Oct 6, 2020
उदंती.com, अक्टूबर 2020
अनकहीः सामाजिक मूल्यों का ह्रास...
आज मूल्य और संस्कृति की बात करते हैं- इन दिनों फि़ल्मी दुनिया की नई पीढ़ी भारतीय मूल्यों और भारतीय संस्कृति की धज्जियाँ उड़ाता नजऱ आ रहा है। पर्दे पर समाज का अच्छा और बुरा पक्ष दिखाकर आम जनता में सन्देश प्रसारित करने का काम करने वाली हमारी फिल्मी दुनिया अपने बच्चों में संस्कार का बीज़ क्यों नहीं बो पाई? ये बड़े सितारे अपने बच्चों को किस प्रकार की शिक्षा दिलाने अक्सर भारत के बाहर भेजते है? लेकिन मायावी दुनिया में पलने और पढऩे वाले बच्चों की राह कब किस दिशा में मुड़ जाती है, शायद उनके माता-पिता भी नहीं जान पाते, और कोई भी माता पिता चाहे वह कितना भी सम्पन्न और हाई प्रोफाइल वाला हो, कभी भी नहीं चाहेगा कि उनका बच्चा गलत राह पर चलने लगे।
लेकिन चाहने भर से से क्या होगा। जाहिर है कहीं न कहीं उनसे भी चूक हुई है- पालन- पोषण करने में, शिक्षा में, रिश्ते निभाने में, तभी तो कुछ बच्चे ड्रग्स जैसी अँधेरी दुनिया में घुस जाते हैं और उन्हें पता भी नहीं चल पाया। छोटे शहरों से बड़े सपने लेकर इस मायावी दुनिया की चकाचौंध में कदम रखने वाले सुशांत जैसे युवा कब कैसे इसकी गिरफ़्त में आ जाते हैं शायद इसका उन्हें भान भी नहीं हो पाता। अपने माता- पिता से दूर परिवार से अलग, अकेले रहते हुए वे चक्रव्यूह में घुस तो जाते हैं पर वहाँ से निकलने का रास्ता नहीं ढूँढ पाते।
कहाँ तो महीनों से सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या बनाम हत्या की गुत्थी सुलझाने की जी -तोड़ कोशिश की जा रही थी और कहाँ उसके तार ड्रग माफिय़ा से जुड़ते हुए कई बड़े नामी-गिरामी सितारों और सितारों के बच्चों के साथ जुड़ते चले जा रहे हैं। यद्यपि फिल्मी दुनिया के बहुत लोग यह कहते हुए सामने आ रहे हैं कि कुछ लोगों की गलती का खामियाजा पूरी फिल्म इंडस्ट्री को क्यों भुगते या पूरी इंडस्ट्री क्यों बदनामी झेले, लेकिन कहते हैं न कि काजल की कोठरी से कोई बेदाग नहीं निकल सकता। यही हाल इस मायानगरी का है। छींटे तो आस-पास खड़े लोगों पर पड़ेंगे ही।
अभी माया नगरी में किसी फि़ल्मी किस्से की तरह इस गंभीर मामले को सुलझाने की कोशिश जारी ही है, कि उत्तर प्रदेश के हाथरस में 19 साल की युवती का कथित गैंग रेप और फिर उसकी हत्या का बेहद घिनौना मामला सामने आ गया है। उसे किसने मारा यह गुत्थी उलझती ही जा रही है। अब शक की सुई लड़की के परिवार वालों की तरफ़ मुड़ गई है। मामला प्रेम प्रसंग का बताया जा रहा है, जो उसके परिवार वालों को पसंद नहीं था। लड़की की हत्या चाहे जिस भी कारण से हुई हो, जिसने भी की हो, 19 साल की एक लड़की की चीख़ दबा तो दी ही गई। दु:खद स्थिति यह है कि मरने वाली युवती को लेकर अब राजनीति की रोटियाँ सेंकने का सिलसिला शुरू हो गया है।
अफसोस की बात है कि हम कितना ही ढोल पीट लें कि बेटियाँ घर की लक्ष्मी, दुर्गा, और सरस्वती होती हैं पर आज भी भारत में बेटियों के साथ भेद-भाव किया ही जाता हैं। बेटा भले ही अपने माता- पिता को बुढ़ापे में मरने के लिए वृद्धाश्रम में भेज दे पर फिर भी बेटा ही वंश को आगे बढ़ाने वाला होता है। बेटियाँ किसी भी क्षेत्र में आज बेटों से कम नहीं है पर जब तक माता-पिता उसके हाथ पीले नहीं कर देते तब तक वे उनके लिए बोझ ही होती हैं। 'बेटी पढ़ेगी आगे बढ़ेगी’ का नारा देने वाली हमारी सरकारें भी बेटियों की सुरक्षा के लिए कुछ विशेष कदम नहीं उठा पाई हैं। यदि समय रहते कानून और व्यवस्था सख्त की गई होती तो महिला और बच्चियों के साथ दिन प्रतिदिन बढ़ते जा रहे अनगिनत अत्याचार और बलात्कार में बढ़ोत्तरी नहीं हुई होती।
आँकड़े बताते हैं कि छोटी बच्चियों के साथ दरिंदगी की यह क्रूरता थमने का नाम ही नहीं ले रही। पिछले कुछ ही दिनों में हाथरस के बाद खरगौन मध्यप्रदेश में 16 वर्षीय लड़की के साथ गैंगरेप, लुधियाना पंजाब में 8 साल की बच्ची को पैसे और चॉकलेट का लालच देकर बलात्कार, बलरामपुर ( उत्तर प्रदेश) में 22 वर्षीय युवती का गैंगरेप, आजमगढ़ (उत्तर प्रदेश) में नहलाने का बहाना करके 8 वर्षीय बच्ची का बलात्कार, उत्तर प्रदेश के भदोही में 14 वर्षीय दलित लड़की की ईंट पत्थरों से मारकर हत्या- बलात्कार... बुलंदशहर, बागपत ....और फिर न जाने कितने शहर... सिलसिला रुकने का नाम ही नहीं ले रहा।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो ( एनसीआरबी) की ताजा रिपोर्ट के अनुसार 2019 में भारत में प्रतिदिन औसतन 87 रेप केस तथा महिलाओं के खिलाफ़ अपराध के कुल 4 लाख से अधिक मामले दजऱ् हुए हैं। उत्तर प्रदेश 59,853 मामलों के साथ शीर्ष पर है। इतना ही नहीं महिलाओं के खिलाफ इस तरह के मामले कम होने के बजाय प्रति वर्ष बढ़ते ही जा रहे हैं। 2018 के मुकाबले 2019 में महिलाओं के खिलाफ अपराध में 7.3त्न की वृद्धि हुई है। जो इस बात की ओर संकेत करते हैं कि व्यवस्था में गंभीर खामियाँ हैं, कानून में इतने पेंच हैं कि अपराधी खुले आम घूमते हैं।
कानून व्यवस्था में सुधार की बात तो अपनी जगह बेहद गंभीर है ही, पर एक और महत्त्वपूर्ण बात जिसपर विचार करने की जरूरत है वह है, गिरते चले जा रहे सामाजिक, संस्कृतिक और नैतिक मूल्यों की है। आज के दौर में अपने को शिक्षित कहने का मापदंड बदल गया है। उच्छृंखलता, अश्लीलता, क्रूरता और नशे की लत ने युवाओं को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। अति महात्त्वाकांक्षी होना, कम मेहनत में बहुत कुछ पा जाने की चाह और ऐशो-आराम की जिंदगी ने व्यक्ति के भीतर की मानवीयता को कहीं खो सा दिया है। परवरिश, शिक्षा, रहन- सहन के बदलते तौर तरीके, काम का बोझ, पारिवारिक दूरी से उपजा एकाकीपन... इन सबने मिलकर समाज की दिशा और सोच ही बदल दी है। तो चिता के राख होने तक हल्ला करने से बात नहीं बनेगी। इन सभी विषयों पर चिंतन मनन करके कोई कारगार समाधान निकालने से ही बात बनेगी। कानून में बदलाव से पहले दूषित मन का परिस्कार करना पड़ेगा, मानसिक विकृतियों का समाधान खोजना पड़ेगा। भुजबल और धनबल के कुत्सित गठबन्धन को तोडऩा पड़ेगा।
आलेखः नदी के द्वीप
आलेखः मेरी पसन्दगी
मैने कहा, ‘मैं कोई शौकीन आदमी नहीं हूँ ।’
बोले ‘फिर भी, कुछ-न-कुछ शौक तो होंगे।’
मैंने कहा, ‘यदि शौक से आपका मतलब निरे मनोरंजन से दूर अपने काम के क्षणों में भी किए जाने वाले आनन्ददायी कार्यों से है, तो मुझे पढ़ने-लिखने का शौक है।’
मुझे जब भी समय मिलता है, और वह सदा मिलता है, अपना अधिक-से-अधिक समय, सुन्दर-से-सुन्दर श्रेष्ठ पुस्तकों को पढ़ने में देता हूँ । एक बात पहले ही स्पष्ट कर दूँ, कि जैसे लोगों को अच्छे-से-अच्छा खाने या पहिनने का शौक होता है, वैसे ही मुझे अच्छे से अच्छा पढ़ने और पुस्तकें खरीदने का शोक है। मैं, जो भी मिल जाए, उसे पढ़ने के खिलाफ हूँ । बल्कि जो नहीं मिले, ऐसी अच्छी-से अच्छी नवीन और प्राचीन पुस्तकों को खोजकर पढ़ने का आदी हूँ । मुझे पुस्तकें पढ़ने का ही नहीं, वरन् नवीन पुस्तकों की जानकारी प्राप्त करने का भी शौक है। यही वजह है कि जिससे मैं पत्रों में सबसे पहले समालोचना का स्तम्भ, और किसी शहर में पहुँचने पर वहाँ का पुस्तकालय एवं बुक-स्टाल देखता हूँ । अनेक बार तो जेब में पैसा न होने पर भी मैं बुक स्टाल पर जाने का लोभ
संवरण नहीं कर पाता। मेरा विश्वास है कि मुझे यदि अच्छी पुस्तक की खोज लग जाय, तो मैं उसे आज नहीं तो कल अवश्य पढ़ूँगा।
पढ़ने के साथ ही मुझे पुस्तकों पर निशान लगाकर पढ़ने की आदत रही है । बिना निशान लगाये पढ़ने को मैं पढ़ना नहीं मानता। महज कोरी पुस्तक मुझे कोरे दिमाग की तरह नापसन्द है। निशान लगी हुई पुस्तक को देख- कर लगता है कि यह किसी खास आदमी द्वारा पढ़ी गयी खास किताब है। उसे देखकर लगता है कि जैसे कोई उसके शब्दों की गलियों में से होकर गुजरा है, जहाँ उसकी पसन्दगी के चिन्ह अंकित है । पुस्तक पर लगे निशान मुझे उसके श्रेष्ठ अंशों की विजय-पताका फहराते से लगते हैं। अपनी इसी आदत ने एक दिन मुझमें खरीदकर पढ़ने की वृत्ति को जन्म दिया था। मुझे याद नहीं, आज तक मैने किसी भी पत्र या पुस्तक को बिना निशान लगाये पढ़ा हो।
मेरी पसन्दगी के भिन्न-भिन्न निशान है। जो भी कविता या कहानी मुझे पसन्द आती है, उसके शीर्षक को मैं एक उड़ते से x निशान से चिन्हित कर देता हूँ । उनमें भी जो रचनाएँ मुझे विशेष पसन्द आती है, उनके शीर्षक को मैं गहराई से डबल-लाइन से अन्डर लाइन कर देता हूँ । लेकिन कविता या कहानी से भी अधिक मैं निबंधों को पढ़ने पर जोर देता हूँ । निबंध मुझे सबसे
प्रिय रहे हैं। जो निबंध जितना गहरा होता है, उसमें मुझे उतना ही आनन्द आता है। उन्हें पढ़ते समय कुछ ऐसे लगता है मानो मैंने किसी गहरे सागर में किश्ती छोड़ दी हो और उसकी लहरों पर तैरते, उसकी कल्पनाओं और भावनाओं के साथ बहते और विचारों के साथ गहरी-से-गहरी डुबकी लगाकर मैं एक किनारे से दूसरे किनारे पर जा पहुँचता हूँ ।
उनमें जो भी स्थल मुझे पसन्द आते हैं, उन्हें मैं दीपस्तम्भ की तरह खड़ी लाइन से, जो घटनाएँ पसन्द आती है उन्हें खेतों की तरह घेरकर कोष्टक से, और जो विचार पसन्द आते हैं उन्हें पूरे-से-पूरे अंडर लाइन से चिह्नित कर देता हूँ।
इससे, गहन से गहन निबंधों को भी मैं अपने ढंग से याद रख ले जाने में समर्थ होता हूँ।
पुस्तकों की ही तरह मुझे नये-से-नये पत्रों को भी पढ़ने का शौक है। मुझे दैनिक से अधिक साप्ताहिक, और साप्ताहिक से भी अधिक मासिक और त्रैमासिक विचार पत्र पसन्द रहे हैं।
वैसे में जिन पत्रों में लिखता हूँ , वे सब तो मेरे नाम आते ही है, लेकिन इसके अलावा भी मैं कुछ पत्र खरीद कर पढ़ता हूँ और यद्यपि बात कुछ अजीब-सी है, लेकिन अपने नाम आये पत्र को भी यदि कोई मुझ से पूर्व पढ़ ले, तो वह मुझे कुछ बासी-सा लगने लगता है।
लेकिन इतने स्नेह से खरीदे और सहेजे गये पत्रों की भी मैं कटिंग फाइल ही रखता आया हूं। यद्यपि मेरे इस स्वभाव से मेरे कुछ मित्रों को शिकायत है और सच तो यह है कि अत्यन्त ही स्नेह से सहेजकर रखे पत्रों को फाड़कर कटिंग फाइल रखने में मुझे भी कुछ कम दुख नहीं होता लेकिन मेरे नाम जो पत्र आते हैं या जिन्हें मैं खरीदता हूँ , वे ही सब अक्षर अक्षर सुन्दर हैं, ऐसा मेरा दावा नहीं और जिन्हें मै खरीद नहीं पाता, या जो मेरे पास नहीं आते, वे सब अनुपयोगी और रखने योग्य नहीं, ऐसा भी मैं नहीं मानता।
इसीसे जो भी मुझे प्राप्त है उसके अनुपयोगी अंशों को निकाल, उपयोगी को सुरक्षित रखने के मार्ग को मैं श्रेष्ठ मार्ग मानता हूँ । और यों मेरा पढ़ने का सिलसिला जारी है।