विलुप्त होती हुई भाषा का प्रतीक
अमेरिका की एक अश्वेत 90 वर्षीय प्रसिद्ध लेखिका ने एक बार एक छोटी सी कथा सुनाई थी, जिसमें उन्होंने बताया था कि अमेरिका में रहने वाली एक वृद्धा थी, जो बहुत ही ज्ञानवान् थी, परंतु अब वृद्धावस्था के
कारण वह वृद्ध महिला, अपनी दोनों आँखें खो चुकी थी। वह वृद्ध
महिला, अपनी बुद्धि और अपने ज्ञान के कारण, पूरे शहर में पहचानी जाती थी, परंतु फिर भी कुछ युवक
उसका उपहास उड़ाते रहते थे। एक बार कुछ युवा उसके पास पहुँचे और उनमें से एक बोला
- ‘देखो मैडम, मेरे हाथ में एक चिड़िया है, तुम्हें बताना है कि यह जीवित है या मृत है?’ महिला
तो कुछ देख नहीं सकती थी, इस कारण वह क्या बोलती और इसीलिए
चुप रही। लेकिन कुछ क्षण बाद उस महिला ने अपनी चुप्पी तोड़ी और वह बोली - ‘बेटा,
मुझे यह तो नहीं पता कि तुम्हारे हाथ में जो चिड़िया है, वह जीवित है या मृत है, परंतु मैं यह अवश्य बता सकती
हूँ कि इस चिड़िया का जीना या मरना तुम्हारे ही हाथ में है।’ उन युवाओं को उस
वृद्ध महिला की ये बातें समझ में नहीं आईं और वे खिल्ली उड़ाते हुए वहाँ से चले
गए। वहीं बराबर में कुछ और अमेरिकी विद्वान् लोग बैठे थे। वे इस गूढ़ रहस्य को समझ
गए और उन्होंने बताया कि उस अंधी वृद्ध महिला के कहने का अर्थ यह था कि यह जो
चिड़िया है, यह अमेरिका की विलुप्त होती हुई भाषा का प्रतीक
है और यह जो युवा हैं, वे इस चिड़िया (भाषा) की रक्षा करने
वाले या फिर उसकी हत्या करने वाले हो सकते हैं।’
भाषाओं को खत्म करने की एक मुहिम
जिस किसी भी देश में भाषाओं को जबरदस्ती थोपा
गया है
,
वहाँ यह भी देखा गया है कि यदा-कदा उस भाषा को बोलने वालों ने अपना
विरोध दर्ज कराया है और उस विरोध को दबाने/ खत्म करने के लिए सरकारों ने बर्बरता
भी की है। जब आप जबरदस्ती किसी को अपनी मातृभाषा को भुलाकर, विदेशी
भाषा को अपनाने का जोर डालेंगे, तो कुछ ना कुछ प्रतिकार
(रिएक्शन) तो होगा ही, फिर आप (सरकार) उसी प्रतिकार को,
हिंसा का नाम देकर, उसे दबाने के लिए और अधिक
हिंसक हो जाएँगे। क्या यह उचित है? इस सब के पीछे अमेरिका
जैसे बड़े देश में प्रचलित सैकड़ों भाषाओं को खत्म करने की एक मुहिम की ओर इशारा
किया गया है। और केवल अमरीका ही क्यों, भारत जैसे सैकड़ों
देशों में, पुरानी और लोकप्रिय भाषाओं की हत्या की जाती रही
है, और शायद एक ही भाषा को बढ़ावा दिया जाता रहा है। जब किसी
लोकप्रिय क्षेत्रीय भाषा का अस्तित्व समाप्त हो जाता है, तो
उसके साथ-साथ क्या समाप्त हो जाता है, कभी आपने सोचा है?
मैं आपको बताता हूं -
• उसके साथ समाप्त होती है आत्मीयता।
• उसके साथ समाप्त होता है आपसी संवाद का
साधन।
• उसके साथ समाप्त होता है एक साथ जुड़ा रहने
का कारण।
• उसके साथ समाप्त होती है अपनी भावनाओं को
व्यक्त करने की स्वतंत्रता।
• उसके साथ समाप्त होती है अपने सुख और दुख को
व्यक्त करने की सहजता।
• उसके साथ समाप्त होते हैं उस भाषा के गीत,
गाने, दोहे, कहावतें और
व्याकरण।
बड़ी रूखी और उदासीन- सी लगती है विदेशी भाषा
और बस, फिर हम किसी
एक भाषा में (जो हमारे ऊपर थोपी गई है) आपसी वार्तालाप करने लगते हैं। ये आपसी
बातचीत, कई बार, बड़ी रूखी और उदासीन
सी लगती है। इसमें अपनी भाषा की वह मिठास नहीं पाई जाती, इसलिए
हमारा वार्तालाप भी अधूरा रह जाता है। अपनी भाषा के द्वारा, भावनात्मक
एकता को प्रकट करना बड़ा सरल होता है। थोपी गई भाषा को हम पूरी तरीके से समझ भी
नहीं पाते और इस कारण वार्तालाप के दौरान कुछ बातें बिना समझे और सुने ही हो जाती
हैं। शायद यह, प्रगति की एक कीमत है जो हमें चुकानी पड़ती
है। शायद हम अपने आप को प्रगतिशील कहलाना पसंद करते हैं और इसलिए अपनी क्षेत्रीय
एवं राष्ट्रीय भाषाओं को छोड़कर, उन भाषाओं में लिखना,
पढ़ना, बोलना प्रारंभ कर देते हैं, जो हमारे ऊपर शासन करने वालों ने, (शायद एक षडयंत्र
के अंतर्गत), थोप दी थीं। यह बेहद ही दुखद बात है। भाषा बहुत
ही संवेदनशील होती है, सही से बोली जाए, तो अमृत का काम करती है और गलत बोली जाये तो तीरों का काम करती है।
अपनी कर्ण प्रिय भाषा को मरने ना दें
अपनी प्रिय भाषा को खोने का दर्द सबसे अधिक
वृद्ध लोगों को होता है, जिनका पूरा जीवन उस भाषा के
सहारे ही कटा है और जब अगली पीढ़ी को उस भाषा के साथ, घटिया
और नए-नए प्रयोग करते हुए देखते हैं, या उस भाषा को इस्तेमाल
करने से बचते हुए देखते हैं, तो उनके मन को बहुत ठेस पहुँचती
है। हमारे देश की सबसे अधिक बोले जाने वाली हिन्दी भाषा के साथ भी वर्षों तक ऐसा
ही अन्याय हुआ है। अब पिछले कुछ वर्षों से हिन्दी भाषा ने, अपनी,
लगभग खोई हुई पहचान को, दोबारा से प्राप्त
करना प्रारंभ कर दिया है। हम सभी हिन्दी-
भाषी प्रदेशों के लोगों का यह कर्तव्य है कि हम अपनी इस कर्णप्रिय (कानों को अच्छी
लगने वाली) भाषा को मरने ना दें। वृद्ध लोगों ने तो अपने प्रयास कर लिए, अब युवाओं के हाथों में वह
चिड़िया है (हिन्दी जैसी अनेक भाषाएँ हैं), जिनका जीना और
मरना, युवाओं के हाथों में है। 14
सितंबर 1949
को संविधान सभा ने एकमत से यह निर्णय लिया कि
हिन्दी ही भारत की राजभाषा होगी। इस निर्णय के बाद, हिन्दी
को हर क्षेत्र में प्रसारित करने के लिए, साल 1953 से पूरे भारत में 14 सितंबर को हर वर्ष हिन्दी दिवस
के रूप में मनाया जाने लगा। हिन्दी भारत की राजभाषा अवश्य बनी, परन्तु राष्ट्रीय भाषा बनते- बनते रह गई। हमारा प्रयास होना चाहिए कि अपनी
मातृ भाषा हिन्दी को, राष्ट्रभाषा का दर्जा मिले।
जब तलक जिंदा कलम है, हम तुम्हें मरने न देंगे
प्रसिद्ध कवि श्री गोपाल दास नीरज ने लिखा था-
‘जब
तलक जिंदा कलम है, हम तुम्हें मरने न देंगे।
खो दिया
हमने तुम्हें तो, पास अपने क्या रहेगा।
कौन फिर बारूद से, सन्देश
चन्दन का कहेगा।
मृत्यु
तो नूतन जनम है, हम तुम्हें मरने न देंगे।’
कितनी सुन्दर कविता है ये। क्या मैंने ठीक कहा? अगर हाँ, तो आइए अपनी प्रिय हिन्दी भाषा को मरने ना
दें। हिन्दी, विश्व की तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा
है। भारत और अन्य देशों (जैसे फ़िजी, मॉरिशस, गयाना, सूरीनाम, नेपाल,
पाकिस्तान, कैनेडा और संयुक्त अरब अमीरात) में
भी, बड़ी संख्या में लोग हिन्दी बोलते, पढ़ते और लिखते हैं। हिन्दी को देवनागरी लिपि में लिखा जाता है। देवनागरी
लिपि में 11 स्वर और 33 व्यंजन हैं।
इसे बाईं से दाईं ओर लिखा जाता है। आइए
अपनी प्रिय मातृभाषा हिन्दी में काम करना (लिखना एवं पढ़ना) प्रारम्भ करें, कम से कम अपने हस्ताक्षर तो आप हिन्दी भाषा में कर ही सकते हैं।
सम्पर्कः बी-120, साकेत,
मेरठ