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Feb 1, 2025

उदंती.com, फरवरी- 2025

वर्ष- 17, अंक- 7

प्रेम कभी पराजित नहीं होता। आज अथवा कल अथवा युगों बाद सत्य और प्रेम की विजय होगी। प्रेम और सत्य सदा ही विजयी हुए हैं। घृणा या अत्याचार प्रेम को कभी भी समाप्त नहीं कर सकते। जिस प्रेम को घृणा अथवा दुख दबा दे, वह सच्चा प्रेम नहीं हो सकता।    -स्वामी विवेकानन्द

 अनकहीः संगम में आस्था का जनसैलाब... - डॉ. रत्ना वर्मा

 आलेखः नक्सलियों से कब मुक्त होगा छत्तीसगढ़ - प्रमोद भार्गव

 खान-पानः चाय का शौकीन भारत - डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

 यात्रा वृत्तांत: सत्य के मार्ग पर - विनोद साव

 प्रेरकः तीन कौवों की परीक्षा

 आलेखः राष्ट्रीयता की अलख जगाने वाले पं. सोहनलाल द्विवेदी - आकांक्षा द्विवेदी

 कविताः आया वसंत आया वसंत - सोहनलाल द्विवेदी

 विज्ञानः कीट है या फूल है?

 निबंधः वृद्धावस्था - पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

कविताः लिखती भी क्या - डॉ. कविता भट्ट 'शैलपुत्री'

प्रकृतिः वनों की बहाली केवल वृक्षारोपण से संभव नहीं 

लघुकथाः श्रम बनाम शर्म - ट्विंकल तोमर सिंह

स्वास्थ्यः कितना सेहतमंद है बोतलबंद पानी - सुदर्शन सोलंकी

दोहेः नेकी कर... - डॉ. उपमा शर्मा

व्यंग्यः बड़ा सोचने पर कोई जीएसटी नहीं लगता - जवाहर चौधरी

बाल कविताः प्यारे मामा - प्रियंका गुप्ता

कहानीः मैं कठपुतली नहीं - अर्चना राय

कविताः बसंत की आहट - नन्दा पाण्डेय

लघुकथाः 1. युग मार्ग, 2. जीवन-अजीवन - अशोक भाटिया

लघुकथाः प्रेम - अन्तरा करवड़े

किताबेंः मानसिक द्वंद्व को उकेरती कहानियाँ - डॉ मोनिका शर्मा

कविताः 1. एक सच के लिए, 2. हवा - मधु बी. जोशी

जीवन दर्शनः विचार से विजय - विजय जोशी 

अनकहीः संगम में आस्था का जनसैलाब...

- डॉ. रत्ना वर्मा 

जो नहीं होना था वह हो गया । आस्था के महाकुंभ में शुभ मुहूर्त में स्नान के चक्कर में भीड़ प्रयाग संगम में डटी रही और हादसा हो गया। प्रशासन को जानकारी थी कि लगभग 5 से 10 करोड़ लोग मौनी आमावस्या के दिन डुबकी लगाएँगे। प्रयागराज में 13 जनवरी से आरंभ हुए महाकुंभ मेले के आयोजन ने इतना विराट रूप ले लिया और जनसैलाब ऐसा उमड़ा कि कई करोड़ रुपये बहाकर की गई अत्याधुनिक व्यवस्था  चरमरा गई ।  

कुंभ जैसे मेले के प्रति आस्था भारतीय संस्कृति का अंग है और धार्मिक- आध्यात्मिक स्थानों में आस्था का जनसैलाब हमेशा से ही उमड़ता रहा है। इधर कुछ बरसों से इसमें कुछ ज्यादा ही वृद्धि देखने को मिल रही है। यही कारण है कि ऐसे स्थलों पर हादसों की संख्या भी बढ़ती ही जा रही है। प्रशासन के अनुसार तो इस बार उनकी व्यवस्था पूरी तरह चाक- चौबंद थी, फिर भी अनहोनी हो गई। दरअसल इस कुंभ मेले के आयोजन की भव्यता से बहुत ज्यादा प्रचार- प्रसार कर लोगों को स्नान के लिए आमंत्रित किया गया, फलस्वरूप देश भर के लोगों ने कुंभ स्नान का मन बना लिया और जिसे जो साधन मिला, उसी से वह प्रयाग की ओर चल पड़ा। 

कुंभ में भगदड़ के कारण होने वाला ये कोई पहला हादसा नहीं है। 1954 में प्रयाग में ही मौनी  अमावस्या पर भगदड़ मचने से 800 लोगों की मौत हो गई थी। 1986 में हरिद्वार के कुंभ में वीआईपी के स्नान के लिए भीड़ को रोक देने के कारण भगदड़ मची और 200 लोग मारे गए थे। 2013 में प्रयाग कुंभ मेले में रेलवे स्टेशन पर बने पैदल पुल पर भगदड़ मचने से 42 लोगों की जान चली गई थी। 2003 के नासिक कुंभ में 39 लोग और 2010 के हरिद्वार में शाही स्नान के दौरान 7 लोगों की मौत हो गई थी। होना तो यह चाहिए  कि इतने हादसों से भरी घटनाओं के बाद प्रशासन कुछ सीख लेता और इससे बचने के पुख्ता इंतजाम करता। 

व्यवस्था में कमी दुर्घटना का एक कारण तो है ही; परंतु साथ ही जनसैलाब की उपेक्षा करके वीआईपी संस्कृति को महत्त्व देना भी ऐसे हादसों को आमंत्रण देता है। राजनेता से लेकर उद्योगपति और फिल्मी सितारे तक सब डुबकी लगाकर पुण्य कमाना चाहते हैं। उनकी व्यवस्था करने में प्रशासन जनसैलाब को परे ढकेल देता है ,तो ऐसे दर्दनाक हादसे हो जाते है। फिर हादसे पर कमेटी बिठाकर, मरने वालों के परिवार को एक - दो लाख मुआवजा देकर शासन प्रशासन अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेते हैं। इतना ही नहीं, नेता इन हादसों पर संवेदनहीन होकर तुच्छ राजनीति करने से भी नहीं चूकते। कुंभ मेले में हुए इस हादसे के बाद विपक्ष  व्यवस्था पर प्रश्न चिह्न लगाने का कोई मौका नहीं छोड़ता। लगता है जैसे उसे किसी हादसे या अशुभ का बेसब्री से इन्तज़ार रहता है। इतना ही नहीं कुंभ के इस हादसे के बाद तो अनेक प्रकार के आरोप- प्रत्यारोप लगाए जा रहे हैं- हादसे को सोची समझी साजिश का नाम भी दिया जा रहा है। हमारे लिए इससे बड़ी शर्म की बात और क्या होगी कि अब जनता की लाशों पर वोट बटोरने वाली राजनीति होने लगी है। अफसोस तो तब होता है, जब कुछ दिन बाद जनता भी इन हादसों को भूल जाती है। 

इस कुंभ मेले में मीडिया की भूमिका को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। वे मेले की भव्यता, प्रशासन की तैयारियों को बढ़- चढ़कर तो दिखाते ही हैं, साथ ही मेला स्थल में यदि कोई टीआरपी बढ़ाने वाली कोई चटपटी कहानी उन्हें मिल जाती है, तो वे उन्हें इस तरह से प्रस्तुत करते हैं, मानों उन्होंने कोई नई खोज करके  कोई तीर मार लिया है। नीली आँखों वाली लड़की और आईआईटिअन एक साधु को लेकर उन्होंने इतनी टी आर पी बटोरी है कि कुंभ की आस्था और साधु संतों के ज्ञान और धर्म कहीं पीछे छूट गए। कुंभ जाने वाली जनता में भी इस लड़की और आईआईटिअन के साथ सेल्फी लेने की होड़ ही लग गई। एक वीडियो में तो इस नीली आँखों वाली लड़की को भागकर छुपते हुए दिखाया गया था। इसे आस्था कहें कि मूर्खता और लम्पटपन की पराकाष्ठा।

श्रद्धा और अन्धश्रद्धा  में अन्तर करना पड़ेगा। अपनी जान बचाने के लिए  भीड़ में गिरने वाले  लोगों को कुचलकर आगे बढ़ना कौन-सी भक्ति है ? हृदय में सेवा -भावना और  मानव करुणा नहीं है, तो इस प्रकार के स्नान से क्या लाभ? लोगों को कुचलकर भगदड़ का हिस्सा बनने से कोई पुण्य मिलने वाला नहीं।

होना तो यह चाहिए कि मीडिया, सेलेब्रिटी और जनसेवक लोगों को जागरूक बनाने की दिशा में काम करते। जनता तो अंधभक्त है ही, उन्हें लगता है कि इस कुंभ में स्नान करने से उनके पाप धुल जाएँगे, मोक्ष की प्राप्ति होगी। तभी तो वह हर हाल में कुंभ स्नान के लिए निकल पड़ते हैं। 

प्रशासन को चाहिए कि वह इस तरह के आयोजनों को और अधिक गंभीरता से ले और सिर्फ वाहवाही लूटने के लिए प्रचार- प्रसार न करे।  जब तक प्रशासन भीड़ प्रबंधन में आधुनिक तकनीकों को नहीं अपनाएगा और श्रद्धालु भी अपनी सुरक्षा को लेकर सतर्क नहीं होंगे, तब तक इस तरह की घटनाओं को पूरी तरह रोका नहीं जा सकता। सरकार, आयोजन समिति और जनता- सभी को अपनी भूमिका निभानी होगी। अन्यथा ये घटनाएँ होती रहेंगी और लोग मरते रहेंगे। 

आलेखः छत्तीसगढ़ को कब मिलेगी नक्सलवाद से मुक्ति

   - प्रमोद भार्गव

 छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिला मुख्यालय से 55 किमी दूर अंबेली गाँव के पास नक्सलियों द्वारा बिछाए गए अति तीव्र विस्फोटक की चपेट में आकर एक आरक्षित गार्ड समेत आठ जवान शहीद हो गए। विस्फोटक इतना तीव्र था कि जवानों के वाहन स्कार्पियों के परखच्चे उड़ गए। नक्सलियों की यह चुनौती उस समय मिली है, जब नक्सलियों के संगठनों के खत्म होने की उम्मीद की जा रही है; लेकिन इस चुनौती ने साफ कर दिया है कि नक्सलियों का वैसा दमन अब तक नहीं हो सका है, जैसी उम्मीद की जा रही है। हालाँकि केंद्र सरकार ने 2026 तक नक्सलवाद का पूर्ण सफाया करने का संकल्प लिया हुआ है। नक्सलियों का अस्तित्व अब तक बना है तो इसलिए;; क्योंकि कुछ देश- विरोधी ताकतें उन्हें धन, विस्फोटक और उत्तम गुणवत्ता की संचार प्रणाली उपलब्ध करा रहे हैं। यह वाकई चिंता का विषय है कि नक्सली अपने विरुद्ध चल रहे सुरक्षााबलों के अभियानों को निशाना बनाने में बार-बार क्षति पहुँचाने में सफल हो जाते है। अतएव लगता है कि सजातीय वनवासियों और ग्रामीणों पर उनकी पकड़ अभी भी बनी हुई है। वही सुरक्षाबलों की मुखबिरी करके सटीक जानकारी पहुँचाते हैं। 

     नक्सली हिंसा लंबे समय से देश के अनेक प्रांतों में आंतरिक मुसीबत बनी हुई है। वामपंथी उग्रवाद कभी देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा माना जाता रहा है; लेकिन चाहे जहाँ  रक्तपात की नदियाँ  बहाने वाले इस उग्रवाद पर लगभग नियंत्रण किया जा चुका है। नई रणनीति के अंतर्गत अब सरकार की कोशिश है कि सीआरपीएफ की तैनाती उन सब अज्ञात क्षेत्रों में कर दी जाए, जहाँ  नक्सली अभी भी ठिकाना बनाए हुए हैं। इस नाते केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले में सबसे अधिक नक्सल हिंसा प्रभावित क्षेत्रों में 4000 से अधिक सैन्य बल तैनात करने जा रहा है। केंद्र सरकार की कोशिश  है कि 31 मार्च 2026 तक इस क्षेत्र को पूरी तरह नक्सलवाद से मुक्त कर दिया जाए। इतनी बड़ी संख्या में सैन्य बलों की अज्ञात क्षेत्र में पहुँच का मतलब है कि अब इस उग्रवाद से अंतिम लड़ाई होने वाली है। मजबूत और कठोर कार्य योजना को अमल में लाने का ही नतीजा है कि इस साल सुरक्षाबलों के साथ मुठभेड़ में 153 नक्सली मारे जा चुके हैं। शाह का कहना है कि 2004-14 की तुलना में 2014-24 के दौरान देश में नक्सली हिंसा की घटनाओं में 53 प्रतिशत की कमी आई है। 2004-14 में नक्सली हिंसा की 16,274 वारदातें दर्ज की गई थीं, जबकि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद 10 सालों में इन घटनाओं की संख्या घटकर 7,696 रह गई। इसी अनुपात में देश में माओवादी हिंसा के कारण होने वाली मौतों की संख्या 2004-14 में 6,568 थीं, जो पिछले दस साल में घटकर 1990 रह गई है और अब सरकार ने जो नया संकल्प लिया है, उससे तय है कि जल्द ही इस समस्या को निर्मूल कर दिया जाएगा। जिस तरह से नरेंद्र मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर से आतंक और अलगाववाद खत्म करने की निर्णायक लड़ाई लड़ी थी, वैसी ही स्थिति अब छत्तीसगढ़ में अनुभव होने लगी है।    

इसमें कोई दो राय नहीं कि छत्तीसगढ़ में नक्सली तंत्र कमजोर हुआ है, लेकिन उसकी शक्ति अभी शेष है। अब तक पुलिस व गुप्तचर एजेंसियाँ  इनका सुराग लगाने में नाकाम होती रही थीं, लेकिन नक्सलियों पर शिकंजा कसने के बाद से इनको भी सूचनाएँ मिलने लगी हैं। इसी का नतीजा है कि सैन्यबल इन्हें निशाना बनाने में लगातार कामयाब हो रहे हैं। छत्तीसगढ़ के ज्यादातर नक्सली आदिवासी हैं और इनका कार्यक्षेत्र वह आदिवासी बहुल इलाका हैं, जिससे ये खुद आकर नक्सली बने हैं। इसलिए  इनका सुराग सुरक्षाबलों को लगा पाना मुश्किल होता है। लेकिन ये इसी आदिवासी तंत्र से बने मुखबिरों से सूचनाएँ  आसानी से हासिल कर लेते हैं। दुर्गम जंगली क्षेत्रों के मार्गों, छिपने के स्थलों और जल स्रोतों से भी ये खूब परिचित हैं। इसलिए ये और इनकी शक्ति लंबे समय से यहीं के खाद-पानी से पोषित होती रही है। हालांकि अब इनके हमलों में कमी आई है। दरअसल इन वनवासियों में अर्बन माओवादी नक्सलियों ने यह भ्रम फैला दिया था कि सरकार उनके जंगल, जमीन और जल-स्रोत उद्योगपतियों को सौंपकर उन्हें बेदखल करने में लगी है, इसलिए यह सिलसिला जब तक थमता नहीं है, विरोध की मुहिम जारी रहनी चाहिए। सरकारें इस समस्या के निदान के लिए बातचीत के लिए भी आगे आईं, लेकिन कामयाबी नहीं मिली। इन्हें बंदूक के जरिए भी काबू में लेने की कोशिशें हुई हैं। लेकिन नतीजे अनुकूल नहीं रहे। एक उपाय यह भी हुआ है कि जो नक्सली आदिवासी समर्पण कर मुख्यधारा में आ गए उन्हें बंदूकें देकर नक्सलियों के विरुद्ध खड़ा करने की रणनीति भी अपनाई गई। इस उपाय में खून- खराबा तो बहुत हुआ, लेकिन समस्या बनी रही। गोया, आदिवासियों को मुख्यधारा में लाने से लेकर विकास योजनाएँ  भी इस क्षेत्र को नक्सल मुक्त करने में अब तक सफल नहीं हो पाई हैं।  

बस्तर के इस जंगली क्षेत्र में नक्सली नेता हिडमा का बोलबाला रहा है। वह सरकार और सुरक्षाबलों को लगातार चुनौती दे रहा है, जबकि राज्य एवं केंद्र सरकार के पास मोदी सरकार से पहले रणनीति और दृढ़ इच्छा शक्ति की हमेशा कमी रही थी। तथाकथित शहरी माओवादी बौद्धिकों के दबाव में भी मनमोहन सिंह सरकार रही। इस कारण भी इस समस्या का हल दूर की कौड़ी बना रहा। यही वजह थी कि नक्सली क्षेत्र में जब भी कोई विकास कार्य या चुनाव प्रक्रिया संपन्न होती थी तो नक्सली उसमें रोड़ा अटका देते थे। 

नक्सली समस्या से निपटने के लिए राज्य व केंद्र सरकार दावा कर रही हैं कि विकास इस समस्या का निदान है। यदि छत्तीसगढ़ सरकार के विकास संबंधी विज्ञापनों में दिए जा रहे आंकड़ों पर भरोसा करें तो छत्तीसगढ़ की तस्वीर विकास के मानदण्डों को छूती दिख रही हैं, लेकिन इस अनुपात में यह दावा बेमानी है कि समस्या पर अंकुश विकास की धारा से लग रहा है? क्योंकि इसी दौरान बड़ी संख्या में महिलाओं को नक्सली बनाए जाने के प्रमाण भी मिले  हैं। बावजूद कांग्रेस के इन्हीं नक्सली क्षेत्रों से ज्यादा विधायक जीतकर आते रहे हैं। हालांकि नक्सलियों ने कांग्रेस पर 2013 में बड़ा हमला बोलकर लगभग उसका सफाया कर दिया था। कांग्रेस नेता महेन्द्र कर्मा ने नक्सलियों के विरुद्ध सलवा जुडूम को 2005 में खड़ा किया था। सबसे पहले बीजापुर जिले के ही कुर्तु विकासखण्ड के आदिवासी ग्राम अंबेली के लोग नक्सलियों के खिलाफ खड़े होने लगे थे। नतीजतन नक्सलियों की महेन्द्र कर्मा से दुश्मनी ठन गई। इस हमले में महेंद्र कर्मा के साथ पूर्व केंद्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल, कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष नंदकुमार पटेल और हरिप्रसाद समेत एक दर्जन नेता मारे गए थे। लेकिन कांग्रेस ने 2018 के विधानसभा चुनाव में अपनी खोई शक्ति फिर से हासिल कर ली थी, बावजूद नक्सलियों पर पूरी तरह लगाम नहीं लग पाई। 2023 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को अपदस्थ कर भाजपा अब फिर सत्ता में है। उसके बाद से ही नक्सलियों के सफाए का सिलसिला चल रहा है, लेकिन इसी अंबेली ग्राम के पास सुरक्षाबलों को नक्सलियों की मिली चुनौती में जान गंवानी पड़ी है। 

    व्यवस्था बदलने के बहाने 1967 में पश्चिम बंगाल के उत्तरी छोर पर नक्सलवाड़ी ग्राम से यह खूनी आंदोलन शुरू हुआ था। तब इसे नए विचार और राजनीति का वाहक कुछ साम्यवादी नेता, समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री और मानवाधिकारवादियों ने माना था। लेकिन अंततः माओवादी नक्सलवाद में बदला यह तथाकथित आंदोलन खून से इबारत लिखने का ही पर्याय बना हुआ है। जबकि इसके मूल उद्देश्यों में नौजवानों की बेकारी, बिहार में जाति तथा भूमि के सवाल पर कमजोर व निर्बलों का उत्थान, आंध्र प्रदेश और अविभाजित मध्य-प्रदेश के आदिवासियों का कल्याण तथा राजस्थान के श्रीनाथ मंदिर में आदिवासियों के प्रवेश शामिल थे। किंतु विषमता और शोषण से जुड़ी भूमण्डलीय आर्थिक उदारवादी नीतियों को जबरन अमल में लाने की प्रक्रिया ने देश में एक बड़े लाल गलियारे का निर्माण कर दिया था, जो पशुपति; नेपाल से तिरुपति; आंध्र प्रदेश तक जाता है। इस पूरे क्षेत्र में माओवादी वाम चरमपंथ पसरा हुआ था। जब किसी भी किस्म का चरमपंथ राष्ट्र-राज्य की परिकल्पना को चुनौती बन जाए तो जरूरी हो जाता है, कि उसे नेस्तनाबूद करने के लिए जो भी कारगर उपाय उचित हों, उनका उपयोग किया जाए ? 

हालांकि देश में तथाकथित शहरी बुद्धिजीवियों का एक तबका ऐसा भी रहा है, जो माओवादी हिंसा को सही ठहराकर संवैधानिक लोकतंत्र को मुखर चुनौती देकर नक्सलियों का हिमायती बना हुआ था। यह न केवल उनको वैचारिक खुराक देकर उन्हें उकसाने का काम करता था, बल्कि उनके लिए धन और हथियार जुटाने के माध्यम भी खोलता था। बावजूद इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि जब ये राष्ट्रघाती बुद्धिजीवी पुख्ता सबूतों के आधार पर गिरफ्तार किए गए तो बौद्धिकों और वकीलों के एक गुट ने देश के सर्वोच्च न्यायालय को भी प्रभाव में लेने की कोशिश की और गिरफ्तारियों को गलत ठहराया था। माओवादी किसी भी प्रकार की लोकतांत्रिक प्रक्रिया और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को पसंद नहीं करते हैं। इसलिए जो भी उनके खिलाफ जाता है, उसकी बोलती बंद कर दी जाती हैं;  लेकिन अब इस चरमपंथ पर अंकुश लगाना जरूरी है।  

सम्पर्कः  शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी (म.प्र.), मो. 09425488224, 09981061100

खान-पानः चाय का शौकीन भारत

  - डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन 

चाय के पौधे लगभग तीन शताब्दी पूर्व चीन और दक्षिण-पूर्वी एशिया से भारत आए थे, और इन्हें भारत लाने वाले थे ब्रिटिश। दरअसल भारत में चाय उगाने के प्रयोग के दौरान उन्होंने देखा था कि असम में मोटी पत्तियों वाले चाय के पौधे उगते हैं। जब चाय के पौधों को भारत में लगाया गया तो ये बहुत अच्छी तरह से पनपे। (गौरतलब है कि कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु के कुछ इलाकों में भी चाय उगाई जाती है, हालांकि इसकी पैदावार उतनी नहीं होती जितनी कि पूर्वोत्तर में होती है)। हाल ही में, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश ने भी चाय उगाना शुरू किया है। वर्तमान में भारत में चाय की कुल खपत सबसे ज़्यादा (5,40,000 मीट्रिक टन है यानी प्रति व्यक्ति 620 ग्राम) है। भारत दुनिया का चौथा सबसे बड़ा चाय निर्यातक देश है, और इससे देश प्रति वर्ष लगभग 80 करोड़ डॉलर कमाता है।

राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के अनुसार, भारत में कॉफी की तुलना में चाय की खपत 15 गुना ज़्यादा होती है। उत्तर भारत में, शहरी एवं ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में चाय रोज़ाना का मुख्य पेय बन गई है। यहां एक कप चाय सिर्फ 8-10 रुपए में मिलती है, जो सभी की पहुंच में है। इसके विपरीत, दक्षिण भारत (कॉफी का घर) में भी एक कप चाय तो 10 रुपए में ही मिलती है, जबकि कॉफी 15 से 20 रुपए में मिलती है।

रासायनिक घटक

फूड केमिस्ट्री और फूड साइंस एंड ह्यूमन वेलनेस नामक पत्रिकाओं में प्रकाशित कई शोधपत्रों ने चाय की पत्तियों में मौजूद रासायनिक अणुओं का वर्णन किया है। वे बताते हैं कि ये पत्तियां सुगंध से भरपूर होती हैं, जो चाय को उसकी खुशबू देती हैं। फूड साइंस एंड ह्यूमन वेलनेस में 2015 में प्रकाशित एक शोधपत्र में ऐसे वाष्पशील यौगिकों के कुछ उदाहरण दिए गए थे। ये यौगिक गाजर, कद्दू और शकरकंद जैसे हमारे दैनिक आहार में पाए जाते हैं। हमारे आहार में गैर-वाष्पशील पदार्थ भी होते हैं; जैसे नमक, चीनी, कैल्शियम और फल आदि, और ये विटामिन और खनिजों से भरपूर होते हैं।

चाय की पत्तियां विटामिन और सुरक्षात्मक यौगिकों से भी भरपूर होती हैं जो रक्तचाप और हृदय की सेहत को बेहतर बनाने, मधुमेह के जोखिम को कम करने, आंतों को चंगा रखने, तनाव और चिंता को कम करने, ध्यान और एकाग्रता में सुधार करने में मदद करती हैं। इस मामले में चाय कॉफी से बेहतर है, क्योंकि चाय में कैफीन कम होता है, जो तंत्रिका तंत्र को उत्तेजित करता है। यही कारण है कि बच्चों को ये दोनों ही पीने की सलाह नहीं दी जाती है।

2015 के शोधपत्र के लेखकों ने पाया था कि चाय की पत्तियों की सुगंध लाइकोपीन, ल्यूटिन और जैस्मोनेट जैसे वाष्पशील यौगिकों (कैरोटीनॉयड्स) की उपस्थिति के कारण होती है। दूसरी ओर, भोजन का स्वाद चीनी, नमक, आयरन और कैल्शियम जैसे गैर-वाष्पशील यौगिकों से होता है। 

घर पर पकाए और बनाए जाने वाले भोजन में ये स्वाद एक तो आयरन, नमक, कैल्शियम और चीनी के उपयोग से आते हैं, और दूसरा गाजर, शकरकंद और ताज़ी सब्ज़ियों से आते हैं। भारत में, मैसूर (और अन्य जगहों पर) स्थित केंद्रीय खाद्य प्रौद्योगिकी अनुसंधान संस्थान (CSIR-CFTRI) भारतीय भोजन में एंटीऑक्सिडेंट, पोलीफीनॉल और अन्य स्वास्थ्य-वर्धक अणुओं का अध्ययन कर रहा है। 

जैसा कि ऊपर बताया गया है, कॉफी की तुलना में अधिक भारतीय चाय पीते हैं। तो फिर कॉफी की बजाय चाय पीने के क्या लाभ हैं? चाय में कॉफी की तुलना में कैफीन कम होता है और एंटीऑक्सीडेंट अधिक होते हैं। लेकिन कुछ वैज्ञानिकों का दावा है कि कॉफी मधुमेह के खिलाफ चाय की तुलना में बेहतर है। ऐसे में, सवाल आपकी पसंद-नापसंद का है। (स्रोत फीचर्स)

यात्रा वृत्तांत: सत्य के मार्ग पर

विनोद साव

 जब हम किसी इलाके में पहली बार जा रहे होते हैं< तो बड़ी उत्सुकता होती है उसे देखने की जानने की। हम पीछे सरकते जा रहे दृश्य को गौर से देखते हैं। जो खेत सरपट भागे जा रहे हैं उनमें क्या बोया है। इन्हें बोने वाले लोग कौन हैं? उनके गाँव कैसे होते हैं। जब कोई नया स्टेशन आने वाला होता है< उसके शहर की बाहरी बसावट दिखने लगती है। फिर शहर दिखता है... और उसकी अपनी गन्ध। हर शहर की अपनी गन्ध होती है। उस नए स्टेशन में उतरने वाले लोग चले जाते होंगे अपने अपने गाँवों में जहाँ उनका घर होता है, उनकी बोई हुई फसलें होती हैं। उनके अपने खानपान और तीज-त्योहार, अपने उत्सव और रीति रिवाज होते हैं। उनके अपने उपासना- गृह और होती है इन सबसे बनी उनकी संस्कृति, जिनमें वे रचे बसे होते हैं। इनमें साफ सुथरे दिखते हुए लोग ज्यादातर श्वेतवस्त्र धारी हैं। 

यह सौराष्ट्र का वृहत्तर हिस्सा था जिसमें काठियावाड़ भी है। हमारे सामने एक वृद्ध मुसलमान दंपती लेटे हुए थे। उन्होंने हम लोगों को मुसकुराकर देखा फिर पैंट्रीकार से चाय आई, तब उन्होंने चाय पी। हमें आग्रह कर पिलाया, तो हमने भी पी ली। एक स्टेशन आ गया। एक गुजराती मित्र गन्देचा का फोन आ गया “कहाँ पहुँचे हो?”

मैं कहता हूँ - “जामनगर।”

वे कहते हैं – ‘‘भव्य ऐतिहासिक नगर है जामनगर। अपनी चमक धमक में दिन और रात में अलग अलग दिखता है। जिन्ना भी यहीं के थे कराची जाने से पहले।” इतिहास का एक पन्ना फड़फड़ाया। एक ऐसा चरित्र सामने खड़ा हुआ, कहा जाता है, जिनकी जिद में विभाजन हुआ था। जिन्ना ने एक हिन्दू स्त्री रतनबाई से ब्याह भी किया था; पर पाकिस्तान जिन्ना की जिद पर बना। गांधी कहते थे - “मैं अपने जीवन में दो लोगों को नहीं समझ सका- एक अपने बेटे हरिलाल को और दूसरा अपने काठियावाड़ी साथी मुहम्मद अली जिन्ना को।”

जामनगर स्टेशन राजकोट के बाद आया था। जामनगर में जिन्ना और राजकोट में गांधी रहे। राजकोट कभी सौराष्ट्र की राजधानी रहा था। मोहनदास के पिता करमचंद गांधी सौराष्ट्र के दीवान थे। मोहनदास पोरबन्दर में अपना बचपन बिताकर शालेय शिक्षा के लिए यहाँ आ गए थे। गांधी जी के घर में अब एक बालमंदिर खुल गया है। याद आया कि अपने शहर दुर्ग के बालमंदिर में हम जाते थे, उसका नाम कस्तूरबा गांधी बालमंदिर था। अब बाल मंदिरों को नर्सरी स्कूल कह दिया जाता है।

साबरमती नदी दिखी। अरसा पहले एक व्यापारी मित्र के साथ पहली बार गुजरात आया था तब अहमदाबाद में साबरमती आश्रम को देखा था। वहाँ अपेक्षाकृत युवा कस्तूरबा का एक सुन्दर चित्र दिखा था। उस समय की देखी हुई एक फिल्म ‘गांधी माय फादर’ की कस्तूरबा एकदम वैसी ही लगीं थीं। यह फिल्म महात्मा गांधी और उनके बेटे हरिलाल गांधी के बीच के अशांत संबंधों की पड़ताल करती है। यह हरिलाल के जीवन पर आधारित है। यह अचम्भा लगा कि फिल्म के निर्माता एक पेशेवर हीरो अनिल कपूर हैं और हरिलाल की भूमिका को अक्षय खन्ना ने जीवंत कर दिया था। फिल्म की शूटिंग दक्षिण-अफ्रीका, मुंबई और अहमदाबाद सहित कई भारतीय शहरों में की गई थी। गुजरात राज्य के संगठन के समय साबरमती नदी के किनारे एक नई राजधानी बनाई गई थी जिसका नाम रखा गया ‘गांधी नगर’।

हम दूसरी बार देश के पश्चिमी छोर में आ गए थे पर यह गुजरात का दक्षिण था जहाँ हमारी यह पहली यात्रा थी। पोरबंदर स्टेशन में उतरते ही सामने चित्र में ट्रेन पर चढ़े हुए बापू दिख गए। वे किसी ट्रेन के तीसरे दर्जे के दरवाजे पर खड़े थे। मैं भारतीय रेलवे की स्थानीयता को पकड़ने की उनकी चेतना का हमेशा कायल रहा हूँ। वाह वाह... भारतीय रेलवे।

प्लेटफार्म नंबर-एक के खम्भे पर एक रेखाचित्र टँगा है जिसमें गांधी जी का संदेश अंग्रेजी में है- First they ignore you, then they laugh at you, then they fight you and then you win।” (पहले लोग तुम्हारी अवहेलना करेंगे, फिर वे तुम पर हँसेंगे, और जब तुमसे लड़ाई करेंगे तब जीत तुम्हारी होगी।” 

ट्रेन विलम्ब से आई थी। हमें विश्वास ही नहीं हुआ कि हम अपने गंतव्य तक पहुँच गए हैं। किसी ने कहा था “पोरबन्दर आ गया है।” उतरने पर कहीं स्टेशन का नाम भी नहीं दिखा। मैं और चन्द्रा उतर गए थे। एक सिपाही से पूछा ‘रिटायरिंग रूम?”

“आप काउंटर नम्बर-एक पर चले जाइए, वहाँ से चाबी ले आइए।” काउंटर वाले ने चाबी देते हुए बताया कि “आपने महीने भर पहले बुकिंग करवा ली थी; इसलिए कमरा मिल गया। पिछले पंद्रह दिनों से बुकिंग बंद है। पूरे स्टेशन का पुनर्निर्माण हो रहा है।” इसीलिए स्टेशन ध्वस्त होता सा दिखा। हमने इस ध्वस्त होते स्टेशन को अपने कैमरे में कैद कर लिया था। इसकी कैंटीन भी टूट चुकी है, पानी की बोतल और चाय भी यहाँ नसीब नहीं हो रही थी। दो दिन रहकर हमने गांधी जी के मोहल्ले में रहने का निर्णय ले लिया था; पर फ़िलहाल हम रेलवे के बसेरे में आ गए थे। यह एक वातानुकूलित रिटायरिंग रूम था। जिसका शयनकक्ष और नहानी दोनों बहुत बड़े थे और सर्वसुविधा युक्त थे। फकत पाँच सौ रुपयों में हासिल इस कमरे में विशाल डबलबेड, आलमारी, सोफासेट, ड्रेसिंग टेबल, आराम कुर्सी, गीजर, वॉशबेसिन और सब कुछ। जबकि बाहर होटल में इससे तीन गुना अधिक किराया था और कमरे व सुविधाएँ इसकी आधी भी नहीं थी। हम तीस घंटे की लम्बी रेलयात्रा की थकान उतारने यहाँ पसर गए थे। तीन घंटे बाद फिर रात आठ बजे तैयार होकर स्टेशन के कमरे से बाहर आ गए थे। स्टेशन के बाहर भी कहीं ढंग का नाश्ता नहीं दिखा। एक गुमठी वाले से पूछा “आपके पास क्या है।”

“फाफड़ा और गांठिया।” जवाब आया- “चालीस रुपये प्लेट’। उसने एक डिब्बे का ढक्कन खोला उसमें से बेसन का लोंदा निकाला और उसे बेल काटकर गरम तेल में डालने लगा। थोड़ी देर में गरमागरम फाफड़ा जिसे लम्बी हरी मिर्च और हरी चटनी-भुज्जी के साथ उसने पार्सल बना दिया। हम उसे लेकर ऑटो में बैठ गए।

सवेरे- सवेरे कप बसी में चाय पीने का चलन आज भी गुजरात में उसके घरों, होटलों, गुमठियों में है। हमारी छत्तीसगढ़ी भाषा में प्लेट को ‘बसी’ कहते हैं। लेकिन यहाँ बसी यानी प्लेट को रकाबी कहते हैं। गुमठियों में सीधे प्लेट में भी चाय पिलाने का चलन है। ग्राहक ने प्लेट उठाई और चाय वाले ने केतली से उसमें चाय डाल दी और ग्राहक ने सुड़क- सुड़क कर पी ली।

ऑटो वाला भी हमारी तरह बुजुर्ग दिखा। पूछने पर अपना नाम बताया- “मालदेव गढ़वी।” फिर कहा कि “हमारे गढ़वी लोग गाना बजाना करते हैं भैया, अच्छे लोक-गायक होते हैं।” उसने कहा - “चलिए।।। हम आपको बढ़िया गुजराती थाली खिलाएँगे। पर उसके पहले सुदामा मंदिर देख लीजिए।’’

सुदामा मंदिर पोरबंदर के हलचल भरे बाजार क्षेत्र के बीच में है। कथानुसार राजा कृष्ण ने मित्र की सहायता की। उसके बाद सुदामा द्वारका के पास पोरबन्दर में बस गए होंगे या उनकी भी जन्मस्थली यहीं रही होगी; इसलिए इसे सुदामापुरी भी कहा जाता है। हमें प्रसाद रूप में उनका तांदुल (चूड़ा) प्राप्त हुआ; क्योंकि सुदामा ने अपनी गरीबी में कृष्ण को चूड़ा ही खिलाया था। यह संयोग है कि हम कृष्ण, सुदामा और गांधी जैसे सत्य और धर्मनिष्ठ महानायकों की धरती पर खड़े थे और यहाँ सुदामा- मोहन और मोहनदास की स्मृतियों के साथ चल रहे थे।

अहिन्दी भाषी अन्य राज्यों की तरह गुजरात भी कृष्ण भक्त है। वैष्णव जन तो तेने कहिए भजन के रचयिता पंद्रहवीं शती के संत कवि नरसी मेहता के जिन भजनों को गांधी जी गाया करते थे, वे गुजराती भाषा के आदि कवि कृष्ण भक्त थे। यहाँ कवियों-लेखकों ने अपने राजा कृष्ण द्वारका नरेश के प्रति अधिक आसक्त होकर लेखन किया है। गायकों नर्तकों ने रास डांडिया में इतनी धूम मचाई है कि पंजाब के भांगड़ा की तरह इस समूह- नृत्य को भी देश भर में ख्याति मिल गई है।

जब हम एक दिन सान्दिपनी विद्या-निकेतन जाने के लिए सुदामा चौक आए, तो गांधी के सत्य मार्ग पर तो एक ऑटो वाला दिखा, बोला "साहब वहाँ जाने के लिए आप मुझे दो सौ रुपये क्यों देते हैं उससे अच्छा है सिटी बस से निकल जाइए आप दोनों फकत बीस रुपये में" और हम चले गए थे, सुदामा बस अड्डे से दस किलोमीटर दूर पोरबन्दर एयरपोर्ट के पास सान्दिपनी विद्या निकेतन। यहाँ एक विशाल मंदिर है और सौ एकड़ में निर्मित एक शैक्षणिक संस्थान है जो आज की धार्मिक-राजनैतिक आकांक्षा में गुरुकुल शिक्षा की दिशा में कदम बढ़ा रहा है। यहाँ संस्कृत विद्यालय में केवल ब्राह्मण छात्रों का प्रवेश है। हमने उन्हें स्कूल के मैदान में धोती-कुरता पहने क्रिकेट और वॉलीबाल खेलते देखा। हमने एक धोतीधारी छात्र से पूछा- “संस्कृत स्कूल से पढने के बाद आप कहाँ जाएँगे?” तो उसने उत्तर दिया - “आर्मी में जाएँगे वहाँ ‘धर्मगुरु’ का पद है,  जिसमें नियुक्त हो जाएँगे।”

सान्दीपनी विद्या निकेतन के बगीचे में धातु निर्मित चार मूर्तियाँ जो देखने में एक समान दिखती हैं इनमें दो मूर्तियाँ सुदामा और उनकी पत्नी सुशीला की हैं और शेष दो मूर्ति गांधी और कस्तूरबा की हैं; लेकिन अब राजनीतिक भक्ति-भाव में सार्वजनिक स्थलों पर यहाँ  गांधी की जगह सुदामा की मूर्ति लगाने का चलन बढ़ सकता है। हो सकता है राजकीय पत्र में पोरबन्दर का नाम सुदामापुरी हो जाए। 

सम्पर्कः मुक्तनगर, दुर्ग (छत्तीसगढ) 491001

प्रेरकः तीन कौवों की परीक्षा


जब
छोटे कौवे उड़ने लायक हो जाते हैं तो बड़े कौवे यह जानने के लिए उनकी परीक्षा लेते हैं कि वे झुंड का हिस्सा बनने योग्य हैं या नहीं।

ऐसे ही तीन छोटे कौवों कि परीक्षा का दिन आ गया. झुंड के सरदार ने पहले छोटे कौवे से पूछा – “मुझे बताओ, दुनिया में सबसे ज्यादा खतरनाक चीज़ क्या है?”

पहले छोटे कौवे ने तुंरत ही उत्तर दिया – “तीर सबसे खतरनाक होता है। ” उत्तर सुनकर सभी कौवों ने उसके अनुमोदन में सर हिलाया।

सरदार फिर उड़कर पेड़ की दूसरी शाखा तक गया, जहाँ दूसरा छोटा कौवा बैठा था। सरदार ने उससे भी वही प्रश्न किया. दूसरे छोटे कौवे ने एक पल को सोचा और फिर उत्तर दिया – “बेजोड़ शिकारी सबसे खतरनाक होता है; क्योंकि तीर तो शिकारी ही चलाते हैं। एक कुशल और बेजोड़ शिकारी के तीर से बचना नामुमकिन है।”

सरदार ने इस उत्तर के लिए दूसरे छोटे कौवे की प्रशंसा की और बाकि कौवों ने भी उत्तर के समर्थन में हुंकारी भरी।

अब सरदार तीसरे छोटे कौवे के पास गया, जो पेड़ की अन्य शाखा पर बैठा था। सरदार ने उससे भी वही प्रश्न किया। तीसरे छोटे कौवे ने बहुत देर तक गंभीरता पूर्वक प्रश्न का उत्तर सोचा, फिर उसने अपना उत्तर दिया – “अनाड़ी शिकारी सबसे खतरनाक होता है।”

सरदार और सभी कौवों को तीसरे छोटे कौवे का उत्तर बहुत अजीब लगा। सरदार ने तीसरे छोटे कौवे से पूछा – “तुमने ऐसा उत्तर क्यों दिया?”

तीसरे छोटे कौवे ने कहा – “सभी तीर खतरनाक होते हैं और कुशल शिकारियों के तीर से बचना मुश्किल होता है;  क्योंकि उनका निशाना सटीक होता है, लेकिन ज़रा- सा दायें या बाएँ होकर उनके तीर से बचा जा सकता है। इसके विपरीत, अनाड़ी शिकारी के तीर का कुछ भरोसा नहीं होता कि वह कहाँ जाकर लगेगा।”

तीसरे छोटे कौवे के उत्तर का स्पष्टीकरण सुनकर सभी बहुत खुश हुए और सबने कहा कि यही श्रेष्ठ उत्तर है। सरदार को यह अहसास हो गया कि वह लम्बे समय तक अपनी गद्दी पर कायम नहीं रह पाएगा। झुंड ने तीसरे छोटे कौवे के गुणों को पहचान लिया था। (हिन्दी ज़ेन से)

आलेखः राष्ट्रीयता की अलख जगाने वाले राष्ट्रकवि पं. सोहनलाल द्विवेदी

 जन्म- 22 फरवरी 1906 - निर्वाण- 1 मार्च 1988 
 - आकांक्षा द्विवेदी

एक बालक ने एंग्लो संस्कृत विद्यालय फतेहपुर में 17 नवंबर 1921 को प्रिंस ऑफ वेल्स के आगमन पर स्कूल में बँटने  वाली मिठाई को यह कहते हुए लेने से इंकार कर दिया  कि इस गुलामी की मिठाई से अच्छा है, आजादी के चने चबाना। यह कहते हुए बालक स्कूल से निकल गया-‘‘माँ का आँचल लाल करो, हड़ताल करो हड़ताल करो।’’ यह बालक कोई और नही; बल्कि ओजस्वी व्यक्तित्व वाले, आजादी के दीवाने राष्ट्रकवि पद्मश्री पंडित सोहनलाल द्विवेदी थे।

राष्ट्रकवि पद्मश्री पंडित सोहनलाल द्विवेदी का जन्म फतेहपुर के बिंदकी नामक कस्बे के सिजौली नामक ग्राम में 22 फरवरी  1906 में हुआ। इनका जन्म अत्यंत धनाढ्य परिवार में हुआ था। शुरू की शिक्षा बिंदकी में ग्रहण करने के बाद  1921 में विद्यालय की पढ़ाई के लिए इनका दाखिला फतेहपुर के स्कूल में हुआ।

इसी स्कूल में इनकी भेंट प्रताप पत्रिका के सम्पादक श्री गणेश शंकर विद्यार्थी जी से हुई, जो सत्याग्रह आंदोलन के दौरान स्कूल में आए थे। द्विवेदी जी उनसे अत्यंत प्रभावित हुए। सत्याग्रह का भाषण देते वक्त  पुलिस ने इन्हीं के सामने गणेश शंकर विधार्थी को गिरफ्तार कर लिया। इसका उनके बाल ह्रदय पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा ।

आगे की उच्च शिक्षा के लिए द्विवेदी जी काशी हिंदू विश्वविद्यालय गए, जहाँ पर उन्हें  महामना मदन मोहन मालवीय के ओजस्वी व्यक्तित्व ने बड़ा प्रभावित किया। मालवीय जी  ने द्विवेदी जी को राष्ट्रीय स्तर पर कवि द्विवेदी जी के रूप में पहचान दी, जब उन्होंने द्विवेदी जी को लोकप्रिय बना देने वाली उनकी कविता ‘राणा प्रताप के प्रति’ सुनी ।

काशी हिंदू विश्वविद्यालय में ही द्विवेदी जी ने  गांधी जी के नमक सत्याग्रह  जैसे राष्ट्रीय आंदोलन की गूँज सुनी । इससे द्विवेदी जी अत्यंत प्रभावित हुए और वह भी विश्वविद्यालय छोड़कर साथियों सहित इसमे भाग लेने के लिए चल पड़े और इस प्रकार द्विवेदी जी के अंतःकरण में निहित देशभक्ति और त्याग की तड़प साकार हो गई। सन् 1930 में जब विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में गांधी जी आए, तो द्विवेदी जी ने गांधी जी को उनके चित्र के साथ ही ‘खादी गीत’ समर्पित किया। इसके साथ ही उन्होंने गांधी जी के छोने, और राष्ट्रकवि जैसी जाने कितनी उपाधियाँ अर्जित कर लीं ।

राष्ट्र जागरण हेतु साहित्य- सृजन को द्विवेदी जी अपना आजादी का हथियार बनाया व विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में  द्विवेदी जी की प्रखर राष्ट्रवादिता सर्वत्र फैल गई। सन् 1938 में द्विवेदी जी अधिकार नामक राष्ट्रीय दैनिक के सम्पादक बने और 1938 से लेकर 1945 तक वह उसके सम्पादक रहे।

द्विवेदी जी ने महात्मा गांधी  के 75 वर्ष  यानी हीरक जयंती पर ‘गांधी अभिनंदन ग्रन्थ’  के सम्पादन का गुरु भार वहन किया। इस योजना की स्वीकृति उन्होंने धनश्याम दास बिड़ला जी से व गांधी जी से ले ली । इस अभिनंदन ग्रन्थ में गांधी जी के प्रति रत्नाकर से लेकर बच्चन तक विभिन्न  हिंदी कवियों की कविताएँ  छपीं।  यह गांधी जी के  जीवन -दर्शन का स्थायी दस्तावेज बन गया। द्विवेदी जी 1956 में बालसखा के सम्पादक बने और उन्होंने 10 वर्ष तक बालसखा का सम्पादन  किया।

द्विवेदी जी को  जीवन में पाँच विभूतियों ने बहुत प्रभावित किया,  जिन्होंने समय- समय पर उनको अपना दिव्य संस्पर्श और संसर्ग प्रदान किया। जहाँ अध्यापक बलदेव प्रसाद ने संस्कारों से उनकी जड़ों को सींचा, तो वही महात्मा गांधी के विचारों ने इनके जीवन की दिशा ही बदल दी। गणेश शंकर विद्यार्थी ने इनके ह्रदय में देशप्रेम की ज्वाला प्रज्वलित कर दी, वहीं महामना मालवीय जी ने इनके युवा जोशीले व्यक्तित्व को सब्र और संयम से आजादी की लड़ाई लड़ने की प्रेरणा दी। उन्हीं के समझाने पर द्विवेदी जी ने बैरिस्टर की पढ़ाई के लिए विदेश जाने से मना कर दिया औऱ अपनी जन्मभूमि में रहकर लेखनी के माध्यम से लोगो को आजादी की लड़ाई के लिए प्रेरित किया । राय कृष्णदास ने इनमें एक बालकवि के व्यक्तित्व की झलक को पहचाना और इनको उस दिशा में भी कार्य करने की प्रेरणा दी।

देश मे गूँजता गांधी बाबा की जय का नारा इनके कर्ण कुहरो के मार्ग से अंतःकरण  तक अपनी  गूँज पहुँचा चुका था। गांधी जी के प्रभाव के चलते उन्होंने खादी धारण करने का संकल्प ले लिया। उनका कहना था- खादी पहनना,  मतलब गांधी का सिपाही बनना । द्विवेदी जी जिस वर्ष 1921 में फतेहपुर स्कूल में प्रविष्ट हुए, उसी वर्ष महात्मा गांधी का सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू हुआ। गांधी जी के आह्वान  की प्रेरणा का कुछ ऐसा रंग उन पर चढ़ा कि कोई दूसरा रंग उन पर चढ़ ही न पाया ।

सन 1930 में गांधी जी ने जब नमक सत्याग्रह आरम्भ किया, तो द्विवेदी जी ने अपने कुछ साथियों सहित उसका प्रतिरूप प्रस्तुत किया । वे अपने कुछ सहपाठियों को लेकर बिंदकी से 23 किलो मीटर दूर सिंधुपुर नामक स्थान के निकट निर्जन नैशांधकार में नमक बनाने गए, पर इस योजना की भनक अंग्रेजों को लग गई। द्विवेदी जी चोरी- छुपे अपने साथियों के साथ रात के सघन अँधेरे में निकल पड़े और जैसे ही कड़ाही में नमक उबाल खाने लगा, जोश के साथ उनकी आवाज गूँज उठी।  “जय हिंद” सुनते ही अंग्रेज सिपाहियों ने लाठियाँ बरसानी शुरू कर दीं। द्विवेदी जी ने अहिंसा के साथ किसी को भी प्रति उत्तर देने से मना कर दिया व रात के अँधेरे में चुपके से सब निकल गए।

सन्1930 के काशी हिंदू विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह  के अवसर पर उनका सामना पहली बार  दिव्य पुरुष गांधी जी से हुआ ।  उन्होंने आमंत्रित गांधी जी के स्वागत में खादी गीत प्रस्तुत किया, जिसे सुनते ही गांधी जी ने उन्हें गले लगा लिया और खादी गीत की धूम मच गई। एक कंपनी ने उसका ऑडियो बनाकर उसे पूरे भारत में फैला दिया। गांधी जी के चित्रों के साथ आर्ट पेपर में छपवाकर चर्चित बना दिया । द्विवेदी जी की कविताओं के पीछे गांधी की आत्मा एवं गौतम का जीवन दर्शन है। भैरवी भी उन्होंने गांधी जी को  ही समर्पित की है। इनकी कविताओं में गांधी जी का प्रभाव साफ दिखता है। गांधी जी के प्रभाव से इनका बलिदानी स्वर और अधिक प्रखर और अधिक मुखर हो गया ।

जहाँ एक तरफ गांधी जी ने सोहनलाल को राष्ट्रीय चेतना दी, वहीं गणेश शंकर विद्यार्थी जी ने इनकी बलिदानी भावना को इनके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग बना दिया । मदन मोहन मालवीय जी ने इनके अंदर की आग को सही समय पर सही दिशा दिखाकर नियंत्रित किया।

फतेहपुर में द्विवेदी जी के हृदय में जो बीज अंकुरित हुआ, वह काशी पहुँचते ही पल्लवित होने लगा । मालवीय जी से इनकी पहली मुलाकात सन 1927 में विश्वविद्यालय के वार्षिक आयोजन पर हुई। द्विवेदी जी ने मंच से जब ‘राणा प्रताप के प्रति’ कविता  पढ़ी, तो मालवीय जी ने कहा- मैं चाहता हूँ ऐसी कविता का प्रसार देश के एक कोने से दूसरे कोने तक हो। जब प्रसिद्ध क्रांतिकारी यतीन्द्र दास जी जेल में भूख हड़ताल करके शहीद हुए, तो कवि का आक्रोश इन पंक्तियों में व्यक्त हुआ-

आँसू बिखराते बीतेगी जलती जीवन घड़ियाँ,

बिना चढ़ाए शीश नही टूटेगी माँ की कड़ियाँ।

दुनिया में जीने का सबसे सुंदर मधुर तकाजा,

ऐ शहीद उठने दे अपना फूलों भरा जनाजा।।

मालवीय जी के प्रति इनकी कृतज्ञता इन शब्दों में अभिव्यक्त हुई हैं-

जो होता हैं, प्राण फूँकने वाली तुमको आग कहूँ

अभागिनी भारत जननी का तुमको सौभाग्य कहूँ।

गला दिया तुमने तन को रो- रोकर आँसू के पानी में,

मातृभूमि की व्यथा है सहते भरी जवानी में।।

द्विवेदी जी ने गांधी जी के 75 जन्मदिवस पर गांधी अभिनंदन ग्रन्थ प्रकाशित करने की योजना बनाई ।  इस योजना का उद्देश्य प्रत्यक्ष  रूप से गांधी जी का सम्मान करना तथा अप्रत्यक्ष  रूप से राष्ट्रीय संघर्ष एवं चिंता के विषय मे जनजीवन की सर्वत्र सांस्कृतिक आधार प्रदान करने की भावना निहित थी

ये अभिनंदन ग्रन्थ 2 अक्टूबर 1944 को  प्रकाशित हुआ। द्विवेदी जी ने पुरस्कार स्वरूप मिली धनराशि  को गांधी जी को महादेव देसाई के स्मारक के लिए समर्पित किया ।

सन 1970 में द्विवेदी जी के साहित्यिक योगदान को देखते हुए इन्हें पद्मश्री की उपाधि से सम्मानित किया गया । द्विवेदी जी के बाद से आज तक राष्ट्रकवि की उपाधि से किसी को विभूषित नही किया गया हैं । द्विवेदी जी की कविताओं ने लोगों के हृदय में देशभक्ति व देश प्रेम का संचार किया । द्विवेदी जी की वंदना की अमर पंक्तियों ने सबके हृदय में देशप्रेम को रोपित किया।

  (आकांक्षा द्विवेदी,  राष्ट्रकवि पद्मश्री पंडित सोहनलाल द्विवेदी की पौत्री हैं)

कविताः आया वसंत आया वसंत

- सोहनलाल द्विवेदी


आया वसंत आया वसंत

छाई जग में शोभा अनंत।


सरसों खेतों में उठी फूल

बौरें आमों में उठीं झूल

बेलों में फूले नये फूल


पल में पतझड़ का हुआ अंत

आया वसंत आया वसंत।


लेकर सुगंध बह रहा पवन

हरियाली छाई है बन बन,

सुंदर लगता है घर आँगन


है आज मधुर सब दिग दिगंत

आया वसंत आया वसंत।


भौंरे गाते हैं नया गान,

कोकिला छेड़ती कुहू तान

हैं सब जीवों के सुखी प्राण,


इस सुख का हो अब नहीं अंत

घर-घर में छाये नित वसंत।

 

विज्ञानः कीट है या फूल?

 ऑर्किड मेंटिस (Hymenopus coronatus) नामक कीट अपने फूल सरीखे दिखने वाले शरीर के कारण तो विशिष्ट है ही। लेकिन अब शोधकर्ताओं को इसकी एक और विशिष्टता पता चली है - और वह है इसकी उड़ान। ऑर्किड मेंटिस कीट की टांगें फूलों की पंखुड़ियों जैसी होती हैं। इनकी मदद से यह अन्य अकशेरुकी जंतुओं की तुलना में 50 प्रतिशत से 200 प्रतिशत अधिक दूर तक ग्लाइड कर पाता है।

ऑर्किड मेंटिस का रंग-रूप हू-ब-हू मॉथ ऑर्किड के खिले हुए फूल की तरह है - रंग सफेद-गुलाबी सा और शरीर का आकार एकदम फूल और उसकी पंखुड़ियों जैसा। यही नaहीं, इसके शरीर की हरकत भी एकदम फूल की भाँति हैं - हौले-हौले बिलकुल ऐसे हिलता-डुलता है जैसे हवा के झोंकों से फूल या उसकी पंखुड़ियाँ  लहराती हैं। जब कोई कीट मकरंद की तलाश में भिनभिनाता हुआ फूल के पास आ जाता है तो ऑर्किड मेंटिस तेज़ी से उस पर हमला करता है।

ऐसे ही एक हमले में शोधकर्ताओं ने जब ऑर्किड मेंटिस को तेज़ी से उछलते हुए देखा तो उन्हें विचार आया कि हो न हो उसके पंखुड़ीनुमा पैर न केवल छद्मावरण का काम करते हैं बल्कि संभवत: ये उनके लिए पंखों जैसा काम भी करते हैं। अपने अनुमान की पुष्टि के लिए जब अपने अध्ययन में उन्होंने एक दर्ज़न से अधिक मेंटिस को नीचे गिराया तो उन्होंने पाया कि मेंटिस गिरते हुए पलटकर सीधे हो जाते हैं और फिर करीबन 8 मीटर तक हवा के साथ ग्लाइड करते जाते हैं। यह रणनीति युवा मेंटिस के लिए सबसे अधिक उपयोगी साबित होती है – जैसे-जैसे वे वयस्क होते जाते हैं, उनके पंख शक्तिशाली उड़ान के लिए विकसित हो जाते हैं। ये नतीजे करंट बायोलॉजी में प्रकाशित हुए हैं। (स्रोत फीचर्स)


निबंधः वृद्धावस्था

  -  पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

काल की बड़ी क्षिप्र गति है। वह इतनी शीघ्रता से चला जाता है कि सहसा उस पर हमारी दृष्टि नहीं जाती। हम लोग मोहावस्था में पड़े ही रहते हैं और एक-एक पल, एक-एक दिन और एक-एक वर्ष कर काल हमारे जीवन को एक अवस्था से दूसरी अवस्था में चुपचाप ले जाता है। जब किसी एक विशेष घटना से हमें अपनी यथार्थ अवस्था का ज्ञान होता है तब हम अपने में विलक्षण परिवर्तन देखकर विस्मित हो जाते हैं। उस समय हमें चिन्ता होती है कि अब वृद्धावस्था आ गई है, अब हमें अपने जीवन का हिसाब पूरा कर देना चाहिए। दर्पण में प्रतिदिन ही हम अपना मुख देखते हैं, पर अवस्था का प्रभाव इतने अज्ञात रूप से होता है कि हम अपने मुख पर कोई परिवर्तन नहीं देख पाते। कान के पास बालों को सफेद देखकर राजा दशरथ को एक दिन सहसा ज्ञात हुआ कि अब उनकी वृद्धावस्था आ गई। उस दिन 'निर्मला' से परिचित होने पर मुझे भी सहसा ज्ञात हुआ कि मैं अब वृद्ध हो गया हूँ।

1916 में जब मैं बी.ए. पास कर मास्टर हो गया तब मैंने दो साल 'विमला' को पढ़ाया था। वह जब मैट्रीकुलेशन पास हो गई तब उससे मेरा सम्बन्ध छूट-सा गया। कभी-कभी उसके और उसके भाई के पत्र आया करते थे। मैंने सुना कि उसका विवाह हो गया है। साहित्य से उसका विशेष अनुराग था। मैं किसी-किसी पत्र में उसकी रचना भी पढ़ता था। साहित्य के सम्बन्ध में उससे यदा-कदा पत्र-व्यवहार भी होता था। पर इस तरह सम्बन्ध बने रहने पर भी उसको फिर मुझे देखने का अवसर ही नहीं मिला। कुछ ही समय पहले मुझसे एक सात साल की लड़की ने आकर कहा - मैं अंगरेजी पढ़ूँगी। तुम मुझे अँगरेजी पढ़ाया करो। मैंने कहा - अच्छी बात है। उसने कहा-अच्छी बात मैं नहीं जानती। कल से तुम मेरे घर आना। वह पीला मकान मेरा ही है।

वह पीला मकान नए डाक्टर साहब का था। मैं उनसे विशेष परिचित नहीं था। वे अभी हाल में आए थे। मैंने कहा- मैं तो आ जाऊँगा, पर तुम्हारे बाबूजी मुझे डाटेंगे तो? उन्होंने तो मुझसे कुछ नहीं कहा है। उसने उत्तर दिया - वे क्यों डाँटेंगे! मैंने माँ से पूछ लिया है। कल जरूर आना। मेरा नाम कुसुम है। भूलना मत।

लड़की की बातचीत और व्यवहार से मैं मुग्ध हो गया। दूसरे दिन मैं उसके घर गया। डाक्टर साहब न थे, पर उनकी पत्नी तुरन्त ही बाहर आईं। उन्होंने कहा - आप मुझे नहीं पहचानते। मेरी माँ विमला देवी को आपने पढ़ाया है। उसकी बात सुनकर मेरे मुँह से हठात् निकल पड़ा - तुम विमला की बेटी हो?

उसने हँसकर कहा - हाँ, मैं निर्मला हूँ और यह मेरी कुसुम है।

मैं चकित हो गया। विमला तो अभी तक मेरे हृदय में 16 ही वर्ष की थी और उसकी लड़की 25 वर्ष की हो गई। तब मुझे सहसा ज्ञात हुआ कि मैं वृद्ध हो गया हूँ।

सचमुच अब इस सत्य में कोई सन्देह नहीं रहा कि मैं वृद्ध हूँ। मेरे जीवन का सन्ध्या- काल समीप आ गया है। मुझे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि शरीर में अब वह शक्ति नहीं है, नेत्रों में वह ज्योति नहीं है, मन में वह उमंग नहीं है, वह स्फूर्ति नहीं है, वह चाह नहीं है। केश सफेद होते जा रहे हैं, शरीर शिथिल होता जा रहा है, यह सब होने पर भी मन पर काल की गति का विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। मन अपने को बहलाने के लिए, अपनी मोहावस्था को बनाए रखने के लिए कुछ न कुछ उपाय ढूँढ़ ही लेता है। मेरे इसी नगर में अभी ऐसे कितने ही वयोवृद्ध जन हैं,  जिनके पास जाकर मैं अपनी वृद्धावस्था भूल जाता हूँ। वे मेरे पिता के समवयस्क हैं। आश्चर्य की बात यह है कि मैं उनमें से कितनों में तरुणावस्था की स्फूर्ति भी देखता हूँ। लाला प्रद्युम्नसिंह में किसी नवयुवक से कम विद्यानुराग नहीं है और वे अभी तक अपनी ज्ञान-वृद्धि के लिए परिश्रम ही करते जा रहे हैं। हीरावल पोद्दार से अधिक संगीतकला का उपासक कोई तरुण नहीं हो सकता। अपने इस कला-प्रेम के कारण वे सदैव मुझे तरुण ही प्रतीत होते हैं। उनकी वाणी में जो मधुरता है, जो शक्ति है वह कितने ही तरुणों में नहीं है। पण्डित काशीदत्त झा से अधिक कार्यतत्परता मैंने किसी नवयुवक में नहीं देखी। यदि इन लोगों के समक्ष मैं वृद्धों की आदरणीय पंक्ति में बैठने का साहस करूँ, तो उपहासास्पद ही बन जाऊँगा। कर्तव्य-चिन्ता के भार से अब मैं चाहे अपने को वृद्ध समझूँ या मोह के उल्लास से तरुण, किन्तु शारीरिक शक्ति के ह्रास को तो मुझे स्वीकार करना ही पड़ेगा। इसी शारीरिक शक्ति के ह्रास के कारण कितने ही लोगों को वृद्धावस्था दु:खद हो जाती है; परन्तु सभी तरह की निर्बलता और शिथिलता का अनुभव करने पर भी मैं यह नहीं समझता कि यह अवस्था स्पृहणीय नहीं है। मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि वृद्धावस्था में जीवन के विकास की जो चरमावस्था आ जाती है, उसमें हम लोगों के सभी भाव, रस के रूप में परिणत होकर, आनन्दमय हो जाते हैं।

यह सच है कि वृद्धावस्था में शारीरिक-शक्ति क्षीण होती जाती है पर उसके कष्ट जितने कल्पित हैं उतने यथार्थ नहीं हैं। बात यह है कि शक्ति के ह्रास के साथ-साथ सहिष्णुता की इतनी वृद्धि हो जाती है कि शक्ति के अभाव का हमें ज्ञान ही नहीं हो पाता। तरुणावस्था में जो शक्ति बाह्य जगत में जाकर विकीर्ण होती है वही अब अन्तर्जगत में रहकर एकत्र सी हो जाती है। जिन कामों में शारीरिक शक्ति की विशेष आवश्यकता है उनके प्रति आपसे आप विरक्ति हो जाती है। परन्तु उससे आनन्द की अनुभूति कम नहीं होती। मैं कभी फुटबाल खेला करता था और खैरागढ़ से छुईखदान तक दौड़ लगाया करता था। पर अब फुटबाल खेलने की ओर जरा भी प्रवृत्ति नहीं होती। अब तो फुटबाल ग्राउंड या क्रिकेट फील्ड में चुपचाप बैठकर देखने में ही आनन्द आता है। उस समय 'जितेन्द्र' से कैच छूटने पर या 'जोधा' से कुछ भूल होने पर हम लोग अपने समय के दिग्गजों की अपूर्वता का वर्णन करने लग जाते हैं। 'कस्तूरचन्द' और 'मिनाजुद्दीन' के बौलिंग तथा 'युधिष्ठिर' और 'वंशबहादुर' के खेल के वर्णन में वर्तमान तो बिल्कुल क्षुद्र हो जाता है। 'महराज जी' के बराबर अब कौन 'बैक' खेलेगा ! इन्हीं अतीत भव्य बातों का स्मरण कर वर्तमान की ओर इतना उपेक्षा भाव मन में आ जाता है कि उसमें सम्मिलित होने की जरा भी इच्छा नहीं होती। यही वृद्धावस्था का सच्चा लाभ है। यही कारण है कि शारीरिक शिथिलता और ह्रास का अनुभव करते हुए भी हम यह नहीं समझते कि इसमें कोई अभाव है। संसार के कार्य-क्षेत्र में हम युवकों के लिए आपसे आप स्थान छोड़ देते हैं, क्योंकि उसके लिए स्पृहा नहीं रह जाती। वृद्धावस्था में जो गौरव का भाव आ जाता है वह तारुण्य को तिरस्कारणीय कर देता है। तारुण्य की लालसा, महत्वाकांक्षा, क्षिप्रता, अदूरदर्शिता सभी उसके लिए अग्रगण्य हैं।

मैं छात्रों के बीच में रहता आया हूँ। उनके साथ सहानुभूति का भाव रख कर भी उनके क्षणिक उत्साह और क्षणिक अवसाद से मुझे कौतूहल ही होता है। मैं जानता हूँ कि स्कूल की परीक्षा में उत्तीर्ण होना एक अलग बात है और जीवन की परीक्षा में उत्तीर्ण होना दूसरी बात। मैं अब परिश्रम को महत्त्व देता हूँ, विद्या के प्रति अनुराग की प्रशंसा करता हूँ। पर छात्र एकमात्र परीक्षा में उत्तीर्ण होने में ही अपनी सफलता समझते हैं। अनुत्तीर्ण होने पर उन्हें जो दु:ख होता है वह मुझे नहीं होता। मेरे सुख-दु:ख की सीमा अब विस्तृत हो गई है। वृद्धावस्था में सुख-दु:ख की भावना परिवर्तित हो जाती है। तरुणावस्था में आडम्बर अथवा प्रदर्शन की जो चाह रहती है वह वृद्धावस्था में नहीं रह जाती| इसी प्रकार न क्षणिक सुखों से वृद्धों को उल्लास होता है और न क्षणिक दु:खों से विषाद। न तो कोई सफलता उन्हें उत्तेजित करती है और न कोई असफलता हताश। संसार की कठोरता और कर्तव्य की गुरुता से परिचित हो जाने से उनमें विश्वास के स्थान में अविश्वास आ जाता है। वे संयत हो कर भी संशयालु हो जाते हैं। इसी से वे तरुणावस्था के मोह में पड़ना नहीं चाहते।

तरुणावस्था में ज्ञान की वृद्धि होती है। और वृद्धा अवस्था में ज्ञान की परीक्षा। जिनका तारुण्य-काल विद्योपार्जन में नहीं व्यतीत हुआ अथवा जो यथेष्ट ज्ञान अर्जित नहीं कर सके उनके लिए वृद्धकाल में इस अभाव की पूर्ति सम्भव नहीं है। मैं स्वयं विद्या के क्षेत्र में बी.ए. के आगे नहीं बढ़ सका और मेरे कितने ही छात्र विद्या की चरमकोटि तक पहुँच गए हैं। उनकी असाधारण विद्या और अपूर्व प्रतिष्ठा देखकर उनके समवयस्क लोगों में भले ही कुछ ईर्ष्या का भाव हो, पर वृद्ध को यह भाव हो नहीं सकता। अधिकतर की तो यह धारणा रहती है कि यदि वे चाहते तो सब कुछ स्वायत्त कर सकते थे; परन्तु उन्होंने इच्छा ही नहीं की। इसके अतिरिक्त उन्हें संसार का जो अनुभव हो चुका है, उसे वे प्रेमचन्द जी के 'बड़े भाई साहब' की तरह विद्या की अपेक्षा अधिक गौरव देंगे। ज्ञान के क्षेत्र में अल्पवयस्क लोगों से पराभूत होने पर भी वे अनुभव के क्षेत्र में अजेय ही रहेंगे। मेरे नगर के कुछ वयोवृद्ध जन न तो उच्च शिक्षा प्राप्त कर सके और न खैरागढ़ के बाहर का ही कुछ विशेष अनुभव प्राप्त कर सके हैं। उनके ज्ञान और अनुभव दोनों सीमा-बद्ध होने पर वे केवल अवस्था के कारण एक गौरव प्राप्त कर चुके हैं। यही कारण है कि क्या दर्शनशास्त्र, क्या धर्म-विज्ञान और क्या शिक्षा-तत्त्व, सभी में वे एक विशेषज्ञ की तरह राय देते हैं। यह सच है कि उच्च कुल में जन्म लेने के कारण उन्होंने जो एक प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली है, उसके कारण उनकी सभी बातें मान्य हो जाती हैं; पर यह तो मानना ही पड़ेगा कि वृद्धावस्था भी स्वयं आदरणीय हो जाती है और ज्ञान को उसके आगे नतमस्तक होना पड़ता है।

कुछ लोगों की यह धारणा हैं कि वृद्धावस्था में धर्म की ओर रुचि हो जाती है। प्राचीन काल में लोग वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम स्वीकार कर संसार से विरक्त हो जाते थे। हिन्दू-समाज के इसी आदर्श ने यहाँ लोगों में विश्वास उत्पन्न कर दिया है कि वृद्धावस्था आपसे आप धर्म की भावना ला देती है। यह सच है कि तरुणावस्था में जो चंचलता रहती है, वह वृद्धावस्था में नहीं रह जाती। उसमें एक स्थिरता, एक दृढ़ता आ जाती है। पाश्चात्य देशों के राजनैतिक क्षेत्रों में वृद्धजन ही नेतृत्व ग्रहण करते हैं और उनसे अधिक संसार क्षेत्र में कोई संलग्न नहीं रहता। सच तो यह है कि वृद्धावस्था में हम जिस बात को अपनाते हैं उसे इतनी दृढ़ता से अपनाते हैं कि मृत्यु ही हमको उस बात से मुक्ति दे सकती है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, इन चारों पुरुषार्थ में जो वृद्ध जिसको स्वीकार कर लेता है वह उसी में लिप्त हो जाता है। कितने ही वृद्ध काम और अर्थ में लिप्त रहकर भी धर्म का अभिनय अवश्य करते हैं, पर यथार्थ में तरुणों से भी अधिक प्रचण्ड उनकी वासनाएँ होती हैं। वृद्धावस्था में अर्थ-लोभ से प्रेरित होकर जो व्यवसाय करते हैं उनमें जो कृपणता आ जाती है वह तरुणों में सम्भव नहीं। यही बात जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी कही जा सकती है। वृद्ध नवीन पथ नहीं स्वीकार कर सकते। यदि वे ऐसा करते हैं तो ढोंग ही करते हैं। जीवन भर सांसारिक चिंता में निरंतर रहकर कोई वृद्धावस्था में सहसा संसार को त्याग कर मुक्ति का मार्ग ग्रहण कर ले, यह एक मात्र भगवान की असीम कृपा का फल हो सकता है। स्वभाव के विरुद्ध काम किसी से हो नहीं सकता। प्रकृति हम को अपने ही पथ पर ले जाती है। कर्तव्य भार की चिन्ताओं से विमुक्त होकर कोई-कोई धर्म-चिन्ता में निरत होकर आत्म-विनोद अवश्य कर लेते हैं। पर निश्चिन्त अवस्था में ही यह सम्भव है।

वृद्धावस्था का सच्चा आनन्द है- आत्म-सन्तोष। जिन्हें भविष्य की चिन्ता है, वे वृद्ध नहीं हैं। वे तरुण ही हैं, क्योंकि उन्हें कार्यों की ओर चिन्ता अवश्य प्रेरित करेगी। जो देश के भविष्य-निर्माण में व्यस्त हैं उन्हें आत्म-सन्तोष तभी होगा जब वे अपना कार्य समाप्त कर लेंगे और तभी वे वृद्ध होकर अपने अतीत जीवन का स्मरण करेंगे। तब उनके लिए भविष्य की कोई चिन्ता नहीं रह जायगी। पं. जवहरलाल नेहरू की तरह महात्मा गांधी भी तरुण भारत के तरुण नेता हैं। उनमें अदम्य साहस है, अदम्य स्फूर्ति है और अदम्य उत्साह है। वृद्धावस्था उनके शरीर को जीर्ण कर सकती है, उनके मन को नहीं। पर जो लोग एकमात्र शरीर-सुख को ही अपना लक्ष्य मानते आए हैं, उनके लिए शारीरिक शक्ति की क्षीणता के साथ वृद्धावस्था आ जाती है और वे वृद्धावस्था से असन्तुष्ट होकर उसके सच्चे आनन्द से भी हाथ धो बैठते हैं। जीवन की संध्या अपने साथ एक अपूर्व श्री लाती है। ज्योति क्षीण हो जाती है, उन्माद नष्ट हो जाता है; मन में भाव का मृदु पवन बहता है, सहानुभूति की मृदु तरंगें उठती हैं, संसार हर्ष के मधुर कलरव से पूर्ण हो जाता है, चिर संचित स्नेह का दीप प्रज्वलित होता है और मन के अनन्त नभोमण्डल में उदीयमान नक्षत्रों की तरह कितनी ही मधुर स्मृतियाँ उदित होती हैं। (साभार)

कविताः लिखती भी क्या

 - डॉ. कविता भट्ट 'शैलपुत्री'









लिखती भी क्या; पीड़ा, अपमान या प्रतिमान

भाग्य, कर्म, संयोग - वियोग, सपनों का बलिदान।


वही लिखा, जो जीवन ने कहने नहीं दिया

ऐसा अनकहा, जो नैनों ने बहने नहीं दिया।

 

कभी संस्कारों ने सौगंध देकर रोका

भोजपत्र ने संबंधों के अनुबंध पर टोका।

 

रोक लिया किवाड़ के गर्वित आभास ने

हाथ बांधे गरिमा कहलाते कारावास ने।

 

उपस्थिति-अनुपस्थिति, प्रेम, भाव-अभाव

इनका नहीं अब कोई भी विशेष प्रभाव।

 

इन्हें लिखने का भी कोई नहीं अर्थ

व्यामोह, सम्मोहन, संबोधन व्यर्थ।

 

लिखती क्या; छल-प्रपंच,  अनुरक्ति, विरक्ति

साधना, प्रमाद, विषाद, प्रतिपल मुक्ति।

 

हर्ष-स्पर्श मिथ्या अब देह से चेतन मुक्त हुआ

राग-द्वेष तिरोहित मानस अब उन्मुक्त हुआ।

 

जीवन कोई युद्ध नहीं, ऐसा ज्ञान जगा होता

कला है प्रतिबंध नहीं, ऐसा भान हुआ होता।

प्रकृतिः वनों की बहाली केवल वृक्षारोपण से संभव नहीं

पेड़ों का अस्तित्व धरती पर लगभग 40 करोड़ वर्षों से है। तब से पेड़ कई प्राकृतिक आपदाओं का सामना कर चुके हैं। चाहे वह उल्का की टक्कर हो या शीत युग, पेड़ धरती पर टिके रहे। लेकिन अब उन्हें खतरा इंसानों से है। कृषि के आगमन के बाद से, खेती और मवेशियों के लिए जगह बनाने के लिए बड़ी संख्या में जंगलों का सफाया किया गया है। पिछले 300 वर्षों में, लगभग 1.5 अरब हैक्टर जंगलों को नष्ट किया जा चुका है, जो आज के कुल वन क्षेत्र का 37 प्रतिशत है।

आम तौर पर यह माना जाता है कि जंगलों की क्षतिपूर्ति वृक्षारोपण करके की जा सकती है और इसे सबसे सरल और सटीक समाधान के तौर पर देखा जाता है। पिछले कुछ दशकों में यह धारणा भी बनी है कि जलवायु परिवर्तन को कम करने में पेड़ महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। परंतु, यह बात भी उतनी ही सच है कि बिना किसी ठोस योजना और जानकारी के सिर्फ पेड़ लगाना कई बार पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुँचा सकता है। 

गौरतलब है कि कई वृक्षारोपण परियोजनाओं में सिर्फ एक प्रजाति के पेड़ लगाए जाते हैं, जिसे मोनोकल्चर कहा जाता है। यह पद्धति जैव विविधता को कम करती है, क्योंकि इस प्रक्रिया में सिर्फ एक प्रजाति के पौधे और उससे जुड़े वन्यजीव और सूक्ष्मजीव ही पनप पाते हैं। एक ही प्रजाति के पेड़ बीमारियों के प्रति संवेदनशील होते हैं, जिससे कोई बीमारी फैलने पर पूरे जंगल का सफाया हो सकता है। इसके अलावा, कई बार ऐसे पेड़ भी लगाए जाते हैं,  जो उस क्षेत्र के लिए उपयुक्त नहीं होते, जिससे स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र असंतुलित हो जाता है। 

वनों की बहाली में एक समग्र दृष्टिकोण की ज़रूरत है। जैक रॉबिन्सन अपनी किताब ट्रीवाइल्डिंग (Treewilding) में बताते हैं कि जंगलों की बहाली के लिए सिर्फ पेड़ लगाना पर्याप्त नहीं है, बल्कि उनका जीवित रहना और वृद्धि करना भी ज़रूरी है। इसके लिए यह समझना भी आवश्यक है कि कौन-सी प्रजातियाँ  किस क्षेत्र के लिए उपयुक्त हैं, और वे स्थानीय समुदायों और वन्यजीवों से किस प्रकार जुड़ी हुई हैं। हलांकि वनों की कटाई को पूरी तरह रोकना संभव नहीं है, लेकिन इसे कम करने और पौधारोपण को सही दिशा में ले जाने के लिए गहन शोध और नियोजन ज़रूरी है।

रॉबिन्सन यह भी कहते हैं कि वृक्षारोपण परियोजनाओं को स्थानीय ज्ञान के आधार पर संचालित किया जाना चाहिए, जिससे न केवल पेड़ लगाए जाएँ;  बल्कि उनकी देखभाल पर भी ध्यान दिया जाए। ऐसा करने से ही युवा पेड़ सही तरीके से बढ़ सकेंगे और दीर्घकालिक लाभ दे सकेंगे। इसमें एक विशेष बात यह है कि प्राकृतिक पुनर्जनन यानी किसी वन को अपने आप पुनः विकसित होने देना, जंगलों को बहाल करने का सबसे प्रभावी तरीका है।

ग्रेट ग्रीन वॉल जैसी कुछ वन बहाली परियोजनाएँ  काफी उपयोगी रही हैं। इस परियोजना में सहारा रेगिस्तान के दक्षिण में 8000 किलोमीटर लंबी और 15 किलोमीटर चौड़ी पेड़ों की एक दीवार बनाने का प्रयास किया गया है। इसका उद्देश्य रेगिस्तान के फैलाव को रोकना, भूमि की गुणवत्ता सुधारना, और जलवायु परिवर्तन से निपटने में मदद करना है। इस परियोजना में अब तक लाखों पेड़ लगाए जा चुके हैं, लेकिन धन की कमी एक बड़ी चुनौती है।

इसी प्रकार, पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया की गोंडवाना लिंक परियोजना 1000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में पुराने जंगलों के बिखरे हुए टुकड़ों को फिर से जोड़ने का प्रयास कर रही है। इसका उद्देश्य उन प्रजातियों की रक्षा करना है जो जंगलों के इन छोटे-छोटे हिस्सों में फँसी हुई हैं और विलुप्त होने की कगार पर हैं। जब अलग-अलग क्षेत्रों की प्रजातियाँ  एक-दूसरे के साथ संपर्क में आती हैं, तो उनकी जेनेटिक विविधता में सुधार होता है, जो उन्हें पर्यावरणीय चुनौतियों से निपटने में मदद करता है। इस परियोजना के तहत 14,500 हैक्टर भूमि पर पेड़ लगाए जा चुके हैं, और इसे कार्बन क्रेडिट या कर छूट के रूप में निवेशकों से वित्तीय सहायता प्राप्त हो रही है।

रॉबिन्सन अपने काम में पारिस्थितिकी को समझने के लिए एक नई तकनीक का भी उपयोग कर रहे हैं, जिसे इकोएकूस्टिक्स कहा जाता है। यह विधि वन्यजीवों और पक्षियों की ध्वनियों का उपयोग करके जंगलों की संरचना और उसमें हो रहे परिवर्तनों को समझने का प्रयास करती है। उन्होंने पाया कि जैसे-जैसे जंगल पुनर्जीवित होते हैं, मिट्टी में छिपे हुए अकशेरुकी जीवों की संख्या बढ़ती है, जिससे ‘जीवन की एक छिपी हुई ध्वनि’ उत्पन्न होती है।

रॉबिन्सन की किताब ट्रीवाइल्डिंग पर्यावरण और वन पुनर्स्थापना पर एक अद्भुत अध्ययन है। यह पाठकों को सोचने पर मजबूर करती है कि जंगलों के संरक्षण के लिए सिर्फ पेड़ लगाना पर्याप्त नहीं है, बल्कि एक समग्र दृष्टिकोण की ज़रूरत है जो पारिस्थितिकी, स्थानीय समुदायों, और विज्ञान के गहरे परस्पर सम्बंधों को समझ सके। (स्रोत फीचर्स)

लघुकथाः श्रम बनाम शर्म

- ट्विंकल तोमर सिंह

उन्हें हँसने की आवाज़ फिर से सुनाई दी। कई दिनों से ऐसा हो रहा था। थुलथुल काया के स्वामी बड़े साहब जैसे ही ट्रेडमिल पर पाँव धरते, किसी की खिल्ली उड़ाती हँसी की आवाज़ आती, जबकि कमरे में उनके सिवा कोई नहीं था। उनके फिटनेस ट्रेनर ने कहा था- आधे घण्टे रोजाना दौड़ना है, तो वे दौड़े जा रहे थे....दौड़े जा रहे थे....हाँफते जा रहे थे...मगर बढ़ा हुआ पेट था कि एक मिलीमीटर भी अपना व्यास कम करने तैयार नहीं था। हँसने की आवाज़ दुबारा आई। अबकी बार बड़े साहब ने ध्यान से सामने देखा।

उनकी कोठी के सामने वाली ख़ाली जगह में एक इमारत उगाई जा रही थी। उनकी आलीशान कोठी की काँच की दीवारों के पार बड़े साहब को वहाँ कुछ मजदूर दिखाई दे रहे थे। वे दुबले- पतले मजदूर सिर पर ईटें ढोते हुए सीढ़ियाँ चढ़ रहे थे। साहब को भ्रम हुआ कि उन मजदूरों के पतले और पिचके पेट उनके बढ़े हुए पेट की मुँह दबाकर खिल्ली उड़ा रहे हैं। पसीना पोंछकर वे ट्रेडमिल पर दोबारा दौड़ने लगे। हँसी की आवाज़ उनके साउंड प्रूफ़ कमरे में और ज़ोर से गूँजने लगी।


स्वास्थ्यः कितना सेहतमंद है बोतलबंद पानी

  -  सुदर्शन सोलंकी

भारत में पानी की गुणवत्ता का हमारे स्वास्थ्य पर काफी प्रभाव पड़ता है। यदि पेय जल प्रदूषित हो तो यह ज़हर के समान हो जाता है। वर्तमान में पर्यावरण प्रदूषण इस हद तक बढ़ गया है कि ज़्यादातर जल स्रोत प्रदूषित हो गए हैं। समूचा विश्व जल संकट का सामना कर रहा है। ऐसे में सभी लोगों को शुद्ध व स्वच्छ पेयजल मिल पाना अपने आप में एक चुनौती हो गई है।

कुछ सालों पहले से बोतलबंद पानी दुनिया भर के बाज़ारों में बिकना शुरू हुआ। जिसे कंपनियों ने यह कहकर बेचना शुरू किया था कि यह स्वच्छ, शुद्ध और खनिज युक्त है। जिसे वास्तविकता मान कर लोग इसे धड़ल्ले से खरीदने लगे हैं। पर क्या वास्तव में बोतलबंद पानी खनिज युक्त होता है? और क्या यह हमारे स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है?

पहले तो यह स्पष्ट करते चलें कि बाज़ार में बिकने वाला हर बोतलबंद पानी मिनरल वॉटर नहीं होता है। मिनरल वॉटर वह पानी होता है जो ऐसे प्राकृतिक स्रोतों से भरा जाता है जहाँ के पानी में कई लाभदायक खनिज तत्त्व पाए जाते हैं। यह स्वास्थ्यवर्धक लवणों, खनिजों से भरपूर और ऑक्सीजन युक्त होता है। जो स्वाद में अच्छा और स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद होता है।

बाज़ार में उपलब्ध अधिकतर बोतलबंद पानी पैकेज्ड ड्रिंकिंग वॉटर होता है। पैकेज्ड ड्रिंकिंग वॉटर नल से आने वाला सामान्य पानी होता है जिसे फिल्टर से छान कर, रिवर्स ऑस्मोसिस, ओज़ोन ट्रीटमेंट आदि से साफ करके पैक कर दिया जाता है।

इसी प्रकार, लोगों में आरओ सिस्टम को लेकर भ्रांति है कि इससे नितांत शुद्ध व स्वच्छ जल मिलता है;  किंतु वास्तव में आरओ सिस्टम से गुज़रा हुआ पानी भी सेहत को नुकसान पहुँचा सकता है। कारण, क्योंकि आरओ सिस्टम में लगे फिल्टर कुछ दिनों बाद ही पानी को साधारण तरीके से फिल्टर करने लगते है।

बोतलबंद पानी को लेकर अमेरिका में हुई रिसर्च से पता चला है कि बोतलबंद पानी में प्लास्टिक के खतरनाक कण मिल रहे हैं। अमेरिकी संस्था नेचुरल रिसोर्सेज़ डिफेंस काउंसिल के अनुसार बोतल बनाने में एन्टिमनी का उपयोग किया जाता है। इस वजह से बोतलबंद पानी को अधिक समय तक रखने पर उसमें एन्टिमनी की मात्रा घुलती जाती है। इस रसायन युक्त पानी को पीने से कई तरह की बीमारियाँ होने लगती हैं।

स्टेट युनिवर्सिटी ऑफ न्यूयॉर्क के वैज्ञानिकों ने दुनिया भर में बोतलबंद पानी पर शोध कर बताया है कि भारत सहित दुनिया भर में मिलने वाले बोतलबंद पानी में 93 फीसदी तक प्लास्टिक के महीन कण देखे गए हैं।

इसके अतिरिक्त जिन प्लास्टिक की बोतलों में मिनरल या फिल्टर वॉटर बिकता है। वे पॉलीएथिलीन टेरीथेलेट (PET) की बनी होती हैं। जब तापमान अधिक होता है या गर्म पानी बोतल में भरा जाता है, तो बोतल में डायऑक्सिन का रिसाव होता है, और यह पानी में घुलकर हमारे शरीर में पहुँच जाता है। इसके कारण महिलाओं में स्तन कैंसर का खतरा बढ़ जाता है।

बोतलबंद पानी पर्यावरण को भी नुकसान पहुँचा रहा है। पैसिफिक इंस्टीटयूट के अनुसार अमेरिकी लोग जितना मिनरल वॉटर पीते हैं, उसे बनाने में 2 करोड़ बैरल पेट्रो उत्पाद खर्च किए जाते हैं। एक टन बोतलों के निर्माण में तीन टन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन होता है। मिनरल वॉटर को बनाने के लिए दुगना पानी खर्च करना पड़ता है। अर्थात् एक लीटर मिनरल वॉटर बनाने पर दो लीटर साफ पानी खर्च करना पड़ता है। 

इसके अलावा बोतल का पानी तो हम पी जाते हैं; लेकिन बोतल कहीं भी फेंक देते हैं, जो पर्यावरण को क्षति पहुँचाती है। इसके अतिरिक्त दुनिया भर में जहाँ भी इन कंपनियों ने अपने बॉटलिंग प्लांट लगाए हैं, वहाँ भूजल स्तर बहुत तेज़ी से नीचे चला गया और इसका खामियाजा उस इलाके में रहने वाले लोगों को उठाना पड़ता है। 

स्पष्ट है कि शुद्ध और स्वच्छ जल के नाम पर बिकने वाला बोतलबंद पानी लोगों और पर्यावरण दोनों को नुकसान पहुँचा रहा है। साथ ही प्लास्टिक की बोतल के निर्माण के दौरान होने वाली अतिरिक्त जल की बर्बादी से भूजल स्तर में कमी हो रही है। पेयजल का कोई सुरक्षित विकल्प खोजना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए।  (स्रोत फीचर्स) ■

दोहेः नेकी कर...


  -  डॉ. उपमा शर्मा

1.

शब्दों के भी हैं यहाँ, तीखे-मीठे स्वाद।

कभी दिलाते मान ये, जन्मे कभी विवाद।

2.

जल लेता वो सिंधु से, करता धरा निहाल।

मेघों से धरती हरी, हारा तभी अकाल।

3.

पीने को पानी नहीं, रख मानव यह ध्यान।

दूषित कीं नदियाँ अगर, खतरे में फिर जान।

4.

नहर, नदी, पोखर सभी, सूख रहे हैं ताल।

पानी बिन जीवन नहीं, रखिए इसे सँभाल।

5.

बूँद- बूँद है कीमती, मत करना बरबाद।

 दूषित पानी देखकर, नदी करे फरियाद।

6.

हुआ स्वयंवर फूल का, तकता अलि की राह। 

वो बगिया मँडरा रहा, उसको मधु की चाह। 

7.

तुम जो मेरे साथ हो, आ जाए ठहराव।

 हिचकोले खाए नहीं, जीवन की यह नाव।

8.

जीते नित ही झूठ अब, सच पर उठे सवाल। 

नेकी कर बस इसलिए, दे दरिया में डाल।

सम्पर्कः बी-1/248,यमुना विहार, दिल्ली-110053


व्यंग्यः बड़ा सोचने पर कोई जीएसटी नहीं लगता

  - जवाहर चौधरी

“बाउजी अपना तो मानना है कि आदमी को अपनी लड़ाई खुद लड़ना पड़ती है । और लड़ाई वही जीतता है जिसके हौसले बुलंद होते हैं। वो कहते हैं ना ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत’। कल अपन ने बंगला देखा एक। मार्केट में बिकने को आया है। पाँच करोड़ माँग रहा है। दो मंजिला है। आगे पोर्च भी है और पीछे वाश एरिया है बड़ा सा। थोड़े पेड़ भी लगे हैं। अच्छा है।” मनसुख ने बताया। 

“पाँच करोड़ का बंगला! फिर!?” 

“फिर क्या! अभी तो दो तीन बार और देखेंगे। मिसेस को भी ले जाऊँगा। वह भी देख लेगी अच्छे से, अन्दर बाहर सब। उसको भी बड़ा शौक है।”

“मनसुख पाँच करोड़ का बंगला कैसे ले लोगे तुम?”

“पाँच तो बोल रहा है। टूटेगा अभी कुछ दिन बाद। प्रापर्टी में ऐसा ही होता बाउजी। लोग मूँ फाड़ते हैं, पर मिलता थोड़ी है।”

“फिर भी कितना टूटेगा? ढाई करोड़ से नीचे तो जाएगा नहीं।”

“वो कुछ भी बोले अपन तो दो करोड़ लगाएँगे बस।” 

“दो करोड़ में कैसे दे देगा? ”

“तो नहीं दे। मेरे पास कहाँ हैं दो करोड़। अपनी कोई लाटरी थोड़ी लगी है।” 

“जब रुपये हैं नहीं, तो क्यों जाते हो प्रापर्टी देखने?” 

“मेंगाई कित्ती है बाउजी। तनखा में कुछ पुरता थोड़ी है। महीने के आखरी चार पाँच दिन तो समझो बड़ी मुस्किल से कटते हैं। मन मर जाने को करता है।” 

“ऐसे में करोड़ों का मकान देखने का क्या मतलब है मनसुख!”

“अन्दर से मजबूती बनी रहती है। बाउजी हौसला बुलंद होना चइये। गरीब आदमी के पास अगर हौसला भी नहीं हो तो लड़ेगा कैसे। ड्रायवरी का ये मजा तो है कि सेठ जी की बड़ी कार लेके कहीं भी जाने का मौका मिल जाता है और प्रापर्टी देख लेते है ठप्पे से। ... अभी तो एक जमीन भी देखी अपन ने। तीस किलोमीटर पे है। सत्तर करोड़ माँग-रा है। अच्छी खातिरदारी करी किसान ने। अपन ने तीस करोड़ लगा दिए हाथो हाथ।”

“तीस करोड़!!” 

“अरे देगा थोड़ी। पचास से नीचे नहीं आएगा वो। पर जमीन अच्छी है। खेती होती है। फलों के पेड़ भी हैं, दो कुएँ और तीन बोरवेल हैं। मोटर लगी हुई है। अपने को कुछ-नी करना है। चलती हुई प्रापर्टी है। रजिस्ट्री कराओ और हाँको-जोतो मजे में।” 

“किसी दिन फँस मत जाना यार तुम। जिंदगी भर चक्की पिसिंग करते रह जाओगे।”

“फँसे हुए तो हैं ही बाउजी गले- गले तक। दो महीने का मकान किराया चढ़ गया है। मकान मालिक तगादे करता है। टालने के लिए अन्दर से दमदारी चइए। सोच में करोड़ों हों तो कान्फिडेंस बना रहता है। मेंगाई से तो आप भी कम परेशान नहीं हो। चलो किसी दिन आपको भी कुछ प्रापर्टी दिखा देता हूँ। फिर देखना आप, सोच ही बदल जाएगी, लगेगा अच्छे दिन आ गए।”

“रहन दे भिया। झोले में नहीं दाने और अपन चले भुनाने।”

“ऐसा नहीं हैं बाउजी। कार चलता हूँ ; लेकिन सोच ये रखता हूँ कि कार मेरी है, सेठ तो बस सवारी है। वोट भी मैं प्रधानमंत्री को ही देता हूँ, चाहे पार्षद का चुनाव हो रहा हो। बड़ा सोचने पर कोई जीएसटी नहीं लगता है। और ये भी हो सकता है कि किसी दिन भगवान तथास्तु बोल दें।” 

सम्पर्कः BH 26 सुखलिया, भारतमाता मंदिर के पास, इंदौर- 452010,  मो. 940 670 1 670  

बाल कविताः प्यारे मामा

 - प्रियंका गुप्ता






प्यारे मामा आओ न,

खेल-खिलौने लाओ न,

छुट्टी हुई है खेलेंगे अब,

पढ़ने को समझाओ न।


नई कहानियाँ सुनाओ न,

हँसी-मजाक में उलझाओ न,

तितली, फूल, और तारों की,

दुनिया हमें दिखाओ न।


चॉकलेट और मिठाई लाओ,

साथ में मिलकर खाओ न,

बाग-बगीचे घूमें हम सब,

झूला हमें झुलाओ न।


गाना-गाना सिखाओ न,

ढोलक पर थिरकाओ न,

खेल-खेल में सीखें हम,

प्यारी बातें बताओ न।


रात को तारे गिनते हैं,

चाँद की बातें करते हैं,

नींद की रानी आएगी,

परियों की कथा सुनाओ न।


मामा, मामा प्यारे मामा,

हमको कभी ना भूलो न,

छुट्टियों में तो मिलते रहना,

सपनों में भी आओ न।

priyanka.gupta.knpr@gmail.com, 

www.priyankakedastavez.blogspot.com



कहानीः मैं कठपुतली नहीं

  -  अर्चना राय 

हाइवे के स्मूथ रास्ते पर चलती गाड़ी अचानक से कच्चे  उबड़- खाबड़, पथरीले रास्ते पर आ जाने से गाड़ी ही नहीं उसके अंदर बैठा इंसान भी पूरी तरह से हिल जाता है। आज शेफाली वैसे ही फील कर रही थी। उसकी जिंदगी में ये तूफान भी आना था, उसने सपने में भी नहीं सोचा था। 

रात के दो बजने को थे पर उसकी आँखों से नींद कोसों दूर थी। रह- रहकर उसके जेहन में करन की यादें दस्तक दे रहीं थीं। जिन यादों को उसने अपनी शादी की हवन वेदी में स्वाहा कर दिया था। वो यादें तो एक पल में उसके सामने यूँ आ खड़ी हुई जैसे कहीं गई ही नहीं थी।  वह तो केवल जिंदगी में आगे बढ़ जाने के झूठे भ्रम में जी रही थी। 

आज पार्टी में करन को देखने के बाद उसे लगा जैसे सालों का सफर पल में ही तय कर लिया हो और आज भी वह वहाँ खड़ी है। अपने करन की बलिष्ठ बाहों के घेरे में सुरक्षित। ये वही घेरा तो था जहाँ शेफाली अपने आप को सबसे सुरक्षित पाती थी। 

करन उसके बचपन का साथी ही तो था। जिसके साथ घर- घर खेलते...कभी लड़ते तो कभी झगड़ते वो दोनों कब एक -दूसरे के दिल में जगह बनाकर अपने भविष्य के घरौंदे का सपना सँजो बैठे, उन्हें खुद भी पता नहीं चला था। 

अब तो शेफाली के दिन की शुरुआत करन के नाम से और रात उसी के नाम से खत्म होती थी। रोज रात चोरी छुपे शेफाली के घर की छत पर हाथों में हाथ थामे घंटों चाँद को निहारना और अपने भविष्य के सपने बुनना जैसे उन का रोज का शगल हो गया था। 

"हमारा घर पहाड़ों पर होगा। जिसकी बालकनी से बर्फ से ढ़के पहाड़ और देवदार के लंबे- लंबे पेड़ दिखाई देते हों। और हाँ घर के सारे काम तुम्हें खुद करने होंगे, खाना बनाना, साफ सफाई करना और सबसे जरूरी काम...मुझे ढ़ेर सारा प्यार करना होगा। समझे इस पर मुझे कोई बहस नहीं चाहिए। सोच लो वरना शादी कैंसिल।" शेफाली की नादानी भरीं बातें सुनकर करन मुसकुराकर बस उसकी हाँ में हाँ मिलाता जाता। अपनी बातें मनवाने के बाद शेफाली जोर से खिलखिला कर हँस देती। और करन उसकी इसी निश्छल हँसी पर सारा जहान कुर्बान करने तैयार रहता। करन अपने इस सपने के घर को हकीकत बनाने एक अच्छी सी नौकरी पाने जी जान से कोशिश में लगा था। 

प्यार भरे दिन ऐसे ही पंख लगाकर उड़ रहे थे। पर कहते हैं न इश्क़ और मुश्क छुपाए नहीं छिपता। तो उनका प्यार कैसे दुनिया की नजरों से छिप जाता। 

फिर वही जमाने भर के ताने- उलाहनें... ऊँच- नीच की बातें,...इज्जत का वास्ता...क्या कुछ नहीं सुना शेफाली ने फिर भी करन के लिए उसका प्यार जरा भी कम नहीं हुआ।

 वहीं किसी अनहोनी की आशंका से डरे पापा ने उसकी शादी के लिए जोर शोर से लड़के की तलाश शुरू कर दी। और आखिरकार एक दिन शेफाली का रोहन से  रिश्ता पक्का कर दिया।

शेफाली करन से किसी भी परिस्थिति में  दूर नहीं होना चाहती थी। वह तो अपने सच्चे प्यार की परिणति शादी के रूप में चाहती थी। जिसके लिए उन्हें कोई भी दीवार क्यों न लांघनी पड़े। 

ऐसे ही एक रात शेफाली अपना सारा सामान सूटकेस में पैक कर घर से भागने की तैयारी में थी। यहाँ से दूर अपने करन के पास जाकर एक नई दुनिया बसाने के सपने को सजाए। 

एक आखिरी बार अपने माँ- पापा को देखने चुपचाप उनके कमरे में आकर उसने महसूस किया कि अचानक से पापा के चेहरे पर उभर आई झुर्रियाँ  और गहरी होती महसूस होने लगी।

 क्या कुछ नहीं किया पापा ने उसकी खुशी के लिए बचपन से लेकर अब तक पापा से मिला प्यार और दुलार उसके सामने चलचित्र की भाँति घूम गया। 

अरे वह तो अपने पापा का गुरूर थी। आज कैसे उन्हीं पापा के लिए कलंक बनने जा रही थी। सोचकर ही उसकी रूह काँप गई। बदहवास- सी बस अपने कमरे में चली आई। सारी रात आँसुओं के साथ कभी अपने प्यार को तो कभी अपने पापा के दुलार को तौलती रही। आखिरकार अपने प्यार की कुर्बानी देकर अपने फर्ज को चुन लिया। और रोहन से शादी कर करन से दूर एक नए शहर में चली आई थी। 

कहने को तो शादी करके शेफाली, रोहन की पत्नी बन गई थी; पर उससे कभी मन से जुड़ न सकी; क्योंकि अपने हिस्से का प्यार तो वह पहले ही करन से कर चुकी थी। अब उसके दिल में न तो जज्बात बचे,  थे न ही अहसास। अब था तो केवल खालीपन और कभी खत्म न होने वाली उदासी और पत्नी  होने का फर्ज। 

रोहन एक सीधा- साधा आम लड़का जिसकी कोई बड़ी न तो चाहतें थी न ही जरूरतें।

इसलिए उन्हें एक-दूसरे के साथ एडजस्ट करने में कोई परेशानी नहीं हुई। ऊपर से देखने पर दोनों की खुशहाल गृहस्थी दिखती थी;  पर असल में वहाँ खुशी थी ही नहीं। था तो केवल फर्ज। 

हालाँकि रोहन को शेफाली को देखते  ही उसे से पहली नजर वाला प्यार हो गया था।  रोहन जब तब,...जब भी मौका मिलता,  शेफाली से अपना प्यार जता ही देता;  पर शेफाली की तरफ से कोई सकारात्मक उम्मीद न दिखती। शेफाली ऐसे क्यों करती है। वह समझने की कोशिश तो बहुत करता; पर कभी समझ नहीं पाया। समय के साथ सब ठीक हो जाएगा और शेफाली  उससे भी प्यार जताएगी इस उम्मीद की डोर थामे रहता। 

जिस तरह बंजर जमीन पर  खाद और पानी से सींचा जाए, तो वह भी हरियाली से लहलहा उठती है। जिस तरह बूँद- बूँद गिरता पानी पत्थर पर निशान छोड़ जाता है, उसी प्रकार रोहन के प्यार, परवाह और विश्वास से शेफाली  के दिल में उसके लिए प्यार के अंकुर आखिर फूट ही गए। दोनों ही एक दूसरे का साथ और अटूट प्यार पाकर खुश और संतुष्ट  थे। शेफाली  का साथ पाकर रोहन तरक्की पर तरक्की पाकर सफलता के नए आयाम गढ़ रहा था। 

कमरे में लगी घड़ी ने टन- टनाकर तीन बजने का संकेत दिया। शेफाली ने करवट बदलकर सोने की कोशिश की; पर नाकाम रही। उसके जेहन में शाम की घटना चलने लगी थी। 

रोहन के प्रमोशन के उपलक्ष्य में उसके बॉस ने एक पार्टी रखी थी, जिसमें रोहन के बार-बार कहने पर शेफाली  इस पार्टी में चली आई थी। पर रोहन का बॉस और कोई नहीं,  करन निकला। करन को देखकर शेफाली  घबराकर तबीयत खराब होने का बहाना करके पार्टी से निकल आई। 

रोहन के पूछने पर उसने भी उससे कुछ नहीं छिपाया। अपना और करन का सारा अतीत रोहन के सामने खोलकर रख दिया।

सच सुनकर रोहन को लगा, जैसे उसे अचानक से आसमान से धरती पर ला पटका हो। एक पल में ही उसका संसार उजड़ गया। 

आज बादल भी टूट के बरस रहे थे। बाहर होती झमाझम बारिश और रोहन के अंदर का तूफान न जाने कौन सी कयामत की दस्तक थी। उसके अंदर उठते ज्वार- भाटा जैसे सारे किनारों को तोड़ सब कुछ बहा लेने पर आमादा थे। 

उसके दिल और दिमाग में एक जंग- सी छिड़ गई थी। 

दिमाग कहता- "शेफाली  उसकी पत्नी है। इसलिए शेफाली  पर केवल उसका ही हक है।" 

वहीं दिल कहता- "पत्नी तो है; पर प्यार किसी और से करती है। और प्यार में दिया जाता है लिया नहीं। "

"नहीं, प्यार और जंग में सब कुछ जायज है।" दिमाग झल्लाया। 

दिल और दिमाग की जंग आधी रात तक उसे सही गलत के हिंडोले पर झुलाती रही। और उसकी आँख कब लग गई पता भी नहीं चला। और जब उसकी आँख खुली तो सब कुछ शांत और सुहावना था। रात का तूफान थम चुका था। मन भी काफी हद तक शांत हो चुका था। 

"रोहन मैंने तुमसे अपना अतीत छुपाया है। मैं तुम्हारी गुनहगार हूँ। मुझे माफ कर दो,...पर यकीन मानो मेरा इरादा तुमसे कुछ छुपाने या धोखा देने का नहीं था। बस तुम्हें पापा से किए वायदे की वजह से बता नहीं पाई।" शेफाली  उसके पास आकर सुबकते हुए बोली। 

अचानक  सामने से  करन को आता देखकर, शेफाली  के पैरों के नीचे से जमीन खिसकती महसूस हुई।  उसे रोहन ने ही फोन करके बुलाया था। उसकी सोचने समझने की शक्ति मानो खो- सी गई थी। लड़खड़ाकर वह वहीं सोफे पर बैठ गई। 

करन, जिसने उसे प्यार का अहसास कराया था, तो दूसरी ओर रोहन जिससे उसका सात जन्मों का बंधन बँधा था। दोनों ही अपने- अपने प्यार की कुर्बानी देने आमादा थे। रोहन, शेफाली  को उसका प्यार लौटाना चाहता था, तो  करन शेफाली  को रोहन के साथ खुश देखना चाहता था। 

दोनों ही अपने- अपने तर्कों के साथ अपनी बात पर अड़े थे। वे तो शेफाली  के वहाँ होने से भी बेखबर बिना ये सोचे समझे कि शेफाली  क्या चाहती है। अपना फैसला सुना रहे थे। 

"मन -ही- मन सोच एक स्त्री होने की नियति पर आँसू बहाती शेफाली  ने महसूस किया कि जैसे उसका वजूद है ही नहीं। वह तो  कभी रोहन तो कभी करन की उँगलियों के इशारों पर  नाच रही है। एक कठपुतली बनकर...

 उसने अपने उमड़ते  भावों को समेटा। दोनों की ओर संकेत करके बोली- ‘‘आप दोनों ने मुझसे भी कुछ पूछा है क्या?  मैं आप दोनों की इच्छा पर नाचने वाली कठपुतली नहीं। मैं इस घर का द्वार छोड़कर कहीं जाने वाली नहीं; इसलिए आप अपने आदर्श, त्याग सब कुछ अपने पास रखिए,’’- वह तेजी से घर के भीतर चली गई।