उस दिन एक मित्र ने पूछा, ‘आपको शौक क्या है’
मैने कहा, ‘मैं कोई शौकीन आदमी नहीं हूँ ।’
बोले ‘फिर भी, कुछ-न-कुछ शौक तो होंगे।’
मैंने कहा, ‘यदि शौक से आपका मतलब निरे मनोरंजन से दूर अपने काम के क्षणों में भी किए जाने वाले आनन्ददायी कार्यों से है, तो मुझे पढ़ने-लिखने का शौक है।’
मुझे जब भी समय मिलता है, और वह सदा मिलता है, अपना अधिक-से-अधिक समय, सुन्दर-से-सुन्दर श्रेष्ठ पुस्तकों को पढ़ने में देता हूँ । एक बात पहले ही स्पष्ट कर दूँ, कि जैसे लोगों को अच्छे-से-अच्छा खाने या पहिनने का शौक होता है, वैसे ही मुझे अच्छे से अच्छा पढ़ने और पुस्तकें खरीदने का शोक है। मैं, जो भी मिल जाए, उसे पढ़ने के खिलाफ हूँ । बल्कि जो नहीं मिले, ऐसी अच्छी-से अच्छी नवीन और प्राचीन पुस्तकों को खोजकर पढ़ने का आदी हूँ । मुझे पुस्तकें पढ़ने का ही नहीं, वरन् नवीन पुस्तकों की जानकारी प्राप्त करने का भी शौक है। यही वजह है कि जिससे मैं पत्रों में सबसे पहले समालोचना का स्तम्भ, और किसी शहर में पहुँचने पर वहाँ का पुस्तकालय एवं बुक-स्टाल देखता हूँ । अनेक बार तो जेब में पैसा न होने पर भी मैं बुक स्टाल पर जाने का लोभ
संवरण नहीं कर पाता। मेरा विश्वास है कि मुझे यदि अच्छी पुस्तक की खोज लग जाय, तो मैं उसे आज नहीं तो कल अवश्य पढ़ूँगा।
पढ़ने के साथ ही मुझे पुस्तकों पर निशान लगाकर पढ़ने की आदत रही है । बिना निशान लगाये पढ़ने को मैं पढ़ना नहीं मानता। महज कोरी पुस्तक मुझे कोरे दिमाग की तरह नापसन्द है। निशान लगी हुई पुस्तक को देख- कर लगता है कि यह किसी खास आदमी द्वारा पढ़ी गयी खास किताब है। उसे देखकर लगता है कि जैसे कोई उसके शब्दों की गलियों में से होकर गुजरा है, जहाँ उसकी पसन्दगी के चिन्ह अंकित है । पुस्तक पर लगे निशान मुझे उसके श्रेष्ठ अंशों की विजय-पताका फहराते से लगते हैं। अपनी इसी आदत ने एक दिन मुझमें खरीदकर पढ़ने की वृत्ति को जन्म दिया था। मुझे याद नहीं, आज तक मैने किसी भी पत्र या पुस्तक को बिना निशान लगाये पढ़ा हो।
मेरी पसन्दगी के भिन्न-भिन्न निशान है। जो भी कविता या कहानी मुझे पसन्द आती है, उसके शीर्षक को मैं एक उड़ते से x निशान से चिन्हित कर देता हूँ । उनमें भी जो रचनाएँ मुझे विशेष पसन्द आती है, उनके शीर्षक को मैं गहराई से डबल-लाइन से अन्डर लाइन कर देता हूँ । लेकिन कविता या कहानी से भी अधिक मैं निबंधों को पढ़ने पर जोर देता हूँ । निबंध मुझे सबसे
प्रिय रहे हैं। जो निबंध जितना गहरा होता है, उसमें मुझे उतना ही आनन्द आता है। उन्हें पढ़ते समय कुछ ऐसे लगता है मानो मैंने किसी गहरे सागर में किश्ती छोड़ दी हो और उसकी लहरों पर तैरते, उसकी कल्पनाओं और भावनाओं के साथ बहते और विचारों के साथ गहरी-से-गहरी डुबकी लगाकर मैं एक किनारे से दूसरे किनारे पर जा पहुँचता हूँ ।
उनमें जो भी स्थल मुझे पसन्द आते हैं, उन्हें मैं दीपस्तम्भ की तरह खड़ी लाइन से, जो घटनाएँ पसन्द आती है उन्हें खेतों की तरह घेरकर कोष्टक से, और जो विचार पसन्द आते हैं उन्हें पूरे-से-पूरे अंडर लाइन से चिह्नित कर देता हूँ।
इससे, गहन से गहन निबंधों को भी मैं अपने ढंग से याद रख ले जाने में समर्थ होता हूँ।
पुस्तकों की ही तरह मुझे नये-से-नये पत्रों को भी पढ़ने का शौक है। मुझे दैनिक से अधिक साप्ताहिक, और साप्ताहिक से भी अधिक मासिक और त्रैमासिक विचार पत्र पसन्द रहे हैं।
वैसे में जिन पत्रों में लिखता हूँ , वे सब तो मेरे नाम आते ही है, लेकिन इसके अलावा भी मैं कुछ पत्र खरीद कर पढ़ता हूँ और यद्यपि बात कुछ अजीब-सी है, लेकिन अपने नाम आये पत्र को भी यदि कोई मुझ से पूर्व पढ़ ले, तो वह मुझे कुछ बासी-सा लगने लगता है।
लेकिन इतने स्नेह से खरीदे और सहेजे गये पत्रों की भी मैं कटिंग फाइल ही रखता आया हूं। यद्यपि मेरे इस स्वभाव से मेरे कुछ मित्रों को शिकायत है और सच तो यह है कि अत्यन्त ही स्नेह से सहेजकर रखे पत्रों को फाड़कर कटिंग फाइल रखने में मुझे भी कुछ कम दुख नहीं होता लेकिन मेरे नाम जो पत्र आते हैं या जिन्हें मैं खरीदता हूँ , वे ही सब अक्षर अक्षर सुन्दर हैं, ऐसा मेरा दावा नहीं और जिन्हें मै खरीद नहीं पाता, या जो मेरे पास नहीं आते, वे सब अनुपयोगी और रखने योग्य नहीं, ऐसा भी मैं नहीं मानता।
इसीसे जो भी मुझे प्राप्त है उसके अनुपयोगी अंशों को निकाल, उपयोगी को सुरक्षित रखने के मार्ग को मैं श्रेष्ठ मार्ग मानता हूँ । और यों मेरा पढ़ने का सिलसिला जारी है।
मैने कहा, ‘मैं कोई शौकीन आदमी नहीं हूँ ।’
बोले ‘फिर भी, कुछ-न-कुछ शौक तो होंगे।’
मैंने कहा, ‘यदि शौक से आपका मतलब निरे मनोरंजन से दूर अपने काम के क्षणों में भी किए जाने वाले आनन्ददायी कार्यों से है, तो मुझे पढ़ने-लिखने का शौक है।’
मुझे जब भी समय मिलता है, और वह सदा मिलता है, अपना अधिक-से-अधिक समय, सुन्दर-से-सुन्दर श्रेष्ठ पुस्तकों को पढ़ने में देता हूँ । एक बात पहले ही स्पष्ट कर दूँ, कि जैसे लोगों को अच्छे-से-अच्छा खाने या पहिनने का शौक होता है, वैसे ही मुझे अच्छे से अच्छा पढ़ने और पुस्तकें खरीदने का शोक है। मैं, जो भी मिल जाए, उसे पढ़ने के खिलाफ हूँ । बल्कि जो नहीं मिले, ऐसी अच्छी-से अच्छी नवीन और प्राचीन पुस्तकों को खोजकर पढ़ने का आदी हूँ । मुझे पुस्तकें पढ़ने का ही नहीं, वरन् नवीन पुस्तकों की जानकारी प्राप्त करने का भी शौक है। यही वजह है कि जिससे मैं पत्रों में सबसे पहले समालोचना का स्तम्भ, और किसी शहर में पहुँचने पर वहाँ का पुस्तकालय एवं बुक-स्टाल देखता हूँ । अनेक बार तो जेब में पैसा न होने पर भी मैं बुक स्टाल पर जाने का लोभ
संवरण नहीं कर पाता। मेरा विश्वास है कि मुझे यदि अच्छी पुस्तक की खोज लग जाय, तो मैं उसे आज नहीं तो कल अवश्य पढ़ूँगा।
पढ़ने के साथ ही मुझे पुस्तकों पर निशान लगाकर पढ़ने की आदत रही है । बिना निशान लगाये पढ़ने को मैं पढ़ना नहीं मानता। महज कोरी पुस्तक मुझे कोरे दिमाग की तरह नापसन्द है। निशान लगी हुई पुस्तक को देख- कर लगता है कि यह किसी खास आदमी द्वारा पढ़ी गयी खास किताब है। उसे देखकर लगता है कि जैसे कोई उसके शब्दों की गलियों में से होकर गुजरा है, जहाँ उसकी पसन्दगी के चिन्ह अंकित है । पुस्तक पर लगे निशान मुझे उसके श्रेष्ठ अंशों की विजय-पताका फहराते से लगते हैं। अपनी इसी आदत ने एक दिन मुझमें खरीदकर पढ़ने की वृत्ति को जन्म दिया था। मुझे याद नहीं, आज तक मैने किसी भी पत्र या पुस्तक को बिना निशान लगाये पढ़ा हो।
मेरी पसन्दगी के भिन्न-भिन्न निशान है। जो भी कविता या कहानी मुझे पसन्द आती है, उसके शीर्षक को मैं एक उड़ते से x निशान से चिन्हित कर देता हूँ । उनमें भी जो रचनाएँ मुझे विशेष पसन्द आती है, उनके शीर्षक को मैं गहराई से डबल-लाइन से अन्डर लाइन कर देता हूँ । लेकिन कविता या कहानी से भी अधिक मैं निबंधों को पढ़ने पर जोर देता हूँ । निबंध मुझे सबसे
प्रिय रहे हैं। जो निबंध जितना गहरा होता है, उसमें मुझे उतना ही आनन्द आता है। उन्हें पढ़ते समय कुछ ऐसे लगता है मानो मैंने किसी गहरे सागर में किश्ती छोड़ दी हो और उसकी लहरों पर तैरते, उसकी कल्पनाओं और भावनाओं के साथ बहते और विचारों के साथ गहरी-से-गहरी डुबकी लगाकर मैं एक किनारे से दूसरे किनारे पर जा पहुँचता हूँ ।
उनमें जो भी स्थल मुझे पसन्द आते हैं, उन्हें मैं दीपस्तम्भ की तरह खड़ी लाइन से, जो घटनाएँ पसन्द आती है उन्हें खेतों की तरह घेरकर कोष्टक से, और जो विचार पसन्द आते हैं उन्हें पूरे-से-पूरे अंडर लाइन से चिह्नित कर देता हूँ।
इससे, गहन से गहन निबंधों को भी मैं अपने ढंग से याद रख ले जाने में समर्थ होता हूँ।
पुस्तकों की ही तरह मुझे नये-से-नये पत्रों को भी पढ़ने का शौक है। मुझे दैनिक से अधिक साप्ताहिक, और साप्ताहिक से भी अधिक मासिक और त्रैमासिक विचार पत्र पसन्द रहे हैं।
वैसे में जिन पत्रों में लिखता हूँ , वे सब तो मेरे नाम आते ही है, लेकिन इसके अलावा भी मैं कुछ पत्र खरीद कर पढ़ता हूँ और यद्यपि बात कुछ अजीब-सी है, लेकिन अपने नाम आये पत्र को भी यदि कोई मुझ से पूर्व पढ़ ले, तो वह मुझे कुछ बासी-सा लगने लगता है।
लेकिन इतने स्नेह से खरीदे और सहेजे गये पत्रों की भी मैं कटिंग फाइल ही रखता आया हूं। यद्यपि मेरे इस स्वभाव से मेरे कुछ मित्रों को शिकायत है और सच तो यह है कि अत्यन्त ही स्नेह से सहेजकर रखे पत्रों को फाड़कर कटिंग फाइल रखने में मुझे भी कुछ कम दुख नहीं होता लेकिन मेरे नाम जो पत्र आते हैं या जिन्हें मैं खरीदता हूँ , वे ही सब अक्षर अक्षर सुन्दर हैं, ऐसा मेरा दावा नहीं और जिन्हें मै खरीद नहीं पाता, या जो मेरे पास नहीं आते, वे सब अनुपयोगी और रखने योग्य नहीं, ऐसा भी मैं नहीं मानता।
इसीसे जो भी मुझे प्राप्त है उसके अनुपयोगी अंशों को निकाल, उपयोगी को सुरक्षित रखने के मार्ग को मैं श्रेष्ठ मार्ग मानता हूँ । और यों मेरा पढ़ने का सिलसिला जारी है।
( साभार- अहिंसक नवरचना का
मासिक- ‘जीवन साहित्य’-
वर्ष 17, अंक 9 , सितम्बर 1956 , संपादक हरिभाऊ उपाध्याय, यशपाल जैन, मूल्य
वार्षिक 4 रुपए, एक प्रति- सवा आना)
2 comments:
महात्मा गांधी ने कहा था : Live as if You have to die tomorrow and learn as if You to live for ever. आलेख इस विचार को पुष्ट करता है. हार्दिक बधाई
किताब के साथ हमारा रिश्ता बना रहे।लेख पढ़कर फिर से किताबों के बीच रहनेऔर पढ़ने की उमंग और ताज़ा हो गई है। लेख की एक पंक्ति..... जिस शहर में जाना हो वहां पुस्तकालय को ढूंढने की ,खोज करने की बात सदा याद रहेगी। आपकी पसंदगी हर युवा की भी पसंद बन जाए। बधाई हो।
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