उदंती.com को आपका सहयोग निरंतर मिल रहा है। कृपया उदंती की रचनाओँ पर अपनी टिप्पणी पोस्ट करके हमें प्रोत्साहित करें। आपकी मौलिक रचनाओं का स्वागत है। धन्यवाद।

Sep 1, 2022

उदंती.com, सितम्बर- 2022

वर्ष- 15, अंक- 1

भाषा की समृद्धि स्वतंत्रता का बीज है।   
 -लोकमान्य तिलक

इस अंक में

अनकहीः  योजनाओं के मकड़जाल में देश - डॉ. रत्ना वर्मा 

हिन्दी दिवसः जब भाषाएँ मरने लगती हैं - डॉ. आशीष अग्रवाल

हिन्दी दिवसः संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनी हिन्दी - प्रमोद भार्गव

आधुनिक बोध कथा-9ः पैसा पैसे को खींचता है - सूरज प्रकाश

आलेखः हम अपनी गलतियों से ही सीखते हैं - सीताराम गुप्ता

जीव-जगत्: कबूतर 4 साल तक रास्ता नहीं भूलते - स्रोत फीचर्स

यात्रा-संस्मरणः गढ़ मुक्तेश्वर- गंगा मैया की आरती का अद्भुत नजारा - अंजू खरबंदा

स्वास्थ्यः टाइप-2 डायबिटीज़ - महामारी से लड़ाई - डॉ. डी. बालसुब्रमण्यम

नवगीतः सारे बन्धन भूल गए - रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

कविताः हमें बेखौफ उड़ने दो - डॉ. शिप्रा मिश्रा

चिंतनः जीवन के कुछ पल - साधना मदान

व्यंग्यः आप कौन से अतिथि हैं - राजेंद्र वर्मा

कविताः धरोहर के रूप में - डॉ. लता अग्रवाल

ग़ज़लः रोज बहाने - विज्ञान व्रत

लघुकथाः शबरी के बेर - ज्योति जैन 

लघुकथाएँ: मनीऑर्डर, वह लड़की है, जहरीली घास - खेमकरण सोमन  

किताबेंः स्त्री संघर्ष का जीवंत दस्तावेज़ - भावना सक्सैना

कविताः भूल न पाओगे - डॉ. महिमा श्रीवास्तव

जीवन-शैलीः खुश रहना हो तो प्रकृति के पास जाएँ - समीर उपाध्याय ‘ललित’

जीवन दर्शनः मानव जीवन: एक अनसुलझी पहेली - विजय जोशी

रचनाकारों से ...

उदंती.com एक सामाजिक सांस्कृतिकसाहित्यिक मासिक पत्रिका है। पत्रिका में सम- सामयिक ज्वलंत विषयों के साथ समाजशिक्षापर्यावरणपर्यटनलोक जीवनपर्व- त्योहार जैसे विभिन्न विषयों के प्रकाशन के साथ संस्मरणडायरीयात्रा वृतांतरेखाचित्रकहानीकविताव्यंग्यलघुकथा तथा प्रेरक जैसे अनेक विषयों से सम्बंधित रचनाओं का प्रकाशन किया जाता है।

- पर्वत्योहार अथवा किसी तिथि विशेष से जुड़ी रचनाओं को कृपया एक माह पूर्व ही भेजेंक्योंकि पत्रिका एडवांस में तैयार होती हैं।

- लेखकों को रचना प्राप्ति की सूचना अथवा स्वीकृत- अस्वीकृति की जानकारी दे पाना संभव नहीं है। रचना प्रकाशित होते ही आपको मेल द्वारा या यदि आप उदंती पाठक मंच के वाट्सएप ग्रुप से जुड़े हैंतो आपको सूचना मिल जाएगी।

- आलेख अधिकतम 3000 शब्द,  कहानी अधिकतम 2500 शब्दव्यंग्य- अधिकतम 1500 शब्द।

- कवितागीतग़ज़ल  केवल चुनिंदाअधिकतम तीन।

- रचना के साथ अपना संक्षिप्त परिचयपताफोटोईमेल आईडी एक ही मेल में प्रेषित करें। कृपया फोटो (वर्ड फाइल में अटैच न करके) जेपीजी फ़ाइल में करें।

- रचनाएँ कृपया यूनिकोड में ही भेजें, कृपया वर्तनी की शुद्धता का ध्यान रखें।

- रचनाएँ udanti.com@gmail.com पर ही भेजें।

अनकहीः योजनाओं के मकड़जाल में देश

डॉ. रत्ना वर्मा

समग्र विकास के लिए देश में बहुत सारी योजनाएँ चलाई जाती हैं। सरकार चाहे किसी भी पार्टी की हो केंद्र से लेकर राज्य और ब्लॉक स्तर से लेकर पंचायत स्तर तक चलाई जा रही इन योजनाओं का उद्देश्य देश की जनता की खुशहाली, तरक्की और उनके जीवन स्तर को ऊँचा उठाना तथा क्षेत्र का विकास करना ही होता है। इनमें से कुछ योजनाओं का लाभ सीधे जनता को मिलता है और कुछ किसी क्षेत्र विशेष के विकास के लिए होती हैं, वह भी परोक्ष या अपरोक्ष रूप में जनता से ही जुड़ी होती है। लेकिन जब हम इन योजनाओं के बनने से लेकर उनसे मिलने वाले फायदे तक की बात करते हैं,  तो अंत तक आते आते पता चलता है कि बहुत सारी योजनाओं ने कागजों में ही दम तोड़ दिया है, अनेक योजनाएँ आरंभ तो होती हैं;  पर भ्रष्टाचार, घोटालों और कमीशनखोरी के जाल में फँसकर आधी अधूरी रह जाती हैं और बहुत सी योजनाएँ बनते- बनते सरकारें बदल जाती हैं। फायदा उठा ले जाते है बीच के लोग और जनता है कि देखती रह जाती है फिर एक नई योजना के इंतजार में।

जब सरकार इन योजनाओं की रूपरेखा बनाती है तो कागजों में इसे देखकर लगता है कि जिनके लिए या जिस भी क्षेत्र के विकास के लिए यह योजना बनाई गई है, उसके पूरी होते ही चारों ओर खुशहाली छा जाएगी, जनता अपनी चुनी हुई सरकार पर गर्व करेगी। परंतु आजादी के 75 साल बीत जाने के बाद भी हम गर्व के साथ यह नहीं कह पाते कि हमने वे सारी खुशियाँ पा ली हैं, जिनका सपना आजाद भारत ने देखा था।

हम यह नहीं कहते कि विकास के नाम पर देश में कुछ भी नहीं हुआ है हुआ है,  गुलाम भारत और आजादी के 75 साल के भारत में जमीन- आसमान का अंतर आया है;  लेकिन बात अंतर की नहीं है बात इन 75 वर्षों में देश सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक स्तर पर जो उपलब्धि दिखाई देनी चाहिए, वह नहीं दिखाई देती। विकास के नाम पर विनाश ही अधिक नजर आता है। हमने विकास के नाम पर अपनी संस्कृति, सभ्यता, जीवन मूल्य और पर्यावरण को इतना अधिक नुकसान पहुँचाया है कि समूची धरती ही खतरे में दिखाई देने लगी है। विकास के नाम पर बनाई गई ऐसी योजनाओं का क्या औचित्य, जो भ्रष्टाचार और कालाबाजारी को बढ़ावा देती हों, जो गरीबी और बेरोजगारी पैदा करती हो?

योजनाकार जमीनी हकीकत से दूर बंद कमरे में बैठकर कागज़ों पर ये योजनाएँ बनाते हैं ; पर जैसे ही इन्हें लागू करने की बात आती है अनेक अड़चनों का अम्बार खड़ा हो जाता है परिणाम योजनाएँ कागजों पर ही दम तोड़ देती हैं। सन् 1951 को भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने संसद में पहली पंचवर्षीय योजना की शुरूआत की थी। जिसका मुख्य उद्देश्य देश की आर्थिक स्थिति में सुधार लाना तथा देशवासियों के जीवन स्तर में सुधार लाना है। इस तरह अब तक 13 पंचवर्षीय योजनाएँ भारत में चलाई जा चुकी हैं। कृषि, उद्योग, ग्राम विकास, शिक्षा, घरेलू उद्योग को बढ़ावा देने जैसी अनेक योजनाएँ प्रत्येक पाँच साल के लिए बनाते हैं। प्रत्येक पाँच साल बाद जब नई योजना बनती है, तो पिछली योजना को भुला दिया जाता है। बगैर कोई समीक्षा के उसे बंद भी कर दिया जाता है।

दु:खद स्थिति ये है कि आजादी के बाद से जो भी योजना बनती है, उसमें राजनीतिक दल ऐसी योजनाओं को लागू करना पसंद करते हैं, जो उन्हें वोट दिला सके। इसी प्रकार केंद्र सरकार प्रधानमंत्री योजना का नाम देकर अनेक योजनाएँ शुरू करती है और राज्य सरकार मुख्यमंत्री के नाम से योजना शुरू कर मतदाताओं को अपने- अपने पक्ष में करने का प्रयास करती रहती हैं। सरकार अनेक कल्याणकारी योजनाएँ चलाकर गरीब जनता को अपने पक्ष करके राजनीति के दाँव- पेंच खेलती है। इस राजनीतिक उठापटक में जनता पिसती चली जाती है और इस उम्मीद में कभी इस दल को कभी दूसरे दल को अपना बहुमूल्य वोट देकर भ्रम जाल में फँसी रहती है।

जो भी योजनाएँ बनाई जाएँ, उनको लागू किया जाए  तथा उसकी समीक्षा भी की जाए। किसी भी योजना को सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करके लागू न किया जाए। जिस वर्ग के कल्याण के लिए  योजना बनाई गई है, उस तक योजना  का लाभ पहुँचना चाहिए।

हिन्दी दिवसः जब भाषाएँ मरने लगती हैं

  - डॉ. आशीष अग्रवाल

विलुप्त होती हुई भाषा का प्रतीक

अमेरिका की एक अश्वेत 90 वर्षीय प्रसिद्ध लेखिका ने एक बार एक छोटी सी कथा सुनाई थी, जिसमें उन्होंने बताया था कि अमेरिका में रहने वाली एक वृद्धा थी, जो बहुत ही ज्ञानवान् थी, परंतु अब वृद्धावस्था के कारण वह वृद्ध महिला, अपनी दोनों आँखें खो चुकी थी। वह वृद्ध महिला, अपनी बुद्धि और अपने ज्ञान के कारण, पूरे शहर में पहचानी जाती थी, परंतु फिर भी कुछ युवक उसका उपहास उड़ाते रहते थे। एक बार कुछ युवा उसके पास पहुँचे और उनमें से एक बोला - ‘देखो मैडम, मेरे हाथ में एक चिड़िया है, तुम्हें बताना है कि यह जीवित है या मृत है?’ महिला तो कुछ देख नहीं सकती थी, इस कारण वह क्या बोलती और इसीलिए चुप रही। लेकिन कुछ क्षण बाद उस महिला ने अपनी चुप्पी तोड़ी और वह बोली - ‘बेटा, मुझे यह तो नहीं पता कि तुम्हारे हाथ में जो चिड़िया है, वह जीवित है या मृत है, परंतु मैं यह अवश्य बता सकती हूँ कि इस चिड़िया का जीना या मरना तुम्हारे ही हाथ में है।’ उन युवाओं को उस वृद्ध महिला की ये बातें समझ में नहीं आईं और वे खिल्ली उड़ाते हुए वहाँ से चले गए। वहीं बराबर में कुछ और अमेरिकी विद्वान् लोग बैठे थे। वे इस गूढ़ रहस्य को समझ गए और उन्होंने बताया कि उस अंधी वृद्ध महिला के कहने का अर्थ यह था कि यह जो चिड़िया है, यह अमेरिका की विलुप्त होती हुई भाषा का प्रतीक है और यह जो युवा हैं, वे इस चिड़िया (भाषा) की रक्षा करने वाले या फिर उसकी हत्या करने वाले हो सकते हैं।’

भाषाओं को खत्म करने की एक मुहिम

जिस किसी भी देश में भाषाओं को जबरदस्ती थोपा गया है, वहाँ यह भी देखा गया है कि यदा-कदा उस भाषा को बोलने वालों ने अपना विरोध दर्ज कराया है और उस विरोध को दबाने/ खत्म करने के लिए सरकारों ने बर्बरता भी की है। जब आप जबरदस्ती किसी को अपनी मातृभाषा को भुलाकर, विदेशी भाषा को अपनाने का जोर डालेंगे, तो कुछ ना कुछ प्रतिकार (रिएक्शन) तो होगा ही, फिर आप (सरकार) उसी प्रतिकार को, हिंसा का नाम देकर, उसे दबाने के लिए और अधिक हिंसक हो जाएँगे। क्या यह उचित है? इस सब के पीछे अमेरिका जैसे बड़े देश में प्रचलित सैकड़ों भाषाओं को खत्म करने की एक मुहिम की ओर इशारा किया गया है। और केवल अमरीका ही क्यों, भारत जैसे सैकड़ों देशों में, पुरानी और लोकप्रिय भाषाओं की हत्या की जाती रही है, और शायद एक ही भाषा को बढ़ावा दिया जाता रहा है। जब किसी लोकप्रिय क्षेत्रीय भाषा का अस्तित्व समाप्त हो जाता है, तो उसके साथ-साथ क्या समाप्त हो जाता है, कभी आपने सोचा है? मैं आपको बताता हूं -

उसके साथ समाप्त होती है आत्मीयता।

उसके साथ समाप्त होता है आपसी संवाद का साधन।

उसके साथ समाप्त होता है एक साथ जुड़ा रहने का कारण।

उसके साथ समाप्त होती है अपनी भावनाओं को व्यक्त करने की स्वतंत्रता।

उसके साथ समाप्त होती है अपने सुख और दुख को व्यक्त करने की सहजता।

उसके साथ समाप्त होते हैं उस भाषा के गीत, गाने, दोहे, कहावतें और व्याकरण।

बड़ी रूखी और उदासीन- सी लगती है विदेशी भाषा

और बस, फिर हम किसी एक भाषा में (जो हमारे ऊपर थोपी गई है) आपसी वार्तालाप करने लगते हैं। ये आपसी बातचीत, कई बार, बड़ी रूखी और उदासीन सी लगती है। इसमें अपनी भाषा की वह मिठास नहीं पाई जाती, इसलिए हमारा वार्तालाप भी अधूरा रह जाता है। अपनी भाषा के द्वारा, भावनात्मक एकता को प्रकट करना बड़ा सरल होता है। थोपी गई भाषा को हम पूरी तरीके से समझ भी नहीं पाते और इस कारण वार्तालाप के दौरान कुछ बातें बिना समझे और सुने ही हो जाती हैं। शायद यह, प्रगति की एक कीमत है जो हमें चुकानी पड़ती है। शायद हम अपने आप को प्रगतिशील कहलाना पसंद करते हैं और इसलिए अपनी क्षेत्रीय एवं राष्ट्रीय भाषाओं को छोड़कर, उन भाषाओं में लिखना, पढ़ना, बोलना प्रारंभ कर देते हैं, जो हमारे ऊपर शासन करने वालों ने, (शायद एक षडयंत्र के अंतर्गत), थोप दी थीं। यह बेहद ही दुखद बात है। भाषा बहुत ही संवेदनशील होती है, सही से बोली जाए, तो अमृत का काम करती है और गलत बोली जाये तो तीरों का काम करती है।

अपनी कर्ण प्रिय भाषा को मरने ना दें

अपनी प्रिय भाषा को खोने का दर्द सबसे अधिक वृद्ध लोगों को होता है, जिनका पूरा जीवन उस भाषा के सहारे ही कटा है और जब अगली पीढ़ी को उस भाषा के साथ, घटिया और नए-नए प्रयोग करते हुए देखते हैं, या उस भाषा को इस्तेमाल करने से बचते हुए देखते हैं, तो उनके मन को बहुत ठेस पहुँचती है। हमारे देश की सबसे अधिक बोले जाने वाली हिन्दी भाषा के साथ भी वर्षों तक ऐसा ही अन्याय हुआ है। अब पिछले कुछ वर्षों से हिन्दी भाषा ने, अपनी, लगभग खोई हुई पहचान को, दोबारा से प्राप्त करना प्रारंभ कर दिया है।  हम सभी हिन्दी- भाषी प्रदेशों के लोगों का यह कर्तव्य है कि हम अपनी इस कर्णप्रिय (कानों को अच्छी लगने वाली) भाषा को मरने ना दें। वृद्ध लोगों ने तो अपने प्रयास कर लिए, अब युवाओं के हाथों में  वह चिड़िया है (हिन्दी जैसी अनेक भाषाएँ हैं), जिनका जीना और मरना, युवाओं के हाथों में है। 14 सितंबर 1949

को संविधान सभा ने एकमत से यह निर्णय लिया कि हिन्दी ही भारत की राजभाषा होगी। इस निर्णय के बाद, हिन्दी को हर क्षेत्र में प्रसारित करने के लिए, साल 1953 से पूरे भारत में 14 सितंबर को हर वर्ष हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाने लगा। हिन्दी भारत की राजभाषा अवश्य बनी, परन्तु राष्ट्रीय भाषा बनते- बनते रह गई। हमारा प्रयास होना चाहिए कि अपनी मातृ भाषा हिन्दी को, राष्ट्रभाषा का दर्जा मिले।

जब तलक जिंदा कलम है, हम तुम्हें मरने न देंगे

प्रसिद्ध कवि श्री गोपाल दास नीरज ने लिखा था-

 जब तलक जिंदा कलम है, हम तुम्हें मरने न देंगे।

 खो दिया हमने तुम्हें तो, पास अपने क्या रहेगा।

कौन फिर बारूद से, सन्देश चन्दन का कहेगा।

  मृत्यु तो नूतन जनम है, हम तुम्हें मरने न देंगे।’

कितनी सुन्दर कविता है ये। क्या मैंने ठीक कहा? अगर हाँ, तो आइए अपनी प्रिय हिन्दी भाषा को मरने ना दें। हिन्दी, विश्व की तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। भारत और अन्य देशों (जैसे फ़िजी, मॉरिशस, गयाना, सूरीनाम, नेपाल, पाकिस्तान, कैनेडा और संयुक्त अरब अमीरात) में भी, बड़ी संख्या में लोग हिन्दी बोलते, पढ़ते और लिखते हैं। हिन्दी को देवनागरी लिपि में लिखा जाता है। देवनागरी लिपि में 11 स्वर और 33 व्यंजन हैं। इसे बाईं  से दाईं ओर लिखा जाता है। आइए अपनी प्रिय मातृभाषा हिन्दी में काम करना (लिखना एवं पढ़ना) प्रारम्भ करें, कम से कम अपने हस्ताक्षर तो आप हिन्दी भाषा में कर ही सकते हैं।

 सम्पर्कः बी-120, साकेत, मेरठ

हिन्दी दिवसः संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनी हिन्दी

- प्रमोद भार्गव

आखिरकार दीर्घकालिक प्रयासों के बाद भारत की राजभाषा हिन्दी संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बन गई है। भारत की ओर से लाए गए हिन्दी के प्रस्ताव को महासभा ने मंजूरी दे दी। इसके साथ बांग्ला और उर्दू को भी इस श्रेणी में लिया गया है। अब संयुक्त राष्ट्र में सभी कामकाज और जरूरी संदेश व समाचार इन तीनों भाषाओं में उपलब्ध होंगे। इन भाषाओं के अलावा मंदारिन, अंग्रेजी, अरबी, रूसी, फ्रेंच और स्पेनिश पहले से ही संघ की आधिकारिक भाषाएँ हैं। संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थाई प्रतिनिधि राजदूत टीएस तिरूमती ने बताया कि हिन्दी को 2018 से ही एक परियोजना के अंतर्गत संघ में बढ़ावा देने के लिए शुरूआत कर दी गई थी। इसी समय से हिन्दी में संयुक्त राष्ट्र ने हिन्दी में ट्विटर खाता और न्यूज पॉर्टल शुरू कर दिया था। इस पर प्रत्येक सप्ताह हिन्दी श्रव्य समाचार (ऑडियो बुलेटिन) सेवा शुरू कर दी गई थी। हिन्दी की सेवाएँ संयुक्त राष्ट्र के मंच से प्रसारित होना इसलिए आवश्यक थीं, जिससे संयुक्त राष्ट्र के महत्त्व को दुनिया में दूसरी सबसे बड़ी भाषा जानने वाले लोगों को जानकारी हो सके। इसे सुविधाजनक बनाना इसलिए जरूरी था, जिससे संयुक्त राष्ट्र से जुड़े अंतरराष्ट्रीय कानून, सुरक्षा, आर्थिक विकास, सामाजिक प्रगति, मानव अधिकार और विश्व शांति से जुड़े मुद्दों को लोग जान सके। इस संस्था की स्थापना 24 अक्टूबर 1945 को पचास देशों के एक अधिकार पत्र पर हस्ताक्षर के साथ हुई थी। वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र के 193 देश सदस्य हैं।  हिन्दी के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए संयुक्त राष्ट्र को भारत सरकार ने आठ लाख डॉलर की मदद भी की थी।  

यह वह समय है, जब हिन्दी के पक्ष में अनेक अनुकूलताएँ हैं। केंद्र की सत्ता में वह भारतीय जनता पार्टी है, जिसके दृष्टि-पत्र में हिन्दी को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करने का मुद्दा हमेशा रहा है। इसी दल के नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री हैं। मोदी दक्षेस नेताओं से हिन्दी में द्विपक्षीय वार्ताएँ करके और संयुक्त राष्ट्र संघ समेत दुनिया के अनेक देशों में हिन्दी में दिए उद्बोधन में तालियाँ बटोरकर दुनिया को जता चुके थे, विश्व में हिन्दी को बोलने और समझने वालों की संख्या करोड़ों में है। मोदी देश के ऐसे पहले प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने जिस भाषा में वोट माँगे, उसी भाषा को देश -विदेश में संवाद की भाषा बनाए हुए हैं। अतएव योग- दिवस को संयुक्त राष्ट्र में मान्यता मिल जाने के बाद जनता की यह उम्मीद बढ़ गई थी कि अब जल्दी ही हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की मान्यता मिल जाएगी। 

प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को पहली बार संयुक्त राष्ट्र की 4 अक्टूबर 1977 को संपन्न हुई बैठक में हिन्दी में भाषण देने का श्रेय जाता है। तब वे विदेश मंत्री थे। इसके बाद वे सितंबर 2002 में संयुक्त राष्ट्र की सभा में हिन्दी में बोले थे। लेकिन ये भाषण मूल रूप से अंग्रेजी में लिखे हुए अनुवाद थे। चंद्रशेखर भी प्रधानमंत्री रहते हुए मालदीव में आयोजित हुए दक्षेस-सम्मेलन में हिन्दी में बोले थे। उनका यह भाषण मूलतः हिन्दी में होने के साथ मौलिक भी था। पीवी नरसिंह राव कई देशी-विदेशी भाषाओं के ज्ञाता थे, लेकिन विदेशी धरती पर हिन्दी में बोलने का साहस नहीं दिखा पाए थे। मनमोहन सिंह भी हिन्दी जानने के बावजूद परदेश में कभी हिन्दी नहीं बोले। मोदी ही हैं, जो प्रधानमंत्री बनने के बाद से लेकर अब तक पूरी ठसक के साथ अलिखित भाषण देकर हिन्दी का गौरव बढ़ा रहे हैं। गोया, हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाने के संकल्प का मुद्दा उनमें अन्य नेताओं की तुलना में कहीं ज्यादा रहा है।

भारत एकमात्र ऐसा देश है, जिसकी पाँच भाषाएँ विश्व की 16 प्रमुख भाषाओं की सूची में शामिल हैं। 160 देशों के लोग भारतीय भाषाएँ बोलते हैं। विश्व के 93 देश ऐसे हैं, जिनमें हिन्दी जीवन के बहुआयामों से जुड़ी होने के साथ, विद्यालय और विश्व विद्यालय स्तर पर पढ़ाई जाती है। चीनी भाषा मंदारिन बोलने वालों की संख्या हिन्दी बोलने वालों से ज्यादा जरूर है, किंतु अपनी चित्रात्मक जटिलता के कारण, इसे बोलने वालों का क्षेत्र चीन तक ही सीमित है। शासकों की भाषा रही अंग्रेजी का शासकीय व तकनीक क्षेत्रों में प्रयोग तो अधिक है, किंतु उसके बोलने वाले हिन्दी भाषियों से कम हैं। 1945 में संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषाएँ 4 थीं, अंग्रेजी, रशियन, फ्रांसीसी और चीनी। ये भाषाएँ अपनी विलक्षणता या ज्यादा बोली जाने के वनिस्पत,
संयुक्त राष्ट्र की भाषाएँ इसलिए बन पाई थीं, क्योंकि ये विजेता महाशक्तियों की भाषाएँ थीं। बाद में इनमें अरबी और स्पेनिश शामिल कर ली गई। विश्व-पटल पर हिन्दी बोलने वालों की संख्या दूसरे स्थान पर होने के बावजूद इसे संयुक्त राष्ट्र में अब जाकर शामिल किया गया है। यही नहीं भारतीय और अनिवासी भारतीयों को जोड़ दिया जाए तो हिन्दी पहले स्थान पर आकर खड़ी हो जाती है। भाषायी आँकड़ों की दृष्टि से जो सर्वाधिक प्रमाणित जानकारियाँ सामने आई हैं, उनके आधार पर संयुक्त राष्ट्र की छह आधिकारिक भाषाओं की तुलना में हिन्दी बोलने वालों की स्थिति निम्न है, मंदारिन 80 करोड़, हिन्दी 55 करोड़, स्पेनिश 40 करोड़, अंग्रेजी 40 करोड़, अरबी 20 करोड़, रूसी 17 करोड़ और फ्रेंच 9 करोड़ लोग बोलते हैं। जाहिर है, हिन्दी संयुक्त राष्ट्र की अग्रिम पंक्ति में खड़ी होने का वैध अधिकार रखती है। 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत की 43.63 प्रतिशत आबादी हिन्दी बोलती हैं। यदि इसमें भोजपुरी, ब्रज, अवधि, बघेली, बुंदेली और हिन्दी से मिलती भाषाएँ भी इसमें जोड़ दी जाएँ तो इस संख्या में 13.9 करोड़ लोग और जुड़ जाएँगे और यह प्रतिशत बढ़कर 54.63 हो जाएगा।

अब चूँकि हिन्दी संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बन गई है, इसलिए भारत को सुरक्षा परिषद की सदस्यता मिलने की उम्मीद भी बढ़ गई है। इसके अलावा जो अन्य अंतरराष्ट्रीय संगठन हैं, उनमें भी हिन्दी के माध्यम से संवाद व हस्तक्षेप करने का अधिकार भारत को मिल जाएगा। ये संगठन हैं अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी, अंतरराष्ट्रीय विकास एजेंसी, अंतरराष्ट्रीय दूरसंचार संघ, संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन, विश्व स्वास्थ्य संगठन, संयुक्त राष्ट्र औद्योगिक विकास संगठन और संयुक्त राष्ट्र अंतरराष्ट्रीय बाल-आपात निधि (यूनिसेफ)। इन विश्व मंचों पर हमारे प्रतिनिधि यदि देश की भाषा में बातचीत करेंगे तो देश का आत्मगौरव तो बढ़ेगा ही, भारत के लोगों का यह भ्रम भी टूटेगा कि हिन्दी में अंतरराष्ट्रीय संवाद कायम करने की सामर्थ्य नहीं है।

संयुक्त राष्ट्र दुनिया के प्रमुख देशों के मातृ- भाषियों के आँकड़े जुटाने का काम आधिकारिक रूप से पहले ही कर चुका था। केंद्रीय हिन्दी निदेशालय दिल्ली द्वारा इस संबंध में विशेष प्रामाणिक रिपोर्ट तैयार कराई गई थी, जो 25 मई 1999 को संयुक्त राष्ट्र भेजी गई थी। 1991 की जनगणना के आधार पर भारतीय भाषाओं के विश्लेषण का ग्रंथ 1997 में प्रकाशित हुआ था। संयुक्त राष्ट्र की वैश्विक भाषाओं की तकनीकी समिति द्वारा भारत सरकार को भेजे पत्र के साथ एक प्रश्नावली संलग्न करके हिन्दी की स्थिति के नवीनतम आँकड़े माँगे गए थे। निदेशालय द्वारा अनेक स्तर पर तथ्यात्मक आँकड़े इकट्ठा करने की पहल की गई। इन अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर चीनी भाषा मंदारिन के बाद हिन्दी का प्रयोग करने वाले की संख्या दूसरे स्थान पर थी। केंद्रीय हिन्दी निदेशालय द्वारा संयुक्त राष्ट्र को भेजी गई रिपोर्ट में  विश्व-ग्रंथों के आँकड़ों को आधार बनाया गया था। इस परिप्रेक्ष्य में एनकार्टा एनसाइक्लोपीडिया के मुताबिक मातृ भाषा बोलने वाले लोगों की संख्या बताई गई थी, मंदारिन 83.60 करोड़, हिन्दी 33.30 करोड़, स्पेनिश 33.20 करोड़, अंग्रेजी 32.20 करोड़, अरबी 18.60 करोड़, रूसी 17 करोड़ और फ्रेंच 7.20 करोड़। गिनीज बुक ऑफ वल्र्ड रिकॉर्ड के अनुसार अंग्रेजी भाषियों की संख्या 33.70 करोड़ है, जबकि हिन्दी भाषियों की संख्या 33.72 करोड़ है। हालांकि गिनीज बुक ने हिन्दी भाषियों की संख्या 1991 की जनगणना के आधार पर ही बताई थी। विश्व भाषायी पत्रक स्रोत ग्रंथ ‘लैंग्वेज एंड स्पीक कम्युनिटीज‘ के अनुसार तो दुनिया में 96.60 करोड़ लोग हिन्दी बोलते व समझते हैं। यानी हिन्दी का स्थान मंदारिन से भी ऊपर है।

इन तथ्यपरक आंकड़ों से प्रमाणित होता है कि संख्याबल की दृष्टि से मंदारिन को छोड़ अन्य भाषाओं की तुलना में हिन्दी की स्थिति हमेशा मजबूत रही है। हिन्दी के साथ एक और विलक्षणता जुड़ी हुई है, हिन्दी जितने राष्ट्रों की जनता द्वारा बोली व समझी जाती है, संयुक्त राष्ट्र की पहली चार भाषाएँ उतनी नहीं बोली जाती हैं। हिन्दी भारत के अलावा नेपाल, मॉरिशस, फिजी, सूरीनाम, ग्याना, त्रिनिनाद, टुबैगो, सिंगापुर, भूटान, इंडोनेशिया, बाली, सुमात्रा, बांग्लादेश और पाकिस्तान में खूब बोली व समझी जाती है। भारत की राजभाषा हिन्दी है तथा पाकिस्तान की उर्दू, इन दोनों भाषाओं के बोलने में एकरूपता है। दोनों देशों के लोग लगभग 60 देशों में आजीविका के लिए निवासरत हैं। इनकी संपर्क भाषा हिन्दी मिश्रित उर्दू अथवा उर्दू मिश्रित हिन्दी है। हिन्दी फिल्मों और दूरदर्शन कार्यक्रमों के जरिए भी हिन्दी का प्रचार-प्रसार निरंतर हो रहा है। विदेशों में रहने वाले ढाई करोड़ हिन्दी भाषी हिन्दी फिल्मों, टीवी धारावाहिकों और समाचारों से जुड़े रहने की निरंतरता बनाए हुए हैं। ये कार्यक्रम अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मन, जापान, आस्ट्रेलिया, कनाडा, हालैंड, अक्षिण अफ्रीका, फ्रांस, थाइलैंड आदि देशों में रहने वाले भारतीय खूब देखते हैं।

भाषा से जुड़े वैश्विक ग्रंथों में दर्ज आंकड़ों के अनुसार तो हिन्दी को सन् 2000 के आसपास ही संयुक्त राष्ट्र की भाषा बना देना चाहिए था। लेकिन विश्व-पटल पर भाषाएँ भी राजनीति की शिकार है। जो देश अपनी बात मनवाने के लिए लड़ाई को तत्पर रहे हैं, उन सभी देशों ने अपनी-अपनी मातृभाषा को संयुक्त राष्ट्र में बिठाने का गौरव हासिल कर लिया। लेकिन अब वैश्वीकरण के दौर में हिन्दी संपर्क भाषा के रूप में भी प्रयोग होने और विज्ञापन की सशक्त भाषा के रूप में उभर गई है। भारत समेत अन्य एशियाई देश हिन्दी को अंग्रेजी के विकल्प के रूप में अपनाने लगे हैं। कई योरोपीय देशों में एशियाई लोगों के लिए हिन्दी संपर्क भाषा के रूप में भी प्रयोग होने लग गई है। अतएव हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाना आवश्यक हो गया था।

सम्पर्कः शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी म.प्र., मो. 09425488224

आधुनिक बोध कथा- 9ः पैसा पैसे को खींचता है

 - सूरज प्रकाश

एक देश था। उसमें बहुत सारे लोग रहते थे। उन बहुत सारे लोगों में से भी बहुत सारे लोग गरीब थे और उन बहुत सारे लोगों में कुछ कम लोग बहुत अमीर थे।

तो हुआ यूँ कि उन बहुत सारे गरीब लोगों में से एक गरीब आदमी ने किसी तरह से अक्षर ज्ञान कर लिया। अब वह जब कभी फुर्सत में होता (वैसे वह हर समय फुर्सत में ही होता था) इस अक्षर ज्ञान को परखने के लिए और उन छपे हुए अक्षरों का सही अर्थ जाँचने के लिए आस- पास बिखरे कागजों, अखबारों की कतरनों और कहीं भी छपे अक्षर देख कर धीरे- धीरे हिज्जे करके पढ़ने की कोशिश करता। इस अक्षर ज्ञान के बलबूते पर वह समझता था कि वह कुछ कुछ सयाना हो रहा है।

एक बार की बात, उसने यूँ ही छपा हुआ एक काग़ज बाँचते हुए पढ़ा कि पैसा पैसे को खींचता है। ये इबारत उसने कई बार पढ़ी। जब उसे समझ आ गई तो उसकी आँखों में चमक आ गई – अरे वाह, ये तो बहुत अच्छी बात लिखी है। पैसा पैसे को खींचता है। अगर मेरे पास भी कहीं से एक पैसा आ जाए, तो उसके बल पर मैं दूसरों के पैसों को अपनी तरफ खींच सकता हूँ। फिर मेरे पास जब ज्‍य़ादा पैसे हो जाएँगे, तो मैं उस पैसों से और ज्‍य़ादा पैसे खींच सकता हूँ। तब मैं बहुत पैसे वाला हो जाऊँगा।

बस जी, उस दिन से वह एक पैसा जुटाने की जुगत में लग गया। आखिर वह एक पैसे वाला हो गया। अब उसकी तलाश शुरू हुई किसी ऐसी तिजोरी की जिसके सारे पैसे वह खींच सके।

उसे याद आया कि राशन वाले लाला की तिजोरी में दिन भर इतने पैसे आते रहते हैं कि उसे अपनी तिजोरी बंद करने का मौका ही नहीं मिलता। गरीब आदमी ने सोचा – यहीं से शुरुआत की जाए।

वह जाकर लाला की दुकान के आगे लगी भीड़ में खड़ा हो गया और मौका देख कर अपना पैसा उस तिजोरी की तरफ उछाल दिया। एक पैसा ज्‍य़ादा पैसों में मिल गया। वह बहुत खुश हुआ और एक किनारे खड़ा हो कर इंतज़ार करने लगा कि कब उसका पैसा तिजोरी के सारे पैसों को खींचकर लाता है।

दिन ढल गया, शाम हो गई, सारे ग्राहक चले गए, लेकिन उसके पैसे ने कोई करामात न दिखाई। वह परेशान होने लगा।

लाला देख रहा था कि एक गरीब आदमी तब से परेशान हाल उसकी दुकान के आसपास मँडरा रहा है। दुकान बंद करने का समय हुआ, तो गरीब की हालत खराब हो गई। लाला ने उसकी ये हालत देखी, तो पास बुलाया और उसकी परेशानी की वजह पूछी।

गरीब ने रोते हुए पूरा किस्सा बयान किया। सुनकर लाला हँसने लगा – तूने ठीक पढ़ा था, लेकिन आधी ही बात पढ़ी थी।

तब लाला ने गरीब आदमी को समझाया कि तूने पढ़ा कि पैसा पैसे को खींचता है, तो तू देख ही रहा है कि पैसों ने पैसे को खींच लिया है। बस, तूने ये ही नहीं पढ़ा था कि ज्‍य़ादा पैसे कम पैसों को खींचते हैं। अब तू घर जा। अँधेरा हो रहा है। कहीं तुझे साँप- बिच्छु न काट लें।

डिस्क्लेमर: ये विशुद्ध बोध कथा है। इसके पात्र पूरी तरह से काल्पनिक हैं। इस कथा का उस देश से कोई संबंध नहीं है जहाँ बहुत सारे गरीबों के थोड़े से भी पैसे बहुत थोड़े से अमीरों की बहुत बड़ी तिजोरी में अपने आप पहुँच जाते हैं और इस बीच अँधेरा हो जाता है।

मो. नं. 9930991424, kathaakar@gmail.com

आलेखः हम अपनी गलतियों से ही सीखते हैं

- सीताराम गुप्ता

  गलतियाँ किससे नहीं होतीं? सबसे होती हैं। इसीलिए कहा गया है कि इनसान गलतियों का पुतला होता है;  लेकिन अपनी गलतियों से सीखकर ही वो आगे बढ़ता है। केवल वे लोग ही गलतियाँ नहीं करते या कर सकते जो कुछ भी नहीं करते क्योंकि न तो वे कुछ करेंगे और न गलतियाँ होने की संभावना होगी। लेकिन गलतियाँ न होने की स्थिति में क्या होगा? हम कुछ भी नहीं सीख पाएँगे। कुछ भी नहीं सीख पाएँगे तो आगे कैसे बढ़ेंगे? आगे बढ़ने के लिए सीखना अनिवार्य है और सीखने की प्रक्रिया में गलतियों का होना स्वाभाविक है लेकिन इसका ये तात्पर्य कदापि नहीं कि इनसान गलतियाँ ही करता रहे। किसी गलती को वह बार-बार दोहराता रहे। गलतियाँ होना स्वाभाविक है लेकिन उन्हें दोहराना अपराध से कम नहीं क्योंकि गलतियों को बार-बार करके ही हम उनके अभ्यस्त हो जाते हैं और पहले छोटी-छोटी गलतियाँ और बाद में बड़ी-बड़ी गलतियाँ करके अपराध तक करने लगते हैं।

व्यक्ति अपनी गलतियों से ही सीखता है और आगे बढ़ता है लेकिन इसके लिए ज़रूरी है कि व्यक्ति अपनी गलतियों को जाने, उन्हें स्वीकार करे और उन्हें दूर करे। प्रायः ऐसा होता है कि जब कोई हमारी किसी गलती की ओर संकेत करता है तो हम उसे स्वीकार करके उसे तत्क्षण सुधारने के बजाय उसे ठीक ठहराने की कोशिशों में लग जाते हैं। उसके लिए तर्क-वितर्क ही नहीं कुतर्क करने से भी परहेज नहीं करते। कई बार इस प्रकार का वाद-विवाद फसाद का रूप ले लेता है। यदि कोई हमारी गलती की ओर संकेत करता है तो कई बार हम अपनी गलती को स्वीकार करने के बजाय सामने वाले की गलतियाँ ही निकालने या गिनवाने लग जाते हैं। कई बार अपनी गलती को स्वीकार करने के बजाय हम उसे गलती ही नहीं मानते और प्रायः कह देते हैं कि ये तो आम बात है या ऐसा तो सभी करते हैं फिर मैं कैसे गलत हुआ? इस प्रकार के तर्क देते-देते व ऐसा आचरण दोहराते-दोहराते कब पूरा समाज रसातल में पहुँच जाता है, पता ही नहीं चलता।

प्रायः जब हमसे कोई गलती हो जाती है, तो उसे स्वीकार करना हम अपनी प्रतिष्ठा के लिए घातक मानते हैं। सोचते हैं कि इससे हमारी प्रतिष्ठा पर आँच आएगी। हम दोषी मान लिये जाएँगे। इससे हमारी इमेज खराब हो जाएगी। हमारी इज़्ज़त चली जाएगी। वास्तव में गलती स्वीकार करने पर हमारी प्रतिष्ठा पर कोई आँच नहीं आती;  अपितु ऐसी स्थिति में लोग हमें सत्यनिष्ठ व ईमानदार मानने लगते हैं। यदि ऐसा है तो हम फिर भी अपनी गलतियों को स्वीकार करने में क्यों हिचकिचाते हैं? वास्तव में गलतियों को स्वीकार करना भी साहस का कार्य है और हम अपेक्षित साहस नहीं जुटा पाते। जब हम बार-बार गलतियाँ करते हैं और उन्हें स्वीकार नहीं करते तो कई बार चाहते हुए भी हम अपनी किसी एक गलती को ये सोचकर स्वीकार नहीं कर पाते कि अब एक गलती को मान लेने से भी क्या हो जाएगा? अब नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली के हज को जाने का क्या औचित्य होगा? वास्तव में इस दुष्चक्र को तोड़ना अनिवार्य है।

किसी भी सूरत में अपनी गलती स्वीकार न करना वास्तव में हमारी उस काल्पनिक छवि को बचाए रखने के प्रयास के कारण होता है, जिसे हम किसी भी हालत में बदलते हुए देखना नहीं चाहते। प्रायः गलत बात पर अड़े रहने अथवा किसी भी सूरत में अपनी गलती न मानने को कुछ लोग एक गुण अथवा दृढ़ता के रूप में लेते हैं। कुछ लोग दूसरों को गलत सिद्ध करने के लिए भी अपनी गलत बात पर अड़ जाते हैं। वास्तव में इस प्रकार का आचरण एक बहुत बड़ा अवगुण ही नहींअपितु एक बहुत बड़ी कमज़ोरी भी है। हम भोजन बनाते समय कुछ मसालों का प्रयोग करते हैंजिससे भोजन स्वादिष्ट ही नहीं पौष्टिक व सुपाच्य भी बनता है। यदि हम किसी एक मसाले को भी उचित मात्रा में न डालें अथवा एक ख़राब मसाला डाल दें
, तो पूरा भोजन ही ख़राब हो जाएगा। इसी प्रकार से एक गुण की कमी अथवा एक अवगुण के कारण हमारा व्यक्तित्व व चरित्र भी बुरी तरह से प्रभावित होता है। चरित्रवान अथवा नैतिक होने के लिए मात्र कुछ अच्छे गुणों का होना ही अनिवार्य नहीं अपितु अपनी गलतियों व कमज़ोरियों को सबके समक्ष स्पष्ट रूप से स्वीकार करने का गुण होना भी अनिवार्य है।

अपनी गलती को स्वीकार करना वह गुण है, जो वास्तविक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करने में सक्षम होता है। इस संदर्भ में एक प्रसंग याद आ रहा है-  सड़क सँकरी थी,  फिर भी बस तेज़ी से दौड़ी जा रही थी; क्योंकि ड्राइवर अत्यंत कुशल था। अचानक बस की गति धीमी हो गई। सामने से गन्नों से लदी हुई ट्रॉलियाँ आ रही थीं;  अतः उनको रास्ता देने के लिए भी बस की गति कम करना अनिवार्य था। जब बस गन्नों से लदी हुई ट्रॉलियों के पास पहुँची,  तो वे सड़क से थोड़़ा नीचे उतरकर सड़क के किनारे लगकर खड़ी हो गईं। यह एक पर्यटक बस थी;  जिसमें शिक्षा विभाग के उच्च अधिकारी और अध्यापक सवार थे,  जो भारत-भ्रमण पर निकले थे। गन्नों को देखकर कई लोगों के मुँह में पानी आ गया; लेकिन किसी की हिम्मत नहीं हुई कि किसी ट्रॉली में से एक गन्ना भी खींच ले, क्योंकि विभाग के सबसे बड़े अधिकारी भी बस में उपस्थित थे। चाहे कितने भी कामचोर अथवा भ्रष्ट कर्मचारी क्यों न हों; लेकिन अपने विभाग के बड़े अधिकारियों की उपस्थिति में तो वे अधिकाधिक अनुशासनप्रिय, कर्मठ और ईमानदार होने का प्रमाण ही प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं। कुछ ऐसी ही विवशता यहाँ भी दिखलाई पड़ रही थी।

बस की गति भी अत्यंत धीमी हो गई थी और बस सड़क के किनारे खड़ी गन्नों से लदी एक ट्रॉली को पार कर रही थी। इतने में शिक्षा अधिकारी महोदय ने बाहर हाथ निकाला और झटपट एक गन्ना खींच लिया। बस फिर क्या थासारी वर्जनाएँ टूट गईं। केवल बस की दाईं और बैठे यात्रियों ने ही नहीं, अपितु विपरीत दिशा में बैठे यात्रियों ने भी दूसरी तरफ आ-आकर गन्ने खींचने शुरू कर दिए। बस में भगदड़ जैसी स्थिति हो गई। इतने में एक नवयुवक ने खड़े होकर कहा, ‘‘अरे आप सब लोग ये क्या कर रहे हो? एक किसान, जो इतनी मेहनत से फसल उगाता है, उसे यूँ ही मुफ़्त में झपट रहे हो।’’ इतना कहकर नवयुवक ने शिक्षा अधिकारी की ओर मुँह किया और कहा, ‘‘सर आप भी!’’ सहयात्री नवयुवक को आग्नेय नेत्रों से घूरने लगे और एक व्यक्ति ने कहा, ‘मिस्टर अपनी औक़ात में रहो। शिक्षा अधिकारी से इस तरह बात करने की जुर्अत कैसे की तुमने?’’

अब शिक्षा अधिकारी की बारी थी। वे खड़े हो गए और बोले, ‘‘ठीक ही तो कह रहा है ये नवयुवक। हमें क्या अधिकार है किसी की चीज़ यूँ उठाने का। और चोरी के बाद अब सीनाज़ोरी। नहीं, हम सबने गलत किया है।’’ इसके बाद उन्होंने कहा कि पहले मैंने गलती की और बाद में आप सबने उसे दोहराया। मुझे फ़ख़्र है कि पूरी बस में एक व्यक्ति तो है , जिसमें ईमानदारी व नैतिकता के साथ-साथ निडरता से अपनी बात कहने का साहस भी है, जिसने अपने उच्च अधिकारी की भी ख़बर लेने की हिम्मत की। मैं अपनी गलती स्वीकार करता हूँ और अपने नवयुवक मित्र की ईमानदारी, नैतिकता और साहस की प्रशंसा करता हूँ।

दुर्लभ होते हैं ऐसे नवयुवक और उससे भी अधिक दुर्लभ होते हैं ऐसे उच्च अधिकारी। पद से कोई व्यक्ति बड़ा नहीं होता अपितु बड़ा होता है पद की गरिमा बनाए रखने से और उदात्त जीवन मूल्यों को नष्ट होने से बचाए रखने से। अपनी गलती को स्वीकार करना एक उदात्त जीवन मूल्य है और उसे स्वीकार करने वाला एक बड़ा व्यक्ति।

 एक और घटना याद आ रही है। एक बहुत अच्छे व्यक्तित्व विकास एवं मानव संसाधन विकास प्रशिक्षक हैं। सचमुच बहुत अच्छे प्रशिक्षक। एक बार एक कार्यक्रम में उन्हीं के द्वारा प्रशिक्षित व्यक्तियों की एक प्रतियोगिता चल रही थी। उस प्रतियोगिता के निर्णायकों में वे स्वयं भी थे। प्रतियोगिता अंतिम दौर में थी। अंत में बचे दो प्रतिभागियों में से एक को विजयी घोषित किया जाना था। अंतिम मुक़ाबले के बाद उन्होंने अपनी पसंद के प्रतिभागी को सही बतलाकर उसे विजयी घोषित कर दिया। उनका इतना सम्मान था कि लोग उनकी गलत बात का भी विरोध नहीं कर पाते थे;  लेकिन उस दिन वहाँ उपस्थित अधिकतर लोगों ने उनके निर्णय को गलत बतलाते हुए उनका विरोध किया। इस पर उन्होंने बॉस इज़ ऑल्वेज राइट कहकर सबको चुप रहने के लिए विवश कर दिया। उसके बाद इस प्रकार का आचरण करना उनके लिए सामान्य बात हो गई।

 उनके इस प्रकार के आचरण से उनकी प्रतिष्ठा पर अत्यंत प्रतिकूल प्रभाव पड़ा; क्योंकि उनके सामने सही बोलने का महत्त्व कम होता चला गया अतः सही लोग उनसे दूर होते चले गए और केवल चापलूस क़िस्म के लोग उनके साथ रह गए। उनके कुछ सहयोगी प्रशिक्षक भी उनको छोड़कर चले गए,  जिससे उनके व्यावसायिक हित भी बुरी तरह से प्रभावित हुए। ऐसे अनेक व्यक्ति मिल जाएँगे, जो अपनी हैसियत अथवा प्रतिष्ठा के दंभ में अपनी गलती को स्वयं स्वीकार करना और उसे सुधारना तो दूर उनकी गलती को बतलाने पर भी वे उसे स्वीकार करने और सुधारने को तैयार नहीं होते। कई बार कुछ निहित स्वार्थों अथवा पक्षपातपूर्ण रवैये के कारण भी लोग गलती करते हैं, अतः ऐसी दशा में उनके द्वारा की गई गलती की स्वीकृति और सुधार का प्रश्न ही नहीं उठता। लेकिन जान-बूझकर गलती करने अथवा अपनी गलती को स्वीकार करके उसे नहीं सुधारने का ख़मियाज़ा तो अवश्य ही भुगतना पड़ता है।

प्रायः देखने में आता है कि अधिकतर व्यक्ति अपने से कमज़ोर अथवा कम हैसियत वाले लोगों व अपने विरोधियों में गलतियाँ निकालते रहते हैं व अपने से अच्छी हैसियत वाले लोगों व अपने प्रियजनों अथवा समर्थकों की गलतियों को न केवल नज़रअंदाज़ करते रहते हैं;  अपितु उनकी गलतियों को गलतियाँ न मानकर उन्हें महिमामंडित करने के प्रयासों में लगे रहते हैं। साथ ही एक सही व्यक्ति पक्षपातरहित होकर किसी की गलती को नज़रअंदाज़ करने के बजाय उसे स्पष्ट रूप से कह देता है। वास्तव में गलती तो किसी से भी हो सकती है लेकिन केवल महान व्यक्ति ही अपनी गलती का अहसास होने या कराए जाने पर उसे स्वीकार करने में देर नहीं लगाते। भूल अथवा गलतियाँ होना स्वाभाविक हैं। गलतियों को स्वीकार किए बिना उनका सुधार करना अथवा होना भी असंभव है। हम अपनी गलतियों से ही सबसे ज़्यादा सीखते हैं अतः जो व्यक्ति भी अपनी गलतियों को स्वीकार कर सुधार लेते हैं वे न केवल महान बन पाते हैं अपितु सही अर्थों में वे ही महान होते हैं।

सम्पर्कः ए.डी. 106- सी., पीतमपुरा, दिल्ली- 110034, मो. 9555622323, Email : srgupta54@yahoo.co.in

जीव जगतः कबूतर 4 साल तक रास्ता नहीं भूलते

यह बात आम तौर मानी जाती है कि हरकारे कबूतर (होमिंग पिजन) एक बार जिस रास्ते को अपनाते हैं, उसे याद रखते हैं। अब एक अध्ययन ने दर्शाया है कि ये कबूतर अपना रास्ता 4 साल बाद भी नहीं भूलते।

देखा जाए तो मनुष्यों से इतर जंतुओं में याददाश्त का परीक्षण करना टेढ़ी खीर है। और यह पता करना तो और भी मुश्किल है कि कोई जंतु किसी जानकारी को याददाश्त में दर्ज करने के कितने समय बाद उसका उपयोग कर सकता है। प्रोसीडिंग्स ऑफ रॉयल सोसायटी बी में प्रकाशित शोध पत्र में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की प्राणि विज्ञानी डोरा बायरो और उनके साथियों ने घरेलू होमिंग पिजन्स के इस तरह के अध्ययन की जानकारी देते हुए बताया है कि याददाश्त दर्ज करने और पुन: उपयोग करने के बीच 4 साल तक अंतराल हो सकता है।

बायरो और उनके साथियों ने इसके लिए 2016 में किए गए एक प्रयोग के आंकड़ों की मदद ली। 2016 के प्रयोग में इन कबूतरों को रास्ते सिखाए गए थे। इन कबूतरों ने ये रास्ते या तो अकेले उड़ते हुए सीखे थे या साथियों के साथ। कभी-कभी साथी ऐसे होते थे जिन्हें रास्ता पता होता था या कभी-कभी साथी भी अनभिज्ञ होते थे, तो इन कबूतरों ने अपनी अटारी से लेकर करीब 6.8 किलोमीटर दूर स्थित एक खेत तक का अपना रास्ता 2016 में स्थापित किया था।

2019 और 2020 में बायरो की टीम ने इन कबूतरों का अध्ययन किया। इनकी पीठ पर जीपीएस उपकरण लगा दिए गए और इन्हें उसी खेत से छोड़ दिया गया। कुछ कबूतर अपने कुछ लैंडमार्क्स को चूके ज़रूर;  लेकिन अधिकतर ने इस यात्रा में लगभग ठीक वही रास्ता पकड़ा, जो उन्होंने 2016 में इस्तेमाल किया था। और तो और, 3-4 साल के इस अंतराल में ये कबूतर उस स्थल पर दोबारा गए भी नहीं थे।

शोधकर्ताओं को यह भी पता चला कि इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कबूतर ने 2016 में वह रास्ता अकेले उड़कर तय किया था या झुंड में। लेकिन 2016 के प्रयोग में शामिल कबूतरों का प्रदर्शन अन्य ऐसे कबूतरों से बेहतर रहा जो 2016 की उड़ान में शरीक नहीं थे।

कई शोधकर्ताओं का मानना है कि यह अध्ययन संज्ञान के मामले में मानव-केंद्रित नज़रिए को थोड़ा शिथिल करने में मददगार होगा। (स्रोत फीचर्स)

यात्रा संस्मरणः गढ़ मुक्तेश्वर- गंगा मैया की आरती का अद्भुत नजारा

 - अंजू खरबंदा

गंगा जयंती के पावन अवसर पर गढ़ मुक्तेश्वर, जिसे गढ़ गंगा भी कहा जाता है, जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। परमानन्द कालोनी के पास स्थित ढक्का गाँव से हर माह बस द्वारा किसी न किसी तीर्थ स्थान पर जाने का कार्यक्रम आयोजित किया जाता है। सखी मुकेश के घर जाना हुआ, तो बातों ही बातों में पता चला कि वे लोग कल गढ़ गंगा जा रहे हैं। मेरे ये पूछने पर कि क्या कोई सीट खाली है, तो मुकेश मुझे अपने उन परिचित के घर लेकर गई, जिनके पास सीट की जानकारी थी। उन्होंने बताया कि कुछ देर पहले ही किसी ने अपनी एक सीट कैंसिल की है। मुझे लगा मानो ये मेरे लिए गंगा मैया के बुलावे का ही संकेत था, मैंने झट उसी समय अपने लिए सीट बुक करा ली।

सारी संगत अगले दिन सुबह साढ़े नौ बजे ढक्का स्कूल के पास स्थित मदर डेयरी के पास एक घने वृक्ष के नीचे एकत्र हो गई ... काफ़ी इंतजार के बाद बस साढ़े दस बजे आई और लगभग पौने ग्यारह बजे हम लोग रवाना हुए। बस ‘कश्मीरी गेट’ बस अड्डे ,

अक्षरधाम से गाजियाबाद होती हुई सवा दो बजे जिला हापुड़ स्थित गढ़ मुक्ततेश्वर पहुँची । रास्ते भर संगत ने खूब भजन कीर्तन किया। कुछ महिलाओं को तो सैकड़ों भजन कंठस्थ थे। वे भजन गाने में इतनी रम जाती कि बस के छोटे से कॉरिडोर में ही मगन हो नाचने लगती। सभी भजनों के साथ ताली बजा आनंद में डूबे हुए थे। मेरे लिए इस तरह का ये पहला अवसर था... भजनों की लय ताल कानों में रस घोल रही थी।

जब हम गढ़ गंगा पहुँचें, मई की कड़कती धूप सिर पर थी, पर गंगा मैया के दर्शन की उमंग ने कड़ी धूप के अहसास को  हम पर बिलकुल भी भारी नहीं पड़ने दिया। बस वाले ने पार्किंग में बस रोकी, वहाँ से गढ़ गंगा की दूरी कम से कम पौन किलोमीटर होगी। संगत में लगभग हर उम्र की महिलाएँ थी - पच्चीस से लेकर सत्तर वर्ष तक की! सभी के चेहरे पर गंगा मैया के दर्शन का जोश साफ दिखलाई पड़ रहा था। पौना किलोमीटर रास्ता जैसे पल भर में कट गया... कइयों ने रिक्शा पर जाने की बात कीपरन्तु सभी को पैदल देख वे भी साथ हो लीं। बाजार से गुजरते हुए बैंड बाजे के साथ नाचते- गाते लोग दिखे, बाद में पता चला कि गंगा जयंती के अवसर पर गंगा तीरे रात आठ बजे होने वाले भव्य कार्यक्रम की तैयारी का ये एक हिस्सा है।

गंगा मैया के नजदीक पहुँचते ही सभी के चेहरे यूँ खिल गएमानो कोई खोया खजाना मिल गया हो। सभी ने वहाँ बिछे तख्तपोश पर सामान रखा... दो तीन महिलाओं को सामान की निगरानी का निर्देश दे बाकी महिलाएँ गंगा मैया की गोद में अठखेलियाँ करने को पूरे जोश- खरोश से दौड़ी।

सभी ने एक दूसरे का हाथ थाम खूब डुबकियाँ लगाईं। कुछ महिलाओं ने दस, कुछ ने बीस, कुछ ने पचास तो मुकेश तथा एक बुजुर्ग माँजी ने तो पूरी एक सौ आठ डुबकियाँ लगाई। एक बार स्नान कर मन नहीं भरा, तो डुबकियों का दूसरा दौर चला। काफ़ी देर तक गंगा मैया की गोदी में खेल एक- एक कर सभी घाट पर आए, कपड़े बदले। पहले कुछ महिलाएँ अपनी साड़ी या दुपट्टे से घेरा बना लेती और एक- एक कर बाकी महिलाएँ उस घेरे में कपड़े बदल लेतींलेकिन इस बार एक बढ़िया बदलाव देखने को मिला... वहाँ पर महिलाओं की सुविधा के लिए थोड़ी- थोड़ी दूरी पर एलम्युनियम के छोटे- छोटे बॉक्स बना दिए गए हैं, ताकि उन्हें कपड़े बदलने में कोई परेशानी न हो।

कपड़े बदल शृंगार कर सभी महिलाओं ने पंडित जी के पास बैठ पूजा अर्चना की, उन्हें दान दक्षिणा दी फिर सभी ने गंगा मैया में दीपक प्रवाहित कर घर-संसार के लिए सुख समृद्धि की कामना की।

सुबह से घर से निकले थे, अब पेट में चूहे भी दौड़ने लगे... घाट पर उपयुक्त जगह ढूँढ सभी ने इत्मीनान से बैठ घर से लाया भोजन किया। अब चाय की तलब जगी, तो बाजार की ओर चल दिए, एक टपरी पर बैठ गर्म- गर्म चाय का आनंद लिया और फिर बाजार की रौनक देखने चल दिए। आमने- सामने खूब सारी दुकानें सजी हुई थीं... चूड़ियाँ, मंगलसूत्र, सिंदूर, मोतियों की माला, मूर्तियाँ, खिलौने, लकड़ी से बना सामान, चाबी के छल्ले और भी जाने क्या- क्या! पूरा बाजार मनमोहक सामानों से अटा पड़ा था। महिलाएँ शॉपिंग न करेंतो बाजार बंद न हो जाएँ! सो सभी महिलाओं ने अपनी- अपनी पसंद के हिसाब से सामान खरीदा और वापिस घाट पर आ गईं।

समय देखा, अभी तो पाँच ही बजे थे। आरती शुरू होने में अभी डेढ़ घंटा बाकी था। कुछ महिलाएँ घाट की सीढ़ियों पर बैठ गपशप में मशगूल हो गईं, तो कुछ घाट पर रखे तख्तपोशों पर अधलेटी हो सुस्ताने लगीं। मैं और मुकेश घाट पर चहलकदमी करते हुए गंगा मैया को जीभर निहारती रहीं। छह बजने को थे... जहाँ हम सभी बैठे थे, वहाँ पीछे की ओर विशाल शामियाना लगा हुआ था, लाउडस्पीकर की तेज आवाज ने हमारा ध्यान उस ओर खींचा। हम लोग वहाँ गए, तो देखा खूब सारी कुर्सियाँ पड़ी थीं, बड़े बड़े कूलर चल रहे थे और पानी की फुहार फेंकने वाले विशाल पंखे ठंडी- ठंडी हवा दे रहे थे। सामने भव्य स्टेज सजाया जा रहा था और कुछ आर्टिस्ट एक विशाल मगरमच्छ को पेंट कर रहे थे, कुछ पल को समझ न पाई कि ऐसा क्यों किया जा रहा है, फिर मेरा ध्यान सामने लगे बड़े बोर्ड पर गया, जिस पर बड़े बड़े अक्षरों में ‘माँ गंगा जन्मोत्सव समारोह’ लिखा हुआ था, बाईं ओर गंगा मैया मगरमच्छ पर विराजमान थी और दायीं ओर भोले भंडारी का चित्र बना हुआ था, तब पहली बार मुझे पता चला कि गंगा मैया की सवारी मगरमच्छ है।

मैं अभी इसी ध्यान में खोई थी कि तेज आवाज सुन आसमान की ओर ध्यान गया, तो क्या देखा कि एक पैराशूट द्वारा फूलों की वर्षा की जा रही है। ऐसा प्रतीत हुआ जैसे देवता स्वयं पुष्प वर्षा कर रहे हों।

ऐसा सुंदर नजारा था कि शब्दों में बयान करना कठिन है... तभी सामने बने घंटाघर की घड़ी ने साढ़े छह बजाए और सभी आरती के लिए गंगा मैया की ओर दौड़े।

अद्भुत नजारा था, पल भर को लगा साक्षात् स्वर्ग के द्वार पर खड़ी हूँ, फूलों से सजा पंडाल, सामने गंगा मैया की तेज धाराओं का मधुर संगीत, पीतल के घंटे की कर्णप्रिय ध्वनि के बीच विशाल दीपों द्वारा आरती का भव्य नजारा... पलकें जैसे झपकना ही भूल गईं थीं...!

सम्पर्कः 207 द्वितीय तल, भाई परमानन्द कालोनी, दिल्ली 110009, फोन 9582404164

स्वास्थ्यः टाइप-2 डायबिटीज़ महामारी से लड़ाई

  - डॉ. डी. बालसुब्रमण्यम
इंटरनेशनल डायबिटीज़ फाउंडेशन का अनुमान है कि दुनिया भर में 53.7 करोड़ लोग मधुमेह (डायबिटीज़) से पीड़ित हैं। सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल की वेबसाइट के मुताबिक यूएस में 3.7 करोड़ से अधिक लोग (लगभग 10 प्रतिशत) डायबिटीज़ से पीड़ित हैं। डायबिटीज़ दो तरह की होती है – टाइप-1 और टाइप-2

डायबिटीज़ के प्रकार- आम तौर पर टाइप-1 डायबिटीज़ आनुवंशिक होती है, और यह इंसुलिन लेकर आसानी से नियंत्रित की जा सकती है। इंसुलिन का इंजेक्शन रक्त में उपस्थित शर्करा का उपयोग करने में मदद करता है ताकि शरीर को पर्याप्त ऊर्जा मिल सके। और शेष शर्करा को भविष्य में उपयोग के लिए यकृत (लीवर) और अन्य अंगों में संग्रहित कर लिया जाता है।

टाइप-2 डायबिटीज़ काफी हद तक जीवन शैली का परिणाम होती है। इसमें इंसुलिन इंजेक्शन लेने की आवश्यकता नहीं पड़ती। और यह ग्रामीण आबादी की तुलना में शहरी लोगों में अधिक देखी जाती है। टाइप-2 डायबिटीज़ उम्र से सम्बंधित बीमारी है और यह अक्सर 45 वर्ष या उससे अधिक की उम्र में विकसित होती है।

वर्ष 2002 में जर्नल ऑफ इंडियन मेडिकल एसोसिएशन में प्रकाशित मद्रास डायबिटीज़ रिसर्च फाउंडेशन (MDRF) का अग्रणी शोध कार्य बताता है कि टाइप-2 डायबिटीज़, जिसमें हमेशा इंसुलिन लेने की आवश्यकता नहीं होती है, काफी हद तक जीवन शैली पर आधारित बीमारी है। और इसका प्रकोप ग्रामीण आबादी (2.4 प्रतिशत) की तुलना में शहरी आबादी (11.6 प्रतिशत) में अधिक है।

बीमारी का बोझ-

MDRF का यह अध्ययन मुख्यत: दक्षिण भारत की आबादी पर आधारित था; लेकिन सादिकोट और उनके साथियों ने संपूर्ण भारत के 77 केंद्रों पर 18,000 लोगों पर अध्ययन किया है, जिसे उन्होंने डायबिटीज़ रिसर्च एंड क्लीनिकल प्रैक्टिस पत्रिका में प्रकाशित किया है। उनकी गणना के अनुसार भारत की कुल आबादी के 4.3 प्रतिशत लोग डायबिटीज़ से पीड़ित हैं, (5.9 प्रतिशत शहरी और 2.7 प्रतिशत ग्रामीण)।

ICMR द्वारा वित्त पोषित एक अन्य अध्ययन का अनुमान है कि वर्तमान में पूरे भारत में लगभग 7.7 करोड़ लोग डायबिटीज़ से पीड़ित हैं।

डायबिटीज़ से लड़ने के या इसे टालने के कुछ उपाय हैं। मुख्य भोजन में कार्बोहाइड्रेट का कम सेवन और उच्च फाइबर वाले आहार का सेवन करना उत्तम है। MDRF ऐसे ही एक उच्च फाइबर वाले चावल का विकल्प देता है। दक्षिण भारत के अधिकतर हिस्सों में मुख्य भोजन चावल है, जबकि उत्तर भारत में लोग मुख्यत: गेहूँ खाते हैं।

गेहूँ में अधिक फाइबर, अधिक प्रोटीन, कैल्शियम और खनिज होते हैं। और हम जो चावल खाते हैं वह ‘सफेद' होता है या भूसी और चोकर रहित पॉलिश किया हुआ होता है। (याद करें कि महात्मा गांधी ने हमें पॉलिश किए हुए चावल को उपयोग न करने की सलाह दी थी)।

तो, चावल खाने वालों के लिए अपने दैनिक आहार में गेहूँ, साथ ही उच्च प्रोटीन वाले अनाज, मक्का, गाजर, पत्तागोभी, दालें और सब्ज़ियाँ शामिल करना स्वास्थ्यप्रद होगा। मांसाहारी लोगों को अंडे, मछली और मांस से उच्च फाइबर और प्रोटीन मिल सकता है।

रोकथाम-

क्या टाइप-2 डायबिटीज़ को होने से रोका जा सकता है? हारवर्ड युनिवर्सिटी का अध्ययन कहता है - बेशक।

बस, ज़रूरत है थोड़ा वज़न कम करने की, स्वास्थप्रद भोजन लेने की, भोजन में कुल कार्ब्स का सेवन कम करने की और नियमित रूप से शारीरिक व्यायाम करने की। अधिक व्यायाम की जगह उचित व्यायाम करें। उच्च ऊर्जा खपत वाले व्यायाम करें, जैसे कि नियमित रूप से 10 मिनट की तेज़ चाल वाली सैर, और साँस सम्बंधी व्यायाम भी करें, जैसे कि ध्यान में करते हैं।

हमारे फिज़ियोथेरपिस्ट और आयुर्वेदिक चिकित्सक भी श्वास सम्बंधी व्यायाम और नियमित कसरत करने की सलाह देते हैं।

वेबसाइट healthline.com ने 10 अलग-अलग व्यायाम बताए हैं जो उन लोगों के लिए उपयोगी होंगे जिनमें डायबिटीज़ होने की संभावना है या टाइप-2 मधुमेह से पीड़ित हैं, या वृद्ध हो रहे हैं।

इन 10 में से कुछ व्यायाम जिम जाए बिना आसानी से किए जा सकते हैं। पहला व्यायाम है सैर: सप्ताह में पाँच बार, या उससे अधिक बार 30 मिनट तक तेज़ चाल से चलें। कई डायबिटीज़ विशेषज्ञ सुझाते हैं कि तेज़-तेज़ चलना रोज़ाना घर पर भी किया जा सकता है।

दूसरा है साइकिल चलाना। पास के मैदान या पार्क में साइकिल चलाई जा सकती है। रोज़ाना 10 मिनट साइकिल चलाना बहुत फायदेमंद होता है। वैसे, साइकिल को स्टैंड पर खड़ा कर घर पर भी दस मिनट पैडल मारे जा सकते हैं।

तीसरा है भारोत्तोलन (वज़न उठाना)। यहाँ भी, आपका घर ही जिम हो सकता है। घर की भारी वस्तुएँ (डॉक्टर की सलाह अनुसार 5 या 8-10 कि.ग्रा.)। जैसे पानी भरी बाल्टी या अन्य घरेलू सामान उठा सकते हैं। ऐसा रोज़ाना या एक दिन छोड़कर एक दिन करना लाभप्रद होगा।

उपर्युक्त वेबसाइट ने तैराकी, कैलिस्थेनिक्स जैसे कई अन्य व्यायाम भी सूचीबद्ध किए हैं, लेकिन यहाँ हमने केवल उन व्यायाम की बात की है, जिन्हें लोग घर पर या आसपास आसानी से कर सकते हैं।

योग-

इन 10 अभ्यासों में योग का भी उल्लेख है, जो भारतीयों के लिए विशेष रुचि का है।

जर्नल ऑफ डायबिटीज़ रिसर्च में प्रकाशित नियंत्रित परीक्षणों की एक व्यवस्थित समीक्षा बताती है कि योग ऑक्सीकारक तनाव को कम कर सकता है, और मूड, नींद और जीवन की गुणवत्ता में सुधार कर सकता है। यह टाइप-2 डायबिटीज़ वाले व्यस्कों में दवा के उपयोग को भी कम करता है। (स्रोत फीचर्स)