'अतीत में जितनी दूर
तक देख सकते हो, देखो। इससे भविष्य की राह
निकलेगी।' - चर्चिल
Sep 16, 2015
Sep 15, 2015
हमारी पुरातन धरोहर...
- डॉ. रत्ना वर्मा
भारत
अपने ऐतिहासिक, सांस्कृतिक पुरातन धरोहरों
के मामले में सबसे समृद्ध देश है। आजादी के इतने बरसों बाद भी हम अपनी धरोहर को सँजो पाने में सक्षम नहीं हो
पाए हैं, जबकि इन्ही धरोहरों के बल
पर हम दुनिया भर में जाने जाते हैं। हमें
बड़ी संख्या में पर्यटक इन्हीं पुरातन धरोहरों की बदौलत मिलते हैं, जो हमारी आय का एक बहुत बड़ा स्रोत है। हमारे देश के कुछ शहर
तो इस मामले में धनी हैं और कुछ स्थानों को विश्व धरोहर की श्रेणी में रखा जा चुका
है; परंतु इसके बाद भी हम अपनी
विरासत की साज- सँभाल कर पाने में पिछड़े
हुए हैं।
अपने
अतीत को जानना इसलिए जरूरी है कि इससे हमें गौरव-बोध होता है और भविष्य गढ़ने में मदद मिलती है।
गौरवशाली इतिहास हमें प्रेरणा देता है। संग्रहालयों के जरिये अपने इतिहास को सँजोकर रखने से हम अपना
इतिहास सिर्फ पढ़ते ही नहीं; बल्कि समाज को समझते और उसे बदलते भी है। ऐतिहासिक धरोहर हमें
राजनीति, समाज, अर्थव्यवस्था, कला-संस्कृति आदि सब की
जानकारी देती हैं।
इसी
संदर्भ में इस वर्ष के आरम्भ में भारत सरकार नें देश
के पुरातन शहरों को दुनिया के समक्ष प्रस्तुत करने के उद्देश्य सें 'हृदय' नामक एक योजना की शुरूआत
की है, ताकि भारत की बहुमूल्य सांस्कृतिक
विरासत का संरक्षण हो सके। ऐसा नहीं है कि पूर्व की सरकारों ने अपनी विरासत को
बचाने के लिए कोई प्रयास नहीं किया हो,
किया
तो बहुत कुछ है; परन्तु हमारी समृद्ध धरोहर की
विशालता को देखते हुए हम कितने भी प्रयास कर लें, कम ही हो जाते हैं। दरअसल हमारी सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण संवर्धन के लिए युद्ध स्तर पर प्रयास की
आवश्यकता है। इस मायने में हमें 'हृदय' का स्वागत करना चाहिए और उम्मीद की जानी चाहिए कि इस दिशा में
बेहतर काम होंगे। शुरू में इस योजना में अमृतसर,
अजमेर, वाराणसी, मथुरा, जगन्नाथपुरी जैसे बारह शहर शामिल किए गए हैं। बाद में इस सूची
काअन्य शहरों में विस्तार किया जाएगा।
योजना
का दूसरा पहलू है कि इन धरोहरों के आसपास
के आधारभूत ढाँचे को सुधारा जाए, जिससे देशी-विदेशी पर्यटक इन धरोहरों को देखने आ सकें। इस पूरे
प्रयास में सबसे बड़ी मुश्किल उन शहरों में आने वाली है, जहाँ बड़ी संख्या में लोग
पुरातन धरोहरों पर नाजायज कब्जा जमाए बैठे हैं। ये लोग दशाब्दियों से यहाँ काबिज हैं और बिना किसी
दस्तावेज़ के और बिना किसी अधिकार
के इन सम्पत्ति के ऊपर अवैध कब्जे
जमाए बैठे हैं, उन्हें निकालना एक टेढ़ी
खीर होगा। अगर
जिला प्रशासन, प्रदेश -शासन और केन्द्र सरकार मिलकर कमर कस लें, तो छोटी-सी जाँच में यह स्पष्ट हो जाएगा
कि ये लोग बिना किसी कानूनी अधिकार के अरबों की सम्पत्ति दबाए बैठे हैं और उसे बेच
रहे हैं। जरूरत शासन और प्रशासन के दृढ़ संकल्प की है फिर कोई काम मुश्किल नहीं होगा।
यह
तो जग जाहिर है कि जागरूकता के अभाव में भारत के ऐतिहासिक धरोहर बहुत तेजी से नष्ट
होती जा रही हैं। इसका एक बहुत बड़ा
कारण पिछले दो दशकों में, शहरी ज़मीन के दाम में चार गुना बढ़ोतरी है। भू-माफिया, जीर्ण- क्षीण हो चुकी
इमारतों को कौड़ियों के मोल खरीद लेते हैं और
उसे नष्ट कर आधुनिक साज- सज्जा से युक्त कई मंजिला भवन में बदल कर अरबों- खरबों
कमा लेते हैं। यही नहीं इन भवनों में सदियों पहले की बनी हुई कलाकृतियाँ,
भित्ति।-चित्र, पत्थर की नक्काशियाँ तथा लकड़ी पर कारीगरी का बहुमूल्य काम
होता है, वह भी कबाड़ियों के हाथों बेच दिया जाता है। कुछ धरोहर ऐसी हैं कि उन पर कोई काबिज़ नहीं, वे उपेक्षित हैं। बहुत
–से लोग जाने-अनजाने उनको विकृत करने में भी पीछे
नहीं। देखभाल के अभाव में वे निरन्तर नष्ट हो रही हैं।
इन
सब दु:खद पहलुओं को देखते हुए ‘हृदय’ नामक इस योजना के उस पहलू
की प्रशंसा की जानी चाहिए, जिसमें यह कहा गया
है कि अब इन शहरों की धरोहरों की रक्षा का
दायित्व सिर्फ पुरातत्त्व विभाग के पास नहीं होगा, बल्कि धरोहरों से प्रेम करने वाले लोग भी इन्हें बचाने में
सक्रिय भागीदारी निभा सकेंगे। इससे जीर्णोद्धार के काम में कलात्मकता और सजीवता
आने की सम्भावना बढ़ गई है। इसके
बावजूद यह भी सत्य है कि यह काम इतना आसान नहीं है, जितना योजना के प्रारूप में
दिखाई दे रहा है।
फिर
भी कोई काम ऐसा नहीं होता जिसे सफलता से किया ना जा सके इसके लिए यह जरूरी है कि
हर पुरातन शहर के नागरिकों, कलाप्रेमियों, कलाकारों, समाज सेवी संस्थाओं, शिक्षकों, वकीलों, डॉक्टरों, इंजीनियर और पत्रकारों को
साथ लेकर एक जनजाग्रति अभियान चलाया जाए। जनता
की भागीदारी ऐसी हो कि वे हर निर्माणाधीन प्रोजेक्ट की निगरानी रख सकें, तभी
कुछ सार्थक उपलब्धि हो पाएगी, वरना हृदय की बात बस हृदय
में ही रह जाएगी।
इस
संदर्भ में उदंती का यह पूरा अंक छत्तीसगढ़ की धरोहरों पर केन्द्रित
किया गया है। छत्तीसगढ़ अपनी पुरातत्त्वीय
धरोहर के मामले में बहुत धनी प्रदेश है। एक छोटे सेअंक में प्रदेश भर की धरोहरों
को सँजो पाना मुश्किल ही नहीं
असम्भव है। इसके लिए पूरा एक साल भी कम पड़ जाएगा, परन्तु आप सबके सहयोग से आगे भी
यह प्रयास जारी रहेगा।
अतीत को वर्तमान से जोड़ते
अतीत को वर्तमान से जोड़ते
- राहुल सिंह
'शहरीकरण और जनसंख्या के विस्तार के दबावों से देश भर में हमारे
ऐतिहासिक स्मारकों के लिए खतरा पैदा हो गया है।' ... 'पुरातत्त्व विज्ञान हमारे भूतकाल को वर्तमान से जोड़ता है
और भविष्य के लिए हमारी यात्रा को परिभाषित करता है। इसके लिए दूर दृष्टि, उद्देश्य
के प्रति निष्ठा और विभिन्न सम्बद्ध पक्षों के सम्मिलित प्रयासों की आवश्यकता
होगी। मुझे उम्मीद है कि आप इस महत्त्वपूर्ण प्रयास के दायित्व को सँभालेंगे।' यह बात
प्रधानमंत्री ने 20 दिसंबर को नई दिल्ली में आयोजित भारतीय पुरातत्तव सर्वेक्षण की 150वीं
वर्षगांठ समारोह में यह कहा। इस दौर में मैंने 'पुरातत्त्व
', 'सर्वेक्षण' शब्दों पर विचार किया जिसे आप सबके साथ बाँट रहा हूँ-
आमतौर पर पिकनिक, घूमने-
फिरने, पर्यटन के लिए पुरातात्विक स्मारक-मन्दिर देखने का कार्यक्रम बनता है और कोई गाइड नहीं
मिलता, न ही स्थल पर जानकारी देने वाला। ऐसी स्थिति का सामना किए
आशंकाग्रस्त लोग, पुरातत्त्व से संबंधित होने
के कारण साथ चलने का प्रस्ताव रखते हुए कहते हैं कि जानकार के बिना ऐसी जगहों पर
जाना निरर्थक है, लेकिन ऐसा भी होता है कि किसी जानकार के साथ होने पर आप अनजाने-
अनचाहे, उसी के नज़रिए से चीज़ों को देखने लगते हैं। अवसर बने और कोई जानकार, विशेषज्ञ
या गाइड का साथ न हो तो कुछ टिप्स आजमाएँ-
मानें कि प्राचीन मन्दिर देखने जा रहे हैं। गंतव्य पर पहुँचते हुए समझने
का प्रयास करें कि स्थल चयन के क्या कारण रहे होंगे, पानी उपलब्धता, नदी-
नाला, पत्थर उपलब्धता,
प्राचीन पहुँच मार्ग, आसपास बस्ती- आबादी और इसके साथ स्थल से जुड़ी दन्तकथाएँ , मान्यताएँ
, जो कई बार विशेषज्ञ से नज़रअंदाज़ हो जाती हैं। स्थल अब वीरान हो तो
उसके सम्भावित कारण जानने- अनुमान करने का प्रयास करें। यह जानना भी रोचक होता है
कि किसी स्थान का पहले- पहल पता कैसे चला, उसकी महत्ता कैसे बनी।
काल, शैली और
राजवंश की जानकारी तब अधिक उपयोगी होती है जब इसका इस्तेमाल तुलना और विवेचना के
लिए हो, अन्यथा यह रटी- रटाई सुनने और दूसरे को बताने तक ही सीमित रह जाती
है। प्राचीन स्मारकों के प्रति दृष्टिकोण 'खण्डहर' वाला हो
तो निराशा होती है, लेकिन उस बचे, सुरक्षित रह गए प्राचीन कलावशेष, उपलब्ध प्रमाण की तरह देखें
तो वही आकर्षक और रोचक लगता है। मौके पर अत्यधिक श्रद्धापूर्वक जाना, 'दर्शन' करने
जैसा हो जाता है, इसमें देखना छूट जाता है और अपने देख चुके स्थानों की सूची में वह
जुड़ बस जाता है, मानों 'अपने तो हो गए चारों धाम'।
मन्दिर , आस्था
केन्द्र तो हैं ही, उसमें अध्यात्म- दर्शन की कलात्मक अभिव्यक्ति के साथ वास्तु- तकनीक
का अनूठा समन्वय होता है। मन्दिर स्थापत्य
को मुख्यत: किसी अन्य भवन की तरह,
योजना (plan) और उत्सेध (elevation), में देखा जाता है। मन्दिर की
योजना में सामान्य रूप से मुख्यत: भक्तों के लिए मंडप और भगवान के लिए गर्भगृह
होता है। उत्सेध में जगती या चबूतरा, उसके ऊपर पीठ और अधिष्ठान/
वेदिबंध, जिस पर गर्भगृह की मूल प्रतिमा स्थापित होती है, फिर
दीवारें- जंघा और उस पर छत- शिखर होता है। सामान्यत: संरचना की बाहरी दीवार पर और
गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर प्रतिमाएँ होती हैं, कहीं शिलालेख और पूजित मन्दिरों
में ताम्रपत्र, हस्तलिखित पोथियाँ भी होती
हैं।
सामान्यत: मन्दिर पूर्वाभिमुख और प्रणाल (जल निकास की नाली) लगभग
अनिवार्यत: उत्तर में होता है। मन्दिर की
जंघा पर दक्षिण व उत्तर में मध्य स्थान मुख्य देवता की विग्रह मूर्त्तियाँ होती हैं और पश्चिम में सप्ताश्व रथ पर आरूढ़, उपानह
(घुटने तक जूता), कवच, पद्मधारी सूर्य की प्रतिमा होती है। दिशाओं/ कोणों पर पूर्व- गजवाहन
इन्द्र, आग्नेय- मेषवाहन अग्नि, दक्षिण- महिषवाहन यम, नैऋत्य-
शववाहन निऋति, पश्चिम- मीन/ मकरवाहन वरुण, वायव्य- हरिणवाहन वायु, उत्तर-नरवाहन
कुबेर, ईशान- नंदीवाहन ईश,
दिक्पाल प्रतिमाएँ होती हैं। मूर्त्तियों की पहचान के लिए उनके
वाहन- आयुध पर ध्यान दें ,तो आमतौर पर मुश्किल नहीं होती। यह भी कि प्राचीन
प्रतिमाओं में नारी- पुरुष का भेद स्तन से ही संभव होता है, क्योंकि
दोनों के वस्त्राभूषण में कोई फर्क नहीं होता।
विष्णु की प्रतिमा शंख, चक्र, गदा, पद्मधारी
और गरुड़ वाहन होती है। उनके अवतारों में अधिक लोकप्रिय प्रतिमाएँ वराह, नृसिंह, वामन आदि
अपने रूप से आसानी से पहचानी जाती हैं। शिव सामान्यत: जटा मुकुट, नंदी और
त्रिशूल, डमरू, नाग, खप्पर, सहित होते हैं। ब्रह्मा, श्मश्रुल (दाढ़ी- मूंछ
युक्त), चतुर्मुखी, पोथी, श्रुवा, अक्षमाल, कमंडलु धारण किए,
हंस वाहन होते हैं। कार्तिकेय को मयूर वाहन, त्रिशिखी
और षण्मुखी, शूलधारी, गले में बघनखा धारण किए दिखाया जाता है। दुर्गा- पार्वती, महिषमर्दिनी
,सिंहवाहिनी होती हैं तो गौरी के साथ पंचाग्नि, शिवलिंग और वाहन गोधा
प्रदर्शित होता है। सरस्वती,
वीणापाणि, पुस्तक लिए, हंसवाहिनी
हैं। लक्ष्मी को पद्मासना, गजाभिषिक्त प्रदर्शित किया जाता है।
जैन प्रतिमाएँ , कायोत्सर्ग
यानी समपाद स्थानक मुद्रा में (एकदम सीधे खड़ी) अथवा पद्मासनस्थ/ पर्यंकासन में
सिंहासन, चँवर, प्रभामंडल, छत्र, अशोक वृक्ष आदि सहित, किन्तु मुख्य प्रतिमा
अलंकरणरहित होती हैं। तीर्थंकर प्रतिमाओं में ऋषभदेव/ आदिनाथ- वृषभ लांछनयुक्त व
स्कंध पर केशराशि, अजितनाथ- गज लांछन,
संभवनाथ- अश्व, चन्द्रप्रभु- चन्द्रमा, शांतिनाथ-
मृग, पार्श्वनाथ- नाग लांछन और शीर्ष पर सप्तफण छत्र तथा महावीर- सिंह
लांछन, प्रमुख हैं। तीर्थंकरों के अलावा ऋषभनाथ के पुत्र, बाहुबलि
की प्रतिमा प्रसिद्ध है। जैन प्रतिमाओं को दिगम्बर (वस्त्राभूषण रहित) तथा उनके
वक्ष मध्य में श्रीवत्स चिह्न से पहचानने में आसानी होती है।
आसनस्थ बुद्ध, भूमिस्पर्श
मुद्रा या अन्य स्थानक प्रतिमाओं जैसे अभय, धर्मचक्रप्रवर्तन, वितर्क
आदि मुद्रा में प्रदर्शित होते हैं। अन्य पुरुष प्रतिमाओं में पंचध्यानी बुद्ध के
स्वरूप बोधिसत्व, अधिकतर पद्मपाणि अवलोकितेश्वर, वज्रपाणि और खड्ग- पोथी
धारण किए मंजुश्री हैं और नारी प्रतिमा, उग्र किन्तु मुक्तिदात्री
वरदमुद्रा, पद्मधारिणी तारा होती हैं। कुंचित केश के अलावा बौद्ध प्रतिमाओंकी
जैन प्रतिमाओं से अलग पहचान में उनका श्रीवत्सरहित और मस्तक पर शिरोभूषा में लघु
प्रतिमा होना सहायकहोता है।
मन्दिर गर्भगृह प्रवेश द्वार के दोनों पार्श्वऊर्ध्वाधर
स्तंभों पर रूपशाखा की मिथुन मूर्त्तियों सहित द्वारपाल प्रतिमाएँ व मकरवाहिनी गंगा और कच्छपवाहिनी यमुना होती
हैं। द्वार के क्षैतिज सिरदल के मध्य ललाट बिम्ब पर गर्भगृह में स्थापित प्रतिमा
का ही विग्रह होता है। लेकिन पाँचवीं- छठीं सदी के आरंभिक मन्दिरों में लक्ष्मी और
चौदहवीं- पन्द्रहवीं सदी से इस स्थान पर गणेश की प्रतिमा बनने लगी तथा इस स्थापत्य
अंग का नाम ही गणेश पट्टी हो गया। यहीं अधिकतर ब्रह्मा- विष्णु- महेश, त्रिदेव
और नवग्रह, सप्तमातृकाएँ स्थापित होती
हैं। आशय होता है कि गर्भगृह में प्रवेश करते, ध्यान मुख्य देवता पर
केन्द्रित होते ही सभी ग्रह- देव अनुकूल हो जाते हैं, गंगा-
यमुना शुद्ध कर देती हैं। यहीं कल्प- वृक्ष अंकन होता है यानी अन्य सभी लौकिक आकांक्षाओं से आगे बढऩे पर गर्भगृह
में प्रवेश होता है और देव- दर्शन उपरांत बाहर आना, नए जन्म की तरह है।
यह जिक्र भी कि पुरातत्त्व का तात्पर्य मात्र उत्खनन नहीं और न ही पुराविद्
है ;जिसका काम सिर्फ रहस्यमयी गुफा या सुरंग के खोज अभियान में जुटा रहना है। यह
भी कि उत्खनन कोरी सम्भावना के चलते नहीं किया जाता, बल्कि ठोस तार्किक आधार और
धरातल पर मिलने वाली सामग्री,
दिखने वाले लक्षण के आधार पर, आवश्यक
होने पर ही किया जाता है। बात काल और शैली की, तो सबसे प्रचलित शब्द हैं-
बुद्धकालीन और खजुराहो शैली,
इस झंझट में अनावश्यक न पड़ें, क्योंकि
वैसे भी बुद्धकाल (छठीं सदी ईस्वी पूर्व) की कोई प्रतिमा नहीं मिलती और खजुराहो
नामक कोई शैली नहीं है, और इसका आशय मिथुन मूर्त्तियों से है, तो ऐसी कलाकृतियाँ कमोबेश लगभग प्रत्येक प्राचीन मन्दिर में होती हैं।
आम ज़ुबान पर एक अन्य शब्द
कार्बन- 14 डेटिंग होता है,
वस्तुत: यह काल निर्धारण की निरपेक्ष विधि है, लेकिन
इससे सिर्फ जैविक अवशेषों का तिथि निर्धारण, सटीक नहीं, कुछ अंतर
सहित ही सम्भव होता है तथा यह विधि ऐतिहासिक अवशेषों के लिए सामान्यत: उपयोगी नहीं
होती या कहें कि किसी मन्दिर ,
मूर्त्ति या 'ज्यादातर पुरावशेषों के
काल- निर्धारण में यह विधि प्रयुक्त नहीं होती, बल्कि सापेक्ष विधि ही
कारगर होती है, अपनाई जाती है।
किसी स्मारक/स्थल के खण्डहर
हो जाने के पीछे कारण आग, बाढ़, भूकम्प या आततायी- आक्रमण, विधर्मियों की करतूत ही जरूरी नहीं, बल्कि
ऐसा अक्सर स्वाभाविक और शनै: शनै: होता है और कभी समय के साथ उपेक्षा, उदासीनता, व्यक्तिगत
प्राथमिकताओं के कारण भी होता है। स्थापत्य खण्ड, मूर्त्तियों या शिलालेख का
उपयोग आम पत्थर की तरह कर लिये जाने के ढेरों उदाहरण मिलते हैं और एक ही मूल के
लेकिन अलग- अलग पंथों के मतभेद के चलते भी कम तोड़फोड़ नहीं हुई है।
इस सबके साथ स्वयं सहित कुछ
परिचितों के पैतृक निवास की वर्तमान दशा पर ध्यान दें, वीरान हो
गए गाँव भी ऐसे तार्किक अनुमान के लिए
उदाहरण बनते हैं। ऐसे उदाहरण भी याद करें, जिनमें आबाद भवन धराशायी हो
गए हैं, मन्दिर के खण्डहर बन जाने के
पीछे भी अक्सर ऐसी ही कोई बात होती है।
सम्पर्क- संस्कृति
विभाग, रायपुर (छ.ग.) मो. 9425227484
चंदखुरी: कौशल्या का मायका था छत्तीसगढ़
चंदखुरी
कौशल्या का मायका था छत्तीसगढ़
भारत के हृदय में स्थित छत्तीसगढ़
प्रदेश सांस्कृतिक विरासत एवं आकर्षक नैसर्गिक विविधताओं से परिपूर्ण हैं ।
छत्तीसगढ़ की पुरातत्त्व सम्पदा छत्तीसगढ़
को देश-विदेश में अलग रेखांकित करती है। आकर्षक पर्वत।-मालाएँ, नैसर्गिक वनांचल छत्तीसगढ़ के गौरवशाली इतिहास के साक्षी है ।
छत्तीसगढ़ अपने आप में समृद्ध पर्यटन क्षेत्र है। यह भू-भाग ऐतिहासिक, पुरातात्त्वीय, पौराणिक, धार्मिक दृष्टि से भी अत्यन्त प्रतिष्ठित है। दक्षिण कोसल इसका
प्राचीन नाम है। यहाँ के भौगोलिक स्थिति
के चिह्न7वीं शताब्दीं ईस्वी से महाभारत और रामायण
में जीवन्त है ।
भगवान श्री राम ने दक्षिण कोशल के उत्तर
तथा पूर्व भू-भागों से होते हुए दण्डाकारण्य में प्रवेश किया था। उन्होंने वनवास
की कुछ अवधि इस क्षेत्र में बिताई थी। महाभारत में भी पांडवों के युद्ध अभियान प्रसंग
में दक्षिण-कोसल का विवरण है। प्रचलित किंवदतियाँ ,
दन्तकथाएँ, पौराणिक साक्ष्य इन सब बातों की अधिक पुष्टि करते हैं ।
छत्तीसगढ़ में यह प्रचलित मान्यता है कि
माता कौशल्या इसी प्रदेश (कोशल) की रहने वाली थीं,
इसीलिए इसे
रामचन्द्र जी का ननिहाल माना जाता है। वानरराज सुग्रीव ने अपने साथियों को इसी दण्डकारण्य
क्षेत्र में सीताजी का पता लगाने भेजा था।
महाभारत काल में इसी पर्वत पर परशुराम का
आश्रम होने का भी उल्लेख है। जनश्रुति है इसी पर्वत में जाकर दानवीर कर्ण ने उनसे
शिक्षा पाई थी। रतनपुर,
आरंग एवं सिरपुर तीनों
महाभारत कालीन नगर हैं। इसी तरह रामायण के पात्रों के नाम पर ग्राम एवं बस्तियाँ पहचानी गई हैं जैसे - रामपुर, लक्ष्मणपुर, भरतपुर,
जनकपुर, सीतापुर आदि। रायगढ़ एवं बिलासपुर जिले के सीमा पर कोसीर ग्राम में
तथा आरंग के निकट ग्राम बोरसी में भी महारानी कौशल्या का प्राचीन मन्दिर मिलता है। इस प्रकार कौशल्या माता के मन्दिर केवल छत्तीसगढ़ में ही अनेक स्थानों पर देखने को
मिलते हैं।
प्राचीन धर्मग्रंथों से यह ज्ञात होता है
कि छत्तीसगढ़ के राजा महाकोशल की पुत्री होने के कारण राममाता को कौशल्या नाम से
संबोधित किया जाता था (कोशलात्मजा कौशल्या मातु राम जननी)। इसी वजह से यह क्षेत्र
महाकोशल अथवा कोशल क्षेत्र कहलाया। वाल्मीकि रामायण में भी इक्षवाकु वंश राजा दशरथ
और कोशल देश की राजकन्या कौशल्या के विवाह- प्रसंग का विशद वर्णन है। इस विवाह के
अवसर पर कोशल नरेश महाकोशल ने अपनी पुत्री को स्त्रीधन के रूप में दस हजार गाँव दान में दिए थे।
ऋषिमुनि कह गए हैं कि -
क्रियाशक्तिश्च कैकेयी वेटो दशरथो नृप:
जगत पिता परमात्मा जिनके घर अवतरित हुए
हों ,उन भाग्यशाली जगन्माता के विषय में कोई कह ही क्या सकता है, पूर्वजन्म में जो मनुशतरूपा थे ,वे ही इस जन्म में दशरथ के रूप में
अवतरित हुए। महारानी कौशल्या कोशल नरेश भानुमन्त की पुत्री थी। पुराणों में ऐसी एक
कथा का भी उल्लेख है - रावण को यह पता था कि
मुझे मारने वाले राम कौशल्या के गर्भ से ही उत्पन्न होंगे। अत: विवाह के पूर्व ही
गिरिजा पूजन करने गई कौशल्या का उन्होंने अपहरण कर लिया था।
प्राप्त साक्ष्य के अनुसार विनत वंश में
कोशल नामक एक महाप्रतापी राजा हुए थे ,उनके ही नाम पर इस क्षेत्र का कोशल नामकरण
हुआ। उनकी राजधानी बिलासपुर के मल्हार के निकट कोशल नगर में थी। कोशल वंश में आगे
चलकर भानुमान हुए ,जिसका उल्लेख वाल्मीकि रामायण में मिलता है।
रायपुर से सराईपाली जाने वाले राष्ट्रीय
राजमार्ग पर रायपुर से 15 किमी दूर मन्दिर हसौद स्थित है,
यहाँ से बाईं ओर 11
किमी दूर मन्दिर हसौद से पक्की सड़क पर बैद चंदखुरी स्थित है।
चंदखुरी गाँव में पटेल पारा में सोमवंशी
नरेशों द्वारा बनाया गया 9वीं सदी में निर्मित भव्य शिवमन्दिर है। जिसे पुरातत्त्व विभाग ने संरक्षित घोषित किया है।
चंदखुरी ग्राम में मोहदी ग्राम जाने के
रास्ते में भरनी तालाब के पहले एक खलिहान के बाहर बाईं ओर लगभग चार फीट ऊँचा
शिवलिंग स्थापित है; जिसके ऊपर का हिस्सा गोलाकार तथा नीचे का आधा भाग चौकोर
वर्गाकार है। इस शिवलिंग की बनावट आरंग के शिवलिंग के समान है। यह शिवलिंग सोमवंशी
शासनकाल की है। इसी प्रकार भरनी तालाब के किनारे पीपल की जड़ में ऐसी ही प्राचीन
छोटी आकृति का शिवलिंग स्थापित है।
चंदखुरी पचेड़ा मार्ग में बलसेन तालाब के
बीच एक टीला है जो बारह मास जल से घिरा रहता है। इसी टिले में स्थित मन्दिर में प्राचीन कौशल्या देवी की प्रतिमा स्थापित
है। वर्तमान मन्दिर का निर्माण गाँव वालों ने 1916
में करवाया था। इस मन्दिर
में राम लक्ष्मण की प्रतिमा स्थापित है।
राम मन्दिर के सामने हनुमान मन्दिर है तथा दाहिने पार्श्व में शिव परिवार का मन्दिर
है। शिव मन्दिर को देखने से यह पता चलता है कि इसका अनेक बार
जीर्णोद्धार किया गया है ; जिसके कारण उसका मूल स्वरूप विकृत हो गया है। कौशल्या मन्दिर
के आसपास बड़ी संख्या में प्राचीन मन्दिरों
के अवशेष बिखरे मिले थे। इससे अनुमान लगाया जाता है कि किसी समय वहाँ भव्य मन्दिर था। पिछले दिनों पर्यटन विभाग ने चंदखुरी के इस
क्षेत्र को पर्यटन की दृष्टि से विकसित करने हेतु योजना तैयार की है।विश्वास है कि शीघ्र ही यह गाँव पर्यटन के मानचित्र पर नजर आने लगेगा।
जहाँ कभी 126 तालाब थे
छत्तीसगढ़ की प्राचीन नगरी आरंग में मन्दिर
, मठ किले एवं जलाशयों की बहुलता है। इस क्षेत्र के लोकगीत में
छह कोरी छह तरिया का उल्लेख है, जिसका मतलब यहाँ 126
तालाब थे। इनमें से
कई तालाब आज भी विद्यमान है। रानीसागर तालाब
को जलक्रीड़ा के लिए बनाया गया था; जिसके अवशेष ही अब नज़र आते हैं। पास ही महल का
भग्नावशेष है तथा छत्तीस एकड़ में फैला झलमला तालाब है जो कौशल्या कुण्ड के नाम से
प्रसिद्ध है। इन्हीं सब तथ्यों के आधार पर इसे दक्षिण कोशल की प्राचीन राजधानी
माना जाता है। (उदंती
फीचर्स)
ताला : शिव की नगरी
शिव की नगरी
मन्दिर के वास्तुकला, शिल्पकला के अनुसार देवरानी मन्दिर किसी अधिष्ठात्री देवी (पार्वती स्वरूप) की मन्दिर रही होगी, जहाँ पशुबलि की भी प्रथा थी, जो पुरावशेषों के प्रमाण के रूप में आज भी विद्यमान है।
छत्तीसगढ़ में बिलासपुर से 30 किलोमीटर दूर अमठी-काँपा ग्राम के समीप मनियारी नदी के तट पर स्थित 'ताला में दो शैव मन्दिर हैं, जो देवरानी- जेठानी के नाम से विख्यात हैं। जेठानी मन्दिर अत्यंत ही खराब हालत में है जबकि देवरानी मन्दिर की स्थिति अपेक्षाकृत बेहतर है। ये दोनों मन्दिर अपनी विशिष्ट कला के कारण प्रसिद्ध हैं। प्रति वर्ष माघ पूर्णिमा में यहाँ पर मेले का आयोजन किया जाता है। ताला के पास ही एक और ऐतिहासिक नगर 'मल्हार' मात्र पांच किलोमीटर दूरी पर स्थित है।
भारतीय पुरातत्त्व के पहले महानिदेशक एलेक्जेन्डर कनिंघम के सहयोगी जे.डी. बेलगर को ताला गाँव की सूचना 1873-74 में तत्कालीन कमिश्नर फिशर ने दी। एक विदेशी पुरातत्त्व वेत्ता महिला जेलियम विलियम्स ने इसे चन्द्रगुप्त काल का मन्दिर बताया है। ताला मन्दिर के भग्नावशेष में ईंट मिलने से ऐसा प्रतीत होता है कि मन्दिर निर्माण में ईंट से किया गया था। अत: पुरातत्त्ववेत्ता इसके काल का निर्धारण पाँचवी- छठवीं शताब्दी का करते हैं; जिसका जीर्णोद्धार कलचुरि राजवंश में हुआ था। इतिहासकारों के अनुसार इस मन्दिर को शरभपुरीय शासकों के राजप्रसाद की दो रानियों देवरानी- जेठानी ने बनवाया है। जेठानी मन्दिर की सफाई के समय दो मुद्राएँ प्राप्त हुईं; जिसमें एक शरभपुरी शासक की रजत मुद्रा तथा दूसरी रतनपुर के कलचुरि शासक की जिसमे श्रीमद् रत्नदेव अंकित है।
मन्दिर के वास्तुकला, शिल्पकला के अनुसार देवरानी मन्दिर किसी अधिष्ठात्री देवी (पार्वती स्वरूप) की मन्दिर रही होगी, जहाँ पशुबलि की भी प्रथा थी, जो पुरावशेषों के प्रमाण के रूप में आज भी विद्यमान है। जेठानी मन्दिर के चारो ओर खुला होने का कारण पूजा, अनुष्ठान व यज्ञस्थल रहा होगा। भग्नावशेषों में प्राप्त दशमहाविद्या की देवी धूमावती की प्रतिमा से प्रतीत होता है कि यह तंत्र साधना का शक्ति केन्द्र एवं ज्योतिष का बहुत बड़ा केन्द्र रहा होगा। प्राप्त पुरावशेषों में मानव, पशुओं के जीवन संहार का शिल्पांकन इसका प्रमाण है। असमानुपातिक भव्य जीव- जन्तुओं एवं देवी- देवताओं, स्त्री- पुरुष प्रतिमाओं का शिल्पांकन, पुरावशेषों में मानव, पशुओं के जीवन- संहार का प्रमाण है।
देवरानी मन्दिर 15 मीटर की दूरी पर है। जेठानी मन्दिर एवं विशाल जगमोहन ध्वस्त अवस्था में है। ये दोनों ही शिवमन्दिर हैं। मन्दिर के तल विन्यास में आरंभिक चन्द्रशिला और सीढ़िय़ों के बाद अर्धमण्डप, अन्तराल गर्भगृह तीन प्रमुख भाग हैं। मन्दिर की सीढिय़ों पर शिव के यक्षगण और गंधर्वो की सुन्दर आकृतियाँ डोलोमटिक लाइमस्टोन पर खुदी हुई हैं। मनियारी नदी में मिलने वाले पत्थरों का प्रयोग यहाँ किया गया है। निचले हिस्से में शिव-पार्वती विवाह के दृश्य उत्कीर्ण हैं। प्रवेश द्वार के उत्तरी पार्श्वमें दोनों किनारों में विशाल स्तम्भ के दोनों और 6- 6 फीट के हाथी बैठी मुद्रा में हैं। दक्षिण की और मुख्य प्रवेश द्वार के अलावा पूर्व और पश्चिम दिशा में भी द्वार हैं। मुख्य प्रवेश द्वार पर पत्थरों के कलात्मक स्तम्भ हैं।
उत्खनन से प्राप्त अतिरिक्त मूर्त्तियों में चतुर्भुज कार्तिकेय की मयूरासन प्रतिमा है। द्विमुखी गणेश की प्रतिमा अपने दाँत को एक हाथ में लिए चन्द्रमा में प्रक्षेपण के लिए उद्यत मुद्रा में है। अर्धनारीश्वर, उमा- महेश, नागपुरुष, यक्ष मूर्त्तियों में अनेक पौराणिक कथानक झलकते हैं। शाल भंजिका की भग्न मूर्त्ति में शरीर सौष्ठवता व कलात्मक सौन्दर्य का संतुलित प्रयोग किया गया है। एक विशाल चतुर्भज प्रतिमाकी भाव भंगिमा से महिषासुरमर्दिनी की मूर्त्ति का बोध होता है; जिसकी भुजाएँ तथा आयुध खण्डित हैं ।
देवरानी- जेठानी मन्दिर विशिष्ट तल विन्यास, विलक्षण प्रतिमा निरूपण तथा मौलिक अलंकरण की दृष्टि से भारतीय कला में विशेष रूप से चर्चित है। उत्खनन के बाद के अध्ययन से पता चलता है कि ईसा पूर्व से दसवीं शताब्दी तक यह अत्यंत समृद्ध स्थल रहा होगा। मूर्त्तियों की शैली और प्राप्त अवशेषों से पता चलता है कि लम्बे काल तक यह स्थल विभिन्न संस्कृतियों की धर्मस्थली रही होगी, जो शैव पूजक थी साथ ही यह स्थान तांत्रिकों की अनुष्ठान -स्थली भी रही होगी। पर्यटन की दृष्टि से ताला के इस पुरातात्त्विक स्थल के विकास के लिए विभिन्न योजनाओं को सरकार द्वारा मंजूरी दी गई है।
देवरानी मन्दिर के उत्खनन में प्राप्त रुद्रशिव की विशाल प्रतिमा छत्तीसगढ़ के इस क्षेत्र को पुरातत्त्व की दृष्टि से और भी महत्त्वपूर्ण बना देती है।
रूद्रशिव की विशाल प्रतिमा
शिल्पी ने प्रतिमा के शारीरिक विन्यास में पशु पक्षियों का अद्भुत संयोजन किया है। विद्वानों के अनुसार महाकाल रूद्रशिव की प्रतिमा का अलंकार बारह राशियों एवं नौ ग्रहों के साथ हुआ है।
भारतीय शिल्प में मूर्त्ति निर्माण की परम्परा बहुत ही प्राचीन काल से चली आ रही है। कला इतिहासकारों ने इन प्रतिमाओं को उनके लक्षण एवं शैलियों के आधार पर विवेचनाएँ प्रस्तुत की हैं ;किन्तु कभी- कभी ऐसी विलक्षण प्रतिमाएँ मिल जाती हैं ,जो पुरातत्त्व वेत्ताओं एवं कला इतिहासज्ञों के लिए समस्या बन जाती हैं। ऐसी ही एक अद्भुत प्रतिमा छत्तीसगढ़ में बिलासपुर जिले के ताला गाँव में प्राप्त हुई है।
वर्ष 1987-88 में देवरानी मन्दिर के परिसर में उत्खनन के दौरान यह विलक्षण प्रतिमा मिली है। यह प्रतिमा भारतीय कला में अपने ढंग की एकमात्र ज्ञात प्रतिमा है। शैव सम्प्रदाय से सम्बन्धित इस प्रतिमा का शिल्प अद्भुत है। शिव के रूद्र अथवा अघोर रूप से सामंजस्य होने के कारण सुविधा की दृष्टि से इसका नामकरण रुद्रशिव किया गया है। ताला से प्राप्त प्रतिमाओं में यही एक मात्र लगभग परिपूर्ण प्रतिमा है।
यह विशाल प्रतिमा 9 फुट ऊँची एवं 5 टन वजनी। इसमें शिल्पी ने प्रतिमा के शारीरिकविन्यास में पशु पक्षियों का अद्भुत संयोजन किया है। विद्वानों के अनुसार महाकाल रूद्रशिव की प्रतिमा का अलंकार बारह राशियों एवं नौ ग्रहों के साथ हुआ है।
विभिन्न जीव -जन्तुओं की मुखाकृति से इसके अंग-प्रत्यंग निर्मित होने के कारण प्रतिमा में रौद्र भाव संचारित है। प्रतिमा समपाद स्थानक मुद्रा में प्रदर्शित है। इस महाकाय प्रतिमा के रूपांकन में गिरगिट, मछली, केकड़ा, मयूर, कच्छप सिंह आदि जीव-जन्तु तथा मानव मुखों की मौलिक प्रकल्पना युक्त रूपाकृति अत्यंत ओजस्वी है। इसके शिरोभाग पर मण्डलाकार चक्रों में लिपटे हुए गिरगिट के पृष्ठ भाग से नासिका रंध्र, सिर से नासाग्र तथा पिछले पैरों से भौंह निर्मित है। बड़े आकार के मेंढक के विस्फारित मुख से नेत्र पटल तथा कुक्कट के अण्डे से नेत्र गोलक बने है। छोटे आकार के प्रोष्ठी मत्स्य से मूँछे तथा निचला ओष्ठ निर्मित है। बैठे हुए मयूर से कान रूपायित हैं।
कंधा मकर मुख से निर्मित है। भुजायें हाथी के शुण्ड के सदृश्य हैं तथा हाथों की अँगुलियाँ सर्प मुखों से निर्मित हैं। वक्ष के दोनों स्तन तथा उदर भाग पर मानव मुख द्रष्टव्य है। कच्छप के पृष्ठ से कटिभाग, मुख से शिश्न और उसके जुड़े हुए दोनों अगले पैरो से अंडकोष निर्मित है। अंडकोष पर घंटी के सदृश्य जोंक लटके हुए हैं। दोनों जंघाओं पर हाथ जोड़े विद्याधर तथा कटि पार्श्व में दोनों ओर एक-एक गंधर्व की मुखाकृति है। दोनों घुटनों पर सिंह मुख अंकित है। स्थूल पैर हाथी के अगले पैर के सदृश्य हैं। प्रमुख प्रतिमा के दोनों कधों के ऊपर दो महानाग पार्श्व रक्षक के सदृश्य फन फैलाए हुए स्थित है। पैरों के समीप उभय पार्श्व में गर्दन उठाकर फन काढ़े हुए नाग अनुचर द्रष्टव्य हैं।
प्रतिमा के दाएँ में स्थूल दण्ड का खण्डित भाग बच हुआ है। उनके आभूषणों में हार, वक्ष- बंध तथा कटिबंध नाग केकुण्डलित भाग से रूपायित हैं । वर्णित प्रतिमा के बाएँ हाथ में स्थित आयुध,दाएँपैर के समीप स्थित नाग तथा अधिष्ठान भाग भग्न है। सामान्य रूप से इस प्रतिमा में शैव मत, तंत्र तथा योग के गुह्य सिद्धांतों का प्रभाव और समन्वय दिखलाई पड़ता है।
कैसे पहुँचे - वायु मार्ग: रायपुर 85 कि. मी. निकटतम हवाई अड्डा है। जो मुम्बई, दिल्ली, नागपुर भुवनेश्वर, कोलकाता, राँची, विशाखापट्टनम एवं चैन्नई से जुड़ा हुआ है। रेल मार्ग : हावड़ा –मुम्बई मुख्य रेल मार्ग पर बिलासपुर 30 कि. मी. समीपस्थ रेलवे जंक्शन है। सड़क मार्ग : बिलासपुर शहर से निजी वाहन द्वारा सड़क मार्ग से यात्रा की जा सकती है। आवास व्यवस्था : बिलासपुर नगर में आधुनिक सुविधाओं से युक्त अनेक होटल ठहरने के लिए उपलब्ध हैं।। (उदंती फीचर्स)
Subscribe to:
Posts (Atom)