- विजय जोशी
हम अपनी कमियों से जान बुझ
कर अनजान बने रहते हैं और असफलताओं की उपेक्षा करते रहते हैं। जीवन में विशेषताओं
से प्राप्त सफलता की आकांक्षा सब करते हैं लेकिन यह तो उसका पूर्ण विराम है। लेकिन
याद रखिये यह प्रयोजन का भी पूर्ण विराम बन जाता है। संघर्षरत यात्रा का सुख
सर्वोपरि है। इसलिए यह आवश्यक है कि हम अपनी कमजोरी को ही अपनी शक्ति बनाएँ।
एक गोल वस्तु सदैव गतिवान
बनी रहती थी। उसका आकार मार्ग के अवरोध सहजतापूर्वक पार करने में सहायक था, लेकिन एक दिन ऐसा हुआ उसमें से एक त्रिकोण के आकार का
टुकड़ा कर अलग हो गया। चलने में हो रही
दिक्कत के कारण वह टूटे हुए टुकड़े की खोज में निकली, पर चूँकि आकार पूर्ववत् नही था इस कारण से वह धीमे -धीमे चलने के लिये बाध्य हो
गई।
लेकिन इसका एक त्वरित लाभ
यह हुआ कि उसका राह में सुंदर फूलों से सामना हुआ। छोटे छोटी कीड़ों से उसकी
मुलाकात हुई, सूरज की
धूप का उसने आनंद प्राप्त किया। राह में अनेक टुकड़े भी मिले ; लेकिन वे
वांछित आकार के अनुरूप नहीं थें। सो उसकी खोज यात्रा जारी रही।
और एक दिन उसे सही टुकड़ा
मिल गया। वह वस्तु प्रसन्न हो गई ;
क्योंकि अब वह फिर से पूर्ववत् पूर्णता को प्राप्त कर सकती थी। उसने तुरंत नए आकार के साथ
गति प्राप्त की, लेकिन अब
वह फूल, पत्तियों, छोटे छोटे कीड़ों को ठीक से देख भी नहीं सकती थी और न
प्रकृति की अनुपम सौगात का आनंद ले सकती थी। वह रुकी और तुरंत नए जुड़ गए टुकड़े से निजात पा ली, क्योंकि उसकी कमजोरी ने ही उसे आनंद की नई दिशा दिखाई थी।
यही जीवन का आनंद है।
कमजोरी को ताकत बनाकर आगे बढ़ा कदम तन मन दोनों को शक्ति साहस और संकल्प प्रदान
करता है। लोग असफलताओं से घबराकर प्रयास छोड़ देते हैं। यह उचित नहीं। असफलता तो
सफलता के मार्ग की पहली सीढ़ी है। एडिसन बल्ब का आविष्कार करने के पूर्व 1000 बार असफल रहे थे, लेकिन हिम्मत नहीं हारी। पूछा जाने पर मात्र यही कहा कि यह
प्रयोग ही 1001
सीढिय़ों वाला था। कहा भी गया है - करत करत
अभ्यास के ,जड़मति होत, सुजान।
एक डुबकी में अगर मोती न
निकले
तो यह न समझो कि समंदर मोतियों का घर नहीं
है
एक अवसर चूकने पर जिदंगी
में
यह न समझो अब कभी अवसर नहीं
है।
2.अनासक्ति का सिद्धांत

इसलिये कृष्ण ने गीता में
अनासक्ति मोह के महत्त्व को प्रतिपादित किया है - हे अर्जुन तेरा कर्तव्य केवल
कर्म में हैं। लेकिन उसके प्रति आसक्ति या मोह में नहीं ।
इसलिए कृष्ण को असक्त कर्मयोगी भी कहा जाता है। वे कभी प्रतिफल
के मोह में नहीं पड़े। वे चाहते तो क्या नहीं कर सकते थे। मथुरा का राज्य तो जन्म
पूर्व से उनकी बाट जोह रहा था। निर्बल जनों के परित्राण के लिए ही तो वे इस धरती पर अवतरित हुए थे। जन जन की आकांक्षा
उनके राज्यारोहण की प्रतीक्षा में रत थी, तब किसने सोचा था कि कंस विजय के पश्चात वे वयोवृद्ध...को
सिंहासन सौंप अगले प्रयोजन हेतु प्रस्थान कर देंगे।
कालांतर में न्याय की रक्षा
और निर्बल के बल बनकर नेपथ्य से मंच पर फिर उभरे असहाय पांडव को अन्याय के विरुद्ध
न्याय की उपलब्धि करवाने के लिए और वह भी बिना किसी अहंकार या मद के। धर्म की रक्षा के लिए उन्होंने सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान होकर भी सारथी तक बनना
स्वीकार कर लिया। दुर्योधन की सभा में अपमान सहकर भी वे स्थितप्रज्ञ बने रहे। यहाँ
पर भी वे रण में शामिल तो हुए लेकिन निरपेक्ष भाव से। पांडव विजय के पश्चात् उसी तत्परता से अपने धाम लौट भी गए बगैर किसी प्रतिफल या
लोभ, लालच या
मोह के।
उन्होंने तो सदैव अन्याय के विरूद्ध न्याय के
पक्ष में खड़े होकर उचित पात्र को विजयी तो करा दिया, लेकिन वहाँ रुके नहीं। कर्तव्य मार्ग पर अगले प्रयोजन हेतु प्रस्थान कर
गए। और तो और अपने अंतिम वेला में भी द्वारिका छोडक़र फाल्का तीर्थ जैसे निर्जन को
प्रस्थान कर गए और वहीं से जीवन की अंतिम यात्रा हेतु प्रयाण किया। इसीलिए गुजरात में उन्हें श्रद्धा एवं भक्ति स्वरूप रणछोड़ रूप
में आज भी पूजा जाता है।
कर्तव्य के मार्ग में मोह
आदमी को फल की ओर मोड़ देता है और यहीं से आरंभ होता है निराशा का मार्ग, जो अंतत: मनोबल पर कुठाराघात तो करता ही है असफलता के द्वार पर भी पहुँचा देता है।
कर्मवीर सच्चा और सार्थक होगा, तो
फल अवश्य प्राप्त होगा। पर केवल उसी में मन मस्तिष्क में रखकर किया गया कार्य तो
तुच्छ है। जीवन में यदि निराशा से बचता है
तो उसका एकमात्र सूत्र है- मन में अनासक्ति एवं असंग्रह के भाव की अनुभूति. इससे न
केवल मन हल्का एवं प्रफुल्लित रहता है अपितु व्यर्थ की आकांक्षा या इच्छा भी नहीं
उभरती जो कालांतर में नैराश्य के भाव की उर्वरा बनती है।
3. मानसिकता

कहा भी गया है अच्छा और
सच्चा सोच मन में लाते ही कार्य आधा सम्पन्न हो जाता है। शेष तो केवल औपचारिकता है जिसके अंतर्गत मन के
साथ तन जुडक़र उसे पूर्णता की मंजिल तक पहुँचा देता है। तन अकेला कुछ नहीं कर सकता। उस पर तो मन का
नियत्रंण है और मन बनता है सकारात्मक मानसिकता से।
साथ ही यह भी तो कहा ही गया
है कि नकार से उभरता है नकारिया, और
यदि वह अच्छा हो तो आपको मनचाहे नकारों तक ले जाता है। अब ये आप पर निर्भर है कि
आप जीवन में क्या देखना और क्या पाना चाहते हैं। किसी पानी से आधे भरे गिलास को जहाँ आशावादी आधे तक भरा हुआ कहेगा वहीं निराशावादी
उसे आधा खाली कहेगा। स्थिति वही थी लेकिन एक ओर जहाँ आशावादी का वक्तव्य सुंदर, सार्थक और सृजनकारी कहलाएगा वहीं निराशावादी का वक्तव्य
निरर्थक, अनुपयोगी
एवं किसी हद तक विध्वंसकारी।
संसार के सारे
महायुद्धों का आरंभ सर्वप्रथम मानव के
मस्तिष्क में ही हुआ। धरती पर लड़ाई तो मात्र उस विध्वंसकारी विचार का अमली जामा
था। दुर्योधन, कंस, हिटलर, मुसोलिनी
इत्यादि के उत्थान एवं तदुपरांत पराभव जैसे अनेकों उदाहरण हमारे सामने हैं।
व्यक्ति में कितनी भी
क्षमता, सामथ्र्य, बल या बुद्धि हो, लेकिन जब तक मानसिकता सकारात्मक नहीं होगी, वह कुछ भी अच्छा या सार्थक नहीं कर पाएगा। नकारात्मक
मानसिकता केवल विध्वंस को जन्म देती है जो व्यक्तित्व को ले डूबती है।
संसार की सारी अच्छाइयाँ
स्वस्थ, सुंदर, सच्चे और अच्छे मन से ही उभर पाईं। उदाहरण के लिये वह
महावीर स्वामी का सम्यक ज्ञान हो या तुलसी की भक्ति गाथा, विवेकानंद का विश्व बंधुत्व हो या फिर महावीर विक्रम बजरंगी
की सेवा भावना। इन्हीं गुणों ने न केवल उन्हें सम्मान के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचाया
बल्कि समाज की दशा बदलते हुए उसे एक नई दिशा दी। और तो और ध्येय एक होने के बावजूद
गांधी ने तो कार्ल माक्र्स के हिंसा से अधिकार प्राप्ति के सिद्धांत के विपरित यह
तक सिद्ध कर दिया कि अहिंसा का मार्ग अधिक सुगम, सुखद, शक्तिशाली
और सामयिक है.
इसलिए कहा भी गया है – It is the ATTITUDE and not the APTITUDE,
which takes you to ALTITUDE अर्थात यह आपकी मानसिकता ही है, जो आपको सफलता के शिखर पर पहुँचाती है ना कि आपकी प्रतिभा
या क्षमता या सामर्थ्य।
सम्पर्क: 8/ सेक्टर-2, शांति निकेतन (चेतक सेतु के पास) भोपाल- 462023, मो. 09826042641, Email- v.joshi415@gmail.com
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