मानवीय संवेदनाओं के
सफल
चितेरे कमलेश्वर
- डॉ.शिवजी श्रीवास्तव
हिन्दी कथा साहित्य को
समृद्ध करने वाले कथाकारों में कमलेश्वर का स्थान विशिष्ट एवम् महत्त्वपूर्ण है।
उन्होंने न केवल हिन्दी कथा साहित्य को समृद्ध किया अपितु ‘नई कहानी’ एवम्
‘समान्तर कहानी’ आन्दोलनों द्वारा हिन्दी कहानी की धारा को निर्णायक मोड़
देने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। कमलेश्वर की प्रतिभा बहुआयामी
थी, उनके व्यक्तित्व में एक
श्रेष्ठ कहानीकार के साथ ही श्रेष्ठ उपन्यासकार, आलोचक, सम्पादक, फिल्मकार, संवाद
लेखक, पटकथा
लेखक के दर्शन किए जा सकते
हैं।
6 जनवरी 1932 को मैनपुरी के एक कायस्थ परिवार में जन्में कमलेश्वर का
बचपन अभावों में व्यतीत हुआ पिता को बचपन में ही खो चुके कमलेश्वर ने सारे संस्कार
माँ से ही ग्रहण किए। सामंती परम्परा के साँचे में ढले परिवार के गौरव को उनकी
माँ कैसे सम्भाले रही ,इस संदर्भ में स्वयं कमलेश्वर ने लिखा है- ‘वह लड़ाई का जमाना था। सामंती घर बुरी तरह ढह चुका था। नौकर
चाकर विदा हो चुके थे। गाय भैंस जिन्दा रह सके;
इसलिए उन्हें गाँव भेज दिया गया था, पर हम जिन्दा रह सकें, इसका कोई तरीका नजर नहीं आ रहा था। माँ रात ढाई तीन बजे
उठकर हाथों में कपड़ा लपेट-लपेट कर चक्की से आटा पीसती, बरतन धोती और सुबह होते-होते नहा-धोकर ‘पुरानी जमींदार’ घराने की हो जाती। गरीब और टूटे हुए मुहल्ले वालों के घावों
पर मरहम लगाती और रात को सूने कमरे मैं बैठकर चुपचाप रोया करती।’
घर के इस वातावरण ने कमलेश्वर को अन्तर्मुखी
बना दिया और संवेदनशील तथा स्वाभिमानी भी। प्रारम्भिक शिक्षा मैनपुरी में पूरी
करने के बाद कमलेश्वर उच्च शिक्षा प्राप्त करने इलाहाबाद गए ,वहाँ उन्होंने पढ़ाई के साथ ही ‘जनक्रांति’ अखबार
में काम भी किया, इलाहाबाद
में ही कमलेश्वर के साहित्यिक संस्कार प्रबल हुए। हिन्दी साहित्य सम्मेलन के पुस्तकालय में साहित्यकारों के
चित्रों में उन्हें अपने पूर्वज नजर आए और कमलेश्वर साहित्यकारों के वंश में शामिल हो गए। स्वयं कमलेश्वर के शब्दों में- ‘और उस दिन से मेरा वंश बदल गया था.... मैं एक टूटा हुआ
पुराना वंश छोडक़र प्रेमचंद, यशपाल, अमृतलाल नागर के घराने में आ गया था।’
साहित्यकारों के कुल में आने के बाद वे आजीवन
अपने साहित्य के द्वारा मानवीय संवेदनाओं की लड़ाई लड़ते रहे। उनके सारा साहित्य
मानवीय मूल्यों को बचाने की जद्दोजहद का प्रयास है। कथाकार के रूप में उनकी यात्रा
‘कस्बे के कहानीकार’ के प्रारम्भ हुई। वस्तुत: उन्होंने मैनपुरी के जिस जीवन को
अत्यन्त निकट से देखा था वही उनकी कहानियों में प्रतिबिम्बित हो रहा था, उन पात्रों की पीड़ा इतनी सघन थी कि हर किसी को वह अपनी
पीड़ा लगती थी। इन कहानियों को आलोचकों ने कस्बे की कहानियाँ कहा और कमलेश्वर
कस्बे के कहानीकार के रूप में प्रसिद्ध हो गए। कमलेश्वर की प्रथम प्रकाशित कहानी ‘कामरेड’ थी
पर जिस प्रथम कहानी ने उन्हें चर्चित किया वह थी 1957 में प्रकाशित होने वाली कहानी ‘राजा निरबंसिया’, दोहरे
कथानक वाली इस लम्बी कहानी में दो युगों की गाथा को कमलेश्वर नें अत्यन्त
कौशल से पिरोया था। मैनपुरी के परिवेश पर
लिखी गई इस कहानी नें कमलेश्वर को स्थापित कहानीकारों की श्रेणी में खड़ा कर दिया।
इसके बाद ‘गर्मियों के दिन, देवा की माँ, नीली झील, मुरदों
की दुनिया इत्यादि अनेक कहानियाँ हैं,
जो
कस्बे की कहानियाँ है, पर
कमलेश्वर एक ही पड़ाव पर नहीं रुके आगे चलकर उन्होंने शहरी मध्यवर्ग ओर उच्चवर्ग
की जटिल संवेदनाओं पर भी अनेक कहानियाँ लिखीं -दिल्ली में एक मौत, खोयी हुई दिशाएँ, बयान, चार
महानगरों का तापमान इत्यादि इसी प्रकार की कहानियाँ हैं। कुल मिलाकर कमलेश्वर ने
तीन सौ से अधिक कहानियाँ लिखीं।
हिन्दी कहानी के इतिहास में दो प्रमुख
आन्दोलनों के प्रवर्तकों में कमलेश्वर का योगदान है। सन् 1950 के आसपास हिन्दी में परम्परागत कहानी का ढाँचा टूटा और ‘नई कहानी’ का
आन्दोलन शुरु हुआ। इस आन्दोलन का प्रवर्तन कमलेश्वर, राजेंद्र यादव और मोहन राकेश द्वारा किया गया। हिन्दी कहानी
के एक और आन्दोलन का प्रवर्तन कमलेश्वर द्वारा किया गया। सन्1971 के आसपास कमलेश्वर सारिका के सम्पादक थे, उस पत्रिका के माध्यम से उन्होंने ‘समान्तर कहानी आन्दोलन’ का प्रारम्भ किया। इसे आम आदमी के आसपास की कहानियों का
आन्दोलन भी कहा गया। इस आन्दोलन के माध्यम से हाशिये पर पड़े आम आदमी के जीवन को
कहानी के केन्द्र में स्थपित किया गया।
कहानी/आन्दोलनों के साथ ही कमलेश्वर की
वैचारिक प्रतिबद्धता उनके उपन्यासों में भी दिखलाई देती है। उनका प्रथम उपन्यास ‘एक सडक़ सत्तावन गलियाँ’ भी मैनपुरी की पृष्ठभूमि पर है। उनके बाद के उपन्यासों में
मध्यवर्ग के विविध चरित्र अपनी पूर्ण जीवन्तता के साथ चित्रित हैं। उन्होंने इन
बारह उपन्यासों की रचना की- एक सडक़ सत्तावन गलियाँ, तीसरा आदमी, डाक बंगला, समुद्र
में खोया हुआ आदमी,काली आँधी, आगामी अतीत, सुबह... दोपहर... शाम, रेगिस्तान, लौटे
हुये मुसाफिर, वही बात, एक और चन्द्रकान्ता तथा कितने पाकिस्तान। सभी उपन्यास
अत्यन्त चर्चित हैं इनमें काली आँधी पर गुलजार ने प्रसिद्ध फिल्म- आँधी का निर्माण
किया था।
कमलेश्वर का अन्तिम उपन्यास ‘कितने पाकिस्तान’ कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। कथ्य और शिल्प दोनों ही
दृष्टियों से यह अलग प्रकार का उपन्यास है इसका कैनवास बहुत व्यापक है,परम्परागत शिल्प को तोडऩे वाले इस उपन्यास का नायक
अदीब है जो देश काल की सभी बाधाओं से परे
है,अदीब अदालत लगाता है और
उसमें दुनिया के बड़े-बड़े शासकों/शहंशाहों को हाजिर करवा कर सबपर मुकदमे चलाता
है। दुनिया की तमाम संस्कृतियों के अन्तर्विरोंधों का दिखाकर देश की समस्याओं का
समाधान खोजने वाला यह एक अद्भुत उपन्यास है। दस वर्षों के शोध के बाद लिखे गये इस उपन्यास के विषय स्वयं कमलेश्वर ने एक साक्षात्कार के दौरान इस
लेखक से बतलाया था- ‘मैंने एक
कहानी लिखी थी-‘और कितने पाकिस्तान’ वो जुलाहों की कहानी थी जो बनारस से बम्बई चले गये थे दंगों
के दौरान... लेकिन खैर यह शीर्षक मेरा अपना था उसमें से और हटाकर मैनें बनाया ‘कितने पाकिस्तान’ हमें देखना यह था कि यह भारतीय सभ्यता सह अस्तित्व की
संस्कृति में विश्वास रखती है संस्कृतियों के संघर्ष की थ्योरी हमारी नहीं है।’
इस चर्चित उपन्यास का विश्व की अनेक भाषाओं में
अनुवाद हुआ तथा हिन्दी में 16 संस्करण प्रकाशित हुए। सन् 2003 में इस उपन्यास के लिये ‘साहित्य अकादमी’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
एक सम्पादक के रूप में भी कमलेश्वर का योगदान
अविस्मरणीय है। वे प्रारम्भ से ही पत्रकारिता से जुड़े रहे सर्वप्रथम उन्होंने
विहान पत्रिका (1954) का
सम्पादन किया इसके बाद सन 1958
से 1966 से उस
समय की प्रसिद्ध पत्रिका ‘नई
कहानियाँ’ का सफल
सम्पदन किया। सन् 1967
से 1978 तक वे
हिन्दी कहानी की केन्द्रीय पत्रिका ‘सारिका’ के
सम्पादक रहे। कमलेश्वर के सम्पादन में सारिका ने अनेक नये लेखकों को आगे बढ़ाया।
इसी पत्रिका के माध्यम से उन्होंने 1971 के आसपास समांतर कहानी आन्दोलन का सूत्रपात किया ओर आगे
बढ़ाया। सारिेका में लिखे उनके सम्पादकीय ‘मेरा पन्ना’ काफी तीखे और व्यवस्था पर प्रहार करने वाले होते थे। सारिका
के पश्चात उन्होंने क्रमश: कथायात्रा (1978-79) श्रीवर्षा (1979-80) तथा गंगा (1984-88) पत्रिकाओं का सम्पादन किया। इसके साथ ही प्रसिद्ध समाचार
पत्र दैनिक जागरण में 1990
से 1992 तक तथा 1997 से 2002 तक दैनिक भास्कर में नियमित स्तम्भ लेखन करते रहे।
हिन्दी फिल्मों के कहानी-पटकथा एवं संवाद लेखक के रूप में भी कमलेश्वर सफल रहे। उन्होंने 99 फिल्मों में कहानी,पटकथा अथवा संवाद लेखन का कार्य किया आँधी, मौसम, सारा
आकाश, रजनीगंधा,छोटी सी बात, राम बलराम, रंगबिरंगी, सौतन, लैला, मि. नटवरलाल ,पति पत्नी और वह इत्यादि अनेक सफल फिल्मों के साथ कमलेश्वर
का नाम जुड़ा है।
दूरदर्शन से भी कमलेश्वर का गहरा रिश्ता रहा है,उन्होंने चन्द्रकान्ता, बैताल पचीसी, युगदर्पण, कृषि
कथा, बंद फाइल
इत्यादि टैली-फिल्मों /सीरियलों में पटकथा लेखन/सम्पादन का कार्य किया। उनका ‘परिक्रमा’ कार्यक्रम
काफी लोकप्रिय रहा।
कमलेश्वर ने भारतीय दूरदर्शन में सन् 1980 से 1982 तक अतिरिक्ति महानिदेशक के पद का दायित्व भी सँभाला। ये
वही समय था जब दूरदर्शन श्वेत-श्याम से रंगीन किया गया और इसका नेटवर्क सारे देश
में फैला। यहाँ इस बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि अपने स्वाभिमानी व्यक्तित्व के
कारण कमलेश्वर कभी गलत समझौते नहीं करते थे, प्रारम्भ में अपनी इसी प्रवृत्ति के कारण उन्होंने अपनी
कहानी ‘जॉर्ज पंचम की नाक’ के कारण आकाशवाणी की नौकरी त्याग दी थी, इसी स्वाभिमानी प्रवृत्ति के कारण ही उन्होंने दूरदर्शन के
इतने महत्त्वपूर्ण पद को भी त्याग दिया।
कमलेश्वर का व्यक्तित्त्व बहुआयामी था, वे एक अच्छे उद्घोषक (कमेण्टेटर) भी थे। शायद कम लोग ही
जानते होंगे कि दूरदर्शन में उनकी कहानियों के साथ ही उनकी आवाज की भी बहुत माँग
थी। वे सही अर्थों में बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे।
कहानी, उपनयास, पत्रकारिता, पटकथा लेखन, स्तम्भ लेखन, इत्यादि अनेक माध्यमों से उन्होंने हिन्दी साहित्य को
समृद्ध किया। हिन्दी साहित्य में उनके योगदान के लिए भारत सरकार की ओर से उन्हें सन् 2005 में पद्मभूषण सम्मान से सम्मानित किया गया। 27 जनवरी 2007 को कमलेश्वर ने इस लोक को अलविदा कहा पर अपने कालजयी
साहित्य के माध्यम से वे सदा हमारे साथ रहेंगे।
सम्प्रति: एसोसिएट प्रोफेसर,श्री
चित्रगुप्त पी.जी. कॉलेज, मैनपुरी -205
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