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Jan 28, 2017

उदंती- जनवरी-2017

सबसे जीवित रचना वह है,जिसे पढ़ने से प्रतीत हो
कि लेखक ने अंतर से सब कुछ फूल सा
प्रस्फुटित किया है।
           -शरतचंद्र
                                                                                                  

इस बार लीक से हटकर

इस बार 
लीक से हटकर       
डॉ. रत्ना वर्मा
गणतंत्र दिवस के अवसर पर, 1954 से आरंभ किए गए विभिन्न पुरस्कारों जिसमें पद्म विभूषण, पद्म भूषण और पद्मश्री शामिल है-  देश भर से असाधारण और विशिष्ट कार्य करने वाले व्यक्तियों को सम्मानित किया जाता है।  इस बार 75 लोगों को पद्मश्री से सम्मानित किया गया है। ये सभी पद्म पुरस्कार पाने वाले हमारे देश का गौरव होते हैं। अपने- अपने क्षेत्र में एक मुकाम हासिल कर वे देश की सेवा कर रहे होते हैं; जिनके कारण हमारा देश गौरवान्वित होता है। उनके गौरव से हम देशवासी गौरव का अनुभव करते हैं और हमारा मस्तक गर्व से ऊँचा उठ जाता है।

पिछले सालों की तुलना में इस साल के ये पद्म पुरस्कार इसलिए उल्लेखनीय हैं; क्योंकि इस बार कुछ व्यक्तियों का चुनाव लीक से हटकर किया गया है, जो सराहनीय है। अन्यथा सम्मान और पुरस्कार हमेशा से ही विवादों के घेरे में रहा है। अब तक वही व्यक्ति यह सम्मान पाते रहे हैं, जो हमेशा चर्चा में रहते हैं या फिर उनका काम सबको लगातार नज़र आता है या जिनका नाम पुरस्कार के लिए लॉबिंग करके भेजा जाता है। बहुत लोग इसलिए असंतुष्ट होते हैं कि अमुख-अमुख ने क्या किया है; जो उन्हें पद्म पुरस्कार मिल गया। फिर सिर्फ राजनीति और फिल्मों से जुड़े लोगों को ही यह पुरस्कार क्यों ? परंतु इस बार चयन -प्रक्रिया को ऑनलाइन करने के कारण 75 पद्मश्री पाने वालों में से कुछ ऐसे मनीषियों को भी सम्मानित किया गया है;  जो चुपचाप बरसों से अपना काम करते चले जा रहे हैं। न समाचार पत्रों की सुर्खियाँ बनते हैं ,न मीडिया उन्हें हाथो- हाथ लेता हैहाँ पद्मश्री मिलने के बाद ज़रूर वे सब सुर्खियों में आ गए हैं, जिसके वे भागीदार भी हैं हम सबको उनपर गर्व है। सबसे खास बात है इनमें से अधिकतर की उम्र 60 से लेकर 90 वर्ष तक की है-
- 92 साल की भक्ति यादव गाइनकोलॉजिस्ट हैं। लोग उन्हें डॉक्टर दादी के नाम से जानते हैं। वे इंदौर की पहली महिला हैं, जिन्हें एमबीबीएस की डिग्री मिली। डॉक्टर दादी पिछले 68 साल से (1948 से) अपने पेशेंट्स का फ्री में इलाज कर रही हैं। अब डॉक्टर दादी को चलने-फिरने में तकलीफ़ होती है, लेकिन वे अंतिम साँस तक अपने मरीज़ों का इलाज करना चाहती हैं।
- केरल की रहने वाली मीनाक्षी अम्मा 76 साल की हैं। उन्हें भारत की सबसे उम्रदराज महिला तलवारबाज कहा जाता है। वे भारतीय मार्शल आर्ट कलारीपयट्टू में एक्सपर्ट हैं। 7 साल की उम्र से उन्होंने मार्शल आर्ट्स की क्लास लेना शुरू कर दिया था। वे 68 साल से ज्यादा समय से मार्शल आर्ट्स की ट्रेनिंग दे रही हैं।
- 68 साल के दरिपल्ली रमैया तेलंगाना के रहने वाले हैं। रमैया ने 1 करोड़ पेड़ लगाए हैं। उन्हें वृक्ष-पुरुष के नाम से जाना जाता है। उन्होंने भारत को हरा-भरा बनाने की ठानी है। रमैया घर से निकलते वक्त बीज साथ लेकर चलते हैं और जहाँ भी उन्हें खाली ज़मीन दिखाई देती है, वो वहाँ प्लान्टेशन करते हैं।
- गुजरात के रहने वाले डॉ. सुब्रतो दास को हाई-वे मसीहा के नाम से जाना जाता है। वे हाई-वे पर एक्सीडेंट में घायल होने वालों को तुरंत मेडिकल सुविधा मुहैया कराते हैं। सुब्रतो दास एक बार खुद हादसे के शिकार हुए तो अहसास हुआ कि हाइवे पर ऐक्सिडेंट होने पर घायलों को मिलने वाली इमर्जेंसी सर्विस ठीक नहीं है। इसके बाद उन्होंने ‘लाइफ लाइन फाउंडेशन’ की शुरुआत की, जिसका विस्तार अब महाराष्ट्र, केरल, राजस्थान और पश्चिम बंगाल में 4000 किलोमीटर तक है। लाइफ लाइन फाउंडेशन की टीम्स हादसा होने पर 40 मिनट से कम वक्त में पहुँच जाती हैं। अब तक 1200 से ज्यादा घायलों को बचाया जा चुका है।
- 59 साल के बिपिन गनात्रा वालन्टियर फायर फाइटर हैं, जो पिछले 40 साल से कोलकाता में आग लगने वाली हर जगह पर मौजूद रहते हैं और लोगों को बचाने में मदद करते हैं। एक हादसे में अपने भाई को खोने के बाद बिपिन ने ऐसे लोगों की मदद का बीड़ा उठाया, जो आग लगने जैसे हादसों में फँस जाते हैं।
तेलंगाना के रहने वाले 44 साल के चिंताकिंदी मल्लेशम की माँ पोचमपल्ली सिल्क की साडिय़ाँ बनाती थीं। मेहनत के चलते उन्हें बहुत दर्द होता था, मल्लेशम माँ की यह तकलीफ़ देख नहीं पाते थे। माँ का कष्ट दूर करने के लिए उसने लक्ष्मी एएसयू मशीन बनाई। जिससे पोचमपल्ली सिल्क की साडिय़ाँ बनाने वाले कारीगरों की मेहनत और काम में लगने वाला वक्त काफी घट गया। आज पोचमपल्ली सिल्क से साडिय़ाँ बनाने वाले 60प्रतिशत कारीगर इसी मशीन से काम कर रहे हैं।
- पुणे के डॉक्टर मापुस्कर जिन्हें स्वच्छता दूत के नाम से जाना जाता है ने पुणे के देहू गाँव में 1960 से ही सफाई अभियान पर जोर दिया। पूरे गाँव को खुले में शौच करने से रोका और सफाई के लिए जागरूक किया। 2004 में पूरे गाँव में शौचालय बना दिए गए।
- प. बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले में रहने वाले करीमुल हक को एम्बुलेंस दादा के नाम से भी जाना जाता है। करीमुल हक ने अपने गाँव धालाबाड़ी में 24 घंटे की एम्बुलेंस सेवा शुरू की। वे गरीब मरीजों को अपनी बाइक पर लेकर हॉस्पिटल पहुँचाते हैं और कई बार वो उन्हें फस्र्ट ऐड भी देते हैं।
- सैकड़ों महिलाओं को मानव तस्करी एवं वेश्यावृत्ति के चंगुल से छुड़ाने वाली नेपाल की अनुराधा कोईराला प्रथम विदेशी महिला हैं; जिन्हें भारत सरकार ने पद्मश्री से सम्मानित किया है। उन्होंने सन् 1993 में निर्लाभ संगठन माइती नेपालकी स्थापना की है जो यौन तस्करी के शिकार लोगों की मदद करता है। संगठन के अनुसार भारत एवं अरबी देशों में प्रत्येक वर्ष करीब 5,000 नेपाली लड़कियाँ एवं महिलाएँ वेश्यावृति के लिए मजबूर की जाती हैं। जिसमें पहला स्थान भारत का है।
इसके अलावा देश के दूरदराज के इलाकों में सौ से अधिक सस्ते और टिकाऊ पर्यावरण अनुकूल संस्पेशन ब्रिज बनाने वाले एवं सेतु बंधुके नाम से मशहूर कर्नाटक के गिरीश भारद्वाज, स्वच्छ भारत मिशन शुरू होने से 5 दशक पहले से ही सफाई अभियान में लगे महाराष्ट्र के स्वच्छता दूत डॉ. मापूसकर, पंजाब में सीवर प्रणाली के विकास के लिए फंड जुटाने और कार्यकर्ताओं को आंदोलित करने वाले इको बाबा बलबीर सिंह सीचेवाल, गुजरात के सूखा प्रभावित जिलों में अनार का सर्वाधिक उत्पादन करने वाले दिव्यांग किसान अनार दादा जेनाभाई दर्गाभाई पटेल, निःशुल्क मूक्स प्रणाली के जरिए हारर्वड और एमिटी विश्वविद्यालयों के पाठयक्रमों को विभिन्न भाषाओं में दुनिया भर में फैलाने वाले भारतीय मूल के अमेरिकी अनंत अग्रवाल। इन सबके साथ पिछले छह दशकों से आदिवासी लोक संगीत को लोकप्रिय बनाने वाली कर्नाटक की गायिका सुकरी बोम्मागौडा, ओडिशा के लोकप्रिय लोक गायक जितेन्द्र हरिपाल और बाल साहित्य तथा स्त्री विमर्श साहित्य को समर्पित असम की 81 वर्षीय लेखिका इली अहमद को भी पद्म पुरस्कार के लिए चुना गया है.
इन सबकी जिंदगी हमारे लिए जीती जागती मिसाल हैं। अब समय आ गया है कि इससे भी उच्च सम्मानों की चयन-प्रक्रिया में भी बदलाव किया जाए ताकि सम्मान के हकदार को ही सम्मान मिले।  ताकि हम अपने आने वाली पीढ़ी को उनके विशिष्ठ कामों की मिसाल दे सकें।  इन सबकी जिंदगी ऐसी प्रेरक हैं जो बच्चो की पाठ्य पुस्तकों में शामिल की जानी चाहिए। 
उदंती के सुधी पाठकों को नव वर्ष की शुभकामनाओं के साथ-                                     

व्यक्तित्व

मानवीय संवेदनाओं के
सफल चितेरे कमलेश्वर
- डॉ.शिवजी श्रीवास्तव
हिन्दी कथा साहित्य को समृद्ध करने वाले कथाकारों में कमलेश्वर का स्थान विशिष्ट एवम् महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने न केवल हिन्दी कथा साहित्य को समृद्ध किया अपितु नई कहानीएवम् समान्तर कहानीआन्दोलनों द्वारा हिन्दी कहानी की धारा को निर्णायक मोड़ देने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। कमलेश्वर की प्रतिभा बहुआयामी थी, उनके व्यक्तित्व में एक श्रेष्ठ कहानीकार के साथ ही श्रेष्ठ उपन्यासकार, आलोचक, सम्पादक, फिल्मकार, संवाद लेखक, पटकथा लेखक के दर्शन कि जा सकते हैं।
  6 जनवरी 1932 को मैनपुरी के एक कायस्थ परिवार में जन्में कमलेश्वर का बचपन अभावों में व्यतीत हुआ पिता को बचपन में ही खो चुके कमलेश्वर ने सारे संस्कार माँ से ही ग्रहण कि। सामंती परम्परा के साँचे में ढले परिवार के गौरव को उनकी माँ कैसे सम्भाले रही ,इस संदर्भ में स्वयं कमलेश्वर ने लिखा है- वह लड़ाई का जमाना था। सामंती घर बुरी तरह ढह चुका था। नौकर चाकर विदा हो चुके थे। गाय भैंस जिन्दा रह सके; इसलिए उन्हें गाँव भेज दिया गया था, पर हम जिन्दा रह सकें, इसका कोई तरीका नजर नहीं आ रहा था। माँ रात ढाई तीन बजे उठकर हाथों में कपड़ा लपेट-लपेट कर चक्की से आटा पीसती, बरतन धोती और सुबह होते-होते नहा-धोकर पुरानी जमींदारघराने की हो जाती। गरीब और टूटे हुए मुहल्ले वालों के घावों पर मरहम लगाती और रात को सूने कमरे मैं बैठकर चुपचाप रोया करती।’ 
  घर के इस वातावरण ने कमलेश्वर को अन्तर्मुखी बना दिया और संवेदनशील तथा स्वाभिमानी भी। प्रारम्भिक शिक्षा मैनपुरी में पूरी करने के बाद कमलेश्वर उच्च शिक्षा प्राप्त करने इलाहाबाद ग ,वहाँ उन्होंने पढ़ाई के साथ ही जनक्रांतिअखबार में काम भी किया, इलाहाबाद में ही कमलेश्वर के साहित्यिक संस्कार प्रबल हुए। हिन्दी साहित्य सम्मेलन के पुस्तकालय में साहित्यकारों के चित्रों में उन्हें अपने पूर्वज नजर आऔर कमलेश्वर साहित्यकारों के वंश में शामिल हो ग। स्वयं कमलेश्वर के शब्दों में- और उस दिन से मेरा वंश बदल गया था.... मैं एक टूटा हुआ पुराना वंश छोडक़र प्रेमचंद, यशपाल, अमृतलाल नागर के घराने में आ गया था।
 साहित्यकारों के कुल में आने के बाद वे आजीवन अपने साहित्य के द्वारा मानवीय संवेदनाओं की लड़ाई लड़ते रहे। उनके सारा साहित्य मानवीय मूल्यों को बचाने की जद्दोजहद का प्रयास है। कथाकार के रूप में उनकी यात्रा कस्बे के कहानीकारके प्रारम्भ हुई। वस्तुत: उन्होंने मैनपुरी के जिस जीवन को अत्यन्त निकट से देखा था वही उनकी कहानियों में प्रतिबिम्बित हो रहा था, उन पात्रों की पीड़ा इतनी सघन थी कि हर किसी को वह अपनी पीड़ा लगती थी। इन कहानियों को आलोचकों ने कस्बे की कहानियाँ कहा और कमलेश्वर कस्बे के कहानीकार के रूप में प्रसिद्ध हो गए। कमलेश्वर की प्रथम प्रकाशित कहानी कामरेडथी पर जिस प्रथम कहानी ने उन्हें चर्चित किया वह थी 1957 में प्रकाशित होने वाली कहानी राजा निरबंसिया’,  दोहरे कथानक वाली इस लम्बी कहानी में दो युगों की गाथा को कमलेश्वर नें अत्यन्त कौशल  से पिरोया था। मैनपुरी के परिवेश पर लिखी गई इस कहानी नें कमलेश्वर को स्थापित कहानीकारों की श्रेणी में खड़ा कर दिया। इसके बाद गर्मियों के दिन, देवा की माँ, नीली झील, मुरदों की दुनिया इत्यादि अनेक कहानियाँ हैं,  जो कस्बे की कहानियाँ है, पर कमलेश्वर एक ही पड़ाव पर नहीं रुके आगे चलकर उन्होंने शहरी मध्यवर्ग ओर उच्चवर्ग की जटिल संवेदनाओं पर भी अनेक कहानियाँ लिखीं -दिल्ली में एक मौत, खोयी हुई दिशाएँ, बयान, चार महानगरों का तापमान इत्यादि इसी प्रकार की कहानियाँ हैं। कुल मिलाकर कमलेश्वर ने तीन सौ से अधिक कहानियाँ लिखीं।
  हिन्दी कहानी के इतिहास में दो प्रमुख आन्दोलनों के प्रवर्तकों में कमलेश्वर का योगदान है। सन् 1950 के आसपास हिन्दी में परम्परागत कहानी का ढाँचा टूटा और नई कहानीका आन्दोलन शुरु हुआ। इस आन्दोलन का प्रवर्तन कमलेश्वर, राजेंद्र यादव और मोहन राकेश द्वारा किया गया। हिन्दी कहानी के एक और आन्दोलन का प्रवर्तन कमलेश्वर द्वारा किया गया। सन्1971 के आसपास कमलेश्वर सारिका के सम्पादक थे, उस पत्रिका के माध्यम से उन्होंने समान्तर कहानी आन्दोलनका प्रारम्भ किया। इसे आम आदमी के आसपास की कहानियों का आन्दोलन भी कहा गया। इस आन्दोलन के माध्यम से हाशिये पर पड़े आम आदमी के जीवन को कहानी के केन्द्र में स्थपित किया गया।
  कहानी/आन्दोलनों के साथ ही कमलेश्वर की वैचारिक प्रतिबद्धता उनके उपन्यासों में भी दिखलाई देती है। उनका प्रथम उपन्यास एक सडक़ सत्तावन गलियाँभी मैनपुरी की पृष्ठभूमि पर है। उनके बाद के उपन्यासों में मध्यवर्ग के विविध चरित्र अपनी पूर्ण जीवन्तता के साथ चित्रित हैं। उन्होंने इन बारह उपन्यासों की रचना की- एक सडक़ सत्तावन गलियाँ, तीसरा आदमी, डाक बंगला, समुद्र में खोया हुआ आदमी,काली आँधी, आगामी अतीत, सुबह... दोपहर... शाम, रेगिस्तान, लौटे हुये मुसाफिर, वही बात, एक और चन्द्रकान्ता तथा कितने पाकिस्तान। सभी उपन्यास अत्यन्त चर्चित हैं इनमें काली आँधी पर गुलजार ने प्रसिद्ध फिल्म- आँधी का निर्माण किया था।
   कमलेश्वर का अन्तिम उपन्यास कितने पाकिस्तानकई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। कथ्य और शिल्प दोनों ही दृष्टियों से यह अलग प्रकार का उपन्यास है इसका कैनवास बहुत व्यापक है,परम्परागत शिल्प को तोडऩे वाले इस उपन्यास का नायक अदीब  है जो देश काल की सभी बाधाओं से परे है,अदीब अदालत लगाता है और उसमें दुनिया के बड़े-बड़े शासकों/शहंशाहों को हाजिर करवा कर सबपर मुकदमे चलाता है। दुनिया की तमाम संस्कृतियों के अन्तर्विरोंधों का दिखाकर देश की समस्याओं का समाधान खोजने वाला यह एक अद्भुत उपन्यास है। दस वर्षों के शोध के  बाद लिखे गये इस उपन्यास के विषय  स्वयं कमलेश्वर ने एक साक्षात्कार के दौरान इस लेखक से बतलाया था- मैंने एक कहानी  लिखी थी-और कितने पाकिस्तानवो जुलाहों की कहानी थी जो बनारस से बम्बई चले गये थे दंगों के दौरान... लेकिन खैर यह शीर्षक मेरा अपना था उसमें से और हटाकर मैनें बनाया कितने पाकिस्तानहमें देखना यह था कि यह भारतीय सभ्यता सह अस्तित्व की संस्कृति में विश्वास रखती है संस्कृतियों के संघर्ष की थ्योरी हमारी नहीं है।
 इस चर्चित उपन्यास का विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ  तथा हिन्दी में 16 संस्करण प्रकाशित हुए। सन् 2003 में इस उपन्यास के लिये साहित्य अकादमीपुरस्कार से सम्मानित किया गया।
 एक सम्पादक के रूप में भी कमलेश्वर का योगदान अविस्मरणीय है। वे प्रारम्भ से ही पत्रकारिता से जुड़े रहे सर्वप्रथम उन्होंने विहान पत्रिका (1954) का सम्पादन किया इसके बाद सन 1958 से 1966 से उस समय की प्रसिद्ध पत्रिका नई कहानियाँका सफल सम्पदन किया। सन् 1967 से 1978 तक वे हिन्दी कहानी की केन्द्रीय पत्रिका सारिकाके सम्पादक रहे। कमलेश्वर के सम्पादन में सारिका ने अनेक नये लेखकों को आगे बढ़ाया। इसी पत्रिका के माध्यम से उन्होंने 1971 के आसपास समांतर कहानी आन्दोलन का सूत्रपात किया ओर आगे बढ़ाया। सारिेका में लिखे उनके सम्पादकीय मेरा पन्नाकाफी तीखे और व्यवस्था पर प्रहार करने वाले होते थे। सारिका के पश्चात उन्होंने क्रमश: कथायात्रा (1978-79) श्रीवर्षा (1979-80) तथा गंगा (1984-88) पत्रिकाओं का सम्पादन किया। इसके साथ ही प्रसिद्ध समाचार पत्र दैनिक जागरण में 1990 से 1992 तक तथा 1997 से 2002 तक दैनिक भास्कर में नियमित स्तम्भ लेखन करते रहे। 
 हिन्दी फिल्मों के कहानी-पटकथा एवं संवाद लेखक के रूप में भी कमलेश्वर सफल रहे। उन्होंने 99 फिल्मों में कहानी,पटकथा अथवा संवाद लेखन का कार्य किया आँधी, मौसम, सारा आकाश, रजनीगंधा,छोटी सी बात, राम बलराम, रंगबिरंगी, सौतन, लैला, मि. नटवरलाल ,पति पत्नी और वह इत्यादि अनेक सफल फिल्मों के साथ कमलेश्वर का नाम जुड़ा है।
 दूरदर्शन से भी कमलेश्वर का गहरा रिश्ता रहा है,उन्होंने चन्द्रकान्ता, बैताल पचीसी, युगदर्पण, कृषि कथा, बंद फाइल इत्यादि टैली-फिल्मों /सीरियलों में पटकथा लेखन/सम्पादन का कार्य किया। उनका परिक्रमाकार्यक्रम काफी लोकप्रिय रहा।
   कमलेश्वर ने भारतीय दूरदर्शन में सन् 1980 से 1982 तक अतिरिक्ति महानिदेशक के पद का दायित्व भी सँभाला। ये वही समय था जब दूरदर्शन श्वेत-श्याम से रंगीन किया गया और इसका नेटवर्क सारे देश में फैला। यहाँ इस बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि अपने स्वाभिमानी व्यक्तित्व के कारण कमलेश्वर कभी गलत समझौते नहीं करते थे, प्रारम्भ में अपनी इसी प्रवृत्ति के कारण उन्होंने अपनी कहानी जॉर्ज पंचम की नाकके कारण आकाशवाणी की नौकरी त्याग दी थी, इसी स्वाभिमानी प्रवृत्ति के कारण ही उन्होंने दूरदर्शन के इतने महत्त्वपूर्ण पद को भी त्याग दिया।
   कमलेश्वर का व्यक्तित्त्व बहुआयामी था, वे एक अच्छे उद्घोषक (कमेण्टेटर) भी थे। शायद कम लोग ही जानते होंगे कि दूरदर्शन में उनकी कहानियों के साथ ही उनकी आवाज की भी बहुत माँग थी। वे सही अर्थों में बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे।
कहानी, उपनयास, पत्रकारिता, पटकथा लेखन, स्तम्भ लेखन, इत्यादि अनेक माध्यमों से उन्होंने हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया। हिन्दी साहित्य में उनके योगदान के लिभारत सरकार की ओर से उन्हें सन् 2005 में पद्मभूषण सम्मान से सम्मानित किया गया। 27 जनवरी 2007 को कमलेश्वर ने इस लोक को अलविदा कहा पर अपने कालजयी साहित्य के माध्यम से वे सदा हमारे साथ रहेंगे।
सम्प्रति: एसोसिएट प्रोफेसर,श्री चित्रगुप्त पी.जी. कॉलेज, मैनपुरी -205 001

तीन ग़ज़लें

                      1. हरी छाँव भी है
                   - सुधेश 

जिन्दगी धूप है छाँव भी है
शहर से ऊबे तो गाँव भी है।

शतरंज जिन्दगी ने बिछाई
हार का जीत का दाँव भी है।

सोच क्या जो जिन्दगी है सागर
हिम्मत की मगर नाव भी है।

दहकती आग है ये जिन्दगी
यहाँ खिलती हरी छाँव भी है।

भूख पसरी हुई दूर तक है
दहकता पास में अलाव भी है।

                     2. मीत मन का

काश ऐसा सपना आए
आए तू फिर कहीं न जाए।

ख्वाब क्या तू खुद ही आ जा
और फिर दूजा ना आए।

आज अपने स्वर में गा दे
गीत मेरा दुनिया गाए।

प्यास भू की बुझ ना पाई
मेघ छातो क्या छा

मीत मन का पाया है जो
और क्या जिस को मन पाए।

                   3. मेले में तो अकेला हूँ

मैं भीड़ में अकेला हूँ
उजड़ा सा एक मेला हूँ।

खुद को अमीर कहता था
खोटा मगर अधेला हूँ।

दुनिया बड़ी खिलाड़ी है
मैँ तो मगर न खेला हूँ।

गुरुडम लिये सजे हैं जो
उन का नहीं ही चेला हूँ।

यों तो बड़ी नुमाइश है
मेले में तो अकेला हूँ

सम्पर्क: 314 सरल आपार्टमैन्ट्स, द्वारका , सैक्टर 10, दिल्ली 110075 , Email- dr.sudhesh@gmail.com

व्यंग्यकार विनोद शंकर शुक्ल

व्यंग्यकार 
विनोद शंर शुक्ल 
का जाना 
- विनोद साव
उनसे मेरी पहली बार मुलकात हुई थी रायपुर में उनके बूढापारा वाले मकान में ही तब उनके मकान का नाम संस्कृति भवननहीं था, जो उनकी बिटिया का नाम है और जिसके नाम पर मकान का नाम काफी बाद में रखा गया था। तब मैंने व्यंग्य लिखना ही शुरू किया था और कवि मुकुंद कौशल जी के साथ किसी सिलसिले में रायपुर घूम रहा था तब उन्होंने कहा चलो विनोद.. तुम व्यंग्य लिखना शुरू कर रहे , तो तुम्हें तुम्हारे ही नाम के एक व्यंग्यकार से मिलाते हैं।
हमने दरवाजे की बाईं ओर वाले कालबेल की बटन को दबाया और सीधे ऊपर सीढिय़ों में चढ़ गए. अंदर जाने से फिर एक जालीनुमा दरवाज़ा होता था वहाँ भी कालबेल की एक दूसरी बटन होती थी। उनके ऊपर के विशाल बैठक कक्ष में ट्यूबलाइट हमेशा जलाकर रखना होता था। अक्सर उनकी पत्नी दरवाज़ा खोला करतीं थीं, वे विनम्र और सेवाभावी लगती थीं। आमतौर पर साहित्यकार मित्रों की पत्नियों को भाभीजी कहने का चलन है, पर विनोद शंकर जी मुझसे बारह साल बड़े थे ; इसलिए न मैं उन्हें भैया कह सका और न उनकी अर्धांगिनी को भाभी। रायपुर के ही वरिष्ठ व्यंग्यकार प्रभाकर चौबे ने एक बार मुझसे कहा था कि पता नई तुम मुझे क्या मानते हो.. पर मैं तुम्हें अपना भतीजा मानता हूँ।बस उसी तर्क पर विनोदशंकर जी और उनके समकालीन व्यंग्यकार मुझे भैया कम, चाचा अधिक लगते थे। इसी उहापोह में मैं उन सब लोगों को न भैया कह सका न चाचा।   
यह 1990 के आसपास की बात रही होगी जब हम विनोदजी के घर में उन्हें पहली बार मिल रहे थे। वे पेंट के ऊपर सेंडो बनियान पहने हुए थे ; तब उनका शारीरिक सौष्ठव देखते बन पड़ा था। ऊँचे पूरे गोरे, सुन्दर नाक-नक्श और केश।  एकबारगी उन्हें देखकर फिल्मों के नायक विनोद खन्ना याद आ गए थे। तब वे छत्तीसगढ़ महाविद्यालय, रायपुर के पत्रकारिता विभाग में प्रोफ़ेसर थे। शासकीय सेवा में होने के कारण वे स्थानीय अख़बारों में अनेक छद्म नामों से व्यंग्य लिखा करते थे- इनमें एक नाम था व्यंग्य शंकर शुक्लयद्यपि वे श्यामाचरण-विद्याचरण शुक्ल घराने से ताल्लुक रखते थे ; पर फिर भी सरकार विरोधी व्यंग्य लिखते समय उन्होंने सतर्कता बरती थी। फिर रिटायरमेंट के बाद वे हमेशा अपने पूरे नाम से व्यंग्य लिखते रहे थे।  इस कारण मैं भी उन्हें जानता नहीं था और वहीं बातचीत के सिलसिले में बीच में ही मैंने उनसे पूछ दिया था कि आप क्या लिखते हैं।अपने वरिष्ठताबोध के बीच वे थोड़े से ठिठक गए थे और हमारे निकलते समय मुकुंद कौशल की ओर मुखातिब होते हुए वे बोले मुकुंद भाई.. इनको थोड़ा लोगों से मिलवाइए जुलवाइए।’  
इसके कुछ समय बाद कथाकार परदेशीराम वर्मा ने मुझे देशबन्धु के संपादक ललित सुरजन से मिलवाया तब मेरे व्यंग्य ने धार पकडऩा शुरू किया होगा और वे देशबन्धु के रविवारीय अंकों में लगातार छपने लगे थे। विनोद शंकर जी किसी कार्यक्रम में जब भिलाई आए;  तब उन्होंने मुझे पहचान लिया और मुझे महत्त्व देते हुए बड़ी गर्मजोशी से मिले। तब मुझे भी लग रहा था कि मेरा लिखा भी कहीं जाया नहीं हो रहा है, कुछ मायने रखता है।
उसी समय महान व्यंग्यकार शरद जोशी का अनायास अवसान हो गया ; तब उनकी स्मृति में हम लोगों ने दुर्ग में शरद जोशी स्मृति प्रसंगरखा। यह एक भव्य कार्यक्रम था जिसमें छत्तीसगढ़ के तमाम व्यंग्यकारों के बीच शंकर पुणताम्बेकर भी पधारे थे। इसमें दो महत्त्वपूर्ण आलेख पढ़े गए थे- एक त्रिभुवन पाण्डेय द्वारा और और दूसरा विनोद शंकर शुक्ल द्वारा।
इसके बाद दुर्ग से रायपुर जब भी आकाशवाणी रिकार्डिंग के सिलसिले में जाना होता तब हर बार उनके घर जाना कारूर होता था। उनका घर रास्ते में था और मैं अपनी स्कूटर से आता जाता था। लगातार भेंट के बाद हम दोनों सनामधारियों के व्यवहार एक दूसरे के प्रति आत्मीय हो रहे थे।  उनसे समकालीन परिदृश्य पर विस्तार से बातें होती थीं। वे हमेशा व्यंग्य रचनाओं और व्यंग्य लिखने वालों पर बातें किया करते थे। व्यंग्य विषयक ज्ञान उन्हें बहुत था और वे व्यंग्य और उनके लेखन को लेकर कई किस्मों के रोचक संस्मरण भी सुनाया करते थे। व्यंग्य के प्रति वे बड़े समर्पित थे: बल्कि इस हद तक कि श्रीलाल शुक्ल के शब्दों में कुछ लेखकों को व्यंग्य से इतना लगाव हो जाता है कि व्यंग्य के लिए वे एक अलग टेरिटरी’ (राज्य) की माँग करने लग जाते हैं।
व्यंग्य के अतिरिक्त विनोदशंकर जी की प्रिय विधा संस्मरण रही। बल्कि संस्मरण जितना उन्होंने लिखा उससे कहीं अधिक उन्होंने संस्मरण सुना। वे गोष्ठियों में जहाँ एक तरफ व्यंग्य पढक़र सुनाया करते थे, वैसे ही साहित्यकारों से जुड़े अपने संस्मरण भी बड़े उत्साह से सुनाया करते थे। यह एक तरह से किसी लेखक के व्यक्तित्व कृतित्व की अपने ढंग से संस्मरणात्मक आलोचना  होती थी और य रोचक होती थी। अपने अंतिम समय में वे व्यंग्य सुनाने के बदले में संस्मरण सुनाने में ज्यादा रस लेने लेगे थे।
उनके घर मिलने जुलने लोग आते रहते थे। इनमें कई तरह से सहयोग के आकांक्षी हुआ करते थे। ज्यादातर लिखने पढऩे वाले होते थे। पत्रकारिता और साहित्य के नवोदित लेखक उनसे निरंतर मार्गदर्शन चाहते थे। विश्वविद्यालय के शोधार्थी आते थे। उन्हें वे कई किस्मों की रचनात्मक सामग्री देते रहते थे। जिनके लिए सामग्री तत्काल उपलब्ध नहीं करवा सकते थे; उन्हें वे आश्वस्त करते थे कि शीघ्र ही उनके लिए भी कुछ करेंगे और वे करते थे। ऐसे आकांक्षियो के फोन भी उन्हें बहुत आते थे और वे उन सबसे भी मधुरता से बातें करते थे। उनके मधुर व्यवहार ने उन्हें किसी को किसी काम के लिए मना करना नहीं सिखाया था। उनका शिष्यकुल विराट था, जो उन्हें श्रद्धा व सम्मान से याद करते रहे। संभवत: उनके मधुमेह से घिरे स्वास्थ्य को उनकी इस ज्यादा भलमनसाहत ने भी प्रभावित किया होगा।
वे कई वर्षों तक स्थानीय छत्तीसगढ़ कॉलेज में हिन्दी साहित्य और पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष रहे। विगत दिनों उनका निधन मुम्बई में हुआ। वे मुम्बई में अपने पुत्र के साथ निवास कर रहे थे। उनका जन्म रायपुर में 30 दिसम्बर 1943 को हुआ था। उन्होंने कुछ समय तक यहाँ पत्रकार के रूप में काम किया और बाद में में प्राध्यापक बने। मुझे उनके निधन की सूचना फेसबुक में उनके मित्र सहपाठी ललित सुरजन की पोस्ट से मिली। मैंने भिलाई के रवि श्रीवास्तव को फोन लगाया और यह जानकारी दी। तब श्रीवास्तव जी ने बताया कि अभी दो दिनों पहले ही विनोद भाई से बातें हुईं थीं। वे मुंबई में स्वास्थ्य लाभ कर रहे थे। उन्होंने आपके बारे में भी पूछा था।मैंने उनकी बिटिया संस्कृति से बातें की ,तब उन्होंने सभी बातें बताईं। उसने पूछा कि क्या करना चाहिए अंकल? पिताजी ने तो मृतक भोज के लिए मना कर रखा है।तब मैंने सुझाव दिया कि उनकी तेरहीं के दिन उनके स्मरण में एक कार्यक्रम रखना; जिसमें मित्र आत्मीयजन उन्हें अपनी भावांजलि देंगे और शब्दों से अपने श्रद्धा सुमन व्यक्त करेंगे।तब संस्कृति ने ऐसा ही करवाया था। यद्यपि दूसरी जिम्मेदारियों के कारण मैं उसमें नहीं जा सका था।
एक दौर में छत्तीसगढ़ में हिन्दी व्यंग्य लेखन के चार महत्त्वपूर्ण स्तंभ रहे - लतीफ़ घोंघी, प्रभाकर चौबे, त्रिभुवन पाण्डेय और विनोद शंकर शुक्ल, जिन्हें राष्ट्रीय ख्याति भी मिली थी। लतीफ़ घोंघी डेढ़ दशक पहले यहाँ के व्यंग्यायन को छोड़ गए. यह दूसरी बार है जब विनोदशंकर शुक्ल के रूप में हमने दूसरे स्तंभ को खो दिया। वे न केवल एक अच्छे लेखक थे; बल्कि वे एक सहृदय इन्सान थे। वे मिलनसार और मृदुभाषी थे। उनकी प्रकाशित महत्त्वपूर्ण पुस्तकों में - अस्पताल में लोकतंत्र’, ‘कबीरा खड़ा चुनाव में’, ‘एक बटे ग्यारह’, ‘मेरी 51 श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँआदि उल्लेखनीय हैं। उन्होंने विश्वविद्यालयीन पाठ्यक्रमों के लिए भी लेखन कार्य किया। कुछ वर्षों तक रायपुर में व्यंग्य त्रैमासिकी व्यंग्यशतीका सम्पादन किया। उन्हें मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा वागीश्वरी सम्मान से नवाजा गया था।
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