अतीत को वर्तमान से जोड़ते
- राहुल सिंह
'शहरीकरण और जनसंख्या के विस्तार के दबावों से देश भर में हमारे
ऐतिहासिक स्मारकों के लिए खतरा पैदा हो गया है।' ... 'पुरातत्त्व विज्ञान हमारे भूतकाल को वर्तमान से जोड़ता है
और भविष्य के लिए हमारी यात्रा को परिभाषित करता है। इसके लिए दूर दृष्टि, उद्देश्य
के प्रति निष्ठा और विभिन्न सम्बद्ध पक्षों के सम्मिलित प्रयासों की आवश्यकता
होगी। मुझे उम्मीद है कि आप इस महत्त्वपूर्ण प्रयास के दायित्व को सँभालेंगे।' यह बात
प्रधानमंत्री ने 20 दिसंबर को नई दिल्ली में आयोजित भारतीय पुरातत्तव सर्वेक्षण की 150वीं
वर्षगांठ समारोह में यह कहा। इस दौर में मैंने 'पुरातत्त्व
', 'सर्वेक्षण' शब्दों पर विचार किया जिसे आप सबके साथ बाँट रहा हूँ-
आमतौर पर पिकनिक, घूमने-
फिरने, पर्यटन के लिए पुरातात्विक स्मारक-मन्दिर देखने का कार्यक्रम बनता है और कोई गाइड नहीं
मिलता, न ही स्थल पर जानकारी देने वाला। ऐसी स्थिति का सामना किए
आशंकाग्रस्त लोग, पुरातत्त्व से संबंधित होने
के कारण साथ चलने का प्रस्ताव रखते हुए कहते हैं कि जानकार के बिना ऐसी जगहों पर
जाना निरर्थक है, लेकिन ऐसा भी होता है कि किसी जानकार के साथ होने पर आप अनजाने-
अनचाहे, उसी के नज़रिए से चीज़ों को देखने लगते हैं। अवसर बने और कोई जानकार, विशेषज्ञ
या गाइड का साथ न हो तो कुछ टिप्स आजमाएँ-
मानें कि प्राचीन मन्दिर देखने जा रहे हैं। गंतव्य पर पहुँचते हुए समझने
का प्रयास करें कि स्थल चयन के क्या कारण रहे होंगे, पानी उपलब्धता, नदी-
नाला, पत्थर उपलब्धता,
प्राचीन पहुँच मार्ग, आसपास बस्ती- आबादी और इसके साथ स्थल से जुड़ी दन्तकथाएँ , मान्यताएँ
, जो कई बार विशेषज्ञ से नज़रअंदाज़ हो जाती हैं। स्थल अब वीरान हो तो
उसके सम्भावित कारण जानने- अनुमान करने का प्रयास करें। यह जानना भी रोचक होता है
कि किसी स्थान का पहले- पहल पता कैसे चला, उसकी महत्ता कैसे बनी।
काल, शैली और
राजवंश की जानकारी तब अधिक उपयोगी होती है जब इसका इस्तेमाल तुलना और विवेचना के
लिए हो, अन्यथा यह रटी- रटाई सुनने और दूसरे को बताने तक ही सीमित रह जाती
है। प्राचीन स्मारकों के प्रति दृष्टिकोण 'खण्डहर' वाला हो
तो निराशा होती है, लेकिन उस बचे, सुरक्षित रह गए प्राचीन कलावशेष, उपलब्ध प्रमाण की तरह देखें
तो वही आकर्षक और रोचक लगता है। मौके पर अत्यधिक श्रद्धापूर्वक जाना, 'दर्शन' करने
जैसा हो जाता है, इसमें देखना छूट जाता है और अपने देख चुके स्थानों की सूची में वह
जुड़ बस जाता है, मानों 'अपने तो हो गए चारों धाम'।
मन्दिर , आस्था
केन्द्र तो हैं ही, उसमें अध्यात्म- दर्शन की कलात्मक अभिव्यक्ति के साथ वास्तु- तकनीक
का अनूठा समन्वय होता है। मन्दिर स्थापत्य
को मुख्यत: किसी अन्य भवन की तरह,
योजना (plan) और उत्सेध (elevation), में देखा जाता है। मन्दिर की
योजना में सामान्य रूप से मुख्यत: भक्तों के लिए मंडप और भगवान के लिए गर्भगृह
होता है। उत्सेध में जगती या चबूतरा, उसके ऊपर पीठ और अधिष्ठान/
वेदिबंध, जिस पर गर्भगृह की मूल प्रतिमा स्थापित होती है, फिर
दीवारें- जंघा और उस पर छत- शिखर होता है। सामान्यत: संरचना की बाहरी दीवार पर और
गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर प्रतिमाएँ होती हैं, कहीं शिलालेख और पूजित मन्दिरों
में ताम्रपत्र, हस्तलिखित पोथियाँ भी होती
हैं।
सामान्यत: मन्दिर पूर्वाभिमुख और प्रणाल (जल निकास की नाली) लगभग
अनिवार्यत: उत्तर में होता है। मन्दिर की
जंघा पर दक्षिण व उत्तर में मध्य स्थान मुख्य देवता की विग्रह मूर्त्तियाँ होती हैं और पश्चिम में सप्ताश्व रथ पर आरूढ़, उपानह
(घुटने तक जूता), कवच, पद्मधारी सूर्य की प्रतिमा होती है। दिशाओं/ कोणों पर पूर्व- गजवाहन
इन्द्र, आग्नेय- मेषवाहन अग्नि, दक्षिण- महिषवाहन यम, नैऋत्य-
शववाहन निऋति, पश्चिम- मीन/ मकरवाहन वरुण, वायव्य- हरिणवाहन वायु, उत्तर-नरवाहन
कुबेर, ईशान- नंदीवाहन ईश,
दिक्पाल प्रतिमाएँ होती हैं। मूर्त्तियों की पहचान के लिए उनके
वाहन- आयुध पर ध्यान दें ,तो आमतौर पर मुश्किल नहीं होती। यह भी कि प्राचीन
प्रतिमाओं में नारी- पुरुष का भेद स्तन से ही संभव होता है, क्योंकि
दोनों के वस्त्राभूषण में कोई फर्क नहीं होता।
विष्णु की प्रतिमा शंख, चक्र, गदा, पद्मधारी
और गरुड़ वाहन होती है। उनके अवतारों में अधिक लोकप्रिय प्रतिमाएँ वराह, नृसिंह, वामन आदि
अपने रूप से आसानी से पहचानी जाती हैं। शिव सामान्यत: जटा मुकुट, नंदी और
त्रिशूल, डमरू, नाग, खप्पर, सहित होते हैं। ब्रह्मा, श्मश्रुल (दाढ़ी- मूंछ
युक्त), चतुर्मुखी, पोथी, श्रुवा, अक्षमाल, कमंडलु धारण किए,
हंस वाहन होते हैं। कार्तिकेय को मयूर वाहन, त्रिशिखी
और षण्मुखी, शूलधारी, गले में बघनखा धारण किए दिखाया जाता है। दुर्गा- पार्वती, महिषमर्दिनी
,सिंहवाहिनी होती हैं तो गौरी के साथ पंचाग्नि, शिवलिंग और वाहन गोधा
प्रदर्शित होता है। सरस्वती,
वीणापाणि, पुस्तक लिए, हंसवाहिनी
हैं। लक्ष्मी को पद्मासना, गजाभिषिक्त प्रदर्शित किया जाता है।
जैन प्रतिमाएँ , कायोत्सर्ग
यानी समपाद स्थानक मुद्रा में (एकदम सीधे खड़ी) अथवा पद्मासनस्थ/ पर्यंकासन में
सिंहासन, चँवर, प्रभामंडल, छत्र, अशोक वृक्ष आदि सहित, किन्तु मुख्य प्रतिमा
अलंकरणरहित होती हैं। तीर्थंकर प्रतिमाओं में ऋषभदेव/ आदिनाथ- वृषभ लांछनयुक्त व
स्कंध पर केशराशि, अजितनाथ- गज लांछन,
संभवनाथ- अश्व, चन्द्रप्रभु- चन्द्रमा, शांतिनाथ-
मृग, पार्श्वनाथ- नाग लांछन और शीर्ष पर सप्तफण छत्र तथा महावीर- सिंह
लांछन, प्रमुख हैं। तीर्थंकरों के अलावा ऋषभनाथ के पुत्र, बाहुबलि
की प्रतिमा प्रसिद्ध है। जैन प्रतिमाओं को दिगम्बर (वस्त्राभूषण रहित) तथा उनके
वक्ष मध्य में श्रीवत्स चिह्न से पहचानने में आसानी होती है।
आसनस्थ बुद्ध, भूमिस्पर्श
मुद्रा या अन्य स्थानक प्रतिमाओं जैसे अभय, धर्मचक्रप्रवर्तन, वितर्क
आदि मुद्रा में प्रदर्शित होते हैं। अन्य पुरुष प्रतिमाओं में पंचध्यानी बुद्ध के
स्वरूप बोधिसत्व, अधिकतर पद्मपाणि अवलोकितेश्वर, वज्रपाणि और खड्ग- पोथी
धारण किए मंजुश्री हैं और नारी प्रतिमा, उग्र किन्तु मुक्तिदात्री
वरदमुद्रा, पद्मधारिणी तारा होती हैं। कुंचित केश के अलावा बौद्ध प्रतिमाओंकी
जैन प्रतिमाओं से अलग पहचान में उनका श्रीवत्सरहित और मस्तक पर शिरोभूषा में लघु
प्रतिमा होना सहायकहोता है।
मन्दिर गर्भगृह प्रवेश द्वार के दोनों पार्श्वऊर्ध्वाधर
स्तंभों पर रूपशाखा की मिथुन मूर्त्तियों सहित द्वारपाल प्रतिमाएँ व मकरवाहिनी गंगा और कच्छपवाहिनी यमुना होती
हैं। द्वार के क्षैतिज सिरदल के मध्य ललाट बिम्ब पर गर्भगृह में स्थापित प्रतिमा
का ही विग्रह होता है। लेकिन पाँचवीं- छठीं सदी के आरंभिक मन्दिरों में लक्ष्मी और
चौदहवीं- पन्द्रहवीं सदी से इस स्थान पर गणेश की प्रतिमा बनने लगी तथा इस स्थापत्य
अंग का नाम ही गणेश पट्टी हो गया। यहीं अधिकतर ब्रह्मा- विष्णु- महेश, त्रिदेव
और नवग्रह, सप्तमातृकाएँ स्थापित होती
हैं। आशय होता है कि गर्भगृह में प्रवेश करते, ध्यान मुख्य देवता पर
केन्द्रित होते ही सभी ग्रह- देव अनुकूल हो जाते हैं, गंगा-
यमुना शुद्ध कर देती हैं। यहीं कल्प- वृक्ष अंकन होता है यानी अन्य सभी लौकिक आकांक्षाओं से आगे बढऩे पर गर्भगृह
में प्रवेश होता है और देव- दर्शन उपरांत बाहर आना, नए जन्म की तरह है।
यह जिक्र भी कि पुरातत्त्व का तात्पर्य मात्र उत्खनन नहीं और न ही पुराविद्
है ;जिसका काम सिर्फ रहस्यमयी गुफा या सुरंग के खोज अभियान में जुटा रहना है। यह
भी कि उत्खनन कोरी सम्भावना के चलते नहीं किया जाता, बल्कि ठोस तार्किक आधार और
धरातल पर मिलने वाली सामग्री,
दिखने वाले लक्षण के आधार पर, आवश्यक
होने पर ही किया जाता है। बात काल और शैली की, तो सबसे प्रचलित शब्द हैं-
बुद्धकालीन और खजुराहो शैली,
इस झंझट में अनावश्यक न पड़ें, क्योंकि
वैसे भी बुद्धकाल (छठीं सदी ईस्वी पूर्व) की कोई प्रतिमा नहीं मिलती और खजुराहो
नामक कोई शैली नहीं है, और इसका आशय मिथुन मूर्त्तियों से है, तो ऐसी कलाकृतियाँ कमोबेश लगभग प्रत्येक प्राचीन मन्दिर में होती हैं।
आम ज़ुबान पर एक अन्य शब्द
कार्बन- 14 डेटिंग होता है,
वस्तुत: यह काल निर्धारण की निरपेक्ष विधि है, लेकिन
इससे सिर्फ जैविक अवशेषों का तिथि निर्धारण, सटीक नहीं, कुछ अंतर
सहित ही सम्भव होता है तथा यह विधि ऐतिहासिक अवशेषों के लिए सामान्यत: उपयोगी नहीं
होती या कहें कि किसी मन्दिर ,
मूर्त्ति या 'ज्यादातर पुरावशेषों के
काल- निर्धारण में यह विधि प्रयुक्त नहीं होती, बल्कि सापेक्ष विधि ही
कारगर होती है, अपनाई जाती है।
किसी स्मारक/स्थल के खण्डहर
हो जाने के पीछे कारण आग, बाढ़, भूकम्प या आततायी- आक्रमण, विधर्मियों की करतूत ही जरूरी नहीं, बल्कि
ऐसा अक्सर स्वाभाविक और शनै: शनै: होता है और कभी समय के साथ उपेक्षा, उदासीनता, व्यक्तिगत
प्राथमिकताओं के कारण भी होता है। स्थापत्य खण्ड, मूर्त्तियों या शिलालेख का
उपयोग आम पत्थर की तरह कर लिये जाने के ढेरों उदाहरण मिलते हैं और एक ही मूल के
लेकिन अलग- अलग पंथों के मतभेद के चलते भी कम तोड़फोड़ नहीं हुई है।
इस सबके साथ स्वयं सहित कुछ
परिचितों के पैतृक निवास की वर्तमान दशा पर ध्यान दें, वीरान हो
गए गाँव भी ऐसे तार्किक अनुमान के लिए
उदाहरण बनते हैं। ऐसे उदाहरण भी याद करें, जिनमें आबाद भवन धराशायी हो
गए हैं, मन्दिर के खण्डहर बन जाने के
पीछे भी अक्सर ऐसी ही कोई बात होती है।
सम्पर्क- संस्कृति
विभाग, रायपुर (छ.ग.) मो. 9425227484
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