आधी रात हो चुकी है पर आँखों में नींद का नामोनिशान नहीं है।
बाहर बारिश की बूँदें पक्के फ़र्श से टकराकर जो ध्वनि पैदा कर रही थीं, मुझे ऐसा लग रहा है, जैसे
मेरे दिल दिमाग़ पर लगातार सुइयाँ चुभाई जा रही हों। बिस्तर की सलवटें भी बदन में
चुभने लगीं, तो मैं धीरे से बिस्तर से उठ गई, नहीं चाहती थी कि मेरे यूँ लगातार करवटें बदलने से शेखर की नींद भी खुल
जाए। वैसे भी कमरे में मेरा दम घुट रहा था। माँ के फ़ोन के बाद से मन बेहद उदास और
अशांत जो हो गया।
मैंने एक लम्बी
गहरी सांस ली कि कुछ अटक रहा था अंदर कहीं। पीछे के आंगन का दरवाज़ा खोल बाहर चली
आई। बारिश तेज़ थी पर आंगन का एक हिस्सा टीन की चादर से ढका हुआ है। मैं वहाँ रखी
आरामकुर्सी पर जा बैठी। कभी-कभी सोचती हूँ ,
इसे आरामकुर्सी नाम किसने दिया होगा। जब दिल-दिमाग उलझनों से भरा हो,
मन उदासी के गहरे दरिया में डूबता जा रहा हो, अपने
अंदर कोई विस्फोट होता महसूस होने लगे, तब सच में यह आराम
कुर्सी हमारी पनाहगाह बनती है। पर क्या सचमुच आराम आ ही जाता है यहाँ।
आसमान में तेज़
बिजली कड़की, सामने क्यारी
में रखे सफेद गोल पत्थर चौंधिया उठे। मेरी नज़र उन पत्थरों पर ठहर गई। यूँ तो वह
पत्थर बहुत सुंदर थे पर मैं उन्हें जब भी देखती एक गहरी उदासी से भर जाती। दरिया
के किनारों से समेटे यह पत्थर ऐसे ही सहज तो गोल नहीं हो जाते होंगे न। वक़्त के
बहुत थपेड़े सहे होंगे इन पत्थरों ने। मुझे उन्हें देख कर सिहरन होने लगी। मैंने
पलकें मूँद ली।
यकायक उसका मुस्कुराता चेहरा कौंधा, संतरी रंग की पगड़ी पहने,
टेढ़े-मेढ़े दाँत और बहुत मासूमियत भरी बड़ी-बड़ी आँखें।
मैंने घबरा कर
आँखें खोल दी पर ऐसा करने से कभी कोई अक्स ज़हन से मिटे हैं भला। इंसान के स्वभाव
में एक बात कितनी अजीब है, हम
जिस बारे में सबसे कम सोचना चाहें, अक्सर वही बात सबसे
ज़्यादा दिल-दिमाग़ पर चोट करती रहती है, बार-बार, लगातार।
सहसा पैर पर कुछ
थिरकन हुई। बरसात की वज़ह से आंगन की कच्ची मिट्टी से केंचुए बाहर आ गए थे। जब कुछ
अनचाहा-सा शरीर पर रेंगता है, तो किस क़दर घिन्न आती है न, कोई इस को कैसे
बर्दाश्त कर पाता होगा। पल भर में ही मेरे ज़हन की ज़मीन पर अतीत के ढेरों केंचुए
रेंगने लगे।
आत्मा के किसी कोने
से एक सिसकी निकली
"सोहनी
दीदी..."
आसमान में बिजली
लगातार चमक रही थी। यादों का बाइस्कोप,
रोल कैमरा साउंड के साथ शुरू हो गया। उस संतरी पग पहने छोटे सरदार
का हाथ थामे एक सुंदर चेहरा स्मृति के पटल पर चमकने लगा।
‘सोहनी दीदी...’
ठंडी, सर्द, खून जमा देने
जैसी आह निकली अंतस से।
‘क्या कहती थी
अम्मा तुम्हें ... हाँ याद आया ... रूई का फाया।’
अभी कुछ घंटे पहले
ही तो माँ का फ़ोन आया था।
‘हैलो माँ,
कैसी हो?’
‘मैं ठीक हूँ,
तुम कैसी हो?’
‘मैं तो एकदम
अच्छी हूँ; पर आपने रात को इस समय फ़ोन किया, आवाज़ भी बहुत निढ़ाल लग रही है। सब ठीक है न?’
‘हाँ बिटिया,
सब ठीक है। बस नींद नहीं आ रही थी। अजीब-सी बेचैनी थी फिर सोचा
तुमसे ही बात कर लूँ, तुम तो देर से ही सोती हो।’
‘हाँ, अच्छा किया जो फ़ोन कर लिया वैसे भी काफ़ी दिन से ठीक से बात नहीं हुई,
पर फिलहाल वह बात बताओ जिसने इतना विचलित कर रखा है?’
‘नहीं शिवी,
ऐसी कोई ख़ास बात नहीं।’
‘माँ आपकी बेटी हूँ,
आपको ख़ूब अच्छे से समझती हूँ , बताओ क्या हुआ
है?’
‘शिवी ... तेजी
नहीं रहा।’
‘तेजी?’ पुरानी कुछ गड़मड़ स्मृतियाँ एक साथ कौंधी।
‘हाँ।’
‘माँ, तुम तेजिंदर की बात कर रही हो?’
‘हाँ और किस की
भला।’
कुछ पल दोनों तरफ़
मौन पसर गया
मैंने दो बार मुँह
खोला कुछ बोलने को पर आवाज़ गले में ही घुट गई।
‘शिवी, तुम ठीक हो न बेटा?’ माँ का चिंता से भरा स्वर आया।
किसी तरह ख़ुद को
संयतकर मैंने बहुत आहिस्ता से कहा-‘हाँ माँ, पर कब हुआ यह?’
‘तीन दिन हो गए,
मुझे ख़ुद कल जब मंदिर गई तब वहाँ पता चला।’
‘बीमार तो रहता
ही था, पर मरने की वज़ह कुछ साफ़ नहीं हो पा रही। उसका चाचा
कह रहा है, हार्ट फेल हो गया पर मोहल्ले में दबी ज़ुबान में
फुसफुसाहट है कि नींद की गोलियाँ खाकर ख़ुदकुशी की है।’
‘ख़ुदकुशी! पर
क्यों माँ?’ हैरानी, पीड़ा, टीस सब मन मस्तिष्क को भेद रहे थे।
‘ क्या कह सकती हूँ
बेटा। मुझे तो आज भी वह बचपन वाला तेजी ही
याद है जो तेरी कॉपी मांगने रोज़ ही आया करता था। मैं तो अक्सर वक्त-बेवक्त आने पर
झिड़क भी देती थी पर वह सदा ही हँसता रहता। कितनी मीठी ज़ुबान में कहता था-
‘बस आखिरी बार दे
दो आंटी जी, आगे से नहीं माँगूँगा।’
पर काम कभी पूरा तो होता नहीं था उसका, फिर आ जाया करता था दो दिन बाद।
‘हाँ माँ,
जब तक उस मोहल्ले वाले उस प्राइमरी स्कूल में जाती थी तब तक लगातार
ही आता रहता था।’
‘बेटा तुम तो मोहल्ले
वाले स्कूल में 1985 तक गई है पर वह तो चौरासी के बाद न के
बराबर ही स्कूल आया था शायद।’
‘हाँ माँ,
84 के दंगों में तो ...
उसके बाद से तो वह
बहुत कम स्कूल आया करता था। बिल्कुल चुपचाप रहता था। तुम भी तो उसको तब बहुत स्नेह
करने लगी थी पर वह कभी घर के अंदर आने को तैयार ही नहीं होता था। बाहर से ही कॉपी
लेकर चला जाता। आप लोगों ने जब शहर के बड़े स्कूल में मेरा दाखिला करा दिया तो
उसके आने का सिलसिला पूरी तरह ही बंद हो गया। कभी-कभी गली पड़ोस में दिख जाता था, तब भी मैं ही उस से हाल-चाल पूछती। वह तो
बस सब ठीक की मुद्रा में सिर हिला कर चलता बनता।’
‘तुमसे क्या,
वह तो किसी से भी बात नहीं करता था।’
‘उसकी पत्नी का
तो बहुत बुरा हाल होगा न माँ। अभी साल ही कितने हुए शादी को।’
‘लो, मैंने बताया नहीं था क्या तुम्हें?’
‘क्या नहीं बताया
था?’
‘यही की उसकी
पत्नी तो सालों पहले छोड़ गई उसे। तीन महीने भी नहीं टिकी वह तो उसके घर में।’
‘अच्छा!’ हालांकि रिश्तों का यूँ छिछला निकल जाना मेरे लिए कोई अचरज की बात न थी पर कोई तेजी जैसे प्यारे लड़के
को भी छोड़ सकता है यह बात भीतर तक एक तड़प उठा गई।
‘पर ऐसे क्यों,
तेजी तो बहुत प्यारा और शांत स्वभाव का लड़का था। उसकी माँ भी इतने
सुलझी मिलनसार महिला थी, सारा मोहल्ला ही चाहता था उन्हें।’
‘अरे शिवी,
तेजी की घरवाली ने तो एक दिन ख़ूब कांड कर दिया था। उसके बाप-भाइयों ने आकर बहुत मारपीट भी की थी तेजी के साथ। तुम उन दिनों लंदन में थी
इसलिए हमारी बात ही नहीं हुई इस बारे में तब।’
मेरी हैरानी अब चरम
पर थी।
‘तेजी और उस के
घर वालों से मार पीट, वह भी उसकी पत्नी के घरवालों ने,
यह कैसे हो गया माँ? जहाँ तक मुझे याद है,
तेजी में कोई शराब-जुए जैसा ऐब तो कभी सुना नहीं और दहेज लोभी तो वह
हो ही नहीं सकते। फिर क्या बात रही । ज़रूर वह औरत ही खराब होगी?’
‘शिवी तब तो
जितने मुँह उतनी बातें। मुझे तो जगवंती ने जो बात बताई सच तो वही बात लगती है पर
तेजी का ऐसा करने के पीछे कारण मुझे भी समझ नहीं आया था।’
‘जगवंती?’
‘अरे वह मालिश
वाली बुढ़िया, जो अम्मा के पैरौं की मालिश के लिए आया करती
थी, वह तेजी की माँ के पैरों की मालिश भी तो करने जाती थी।
तेजी की माँ तो चौरासी के दंगों के बाद कभी ठीक से अपने पैरों पर खड़ी ही नहीं हो
पाई। मालिश होती रहती तो खून का दौरा बना रहता।’
‘ऐसा क्या बताया
था जगवंती ने, माँ?’
‘तेजी की बीवी ने
एक रोज़ अपने मायके वाले बुला लिए और चौड़े-पाड़े में उस रोज़ ख़ूब तमाशा किया।
तेजी की औरत, तेजी की माँ को गाली दे रही थी कि तूने मर्द
नहीं हिजड़ा पैदा किया है। हाथ लगाते कांपता है, पास नहीं
आता, उघड़ी पीठ या नंगी टांगें भी देख ले तो उल्टी करने लगता
है।’
‘यह सब कहा उसने
माँ!’
मुझे लगा मुझसे
सुनने में गलती हो रही है, कोई
इतना वाहियात, इतना असंवेदनशील कैसे हो सकता है।

‘उसकी बीवी मरने
पर भी नहीं आई क्या?’
‘क्या पता,
मैं तो दो दिन के लिए हरिद्वार थी। कल आई तो तेजी का पता चला। कल से
सोच रही थी कि तुम्हें बताऊँ कि नहीं, तुम हो भी तो बहुत
भावुक। पर फिर लगा बचपन के साथी रहे हो तुम, सो तुम्हें उसकी
मृत्यु की ख़बर तो होनी चाहिए। प्रभु से प्रार्थना करना बेटा, तेजी की आत्मा को शांति मिले और वह अगले जन्म ऐसा अभागा बन कर पैदा न
हो।’
मेरे हाथ पैर सुन्न
हुए जा रहे थे। सोचने समझने की शक्ति जवाब दे रही थी। ज़ुबान जैसे तालू से चिपक गई
हो। माँ उधर से हैलो-हैलो बोल रही थी यह भान तो था पर मेरे शब्द हलक में फंस गए थे
‘हैलो ...हैलो...
शिवी बोलो कुछ? तुम ठीक तो हो न? फिर
बिगाड़ ली क्या तबियत? इसलिए कुछ नहीं बताती तुम्हें। अरे!
कुछ तो बोलो।’
किसी तरह से हिम्मत
समेट कर मैं बोल पाई
‘कुछ नहीं माँ,
सिर भारी हो रहा है अब फोन रखती हूँ ।’
‘देख सोच-सोचकर
अपनी तबीयत मत खराब कर लेना। भगवान की मर्जी के आगे किसका ज़ोर चला है बेटा।’
‘हाँ ठीक है माँ,
समझ गई। अब रखो फ़ोन आप। गुड नाइट बस।’
कह कर मैंने फ़ोन
रख दिया था।
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आँगन में कुर्सी
पर बैठे मैंने दोनों हाथों से अपना सिर थाम लिया। यूँ लग रहा था सब नसें फट कर
बाहर आ जाएँगी। मन एक अरसे से उसे याद करना टालता रहा कि काम बहुत थे और ज़िन्दगी
ने मुझसे कभी ऐसा प्रेम नहीं किया जो थोड़ा आहिस्ता चलती। जीवन की आपाधापी में
कितने ही पुराने साथी पीछे छूट गए थे। वक़्त की धुंध में मेरे बचपन का साथी,
तेजी भी कहीं गुम हो गया था।
आँसू आँख में रूकने
को तैयार नहीं थे। बहुत कोशिश की ख़ुद को संयत रखने की, पर नहीं रख पाई। बाँध टूट गया। हिचकियाँ, सिसकियों में बदल गई। ज़हन की ठसाठस भरी अलमारी से यादों की कतरनें भरभरा
का बाहर गिर रही थी।
2
नवंबर1984
उस रोज़ पापा ने
जाने क्यों दिन में भी घर के गेट पर ताला लगा रखा था और हम दोनों भाई-बहन को घर के
बाहर जाने की सख़्त मनाही थी। मेरी उम्र तब कोई दस साल थी और भाई सोनू की तेरह
साल। समय काटने को हम दोनों घर के बरामदे में बैट बॉल खेल रहे थे। उस ज़माने में
न इतने चैनल थे न सारा दिन टी वी पर कुछ आता था। मोबाइल का आविष्कार तो उसके भी एक
दशक बाद हुआ। ले देकर बच्चों के पास गली मोहल्लों में खेलने वाले खेल थे या लूडो, साँप-सीढ़ी। पर उस दिन तो पूरी गली ही
सुनसान थी, जाने क्या बात थी।

‘तूने फेंकी है। अब तू ही डाँट खाना पापा की।’
‘तू चिल्ला मत
फ़ालतू में, मैं अभी जाकर ले आता हूँ ।’
‘अहाहा, अभी ले आता हूँ! जाएगा कैसे? गेट पर तो ताला है।’
‘ऊपर से जाकर
लाऊँगा।’
‘ऊपर से! पागल हो
गया है। कितना ऊँचा है गेट।’
‘डरपोक, तू मुँह बंद कर । मैं यूँ गया और यूँ आया।’ कह कर सोनू बंदर की तेजी से गेट पर चढ़ता चला गया। मैं
पापा के डर से घबराई, कभी
सोनू को, कभी अंदर वाले दरवाज़े को देख रही थी। सोनू ने भाग
कर सड़क पर से बॉल उठाई और दुगनी तेजी से घर के गेट पर वापिस चढ़ने लगा कि अचानक
उसका पैर फिसला और उसका बायाँ हाथ कोहनी के अंदर की तरफ़ से गेट के घुमावदार लोहे
के सरिए में फँस गया। इससे पहले कि कोई कुछ समझ पाता मांस का एक बड़ा टुकडा यूँ पूरा
निकल कर ज़मीन पर आ गिरा जैसे आम की फाँक में से चम्मच से आम निकाला गया हो।
सोनू की हृदय
विदारक चीख गूँजी। मैं कुछ समझ पाने में असमर्थ थी कि हुआ क्या पर जैसे ही मेरी
नज़र ज़मीन पर पड़े मांस के टुकड़े पर गई,
मैं विक्षिप्त-सी चिल्लाने लगी। सोनू तो अभी
तक गेट के सरियों में फँसा था। हलक फट जाए इस क़दर चिल्ला रही थी मैं दहशत से।
माँ-पापा, अम्मा सब अंदर से भागते हुए आए, एक चीख पुकार-सी मच गई, फिर न जाने क्या हुआ,
ठीक से कुछ याद नहीं।
शायद बेहोश हो गई
थी मैं पर जब होश आया तो फिर पागलों-सा चीखने लगी थी। बहुत मुश्किल से अम्मा ने
चुप कराया कि भाई ठीक है। माँ-पापा उसे डॉक्टर के पास ले गए हैं। तब भी जब मैं चुप न हुई तो अम्मा ने डाँट लगाकर कहा था कि तुमने भी तबीयत बिगाड ली तो माँ-पापा तुम्हें संभालेंगे
कि भाई को, तब जा कर मैं चुप हुई थी। पर बहुत देर तक मेरा
सिसकना फिर भी बंद न हुआ था। भाई को उसके बाद महीनों बेहद तकलीफ में देखा मैंने।
बत्तीस टाँके आए थे। अजीब से गुदड़ी-सा बन गया था भाई का हाथ वहाँ से। देख कर भी
दहशत-सी होती थी। माँ उस दिन बहुत रोई थी कि कर्फ्यू की वज़ह से कोई डॉक्टर नहीं
मिला। माँ अम्मा को बता रही थी कि कैसे सब अस्पताल भी जली-कटी लाशों और अफरा-तफरी
से पटे थे। वह बहुत मुश्किल से किसी डॉक्टर के घर जा कर कुछ मदद जुटा पाएँ थे। उस
डॉक्टर के पास घर पर जो भी थोड़ा बहुत समान उपलब्ध था उसने उसी से टाँके लगाए। माँ अम्मा को बताते हुए रोए जा रही थी कि डॉक्टर के पास घर पर टाँकों के समय सुन्न करने वाली दवाई नहीं थी, उसने ऐसे
ही टाँके लगाए। भाई बहुत चीखा, बहुत
तड़पा। अम्मा भी ज़ार-ज़ार रोने लगी थी ये सब सुनकर। घर में कितने दिन मातम छाया
रहा उस घटना के बाद।
मेरे लिए 2 नवंबर 1984 का दिन
बहुत मनूहस था। दिमाग़ में अनगिनत सवाल थे कि
जाने कर्फ्यू क्या
होता है जो सबको बंद हो जाना होता है घर में और कटी-फटी लाशें... कुछ ठीक से समझ
न आ रहा था तब मुझे।
इस घटना के कुछ समय
बाद स्कूल खुला, तब भी भाई के
पास से जाने को मन नहीं था मेरा। स्कूल में भी जब हर समय रोनी सूरत बनी रहती थी
तब एक दिन हिन्दी मैडम ने पूछा था
‘सुहाना, तुम्हारे घर भी इन दंगों में कुछ हुआ है क्या? तुम
इतनी उदास, इतनी चुप क्यों रहती हो?’
मैंने रो-रोकर भाई
वाली सारी बात बताई। पर उस पल मेरी हैरानी और गुस्से की सीमा न रही, जब मेरा गाल थपथपाते हुए उन्होंने कहा-‘ओह! बस इतनी-सी बात। चिंता मत करो, भाई कुछ दिन में
ठीक हो ही जाएगा। तुम उनकी सोचो, जिनके भाई-बहन और अपने, अब
कभी लौट ही नहीं सकते। ये दंगे उन सबको हमेशा के लिए लील गए। तेजिंदर का सोचो,
वह किस हाल में होगा। एक तुम हो जो छोटी-सी बात मन से लगाए घूम रही
हो।’ कह कर वह चली गईं।
सच में बहुत-बहुत
गुस्सा आया था उस रोज़ मुझे प्रीती मैडम पर,
यह उन्हें छोटी-सी बात लगी! और ऐसा भाई से भी बुरा क्या हो गया है
तेजी के साथ।
भुनभुनाने हुए
मैंने अपनी सबसे ख़ास सहेली नीलम को पूछा,
‘ऐसा क्या हुआ तेजिंदर को जो मैडम ऐसे बोलकर चली गई। वह स्कूल भी
नहीं आता अब वरना उसी से पूछ लेती।’
‘तेजी तो जाने अब
कभी स्कूल आएगा भी की नहीं।’ नीलम ने उदास हो कर कहा।
‘क्यों? ऐसा क्या हुआ?’
‘उसके पापा और
बहन की डैथ हो गई है।’
मैं बहुत बुरी तरह
सहमी थी यह सुन कर। सोहनी दीदी का चेहरा आँखों के आगे घूमने लगा था। मैं अक्सर माँ
को कहती थी
‘माँ तेजी की बहन
सोहनी कितनी गोरी, कितनी सुंदर है। मैं उन जैसी क्यों नहीं?’
तब माँ हँसकर कहती
तब मैं चिढ़कर कहती
‘मुझे भी बनना है सरदारनी।’ और सब मेरी इस बात पर ख़ूब हँसते।
मैं छोटी थी पर
इतना तो समझती थी कि मरने के बाद कोई कभी नहीं लौट कर आता। जैसे मामा कि एक्सीडेंट
में डैथ हो जाने के बाद वह कभी लौट कर नहीं आए और मम्मी उन्हें याद करके आज तक भी
बहुत रोती हैं।
‘डैथ कैसे हो गई?’
मैंने रुआँसा हो नीलम से पूछा।
‘दंगों में कुछ
लोगों ने मार दिया।’
‘पर ऐसे कैसे?
आखिर ये दंगे होता क्या है?’ मैं नीलम की बात सुनकर अजीब से डर
से सिहर गई थी।
‘ठीक से तो नहीं
पता मुझे , पर माँ कहती है जब बहुत सारे बुरे लोगों की भीड़
बिना कारण अच्छे लोगों को मारने लगती है, उसे दंगा होना कहते
हैं।’ नीलम ने दो टूक जवाब दिया और
चली गई।
मैं अब और भी
गुमसुम हो गई थी। एक पल स्कूल में मन न लग रहा था। पहले भाई के पास जाने की
जल्दी थी पर अब इस बात की कि घर पहुँचकर माँ से तेजी के बारे में पूछूँ। दो गली छोड़ कर ही तो तेजी का घर है।
माँ को डैथ की वज़ह ज़रूर पता होगी।
घर में घुसते ही
बैग सोफे पर फेंक, मैं भागती हुई माँ के पास रसोई में पहुँची,
‘माँ ...माँ ...’
‘ओहो, क्यों शोर कर रही है?’ माँ ने बिना मेरी तरफ़ देखे
झल्लाकर कहा।
‘माँ आपको पता है
तेजी के पापा और बहन की डैथ हो गई है।’
माँ के सब्ज़ी
काटते हाथ ठिठक गए थे। उन्होंने मुड़ कर मेरी तरफ़ देखा और कुछ पल देखती ही रही
फिर धीरे से बोली,
‘हाँ, मुझे पता है।’
‘आपको पता है!’ मुझे बेहद हैरानी हुई थी।
मैंने गुस्से से
भरकर पूछा,
‘आपको पता है, तो मुझे क्यों नहीं बताया?’
‘क्या हुआ था उन्हें? कैसे हुई डैथ?’ मैं
एक ही साँस में बोले चली जा रही थी।
‘पर तुम्हें
किसने बताया?’ माँ ने पूछा।
‘स्कूल में सब
बातें कर रहे थे। आप बताओ न, कैसे हुई उनकी डैथ?’
माँ ने मुँह फिर से दूसरी तरफ़ फेर लिया और बोली ‘आग लग गई थी उनके घर में।’
‘आग! पर कैसे माँ
और नीलम तो कह रही थी कुछ लोगों ने मार दिया। क्यों मारा उन्हें माँ? वह तो बहुत अच्छे थे।’
‘अरे मुझे क्या
पता, क्या हुआ, कैसे हुआ, मैं थोड़ी थी तब वहाँ। अब जाओ यहाँ से, काम करने
दो।’ मैंने देख लिया था कि माँ की
आँखें भीग गईं थी फिर मैंने उनसे और कुछ नहीं पूछा।
पर मन में बहुत
सारे सवाल बहुत समय तक घुमड़ते रहे थे।
इस बात के कुछ रोज़
बाद एक दिन स्कूल से ख़ूब सारा होमवर्क मिला था, देर तक जाग कर वही पूरा कर रही थी जब मुझे लगा माँ, पापा से कुछ मेरी ही बात कर रही है। मैंने अपना नाम सुना था। जिज्ञासा वश
में चुपके से दरवाज़े के पीछे खड़ी हो कर उनकी बातें सुनने लगी थी।
पापा माँ से पूछ
रहे थे
‘फिर तुमने क्या
कहा, कैसे हुई मौत?’
‘झूठ बोला कि
उसके घर में आग लग गई, उस में ही जल कर मर गए दोनों। कैसे
कहती कि किस क़दर खौफ़नाक मौत मिली दोनों को। सोच कर ही मेरी आत्मा कांप जाती है।
सुना है तेजी के सामने ही दंगाइयों ने उसके बाप का सिर धड़ से अलग कर दिया। माँ तो
तभी बेहोश हो गई थी, इसलिए मरा समझ उसे तो छोड़ दिया पर राक्षसों
ने उसकी सोलह साल की मासूम-सी बहन का मिलकर बलात्कार किया और फिर ज़िंदा जला दिया
उसे। तेजी जाने कैसे बच गया। हरमन तो ज़िंदा लाश हो ही गई है, मुझसे तो तेजी की तरफ़ भी नहीं देखा जाता। इतनी-सी उम्र में क्या कुछ नहीं
देख लिया मासूम ने। पिछली गली वाले आठों सरदारों के घरों का एक-सा हाल है सब के
सब बरबाद हो गए हैं। किसी को काट दिया, किसी को जला दिया
और बच्चियों-औरतों सबसे सामूहिक बलात्कार। जाने कहाँ से उतर कर आए थे वे राक्षस।’ कहते-कहते माँ फूट-फूटकर रोने लगी थी।
मुझे आज भी याद है
माँ की बातें सुनकर, मैं
कैसे दरवाज़े के पीछे खड़ी काँपने लगी थी। पागल हुई जा रही
थी यह सोचकर-सोचकर कि भाई का माँस का एक टुकड़ा देखकर मेरी क्या बुरी हालत हुई थी,
तेजी ने अपने पापा का कटा सिर जाने कैसे देखा होगा।
हफ्तों बुखार रहा
मुझे उसके बाद। अंदर तक दहशत घर कर गई थी। बलात्कार का मतलब तो तब मालूम न था पर
सोहनी दीदी के जलने के दर्द को मैं तब भी महसूस कर पा रही थी।

मैं बिन पानी
मछली-सी बुरी तरह तड़प रही थी।
इंसान की जब इंसान
पर पार नहीं बसाती तो वह भगवान के आगे शिकायतों का पिटारा खोल के बैठ जाता है।
आसमान तो रो ही रहा
था, मेरी आँखें भी कब बरसने लगी पता ही न चला।
नियति पर बस न चलता देख मैं भी ऊपर वाले से उलझने लगी
‘वह तो बहुत
प्यारा, बहुत मासूम था उसे किस बात की सज़ा दी। उसे भी उस
रोज़ ही क्यों नहीं मार दिया। उसे भी उसी रात मर जाना चाहिए था। बल्कि मार तो मन
आत्मा से तुमने उसको उसी रात दिया था फिर इतने साले उसके देह को मृत घोषित करने
में लगे तुमको! यह कौन-सा इंसाफ है आखिर!’
यह कहते हुए मेरे
सब्र का बाँध टूट गया। मैं बच्चे-सा बिलखने लगी। अतीत से बहुत सारी मकड़ियाँ निकल
कर मुझ पर सरकनी शुरू हो गई। उन्होंने एक अदृश्य महीन जाला मेरी गर्दन के
इर्द-गिर्द कसना शुरू कर दिया। पूरा जिस्म जैसे उनके दंश से जलने लगा हो।
‘ मैं तब
बलात्कार का मतलब नहीं समझती थी तेजी, पर अब समझती हूँ । आज
तुम्हारी निरीह डरी सहमी आँखें मेरे माथे पर आ चिपकी हैं।’
उघड़ी पीठ, नंगी टाँगें ...
उफ्फफ...
मैं समझ गई हूँ तुम अपनी पत्नी को हाथ क्यों नहीं लगा पाए कभी।
क्यों तुम उसकी उघड़ी पीठ, नंगी
टांगें देख उल्टियाँ करते थे। उस रोज़ जो सोहनी दीदी के साथ हुआ वह तुम्हारी माँ
ने नहीं देखा, दुनिया ने भी नहीं देखा पर तुमने सब देखा तेजी,
तुमने सब देखा... जैसे अब मैं देख पा रही हूँ तुम्हारे यूँ चले जाने के बाद। "
मेरा रोना बढ़ता ही
जा रहा था।
‘उफ्फ! तुम कैसे
ज़िंदा रहे उस भयानक मंज़र को आँखों में समेटे इतने साल। लोग कहते रहे तुम्हारा
भाग्य अच्छा था जो तुम बच गए। अच्छा नहीं तेजी, तुम तो सबसे
बड़े अभागे थे। अपने पापा और बहन से भी बड़े अभागे। तुम्हारी दुर्गति तो उनसे कहीं
बदतर हुई। वह उस दर्द को तिल-तिल सहने के लिए, सालों यूं
ज़िंदा रहने को शापित नहीं थे तेजी, जैसे तुम थे।’
तुम तब ही क्यों
नहीं मर गए। कैसे जी गए तुम इतना भी,
काश उन राक्षसों ने तब तुमको भी ...
इंसान के कंधों पर
सबसे भारी बोझ अपनी ख़ुद की लाश का होता है। मेरे मन का एक कोना भी आज लाश में बदल
गया था। जाने मैं इसका बोझ कैसे उठा पाऊँगी।
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