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Mar 8, 2020

उदंती.com, मार्च- 2020

उदंती.com  मार्च- 2020  
वर्ष- 12, अंक- 8, मार्च- 2020  

 सुबह की नींद इंसान के इरादों को कमजोर करती है, मंज़िलों को हासिल करने वाले कभी देर तक सोया नहीं करते। वो आगे बढ़ते हैं जो सूरज को जगाते हैं। वो पीछे रह जाते हैं जिनको सूरज जगाता है। -स्वामी विवेकानन्द

व्यंग्यः रचना प्रकाशन के सोलह संस्कार -बी.एल.आच्छा    
जीवन दर्शनः होली- उल्लास एवं उमंग का उत्सव -विजय जोशी



उदंती.com के आवरण पृष्ठ पर इस बार डॉ. सुनीता वर्मा का एक्रेलिक रंग से बना चित्र प्रस्तुत है। हम छत्तीसगढ़ वासियों के लिए यह गौरव की बात है कि चित्रकला के क्षेत्र में राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बना चुकी डॉ. सुनीता को छत्तीसगढ़ सरकार की अनुशंसा पर भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय के तहत ललितकला अकादमी (राष्ट्रीय कला संस्थान) का जनरल काउंसिल मेंबर मनोनीत किया गया है। भिलाई डीपीएस स्कूल में आर्ट टीचर के रूप में कार्यरत सुनीता का पता है- फ्लैट नंबर २४२, आर्किड अपार्टमेंट ११, ताल पुरी, ब्लाक – बी, भिलाई छत्तीसगढ़।  मोबाइल नंबर- ९४०६४२२२२२                                                                                                                                   

प्रेम और सद्भावना का रंग...

प्रेम और सद्भावना का रंग...
-डॉ. रत्ना वर्मा
      इन दिनों देश की आबोहवा में कई तरह के बदलाव देखने को मिल रहे हैं। राजधानी हिंसा की आग में जल रहा है। राष्ट्रहित,  मानवता और सर्वधर्म समभाव की भावना को सर्वोपरि रखने वाले भारत देश में हिंसा का जैसा तांडव इन दिनों देखने को मिल रहा है, जिस तरह के नारे लगाए जा रहे हैं, उसे किसी भी दृष्टि से देश हित में नहीं कहा जा सकता।
     कुल मिलाकर मौसम में आ रहे लगातार बदलाव और राजनैतिक, सामाजिक, और राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय सरगर्मियों के बीच सारे राग-द्वे भुलाकर भारतवासी आने वाले दिनों में रंगों का त्योहार होली मनाकर, देश में लम्बे समय से चल रहे तनाव को दूर भगाने का जतन कर ही रहे थे कि तभी कोरोना वायरस के हमले ने समूचे देशवासियों को हिलाकर रख दिया। इस वायरस ने सबको इतना अधिक भयभीत कर दिया है कि अपनों से गले मिलना तो दूर, उनका आपस में बात करना भी दूभर हो गया है। कोई पास से छींकते या खाँसते हुए निकलता है, तो मन में बस एक ही सवाल आता है, कहीं इसे कोरोना वायरस तो नहीं?
     किसी भी महामारी से भयभीत होकर इस तरह की प्रतिक्रिया व्यक्त करना ठीक नहीं है, बल्कि देश के प्रत्येक जिम्मेदार नागरिकों का दायित्व है कि वे लोगों में जागरुकता लाएँ । ऐसे समय में सबसे ज्यादा सक्रिय सोशल मीडिया हो जाता है और सबसे पहले अफवाहों का दौर वहीं से शुरू होता है, जो महामारी से भी ज्यादा तेजी से फैलता है। सोशल मीडिया इतना शक्तिशाली माध्यम है कि एक ही पल में करोड़ों लोगों तक एक साथ खबर पहुँच जाती है, तो क्यों न इसका उपयोग अफवाहें फैलाने के बजाय, भय फैलाने वाली खबरों पर रोक लगाने के लिए किया जाना चाहिए। 
     जब देश और दुनिया में किसी भी महामारी का हमला होता है, तो सबसे जरूरी है कि पूरी सावधानी बरती जाए। अभी तक कोरोना वायरस को समाप्त करने के लिए किसी दवाई का पता नहीं चल पाया है; अतः जरूरी हो जाता है कि इसके बचाव के तरीकों पर शासकीय और अशासकीय स्तर पर प्रत्येक नागरिक को काम करना चाहिए। यदि लोग भूले नहीं होंगे तो 2003 में सार्स वायरस ने पूरी दुनिया में आतंक मचा रखा था, लेकिन भारत ने उस वायरस को अपने यहाँ घुसने नहीं दिया था।
     कोरोना वायरस ने भारत में दस्तक दे दी है , एक के बाद एक कई राज्यों से इसकी चपेट में आए संक्रमित लोगों की खबरें आ रही हैं; इसीलिए अब और अधिक सावधान रहने की ज़रूरत है। इससे बचाव के किन- किन चीजों से परहेज़ करें, स्वच्छता का कितना ध्यान रखें, लोगों से कैसे मिलें, भीड़ वाली जगहों से कैसे बचें, यात्रा में क्या सावधानी बरतें, जैसी वायरस से बचने के लिए जरूरी बातें प्रत्येक इंसान तक पहुँचाई जानी चाहिए।
    
सरकार अपने स्तर पर बचाव की तैयारियों में जुट गई है। अस्पतालों में आइसोलेशन वार्ड बनाए जा रहे हैं। विदेशों से आ रहे लोगों की हवाई अड्डों पर थर्मल जाँच की जा रही है; परंतु हमारे देश की एक गंभीर समस्या है - चाहे युद्ध हो, आपदा हो, मँहगाई हो या महामारी, व्यापारी इन्हें भी कमाई का जरिया बना ही लेते हैं- इन दिनों कोरोना भी धन कमाने का जरिया बन गया है- मास्क, सेनेटाइजर, कुछ आवश्यक दवायाँ  अचानक बाजार से गायब हो रहे हैं या कई गुना अधिक दाम पर बिक रहे हैं। यह कालाबाज़ारी एक तरह की अमानवीयता  और समाजद्रोह है, जिसका प्रतिकार किया जाना चाहिए।
     यह समय संयम का है, घबराने का नहीं और दुनिया को आपस में मिलकर इस जानलेवा बीमारी का इलाज खोजना आज की पहली जरूरत है। कोरोना को लेकर सावधानी बरतते हुए इस बार प्रधानमंत्री के साथ कई लोगों ने सार्वजनिक रूप से होली मिलन के कार्यक्रमों में शामिल न होने का निर्णय लिया है, तो कयों ने दिल्ली में हुई हिंसा के चलते होली न मनाने का फैसला किया है।  भारत में मनाया जाने वाला रंगों का यह त्योहार प्रेम,  सद्भाव और मिलन का पर्व है, भले ही इस बार आप रंग मत खेलिए, गले मत मिलिए, हाथ मत मिलाइए परंतु आपसी नरत  भुलाकर इस संकट की घड़ी से उबरने के लिए शांति और सहयोग बनाकर रखिए। तो आइए देश की आबोहवा में फैले अलगाव और नफ़रत के इस ज़हर को प्रेम और सद्भावना के रंग में रँगकर दूर भगाएँ।  

कोरोना वायरस

अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का कुत्सित रूप
कोरोना वायरस
-डॉ. नीलम महेन्द्र 
आज जब एशिया के एक देश चीन के एक शहर वुहान से कोरोना नामक वायरस का संक्रमण देखते ही देखते जापान, जर्मनी, अमेरिका, फ्रांस, कनाडा, रूस समेत विश्व के 30 से अधिक देशों में फैल जाता है तो निश्चित ही  वैश्वीकरण के इस दौर में इस प्रकार की घटनाएँ हमें ग्लोबलाइजेशन के दूसरे डरावने पहलू से रूबरू कराती हैं। क्योंकि आधिकारिक आँकड़े बताते हैं कि कोरोना वायरस के संक्रमण से विश्व भर में अब तक 2012 मौतें हो चुकी हैं और लगभग 75303 लोग इसकी चपेट में हैं  जबकि आशंका है कि यथार्थ इससे ज्यादा भयावह हो सकता है। लेकिन यहाँ बात केवल विश्व भर में लोगों के जीवन और स्वास्थ्य को होने वाले नुकसान तक ही सीमित नहीं है बल्कि पहले से मंदी झेल रहे विश्व में इसका नकारात्मक प्रभाव चीन समेत उन सभी देशों की अर्थव्यवस्था पर भी पड़ना है जो चीन से व्यापार करते हैं जिनमे भारत भी शामिल है। बात यह भी है कि जेनेटिक इंजीनियरिंग, रोबोटिक्स और आर्टीफिशियल इंटेलीजेंस के इस अति वैज्ञानिक युग में जब किसी देश में एक नए तरह का संक्रमण फैलता है जो सम्भवतः एक वैज्ञानिक भूल का अविष्कार होता है, जिसके बारे में मनुष्यों में पहले कभी सुना नहीं गया हो और उसकी उत्पत्ति को लेकर बायो टेरेरिज्म जैसे विभिन्न विवादास्पद सिद्धान्त सामने आने लगते हैं तो यह ना सिर्फ हैरान बल्कि परेशान करने वाले भी होते हैं। इसलिए यह आवश्यक हो जाता है कि विज्ञान के दम पर प्रकृति से खिलवाड़ करने की मानव की क्षमता और उसके आचरण को सम्पूर्ण सृष्टि के हित को ध्यान में रखते हुए गंभीरता के साथ नए सिरे से परिभाषित किया जाए।
क्योंकि चीन में कोरोना वायरस का संक्रमण जितना घातक है उससे अधिक घातक वो अपुष्ट जानकारियां हैं जो इसकी उत्पत्ति से जुड़ी हैं। शायद इसलिए विश्व स्वास्थ्य संगठन के चीफ को कहना पड़ा कि ," विश्व स्वास्थ्य संगठन में हम  केवल वायरस से ही नहीं लड़ रहे बल्कि साज़िश की अफवाहों से भी लड़ रहे हैं जो हमारी ताकत को कमजोर कर रही हैं।" 
दरअसल चीन के वुहान से शुरू हुए इस कोरोना संक्रमण को लेकर अलग अलग देश अलग अलग दावे कर रहे हैं। जहाँ एक ओर रूस,  अरबसीरियाजैसे देश चीन में फैले कोरोना वायरस के लिए अमेरिका और इजरायल को दोष दे रहे हैं वही अमेरिका खुद चीन को ही कोरोना का जनक बता रहा है। मज़े की बात यह है कि सबूत किसी के पास नही हैं लेकिन अपने अपने तर्क सभी के पास हैं। रूस का कहना है कि कोरोना वायरस अमेरिका द्वारा उत्पन्न एक जैविक हथियार है जिसे उसने चीन की अर्थव्यवस्था चौपट करने के लिए उसके खिलाफ इस्तेमाल किया है। इससे पहले रूस 1980 के शीत युद्ध के दौर में एच आई वी के संक्रमण के लिए भी अमेरिका को जिम्मेदार बता चुका है। जबकि अरबी मीडिया का कहना है कि अमेरिका और इजरायल ने चीन के खिलाफ मनोवैज्ञानिक और आर्थिक युद्ध के उद्देश्य से इस जैविक हथियार का प्रयोग किया है। अपने इस कथन के पक्ष में वो विभिन्न तर्क भी प्रस्तुत करत है। सऊदी अरब समाचार पत्र अलवतन लिखता है कि मिस्र की ओर से इस घोषणा के बाद कि कुछ दिनों बाद वो चिकन उत्पादन में आत्मनिर्भर हो जाएगा और निर्यात करने में भी सक्षम हो जाएगा इसलिए अब वह अमेरिका और फ्रांस से चिकन आयात नहीं करेगा, अचानक बर्ड फ्लू फैल जाता है और मिस्र का चिकन उद्योग तबाह हो जाता है। इसी तरह जब चीन ने 2003 में घोषणा की कि उसके पास दुनिया का सबसे अधिक विदेशी मुद्रा भंडार है तो उसकी इस घोषणा के बाद चीन में अचानक सार्स फैल जाता है और चीनी विदेशी मुद्रा भंडार विदेशों से दवाएँ खरीद कर खत्म हो जाता है। इसी प्रकार सीरिया का कहना है कि कोरोना वायरस का इस्तेमाल अमेरिका ने चीन के खिलाफ उसकी अर्थव्यवस्था खत्म करने के लिए किया है। सीरिया के अनुसार इससे पहले भी अमेरिका एबोलाजीकाबर्ड फ्लूस्वाइन फ्लूएंथ्रेक्समैड
काऊ, जैसे जैविक हथियारों का प्रयोग अन्य देशों पर दबाव डालने के लिए कर चुका है। जैसे कि पहले भी कहा जा चुका है,जो लोग कोरोना वायरस को एक जैविक हथियार मानते हैं उनके पास इस बात का भी तर्क है कि आखिर वुहान को ही क्यों चुना गया। मिस्र की वेबसाइट वेतोगन के अनुसार वुहान चीन का आठवाँ सबसे बड़ा औद्योगिक शहर है। आठवें स्थान पर होने के कारण चीन के अन्य बड़े शहरों की तरह इस शहर में स्वास्थ्य सेवाओं पर बहुत अधिक ध्यान नहीं दिया जाता इसलिए इसे संक्रमण फैलाने के लिए चुना गया।
जबकि इज़राइल का कहना है कि कोरोना वायरस चीन का ही जैविक हथियार है जिसने खुद चीन को ही जला दिया। अपने इस कथन के समर्थन में इज़राइल का कहना है कि कोरोना का संक्रमण वुहान से शुरू होना कोई इत्तेफाक नहीं है  जहाँ पर वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलोजी नामक प्रयोगशाला है जो  वहाँ की सेना के साथ मिलकर इस प्रकार के खतरनाक वायरस पर अनुसंधान करती है। हालांकि चीन का कहना है कि वुहान के पशु बाजार से इस वायरस का संक्रमण फैला है। लेकिन विभिन्न जाँचों से अब यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि जिन साँपों और  चमगादड़ों से इस वायरस के फैलने की बात की जा रही थी वो सरासर गलत है क्योंकि साँपों में यह वायरस पाया ही नहीं जाता और चमगादड़ का जब सूप बनाकर या पकाकर उसका सेवन किया जाता है तो पकाने के दौरान अधिक तापमान में यह वायरस नष्ट हो जाता है। इस सिलसिले में अमेरिका के सीनेटर टॉम कॉटन का कहना है कि कोरोना वायरस वुहान के पशु बाजार से नहीं फैला। हम नहीं जानते कि वो कहाँ से फैला लेकिन हमें यह जानना जरूरी है कि यह कहाँ से और कैसे फैला क्योंकि वुहान के पशु बाजार के कुछ ही दूरी पर चीन का वो अनुसंधान केंद्र भी है जहां मानव संक्रमण पर अनुसंधान होते हैं। उन्होंने अपने इस बयान के समर्थन में कहा कि हालांकि उनके पास इस बात के सबूत नहीं है कि कोरोना वायरस चीन द्वारा बनाया गया जैविक हथियार है लेकिन चूंकि चीन का शुरू से ही कपट और बेईमानी का आचरण रहा है  हमें चीन से साक्ष्य मांगने चाहिए। यहाँ यह जानना भी रोचक होगा कि जब अमेरिका में चीनी राजदूत से टॉम कॉटन के बयान पर प्रतिक्रिया मांगी गई तो उनका कहना था कि चीन में लोगों का मानना है कि कोरोना अमेरिका का जैविक हथियार है। वैसे पूरी दुनिय जानती हैं कि खबरों पर चीन की कितनी सेंसरशिप और चीन से बाहर पहुँचने वाली सूचनाओं पर उसकी कितनी पकड़ है। अतः काफी हद तक चीन के इस संदेहास्पद आचरण का इतिहास भी चीन
के द्वारा ही किए जाने वाले किसी षड्यंत्र का उसी पर उल्टा पड़ जाने की बात को बल देता है। कहा जा रहा है कि चीन में कोरोना संक्रमण फैलने के कुछ सप्ताह के भीतर ही चीन के इंटरनेट पर इसे अमेरिकी षड्यंत्र बताया जाने लगा था। जानकारों का कहना है कि चीन द्वारा इस प्रकार का प्रोपोगेंडा जानकर फैलाया गया ताकि जब भविष्य में उस पर उसकी लैबोरेटरी से ही वायरस के फैलने की बात सामने आए तो यह उसकी काट बन सके। वैसे कोरोना वायरस खुद चीन की लैबोरेटरी से फैला है इस बात को बल इसलिए भी मिलता है कि जब चीन के आठ डॉक्टरों की टीम ने एक नए और खतरनाक वायरस के फैलने को लेकर सरकार और लोगों को चेताने की कोशिश की थी तो चीनी सरकार द्वारा उन्हें प्रताड़ित किया गया। कुछ समय बाद इनमें से एक डॉक्टर की इसी संक्रमण की चपेट में आकर मृत्यु हो जाने की खबर भी आई। इतना ही नहीं जब 12 दिसंबर को चीन में कोरोना वायरस का पहला मामला सामने आया था तो चीन ने उसे दबाने की कोशिश की। चीन की सरकारी साउथ चाइना यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नोलॉजी के मुताबिक संभव है हुबेई प्रांत में सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोलने रोग फैलाने वाली इस बीमारी के वायरस को जन्म दिया हो। स्कॉलर बोताओ शाओ और ली शाओ का दावा है कि इस लैब में ऐसे जानवरों
को रखा गया जिनसे बीमारियां फैल सकती हैं, इनमें 605 चमगादड़ भी शामिल थे। उनके मुताबिक हो सकता है कि कोरोना वायरस की शुरुआत यहीं से हुई हो। इनके रिसर्च पेपर में यह भी कहा गया कि कोरोना वायरस के लिए जिम्मेदार चमगादड़ों ने एक बार एक रिसर्चर पर हमला कर दिया और चमगादड़ का खून उसकी त्वचा में मिल गया। इन बातों से इतना तो स्पष्ट है कि कोरोना वायरस आज के वैज्ञानिक युग का बेहद गंभीर एवं दुर्भाग्यपूर्ण दुष्प्रभाव है। चाहे किसी अन्य देश ने इस जैविक हथियार का प्रयोग चीन के खिलाफ किया हो या चीन दूसरे  देशों के लिए खोदे जाने वाले गड्ढे में खुद गिर गया हो घायल तो मानवता हुई है। इसी मानवता को बचाने के लिए जब विश्व युद्ध के काल में जैविक हथियारों के प्रयोग से बहुत बड़ी संख्या में निर्दोष लोगों को बिना किसी कसूर के अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा था, तो बायोलॉजिकल वेपन कन्वेंशन की रूपरेखा तैयार की गई। मानवता की रक्षा के लिए  भविष्य में जैविक हथियारों के प्रयोग को प्रतिबंधित करने वाला यह नियम1975 से अस्तित्व में आया। इस जैव शस्त्र अभिसमय पर 180 देशों ने हस्ताक्षर किए । इसके
अनुसार इस पर हस्ताक्षर करने वाले देश कभी भी किसी भी परिस्थिति में किसी भी प्रकार के जैविक हथियार का निर्माण उत्पादन या सरंक्षण नहीं करेंगे। लेकिन यह अभिसमय देशों को यह अधिकार देता है कि वो अपनी रक्षा के लिए अनुसंधान कर सकते हैं दूसरे शब्दों में एक वायरस को मारने के लिए दूसरा वायरस बना सकते हैं। इसी की आड़ में अमेरिकारूस,चीन जैसे देश जैविक हथियारों पर अनुसंधान करते हैं। लेकिन कोरोना वायरस के इस ताज़ा घटनाक्रम से अब यह जरूरी हो गया है कि वैज्ञानिक विज्ञान के सहारे नए अनुसंधान करते समय मानवता के प्रति अपने कर्तव्य को भी समझें और अपनी प्रतिभा एवं ज्ञान का उपयोग सम्पूर्ण सृष्टि के उत्थान के लिए करें उसके विनाश के लिए नहीं।
drneelammahendra@gmail.com

कुछ क्षेत्रों में महिलाओं से अधिक पुरुष क्यों हैं

कुछ क्षेत्रों में महिलाओं से अधिक पुरुष क्यों हैं
-डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन
विश्व भर में विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और चिकित्सा (STEM) के क्षेत्र में महिलाओं की तुलना में पुरुष अधिक हैं। इस लिंग-आधारित बंटवारे के पीछे के क्या सामाजिक कारण हैं? शोध बताते हैं कि चाहे श्रम बाज़ार हो या उच्च योग्यता वाले क्षेत्र, इनमें जब महिला और पुरुष दोनों ही नौकरी के लिए आवेदन करते हैं तब पुरुष उम्मीदवार स्वयं का खूब प्रचार करते हैं और अपनी शेखी बघारते हैं जबकि समान योग्यता वाली महिलाएँ ‘विनम्र’ रहती हैं और स्वयं को कम प्रचारित करती हैं। और उन जगहों पर जहाँ महिला और पुरुष सहकर्मी के रूप में होते हैं, वहाँ पुरुषों की तुलना में महिलाओं के विचारों या मशवरों को या तो अनदेखा कर दिया जाता है या उतनी गंभीरता से नहीं लिया जाता है। नतीजतन, पुरुषों की तुलना में महिलाएँ स्वयं की क्षमताओं को कम आँकती हैं, खासकर सार्वजनिक स्थितियों में, और अपनी बात रखने में कम सफल रहती हैं।
युनिवर्सिटी ऑफ वॉशिंगटन की डॉ. सपना चेरियन और उनके साथियों ने अपने अध्ययन में उपरोक्त अंतिम बिंदु को विस्तार से उठाया है। साइकोलॉजिकल बुलेटिन में प्रकाशित अपने शोध पत्र, ‘क्यों कुछ चुनिंदा STEM क्षेत्रों में अधिक लिंग संतुलन है?’ में वे बताती हैं कि अमेरिका में स्नातक, स्नातकोत्तर और पीएच.डी. में जीव विज्ञान और रसायन विज्ञान विषयों में 60 प्रतिशत से अधिक उपाधियाँ महिलाएँ प्राप्त करती हैं जबकि कंप्यूटर साइंस, भौतिकी और इंजीनियरिंग में सिर्फ 25-30 प्रतिशत ही महिलाएँ हैं। सवाल है कि इन क्षेत्रों में इतना असंतुलन क्यों है? चेरियन इसके तीन सामाजिक-मनोवैज्ञानिक कारण बताती हैं (1) मर्दाना संस्कृति, (2) बचपन से लड़कों की तुलना में लड़कियों की कंप्यूटर, भौतिकी या सम्बंधित विषयों तक कम पहुँच, और (3) स्व-प्रभाविता में लैंगिक-विषमता।
रूढ़िगत छवियाँ
‘मर्दाना संस्कृति’ क्या है? रूढ़िगत छवि है कि कुछ विशिष्ट कामों के लिए पुरुष ही योग्य होते हैं और महिलाओं की तुलना में पुरुष इन कामों में अधिक निपुण होते हैं, और महिलाएँ ‘कोमल’ और ‘नाज़ुक’ होती हैं इसलिए वे ‘मुश्किल’ कामों के लिए अयोग्य हैं। इसके अलावा महिलाओं के समक्ष पर्याप्त महिला अनुकरणीय उदाहरण भी नहीं हैं जिनसे वे प्रेरित हो सकें और उनके नक्श-ए-कदम पर चल सकें। (866 नोबेल पुरस्कार विजेताओं में से सिर्फ 53 महिलाएँ हैं। यहां तक कि जीव विज्ञान और चिकित्सा के क्षेत्र में अब तक दिए गए 400 से भी अधिक लास्कर पुरस्कारों में से भी सिर्फ 33 महिलाओं को मिले हैं।)
दूसरा बिंदु (यानी बचपन से लड़कियों की कुछ नियत क्षेत्रों में कम पहुँच) की बात करें तो कंप्यूटर का काम करने वालों के बारे में यह छवि बनाई गई है कि वे ‘झक्की’ होते हैं और सामाजिक रूप से थोड़े अक्खड़ होते हैं, जिसके चलते महिलाएँ कतराकर अन्य क्षेत्रों में चली जाती हैं।
तीसरा बिंदु, स्व-प्रभाव उत्पन्न करने में लैंगिक-खाई, यह उपरोक्त दो कारणों के फलस्वरूप पैदा होती है। इसके कारण लड़कियों और महिलाओं के मन में यह आशंका जन्मी है कि शायद वास्तव में वे कुछ चुनिंदा ‘नज़ाकत भरे’ कामों या विषयों (जैसे सामाजिक विज्ञान और जीव विज्ञान) के ही काबिल हैं। उनमें झिझक की भावना पैदा हुई है। यह भावना स्पष्ट रूप से प्रचलित मर्दाना संस्कृति के कारण पैदा हुई है और इसमें मर्दाना संस्कृति झलकती है।
फिर भी यदि हम जीव विज्ञान जैसे क्षेत्रों की बात करें तो, जहाँ विश्वविद्यालयों और अनुसंधान प्रयोगशालाओं के पद और तरक्की के लिए महिला और पुरुष दोनों ही दावेदार होते हैं, वहाँ भी लैंगिक असामनता झलकती है। विश्लेषण बताते हैं कि शोध-प्रवण विश्वविद्यालय कम महिला छात्रों को प्रवेश देते हैं। इसके अलावा यह भी देखा गया है कि कई काबिल महिला वैज्ञानिकों ने, यह महसूस करते हुए कि उनके अनुदान आवेदन खारिज कर दिए जाएंगे, नेशनल इंस्टीट्यूटट ऑफ हैल्थ जैसी बड़ी राष्ट्रीय संस्थाओं में अनुदान के लिए आवेदन करना बंद कर दिया है। इस संदर्भ में लेर्चेनमुलर, ओलेव सोरेंसन और अनुपम बी. जेना का एक पठनीय व विश्लेषणात्मक पेपर Gender Differences in How Scientists Present the Importance of their Research: Observational Study (वैज्ञानिकों द्वारा अपने काम का महत्त्व प्रस्तुत करने में लैंगिक अंतर) दी ब्रिटिश मेडिकल जर्नल के 16 दिसम्बर के अंक में प्रकाशित हुआ है (नेट पर मुफ्त उपलब्ध है)। अपने पेपर में उन्होंने 15 वर्षों (2002 से 2017) के दौरान पबमेड में प्रकाशित 1 लाख से ज़्यादा चिकित्सीय शोध लेख और 62 लाख लाइफ साइंस सम्बंधी शोध पत्रों का विश्लेषण किया। उन्होंने पाया कि चिकित्सा फैकल्टी के रूप में और जीव विज्ञान शोध संस्थानों और विश्वविद्यालयों में महिलाओं की संख्या कम है। पुरुष सहकर्मियों की तुलना में महिलाओं को कम वेतन दिया जाता है, कुछ ही शोध अनुदान मिलते हैं और उनके शोध पत्रों को कम उद्धरित किया जाता है।
भारत में स्थिति
 भारत में भी पुरुषों का ही बोलबाला है। लेकिन क्यों? महिलाओं की तुलना में पुरुष अपने काम की तारीफ में भड़कीले शब्दों का इस्तेमाल करते हैं, और अपने काम को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करते हैं। लेखकों ने ऐसे 25 शब्द नोट किए हैं, इनमें से कुछ शब्द तो बार-बार दोहराए जाते हैं जैसे अनूठा, अद्वितीय, युगांतरकारी, मज़बूत और उल्लेखनीय। जबकि इसके विपरीत महिलाएँ विनम्र रहती हैं और खुद को कम आंकती हैं। लेकिन अफसोस है कि इस तरह अपनी शेखी बघारने के कारण पुरुषों को अधिक अनुदान मिलते हैं, जल्दी पदोन्नती मिलती है, वेतनवृद्धि होती है और निर्णायक समिति में सदस्यताएँ मिलती है। इस तरह खुद को स्थापित करने को चेरियन ने अपने पेपर में मर्दानगी कहा है। ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में प्रकाशित चेरियन के उपरोक्त पेपर के नतीजे कई नामी अखबारों में भी छपे थे, जिनमें से एक का शीर्षक था - पुरुष वैज्ञानिक ऊँचा बोलकर महिलाओं को चुप करा देते हैं!
तो क्या भारतीय वैज्ञानिक भी इसके लिए दोषी हैं? उक्त 62 लाख शोध पत्रों में निश्चित रूप से ऐसे शोधपत्र भी होंगे जिनका विश्लेषण करके भारतीय वैज्ञानिकों की स्थिति को परखा जा सकता है। भारतीय संदर्भ में अनुदान प्रस्तावों, निर्णायक दलों और प्रकाशनों के इस तरह के विश्लेषण की हमें प्रतीक्षा है। सेज पब्लिकेशन द्वारा साल 2019 में प्रकाशित नम्रता गुप्ता की किताब Women in Science and Technology: Confronting Inequalities (विज्ञान व टेक्नॉलॉजी में महिलाएँ: असमानता से सामना) स्पष्ट करती है कि इस तरह की असमानता भारत में मौजूद है। वे बताती हैं कि भारत के पितृसत्तात्मक समाज में यह धारणा रही है कि महिलाओं को नौकरी की आवश्यकता ही नहीं है। यह धारणा हाल ही में बदली है। आगे वे बताती हैं कि आईआईटी, एम्स, सीएसआईआर और पीजीआई के STEM विषयों के शोधकर्ताओं और प्राध्यापकों में सिर्फ 10-15 प्रतिशत ही महिला शोधकर्ता और अध्यापक हैं। निजी शोध संस्थानों में भी बहुत कम महिला वैज्ञानिक हैं। अर्थात भारत में भी स्थिति बाकी दुनिया से बेहतर नहीं है।
भारतीय वैज्ञानिकों को प्राप्त सम्मान और पहचान की बात करें तो इस बारे में जी. पोन्नारी बताते हैं कि विज्ञान अकादमियों में बमुश्किल 10 प्रतिशत ही महिलाएँ हैं। अब तक दिए गए 548 भटनागर पुरस्कारों में से सिर्फ 18 महिलाओं को ही यह पुरस्कार मिला है। और 52 इंफोसिस पुरस्कारों में से 15 महिलाएँ पुरस्कृत की गई हैं। दिलचस्प बात यह है कि इन पुरस्कारों की निर्णायक समिति (जूरी) में एक भी महिला सदस्य नहीं थी।
भारतीय संदर्भ में राष्ट्रीय एजेंसियों (जैसे DST, DBT, SERB, ICMR, DRDO) द्वारा दिए गए अनुसंधान अनुदान में लैंगिक अनुपात का अध्ययन करना रोचक हो सकता है। साथ ही लेर्चेनमुलर के अध्ययन की तर्ज पर, नाम और जानकारी गुप्त रखते हुए, दिए गए अनुदान के शीर्षक और विवरण का विश्लेषण किया जाना चाहिए ताकि यह देखा जा सके कि क्या भारतीय पुरुष वैज्ञानिक भी हो-हल्ला करके हावी हो जाते हैं? (स्रोत फीचर्स)

नारी की पूजा कहाँ होती है?

नारी की पूजा कहाँ होती है?
- डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आज अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस है और आज मैं भोपाल आया हूँ। कई महिला पत्रकारों को सम्मानित करने के लिए, लेकिन आज भी पत्रकारिता तो क्या, सभी क्षेत्रों में क्या हम महिलाओं को समुचित अनुपात में देख पाते हैं? मैंने समुचितअनुपात शब्द का प्रयोग किया है, ‘उचितअनुपात का नहीं। उचित का अर्थ तो यह भी लगाया जा सकता है कि दुनिया में जितने भी काम-धंधे हैं, उन सब में 50 प्रतिशत संख्या महिलाओं की होनी चाहिए। यह ठीक नहीं है। कुछ काम ऐसे हैं, जिनमें महिलाओं की संख्या 50 प्रतिशत से भी ज्यादा रखना फायदेमंद है और कुछ में वह कम भी हो सकती है। असली बात यह है कि जिस काम को जो भी दक्षतापूर्वक कर सके, वह उसे मिलना चाहिए। उसमें स्त्री-पुरुष का भेदभाव नहीं होना चाहिए। जाति और मजहब का भी नहीं लेकिन इस 21 वीं सदी की दुनिया का हाल क्या है ? संयुक्तराष्ट्र संघ की एक ताजा रपट के मुताबिक दुनिया के लगभग 90 प्रतिशत पुरुष ऐसे हैं, जो महिलाओं को अपने से कमतर समझते हैं। वे भूल जाते हैं कि भारत, श्रीलंका और इस्राइल की प्रधानमंत्री कौन थीं? इंदिरा गांधी, श्रीमावो भंडारनायक और गोल्डा मीयर के मुकाबले के कितने पुरुष प्रधानमंत्री इन तीनों देशों में हुए हैं? क्या ब्रिटेन की प्रधानमंत्री मार्गगेरेट थेचर और जर्मनी की चांसलर एंजेला मार्केल को हम भूल गए हैं?  भारत की कई महान महारानियों के नाम मैं यहाँ नहीं ले रहा हूँ, जिन्होंने कई महाराजाओं और बादशाहों के छक्के छुड़ा दिए थे। इस समय 193 देशों में से सिर्फ 10 देशों में महिलाएँ शीर्ष राजनीतिक पदों पर हैं। दुनिया की संसदों में महिलाओं की संख्या 24 प्रतिशत भी नहीं है। डॉक्टरों, इंजीनियरों, वकीलों और वैज्ञानिकों में उनकी संख्या और भी कम है। भारत में महिलाओं से भेदभाव करनेवाले पुरुषों की संख्या 98.28 प्रतिशत है तो पाकिस्तान हमसे भी आगे है। उसमें यह संख्या 99.81 प्रतिशत है। यूरोप, अमेरिका, चीन और जापान जैसे देशों में इधर 40-50 वर्षों में काफी बदलाव आया है। उसी का नतीजा है कि ये देश महासंपन्न और महाशक्ति कहलाने लगे हैं। अपने आधे समाज के प्रति उपेक्षा और हीनता का भाव हम छोड़ सकें तो हमारे दक्षिण एशिया के सभी देश शीघ्र ही संपन्न और सुखी हो सकते है। हमारे यहाँ अभी यह सिर्फ कहावत ही रह गई है कि 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः'। अर्थात जहाँ नारी की पूजा होती है, वहाँ देवताओं का वास होता है।
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07.03.2020

संथाल आदिवासी बच्चों का स्कूल

संथाल आदिवासी बच्चों का स्कूल
- बाबा मायाराम

जब हम गाँवों में जाते थे, नागरिक अधिकारों पर बात करते थे, लिखा हुआ दिखाते थे, तो लोग पूरी तरह समझ नहीं पाते थे, मन में शंका रह जाती थी। हमें महसूस हुआ कि यह शिक्षा की कमी की वजह से है। इसलिए हमने तय किया कि हम अगली पीढ़ी को शिक्षित करेंगे, यहीं से बच्चों के स्कूल की सोच बनी और यह स्कूल बना। यह रेवा मुरमू थीं, जो मुझे उनके गाँव के स्कूल की कहानी सुना रही थीं।
पश्चिम बंगाल के बांकुड़ा जिले के गाँव छाचनपुर में यह स्कूल स्थित है। इस स्कूल का नाम लक्ष्मी मुरमू स्मृति शिशु विद्यालय है। कोलकाता के पश्चिम में 250 किलोमीटर दूरी पर यह गाँव है। छाचनपुर, एक छोटा संथाली गाँव है।  दारकेश्वर नदी के किनारे बसा है। यही नदी साल के जंगल और गाँव को विभक्त करती है।
मैं इस स्कूल को देखने 21 सितंबर (2019) को गया था। मध्यप्रदेश से कोलकाता ट्रेन से लम्बी यात्रा की थी। कोलकाता से छातना गया और फिर वहाँ से छाचनपुर पहुँचा। दिल्ली के आंबेडकर विश्वविद्यालय में एम. फिल. की छात्रा अंकिता सान्याल के साथ मैं गया था। अंकिता, उनके फील्ड वर्क के लिए छाचनपुर आती रहती हैं। इस चार घंटे की ट्रेन यात्रा में हमने मसाला नींबू चाय का खूब आनंद लिया। मुझे यहाँ की झालमुड़ी भी पसंद है, जो उस दिन नहीं मिली।
उस दिन मौसम साफ व खुशनुमा था। आकाश में सफेद बादलों के गाले छितरे हुए थे। सुसनिया पहाड़ गहरा हरा दिख रहा था। कहीं भी हो, पहाड़ सदैव आत्मा पर छा जाते हैं। मेरी नजरें बार-बार पहाड़ पर जाकर टिक जाती थीं। धान के हरे-भरे खेत लहलहा रहे थे। लेकिन बारिश कम होने से यहाँ धान की खेती कमजोर थी। वहीं दूसरी ओर मध्यप्रदेश में हम अति वर्षा से फसलें बर्बाद हुई हैं। यह विचार आते ही मैं थोड़ा मायूस हो गया।
इस स्कूल की कहानी शुरू होती है एक सपने से, जिसे दो आदिवासी युवतियों ने देखा था। ये थीं लक्ष्मी मुरमू और रेवा मुरमू। दोनों ही संथाल आदिवासी और गाँव में उनके समुदाय में पहली पीढ़ी की पढ़ी लिखी लड़कियाँ थीं। दोनों ने ही कक्षा 10 तक पढ़ाई की थी। रेवा ने तो बाद में अनौपचारिक तरीके से पढ़ाई पूरी की।
यह दोनों दोस्त पुरूलिया जिले में स्वयं सहायता समूह ( एस.एस.जी.) का काम करती थीं। लेकिन इस दौरान उन्हें महसूस हुआ कि उनकी बातें पूरी तरह गाँववाले नहीं समझ पाते हैं। अगर पर्चों व किताब में लिखा हुआ बताते हैं तो वे पढ़ नहीं पाते, इसका एक कारण उन्हें शिक्षा से वंचित होना लगा।
रेवा मुरमू, छाचनपुर गाँव की थीं और लक्ष्मी मुरमू हापनिया गाँव की, जो छाचनपुर से 25 किलोमीटर दूर है। रेवा की मुलाकात लक्ष्मी से तब हुई जब वे वर्ष 1998 में पुरूलिया के एक गाँव में गैर सरकारी संस्था में काम करती थीं। वे यहाँ संथाली महिलाओं के साथ स्वयं सहायता समूह में काम करती थीं।
रेवा और लक्ष्मी खुद भी संथाली आदिवासी थीं, इसलिए जल्द ही उनका महिलाओं के साथ अच्छा रिश्ता बन गया। वे उनमें घुल मिल गईं। उनकी पहल से यहाँ महिलाओं में जागरूकता आई। उनका काम बहुत अच्छा चल रहा था कि अचानक संस्था का काम छूट गया। 
कुछ समय बाद दोनों छाचनपुर आ गईं, जो रेवा का गाँव था। यहाँ उन्होंने घर बनाने के लिए जमीन खरीदी और धीरे-धीरे खुद अपने हाथों से कच्चा मिट्टी का घर बनाया। घर आँगन की लिपाई पुताई की। थोड़ी स्थिति संभली तो फिर बच्चों को पढ़ाने का सपना जागा, अनौपचारिक स्कूल चलने लगा।
छाचनपुर में 43 घर हैं। छोटे-छोटे मिट्टी के खपरैल वाले और कहीं घास-फूस की झोपड़ियाँ भी। सुघड़ और साफ-सुथरे। घरों के आगे पीछे हरे-भरे पेड़ पौधे हैं और हरी सब्जियाँ भी। यहाँ एक तालाब भी है। जो पश्चिम बंगाल की संस्कृति का हिस्सा है। यहाँ हर गाँव में पोखर तालाब होते हैं। मछली-भात  ( माछ-भात, भात यानी चावल) यहाँ का प्रमुख भोजन है। यहाँ की अधिकांश आबादी गाँवों में रहती है। 
यहाँ स्कूल नहीं है, 5 किलोमीटर दूर डुमडुमी गाँव जाना पड़ता है। ज्यादातर आदिवासी छोटे किसान हैं या मजदूरी करते हैं। सभी आदिवासी हैं, दो परिवार करमाकर के हैं। सरई पत्ता से दोना पत्तल बनाकर बेचते थे। सरकारी स्कूल में पढ़ाई का स्तर अच्छा नहीं है।
मैंने अंकिता के साथ गाँव का एक चक्कर लगाया। लोगों से मिला, बातें कीं। यहाँ के बुजुर्ग लखीराम हेम्राब ने बताया कि पहले यहाँ शांति थी, सुकून था, अब चीजों की भूख बढ़ गई है। पहले हम कम चीजों से ही काम चला लेते थे।” 
यह इलाका पहले जंगल से आच्छादित था। साल का घना जंगल था। अब उजड़ गया है। आदिवासियों का जीवन पूरी तरह जंगल पर ही आधारित है। तेंदू, जाम, आम जैसे फल मिलते थे। जड़ी-बूटियों से लोग छोटी-मोटी बीमारियों का इलाज कर लेते थे। रेवा के पिता खुद जड़ी-बूटी के जानकार थे।  यानी आदिवासियों के पास जंगल, पेड़ पौधे, जड़ी-बूटी का पारंपरिक ज्ञान, जैव विविधता की जानकारी और पर्यावरण संरक्षण की परंपरा थी। जब जंगल नहीं रहा तो अधिकांश लोग मजदूरी करने लगे।
रेवा मुरमू बताती हैं कि इन स्कूलों में एक संथाली भाषा नहीं पढ़ाई जाती, इसलिए हमारे बच्चों को भाषा की दिक्कत का सामना करना पड़ता है। वे संथाली जानते हैं और पढ़ाई होती है बांग्ला में, इसलिए वे समझ नहीं पाते हैं। दूसरी बात यह है कि 5 वीं कक्षा के छात्र ठीक से लिख-पढ़ नहीं सकते, यानी वे स्कूल तो जाते हैं, पर वहाँ ठीक से पढ़ाई नहीं होती। इसलिए हमने बच्चों की पढ़ाई शुरू की।
शाम को जब काम धंधे से बच्चे घर लौटते तो वे रेवा के घर इकट्ठे होते, गपशप करते और पढ़ते। स्कूल चलने लगा। लेकिन इस बीच एक झटका तब लगा जब लक्ष्मी मुरमू को कैंसर हो गया और उनकी वर्ष २०१३ में असमय मृत्यु हो गई ।
लेकिन रेवा मुरमू ने हिम्मत नहीं हारी। उन्हें एक्शन एड नामक संस्था से फैलोशिप मिली और अरूणपोल सील का साथ भी, जो एक्शन एड से जुड़े थे। अरूणोपोल जैसे संवेदनशील युवा शोधकर्ता का साथ मिलने से फिर स्कूल की रचनात्मक सोच को पंख लग गए।
अनौपचारिक शिक्षा के काम में कई व्यक्तियों व संस्थाओं ने सहयोग किया। कोलकाता के गाँधीवादी कार्यकर्ता काजल सेनगुप्ता ने इसमें मदद की। उन्होंने शिक्षा की इस पहल पर लेख लिखा जिसका असर हुआ कि किशोर भारती ट्रस्ट भी इस काम में जुड़ गया। इस ट्रस्ट के सदस्यों ने यहाँ का दौरा किया और इस काम में मदद करने का निर्णय लिया। शैक्षणिक पाठ्यक्रम तैयार करने में और आर्थिक रूप से भी सहयोग किया। और अंत में तय किया गया कि लक्ष्मी मुरमू की याद में एक स्कूल शुरू किया जाए, क्योंकि वह संथाली समुदाय में सामाजिक बदलाव की एक प्रेरणा बन गई थी।
इस स्कूल का नाम भी लक्ष्मी मुरमू की याद में रखा गया- लक्ष्मी मुरमू स्मृति शिशु विद्यालय। इसकी शुरूआत 26 जनवरी, 2015 में हुई।
यह एक छाचनपुर और पड़ोसी गाँवों के लोगों के लिए यह एक सामूहिक प्रयास है। यह संथाली बच्चों का स्कूल है, जिसकी पहल गाँव की ही आदिवासी महिलाओं ने की थी। यह एक ऐसा स्कूल है जिसे आदिवासी महिलाएँ चला रही हैं। लोहार और करमाकर समुदाय की महिलाओं का भी सहयोग है। इस स्कूल का मुख्य जोर आदिवासी और हाशिये के समुदायों के बच्चों को पढ़ाना है, जो अब तक शिक्षा से वंचित रहे हैं।
इस संस्था का उद्देश्य है ऐसा अनुकूल वातावरण बनाना जिसमें छाचनपुर और उसके आसपास के गाँव की महिलाएँ एक साथ बैठकर उनकी उम्मीदें, सोच, सपने, दुख-दर्द और समस्याओं पर बात कर सकें। इस पर चर्चा करना कि किस तरह उनकी आदिवासी संस्कृति दूसरी ओर मुड़ रहीं है, जो सालों से विकसित हुई थी। समुदाय में विकास और सेवाओं से जुड़ी जागरूकता पैदा करना और इस पर बातचीत के लिए अनुकूल माहौल बनाना। सामूहिक रूप से वैकल्पिक ढाँचा विकसित करना जिसमें सामूहिक खेती, किचिन गार्डन, शिक्षा के बारे में विचार करना। यहाँ स्कूल परिसर में नींबू, लीची, कटहल, आम, दालिम, कमरंगा, खजूर, पीपल, कनेर, नीम आदि के पेड़ लगे हैं। स्कूल के किचन गार्डन में भिंडी, करेला, बरबटी, फूलगोभी, बंद गोभी, कद्दू, लौकी, टमाटर, खीरा है। स्कूल में दोपहर का भोजन दिया जाता है, जिसमें इस सब्जी का इस्तेमाल होता है।
इस स्कूल में शिक्षण पद्धति में खासतौर पर ध्यान दिया जाता है-
परिवेश का अध्ययन- आसपास के वातावरण, नदी, नाले, पेड़ पौधे, जंगल और वनस्पतियों का अध्ययन।
बांग्ला भाषा- पहली कक्षा से ही बांग्ला भाषा में अक्षर ज्ञान और पढ़ना लिखना सिखाया जाता है।
गणित- अंक पहचानना और सरल गणित सिखाना।
क्षेत्रीय संस्कृति- नृत्य औऱ लोकगीत।
अंग्रेजी- अंग्रेजी के अक्षर और कहानियाँ पढ़ना- लिखना।
यहाँ संथाली भाषा की लिपि ओलचिकी ( संथाली लिपि) भी सिखाई जाती है। इस भाषा के जानकार शिक्षक भी यहाँ हैं।
वर्तमान में यहाँ 3 से 9 वर्ष तक के बच्चे पढ़ते हैं। कक्षा 4 तक स्कूल है जिसमें 92 बच्चे हैं। स्कूल का संचालन छाचनपुर महिला कल्याण समिति करती है। इस समिति में 11 सदस्य हैं। स्कूल में अब 4 नए कमरे बन गए हैं। शौचालय है, कुआँ है। जिस जमीन पर स्कूल है, उसे खरीदा गया है। छाचनपुर महिला कल्याण समिति के नाम पर जमीन है।
इस स्कूल में प्रतिमाह 100 रू. शुल्क है। रेवा मुरमू बताती हैं कि इन परिवारों की हालत ऐसी है कि वे बच्चों के लिए यूनिफार्म नहीं खरीद पाते। एक चौथाई बच्चे फीस भी नहीं दे पाते।
इस स्कूल में 10 से किलोमीटर दूर गाँव के बच्चे आते हैं। मुसिदीही, तामीलीपाड़ा, सुअराबकड़ा, लेदापोलाश, रांगागोड़ा, लोहा गढ़, खरबना, धौडांगा, घोषेरग्राम, मनकाडीह, दोलपुर, दुमदुमी आदि। स्कूल की गाड़ी है, जो दूर गाँव के बच्चों को घर से लाती है, छोड़ती है।
किशोर भारती ट्रस्ट फार एजूकेशन रिसर्च संस्था ने पाठयक्रम बनाया है। छाचनपुर महिला कल्याण समिति के नाम से स्कूल का बैंक अकाउंट है। इसके अलावा, अंकुर कला ने भी मदद की है। यह महिला कल्याण समिति महिला सशक्तीकरण का काम करती है। आजीविका और महिला अधिकारों पर जागरूकता लाने का काम करती है।
इस स्कूल में 6 शिक्षक हैं। माला तुडु, रीना तुडू, संदीप मंडल, प्रदीप बाघ, गौर चंद्र मंडल और सौमित्र मंडल हैं। इसके अलावा, कुछ रिसर्च फैलो और इंटर्न भी हैं, जो समय समय पर यहाँ आकर रिसर्च करते हैं और स्कूल में मदद करते हैं। सिंदुनिल चटर्जी, अंकिता सान्याल और देवारती कुन्डू हैं। अंकिता सान्याल इनमें से एक हैं, जो साल में करीब 6 महीने यहाँ रहकर बच्चों को पढ़ाती हैं और उनके साथ  शिक्षा की नई गतिविधियाँ करवाती हैं।
इस स्कूल की एक छोटी लायब्रेरी है, जो विकसित हो रही है। अभी इस लायब्रेरी में 700 किताबें हैं जिनमें कहानी, कविता, नाटक की बांग्ला और अंग्रेजी किताबें उपलब्ध हैं।
किताबों के अलावा यहाँ बच्चों को गतिविधि आधारित सीखने-सिखाने पर जोर दिया जाता है। अंकिता सान्याल ने बच्चों के साथ कई नए प्रयोग किए हैं, जिसमें बच्चों को मजा भी आता है। सीखते भी हैं। जैसे पत्थरों को रंग लगाना, छोटे से बड़े क्रम में जमाना। पीपल की पत्तियों को गलाकर उसे रंगना और उससे पत्तों में प्रकाश संश्लेषण और वाष्पीकरण की प्रक्रिया को समझना। खेल खेल में फलों, पत्तों व सब्जियों के नाम जानना और लिखना।
मुझे यहाँ की अपराजिता मुरमू, अंजली सोरेन, सुजाता मोदीकोडा, शिवानी टुडू, पूजा मुरमू आदि बच्चों ने रंग किए पत्थर दिखाए। पीपल के रंगीन सुंदर पत्ते दिखाए और कविताएँ सुनाईँ। वे कहानी को नाटक के रूप में भी खेलते हैं। शिक्षक गौर चंद्र मंडल ने बताया कि आदिवासी बच्चे अन्य बच्चों की अपेक्षा ज्यादा ध्यान से पढ़ते हैं।
इस स्कूल की सोच गाँधी और टेगौर से प्रभावित है। सोच यह है कि गाँव के बच्चे, गाँव की परिस्थिति में पढ़े, और श्रम के कामों से भी जुड़े, उसी से सीखें भी। जो गाँधी की नई तालीम की भी सोच रही है। गाँधीवादी काजल सेन गुप्ता जैसे लोगों के जुड़ने का भी सीधा असर शैक्षणिक पद्धति पर दिखता है। जबकि मुख्यधारा के शासकीय स्कूल हाथ से काम करने को तरजीह नहीं देते हैं।
स्कूल के कमरे इस तरह से बने हैं कि बच्चों और प्रकृति का सीधा रिश्ता बने। स्कूल की दीवारें तीन-चार फुट ही ऊँची है, जिससे बच्चे स्कूल की दीवारों के अंदर कैद न हो। वे पेड़ पौधे, फूल, पत्ते, चिड़िया और खुला आसमान देख सकें। जो आदिवासी जीवन में सहज है। क्योंकि आदिवासियों का पूरा जीवन प्रकृति पर ही है। यह टेगौर की शिक्षा दर्शन से मेल खाती है। शांतिनिकेतन में आज भी पेड़ों के नीचे कक्षाओं में पढ़ाई होती है। टेगौर ने भी संथाली आदिवासियों से बहुत कुछ सीखा था। उनकी लोक कला, प्रकृति के साथ सहअस्तित्व, गीत, नृत्य आदि से टेगौर बहुत प्रभावित थे।
यहाँ कहना उचित होगा कि अधिकांश लोगों की जिंदगी जीवन की आपाधापी और जीविकोपार्जन में ही गुजर जाती है, जिसके कारण वे शिक्षा, साहित्य, संगीत आदि से वंचित रह जाते हैं। जैसे ही लोगों की स्थिति संभलती है वे शिक्षा की ओर मुड़ते हैं। छाचनपुर में जैसे शिक्षा की भूख जगी है, वह अब जगह देखी जा रही है। स्कूल भी हैं, पर उनमें से ज्यादातर में शिक्षा प्राप्त करने का माहौल नहीं है।
कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि छाचनपुर का स्कूल कई मायनों में अलग है। एक तो यहाँ के सभी शिक्षक स्थानीय हैं, स्थानीय ज्ञान, परिवेश, गाँव कृषि संस्कृति की समझ बनाई जा रही है। आदिवासी संस्कृति जो सबको जोड़ती है, जिसमें सामूहिकता है, सहकार है, एक दूसरे की मदद करने की परंपरा है, उसे फिर से स्थापित किया जा रहा है। गाँधी की नई तालीम जिसमें हाथ से उत्पादक काम कर सीखने पर जोर दिया जाता है, इस ओर प्रयास किया जा रहा है। आधुनिक शिक्षा में जहाँ हाथ से, श्रम को तरजीह नहीं दी जाती है, यहाँ इस पर जोर दिया जाता है। आदिवासियत, जो कम ऊर्जा में, कम संसाधनों में बहुत सुघड़ और सादगी से जीवन जीने की पद्धति है, उसे वापस लाया जा रहा है। एक और बात है वह स्थानीय शिक्षकों की प्रतिबद्धता, वे बहुत ही कम वेतन पर आदिवासियों की पहली पीढ़ी को शिक्षित कर रहे हैं, यह मिसाल है। इस स्कूल के बच्चे जंगल, जैव विविधता, पर्यावरण की समृद्ध विरासत को सहेज सकें, यह प्रयास किया जा रहा है। यहाँ 4-5 वीं कक्षाओं में शासकीय पाठ्यक्रम पढ़ाया जाता है, जिससे ये पढ़कर दूसरे स्कूलों में जाएँ तो उन्हें दिक्कत नहीं आती।
चूंकि यह प्रयास नया है, अभी कुछ भी निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी होगी। कुछ चुनौतियाँ भी हैं। जैसे समुदाय आधारित संस्कृति व मूल्यों की वापसी, अभिभावक भी बच्चों को हाथ से काम करने को अभी अच्छा नहीं मानते। किताबी ज्ञान की जगह गतिविधि आधारित ज्ञान से सीखना। पारंपरिक ज्ञान को मान्यता दिलाना।  लगातार स्कूल का प्रबंधन करना, आर्थिक मदद जुटाना आदि।  लेकिन इन सबके बावजूद स्कूल चल रहा है, यह बड़ी उम्मीद है। (विकल्प संगम से साभार)