उदंती.com को आपका सहयोग निरंतर मिल रहा है। कृपया उदंती की रचनाओँ पर अपनी टिप्पणी पोस्ट करके हमें प्रोत्साहित करें। आपकी मौलिक रचनाओं का स्वागत है। धन्यवाद।

Jul 10, 2020

उदंती.com, जुलाई- 2020

वर्ष-12, अंक- 11


जब आपको कोई फूल पसंद आता हैं, तो आप उसे तोड़ लेते है;  लेकिन जब आप किसी फूल से प्यार करते हैं,  तो आप उसे हर रो पानी देते हैं। - गौतम बुद्ध



जीवन दर्शन:  करिश्मा कुदरत का - विजय जोशी

कोरोना ने बदल दी हमारी जीवन -शैली

 कोरोना ने बदल दी हमारी जीवन -शैली
 -डॉ. रत्ना वर्मा
कोरोना वायरस ने 2020 में पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। सबका जीवन इसके इर्द-गिर्द ही घूम रहा है, इसने सबकी जीवन- शैली को पूरी तरह बदलकर रख दिया है। शुरुआती दौर में वायरस से डरकर लोग घरों में सिमटे रहे , फिर इससे बचने के उपाय करने लगे।  मास्क पहनना, एक दूसरे से दूरी बनाकर रखना, बार- बार हाथ धोने की आदत, बहुत जरूरी होने पर ही बाहर निकलना और घर आते ही फिर नहाकर स्वच्छ कपड़े पहनना,  बाजार से आने वाली दैनिक उपयोग की वस्तुओं को सैनिटाइ करना आदि  कई बातें हमारे जीवन का हिस्सा बन गईं। यही वजह है कि आज हम जब भी किसी जरूरी काम से बाहर निकलते हैं और बगल से गुरने वाला व्यक्ति,  जिसने मास्क नहीं पहना हुआ है यदि वह खाँस या छींक देता है , तो हम एकदम से घबरा जाते हैं  और उसे मास्क लगाने की सलाह देते हैं या उससे दूरी बना लेते हैं। कुल मिलाकर हम सब इस संक्रमण के साथ अब जीना सीख रहे हैं। इस वायरस से मुक्ति जब मिलेगी, तब मिलेगी; पर पनी तरफ से सावधानी बरतते हुए जीना होगा।
       इस समय लोग सबसे अधिक जागरूक अपनी सेहत को लेकर हुए हैं और सेहत से जुड़ी है हमारी पूरी जीवन-शैली। इस दौरान लोगों के खान- पान में जबरदस्त बदलाव आया है। लॉकडाउन के दौरान लोग घर की बनी चीजें खाने लगे, वैसे भी बाजार, दुकानें होटल आदि तब सब बंद ही थे। लॉकडाउन खुलने के बाद भी भय से कहिए या जागरूकता के कारण आज भी लोग होटल आदि में खाना पसंद नहीं कर रहे।  संक्रमण से बचने के लिए स्वास्थ्यवर्धक वस्तुओं की अहमियत को सबने स्वीकार किया है।  यह शुभ संकेत है कि घर, परिवार और  रिश्तों के महत्त्व को भी इस महामारी ने बहुत अच्छे से समझाया है। परिवार जैसी संस्था पिछले कुछ दशकों से  कमजोर होती नजर आ रही थी। समाजशास्त्री इस बात को स्वीकार भी कर रहे थे,  कि आधुनिकता के साथ बदलती जीवन शैली के चलते नई पीढ़ी परिवार की आवश्यकता को नकारने लगी है। इस महामारी ने परिवार के महत्त्व को बहुत अच्छे से समझा दिया है। महामारी के चलते शारीरिक  दूरी भले ही बढ़ गई हो; पर मानवीय रिश्ते मजबूत हुए हैं और वे मुसीबत में एक दूसरे की ताकत बने हुए हैं , तभी तो अकेले जीवन बसर करने वाले इस दौर में निराशा के शिकार होते दिखाई दे रहे हैं । कुछ निराशाजनक खबरें सामने आईं भी हैं, जो इस बात को साबित करता है कि, रिश्ते, दोस्ती और सम्बन्धों का हमारे जीवन में कितना महत्त्व है।
       दूसरा जबरदस्त बदलाव इस दौर में काम-काज के क्षेत्र में आया है। विकसित देशों में तो घर से काम करने के लाभ को बहुत पहले से ही स्वीकार कर लिया गया है, परंतु भारत में लॉकडाउन ने इसके महत्त्व को स्वीकार करने पर मजबूर किया है अब कई बड़े सेक्टर यह कह भी रहे हैं कि घर पर काम करने के कई फायदे भी हैं और इससे उनके उत्पाद में बढ़ोतरी ही हुई है। इसमें कोई दो मत नहीं कि  आईटी जैसे की क्षेत्रों में जहाँ घर पर ही रहकर काम संभव है , सिर्फ उन्हें नहीं बल्कि पूरे देश को फायदा है जैसे- इससे ऑफिस आने- जाने का समय बचेगा तो कर्मचारी को यात्रा की थकावट भी नहीं होगी। वह अधिक समय तक अपने परिवार के बीच रह पागा, इससे खुशियाँ बढ़ेंगी वह संतुष्ट रहेगा तो उनके कार्य क्षमता में भी वृद्धि होगी। सड़कों पर भीड़ तो कम होगी ही, साथ ही मोटर गाड़ियों से होने वाला प्रदूषण भी कम होगा।
तीसरा सामाजिक बदलाव– यात्रा में कटौती है। लोग अभी आवश्यक काम से ही बाहर निकल रहे हैं। होटलिंग, पार्टी, पर्यटन,  जैसी मात्र शौक के लिए की जाने वाली अनावश्यक खरीददारी आदि सब लगभग बंद  है। इसका प्रमुख कारण कोरोना तो है ही, साथ ही बेरोगारी और आर्थिक मंदी भी है। इन सबको शुरू होने में समय लगेगा। तब तक लोगों के जीवन में कुछ बदलाव आ जाएगा और वे अपनी जीवन चर्या को जरूरत के हिसाब से ढ़ाल चुके होंगे।
         बहुत अच्छा और लोगों को जागरूक करने वाला जो बदलाव समाज दिखाई दे रहा है वह है- विवाह समारोह , जन्म दिन पार्टी, या अन्य कई परिवारिक सामाजिक आयोजन जहाँ पहले सैकड़ों हज़ारों की संख्या में लोग उपस्थित होते थे में – कोरोना नियम के चलते – सीमित  लोगों के बीच ही कार्य सम्पन्न हो रहे हैं। कुछ लोग इसे मजबूरी मान रहे हैं ; परंतु कुछ लोगों का मानना है कि विवाह,  जन्म दिन, मृत्यु भोज जैसे आयोजन निकट सम्बंधियों के बीच ही सम्पन्न हों; तो बेहतर है। शहर भर के लोगों को आमंत्रित करके एक दिन मँहगा खाना खिलाने का क्या औचित्य है?  इससे तो अच्छा होता कुछ भूखों को ही पेट भर खाना खिलाकर उनके चेहरे पर मुस्कुराहट ला दें और उनकी दुआएँ बटोर लें।  सर्वोत्तम तो यही होगा कि ऐसे समारोह में किए जाने वाले खर्च को  समाज के किसी उत्तम कार्य में लगाएँ- रूरतमंदों की सहायता करें, जो शिक्षा से वंचित हैं  उन्हें शिक्षित करने में उपयोग करें , हमारे देश को स्वास्थ्य सेवाओं की अति आवश्यकता है उसमें सहायता करें ....ऐसे न जाने कितने कार्य हैं जहाँ सहायता करके आप अपनी खुशियों को कई गुना बढ़ा सकते हैं। यद्यपि इस तरह की सामाजिक जागरूकता की बातें लम्बे समय से की जाती रही हैं पर ऐसे आयोजनों पर कोई नियम कानून नहीं होने से,  लोग अपनी सम्पन्नता का दिखावा करते हैं।  कोरोना के इस आक्रमण  ने  हम सबको इस विषय पर चिंतन- मनन करने का अवसर दिया है , इन पर विचार कीजिए और अमल करने का प्रयास कीजिए । आप पहल करेंगे, तो कई लोग आपसे प्रेरित होंगे। इस तरह समाज की ऐसी कई कुप्रथाओं का अंत होगा। 
     इन सबके साथ एक सत्य यह भी है कि इस महामारी ने लोगों में घबराहट भर दी  हैं , लोगों के जीवन में निराशा के बादल मंडरा रहे हैं कि आखिर कब तक इस तरह जीवन चलेगा?  लेकिन मानव का स्वभाव है कि वह आपदा के गुर जाने के बाद सारे दुःखों को भूलाकर फिर से एक नई शुरूआत करते हुए अपनी जीवनचर्या में लौट आता है। ....तो इसी उम्मीद पर कि देर-सवेर एक दिन अवश्य इस वायरस को हरा देंगे और नई उम्मीदों के साथ बदले हुए रूप में नई जीवन -शैली के सात एक बेहतर जीवन की शुरूआत करेंगे।

कोविड-19- वैकल्पिक समाधान

कोविड-19- वैकल्पिक समाधान
वैश्विक संकट का सामना
-भारत डोगरा
विश्व स्तर पर कोविड-19 के कारण कई देशों में लॉकडाउन लगने व इस कारण बढ़ते आजीविका संकट व अन्य समस्याओं को ध्यान में रखते हुए भारत सहित विश्व के कई वरिष्ठ वैज्ञानिकों ने इस वैश्विक संकट का सामना करने के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण वैकल्पिक सुझाव दिए हैं।
आठ वरिष्ठ भारतीय वैज्ञानिकों ने प्रतिष्ठित इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल रिसर्च में एक समीक्षा लेख कोविड-19 पेंडेमिक - ए रिव्यू ऑफ दी करंट एविडेंस शीर्षक से लिखा है। इन वैज्ञानिकों में डॉ. प्रणब चटर्जी, नाजिया नागी, अनूप अग्रवाल, भाबातोश दास, सयंतन बनर्जी, स्वरूप सरकार, निवेदिता गुप्ता और रमन आर. गंगाखेड़कर शामिल हैं। सभी आठ वैज्ञानिक प्रमुख संस्थानों से जुड़े हैं। यह समीक्षा लेख वैश्विक संदर्भ में लिखा गया है व विकासशील देशों की स्थितियों के लिए विशेष रूप से उपयुक्त है।
ऊपर से आए आदेशों पर आधारित समाधान के स्थान पर इस समीक्षा लेख ने समुदाय आधारित, जन- केन्द्रित उपायों में अधिक विश्वास जताया है। लॉकडाउन आधारित समाधान को एक अतिवादी सार्वजनिक स्वास्थ्य का कदम बताते हुए इस समीक्षा लेख में कहा है कि इसके लाभ तो अभी अनिश्चित हैं, पर इसके दीर्घकालीन नकारात्मक असर को कम नहीं आँकना चाहिए। ऐसे अतिवादी कदमों का सभी लोगों पर सामाजिक, मनौवैज्ञानिक व आर्थिक तनाव बढ़ाने वाला असर पड़ सकता है, जिसका स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल असर पड़ेगा। अत: ऊपर के आदेशों से जबरन लागू किए गए क्वारंटाइन के स्थान पर समुदायों व सिविल सोसायटी के नेतृत्व में होने वाले क्वारंटाइन व मूल्यांकन की दीर्घकालीन दृष्टि से कोविड-19 जैसे पेंडेमिक के समाधान में अधिक सार्थक भूमिका है।
आगे इस समीक्षा लेख ने कहा है कि ऊपर से लगाए प्रतिबंधों के अर्थव्यवस्था, कृषि व मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल दीर्घकालीन असर बाद में सामने आ सकते हैं। अंतर्राष्ट्रीय पब्लिक हेल्थ इमरजेंसी के तकनीकी व चिकित्सा समाधानों पर ध्यान केन्द्रित करते हुए स्वास्थ्य व्यवस्थाओं को मज़बूत करने व समुदायों की क्षमता मज़बूत करने के जन केन्द्रित उपायों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। इन वैज्ञानिकों ने कोविड-19 की विश्व स्तर की प्रतिक्रिया को कमज़ोर और अपर्याप्त बताते हुए कहा है कि इससे वैश्विक स्वास्थ्य व्यवस्थाओं की तैयारी की कमज़ोरियाँ सामने आई हैं व पता चला है कि विश्व स्तर के संक्रामक रोगों का सामना करने की तैयारी अभी कितनी अधूरी है। इस समीक्षा लेख ने कहा है कि कोविड-19 का जो रिस्पांस विश्व स्तर पर सामने आया है, वह मुख्य रूप से एक प्रतिक्रिया के रूप में है व पहले की तैयारी विशेष नजऱ नहीं आती है। शीघ्र चेतावनी की विश्वसनीय व्यवस्था की कमी है। अलर्ट करने व रिस्पांस व्यवस्था की कमी है। आइसोलेशन की पारदर्शी व्यवस्था की कमी है। इसके लिए सामुदायिक तैयारी की कमी है। ऐसी हालत में खतरनाक संक्रामक रोगों का सामना करने की तैयारी को बहुत कमज़ोर ही माना जाएगा।
इन वैज्ञानिकों ने कहा है कि अब आगे के लिए विश्व को संक्रामक रोगों से अधिक सक्षम तरीके से बचाना है, तो हमें ऐसी तैयारी करनी होगी जो केवल प्रतिक्रिया आधारित न हो; अपितु पहले से व आरंभिक स्थिति में खतरे को रोकने में सक्षम हो। यदि ऐसी तैयारी विकसित होगी,  तो लोगों की कठिनाइयों व समस्याओं को अधिक बढ़ाए बिना समाधान संभव होगा।
इस समीक्षा लेख में दिए गए सुझाव निश्चय ही महत्त्वपूर्ण है व इन पर चर्चा भी हो रही है। मौजूदा नीतियों को सुधारने में ये सुझाव महत्त्वपूर्ण हैं। जन- केन्द्रि, समुदाय आधारित नीतियां अपनाकर बहुत-सी हानियों और क्षतियों से बचा जा सकता है।
जर्मनी के इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल माइक्रोबॉयोलॉजी एंड हाइजीन के प्रतिष्ठित वैज्ञानिक डा. सुचरित भाकड़ी ने हाल ही में जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल को एक खुला पत्र लिखा है, जिसमें उन्होंने कोविड-19 के संक्रमण से निबटने के उपायों पर अति शीघ्र पुन: विचार करने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया है। उन्होंने अपने पत्र में कहा है कि बहुत घबराहट की स्थिति में जो बहुत कठोर कदम उठाए गए हैं, उनका वैज्ञानिक औचित्य ढूँढ पाना कठिन है। मौजूदा आंकड़ों पर सवाल उठाते हुए उन्होंने कहा है कि किसी मृत व्यक्ति में कोविड-19 के वायरस की उपस्थिति मात्र के आधार पर इसे ही मौत का कारण मान लेना उचित नहीं है।
इससे पहले वैश्विक संदर्भ में बोलते हुए उन्होंने कहा कि कोविड-19 के विरुद्ध जो बेहद कठोर कदम उठाए गए हैं उनमें से कुछ बेहद असंगत, विवेकहीन और खतरनाक हैं, जिसके कारण लाखों लोगों की अनुमानित आयु कम हो सकती है। इन कठेर कदमों का विश्व अर्थव्यवस्था पर बहुत प्रतिकूल असर हो रहा है, जो अनगनित व्यक्तियों के जीवन पर बहुत बुरा असर डाल रहा है। स्वास्थ्य देखभाल पर इन कठोर उपायों के गहन प्रतिकूल प्रभाव पड़े हैं। पहले से गम्भीर रोगों से ग्रस्त मरीज़ों की देखभाल में कमी आ गई है या उन्हें बहुत उपेक्षा का सामना करना पड़ रहा है। उनके पहले से तय ऑपरेशन टाल दिए गए हैं व ओपीडी बंद कर दिए गए हैं।
येल युनिवर्सिटी प्रिवेंशन रिसर्च सेंटर के संस्थापक-निदेशक डॉ. डेविड काट्ज़ ने न्यूयार्क टाइम्स में 20 मार्च 2020 को प्रकाशित लेख इज़ अवर फाइट अगेंस्ट कोरोना वायरस वर्स देन द डिसीज़? में कहा है कि "मेरी गहन चिंता है कि सामाजिक व आर्थिक स्तर पर एवं सार्वजनिक स्वास्थ्य पर बहुत गंभीर प्रभाव पड़ रहा है और सामान्य जीवन लगभग समाप्त हो गया है, स्कूल व बिजऩेस बंद हैं, अनेक अन्य बड़े प्रतिबंध हैं - इसका कुप्रभाव लम्बे समय तक ऐसा नुकसान करेगा जो वायरस से होने वाली मौतों से बहुत ज़्यादा होगा। बेरोजग़ारी, निर्धनता और निराशा से जन स्वास्थ्य पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ेगा।"
सेंटर फॉर इन्फेक्शियस डिसीज़ रिसर्च एंड पॉलिसी, मिनेसोटा विश्वविद्यालय के निदेशक मिशेल टी. आस्टरहोम ने वाशिंगटन पोस्ट में 21 मार्च 2020 के फेसिंग कोविड-19 रिएलिटी - ए नेशनल लॉकडाउन इज़ नो क्योर में कहा है कि "यदि हम सब कुछ बंद कर देंगे तो बेरोजग़ारी बढ़ेगी, डिप्रेशन आएगा, अर्थव्यस्था लडख़ड़ाएगी। वैकल्पिक समाधान यह है कि एक ओर संक्रमण का कम जोखिम रखने वाले व्यक्ति अपना कार्य करते रहें, व्यापार एवं औद्योगिक गतिविधियों को जितना सम्भव हो चलते रहने दिया जाए;  लेकिन जो व्यक्ति संक्रमण की दृष्टि से ज़्यादा जोखिम की स्थिति में हैं वे सामाजिक दूरी बनाए रखने जैसी तमाम सावधानियाँ अपना कर अपनी रक्षा करें। इसके साथ स्वास्थ्य व्यवस्था की क्षमताओं को बढ़ाने की तत्काल ज़रूरत है। इस तरह हम धीरे-धीरे प्रतिरोधक क्षमता का विकास भी कर पाएँगे और हमारी अर्थव्यवस्था भी बनी रहेगी,जो हमारे जीवन का आधार है।"
जर्मन मेडिकल एसोशिएसन के पूर्व अध्यक्ष डॉ. फ्रेंक उलरिक मोंटगोमेरी ने कहा है, "मैं लॉकडाउन का प्रशंसक नहीं हूँ। जो कोई भी इसे लागू करता है, उसे यह भी बताना चाहिए कि पूरी व्यवस्था कब इससे बाहर निकलेगी। चूँकि हमें मानकर यह चलना है कि यह वायरस तो हमारे साथ लंबे समय तक रहेगा, अत: मेरी चिंता है कि हम कब सामान्य जीवन की ओर लौट सकेंगे।"
वर्ल्ड मेडिकल एसोशिएसन के पूर्व अध्यक्ष डॉ. लियोनिद इडेलमैन ने हाल ही में वर्तमान संकट के संदर्भ में कहा कि सम्पूर्ण लॉकडाउन से फायदे की अपेक्षा नुकसान अधिक होगा। यदि अर्थव्यवस्था बाधित होगी,  तो बेशक स्वास्थ्य रक्षा के संसाधनों में भी कमी आएगी। इस तरह समग्र स्वास्थ्य व्यवस्था को फायदे की जगह नुकसान ही होगा।
जाने-माने वैज्ञानिकों के इन बयानों का एक विशेष महत्त्व यह है कि अति कठोर उपायों के स्थान पर ये हमें संतुलित समाधान की राह दिखाते हैं। विशेषकर समुदाय आधारित व जन-केंद्रित समाधानों के जो सुझाव हैं वे बहुत महत्त्वपूर्ण हैं और उन पर अधिक ध्यान देना चाहिए।
स्वास्थ्य क्षेत्र की व्यापक चुनौतियाँ
हाल ही में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने अस्पतालों को विशेष निर्देश दिए कि गैर-कोविड गंभीर मरीज़ों के समुचित इलाज की व्यवस्था इन दिनों भी बनाए रखी जाए और उसमें कोई कमी न आए। उनके इस निर्देश को इस संदर्भ में देखना चाहिए कि देश के विभिन्न भागों से कोविड-19 के दौर में गैर-कोविड मरीज़ों की बढ़ती समस्याओं के समाचार प्राप्त हो रहे हैं।
इतना ही नहीं विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी दिशानिर्देश जारी किए थे कि सभी देशों में कोविड-19 के दौर में गैर-कोविड स्वास्थ्य समस्याओं व बीमारियों के इलाज के लिए सुचारु व्यवस्था बनाए रखना कितना ज़रूरी है। चेतावनी के तौर पर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने यह भी बताया कि 2014-15 के एबोला प्रकोप के दौरान पश्चिम अफ्रीका में जब पूरा स्वास्थ्य तंत्र एबोला का सामना करने में लगा था,  तो खसरा, मलेरिया, एचआईवी और तपेदिक से मौतों में इतनी वृद्धि हुई कि इन चार बीमारियों से होने वाली अतिरिक्त मौतें एबोला से भी अधिक थीं। अत: यदि गैर-कोविड गंभीर मरीज़ों की उपेक्षा हुई तो यह बहुत महँगा पड़ सकता है।
यदि हम आँकड़े देखें तो, जब से भारत में कोविड-19 की मौतों का सिलसिला शुरू हुआ तब से लेकर 1 जून तक कोविड-19 से लगभग 93 दिनों में 5500 मौतें हुर्इं। दूसरे शब्दों में तो कोविड-19 से प्रतिदिन औसतन 60 मौत हुर्इं। इसी दौरान अन्य कारणों से प्रतिदिन औसतन लगभग 27,000 मौतें हुर्इं। दूसरे शब्दों में इन मौतों की तुलना में कोविड-19 मौतें मात्र 0.2 प्रतिशत हैं। इन आँकड़ों से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि स्वास्थ्य क्षेत्र की अन्य गंभीर समस्याओं पर समुचित ध्यान देते रहना कितना ज़रूरी है।
आज विश्व स्तर पर जो स्थिति है उसमें गैर-कोविड मरीज़ों की समस्याएं अनेक कारणों से बढ़ सकती हैं।
आजीविका अस्त-व्यस्त होने की समस्याओं के बीच कई मरीज़ों के पास सामान्य समय की तुलना में नकदी की अत्यधिक कमी है। सामान्य समय में दोस्त व रिश्तेदार प्राय: सहायता के लिए आपातकाल में एकत्र हो जाते थे;  पर अब लॉकडाउन के समय ऐसा संभव नहीं है।
आपातकालीन स्थिति में अस्पताल जाने के लिए किसी परिवहन के मिलने में लॉकडाउन के समय बहुत कठिनाई होती है और कर्फ्यू या लॉकडाउन पास बनवाने में अच्छा खासा समय लगता है। अब अगर जैसे-तैसे गैर-कोविड मरीज़ अस्पताल पहुँच भी जाता है तो कई बार पता लगता है कि कोविड-19 की प्राथमिकताओं के बीच अन्य स्वास्थ्य सेवाएँ आधी-अधूरी हैं या चालू ही नहीं हैं। यहाँ तक कि कुछ गंभीर मरीज़ों को कोविड प्राथमिकताओं के कारण उपचार के बीच ही अस्पताल छोडऩे को कहा जाता है। कई मरीज़ों की गंभीर सर्जरी को या अन्य चिकित्सा प्रक्रियाओं को स्थगित कर दिया जाता है। निर्धनता, बेरोजग़ारी, भूख एवं कुपोषण ने बीमार पडऩे की संभावना को वैसे ही और बढ़ा दिया है।
नौकरी खोने, अनिश्चित भविष्य, बढ़ती निर्धनता और भूख व साथ ही अपने दोस्तों व रिश्तेदारों से संपर्क न होने की स्थिति में मानसिक स्वास्थ्य समस्याएँ बढ़ती हैं और इसके कारण अन्य बीमारियों की संभावना बहुत बढ़ जाती है। ऐसी स्थितियों में हिंसक व्यवहार व आत्महत्या करने के प्रयास की संभावना भी बढ़ जाती है।
कुछ स्थानों पर आवश्यक जीवन रक्षक दवाइयों और चिकित्सा उपकरणों की आपूर्ति की शृंखला टूट जाती है। यहाँ तक कि जब दवाओं की ऐसी गंभीर कमी नहीं होती तब भी स्थानीय स्तर पर, विशेषकर दूर-दराज गाँवों में मरीज़ों को दवाएँ और चिकित्सा साज-सामान नहीं मिलते हैं।
कुछ अस्पतालों में बाह्य रोगी विभागों (ओपीडी) के बंद हो जाने के कारण गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित रोगियों को समय पर रोगों के निदान एवं उपचार मिलने की संभावना भी कम हो जाती है। इसके अतिरिक्त ब्लड बैंक में रक्त व रक्त दाताओं की कमी भी लॉकडाउन के कारण हो जाती है। लॉकडाउन के चलते प्रवासी मज़दूर परिवारों को बच्चों सहित दूर-दूर तक पैदल जाने की मजबूरी हुई। इस कारण उनमें स्वास्थ्य समस्याओं के बढऩे की संभावना अधिक है।
इन समस्याओं से स्पष्ट है कि गैर-कोविड मरीज़ों पर ध्यान देना कितना ज़रूरी है। साथ में इस ओर भी ध्यान देना ज़रूरी है कि अस्पतालों, डाक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों द्वारा इस व्यापक जि़म्मेदारी को निभाने के लिए अनुकूल संसाधन और सुविधाएँ बढ़ाना भी आवश्यक है। सामान्य समय में भी देश के अनेक भागों में स्वास्थ्य का ढांचा कमज़ोर होने के कारण गंभीर मरीज़ों को अनेक कठिनाइयाँ आती रही हैं जो कोविड के दौर में तो निश्चय ही बढ़ गई हैं। (स्रोत फीचर्स)

कोविड-19

 न टीका चाहिए, न सामूहिक प्रतिरोध
-मिलिंद वाटवे
मैंने पहले एक लेख में कहा था कि इस बात की प्रबल संभावना है कि वर्तमान महामारी के लिए ज़िम्मेदार वायरस (SARS-Cov-2) का विकास इस तरह होगा कि उसकी उग्रता या अनिष्टकारी प्रवृत्ति कम होती जाएगी। मुझे ऐसी उम्मीद इसलिए है कि एक ओर तो लगभग सारे देश सारे ज्ञात कोरोना-पॉज़िटिव प्रकरणों में सख्त क्वारेंटाइन लागू कर रहे हैं;  लेकिन दूसरी ओर, हम बहुत व्यापक परीक्षण नहीं करवा पाएँगे, जिसका परिणाम यह होगा कि बहुत सारे प्रकरणों में लक्षण-रहित व्यक्तियों की जाँच नहीं हो पाएगी। ये लोग घूमते-फिरते रहेंगे और वायरस को फैलाते रहेंगे।
वायरस बड़ी आबादी तक पहुँचता है और इसकी उत्परिवर्तन की दर भी काफी अधिक होती है। इस वजह से तमाम परिवर्तित रूप उभरते रहेंगे। जो किस्में अधिक उग्र व अनिष्टकारी होंगी, वे गंभीर संक्रमण पैदा करेंगी, जिसके चलते ऐसे मरीज़ों की जांच होगी और उन्हें क्वारेंटाइन किया जाएगा।
दूसरी ओर, कम उग्र रूप लक्षण-रहित या हल्के-फुल्के लक्षणों वाले संक्रमण पैदा करेंगे, जो शायद स्क्रीनिंग और उसके बाद होने वाले क्वारेंटाइन से बच निकलेंगे। इसका मतलब है कि ये फैलते रहेंगे। वायरस की कई पीढ़ियों, जो बहुत लंबी अवधि नहीं होती, में प्राकृतिक चयन कम उग्र रूपों को तरजीह देगा।
जहाँ वायरस सम्बन्धी सारा अनुसंधान टीके के विकास, उसकी रोगजनक पद्धति या उपचार विकसित करने पर है, वहीं वायरस के जैव विकास पर कोई बात नहीं हो रही है। इसके दो कारण हैं। एक तो यह है कि चिकित्सा के क्षेत्र में कार्यरत लोगों को जैव विकास के लिहाज़ से सोचने की तालीम ही नहीं दी जाती। दूसरा कारण यह है कि उग्रता/अनिष्टकारी प्रवृत्ति को नापना सम्भव नहीं है। वायरस के डीएनए का अनुक्रमण करना, उसके द्वारा बनाए गए प्रोटीन्स का अध्ययन करना, संक्रमित व्यक्ति में एंटीबॉडी खोजना वगैरह आसान है। शोधकर्ता आम तौर वही करते हैं, जो सरल हो, न कि वह जो वैज्ञानिक दृष्टि से ज़्यादा प्रासंगिक हो।
चूंकि आप उग्रता में परिवर्तन को आसानी से नाप नहीं सकते, इसलिए इस पर आधारित परिकल्पना की कोई बात भी नहीं करता। मैं इसे विज्ञान में ‘प्रमाण-पूर्वाग्रह’ कहता हूँ। यदि किसी परिकल्पना को सिद्ध करने या उसका खंडन करने के लिए प्रमाण जुटाना मुश्किल हो, तो लोग उसके बारे में चर्चा करने से कतराते हैं, क्योंकि उसके आधार पर शोध पत्र तो तैयार नहीं हो सकता। महत्त्व इस बात का नहीं होता कि कोई परिकल्पना जन-स्वास्थ्य के लिहाज़ से वैज्ञानिक महत्त्व रखती है या नहीं; बल्कि इस बात का होता है कि क्या आप शोधपत्र प्रकाशित कर पाएँगे।
अलबत्ता, विश्व स्तर पर रोग प्रसार के रुझान और भारतीय परिदृश्य से भी निश्चित संकेत मिल रहे हैं कि वायरस की उग्रता कम हो रही है। यद्यपि संक्रमण बढ़ रहा है, लेकिन समय के साथ मृत्यु दर लगातार कम हो रही है। पैटर्न पर नज़र डालिए। मध्य अप्रैल से, हालाँकि प्रतिदिन नए संक्रमित व्यक्तियों की संख्या बढ़ी है, लेकिन प्रतिदिन मौतों की संख्या कम हुई है।
यही भारत में भी दिख रहा है। दरअसल, भारत में रोगी मृत्यु दर (यानी कोविड-19 के मरीज़ों की संख्या के अनुपात में मौतें) पहले से ही कम थी और यह दर लगातार कम हो रही है, हालांकि प्रतिदिन कुल मौतों की संख्या में गिरावट आना शेष है।
मैंने यहां भारत में प्रतिदिन रिपोर्टेड पॉज़िटिव केसेस को प्रतिदिन रिपोर्टेड मौतों के अनुपात के रूप में प्रस्तुत किया है। यह ग्रा उस दिन से शुरू किया है, जिस दिन प्रतिदिन मृत्यु का आँकड़ा 50 से ऊपर हो गया था। यह सही है कि दिन-ब-दिन उतार-चढ़ाव दिखते हैं लेकिन फिर भी मृत्यु में लगातार कमी की प्रवृत्ति स्पष्ट है।
अब यदि हम एक सरल सी मान्यता लेकर चलें कि यही प्रवृत्ति जारी रहेगी, तो हम कह सकते हैं कि भारत में 35 दिनों में कोविड-19  साधारण फ्लू जितना खतरनाक रह जाएगा। ज़ाहिर है, यह सरल मान्यता थोड़ी ज़्यादा ही सरल है, क्योंकि ग्राफ लगातार एक सरीखा नहीं रहेगा।
दूसरी शर्त यह है कि केस-मृत्यु दर को मृत्यु दर के तुल्य नहीं माना जा सकता। किसी बढ़ती महामारी में केस-मृत्यु दर मृत्यु दर को कम करके आँकती है। 35 दिन का उपरोक्त अनुमान थोड़ा आशावादी हो सकता है। हो सकता है थोड़ा ज़्यादा समय लगे लेकिन दिशा तसल्ली देती है। मैंने अपने कुछ चिकित्सक दोस्तों से यह भी सुना है कि अब सघन देखभाल की ज़रूरत वाले मरीज़ों की संख्या भी कम हो रही है।
के के परीक्षण और बड़े पैमाने पर उत्पादन में कई महीने लग जाएगे और यह तत्काल उपलब्ध नहीं हो पाएगा। और शायद यह जन साधारण के लिए बहुत महँगा साबित हो।
भारत जैसे विशाल देश के लिए सामूहिक प्रतिरोध (हर्ड इम्यूनिटी) हासिल करना दूर की कौड़ी है और यह शायद एक-दो सालों में संभव न हो।

लेकिन इन दोनों चीज़ों से पहले संभवत: जैव विकास इस वायरस की जानलेवा प्रवृत्ति से निपट लेगा। इसमें कोई शक नहीं कि हमें क्वारेंटाइन को जारी रखना होगा और लक्षण-सहित मरीज़ों की बढ़िया चिकित्सकीय देखभाल करनी चाहिए;  लेकिन लक्षण-रहित व्यक्तियों को लेकर ज़्यादा हाय-तौबा करने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि वही हमें बचाने वाले हैं। हमें एकाध महीने इन्तज़ार करके देखना चाहिए कि क्या यह भविष्यवाणी सही होती है या नहीं। यदि यह गुणात्मक या मात्रात्मक रूप से सही साबित होती है,  तो चिकित्सा विज्ञान के लिए अच्छी दूरगामी सीख होगी। उग्रता प्रबंधन की रणनीति सार्वजनिक स्वास्थ्य नियोजन का एक अभिन्न अंग होना चाहिए। यह पहली या आखरी बार नहीं है कि कोई नया वायरस प्रकट हुआ है। ऐसा तो होता रहेगा। सार्वजनिक स्वास्थ्य के प्रबंधन हेतु जैव विकास की गतिशीलता को समझना निश्चित रूप से ज़रूरी है।(स्रोत फीचर्स)

आत्मनिर्भर भारत - बिना हथियार का युद्ध

 आत्मनिर्भर भारत -  बिना हथियार का युद्ध
-डॉ. नीलम महेन्द्र 
आजकल देश में सोशल मीडिया के विभिन्न मंचों पर चीन को बॉयकॉट करने की मुहिम चल रही है। इससे पहले कोविड 19 के परिणामस्वरूप जब देश की अर्थव्यवस्था पर वैश्वीकरण के दुष्प्रभाव सामने आने लगे थे, तो प्रधानमंत्री ने आत्मनिर्भर भारत का मंत्र दिया था। उस समय यह मंत्र देश की अर्थव्यवस्था को दीर्घकालिक लाभ पहुँचाने की दृष्टि से उठाया गया एक मजबूत कदम था, जो आज  भारत चीन सीमा विवाद के चलते बॉयकॉट चायना का रूप ले चुका है; लेकिन जब तक हम आत्मनिर्भर नहीं बनेंगे, चीन के आर्थिक बहिष्कार की बातें खोखली ही सिद्ध होंगी। इसे मानव चरित्र का पाखंड कहें या उसकी मजबूरी कि एक तरफ इन्टरनेट के विभिन्न माध्यम चीनी समान के बहिष्कार के संदेशों से पटे पड़े  हैं,  तो दूसरी तरफ ई कॉमर्स साइट्स से भारत में चीनी मोबाइल की रिकॉर्ड बिक्री हो रही है। जी हाँ  16 जून को हमारे सैनिकों की शहादत से सोशल मीडिया पर चीन का बहिष्कार करने वाले संदेशो की बाढ़ ही आ गई थी। चीन के खिलाफ देशभर में गुस्सा था, तो उसके एक दिन बाद ही 18 जून को ई कॉमर्स साइट्स पर चीन अपने मोबाइल की सेल लगाता है और कुछ घंटों में ही वे बिक भी जाते हैं।
अगर भारत के मोबाइल मार्केट में चीनी हिस्सेदारी की बात करें, तो आज की तारीख में यह 72 से 75% के बीच है और यह अलग अलग कंपनी के हिसाब से साल भर में  6% से 33% की ग्रोथ रेट दर्ज करता है। लेकिन सिर्फ आम आदमी ही चीनी समान के मायाजाल में फँसा हो ऐसा नहीं है देश की बडी बड़ी कंपनियाँ भी चीन के भृम जाल में उलझी हुई हैं। क्योंकि यहाँ सिर्फ मोबाइल मार्केट की हिस्सेदारी की बात नहीं है, टीवी, अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरण, से लेकर गाड़ियों के मोटर पार्ट्स, चिप्स, प्लास्टिक, फार्मा या दवा कंपनियों द्वारा आयातित कच्चे माल की मार्केट भी चीन पर निर्भर है। यही कारण है कि चीन से सीमा पर विवाद बढ़ने के बाद जब भारत सरकार ने चीनी समान पर टैरिफ बढ़ाने की बात कही, तो मारुति और बजाज जैसी कंपनियों को कहना पड़ा कि सरकार के इस फैसले का भार ग्राहक की जेब पर सीधा असर डालेगा।
इन परिस्थितियों में जब हम आत्मनिर्भर भारत की बात करते हैं, तो मंज़िल काफी दूर और लक्ष्य बेहद कठिन प्रतीत होता है। इसलिए अगर हम आत्मनिर्भर भारत को केवल एक नारा बना कर छोड़ने के बजाय, उसे यथार्थ में आत्मनिर्भर बनाना चाहते हैं तो हमें जोश से नहीं होश से काम लेना होगा। इसके लिए सबसे पहले हमें सच को स्वीकार करना होगा और सत्य यह है कि आज की तारीख में साइंस और टेक्नोलॉजी ही चीन का सबसे बड़ा हथियार है, जिसमें हम चीन को टक्कर देने की स्थिति में नहीं हैं। यानी हम बिना हथियार युद्ध के मैदान में कूद रहे हैं, तो फिर जीतेंगे कैसे?
दरअसल युद्ध कोई भी हो, उसे जीतने के लिए अपनी कमजोरियाँ और ताकत दोनों पता होनी चाहिए। अपनी कमजोरियों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए और अपनी क्षमताओं का दोहन। यह सच है कि आज की तारीख में विज्ञान और प्रौद्योगिकी हमारी कमजोरी है,  लेकिन भारत जैसे देश में क्षमताओं और संभावनाओं की कमी नहीं है और यही हमारी सबसे बड़ी ताकत है। हमारी सबसे बड़ी ताकत है -हमारी कृषि और हमारे किसान दोनों को ही मजबूत बनाने की जरूरत है। सरकार ने इस दिशा में घोषणाएँ भी की हैं लेकिन भारत की अफसरशाही का इतिहास देखते हुए उन्हें क्रियान्वित करके धरातल पर उतारना सरकार की मुख्य चुनौती होगी। हमारी दूसरी ताकत है हमारी सदियों पुरानी चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिस देश में इस पूर्णतः वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति का उद्भव हुआ, उसी देश में उसे यथोचित सम्मानजनक स्थान नहीं मिल पाया। लेकिन वर्तमान कोरोना काल में इसने समूचे विश्व को अपनी ओर आकर्षित किया है। इस मौके का सदुपयोग करके आयुर्वेद की दवाइयों पर सरकार अनुसंधान को बढ़ावा देकर आयुर्वेदिक दवाओं को एक नए और आधुनिक स्वरूप में विश्व के सामने प्रस्तुत करने के लिए वैज्ञानिकों को प्रोत्साहित करे। इसी प्रकार आज जब पूरा विश्व प्लास्टिक के विकल्प ढूँढ रहा है, तो हम पत्तों के दोने पत्तल बनाने के लघु उद्योगों को बढ़ावा देकर उनकी निर्यात योग्य क्वालिटी बनाकर ग्रामीण रोजगार और देश की अर्थव्यवस्था दोनों को मजबूती दे सकते हैं।  हमारी भौगोलिक और सांस्कृतिक विरासत भी हमारी ताकत है। दरअसल हर राज्य की सांस्कृतिक और भौगोलिक तौर पर अपनी विशेषता है। कुदरत ने जितनी नेमत इस धरती पर बख्शी है, उतनी शायद और किसी देश पर नहीं। अभी हमारे देश में विदेशी अधिकतर भारतीय ध्यात्म से प्रेरित होकर शांति की खोज में आते हैं लेकिन अगर हम अपने देश के विभिन्न राज्यों को एक टूरिस्ट स्पॉट की तरह दुनिया के सामने प्रस्तुत करने के लिए आवश्यक कदम उठाएँ  तो हमारी धरती ही हमारी सबसे बड़ी ताकत बन जाएगी। यह सभी उपाय अपने साथ देश में विदेशी मुद्रा भंडार और रोजगार दोनों के अवसर साथ लेकर आएँगे।
अब बात करते हैं कमजोरियों की। तो हमारा सबसे कमजोर पक्ष है साइंस और टेक्नोलॉजी। आज के इस वैज्ञानिक युग में इस पक्ष को नजरअंदाज करके विश्वगुरु बनने की बात करना बेमानी है। विश्व के किसी भी ताकतवर देश को देखें उसने विज्ञान और टेक्नोलॉजी के दम पर ही उस ताकत को हासिल किया है चाहे वो जापान चीन रूस अमेरिका कोई भी देश हो। हम दावे जो भी करें हकीकत यह है कि भारत इस क्षेत्र में इन देशों के मुकाबले बहुत पीछे है। हाँ यह सही है कि पिछले तीन चार सालों में हम कुछ कदम आगे बढ़े हैं लेकिन इन देशों से अभी भी हमारा फासला काफी है। इसलिए आवश्यक है कि भारत में वैज्ञानिक अनुसंधानों और वैज्ञानिकों दोनों को प्रोत्साहन दिया जाए टेक्नोलॉजी पर रिसर्च को फोकस किया जाए। शिक्षा नीति में ठोस बदलाव किए जाएं ताकि कॉलेज से निकलने वाले युवाओं के हाथों में खोखली डिग्रीयों के बजाए उनके दिलों में कुछ कर गुजरने का जज्बा हो। उनकी रुचि रिसर्च अनुसंधान खोज करने की ओर बढ़े और हमें अधिक से अधिक प्रतिभावान युवा वैज्ञानिक मिलें। और यह तभी संभव होगा जब हमारे देश के योग्यता से किसी प्रकार का समझौता नहीं किया जाएगा। जब प्रतिभावान युवा आरक्षण एवं भ्रष्टाचार के चलते अवसर ना मिल पाने के कारण विदेशों में चले जाने को मजबूर नहीं होंगे। दूसरे शब्दों में हमारा देश जिस ब्रेन ड्रेनेज का शिकार होता आया है उसे रोकना होगा। ताकि हम भविष्य के सुंदर पचाई और सत्या नडेला जैसे युवाओं को भारत में रोक सकें।
आज से अगर हम इन दिशाओं में सोचेंगे तो कम से कम पांच छः सालों में हम अपनी कमजोरियों पर विजय प्राप्त कर के आत्मनिर्भर भारत का स्वप्न साकार कर पाएँगे। 
सम्पर्कः Jari patka no 2, Phalka Bazar, Lashkar, Gwalior, MP- 474001, Mob - 9200050232, Email - drneelammahendra@gmail.com

कहीं वायरस घर तो नहीं पहुँच रहा

कहीं वायरस घर तो नहीं पहुँच रहा
जर्मन फेडरल इंस्टीट्यूट फॉर रिस्क एसेसमेंट की एक स्टडी के मुताबिक, फलों और सब्जियों से भी वायरस आप तक पहुँच सकता है। अनाज तो हम बहुत दिन का एक साथ रख सकते हैं और उसकी खरीदारी भी रोज-रोज नहीं होती, मगर सब्जियाँ तो हर कुछ दिन बाद खरीदनी पड़ती हैं। कोरोना वायरस के अलग-अलग वस्तुओं पर जीवित रहने की अवधि अलग होती है। ऐसे में यह सवाल वाजिब है कि बाजार से खरीदी जाने वाली सब्जी संग कहीं वायरस तो घर नहीं पहुँच रहा। सोशल मीडिया पर तमाम महिलाएँ पूछ रही हैं कि सब्जियों को किस तरह से धोएँ ताकि कोरोना से बचे रहें। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, बाहर से आने वाले सामान से कोरोना फैलने की आशंका बेहद कम है।
फिर भी विशेषज्ञों का मानना है कि अगर बाहर से लाई गई चीजों को पहले सैनिटाइज कर लिया जाए तो संक्रमण फैलने का खतरा कम हो जाता है, फिर चाहे वह ग्रॉसरी आइटम हो या फिर फल और सब्जियाँ। कोराना वायरस को नंगी आँखों से नहीं देखा जा सकता है इसलिए हम न चाहते हुए भी फल और सब्जियों के माध्याम से उससे संक्रमित हो सकते हैं। इसलिए बेहतर है कि आप इन्हें घर पर लाकर अच्छी तरह से धो लें। धोने के लिए कोई एक तरीका अपनाने की जरूरत नहीं है आपके पास जो साधन घर पर उपलब्ध हो या आपको जो सुविधाजनक लगे उस तरीके को अपना सकते हैं -
 फल और सब्जियों को धोने के खास तरीके
- सब्जियों और फलों को 5 से 10 मिनट तक सिरका मिले पानी में भिगोएँ और उसके बाद अच्छी तरह से धो लें।
- फूलगोभी, पालक, ब्रोकली, बंदगोभी जैसी सब्जियों को दो प्रतिशत साधारण नमक वाले गर्म पानी से धोएँ।
- गाजर और बैंगन जैसी सब्जियों को इमली वाले पानी के घोल से धोएँ।
- ओजोनेटेड पानी से धोने से पेस्टीसाइड को भी काफी हद तक साफ किया जा सकता है।
पानी से धोना ही काफी
अमेरिका के यूटा विश्वविद्यालय की विशेषज्ञ टेरेसा हँसकर कहती हैं कि सब्जियों को पानी से धोना भर ही पर्याप्त है। हालांकि अगर सिरका या नींबू वाले पानी से धोएँगे तो और अच्छा रहेगा।
कुछ और घरेलु उपाय
- सब्जियों या फलों को 30 मिनट के लिए एक बड़े बर्तन में पानी के साथ इनके से किसी एक घोल में भिगोएँ और उसके बाद अच्छी तरह से साफ पानी से धोएँ।
- फल और सब्जियों, जिन पर वैक्स किया हो के लिए एक कप पानी, आधा कप सिरका, एक बड़ा चम्मच बेकिंग सोडा और अंगूर बीज के अर्क का छींटा करें और 1 घंटे के लिए छोड़ें। उसके बाद धोएँ और इस्तेमाल करें।
इसके अलावा इनमें से किसी एक घोल को तैयार करें, उसका फल और सब्जियों पर छिड़काव करें और 5 से 10 मिनट छोडऩे के बाद साफ पानी से धोएँ-
- 1 चौथाई कप सिरका या 2 बड़े चम्मच नमक।
- 1 बड़ा चम्मच नींबू का रस, 2 बड़े चम्मच सफेद सिरका, 1 कप पानी
 - 1 बड़ा चम्मच नींबू का रस, 2 बड़े चम्मच बेकिंग सोडा, 1 कप पानी।
सामान्य तरीके
- सब्जियों-फलों को नल के साफ चलते पानी या पीने के पानी से धोएँ और साफ कपड़े से सुखाएँ।
- आलू, गाजर, शलजम आदि सब्जियों को 5 से 10 सेकेंड के लिए नरम ब्रश या साफ कपड़े से पोछें व हल्के गुनगुने पानी से धोएँ।
- धोने से पहले पत्तेदार सब्जियों जैसे बंदगोभी की ऊपरी परत उतार लें।
- आम, नाशपाती, किवी जैसे फलों और लौकी, तोरई का छिलका उतार दें
- छिलका सहित खाने वाले फलों को एक घंटे तक पानी में भिगोएँ।
हरी पत्ते दार सब्जियाँ
एक बड़े कटोरे में पानी भरें और उसमें साग तथा अन्य  पत्तेपदार सब्जियों को डुबोकर कुछ देर के लिए रख दें। उसके बाद इसे अच्छी  तरह से हाथ से मलें। फिर इसे एक छननी में डालकर चलते हुए नल के ठंडे पानी से धो लें।
जड़ वाली सब्जियाँ
जड़ वाली सब्जी जमीन के अंदर उगती हैं इसलिए जाहिर-सी बात है कि इनमें ढेर सारी मिट्टी लगी होती है। बाजार से लाकर सबसे पहले इन्हें  ब्रश से रगड़ कर साफ करें। उसके बाद इन्हें हल्के  गुनगुने पानी से धो लें।
बाजार से लाए फल और सब्जियों को पर अच्छी मात्रा में बेकिंग सोडा छिड़कें फिर इन्हें 15 मिनट के लिए ऐसे ही छोड़ दें। इससे उनकी ऊपरी परत पर जितने भी बैक्टीरिया और वायरस होंगे वो दूर हो जाएँगे। इसके बाद सभी को नल के साफ पानी से अच्छी तरह से धो लें।
वेनिगर से कैसे धोएँ हरी पत्ते दार सब्जियाँ
एक बड़े कटोरे में वाइट वेनिगर डालकर ऊपर से 3 कप पानी मिलाएँ। इस घोल को मिक्स  करने के लिए चम्मएच से चलाएँ। पत्तेदार सब्जिायों को अलग-अलग कर लें और फिर पानी में डुबाएँ। 20 मिनट के बाद उन्हें  बाहर निकालकर नल के पानी से धो लें। फिर सब्जियों से अतिरिक्त पानी को झाड़ लें और उसे कुछ देर हवा में सुखाएँ या किचन टॉवल पर रख कर सुखाएँ।
हल्दी के पानी से सब्जियों की सफाई
कई घरों में हल्दी का उपयोग फलों और सब्जियों को साफ करने के लिए भी किया जाता है। हल्दी में एंटी-बैक्टीरियल गुण पाया जाता है जिसके प्रयोग से फल और सब्जियों में लगे कीटाणुओं का नाश होता है। बाहर से लाई सब्जियों को धोने के लिए सबसे पहले जरूरतभर का पानी गरम करें और उसमें 1 चम्मच हल्दी मिलाएँ। फिर उसमें फल और सब्जियाँ डालें और थोड़ी देर तक रहने दें। फिर इन्हें  निकाल कर बाद में साफ पानी से धो लें।
क्या कहते हैं एक्सपर्ट
कोरोना वायरस के खतरे को कम करने के लिए बहुत से लोग बाजार से सब्जी खरीदकर लाने के बाद उसे साबुन या फिर डिटर्जेंट से साफ कर रहे हैं। यह न केवल स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा हो सकता है बल्कि आपकी सब्जियाँ भी खाने योग्य नहीं बचेंगी। कुछ जगह पर ऐसे मामले भी देखे गए, जहाँ पर सब्जियों को साबुन और डिटर्जेंट से धोने के बाद खाने से लोगों को पेट दर्द और कई प्रकार की स्वास्थ्य समस्याओं का सामना भी करना पड़ा। लोग बाजार में मिलने वाले केमिकल बेस्ड सेनेटाइजर्स का यूज कर रहे हैं जो महँगे होने के साथ हेल्थ के लिए भी बेहद खतरनाक है।
कनाडा स्थित रिसर्च इंस्टिट्यूट ऑफ फूड सेफ्टी डायरेक्टर जेफ फॉर्बर के अनुसार, खाने से पहले आपको फलों और सब्जियों को साबुन से धोना खतरनाक हो सकता है। इसलिए जरूरी है कि फलों और सब्जियों को धोने के लिए आप किसी ऐसे सैनिटाइजर का इस्तेमाल करें जिससे सब्जियों को नुकसान ना पहुँचे और आप स्वस्थ भी बने रहें। चूँकि यह सब अब जीवन का अंग बन गया है और हम अपने दैनिक जीवन में भी प्राकृतिक वस्तुओं का उपयोग करने लग गए हैं अत: ऐसे में क्यों न हम घर पर ही सैनिटाइजर बना कर रखें जो न केवल सस्ता पड़ेगा साथ ही सुरक्षित भी रहेगा। आइए सेनीटाइजर को बनाने की विधि और उसके इस्तेमाल करने के तरीके के बारे में जानते हैं-
सामग्री
1 कप नीम के पत्ते
1 कप पानी
1 बॉटल स्प्रे करने के लिए
1 चम्मच बेकिंग सोडा
बनाने की विधि
सबसे पहले, नीम के पत्तों को धो लें।
अब एक बर्तन में पानी लें और उसमें पत्ते डालें।
इस मिश्रण को धीमी आंच पर गैस पर रख दें।
इसे 15-20 मिनट तक उबालें।
ध्यान दें कि पानी को हरा होने तक उबालना है।
पानी हरा होने के बाद मिश्रण को ठंडा होने के लिए छोड़ दें।
जब मिश्रण ठंडा हो जाए तो इसमें 2 चम्मच बेकिंग सोडा डालें और अच्छी तरह मिलाएँ।
अब इस पानी को एक साफ स्प्रे बोतल में डालें लें।
जब भी बाहर से फल या सब्जियाँ लाएँ तो इन्हें खुले पानी में धो लें।
इसके बाद बाद इन पर अच्छी तरह इस होममेड नेचुरल सैनिटाइजर का स्प्रे करें और कुछ देर के लिए छोड़ दें।
सब्जी और दूसरे खाने के सामान का स्वाद प्रभावित न हो इसके लिए आप दोबारा इन्हें खुले पानी से धो सकते हैं।
कैसे कार्य कर सकता है यह स्प्रे
आयुर्वेद में नीम की पत्तियों का सेवन करने की बात कही जाती है जो कई प्रकार की बीमारियों के खतरे को कम करता है। वहीं, वैज्ञानिक आधार की बात करें तो नीम की पत्ती और बेकिंग सोडा एंटी बैक्टीरियल एंटी फंगल और एंटीवायरल और एंटी पैरासाइट गुण रखते हैं। इसी प्रभाव के कारण अगर सैनिटाइजर के रूप में इनका प्रयोग किया जाए तो सब्जियों पर मौजूद हानिकारक बैक्टीरिया और वायरस के प्रभाव को कई गुना तक खत्म करने के लिए यह प्रभावी रूप से कारगर साबित हो सकता है।
किचन ऐसे रखें सुरक्षित
 सिंक, बर्तन धोने का स्क्रबर, सब्जी काटने के पटले आदि को साफ रखें। मंडी जाने से किचन में आने तक आपने जिन चीजों को छुआ है, वे साफ करें। किचन के डिब्बों, स्विच बोर्ड, मिक्सर आदि बार-बार छुई जाने वाली चीजों को साफ करते रहें।
घर का थैला न लेकर जाएँ
कैलिफोर्निया की लूमा लिंडा विश्वविद्यालय के अनुसार, रीयूजेबल कैरीबैग में सामान्यत: संक्रमण होते हैं इसलिए उसे खरीदारी के लिए न ले जाएँ। दुकान पर थैली में ही सामान लें और घर लाकर प्लास्टिक की थैली को निस्तारित कर दें।