संथाल आदिवासी बच्चों का स्कूल
- बाबा मायाराम
“जब
हम गाँवों में जाते थे, नागरिक अधिकारों पर बात करते थे,
लिखा हुआ दिखाते थे,
तो लोग पूरी तरह
समझ नहीं पाते थे, मन में शंका रह जाती थी। हमें महसूस हुआ कि यह शिक्षा की
कमी की वजह से है। इसलिए हमने तय किया कि हम अगली पीढ़ी को शिक्षित करेंगे,
यहीं से बच्चों के
स्कूल की सोच बनी और यह स्कूल बना।”
यह रेवा मुरमू थीं, जो मुझे उनके गाँव के स्कूल की कहानी सुना रही थीं।
पश्चिम बंगाल के
बांकुड़ा जिले के गाँव छाचनपुर में यह स्कूल स्थित है। इस स्कूल का नाम लक्ष्मी
मुरमू स्मृति शिशु विद्यालय है। कोलकाता के पश्चिम में 250 किलोमीटर दूरी पर यह
गाँव है। छाचनपुर, एक छोटा संथाली गाँव है।
दारकेश्वर नदी के किनारे बसा है। यही नदी साल के जंगल और गाँव को विभक्त
करती है।
मैं इस स्कूल को
देखने 21 सितंबर (2019) को गया था। मध्यप्रदेश से कोलकाता ट्रेन से लम्बी यात्रा
की थी। कोलकाता से छातना गया और फिर वहाँ से छाचनपुर पहुँचा। दिल्ली के आंबेडकर
विश्वविद्यालय में एम. फिल. की छात्रा अंकिता सान्याल के साथ मैं गया था। अंकिता,
उनके फील्ड वर्क के लिए छाचनपुर आती रहती हैं। इस चार घंटे
की ट्रेन यात्रा में हमने मसाला नींबू चाय का खूब आनंद लिया। मुझे यहाँ की
झालमुड़ी भी पसंद है, जो उस दिन नहीं मिली।
उस दिन मौसम साफ व
खुशनुमा था। आकाश में सफेद बादलों के गाले छितरे हुए थे। सुसनिया पहाड़ गहरा हरा
दिख रहा था। कहीं भी हो, पहाड़ सदैव आत्मा पर छा जाते हैं। मेरी नजरें बार-बार पहाड़
पर जाकर टिक जाती थीं। धान के हरे-भरे खेत लहलहा रहे थे। लेकिन बारिश कम होने से
यहाँ धान की खेती कमजोर थी। वहीं दूसरी ओर मध्यप्रदेश में हम अति वर्षा से फसलें
बर्बाद हुई हैं। यह विचार आते ही मैं थोड़ा मायूस हो गया।
इस स्कूल की कहानी
शुरू होती है एक सपने से, जिसे दो आदिवासी युवतियों ने देखा था। ये थीं लक्ष्मी मुरमू
और रेवा मुरमू। दोनों ही संथाल आदिवासी और गाँव में उनके समुदाय में पहली पीढ़ी की
पढ़ी लिखी लड़कियाँ थीं। दोनों ने ही कक्षा 10 तक पढ़ाई की थी। रेवा ने तो बाद में
अनौपचारिक तरीके से पढ़ाई पूरी की।
यह दोनों दोस्त
पुरूलिया जिले में स्वयं सहायता समूह ( एस.एस.जी.) का काम करती थीं। लेकिन इस
दौरान उन्हें महसूस हुआ कि उनकी बातें पूरी तरह गाँववाले नहीं समझ पाते हैं। अगर
पर्चों व किताब में लिखा हुआ बताते हैं तो वे पढ़ नहीं पाते,
इसका एक कारण उन्हें शिक्षा से वंचित होना लगा।
रेवा मुरमू,
छाचनपुर गाँव की थीं और लक्ष्मी मुरमू हापनिया गाँव की,
जो छाचनपुर से 25 किलोमीटर दूर है। रेवा की मुलाकात लक्ष्मी
से तब हुई जब वे वर्ष 1998 में पुरूलिया के एक गाँव में गैर सरकारी संस्था में काम
करती थीं। वे यहाँ संथाली महिलाओं के साथ स्वयं सहायता समूह में काम करती थीं।
रेवा और लक्ष्मी
खुद भी संथाली आदिवासी थीं, इसलिए जल्द ही उनका महिलाओं के साथ अच्छा रिश्ता बन गया। वे
उनमें घुल मिल गईं। उनकी पहल से यहाँ महिलाओं में जागरूकता आई। उनका काम बहुत
अच्छा चल रहा था कि अचानक संस्था का काम छूट गया।
कुछ समय बाद दोनों
छाचनपुर आ गईं, जो
रेवा का गाँव था। यहाँ उन्होंने घर बनाने के लिए जमीन खरीदी और धीरे-धीरे खुद अपने
हाथों से कच्चा मिट्टी का घर बनाया। घर आँगन की लिपाई पुताई की। थोड़ी स्थिति
संभली तो फिर बच्चों को पढ़ाने का सपना जागा, अनौपचारिक स्कूल चलने लगा।
छाचनपुर में 43 घर
हैं। छोटे-छोटे मिट्टी के खपरैल वाले और कहीं घास-फूस की झोपड़ियाँ भी। सुघड़ और
साफ-सुथरे। घरों के आगे पीछे हरे-भरे पेड़ पौधे हैं और हरी सब्जियाँ भी। यहाँ एक
तालाब भी है। जो पश्चिम बंगाल की संस्कृति का हिस्सा है। यहाँ हर गाँव में पोखर
तालाब होते हैं। मछली-भात ( माछ-भात,
भात यानी चावल) यहाँ का प्रमुख भोजन है। यहाँ की अधिकांश
आबादी गाँवों में रहती है।
यहाँ स्कूल नहीं है,
5 किलोमीटर दूर डुमडुमी गाँव जाना पड़ता है। ज्यादातर
आदिवासी छोटे किसान हैं या मजदूरी करते हैं। सभी आदिवासी हैं,
दो परिवार करमाकर के हैं। सरई पत्ता से दोना पत्तल बनाकर
बेचते थे। सरकारी स्कूल में पढ़ाई का स्तर अच्छा नहीं है।
मैंने अंकिता के
साथ गाँव का एक चक्कर लगाया। लोगों से मिला, बातें कीं। यहाँ के बुजुर्ग लखीराम हेम्राब ने बताया कि “पहले यहाँ शांति थी, सुकून था, अब चीजों की भूख बढ़ गई है। पहले हम कम चीजों से ही काम चला
लेते थे।”
यह इलाका पहले जंगल
से आच्छादित था। साल का घना जंगल था। अब उजड़ गया है। आदिवासियों का जीवन पूरी तरह
जंगल पर ही आधारित है। तेंदू, जाम, आम जैसे फल मिलते थे। जड़ी-बूटियों से लोग छोटी-मोटी
बीमारियों का इलाज कर लेते थे। रेवा के पिता खुद जड़ी-बूटी के जानकार थे। यानी आदिवासियों के पास जंगल,
पेड़ पौधे, जड़ी-बूटी का पारंपरिक ज्ञान, जैव विविधता की जानकारी और पर्यावरण संरक्षण की परंपरा थी।
जब जंगल नहीं रहा तो अधिकांश लोग मजदूरी करने लगे।
रेवा मुरमू बताती
हैं कि इन स्कूलों में एक संथाली भाषा नहीं पढ़ाई जाती,
इसलिए हमारे बच्चों को भाषा की दिक्कत का सामना करना पड़ता
है। वे संथाली जानते हैं और पढ़ाई होती है बांग्ला में,
इसलिए वे समझ नहीं पाते हैं। दूसरी बात यह है कि 5 वीं
कक्षा के छात्र ठीक से लिख-पढ़ नहीं सकते, यानी वे स्कूल तो जाते हैं, पर वहाँ ठीक से पढ़ाई नहीं होती। इसलिए हमने बच्चों की
पढ़ाई शुरू की।
शाम को जब काम धंधे
से बच्चे घर लौटते तो वे रेवा के घर इकट्ठे होते, गपशप करते और पढ़ते। स्कूल चलने लगा। लेकिन इस बीच एक झटका
तब लगा जब लक्ष्मी मुरमू को कैंसर हो गया और उनकी वर्ष २०१३ में असमय मृत्यु हो गई
।
लेकिन रेवा मुरमू
ने हिम्मत नहीं हारी। उन्हें एक्शन एड नामक संस्था से फैलोशिप मिली और अरूणपोल सील
का साथ भी, जो
एक्शन एड से जुड़े थे। अरूणोपोल जैसे संवेदनशील युवा शोधकर्ता का साथ मिलने से फिर
स्कूल की रचनात्मक सोच को पंख लग गए।
अनौपचारिक शिक्षा
के काम में कई व्यक्तियों व संस्थाओं ने सहयोग किया। कोलकाता के गाँधीवादी
कार्यकर्ता काजल सेनगुप्ता ने इसमें मदद की। उन्होंने शिक्षा की इस पहल पर लेख
लिखा जिसका असर हुआ कि किशोर भारती ट्रस्ट भी इस काम में जुड़ गया। इस ट्रस्ट के
सदस्यों ने यहाँ का दौरा किया और इस काम में मदद करने का निर्णय लिया। शैक्षणिक
पाठ्यक्रम तैयार करने में और आर्थिक रूप से भी सहयोग किया। और अंत में तय किया गया
कि लक्ष्मी मुरमू की याद में एक स्कूल शुरू किया जाए,
क्योंकि वह संथाली समुदाय में सामाजिक बदलाव की एक प्रेरणा
बन गई थी।
इस स्कूल का नाम भी
लक्ष्मी मुरमू की याद में रखा गया- लक्ष्मी मुरमू स्मृति शिशु विद्यालय। इसकी
शुरूआत 26 जनवरी, 2015 में हुई।
यह एक छाचनपुर और
पड़ोसी गाँवों के लोगों के लिए यह एक सामूहिक प्रयास है। यह संथाली बच्चों का
स्कूल है,
जिसकी पहल गाँव की ही आदिवासी महिलाओं ने की थी। यह एक ऐसा
स्कूल है जिसे आदिवासी महिलाएँ चला रही हैं। लोहार और करमाकर समुदाय की महिलाओं का
भी सहयोग है। इस स्कूल का मुख्य जोर आदिवासी और हाशिये के समुदायों के बच्चों को
पढ़ाना है, जो
अब तक शिक्षा से वंचित रहे हैं।
इस संस्था का
उद्देश्य है ऐसा अनुकूल वातावरण बनाना जिसमें छाचनपुर और उसके आसपास के गाँव की
महिलाएँ एक साथ बैठकर उनकी उम्मीदें, सोच, सपने, दुख-दर्द और समस्याओं पर बात कर सकें। इस पर चर्चा करना कि
किस तरह उनकी आदिवासी संस्कृति दूसरी ओर मुड़ रहीं है,
जो सालों से विकसित हुई थी। समुदाय में विकास और सेवाओं से
जुड़ी जागरूकता पैदा करना और इस पर बातचीत के लिए अनुकूल माहौल बनाना। सामूहिक रूप
से वैकल्पिक ढाँचा विकसित करना जिसमें सामूहिक खेती, किचिन गार्डन, शिक्षा के बारे में विचार करना। यहाँ स्कूल परिसर में नींबू,
लीची, कटहल, आम, दालिम, कमरंगा, खजूर, पीपल, कनेर, नीम आदि के पेड़ लगे हैं। स्कूल के किचन गार्डन में भिंडी,
करेला, बरबटी, फूलगोभी, बंद गोभी, कद्दू, लौकी, टमाटर, खीरा है। स्कूल में दोपहर का भोजन दिया जाता है,
जिसमें इस सब्जी का इस्तेमाल होता है।
इस स्कूल में
शिक्षण पद्धति में खासतौर पर ध्यान दिया जाता है-
परिवेश का अध्ययन-
आसपास के वातावरण, नदी, नाले, पेड़ पौधे, जंगल और वनस्पतियों का अध्ययन।
बांग्ला भाषा- पहली
कक्षा से ही बांग्ला भाषा में अक्षर ज्ञान और पढ़ना लिखना सिखाया जाता है।
गणित- अंक पहचानना
और सरल गणित सिखाना।
क्षेत्रीय
संस्कृति- नृत्य औऱ लोकगीत।
अंग्रेजी- अंग्रेजी
के अक्षर और कहानियाँ पढ़ना- लिखना।
यहाँ संथाली भाषा
की लिपि ओलचिकी ( संथाली लिपि) भी सिखाई जाती है। इस भाषा के जानकार शिक्षक भी
यहाँ हैं।
वर्तमान में यहाँ 3
से 9 वर्ष तक के बच्चे पढ़ते हैं। कक्षा 4 तक स्कूल है जिसमें 92 बच्चे हैं। स्कूल
का संचालन छाचनपुर महिला कल्याण समिति करती है। इस समिति में 11 सदस्य हैं। स्कूल
में अब 4 नए कमरे बन गए हैं। शौचालय है, कुआँ है। जिस जमीन पर स्कूल है,
उसे खरीदा गया है। छाचनपुर महिला कल्याण समिति के नाम पर
जमीन है।
इस स्कूल में
प्रतिमाह 100 रू. शुल्क है। रेवा मुरमू बताती हैं कि इन परिवारों की हालत ऐसी है
कि वे बच्चों के लिए यूनिफार्म नहीं खरीद पाते। एक चौथाई बच्चे फीस भी नहीं दे
पाते।
इस स्कूल में 10 से
किलोमीटर दूर गाँव के बच्चे आते हैं। मुसिदीही, तामीलीपाड़ा, सुअराबकड़ा, लेदापोलाश, रांगागोड़ा, लोहा गढ़, खरबना, धौडांगा, घोषेरग्राम, मनकाडीह, दोलपुर, दुमदुमी आदि। स्कूल की गाड़ी है,
जो दूर गाँव के बच्चों को घर से लाती है,
छोड़ती है।
किशोर भारती ट्रस्ट
फार एजूकेशन रिसर्च संस्था ने पाठयक्रम बनाया है। छाचनपुर महिला कल्याण समिति के
नाम से स्कूल का बैंक अकाउंट है। इसके अलावा, अंकुर कला ने भी मदद की है। यह महिला कल्याण समिति महिला
सशक्तीकरण का काम करती है। आजीविका और महिला अधिकारों पर जागरूकता लाने का काम
करती है।
इस स्कूल में 6
शिक्षक हैं। माला तुडु, रीना तुडू, संदीप मंडल, प्रदीप बाघ, गौर चंद्र मंडल और सौमित्र मंडल हैं। इसके अलावा,
कुछ रिसर्च फैलो और इंटर्न भी हैं,
जो समय समय पर यहाँ आकर रिसर्च करते हैं और स्कूल में मदद
करते हैं। सिंदुनिल चटर्जी, अंकिता सान्याल और देवारती कुन्डू हैं। अंकिता सान्याल
इनमें से एक हैं, जो साल में करीब 6 महीने यहाँ रहकर बच्चों को पढ़ाती हैं और
उनके साथ शिक्षा की नई गतिविधियाँ करवाती
हैं।
इस स्कूल की एक
छोटी लायब्रेरी है, जो विकसित हो रही है। अभी इस लायब्रेरी में 700 किताबें हैं
जिनमें कहानी, कविता,
नाटक की बांग्ला और अंग्रेजी किताबें उपलब्ध हैं।
किताबों के अलावा
यहाँ बच्चों को गतिविधि आधारित सीखने-सिखाने पर जोर दिया जाता है। अंकिता सान्याल
ने बच्चों के साथ कई नए प्रयोग किए हैं, जिसमें बच्चों को मजा भी आता है। सीखते भी हैं। जैसे
पत्थरों को रंग लगाना, छोटे से बड़े क्रम में जमाना। पीपल की पत्तियों को गलाकर
उसे रंगना और उससे पत्तों में प्रकाश संश्लेषण और वाष्पीकरण की प्रक्रिया को
समझना। खेल खेल में फलों, पत्तों व सब्जियों के नाम जानना और लिखना।
मुझे यहाँ की
अपराजिता मुरमू, अंजली
सोरेन,
सुजाता मोदीकोडा, शिवानी टुडू, पूजा मुरमू आदि बच्चों ने रंग किए पत्थर दिखाए। पीपल के
रंगीन सुंदर पत्ते दिखाए और कविताएँ सुनाईँ। वे कहानी को नाटक के रूप में भी खेलते
हैं। शिक्षक गौर चंद्र मंडल ने बताया कि आदिवासी बच्चे अन्य बच्चों की अपेक्षा
ज्यादा ध्यान से पढ़ते हैं।
इस स्कूल की सोच
गाँधी और टेगौर से प्रभावित है। सोच यह है कि गाँव के बच्चे,
गाँव की परिस्थिति में पढ़े, और श्रम के कामों से भी जुड़े,
उसी से सीखें भी। जो गाँधी की नई तालीम की भी सोच रही है।
गाँधीवादी काजल सेन गुप्ता जैसे लोगों के जुड़ने का भी सीधा असर शैक्षणिक पद्धति
पर दिखता है। जबकि मुख्यधारा के शासकीय स्कूल हाथ से काम करने को तरजीह नहीं देते
हैं।
स्कूल के कमरे इस
तरह से बने हैं कि बच्चों और प्रकृति का सीधा रिश्ता बने। स्कूल की दीवारें
तीन-चार फुट ही ऊँची है, जिससे बच्चे स्कूल की दीवारों के अंदर कैद न हो। वे पेड़ पौधे,
फूल, पत्ते, चिड़िया और खुला आसमान देख सकें। जो आदिवासी जीवन में सहज
है। क्योंकि आदिवासियों का पूरा जीवन प्रकृति पर ही है। यह टेगौर की शिक्षा दर्शन
से मेल खाती है। शांतिनिकेतन में आज भी पेड़ों के नीचे कक्षाओं में पढ़ाई होती है।
टेगौर ने भी संथाली आदिवासियों से बहुत कुछ सीखा था। उनकी लोक कला,
प्रकृति के साथ सहअस्तित्व, गीत, नृत्य आदि से टेगौर बहुत प्रभावित थे।
यहाँ कहना उचित
होगा कि अधिकांश लोगों की जिंदगी जीवन की आपाधापी और जीविकोपार्जन में ही गुजर
जाती है,
जिसके कारण वे शिक्षा, साहित्य, संगीत आदि से वंचित रह जाते हैं। जैसे ही लोगों की स्थिति
संभलती है वे शिक्षा की ओर मुड़ते हैं। छाचनपुर में जैसे शिक्षा की भूख जगी है,
वह अब जगह देखी जा रही है। स्कूल भी हैं,
पर उनमें से ज्यादातर में शिक्षा प्राप्त करने का माहौल
नहीं है।
कुल मिलाकर,
यह कहा जा सकता है कि छाचनपुर का स्कूल कई मायनों में अलग
है। एक तो यहाँ के सभी शिक्षक स्थानीय हैं, स्थानीय ज्ञान, परिवेश, गाँव कृषि संस्कृति की समझ बनाई जा रही है। आदिवासी
संस्कृति जो सबको जोड़ती है, जिसमें सामूहिकता है, सहकार है, एक दूसरे की मदद करने की परंपरा है,
उसे फिर से स्थापित किया जा रहा है। गाँधी की नई तालीम
जिसमें हाथ से उत्पादक काम कर सीखने पर जोर दिया जाता है,
इस ओर प्रयास किया जा रहा है। आधुनिक शिक्षा में जहाँ हाथ
से,
श्रम को तरजीह नहीं दी जाती है,
यहाँ इस पर जोर दिया जाता है। आदिवासियत,
जो कम ऊर्जा में, कम संसाधनों में बहुत सुघड़ और सादगी से जीवन जीने की
पद्धति है, उसे
वापस लाया जा रहा है। एक और बात है वह स्थानीय शिक्षकों की प्रतिबद्धता,
वे बहुत ही कम वेतन पर आदिवासियों की पहली पीढ़ी को शिक्षित
कर रहे हैं, यह
मिसाल है। इस स्कूल के बच्चे जंगल, जैव विविधता, पर्यावरण की समृद्ध विरासत को सहेज सकें,
यह प्रयास किया जा रहा है। यहाँ 4-5 वीं कक्षाओं में शासकीय
पाठ्यक्रम पढ़ाया जाता है, जिससे ये पढ़कर दूसरे स्कूलों में जाएँ तो उन्हें दिक्कत
नहीं आती।
चूंकि यह प्रयास नया है, अभी कुछ भी निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी होगी। कुछ चुनौतियाँ भी हैं। जैसे समुदाय
आधारित संस्कृति व मूल्यों की वापसी, अभिभावक
भी बच्चों को हाथ से काम करने को अभी अच्छा नहीं मानते। किताबी ज्ञान की जगह
गतिविधि आधारित ज्ञान से सीखना। पारंपरिक ज्ञान को मान्यता दिलाना। लगातार स्कूल का प्रबंधन करना, आर्थिक मदद जुटाना आदि। लेकिन इन सबके
बावजूद स्कूल चल रहा है, यह बड़ी उम्मीद है। (विकल्प संगम से साभार)