यह सच है कि दुःख बहुत सताता है, पर सच मानो, जीने का सच्चा अर्थ समझाता भी यही है। हम लगातार न तो अंधेरे में रह सकते हैं और न ही उजाले में। जीवन का यह सत्य तो दूसरी जगह पर भी लागू होता है। सुख है, तो दुःख भी आएगा और दुःख है, तो सुख भी आएगा ही। दुःख की घड़ियाँ इंतजार की तरह होती है, काफी लम्बी लगती हैं, पर सुख के पल यानी सुबह की नींद। एक पल में एक घंटा बीत जाता है। मानव जीवन में सदैव सुख की खोज में ही लगा रहता है। दुःख को वह अपने करीब लाना ही नहीं चाहता। लोग आशीर्वाद स्वरूप सुखी होने की ही कामना करते हैं। सुखी जीवन की तलाश पूरे समय चलती रहती है, उसके बाद भी सुख की प्रतिछाया भी दिखाई नहीं देती। मानव का दुःख से बचना यही दर्शाता है कि वह चुनौतियों को स्वीकार नहीं करना चाहता। चुनौतियों से पलायन एक ऐसी मानसिक दशा है, जिसका कोई सार नहीं है। विपत्तियाँ इंसान को तराशने का काम करती हैं, यह हमें नहीं भूलना चाहिए।
जीवन में सुख और दुःख का आपस में गहरा संबंध है। अधिकांश लोग जीवन में सुख चाहते हैं और दुख से बचना चाहते हैं, परंतु वास्तविकता यह है कि सुख और दुख दोनों ही जीवन के अभिन्न अंग हैं। दुःख के बिना सुख का मूल्य नहीं समझा जा सकता और सुख के बिना दुख असह्य हो जाता है। ये दोनों अनुभव हमें जीवन में सीख देते हैं और हमें मजबूत बनाते हैं। यही इनकी विशेषता है और यही हमें जीवन की गहराई को समझने में मदद करता है। जबकि आत्मिक सत्य की प्राप्ति हमें शाश्वत आनंद का मार्ग दिखाती है। आत्मा से आत्मिक सत्य की प्राप्ति का अर्थ है सुख- दुःख के द्वंद्व से परे ऐसी आंतरिक अवस्था पाना, जहाँ शाश्वत शांति और आनंद का अनुभव हो। यह आनंद बाहरी कारणों पर नहीं, बल्कि आत्मा की पवित्रता, तत्व की शुद्धता और आत्मिक स्थिरता पर आधारित होता है।
सुख और दुःख भी आंतरिक द्वंद्व हैं – ये मानव जीवन के दो मूलभूत अनुभव हैं, जैसे सिक्के के दो पहलू। हमारे आत्मिक सत्य की गहराई को समझने और जानने के लिए सुख-दुख के अनुभवों को समझना आवश्यक है; क्योंकि ये तीनों आपस में गहराई से जुड़े हुए हैं। जीवन में सुख वह अवस्था है जिसमें मन संतोष, आनंद और शांति का अनुभव करता है। यह किसी भौतिक वस्तु की प्राप्ति, इच्छा की पूर्ति या किसी सकारात्मक घटना के कारण उत्पन्न होता है। लेकिन ऐसा सुख प्रायः क्षणिक होता है; क्योंकि यह बाहरी परिस्थितियों पर निर्भर करता है। इसी प्रकार दुख वह अवस्था है जिसमें मन पीड़ा, शोक, असंतोष या निराशा का अनुभव करता है। यह किसी वस्तु के खो जाने, इच्छा अधूरी रह जाने या किसी नकारात्मक घटना के कारण उत्पन्न होता है। दुःख भी सुख की तरह क्षणिक होता है और बाहरी कारणों पर आधारित होता है।
देखा जाए, तो सुख- दुःख दोनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं। तेज चिलचिलाती धूप के बाद किसी ठंडे स्थान पर आने के बाद ही हमें पता चलता है कि गर्मी के बाद मिली ठंडक कितना सुकून देती है। इसी तरह सघन अंधेरी लम्बी रात गुजारने के बाद जब सुबह की आहत होती है, तो बेचैन मन को कितनी तसल्ली मिलती है, यह भुक्तभोगी ही जान सकता है। हानि की गहन निराशा के बीच लाभ की एक छोटी-सी किरण भी किसी निष्प्राण व्यक्ति के भीतर प्राणों का संचार कर सकती है, इसे भला कौन समझ सकता है। लम्बे समय तक दुःख सहने के बाद प्राप्त होने वाले सुख का आनंद ही कुछ और है।
इसलिए दुःख है, तो यह न समझें कि सुख आएगा ही नहीं। यदि सुखमय जीवन जी रहे हैं, तो दु:खमय जीवन की भी कल्पना कर लेना चाहिए। क्योंकि यह जीवन के दो पहलू हैं। एक के बाद एक का आना लगा ही रहता है। मानव का स्वभाव ही आनंदस्वरूप, सत्यस्वरूप और परमात्मस्वरूप है। इस प्रकार आनंद और आत्मिक सत्य मानव के आंतरिक स्वभाव और उसकी पहचान से जुड़ा हुआ है। आत्मिक सत्य शाश्वत आनंद का शाश्वत मार्ग है। जब इसे भीतर से जाना और अनुभव किया जाता है, तभी जीवन सत्य धर्म और शुद्ध धर्म का अनुसरण करता है, जहाँ आत्मा का हर्षोल्लास शाश्वत रूप से बना रहता है।
आत्मिक सत्य को पहचानने का अर्थ है अपनी सच्ची पहचान को अपने भीतर आत्मसात कर लेना। हमारा शरीर, मन या भावनाएँ नहीं हैं, बल्कि एक शाश्वत, अपरिवर्तनशील आत्मा हैं। और आत्मा परमात्मा का ही अंश है,जो पूरी तरह से आनंदस्वरूप है। सत् का अर्थ ही है अस्तित्व और चित् का अर्थ है चेतना। आनंद का अर्थ है आत्मा का हर्षोल्लास। यही है आत्मिक सत्य की अनुभूति- सत्- चित्-आनंद। ये सब हमें प्राप्त हो सकता है आंतरिक साधना से। इसके लिए बाहरी साधना की कतई आवश्यकता नहीं होती।
मानव लगातार न सुखी रह सकता है, न ही दुःखी । जितना दुःखी प्राणी होगा, उतना ही सुख का भागी भी होगा। पर दुःख उसे इतना अधिक निराश कर देता है कि वह सुख की कल्पना ही नहीं कर पाता। इसी तरह जब वह सुखी होता है, तो जरा-भी नहीं सोचता कि इसके बाद दुखों का दौर भी आना है। वह सुख को स्थायी समझता है, जो अनुचित है। दोनों ही स्थितियों को सहजता से स्वीकार करना ही जीवन का मूल उद्देश्य है। भटकाव तब आता है, जब हम केवल सुख की ही कल्पना करते हैं। आखिर में केवल एक बात...क्या आप लगातार अँधेरे में रह सकते हैं या फिर क्या आप लगातार रोशनी के बीच रह सकते हैं। अँधेरे के बाद रोशनी की आवश्यकता पड़ेगी ही और रोशनी के बाद अँधेरे की आवश्यकता पड़ेगी। जब जीवन में दोनों का होना ही आवश्यक है, तो फिर केवल सुख की कल्पना करना कहाँ तक उचित है? एक बात तय है कि दुःख बहुत सताता है, पर जीने का सच्चा अर्थ यही समझाता भी है।
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