- अर्चना राय
हाइवे के स्मूथ रास्ते पर चलती गाड़ी अचानक से कच्चे उबड़- खाबड़, पथरीले रास्ते पर आ जाने से गाड़ी ही नहीं उसके अंदर बैठा इंसान भी पूरी तरह से हिल जाता है। आज शेफाली वैसे ही फील कर रही थी। उसकी जिंदगी में ये तूफान भी आना था, उसने सपने में भी नहीं सोचा था।
रात के दो बजने को थे पर उसकी आँखों से नींद कोसों दूर थी। रह- रहकर उसके जेहन में करन की यादें दस्तक दे रहीं थीं। जिन यादों को उसने अपनी शादी की हवन वेदी में स्वाहा कर दिया था। वो यादें तो एक पल में उसके सामने यूँ आ खड़ी हुई जैसे कहीं गई ही नहीं थी। वह तो केवल जिंदगी में आगे बढ़ जाने के झूठे भ्रम में जी रही थी।
आज पार्टी में करन को देखने के बाद उसे लगा जैसे सालों का सफर पल में ही तय कर लिया हो और आज भी वह वहाँ खड़ी है। अपने करन की बलिष्ठ बाहों के घेरे में सुरक्षित। ये वही घेरा तो था जहाँ शेफाली अपने आप को सबसे सुरक्षित पाती थी।
करन उसके बचपन का साथी ही तो था। जिसके साथ घर- घर खेलते...कभी लड़ते तो कभी झगड़ते वो दोनों कब एक -दूसरे के दिल में जगह बनाकर अपने भविष्य के घरौंदे का सपना सँजो बैठे, उन्हें खुद भी पता नहीं चला था।
अब तो शेफाली के दिन की शुरुआत करन के नाम से और रात उसी के नाम से खत्म होती थी। रोज रात चोरी छुपे शेफाली के घर की छत पर हाथों में हाथ थामे घंटों चाँद को निहारना और अपने भविष्य के सपने बुनना जैसे उन का रोज का शगल हो गया था।
"हमारा घर पहाड़ों पर होगा। जिसकी बालकनी से बर्फ से ढ़के पहाड़ और देवदार के लंबे- लंबे पेड़ दिखाई देते हों। और हाँ घर के सारे काम तुम्हें खुद करने होंगे, खाना बनाना, साफ सफाई करना और सबसे जरूरी काम...मुझे ढ़ेर सारा प्यार करना होगा। समझे इस पर मुझे कोई बहस नहीं चाहिए। सोच लो वरना शादी कैंसिल।" शेफाली की नादानी भरीं बातें सुनकर करन मुसकुराकर बस उसकी हाँ में हाँ मिलाता जाता। अपनी बातें मनवाने के बाद शेफाली जोर से खिलखिला कर हँस देती। और करन उसकी इसी निश्छल हँसी पर सारा जहान कुर्बान करने तैयार रहता। करन अपने इस सपने के घर को हकीकत बनाने एक अच्छी सी नौकरी पाने जी जान से कोशिश में लगा था।
प्यार भरे दिन ऐसे ही पंख लगाकर उड़ रहे थे। पर कहते हैं न इश्क़ और मुश्क छुपाए नहीं छिपता। तो उनका प्यार कैसे दुनिया की नजरों से छिप जाता।
फिर वही जमाने भर के ताने- उलाहनें... ऊँच- नीच की बातें,...इज्जत का वास्ता...क्या कुछ नहीं सुना शेफाली ने फिर भी करन के लिए उसका प्यार जरा भी कम नहीं हुआ।
वहीं किसी अनहोनी की आशंका से डरे पापा ने उसकी शादी के लिए जोर शोर से लड़के की तलाश शुरू कर दी। और आखिरकार एक दिन शेफाली का रोहन से रिश्ता पक्का कर दिया।
शेफाली करन से किसी भी परिस्थिति में दूर नहीं होना चाहती थी। वह तो अपने सच्चे प्यार की परिणति शादी के रूप में चाहती थी। जिसके लिए उन्हें कोई भी दीवार क्यों न लांघनी पड़े।
ऐसे ही एक रात शेफाली अपना सारा सामान सूटकेस में पैक कर घर से भागने की तैयारी में थी। यहाँ से दूर अपने करन के पास जाकर एक नई दुनिया बसाने के सपने को सजाए।
एक आखिरी बार अपने माँ- पापा को देखने चुपचाप उनके कमरे में आकर उसने महसूस किया कि अचानक से पापा के चेहरे पर उभर आई झुर्रियाँ और गहरी होती महसूस होने लगी।
क्या कुछ नहीं किया पापा ने उसकी खुशी के लिए बचपन से लेकर अब तक पापा से मिला प्यार और दुलार उसके सामने चलचित्र की भाँति घूम गया।
अरे वह तो अपने पापा का गुरूर थी। आज कैसे उन्हीं पापा के लिए कलंक बनने जा रही थी। सोचकर ही उसकी रूह काँप गई। बदहवास- सी बस अपने कमरे में चली आई। सारी रात आँसुओं के साथ कभी अपने प्यार को तो कभी अपने पापा के दुलार को तौलती रही। आखिरकार अपने प्यार की कुर्बानी देकर अपने फर्ज को चुन लिया। और रोहन से शादी कर करन से दूर एक नए शहर में चली आई थी।
कहने को तो शादी करके शेफाली, रोहन की पत्नी बन गई थी; पर उससे कभी मन से जुड़ न सकी; क्योंकि अपने हिस्से का प्यार तो वह पहले ही करन से कर चुकी थी। अब उसके दिल में न तो जज्बात बचे, थे न ही अहसास। अब था तो केवल खालीपन और कभी खत्म न होने वाली उदासी और पत्नी होने का फर्ज।
रोहन एक सीधा- साधा आम लड़का जिसकी कोई बड़ी न तो चाहतें थी न ही जरूरतें।
इसलिए उन्हें एक-दूसरे के साथ एडजस्ट करने में कोई परेशानी नहीं हुई। ऊपर से देखने पर दोनों की खुशहाल गृहस्थी दिखती थी; पर असल में वहाँ खुशी थी ही नहीं। था तो केवल फर्ज।
हालाँकि रोहन को शेफाली को देखते ही उसे से पहली नजर वाला प्यार हो गया था। रोहन जब तब,...जब भी मौका मिलता, शेफाली से अपना प्यार जता ही देता; पर शेफाली की तरफ से कोई सकारात्मक उम्मीद न दिखती। शेफाली ऐसे क्यों करती है। वह समझने की कोशिश तो बहुत करता; पर कभी समझ नहीं पाया। समय के साथ सब ठीक हो जाएगा और शेफाली उससे भी प्यार जताएगी इस उम्मीद की डोर थामे रहता।
जिस तरह बंजर जमीन पर खाद और पानी से सींचा जाए, तो वह भी हरियाली से लहलहा उठती है। जिस तरह बूँद- बूँद गिरता पानी पत्थर पर निशान छोड़ जाता है, उसी प्रकार रोहन के प्यार, परवाह और विश्वास से शेफाली के दिल में उसके लिए प्यार के अंकुर आखिर फूट ही गए। दोनों ही एक दूसरे का साथ और अटूट प्यार पाकर खुश और संतुष्ट थे। शेफाली का साथ पाकर रोहन तरक्की पर तरक्की पाकर सफलता के नए आयाम गढ़ रहा था।
कमरे में लगी घड़ी ने टन- टनाकर तीन बजने का संकेत दिया। शेफाली ने करवट बदलकर सोने की कोशिश की; पर नाकाम रही। उसके जेहन में शाम की घटना चलने लगी थी।
रोहन के प्रमोशन के उपलक्ष्य में उसके बॉस ने एक पार्टी रखी थी, जिसमें रोहन के बार-बार कहने पर शेफाली इस पार्टी में चली आई थी। पर रोहन का बॉस और कोई नहीं, करन निकला। करन को देखकर शेफाली घबराकर तबीयत खराब होने का बहाना करके पार्टी से निकल आई।
रोहन के पूछने पर उसने भी उससे कुछ नहीं छिपाया। अपना और करन का सारा अतीत रोहन के सामने खोलकर रख दिया।
सच सुनकर रोहन को लगा, जैसे उसे अचानक से आसमान से धरती पर ला पटका हो। एक पल में ही उसका संसार उजड़ गया।
आज बादल भी टूट के बरस रहे थे। बाहर होती झमाझम बारिश और रोहन के अंदर का तूफान न जाने कौन सी कयामत की दस्तक थी। उसके अंदर उठते ज्वार- भाटा जैसे सारे किनारों को तोड़ सब कुछ बहा लेने पर आमादा थे।
उसके दिल और दिमाग में एक जंग- सी छिड़ गई थी।
दिमाग कहता- "शेफाली उसकी पत्नी है। इसलिए शेफाली पर केवल उसका ही हक है।"
वहीं दिल कहता- "पत्नी तो है; पर प्यार किसी और से करती है। और प्यार में दिया जाता है लिया नहीं। "
"नहीं, प्यार और जंग में सब कुछ जायज है।" दिमाग झल्लाया।
दिल और दिमाग की जंग आधी रात तक उसे सही गलत के हिंडोले पर झुलाती रही। और उसकी आँख कब लग गई पता भी नहीं चला। और जब उसकी आँख खुली तो सब कुछ शांत और सुहावना था। रात का तूफान थम चुका था। मन भी काफी हद तक शांत हो चुका था।
"रोहन मैंने तुमसे अपना अतीत छुपाया है। मैं तुम्हारी गुनहगार हूँ। मुझे माफ कर दो,...पर यकीन मानो मेरा इरादा तुमसे कुछ छुपाने या धोखा देने का नहीं था। बस तुम्हें पापा से किए वायदे की वजह से बता नहीं पाई।" शेफाली उसके पास आकर सुबकते हुए बोली।
अचानक सामने से करन को आता देखकर, शेफाली के पैरों के नीचे से जमीन खिसकती महसूस हुई। उसे रोहन ने ही फोन करके बुलाया था। उसकी सोचने समझने की शक्ति मानो खो- सी गई थी। लड़खड़ाकर वह वहीं सोफे पर बैठ गई।
करन, जिसने उसे प्यार का अहसास कराया था, तो दूसरी ओर रोहन जिससे उसका सात जन्मों का बंधन बँधा था। दोनों ही अपने- अपने प्यार की कुर्बानी देने आमादा थे। रोहन, शेफाली को उसका प्यार लौटाना चाहता था, तो करन शेफाली को रोहन के साथ खुश देखना चाहता था।
दोनों ही अपने- अपने तर्कों के साथ अपनी बात पर अड़े थे। वे तो शेफाली के वहाँ होने से भी बेखबर बिना ये सोचे समझे कि शेफाली क्या चाहती है। अपना फैसला सुना रहे थे।
"मन -ही- मन सोच एक स्त्री होने की नियति पर आँसू बहाती शेफाली ने महसूस किया कि जैसे उसका वजूद है ही नहीं। वह तो कभी रोहन तो कभी करन की उँगलियों के इशारों पर नाच रही है। एक कठपुतली बनकर...
उसने अपने उमड़ते भावों को समेटा। दोनों की ओर संकेत करके बोली- ‘‘आप दोनों ने मुझसे भी कुछ पूछा है क्या? मैं आप दोनों की इच्छा पर नाचने वाली कठपुतली नहीं। मैं इस घर का द्वार छोड़कर कहीं जाने वाली नहीं; इसलिए आप अपने आदर्श, त्याग सब कुछ अपने पास रखिए,’’- वह तेजी से घर के भीतर चली गई।