पत्रिकाएं नियमित अंतराल के साथ हर बार एक नया अंक
प्रस्तुत करती हुई प्रवाहमान रहती हैं अत: पत्रिकाओं को रचनात्मक विचारों की नदी
कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
उदंती.com का पहला
अंक आपके हाथ में है। इसे देखते ही पत्र पत्रिकाओं से सरोकार रखने वाले बहुतों के
मन में यह सवाल जरूर उभरेगा कि लो एक और पत्रिका आ गई? और यह भी, कि पता
नहीं इसमें ऐसा क्या नया या अलग होगा जो विशेष या पठनीय होगा? आपका
सवाल उठाना वाजिब है, क्योंकि पिछले कुछ समय से राष्टï्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर
पत्र- पत्रिकाओं की बाढ़ सी आ गई है। इनमें से अधिकांश पत्रिकाएं या तो बीच में ही
दम तोड़ देती हैं या फिर अनियमित हो जाती हैं। जो एकाध बच रह जाती हैं उन्हें भी
जिंदा रहने के लिए बहुतेरे पापड़ बेलने पड़ते हैं। ऐसी उफनती बाढ़ में उदंती. com ले कर
उतरना बिल्कुल वैसा ही है जैसे किसी नाव को बिना पतवार के नदी में उतार देना और
कहना कि आगे बढ़ो।
दरअसल पत्रकारिता की दुनिया में 25 वर्ष से
अधिक समय गुजार लेने के बाद मेरे सामने भी एक सवाल उठा कि जिंदगी के इस मोड़ पर आ
कर ऐसा क्या रचनात्मक किया जाय जो जिंदा रहने के लिए आवश्यक तो हो ही, साथ ही
कुछ मन माफिक काम भी हो जाए। कई वर्षों से एक सपना मन के किसी कोने में दफन था, उसे पूरा
करने की हिम्मत अब जाकर आ पाई है। यह हिम्मत दी है मेरे उन शुभचिंतकों ने जो मेरे
इस सपने में भागीदार रहे हैं और यह कहते हुए बढ़ावा देते रहे हैं कि दृढ़ निश्चय
और सच्ची लगन हो तो सफलता अवश्य मिलती है।
इन सबके बावजूद जैसे ही पत्रिका के प्रकाशित होने
की खबर लोगों तक पंहुची एक प्रश्नवाचक चिन्ह चेहरों पर उभरता नजर आया। कुछ ने कहा
कि प्रतिस्पर्धा के इस दौर में आसान नहीं है पत्रिका का प्रकाशन और उसे जिंदा रख
पाना, तो किसी ने कहा आपकी हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी, तो कुछ
ने यह कहते हुए शुभकामनाएं प्रेषित की कि ऐसे समय में जबकि रचनात्मकता के लिए
स्पेस खत्म हो रहा है आप नया क्या करेंगी? और यह भी कि , यह है तो
जोखिम भरा काम लेकिन इमानदार प्रयास सभी काम सफल करता है, आदि
आदि... थोड़ी सी निराशा और बहुत सारी आशाओं ने मेरे मन के उस सपनीले कोने में
चुपके से आकर कहा कि सुनो सबकी पर करो अपने मन की। सो मैंने मन की सुनी और इस समर
में बिना पतवार की नाव लेकर कूद पड़ी, इस विश्वास के साथ कि
व्यवसायिकता के इस दौर में अब भी कुछ ऐसे सच्चे, शुभचिंतक हैं, जिनकी
बदौलत दुनिया में अच्छाई जीवित है, अत: इस नैया को आगे बढ़ाने
के लिए, पतवार थामे कई हाथ अवश्य आगे आएंगे।
पत्रिका के शीर्षक को लेकर भी कई सवाल दागे गए, कि क्या
यह वेब पत्रिका होगी या कि सामाजिक सांस्कृतिक, पर्यटन, पर्यावरण
अथवा किसी विशेष मुद्दे पर केन्द्रित होगी? कम शब्दों में कहूं तो यह
पत्रिका मानव और समाज को समझने की एक सीधी सच्ची कोशिश होगी, जो आप सब
की सहभागिता के बगैर संभव नहीं है।
रही बात नाम की, तो उदंती नाम में उदय होने
का संदेश तो नीहित है ही, साथ ही उदंती एक नदी है जो उड़ीसा और छत्तीसगढ़ को स्पर्श करती हुई
बहती है, इसी नदी के किनारे स्थित है छत्तीसगढ़ का उदंती अभयारण्य, जो लुप्त
होते जंगली भैसों की शरणस्थली भी है। मानव सभ्यता एवं संस्कृति का उद्गम और विकास
नदियों के तट पर ही हुआ है साथ ही नदी सदैव प्रवाहमान एवं गतिमय रहती है। पत्र-
पत्रिकाएं भी नियमित अंतराल के साथ हर बार एक नया अंक प्रस्तुत करती हुई प्रवाहमान
रहती हैं अत: पत्रिकाओं को रचनात्मक विचारों की नदी कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
इन्हीं जीवनदायिनी नदियों से प्रेरणा लेकर हम भी अपनी सांस्कृतिक- सामाजिक
परंपराओं को बचाने की कोशिश तो कर ही सकते हैं।
इसी प्रवाह के साथ इंटरनेट ने भी हमारे जीवन में
गहरे तक प्रवेश कर लिया है, उसने पूरी दुनिया को एक छत के नीचे ला खड़ा किया है, और हम एक
ग्लोबल परिवार बन गए हैं अब तो इंटरनेट में हिन्दी व अन्य भाषाओं में काम करना
आसान होते जा रहा है। पढऩे- लिखने वालों के लिए उसने अनेक नए रास्ते खोल दिए हैं।
इसलिए पत्र- पत्रिकाएं प्रकाशित होने के साथ- साथ इंटरनेट पर भी तुरंत ही आ जाती
हैं और उसका दायरा प्रदेश, देश से निकल कर पूरी दुनिया तक हो जाता है। निश्चित ही यह पत्रिका
इंटरनेट पर भी उपलब्ध रहेगी।
कुल जमा यह कि जीवन को समग्र रूप से समृद्ध बनाने
में सहायक, समाज के विभिन्न आयामों से जुड़े रचनात्मक विचारों पर आधारित
सुरूचिपूर्ण और पठनीय पत्रिका पाठकों तक पंहुचे, ऐसा ही एक छोटा सा प्रयास
है उदंती.com। इस प्रयास के प्रारंभ में ही छत्तीसगढ़ और देश भर से रचनाकारों ने
सहयोग दे कर मेरा उत्साहवर्धन किया है, यह मेरे लिए अनमोल है, मैं सबकी
सदा आभारी रहूंगी।
यह प्रथम अंक इस विश्वास के साथ आप सबको समर्पित
है कि आपका सहयोग सदैव मिलता रहेगा। आप सबकी प्रतिक्रिया एवं सुझाव का हमेशा
स्वागत है।
केन्द्र के फैसले के मुताबिक एक नवंबर 1957 को अस्तित्व में आए मध्यप्रदेश से 'छत्तीसगढ़ नवंबर 2000 को अलग हो गया। आठ बरस बीत गए। कई प्रकार के प्रश्न मन में कौंध रहे हैं कि यदि अब भी छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ वासियों की समस्याओं को मूल रूप से समझा न गया और वर्षों से छत्तीसगढ़ में अभाव में जीने वालों की पीड़ाओं के निराकरण को प्राथमिकता न दी गयी, तो छत्तीसगढ़ राज्य बनाने का औचित्य जिन उद्देश्यों को लेकर किया गया है क्या वह पूरा हो पायेगा? ऐसे कितने यह प्रश्न है जो इस नये राज्य के अस्तित्व में आने के बाद भी अनुत्तरित हैं। क्या हम अब भी इन प्रश्नों के उत्तर तलाशेंगे, ताकि यहां के अवरूद्ध विकास की गति उन्मुक्त होने के साथ-साथ नक्सलवाद की विभिषिका का भी सामाजिक समाधान अपने-आप हो जाये।
दरअसल प्रश्न यह है कि छत्तीसगढ़ राज्य में खुशहाली किसके लिए चाहिए? उनके लिए जो केवल छत्तीसगढ़ के नाम पर दिखावा व कुछ भी खेल करते हैं और सदैव सत्ता की चाशनी में डूबे हुए हैं। अथवा वे जो वन क्षेत्र व दुर्गम इलाकों में रहते हुए विकास के पथ से कोसों दूर हैं। वास्तव में इनके लिए ही तो चाहिए खुशहाली। मौजूदा छत्तीसगढ़ के चित्र में अकाल, बेरोजगारी, गरीबी, भुखमरी और पलायन ही लोगों की नियति से जुड़ हुए हैं। राज्य में विकास का एजेन्डा तय करते समय इन सब बिन्दुओं को केन्द्र में क्यों नहीं रखा जाता? यह चर्चा इसलिए भी जरुरी है कि बरस- दर- बरस राज्य बनने के जश्न और सरकार बनाने की आपाधापी में ऐसी वास्तविकताओं का दरकिनार होना नितांत संभव है। छत्तीसगढ़ विविध प्रकार के वन, जल, जीवजंतु और खनिजों से ओतप्रोत अंचल है। जिसके बारे में कहा जाता है जमीन के भीतर तो अमीरी है पर जमीन के ऊपर गरीबी है। लगभग 1100 मिलीलीटर से लेकर 1700 मिलीलीटर के बीच वर्षा वाला यह क्षेत्र न केवल विविधताओं से भरा है बल्कि 207, 34 करोड़ घन मीटर प्रतिवर्ष वर्षा जल प्राप्त होने के बावजूद सूखे से ग्रसित है। यही बड़ी चुनौती राज्य के लिए सबसे पहली है। तभी तो अकाल मुक्त छत्तीसगढ़ की कल्पना साकार हो सकेगी।
'धान का कटोराÓ के रूप में देश के आर्थिक नक्शे में पहचाने जाने वाले छत्तीसगढ़ का कुल भौगोलिक क्षेत्र 14.4 मिलियन हेक्टेयर में फैला है इसी तरह आबादी भी एक करोड़ 96 लाख को पार करते हुए 2 करोड़ को छू रही है। यहां गांवों की संख्या 20 हजार है तो छोटे बड़े 95 नगरीय क्षेत्र हैं। छत्तीसगढ़ में कुल जनसंख्या के, करीब 40 फीसदी लोग आदिवासी व अनुसूचित जाति वर्ग के हैं। वैसे भारत के अलग आदिवासी संस्कृति वाले बस्तर में कुल आबादी के 63.3 तथा सरगुजा में 53.6 प्रतिशत आदिवासी निवास करते हैं जबकि संभागीय मुख्यालय वाले रायपुर और बिलासपुर सहित 12 जिलों में पिछड़े वर्ग की बहुलता है। समूचे छत्तीसगढ़ में कोई 51 फीसदी आबादी पिछड़े वर्गों की कहलाती है।
छत्तीसगढ़ अपने साल वनों के लिए जाना जाता है। कुल वन क्षेत्र 36 फीसदी हिस्से में साल वन आज भी विद्यमान हैं। दूसरा स्थान सागौन के वनों का है। इसके अलावा बांस साजा, सरई, बीजा, अर्जुन, शीशम तथा बबूल बहुतायत से हैं। इसी से वन उत्पादों में छत्तीसगढ़ इमारती लकड़ी के उत्पादन में अग्रणी स्थान रखता है। बस्तर की इमली पूरे दक्षिण भारत की आवश्यकता को बहुत हद तक आपूर्ति करता है। बीड़ी उद्योग में लगने वाला तेंदूपत्ता भी वन राजस्व का महत्वपूर्ण स्रोत है। इसी के साथ अन्य लघु वनोपज पर बड़ी तादाद में लोग आजीविका के लिए आश्रित रहते हैं। अविभाजित मध्यप्रदेश में छत्तीसगढ़ के वन से बहुत से फायदे तो गिनाये जा सकते हैं किंतु यह कहना आसान नहीं कि राज्य बनने के इतने बरस बाद भी वन विनाश को रोकने और पर्यावरण को सुधारने के साथ बरसात को पुन: लौटाने का आश्वासन बनेगा।
कई योजनाकारों का मानना है कि छत्तीसगढ़ राज्य देश में खनिज राज्य के रूप में उभर सकता है क्योंकि यहां 1386 करोड़ टन कोयला, 180 टन लौह अयस्क, 60 करोड़ टन डोलोमाइट, 17 करोड़ टिन अयस्क, 4.1 करोड़ टन बाक्साइट और चुने के पत्थर (लाइमस्टोन) व ग्रेनाइट के असमित भंडार हैं। सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि वनवासी क्षेत्र मैनपुर-देवभोग में उच्च स्तर की हीरे की खदान हैं जिसके सर्वेक्षण व पूर्वेक्षण में कई बड़ी कंपनियों की दिलचस्पी है। यहीं पर विश्व प्रसिद्ध अलैक्टजेनराइट जैसा बहुमूल्य पत्थर मिलता है जिसकी तस्करी के रास्ते अभी बंद नहीं हुये हैं। अन्य कीमती खनिजों में सोने के अतिरिक्त कोरेन्डम, गारनेट, रुबी, मानिक आदि की उपलब्धता भी है। यहां तक की आणविक खनिजों का भी पर्याप्त भंडार होने की पुष्टिï हो चुकी है। सभी प्रकार के खनिजों के होने के बावजूद शासकों की तदबीर से यहां की तकदीर और तस्वीर को बदला क्यों नहीं गया? यह प्रश्न स्वाभाविक है। संभव है यही कारक छत्तीसगढ़ राज्य की आकांक्षा को बलवती बनाने में सहायक सिद्ध हुई हो। पर अब तो नीति-निर्धारकों और योजनाकारों को रेखांकित करना होगा की राज्य के विकास में इस प्रकार की खनिज संपदा का इस्तेमाल कैसे कर सकते हैं।
जल संपदा की दृष्टिï से छत्तीसगढ़ क्षेत्र में 30.44 लाख हेक्टेयर मीटर धरातलीय जल सतह पर उपलब्ध है। इसमें वर्षा जल का योगदान सर्वाधिक है। यानी कोई 20 मिलीयन हेक्टेयर वार्षिक बारिश का पानी इसमें शामिल है। उसका 25 फीसदी भाग भी उपयोग में नहीं आ रहा। भूमिगत उपलब्धता भी प्रतिवर्ष 60 लाख क्यूबिक मीटर है जिसका उपयोग 5-6 प्रतिशत ही हो पाता है। जबकि राष्ट्रीय औसत 23 प्रतिशत है। पश्चिम मध्यप्रदेश में 56.3 प्रतिशत भूमिगत जल का उपयोग हो रहा है।
एक आंकलन के अनुसार अकेले रायपुर जिले में नदी नालों की लंबाई 3 हजार कि.मी. है। अंचल की संजीवनी नदी महानदी के बहाव का अधिकांश क्षेत्र यहां है। इसकी अनेक सहायक नदियां हैं जैसे शिवनाथ, मांड, पैरी, हसदेव, सौंडूर, खारुन व जौंक, ये सब नदियां मिलकर महानदी को जीवनदायनी नदी में तब्दील करती हैं, फिर भी यहां की धरती प्यासी है। पीने के पानी के अभाव से हर साल लोग पीडि़त रहते हैं। ऐसे प्राकृतिक संपदा के होते हुए भी दूषित पानी से कितने लोग हर वर्ष काल कवलित होते हैं इसका हिसाब कौन देगा?
औद्योगिक तीर्थ भिलाई, कोरबा, जैसे स्थान छत्तीसगढ़ में स्थित हैं। सीमेंट उत्पादन का बहुत केन्द्र विकसित हो चुका है। देश के कुल उत्पादन का 20 फीसदी सीमेंट एक ही अंचल में होता है। बैलाडीला का लौह अयस्क जापान को आधुनिक तकनीकी राष्टï्र बनाने में पूरक सिद्ध हुआ है। बिजली का उत्पादन अकेले कोरबा में 2 हजार मैगावाट से अधिक है और विद्युत के अलावा जल विद्युत पैदा करने की संभावनाएं यहां काफी हैं। तब भी प्रति व्यक्ति विद्युत खपत सबसे कम छत्तीसगढ़ में है। मध्यप्रदेश के कुल 15 लाख पंप कनेक्शन में मात्र 1 लाख पंप कनेक्शन यहां है। उद्योगों की एक श्रृंखला खड़ी होने के बावजूद बेरोजगारी यहां की बड़ी ही विकराल समस्या है। आखिरी छोर पर खड़े व अंधेरों से घिरे लोगों की आशंका यह है कहीं ऐसा न हो कि समृद्धि की दस्तक मात्र कुछ संपन्न जनों तक ही सिमटी रह जाये और छत्तीसगढ़ वासी अपने गांवों और वनों में दलित और उपेक्षित ही रह जाएं। उसे पता ही नहीं कि कब 36गढ़ राज्य बन गया है और उसका आलोक कुछ लोगों तक ही सिमट कर रह गया। जब तक आम जनों तक तेजी से छत्तीसगढ़ के नवनिर्माण का आलोक नहीं पहुंचता तब तक छत्तीसगढ़ की सार्थकता कैसे सिद्ध हो पाएगी?
यह सही है कि राजनीति और अफसरशाही का चरित्र बदलना कठिन है लेकिन अच्छे-बुरे लोग तो सभी क्षेत्रों में होते हैं। ऐसी दशा में नये ऊर्जावान लोग विकास का तानाबाना बुनें, यह सहज अपेक्षा पालना कोई अतिरेक नहीं। यही बिंदु इस अंचल के विकास की भावना लेकर कार्य करने वाले अधिकारियों, कर्मियों की नियुक्ति पर लागू करने की आवश्यकता है क्योंकि राजनीतिकबाज अपना उल्लू सीधा करने के लिए कोई भी मुद्दा उछाल सकते हैं। अत: ऐसे तत्व न पनपने पाएं यह सावधानी रखना लाजमी होगा। छत्तीसगढ़ की भूमि रत्नगर्भा है। ईब व अन्य नदियों के रेत में सोने के कण हैं तो देवभोग-मैनपुर की एक लंबी पट्टी अपने में बेशकीमती हीरों को समेटे हुए है। अपार जल राशि और पर्याप्त जनशक्ति, विकास की धुरी बन सकता है। इसलिए प्राथमिकताओं का निर्धारण करते समय यह गौर करना सामयिक होगा कि पंजाब और हरियाणा में हरितक्रांति से स्वत: स्फूर्त होकर औद्योगिक क्रांति जिस प्रकार फलित हो सकी, वैसा यहां भी हो सके छत्तीसगढ़ की संस्कृति मौलिक होने के साथ विशिष्ट है। यहां हर प्रकार के औपचरिक संबंधों का महत्व है। गोवर्धन, महाप्रसाद, गंगाजल, भोजली, मितान जैसे अटूट संबंध एक बार बनने के बाद आजीवन बने रहते हैं।
समरसता, सौहार्द, सरलता यहां सर्वत्र व्याप्त है, केवल सजगता इस बात की चाहिए कि कहीं राजनीति के घोड़े बेलगाम दौड़ते हुए छत्तीसगढ़ की प्रगति को अवरुद्ध न कर दें।