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया गया ।

इस अध्ययन  के लिए पाँच राज्यों- छत्तीसगढ़, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड को चुना गया था। इन राज्‍यों के 44 जिलों के 1,137 सरकारी स्कूलों के कक्षा 2 से कक्षा 6 तक के 16,067 छात्रों को सर्वे में शामिल किया गया। सर्वे के मुताबिक, कोरोना के बीच स्‍कूल बंद होने से बच्‍चों ने प‍िछली कक्षाओं में जो सीखा था, उसे भूलने लगे हैं। इस सर्वे में पाया गया कि: 54% छात्रों की मौखिक अभिव्यक्ति प्रभावित हुई है। 42% छात्रों की पढ़ने की क्षमता प्रभावित हुई है। 40% छात्रों की भाषा लेखन क्षमता प्रभावित हुई है और 82% छात्र पिछली कक्षाओं में सीखे गए गणित के सबक को भूल गए हैं। अध्ययन में यह भी पाया गया कि बच्चों को भाषा और गण‍ित में सबसे ज्‍यादा द‍िक्‍कत का सामना करना पड़ रहा है। इस मामले में शिक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि भाषा और गणित का बुनियादी कौशल ही दूसरे विषयों को पढ़ने का आधार बनता है।

स्कूल में कक्षा में बैठकर शिक्षकों द्वारा दी जा रही शिक्षा और घर में बैठकर मोबाइल से दी गई शिक्षा में जमीन आसमान का अंतर होता है। इसे सभी ने बहुत अच्छे से महसूस किया है। घर से ही पढ़ाई के कारण ने बच्चों के मानसिक स्तर को प्रभावित तो किया ही है, साथ ही खेल- कूद और दोस्तों से दूरी ने उनके शारीरिक विकास को भी बहुत ज्यादा नुकसान पहुँचाया है। ज्यादातर समय घर पर ही रहने से बच्चे अपना समय टीवी और फोन पर ही बिताते थे। जब आम दिनों में गर्मियों की छुट्टी के बाद स्कूल की दिनचर्या में आने में बच्चों को वक्त लगता था तो यह तो कोरोना काल की बंदिशों के बाद का बहुत लम्बा समय है, इस समय वे न तो बाहर खेलने जा सकते थे, न कहीं घूमने, यहाँ तक कि दोस्तों और  रिश्तेदारों से भी मिलने पर पाबंदियाँ थी । इन सबके बाद वे जब स्कूल जाएँगे, तो उनकी आदतों में बदलाव तो नजर आएगा ही। जिसे पटरी पर लाने में जाहिर है शिक्षकों को भारी मशक्कत करनी पड़ेगी। 

बच्चों को पढ़ाई – लिखाई के प्रति रुचि जागृत करने के लिए सरकारी और गैरसरकारी दोनों ही स्तरों पर विशेष कार्यक्रम और योजनाएँ बनानी होंगी ताकि बच्चे पुनः अपनी पढ़ाई सुचारु रूप से जारी रख सकें। बच्चों के विकास को लेकर हुए इस नुकसान पर गंभीरता से विचार करना होगा और बच्चों की आगे की पढ़ाई सुचारु रूप से चले और हो चुके नुकसान की भरपाई हो सके, इसके लिए विशेष प्रयास करने होंगे। यद्यपि विभिन्न प्रदेशों में राज्य सरकारों ने स्कूल शिक्षा का स्तर बेहतर हो इस दिशा में नई कार्य योजनाओं पर काम करना शुरू कर दिया है, परंतु यह काम केवल दिखावे के लिए न हो ।  बच्चों की गुणवत्ता को बिना परखे आगे की कक्षाओं में प्रमोट कर देना बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ होगा। लॉकडाउन का सबसे ज्‍यादा असर ग्रामीण इलाकों के बच्‍चों पर पड़ा है, उसमें भी सबसे ज्‍यादा असर बच्‍च‍ियों पर पड़ा है। इस दौर की बहुत सी बच्‍च‍ियाँ ऐसी होंगी जो अब स्‍कूल नहीं लौट पाएँगी। सरकार को इस दिशा में काम करना अभ‍िभावकों और बच्‍चों को इसके ल‍िए प्रोत्साहित  करना होगा, अन्यथा इसका असर दूरगामी होगा, जो सामाजिक ह्रास का कारण बनेगा।

उम्मीद की जानी चाहिए कि देश की यह भावी पीढ़ी हमारी थोड़ी सी लापरवाही से कहीं लड़खड़ा न जाए। तो आइए कुछ ऐसा करें कि इस दौर के शिकार सभी बच्चों का मानसिक और शारीरिक विकास सुचारू रूप  से हो सके।

जब बच्चे स्कूल पहुँचें, तो उन्हें पाठ्यक्रम से न जोड़कर  दो-तीन दिन के लिए कुछ रोचक कहानियाँ पढ़ने के लिए दी जाएँ। कारण- अधिकतम छात्रों का सीधे तौर पर पुस्तक से नाता टूट चुका है। इसे जोड़ना ज़रूरी है। इसके बाद आगामी 10-12 दिनों तक  कुछ नया न पढ़ाकर, पूर्व पठित सामग्री के वे अंश  स्पष्ट किए जाएँ, जिन्हें विद्यार्थी ठीक से नहीं समझ सके हैं। उन अस्पष्ट अंशों को जानने के लिए एक अनौपचारिक रूप से पूर्व परीक्षा ली जाए। इसी पूर्व परीक्षा के आधार पर पुनरावृत्ति की कार्य-योजना बनाई जाए। निश्चित रूप से ये सोपान छात्रों को आगामी नए पाठ्यक्रम से जोड़ने में सहायक होंगे।

आलेखः विज्ञान सम्मत है भारतीय काल-गणना

 - प्रमोद भार्गव
 विक्रम संवत् का पहला महीना है चैत्र। इसका पहला दिन गुड़ी पड़वा कहलाता है। ब्रह्म-पुराण में कहा गया है, इसी दिन ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना की थी। इसलिए इसे नया दिन कहा गया। भगवान श्रीराम ने इसी दिन बाली का वध करके दक्षिण भारत की प्रजा को आतंक से छुटकारा दिलाया था। इस कारण भी इस दिन का विशेष महत्त्व है। लेकिन दुर्भाग्यवश काल-गणना का यह नए साल का पहला दिन हमारे राष्ट्रीय पंचांग का हिस्सा नहीं है।      
कालमान या तिथि-गणना किसी भी देश की ऐतिहासिकता की आधारशिला होती है; किंतु जिस तरह से हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं को विदेशी भाषा अंग्रेजी का वर्चस्व धूमिल कर रहा है, कमोबेश यही हश्र हमारे राष्ट्रीय पंचांग, मसलन कैलेण्डर का भी है। किसी पंचांग की काल-गणना का आधार कोई न कोई प्रचलित संवत् होता है। हमारे राष्ट्रीय पंचांग का आधार शक संवत् है। यद्यपि इसे राष्ट्रीय संवत की मान्यता नहीं मिलनी चाहिए, क्योंकि शक परदेशी थे और हमारे देश में हमलावर के रूप में आए थे। यह अलग बात है कि शक भारत में बसने के बाद भारतीय संस्कृति में ऐसे रच-बस गए कि उनकी मूल पहचान लुप्त हो गई। बावजूद शक संवत को राष्ट्रीय संवत् की मान्यता नहीं देनी चाहिए; क्योंकि इसके लागू होने बाद भी हम इस संवत् के अनुसार न तो कोई राष्ट्रीय पर्व व जयंतियाँ मनाते हैं और न ही लोक परंपरा के पर्व। तय है, इस संवत् का हमारे दैनंदिन जीवन में कोई महत्त्व नहीं है। इसके बनिस्बत हमारे सम्पूर्ण राष्ट्र के लोक व्यवहार में विक्रम संवत् के आधार पर तैयार किया गया पंचांग है। हमारे सभी प्रमुख त्योहार और तिथियाँ इसी पंचांग के अनुसार लोक मानस में मनाए जाने की मान्यता है। इस पंचांग की विलक्षणता है कि यह ईसा संवत् से तैयार ग्रेगेरियन कैलेंडर से भी 57 साल पहले वर्चस्व में आ गया था, जबकि शक संवत् की शुरूआत ईसा संवत् के 78 साल बाद हुई थी। अतएव हमने काल-गणना में गुलाम मानसिकता का परिचय देते हुए पिछड़ेपन को ही स्वीकारा। हालाँकि संसार में मिले समस्त अभिलेखों से ज्ञात होता है कि सबसे प्राचीन पचांग 5125  वर्ष पूर्व आरंभ हुआ था। इसका संबंध महाभारत युग से है। यह युगाब्द संवत् पांडव सम्राट युधिष्ठिर के राज्याभिषेक की तिथि से आरंभ होता है।
 
प्राचीन भारत और मध्य-अमेरिका दो ही ऐसे देश थे, जहाँ आधुनिक सेकेण्ड से सूक्ष्मतर और प्रकाश वर्ष जैसे उत्कृष्ट कालमान प्रचलन में थे। अमेरिका में मय सभ्यता का वर्चस्व था। मय संस्कृति में शुक्र-ग्रह के आधार पर काल-गणना की जाती थी। विश्वकर्मा मय दानवों के गुरु शुक्राचार्य का पौत्र और शिल्पकार त्वष्टा का पुत्र था। मय के वंशजों ने अनेक देशों में अपनी सभ्यता को विस्तार दिया। इस सभ्यता की दो प्रमुख विशेषताएँ थीं, स्थापत्य-कला और दूसरी सूक्ष्म ज्योतिष व खगोलीय गणना में निपुणता। रावण की लंका का निर्माण इन्हीं मय दानवों ने किया था। प्राचीन समय में युग, मनवन्तर, कल्प जैसे महत्तम और कालांश लघुतम समय मापक विधियाँ प्रचलन में थीं।   ॠग्वेवेद में वर्ष को 12 चंद्रमासों में बाँटा गया है। हरेक तीसरे वर्ष चन्द्र और सौर वर्ष का तालमेल बिठाने के लिए एक अधिकमास/ अधिमास जोड़ा गया। इसे मलमास भी कहा जाता है। ऋग्वेद की ऋचा संख्या 1-164,48 में एक पूरे वर्ष का  विवरण इस प्रकार उल्लेखित है-
द्वादश प्रघयश्चक्रमेक त्रीणि नम्यानि क उ तश्चिकेत।
तस्मिन्त्साकं त्रिशता न शंकोवोऽर्पिताः षष्टिर्न चलाचलासः।
   इसी तरह प्रश्न व्याकरण में 12 महीनों की तरह 12 पूर्णमासी और अमावस्याओं के नाम और उनके फल बताए गए हैं। ऐतरेय ब्राह्मण में 5 प्रकार की ऋतुओं का वर्णन है। तैत्तिरीय ब्राह्मण में ऋतुओं को पक्षी के प्रतीक रूप में प्रस्तुत किया गया है-
तस्य ते वसन्तः शिरः। ग्रीष्मो दक्षिणः पक्षः वर्षः पुच्छम्।
  शरत पक्षः। हेमान्तो मघ्यम्।
   
अर्थात वर्ष का सिर वसंत है। दाहिना पंख ग्रीष्म। बायां पंख शरद्। पूँछ वर्षा और हेमन्त को मध्य भाग कहा गया है। अर्थात् तैत्तिरीय ब्राह्मण काल में वर्ष और ऋतुओं की पहचान और उनके समय का निर्धारण प्रचलन में आ गया था। ऋतुओं की स्थिति सूर्य की गति पर आधारित थी। एक वर्ष में सौर मास की शुरूआत, चन्द्रमास के प्रारंभ से होती थी। प्रथम वर्ष के सौर मास का आरंभ शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को और आगे आने वाले तीसरे वर्ष में सौर मास का आरंभ कृष्ण पक्ष की अष्टमी से होता था। तैत्तिरीय संहिता में सूर्य के 6 माह उत्तरायण और 6 माह दक्षिणायन रहने की स्थिति का भी उल्लेख है। दरअसल जम्बूद्वीप के बीच में सुमेरु पर्वत है। सूर्य और चन्द्रमा समेत सभी ज्योर्तिमण्डल इस पर्वत की परिक्रमा करते हैं। सूर्य जब जम्बूद्वीप के अंतिम अभ्यंतर मार्ग से बाहर की ओर निकलता हुआ लवण समुद्र की ओर जाता है, तब इस काल को दक्षिणायन और जब सूर्य लवण समुद्र के अंतिम मार्ग से भ्रमण करता हुआ जम्बूद्वीप की ओर कूच करता है, तो इस कालखण्ड को उत्तरायण कहते हैं।
 
 ऋग्वेद में युग का कालखण्ड 5 वर्ष माना गया है। इस पाँचसाला युग के पहले वर्ष को संवत्सर, दूसरे को परिवत्सर, तीसरे को इदावत्सर, चौथे को अनुवत्सर और पाँचवे वर्ष को इद्वत्सर कहा गया है। वैदिक युग में ही यह ज्ञात कर लिया था कि अमुक दिन, अमुक समय से सूर्यग्रहण या चंद्रग्रहण होगा। यह गणना इतनी सटीक है कि तिथि वृद्धि, तिथि छह, अधिक मास भी कोई व्यवधान उत्पन्न नहीं कर पाते। तिथि घटे या बड़े, लेकिन सूर्यग्रहण सदैव अमावस्या को और चंद्रगहण पूर्णिमा को ही पड़ता है। इन सब उल्लेखों से प्रमाणित होता है कि ऋग्वैदिक काल से ही चन्द्रमास और सौर वर्ष के आधार पर की गई काल-गणना प्रचलन में आने लगी थी, जिसे जन सामान्य ने स्वीकार कर लिया था। चंद्रकला की वृद्धि और उसके क्षय के निष्कर्षों को समय मापने का आधार माना गया।

 कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष के आधार पर उज्जैन के राजा विक्रमादित्य ने विक्रम संवत् की विधिवत शुरूआत की। इस हेतु एक वेधशाला भी बनाई गई, जो सूर्य की परिक्रमा पर केंद्रित है। इस दैंनंदिन तिथि गणना को पंचांग कहा गया; किंतु जब स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अपना राष्ट्रीय संवत् अपनाने की बात आई, तो राष्ट्रभाषा की तरह सामंती मानसिकता के लोगों ने विक्रम संवत् को राष्ट्रीय संवत् की मान्यता देने में विवाद पैदा कर दिए। कहा गया कि भारतीय काल-गणना उलझाऊ है। इसमें तिथियों और मासों का परिमाप घटता-बढ़ता है, इसलिए यह अवैज्ञानिक है। जबकि राष्ट्रीय न होते हुए भी सरकारी प्रचलन में जो ग्रेगेरियन कैलेंडर है, उसमें भी तिथियों का मान घटता-बढ़ता है। मास 30 और 31 दिन के होते हैं। इसके अलावा फरवरी माह कभी 28 तो कभी 29 दिन का होता है। तिथियों में संतुलन बिठाने के इस उपाय को ‘लीप ईयर’ यानी ‘अधिक/अधि वर्ष’ कहा जाता है। ऋग्वेद से लेकर विक्रम संवत् तक की सभी भारतीय कालगणनाओं में इसे अधिकमास ही कहा गया है। ग्रेगेरियन कैलेण्डर की रेखांकित कि जाने वाली महत्त्वपूर्ण  विसंगति यह है कि दुनिया भर की कालगणनाओं में वर्ष का प्रारंभ वसंत के बीच या उसके आसपास से होता है, जो फागुन में अँगड़ाई लेता है। इसके तत्काल बाद ही चैत्र मास की शुरूआत होती है। इसी समय नई फसल पककर तैयार होती है, जो एक ऋतुचक्र समाप्त होने और नए वर्ष के ऋतुचक्र के प्रारंभ का संकेत है। दुनिया की सभी अर्थव्यवस्था और वित्तीय लेखे-जोखे भी इसी समय नया रूप लेते हैं। अंग्रेजी महीनों के अनुसार वित्तीय वर्ष 1 अप्रैल से 31 मार्च का होता है। ग्राम और कृषि आधारित अर्थव्यवस्था के वर्ष का यही आधार है। इसलिए हिंदी मास या विक्रम संवत् में चैत्र और वैशाख महीने को मधुमास कहा गया है। इसी दौरान चैत्र शुक्ल प्रतिपदा यानी गुड़ी पड़वा से नया संवत्सर प्रारंभ होता है, जबकि ग्रेगेरियन में नए साल की शुरूआत पौष मास अर्थात् जनवरी से होती है, जो किसी भी उल्लेखनीय परिर्वतन का प्रतीक नहीं है।

  विक्रम संवत् की उपयोगिता ऋतुओं से जुड़ी थी, जो ऋग्वैदिक काल से ही जनसामान्य में प्रचलन में थी; तथापि हमने शक संवत् को राष्ट्रीय संवत् के रूप में स्वीकारा, जो भारतीय सांस्कृतिक परंपरानुसार कतई अपेक्षित नहीं है; क्योंकि शक विदेशी होने के साथ आक्रांता थे। चन्द्रगुप्त द्वितीय ने उज्जैन में शकों को परास्त कर उत्तरी  मध्य-भारत में उनका अंत किया और विक्रमादित्य की उपाधि धारण की। यह ऐतिहासिक घटना ईसा सन् से 57 साल पहले घटी और विक्रमादित्य ने इसी दिन से विक्रम संवत् की शुरूआत की। जबकि इन्हीं शकों की एक लड़ाकू टुकड़ी को कुषाण शासक कनिष्क ने मगध और पाटलिपुत्र में ईसा सन् के 78 साल बाद परास्त किया और शक संवत् की शुरूआत की। विक्रमादित्य को इतिहास के पन्नों में ‘शकारि’ भी कहा गया है, अर्थात् शकों का नाश करने वाला शत्रु। शत्रुता तभी होती है, जब किसी राष्ट्र की संप्रभुता और संस्कृति को क्षति पहुँचाने का दुश्चक्र कोई विदेशी आक्रमणकारी रचता है। इस सबके बावजूद राष्ट्रीयता के बहाने हमें ईसा संवत् को त्यागना पड़ा,  तो विक्रम संवत् की बजाय शक संवत् को स्वीकार कर लिया। अर्थात् पंचांग यानी कैलेंडर की दुनिया में 57 साल आगे रहने की बजाय हमने 78 साल पीछे रहना उचित समझा? अपनी गरिमा को पीछे धकेलना हमारी मानसिक गुलामी की विचित्र विडंबना है, जिसका स्थायी भाव बदला जाना राष्ट्रीयता एवं राष्ट्रबोध के लिए आवश्यक है।

सम्पर्कः शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी म.प्र., मो. 09425488224,09981061100

आज़ादी का अमृत महोत्सवः ‘स्व’ की पुनर्स्थापना

 - अरुण शेखर अभिनेता, लेखक)

हम स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगाँठ मना रहे हैं। आज़ादी का अमृत महोत्सव। हमारे जीवन में यह समय आया, यह गर्व और गौरव की बात है। निश्चित रूप से हमने दुनिया में अपना स्थान बनाया है, यह भी संतोष का विषय है। कई देश, जो हमारे साथ या हमसे बाद स्वतंत्र हुए, वे कहीं बेहतर स्थिति में हैं;  इसलिए यह समय पुनर्मूल्यांकन का भी है। हम से कहाँ चूक हुई? कई विषयों में आज भी हम अपने को हीन क्यों समझते हैं?

यह कुछ विचारणीय बिंदु हैं जिनपर हमें अवश्य ध्यान देना चाहिए।

जब हम स्वतंत्र हुए हमारी निर्भरता हर चीज में दूसरे देशों पर थी। हमारे सपने उड़ान भर रहे थे; लेकिन संभवत: उनकी निश्चित दिशा नहीं थी। इसलिए कुछ वर्षों बाद ही सपने बिखरने लगे, आशाएँ धूमिल होने लगीं। देशवासियों को लगा था कि कुछ वर्षों में हम पूरी तरह स्वाधीन हो जाएँगे; परंतु ऐसा नहीं हुआ। आर्थिक, सांस्कृतिक, वैचारिक या भाषायी हर चीज में सब कुछ आयातित था। विदेशी डॉलर अच्छा, विदेशी संस्कृति अच्छी, उनका रहन-सहन अच्छा, उनकी कोट पेंट अच्छी, विदेशी भाषा अच्छी... और हमारा सबकुछ उनसे कमतर जान पड़ता। यह भाव हमारे अंदर कभी कला के माध्यम से, कभी भाषा के माध्यम से और कभी साहित्य के माध्यम से भरा गया।

यहीं पर हमसे चूक हुई। यहाँ पर मैं यह स्पष्ट करना चाहूँगा कि सभी भाषाएँ, कलाएँ और संस्कृतियाँ अच्छी हो सकती हैं;  लेकिन हमारे देश की भाषा, कला और संस्कृति किसी से कमतर है, यह स्वीकार्य नहीं। वह हमारे जीवन का हिस्सा है, हमारी साँसों से जुड़ी है। उसी प्रकार किसी भाषा या कला को सीखने में कोई बुराई नहीं; परंतु अपनी कलाओं को भुलाकर बिल्कुल भी नहीं।

यह सब कुछ धीरे-धीरे व्यवस्थित रूप से किया गया। जैसा कि कहा जाता है कि 'किसी को गुलाम बनाना है, तो वहाँ की संस्कृति को नष्ट कर दो, वो आपके गुलाम बन जाएँगे।'

यह प्रथा स्वतंत्रता के बाद भी अनवरत चलती रही। हमारी सरकार बनने के बाद भी हम भाषायी और कलात्मक स्तर पर गुलाम बने रहे। स्वतंत्रता के बाद भी हम अपनी भाषा को सम्मान नहीं दिला पाए। इसलिए शासन और जनता के बीच एक विभाजक रेखा बनी रही; बल्कि और बढ़ती गई।

किसी देश की समृद्धि उसकी जीडीपी से नहीं, बल्कि उसकी सांस्कृतिक विरासत से नापी जानी चाहिए। जीडीपी छलावा मात्र है।

कई देश ऐसे हैं, जहाँ की प्रति व्यक्ति आय हो सकता है कम हो परंतु वह कहीं अधिक प्रसन्न और सुखी हैं। सुख की परिभाषा धन कभी नहीं हो सकती। हमने अपने आदर्श चुनने में भूल की बल्कि भ्रमित रहे।

हमने कभी मार्क्स, कभी लेनिन को अपना आदर्श बनाया। आर्यभट्ट को भुलाकर आइंस्टाइन को पूजने लगे। राजा रवि वर्मा, जिनकी कलाकृतियाँ आज भी घर- घर में हैं परंतु उनके बारे में हमें नहीं बताया गया। हमें पढ़ाया गया पाब्लो पिकासो के बारे में, लियोनार्दो द विंची के बारे में। जयशंकर प्रसाद के नाटक चंद्रगुप्त, स्कंदगुप्त और ध्रुवस्वामिनी को कहा गया कि यह प्रदर्शन के अनुकूल नहीं हैं। शेक्सपियर के ओथेलो, मैकबेथ और टेंपेस्ट को अधिक बेहतर बताकर हमारी हीनताबोध को और बढ़ाया गया।

कहने का तात्पर्य यह है कि हर क्षेत्र में ऐसे अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं कि किस प्रकार हमें हमारी चीज को तुच्छ, छोटा, कमतर बताया गया। हमारे ‘स्व’ को नष्ट किया गया। जिसका परिणाम है कि आज भी हम डॉलर के पीछे भागते हैं। विदेशों में बसना चाहते हैं। अपने देश में वृद्धाश्रमों की संख्या बढ़ा रहे हैं।

आज इस अमृत महोत्सव के अवसर पर भारत के ‘स्व’ को पुनर्स्थापित करने की आवश्यकता है।

कविताः युद्ध के बीच


- डॉ. नूतन गैरोला





युद्ध के बीच-1

वे जो मारे जा रहे हैं

और वे जो मार रहे है

दोनों मर रहे हैं

मारते-मरते वे खुद को मरने से बचाते

मार रहे है क्योंकि वे मरना नहीं चाहते

उन्हें झोक दिया गया है युद्ध के मैदान में

जो नफ़रतों के लिए नहीं

प्रेम के लिए जीते हैं।

वे अपनी आवाज पहुँचाना चाहते हैं

अपनी माँ, पिता, भाई, बहन, प्रेमिका के पास

उनकी सुरक्षित गोद में वे एक झपकी लेना चाहते हैं

जानते हैं वे कि उनके अपने भी ना सो पाए होंगे

वे कहना चाहते हैं उनसे

कि फिक्र मत करना

पर वे अपनी बात दिल में दबाए

धमाके के बाद चुप्पी से रक्तपुंज में ढल जाते हैं।

किसी को नहीं पता वे कौन थे

चिरनिद्रा को प्राप्त उनकी देह किधर गई?

कब रुकेगा युद्ध

कब लौटेंगे सैनिक अपने घरों को?

युद्ध के बीच–2

वे

लोग जो अपने देशों को

जाना चाहते थे

शहर में बमबारी की चेतावनी के बीच

उन्हें रेलों से उतार दिया गया

सीमाओं पर रोका गया

चमड़ी के रंगों के आधार पर

बंदूक की बट से पीटा गया

युद्ध के मैदान में जबरन उन्हें रोका गया।

 

उनका देश दूर से उन्हें पुकारता है

सुरक्षित लौट आओ मेरे बच्चो!

पर कुछ हैं कि उन्हें शहरों में जकड़ लिया गया।

 

क्योंकि

जब मानवता का ह्रास होता है, तभी युद्ध शुरू होते हैं

और युद्ध होने पर मानव ही नहीं मरते

बची-खुची मानवता भी मर जाती हैं।

युद्ध के बीच - 3

(मैं और जंग)

मैं टेलीविजन के आगे

थरथराती रही

बीते कई दिनों से,

देर रात तक, अलसुबह और फिर दिन ढलने तक सतत

मुझे सुनाई देती रही हैं हजारों चीखें क्रंदन

जिन्हें रौंदते रहे बख्तरबंद टैंक, युद्धपोत,

हवाईजहाज के कोलाहल और धमाके।

टैंक और जहाज भी जमींदोज होते हुए

 

शहर में मौत का ऐलान करती सायरन की आवाजें

और विचलित करता दबा हुआ सन्नाटा,

धुआँ-धुआँ—सा फैला हुआ

कि जल, थल, वायु

सुरक्षित नहीं वहाँ

चिथड़ा-चिथड़ा धमाकों से फटते-जलते शहर

 

बर्फीले बंकरों में छुपे भूखे प्यासे निरीह बच्चे

माँ की गोद में सर रख कर सोने को आकुल बच्चे

बारूद और मिसाइलों की आसमानी बरसात

जैसे बरस रहे हो ओले

उनके बीच

जान हथेली पर रख मीलों तक भागते

अनजाने ठिकानों पर रुक

इंतजार करते हों किसी देवदूत का

किसी राहत का

कब खत्म होगा युद्ध ...

 

मेरा दिल यकायक रुकता है

डर से

मुझे सुनाई देती हजारों माँ-बहनों की पुकार आँसू

दिखाई देती है पिता भाई के माथे पर

गहराती चिंता की रेखाएँ, बेसब्र इंतजार

वे भी अपने बच्चों की नाउम्मीदी में

उम्मीदों की राह पर मन के दीये जलाते राह तक रहे हैं

जिनके बच्चे युद्ध के लिए भेजा गए

वे भी जिनके बच्चे अध्ययन के लिए भेजा गए

जो

क्या वे सब लौट पाएँगे युद्ध की भयानकताओं के बीच से

 

इधर कमरे में ही मेरी रूह काँप जाती है

मैं टीवी देखते रोज युद्धभूमि में पहुँच जाती हूँ

मैं अब टेलीविजन नहीं देख पाऊँगी

हृदय फटता है।

कब सब सुरक्षित होंगे?

कब रुकेगा युद्ध?

22 अप्रैल- विश्व पृथ्वी दिवसः पृथ्वी और मानवता को बचाने के लिए आहार

  - ज़ुबैर सिद्दिकी

जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग जैसे शब्द अब हमारे लिए अनजाने नहीं हैं। बढ़ते हुए वैश्विक तापमान से निकट भविष्य में होने वाली समस्याओं के संकेत दिखने लगे हैं। इनको सीमित करने के लिए समय-समय पर सम्मेलन आयोजित होते रहे हैं। हाल ही में ग्लासगो में ऐसा सम्मेलन हुआ था। आम तौर पर इन सम्मेलनों में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन, वनों की कटाई, पारिस्थितिक तंत्र आदि मुद्दे सुर्खियों में रहते हैं; लेकिन कुछ ऐसे क्षेत्र हैं,  जिन पर चर्चा नहीं होती है। हाल ही में कुछ शोधकर्ताओं ने हमारे खानपान के तरीकों से पृथ्वी पर होने वाले प्रभावों का अध्ययन किया है।     

तथ्य यह है कि विश्व में लगभग दो अरब लोग (अधिकतर पश्चिमी देशो में) अधिक वज़न या मोटापे से ग्रस्त हैं। इसके विपरीत करीब 80 करोड़ ऐसे लोग (अधिकतर निम्न व मध्यम आमदनी वाले देशों में) भी हैं जिनको पर्याप्त पोषण नहीं मिल रहा है। 2017 में अस्वस्थ आहार से विश्व स्तर पर सबसे अधिक मौतें हुई थीं। राष्ट्र संघ खाद्य व कृषि संगठन के अनुसार जनसंख्या में वृद्धि और पश्चिमी देशों के समान अधिक से अधिक भोजन का सेवन करने के रुझान को देखते हुए अनुमान है कि वर्ष 2050 तक मांस, डेयरी और अंडे के उत्पादन में लगभग 44 प्रतिशत वृद्धि ज़रूरी होगी।

यह स्वास्थ्य के साथ-साथ पर्यावरण की भी समस्या है। गौरतलब है कि वर्तमान औद्योगीकृत खाद्य प्रणाली वैश्विक ग्रीनहाउस उत्सर्जन के लगभग एक-चौथाई के लिए ज़िम्मेदार है। इसके लिए विश्व भर के 70 प्रतिशत मीठे पानी और 40 प्रतिशत भूमि का उपयोग किया जाता है। इसके अतिरिक्त इसके लिए इस्तेमाल किए जाने वाले उर्वरक नाइट्रोजन और फॉस्फोरस चक्र को बाधित करते हैं और नदियों तथा तटों को भी प्रदूषित करते हैं।

वर्ष 2019 में 16 देशों के 37 पोषण विशेषज्ञों, पारिस्थितिकीविदों और अन्य विशेषज्ञों के एक समूह - लैंसेट कमीशन ऑन फूड, प्लेनेट एंड हेल्थ - ने एक रिपोर्ट जारी की है जिसमें पोषण और पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए व्यापक आहार परिवर्तन का आह्वान किया गया है। लैंसेट समूह द्वारा निर्धारित आहार का पालन करने वाले व्यक्ति को लचीलाहारी कहा जाता है जो अधिकतर दिनों में तो पौधों से प्राप्त आहार लेता है और कभी-कभी थोड़ी मात्रा में मांस या मछली का सेवन करता है।

इस रिपोर्ट ने निर्वहनीय आहार पर ध्यान तो आकर्षित किया है;  लेकिन यह सवाल भी उठा है कि क्या यह सभी के लिए व्यावहारिक है। इस संदर्भ में कुछ वैज्ञानिक पोषण और आजीविका को नुकसान पहुँचाए बिना स्थानीय माहौल के हिसाब से पर्यावरणीय रूप से निर्वहनीय आहार का परीक्षण करने का प्रयास कर रहे हैं।

खानपान से होने वाला उत्सर्जन

खाद्य उत्पादन से होने वाला ग्रीनहाउस उत्सर्जन इतना अधिक है कि वर्तमान दर पर सभी राष्ट्र गैर-खाद्य उत्सर्जन को पूरी तरह खत्म भी कर देते हैं,  तब भी तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित नहीं किया जा सकता है। खाद्य प्रणाली उत्सर्जन का 30 से 50 प्रतिशत हिस्सा तो केवल जंतु सप्लाई चेन से आता है। इसके अतिरिक्त कुछ विशेषज्ञों के अनुसार 2050 तक शहरीकरण और जनसंख्या वृद्धि के कारण भोजन सम्बंधी उत्सर्जन में 80 प्रतिशत तक वृद्धि होने की सम्भावना है।

यदि सभी लोग अधिक वनस्पति-आधारित आहार का सेवन करने लगें और अन्य सभी क्षेत्रों से उत्सर्जन को रोक दिया जाए,  तो वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लक्ष्य को पूरा करने की 50 प्रतिशत उम्मीद होगी। यदि भोजन प्रणाली में व्यापक बदलाव के साथ आहार में भी सुधार किया जाता है तो यह संभावना बढ़कर 67 प्रतिशत हो जाएगी।

अलबत्ता, ये निष्कर्ष मांस उद्योग को नहीं सुहाते। 2015 में यूएस कृषि विभाग की सलाहकार समिति ने आहार सम्बंधी दिशानिर्देशों में संशोधन करते समय शोधकर्ताओं के हस्तक्षेप के चलते पर्यावरणीय पहलू को भी शामिल करने पर विचार किया था;  लेकिन उद्योगों के दबाव के कारण इस विचार को खारिज कर दिया गया। फिर भी इस मुद्दे पर लोगों का ध्यान तो गया।

यूके-आधारित वेलकम संस्थान द्वारा वित्तपोषित EAT-लैंसेट कमीशन ने एक मज़बूत केस प्रस्तुत किया। पोषण विशेषज्ञों ने संपूर्ण खाद्य पदार्थों से बना एक बुनियादी स्वस्थ आहार तैयार किया जिसमें कार्बन उत्सर्जन, जैव-विविधता हानि और मीठे पानी, भूमि, नाइट्रोजन तथा फॉस्फोरस के उपयोग को शामिल किया गया। इस प्रकार से टीम ने आहार की पर्यावरणीय सीमाएँ निर्धारित की। टीम के अनुसार इन पर्यावरणीय सीमाओं का उल्लंघन करने का मतलब इस ग्रह को मानव जाति के लिए जीवन-अयोग्य बनाना होगा।

इस आधार पर उन्होंने एक विविध और मुख्यतः वनस्पति आधारित भोजन योजना तैयार की है। इस योजना के तहत औसत वज़न वाले 30 वर्षीय व्यक्ति के लिए 2500 कैलोरी प्रतिदिन के आहार के हिसाब से एक सप्ताह में 100 ग्राम लाल मांस खाने की अनुमति है। यह एक आम अमेरिकी की खपत से एक-चौथाई से भी कम है। यह भी कहा गया है कि अत्यधिक परिष्कृत खाद्य पदार्थ (शीतल पेय, फ्रोज़न फूड और पुनर्गठित मांस, शर्करा और वसा) के सेवन से भी बचना चाहिए।

आयोग का अनुमान है कि इस प्रकार के आहार के ज़रिए पारिस्थितिकी तंत्र को क्षति पहुँचाए बिना 10 अरब लोगों को अधिक स्वस्थ भोजन दिया जा सकता है। कई वैज्ञानिकों ने EAT-लैंसेट द्वारा तैयार किए गए आहार प्लान की सराहना की है; लेकिन एक सवाल यह भी है कि क्या यह आहार कम संसाधन वाले लोगों के लिए भी पर्याप्त पोषण प्रदान करेगा। जैसे वाशिंगटन स्थित ग्लोबल एलायंस फॉर इम्प्रूव्ड न्यूट्रिशन के टाय बील का निष्कर्ष है कि यह आहार 25 वर्ष से ऊपर की आयु के व्यक्ति के लिए आवश्यक जिंक का 78 प्रतिशत और कैल्शियम का 86 प्रतिशत ही प्रदान करता है और प्रजनन आयु की महिलाओं को आवश्यक लौह का केवल 55 प्रतिशत प्रदान करता है।

इन आलोचनाओं के बावजूद, यह आहार पर्यावरण सम्बंधी चिंताओं को केंद्र में रखता है। रिपोर्ट के प्रकाशन के बाद विश्व भर के जन स्वास्थ्य वैज्ञानिक इस आहार को सभी तरह के लोगों के लिए व्यावहारिक बनाने पर अध्ययन कर रहे हैं।

समृद्ध आहार

कई पोषण शोधकर्ता जानते हैं कि अधिकतर उपभोक्ता आहार सम्बंधी दिशानिर्देशों का पालन नहीं करते। कई वैज्ञानिक लोगों को यह संदेश देने के कारगर तरीके तलाश रहे हैं। कुछ पोषण वैज्ञानिक स्कूलों में बगैर हो-हल्ले के एक निर्वहनीय आहार का परीक्षण कर रहे हैं, जिसमें मौसमी सब्ज़ियों और फ्री-रेंज मांस (जिन जंतुओं को दड़बों में नहीं रखा जाता) जैसे पारंपरिक और निर्वहनीय खाद्य की खपत को बढ़ावा दिया जाता है।

इस कार्यक्रम में प्राथमिक विद्यालय के 2000 छात्रों के स्कूल लंच का विश्लेषण करने के लिए कंप्यूटर एल्गोरिदम का उपयोग किया गया है। जिससे उन्हें आहार को अधिक पौष्टिक और जलवायु के अनुकूल बनाने के तरीकों के सुझाव मिले, जैसे मांस की मात्रा को कम करके फलियों और सब्ज़ियों की मात्रा में वृद्धि। शोधकर्ताओं ने बच्चों और उनके अभिभावकों को लंच में सुधार की सूचना दी; लेकिन उनको इसका विवरण नहीं दिया गया। इसकी ओर बच्चों ने भी ध्यान नहीं दिया और पहले के समान भोजन की बर्बादी भी नहीं हुई। इस कवायद के माध्यम से शोधकर्ता बच्चों में टिकाऊ आहार सम्बंधी आदतें विकसित करना चाहते हैं, जो आगे भी जारी रहें। वैसे यह आहार EAT-लैंसेट से काफी अलग है। यह EAT-लैंसेट आहार को स्थानीय परिस्थितियों के आधार पर तैयार करने के महत्व को रेखांकित करता है।

इसी तरह से कुछ शिक्षाविद और रेस्तरां भी कम आय वाली परिस्थिति में मुफ्त आहार का परीक्षण कर रहे हैं। इस संदर्भ में जॉन हॉपकिंस युनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन के शोधकर्ताओं ने इस तरह का आहार लेने वाले 500 लोगों का सर्वेक्षण किया और पाया कि 93 प्रतिशत लोगों ने इस आहार को काफी पसंद किया। देखा गया कि प्रत्येक मुफ्त आहार की कीमत 10 अमेरिकी डॉलर है जो वर्तमान में यूएस फूड स्टैम्प द्वारा प्रदान की जाने वाली राशि का पाँच गुना है। इससे पता चलता है कि यदि आप आहार में व्यापक बदलाव करें तो पर्यावरण पर एक बड़ा प्रभाव डाल सकते हैं; लेकिन इसमें सांस्कृतिक और आर्थिक बाधाएँ रहेंगी।

पेट पर भारी

फिलहाल शोधकर्ता कम या मध्यम आय वाले देशों में भविष्य का आहार खोजने का प्रयास कर रहे हैं। इसमें सबसे बड़ी बाधा यह पता लगाना है कि इन देशों के लोग वर्तमान में कैसे भोजन ले रहे हैं। देखा जाए तो भारत के लिए यह जानकारी काफी महत्त्वपूर्ण है; क्योंकि वैश्विक भूख सूचकांक में 116 देशों में भारत का स्थान 101 है। और तो और, यहाँ अधिकतर बच्चे ऐसे हैं, जो अपनी  उम्र के हिसाब से काफी दुबले हैं।

इस मामले में उपलब्ध डैटा का उपयोग करते हुए आई.आई.टी. कानपुर के फूड सिस्टम्स वैज्ञानिक अभिषेक चौधरी, जो EAT-लैंसेट टीम का हिस्सा भी रहे हैं, और उनके सहयोगी स्विस फेडरल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के वैभव कृष्णा ने भारत के सभी राज्यों के लिए आहार डिज़ाइन तैयार करने के लिए स्थानीय पानी, उत्सर्जन, भूमि उपयोग और फॉस्फोरस एवं नाइट्रोजन उपयोग के पर्यावरणीय डैटा का इस्तेमाल किया। इस विश्लेषण ने एक ऐसे आहार का सुझाव दिया, जो पोषण सम्बंधी आवश्यकताओं को पूरा करता है, खाद्य-सम्बंधी उत्सर्जन को 35 प्रतिशत तक कम करता है और अन्य पर्यावरणीय संसाधनों पर दबाव भी नहीं डालता है। लेकिन आवश्यक मात्रा में ऐसा भोजन उगाने के लिए 35 प्रतिशत अधिक भूमि की आवश्यकता होगी या उपज बढ़ानी होगी। इसके अलावा भोजन की लागत 50 प्रतिशत अधिक होगी।

भारत ही नहीं स्वस्थ और टिकाऊ आहार अन्य स्थानों पर भी महँगा है। EAT-लैंसेट द्वारा प्रस्तावित विविध आहार जैसे नट, मछली, अंडे, डेयरी उत्पाद आदि को लाखों लोगों तक पहुँचाना असंभव है। यदि खाद्य कीमतों के हालिया आँकड़ों (2011) को देखा जाए तो इस आहार की लागत एक सामान्य पौष्टिक भोजन की लागत से 1.6 गुना अधिक है।

कई अन्य व्यावहारिक दिक्कतों के चलते फिलहाल वैज्ञानिकों को कम और मध्यम आय वाले देशों में पर्यावरण संरक्षण से अधिक ध्यान पोषण प्रदान करने पर देना चाहिए। वर्तमान में एक समिति के माध्यम से EAT-लैंसेट के विश्लेषण पर एक बार फिर विचार किया जा रहा है।

कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि गरीब देशों में वहनीय आहार की खोज समुदायों और किसानों के साथ मिलकर काम करने से ही संभव है। खाद्य प्रणाली से जुड़े वैज्ञानिकों को लोगों को बेहतर आहार प्रदान करने के लिए स्थानीय परिस्थितियों से तालमेल बनाने के तरीके खोजने की भी आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)

पृथ्वी दिवसः पेड़ श्रीमद् भगवद् गीता का संदेश सुनाते हैं

- समीर उपाध्याय

मैं पेड़ हूँ।

हे संवेदन शून्य....!

मुझे मत काटो! मत काटो! मत काटो!

पीड़ा मुझे भी होती है,

मन मेरा भी रोता है।

सजीव हूँ, पत्थर तो नहीं!

ज़मीं में अपनी जड़ें जमाता हूँ।

कई वर्षों तक तपस्या करता हूँ।

कुल्हाड़ी के घाव को सहता हूँ।

महावीर-सी साधना करता हूँ।

 

हे संवेदन शून्य...!

मुझे मत काटो! मत काटो! मत काटो!

पीड़ा मुझे भी होती है,

मन मेरा भी रोता है।

सजीव हूँ, पत्थर तो नहीं!

सूर्य की तपिश सहता हूँ।

घनी शीतल छाँव देता हूँ।

मीठे मधुर फल खिलाता हूँ

फूलों की सौरभ फैलाता हूँ।

 

हे संवेदन शून्य...!

मुझे मत काटो! मत काटो! मत काटो!

पीड़ा मुझे भी होती है,

मन मेरा भी रोता है।

सजीव हूँ, पत्थर तो नहीं!

पंछियों का बसेरा बनता हूँ।

कर्णप्रिय कलरव सुनाता हूँ।

मंद मंद 'समीर' बहाता हूँ।

पथिकों को सुकून देता हूँ।

 

हे संवेदन शून्य...!

मुझे मत काटो! मत काटो! मत काटो!

पीड़ा मुझे भी होती है,

मन मेरा भी रोता है।

सजीव हूँ, पत्थर तो नहीं!

जहरीली वायु पी जाता हूँ।

परिशुद्ध प्राणवायु देता हूँ।

ईंधन बन अस्तित्व मिटाता हूँ।

यज्ञ-समिधा बन जलता हूँ।

 

हे संवेदन शून्य....!

मुझे मत काटो! मत काटो! मत काटो!

पीड़ा मुझे भी होती है,

मन मेरा भी होता है।

सजीव हूँ, पत्थर तो नहीं!

अमूल्य औषधियाँ देता हूँ।

असाध्य रोगों को मिटाता हूँ।

खुशहाली प्रदान करता हूँ।

जीवन का आधार बनता हूँ।

 

हे संवेदन शून्य....!

मुझे मत काटो! मत काटो! मत काटो!

पीड़ा मुझे भी होती है,

मन मेरा भी रोता है।

सजीव हूँ, पत्थर तो नहीं!

वर्षा के बादलों को खींच लाता हूँ।

बारिश की बौछार को सहता हूँ।

ज़मीं को धोने से बचाता हूँ।

धरित्री को हरियाली बनाता हूँ।

 

हे संवेदन शून्य...!

मुझे मत काटो! मत काटो! मत काटो!

पीड़ा मुझे भी होती है,

मन मेरा भी रोता है।

सजीव हूँ, पत्थर तो नहीं!

परोपकार को धर्म बनाता हूँ।

निरपेक्ष भाव से सेवा करता हूँ।

फल की अपेक्षा नहीं रखता हूँ।

श्रीमद्भगवद् गीता का

संदेश सुनाता हूँ।

 

मैं पेड़ हूँ।

प्रकृति का अनमोल उपहार हूँ।

जीवन का आधार हूँ।

कुदरत का शृंगार हूँ।

मुझे मत काटो! मत काटो! मत काटो!

मुझे जीवन बख्श़ दो!

बख्श़ दो! बख्श़ दो!


सम्पर्कः मनहर पार्क: 96/
A, चोटीला:36520, जिला:सुरेंद्रनगर, गुजरात, मो. 9265717398, s.l.upadhyay1975@gmail.com