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Dec 11, 2014

उदंती.com नवम्बर- दिसम्बर- 2014

चित्रः  वंदना परगनिहा
उदंती.com  
नवम्बर- दिसम्बर- 2014    
जिस साहित्य से हमारी सुरुचि न जागे, आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति न मिले, हममें गति और शक्ति न पैदा हो, हमारा सौंदर्य प्रेम न जागृत हो, जो हममें संकल्प और कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने की सच्ची दृढ़ता न उत्पन्न करे, वह हमारे लिए बेकार है, वह साहित्य कहलाने का अधिकारी नहीं है।  -मुंशी प्रेमचंद्र 
              
  कालजयी कहानी विशेष               

Dec 10, 2014

बाधाओं को पार करते हुए

बाधाओं को पार करते हुए
- डॉ. रत्ना वर्मा
उदंती के प्रकाशन की रुपरेखा जब बन रही थी तब पत्रिका की विषयवस्तु के बारे में मैंने बहुत लम्बी चौड़ी रुपरेखा नहीं बनाई थी और न ही कुछ वादा किया था, कम शब्दों में इतना ही कहा था कि-  पत्रिका मानव और समाज को समझने की एक सीधी सच्ची कोशिश होगी।  पत्रिका में समाज के विभिन्न मुद्दों जिनमें राजनीतिक, सामाजिक, औद्योगिक एवं आर्थिक विषयों से संबंधित सम- सामयिक आलेखों का समावेश तो होता ही रहा है साथ ही भारत की संस्कृति, परंपरा, लोककला, पर्यटन एवं पर्यावरण जैसे विभिन्न विषयों को भी प्रमुखता से शामिल किया जाता रहा है।
आरंभ के अंकों में इसमें साहित्य की सभी विधाओं को शामिल नहीं किया गया था। कविता, गीत, ग़ज़ल, लघुकथाएँ, व्यंग्य के साथ कहानी को भी उदंती का हिस्सा बना लिया गया। उदंती के प्रत्येक अंक पर पाठकों की प्रतिक्रिया और रचनाकारों से मिलने वाले सुझाव और सलाह पर समय -समय पर पत्रिका की विषयवस्तु में बदलाव किए जाते रहे हैं।
कालजयी कहानियों का प्रकाशन ही कुछ इसी तरह के सलाह व सुझाव के बाद आरंभ हुआ। फिर बाद में और भी विभिन्न विषयों पर अनेक स्तंभों की शुरूआत हुई। जैसे 21 वी सदी के व्यंग्यकार, प्रेरक कथा, यादगार कहानियाँ,  मिसाल, मुझे भी आता है गुस्सा, आदि... धीरे धीरे विभिन्न विषयों पर  विशेषांक भी निकलने लगे जिनमें दीपावली, होली, नवरात्रि, जैसे पर्व त्योहारों के अलावा पर्यावरण, पर्यटन, प्रदूषण जैसे सामाजिक जनजागरण और जनजीवन से जुड़े मुद्दे।
पिछले कुछ माह से कुछ विशेषांकों की तैयारी की चर्चा के दौरान यह भी तय किया गया कि क्यों न उदंती में अब तक प्रकाशित कुछ विशेष विषयों को एक ही अंक में संग्रहीत कर लिया जाए। इसी सोच के तहत कालजयी कहानियों का यह विशेष अंक आपके हाथों में है। उदंती में अब तक प्रकाशित महान रचनाकारों की कुछ यादगार कहानियों को एक ही अंक में पिरोने का हमारा यह प्रयास आपको अवश्य पसंद आएगा।
आर्थिक व्यवधान और अन्य कई कारणों से उदंती का नियमित प्रकाशन इधर कुछ माह से नहीं हो पा रहा था। उदंती के पाठकों के लगातार मिल रहे पत्र इस बात के गवाह हैं कि उन्हें उदंती की प्रतीक्षा रहती है। उम्मीद तो यही है कि अब इसके प्रकाशन में आने वाली बाधाएँ दूर होंगी और हम अपने पाठकों तक नियमित इसके अंक पँहुचा पाएँगे।
विश्वास है हमेशा की तरह आप सबका सहयोग और प्रोत्साहन मिलता रहेगा।

कालजयी कहानी

उद्धार
- रवीन्द्रनाथ टैगोर
विश्व के महान साहित्यकार रवीन्द्रनाथ ठाकुर ऐसे अग्रणी लेखक थे, जिन्हें नोबेल पुरस्कार जैसे सम्मान से विभूषित किया गया। उनकी अनेक कृतियां प्रमुख भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनूदित होकर चर्चित हुईं। बंगला साहित्य में छोटी कहानियों का सूत्रपात करने वालों में रवीन्द्रनाथ ठाकुर का नाम लें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। कम शब्दों में बड़ी बात कहने की कला बिरले के पास होती है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कविताएं तो कालजयी हैं ही, उनकी कहानियां भी अपने दौर के समाज की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत करती हैं।

गौरी पुराने धनाढ्य घराने की बड़े लाड़-प्यार में पली सुन्दर लड़की है। उसके पति पारस की हालात पहले बहुत ही गिरी हुई थी, पर अब अपनी कमाई के बूते पर उसने कुछ उन्नति की है। जब तक वह गरीब था तब तक उसके सास-ससुर ने इस ख्याल से कि लड़की तकलीफ पाएगी, बहू की विदा नहीं की। गौरी कुछ ज्यादा उमर  में ससुराल आई।
शायद इन्हीं कारणों से पारस अपनी सुन्दरी युवती स्त्री को सम्पूर्णत: अपने हाथ की चीज नहीं समझता था। और मिजाज में वहम तो उसके बीमारी बनकर समा गया था।
पारस पछांह के एक छोटे-से शहर में वकालत करता है। घर में अपने कुटुम्ब का कोई न था, अकेली स्त्री के लिए उसका चित्त सदा उद्विग्न बना रहता बीच-बीच में वह अचानक असमय में अदालत से घर चला आता शुरु-शुरु में पति के इस तरह आकस्मिक आगमन का कारण गौरी की कुछ समझ में न आया। बाद में वह क्या समझी सो वही जाने।
बीच-बीच में वह बिना कारण घर का नौकर भी छुड़ा देने लगा। किसी नौकर का ज्यादा दिन तक बना रहना उसे बर्दाश्त नहीं होता। खासकर काम की परेशानी का ख्याल करके गौरी जिस नौकर को रखने के लिए ज्यादा आग्रह करती उसे तो वह फौरन ही निकाल बाहर करता। तेजस्विनी गौरी को इससे जितनी चोट पहुंचती, उसका पति उतना ही चंचल होकर कभी-कभी ऐसा विचित्र बर्ताव कर बैठता कि जिसका ठीकाना नहीं।
अन्त में जब वह अपने को सम्हाल न सका और दासी को एकान्त में बुलाकर उससे तरह-तरह के वहम के सवाल करने लगा तब सब बातें गौरी को भी मालूम होने लगीं। अभिमानिनी स्वल्पभाषिणी नारी अपमान की चोट खाकर सिंहिनी की तरह भीतर ही भीतर उफनने और घुमडऩे लगी, और इस उन्मत्त सन्देह ने दम्पत्ति के बीच में पड़कर खंडप्रलय की तरह दोनों को बिलकुल विच्छिन्न कर दिया।
गौरी के आगे अपना गहरा सन्देह प्रकट करने के बाद पारस की झिझक और शरम जब बिलकुल ही जाती रही तब वह रोजमर्रा कदम-कदम पर साफ-साफ सन्देह प्रकट करके स्त्री से लडऩे लगा, और गौरी जितनी ही गम खाकर मौन अवज्ञा और पैनी निगाहों के तेज तीरों से नीचे से लेकर ऊपर तक उसके सारे बदन में लहूलुहान करने लगी, उसका सन्देह का पागलपन मानो उतना ही बढ़ता चला गया।
इस तरह, दाम्पत्य सुख से वंचित उस पुत्रहीन तरुणी ने अपना सम्पूर्ण अन्त:करण धर्म की चर्चा में लगा दिया। हरिभजन सभा के नवीन प्रचारक ब्रह्माचारी परमानंद स्वामी को बुलाकर गौरी ने उनसे दीक्षा-मन्त्र लिया और 'भागवत' की व्याख्या सुनने लगी। नारी हृदय का सम्पूर्ण व्यर्थ स्नेह एकमात्र भक्ति के रूप में इकट्ठा होकर गुरुदेव के चरणों में लोटने लगा।
परमानंद के साधुचरित्र के संबंध में किसी को भी कोई सन्देह न था। सभी उनकी पूजा करते थे। किन्तु पारस उनके संबंध में मुंह खोलकर सन्देह प्रकट न कर सकने के कारण अत्यंत व्याकुल हो उठा और उसका सन्देह अदीठ फोड़े की तरह क्रमश: खुद उसी के मर्मस्थल को कुरेद-कुरेदकर
खाने लगा।
एक दिन जरा-सी किसी बात पर जहर बाहर निकल आया। स्त्री के सामने वह परमानंद को 'दुश्चरित्र, पाखंडी' कहकर गाली देने लगा और कहते-कहते कह बैठा 'तुम अपने शालग्राम को छूकर धर्म से बताओ तो, उस बगुला-भगत को तुम मन-ही-मन प्यार करती हो या नहीं?'
गौरी, पांव-तले दबी नागिन की तरह, एक क्षण में उग्र रूप धारण करके झूठी स्पर्धा से पति को छेदती हुई रूंधे हुए कंठ से फुंकारती हुई बोल उठी, 'हां, करती हूं! तुम्हें जो कुछ करना हो सो कर लो।'
पारस उसी वक्त घर में ताला लगाकर,  स्त्री को ताले में बंद करके, अदालत चला गया।
असह्य रोष में आकर गौरी ने किसी तरह दरवाजा खोल लिया, और उसी वक्त वह घर से बाहर निकल गई।
परमानंद अपनी एकांत कोठरी में बैठे शास्त्र पढ़ रहे थे। वहां और कोई भी न था। सहसा गौरी अमेघवाहिनी विद्युल्लता की तरह ब्रह्मचारी के शास्त्राध्ययन के बीच जाकर टूट पड़ी।
गुरु ने कहा, 'यह क्या!'
शिष्या ने कहा, 'गुरुदेव, इस अपमान-भरे संसार से उद्धार करके मुझे और कहीं ले चलो। अब मैं तुम्हारी ही सेवा में अपना जीवन न्यौछावर करना चाहती हूं।'
परमानंद ने बहुत डांट-फटकारकर गौरी को घर वापस कर दिया। किन्तु हाय, गुरुदेव, उस दिन का तुम्हारा वह अकस्मात टूटा हुआ अध्ययनसूत्र क्या फिर पहले जैसा जुड़ सका!
पारस ने घर आकर दरवाजा खुला पाया। स्त्री से पूछा, 'कौन आया था यहां?' स्त्री ने कहा, 'कोई नहीं आया, मैं खुद गुरुदेव के घर गई थी।'
पारस का चेहरा सफेद फक पड़ गया, और दूसरे ही क्षण लाल-सुर्ख होकर बोला, 'क्यों गई थी?'
गौरी ने कहा, 'मेरी तबीयत!'
उस दिन से घर पर पहरा बिठाकर स्त्री को कोठरी में बन्द करके पारस ने ऐसा उपद्रव शुरु कर दिया कि सारे शहर में बदनामी हो गई। इन सब कुत्सित अपमान और अत्याचारों की खबर पाकर परमानंद का हरिभजन बिलकुल ही जाता रहा। इस शहर को छोड़कर वे अन्यत्र कहीं जाने की सोचने लगे, किन्तु बेचारी गौरी को इस दशा में छोड़कर उनसे अन्यत्र कहीं जाते न बना।
और, सन्यासी के इन दिन-रातों का इतिहास अन्तर्यामी के सिवा और कोई भी न जान सका।
अन्त में, उस अवरोध की अवस्था में ही गौरी को एक पत्र मिला। उसमें लिखा था - 'वत्से, मैंने काफी विचार किया है। पहले अनेक साध्वी-साधक रमणियां कृष्ण-प्रेम में अपना घर संसार सबकुछ त्याग चुकी हैं। यदि संसार के अत्याचारों से तुम्हारा चित्त हरि के चरणकमलों से विक्षिप्त हो गया हो, तो मुझे खबर देना। भगवान की सहायता से उनकी सेविका का  उद्धार करके उसे मैं प्रभु के अभय पदारविन्द में न्यौछावर करने का प्रयास करूंगा। फाल्गुण शुक्ला त्रयोदशी बुधवार को दिन के दो बजे, तुम चाहो तो, अपने तालाब के किनारे मुझसे भेंट कर सकती हो।'
पति उस पत्र को पढ़कर भीतर-ही-भीतर जल भुनकर खाक हुए जा रहे होंगे, यह सोचकर गौरी मन-ही-मन जरा खुश हुई, किन्तु साथ ही उसका शिरोभूषण 'पत्र' पाखंडी के हाथ पड़कर लांछित हो रहा होगा, यह बात भी उसे सहन नहीं हुई।
वह तेजी से पति के कमरे में पहुंची।
देखा तो पति जमीन पर पड़ा हुआ बुरी तरह तड़प रहा है, मुंह से उसके झाग निकल रहा है और आंखों की पुतलियां ऊपर चढ़ गई है।
पति के दाहिने हाथ की मुट्ठी में से उस पत्र को निकालकर गौरी ने जल्दी से डाक्टर बुलवाया।
डाक्टर ने आकर कहा, 'ऐपोप्लेक्सी, मिरगी है।'
रोगी तब मर चुका था।
उस दिन पारस को किसी जरुरी मामले की पैरवी के लिए बाहर जाना था और, संन्यासी का यहां तक पतन हुआ था कि उस समाचार को पाकर वे गौरी से मिलने के लिए तैयार थे।
सद्य-विधवा गौरी ने खिड़की में से देखा कि उसके गुरुदेव पिछवाड़े के तालाब के किनारे चोर की तरह छिपे खड़े हैं। सहसा उस पर बिजली-सी टूट पड़ी, उसने आंखें नीची कर ली। उसके गुरु कहां से कहां उतर आए हैं, सहसा एक ही क्षण में उसका वीभत्स चित्र उसकी आंखों के सामने नाचने लगा।
गुरु ने पुकारा, 'गौरी!'
गौरी ने कहा, 'आई, गुरुदेव!'
मरने की खबर पाकर पारस के मित्र वगैरह जब घर के भीतर पहुंचे, तब देखा कि गौरी भी पति के बगल में मरी पड़ी है।
उसने जहर खा लिया था और, आधुनिक काल में इस आश्चर्यपूर्ण सहमरण के दृष्टान्त ने सती के माहात्म्य से सबको दंग कर दिया।
(मूल रचना: श्रावण, 1967)

उसने कहा था

  उसने कहा था
- चन्द्रधर शर्मा गुलेरी
बड़े- बड़े शहरों के इक्के- गाड़ी वालों की जबान के कोड़ों से जिनकी पीठ छिल गई है और कान पक गए हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बम्बू कार्ट वालों की बोली का मरहम लगावे। जबकि बड़े शहरों की चौड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ को चाबुक से धुनते हुए इक्के वाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट यौन- संबंध स्थिर करते हैं, कभी उसके गुप्त गुह्य अंगो से डाक्टर को लजाने वाला परिचय दिखाते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आँखो के न होने पर तरस खाते हैं, कभी उनके पैरो की अंगुलियों के पोरों की चींथकर अपने ही को सताया हुआ बताते हैं और संसार भर की ग्लानि और क्षोभ के अवतार बने नाक की सीध चले जाते हैं, तब अमृतसर में उनकी बिरादरी वाले तंग चक्करदार गलियों में हर एक लड्ढी वाले के लिए ठहर कर सब्र का समुद्र उमड़ा कर... बचो खालसाजी, हटो भाई, ठहरना भाई, आने दो लालाजी, हटो बाछा कहते हुए सफेद फेटों, खच्चरों और बतको, गन्ने और खोमचे और भारे वालों के जंगल से राह खेते हैं। क्या मजाल है कि जी और साहब बिना सुने किसी को हटना पड़े। यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती ही नहीं, चलती है पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती हुई। यदि कोई बुढिय़ा बार- बार चिटौनी देने पर भी लीक से नहीं हटती तो उनकी वचनावली के ये नमूने हैं- हट जा जीणे जोगिए, हट जा करमाँ वालिए, हट जा, पुत्तां प्यारिए। बच जा लम्बी वालिए। समष्टि में इसका अर्थ हैं कि तू जीने योग्य है, तू भाग्योंवाली है, पुत्रों को प्यारी है, लम्बी उमर तेरे सामने है, तू क्यों मेरे पहियों के नीचे आना चाहती है? बच जा। ऐसे बम्बू कार्ट वालों के बीच में होकर एक लड़का और एक लड़की चौक की दुकान पर आ मिले। उसके बालों और इसके ढीले सुथने से जान पड़ता था कि दोनों सिख हैं। वह अपने मामा के केश धोने के लिए दही लेने आया था और यह रसोई के लिए बडिय़ाँ। दुकानदार एक परदेशी से गुथ रहा था, जो सेर भर गीले पापड़ों की गड्डी गिने बिना हटता न था।
- तेरा घर कहाँ है?
- मगरे में। ...और तेरा?
- माँझे में, यहाँ कहाँ रहती है?
- अतरसिंह की बैठक में, वह मेरे मामा होते हैं।
- मैं भी मामा के आया हूँ, उनका घर गुरु बाजार में है।
इतने में दुकानदार निबटा और इनका सौदा देने लगा। सौदा लेकर दोनों साथ- साथ चले। कुछ दूर जाकर लड़के ने मुसकरा कर पूछा- तेरी कुड़माई हो गई? इस पर लड़की कुछ आँखे चढ़ाकर धत कहकर दौड़ गई और लड़का मुँह देखता रह गया।
दूसरे तीसरे दिन सब्जी वाले के यहाँ, या दूध वाले के यहाँ अकस्मात दोनों मिल जाते। महीना भर यही हाल रहा। दो- तीन बार लड़के ने फिर पूछा- तेरे कुड़माई हो गई? और उत्तर में वही धत मिला। एक दिन जब फिर लड़के ने वैसी ही हँसी में चिढ़ाने के लिए पूछा तो लड़की लड़के की संभावना के विरुद्ध बोली- हाँ, हो गई।
- कब?
- कल, देखते नहीं यह रेशम से कढ़ा हुआ सालू। ... लड़की भाग गई।
लड़के ने घर की सीध ली। रास्ते में एक लड़के को मोरी में ढकेल दिया, एक छाबड़ी वाले की दिन भर की कमाई खोई, एक कुत्ते को पत्थर मारा और गोभी वाले ठेले में दूध उंडेल दिया। सामने नहा कर आती हुई किसी वैष्णवी से टकरा कर अन्धे की उपाधि पाई। तब कहीं घर पहुँचा।
- होश में आओ। कयामत आयी है और लपटन साहब की वर्दी पहन कर आयी है।
क्या? लपटन साहब या तो मारे गये हैं या कैद हो गये हैं। उनकी वर्दी पहन कर कोई जर्मन आया है। सूबेदार ने इसका मुँह नहीं देखा। मैंने देखा है, और बातें की हैं। सौहरा साफ उर्दू बोलता है, पर किताबी उर्दू। और मुझे पीने को सिगरेट दिया है।
तो अब? अब मारे गए। धोखा है। सूबेदार कीचड़ में चक्कर काटते फिरेंगे और यहाँ खाई पर धावा होगा उधर उन पर खुले में धावा होगा। उठो, एक काम करो। पलटन में पैरो के निशान देखते- देखते दौड़ जाओ। अभी बहुत दूर न गये होंगे। सूबेदार से कहो कि एकदम लौट आवें। खंदक की बात झूठ है। चले जाओ, खंदक के पीछे से ही निकल जाओ। पत्ता तक न खुड़के। देर मत करो।
हुकुम तो यह है कि यहीं...
ऐसी तैसी हुकुम की! मेरा हुकुम है... जमादार लहनासिंह जो इस वक्त यहाँ सबसे बड़ा अफसर है, उसका हुकुम है। मैं लपटन साहब की खबर लेता हूँ।
पर यहाँ तो तुम आठ ही हो।
आठ नहीं, दस लाख। एक एक अकालिया सिख सवा लाख के बराबर होता है। चले जाओ।
लौटकर खाई के मुहाने पर लहनासिंह दीवार से चिपक गया। उसने देखा कि लपटन साहब ने जेब से बेल के बराबर तीन गोले निकाले। तीनों को जगह- जगह खंदक की दीवारों मे घुसेड़ दिया और तीनों मे एक तार सा बाँध दिया। तार के आगे सूत की गुत्थी थी, जिसे सिगड़ी के पास रखा। बाहर की तरफ जाकर एक दियासलाई जलाकर गुत्थी रखने... बिजली की तरह दोनों हाथों से उलटी बन्दूक को उठाकर लहनासिंह ने साहब की कुहनी पर तानकर दे मारा । धमाके के साथ साहब के हाथ से दियासलाई गिर पड़ी । लहनासिंह ने एक कुन्दा साहब की गर्दन पर मारा और साहब आँख! मीन गाट्ट कहते हुए चित हो गये। लहनासिंह ने तीनों गोले बीनकर खंदक के बाहर फेंके और साहब को घसीटकर सिगड़ी के पास लिटाया। जेबों की तलाशी ली। तीन- चार लिफाफें और एक डायरी निकाल कर उन्हें अपनी जेब के हवाले किया।
मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ हो जाती है। जन्मभर की घटनाएँ एक- एक करके सामने आती हैं। सारे दृश्यों के रंग साफ होते है, समय की धुन्ध बिल्कुल उन पर से हट जाती है। लहनासिंह बारह वर्ष का है। अमृतसर में मामा के यहाँ आया हुआ है। दहीवाले के यहाँ, सब्जीवाले के यहाँ, हर कहीं उसे आठ साल की लड़की मिल जाती है। जब वह पूछता है कि तेरी कुड़माई हो गई? तब वह धत कहकर भाग जाती है। एक दिन उसने वैसे ही पूछा तो उसने कहा हाँ, कल हो गयी, देखते नहीं, यह रेशम के फूलों वाला सालू?
साहब की मूर्छा हटी। लहना सिह हँसकर बोला- क्यों, लपटन साहब, मिजाज कैसा है? आज मैंने बहुत बातें सीखीं। यह सीखा कि सिख सिगरेट पीते हैं। यह सीखा कि जगाधरी के जिले में नीलगायें होती हैं और उनके दो फुट चार इंच के सींग होते हैं। यह सीखा कि मुसलमान खानसामा मूर्तियों पर जल चढ़ाते हैं और लपटन साहब खोते पर चढ़ते हैं। पर यह तो कहो, ऐसी साफ उर्दू कहाँ से सीख आये? हमारे लपटन साहब तो बिना डैम के पाँच लफ्ज भी नहीं बोला करते थे।
लहनासिंह ने पतलून की जेबों की तलाशी नहीं ली थी। साहब ने मानो जाड़े से बचने के लिए दोनों हाथ जेबो में डाले। लहनासिंह कहता गया चालाक तो बड़े हो, पर माँझे का लहना इतने बरस लपटन साहब के साथ रहा है। उसे चकमा देने के लिए चार आँखे चाहिएँ। तीन महीने हुए एक तुर्की मौलवी मेरे गाँव में आया था। औरतों को बच्चे होने का ताबीज बाँटता था और बच्चों को दवाई देता था। चौधरी के बड़ के नीचे मंजा बिछाकर हुक्का पीता रहता था और कहता था कि जर्मनी वाले बड़े पंडित हैं। वेद पढ़- पढ़ कर उसमें से विमान चलाने की विद्या जान गये हैं। गौ को नहीं मारते। हिन्दुस्तान में आ जायेंगे तो गोहत्या बन्द कर देंगे। मंडी के बनियों को बहकाता था कि डाकखाने से रुपये निकाल लो, सरकार का राज्य जाने वाला है। डाक बाबू पोल्हू राम भी डर गया था। मैंने मुल्ला की दाढी मूंड़ दी थी और गाँव से बाहर निकालकर कहा था कि जो मेरे गाँव में अब पैर रखा तो साहब की जेब में से पिस्तौल चला और लहना की जाँघ में गोली लगी। इधर लहना की हेनरी मार्टिन के दो फायरों ने साहब की कपाल- क्रिया कर दी।
धड़ाका सुनकर सब दौड़ आये।
बोधा चिल्लाया क्या है?
लहनासिंह में उसे तो यह कह कर सुला दिया कि एक हड़का कुत्ता आया था, मार दिया और औरो से सब हाल कह दिया। बंदूके लेकर सब तैयार हो गये। लहना ने साफा फाड़ कर घाव के दोनों तरफ पट्टियाँ कसकर बांधी। घाव माँस में ही था। पट्टियो के कसने से लहू बन्द हो गया।
इतने में सत्तर जर्मन चिल्लाकर खाई में घुस पड़े। सिखों की बंदूकों की बाढ़ ने पहले धावे को रोका। दूसरे को रोका। पर यहाँ थे आठ (लहना, सिंह तक- तक कर मार रहा था। वह खड़ा था और लेटे हुए थे) और वे सत्तर। अपने मुर्दा भाईयों के शरीर पर चढ़कर जर्मन आगे घुसे आते थे। थोड़े मिनटों में वे... अचानक आवाज आयी वाह गुरु जी दी फतह! वाह गुरु जी दी खालसा! और धड़ाधड़ बंदूकों के फायर जर्मनों की पीठ पर पडऩे लगे। ऐन मौके पर जर्मन दो चक्कों के पाटों के बीच में आ गए। पीछे से सूबेदार हजारासिंह के जवान आग बरसाते थे और सामने से लहनासिंह के साथियों के संगीन चल रहे थे। पास आने पर पीछे वालो ने भी संगीन पिरोना शुरु कर दिया।
एक किलकारी और  अकाल सिक्खाँ दी फौज आयी। वाह गुरु जी दी फतह! वाह गुरु जी दी खालसा! सत्त सिरी अकाल पुरुष! और लड़ाई खत्म हो गई। तिरसठ जर्मन या तो खेत रहे थे या कराह रहे थे। सिक्खों में पन्द्रह के प्राण गए। सूबेदार के दाहिने कन्धे में से गोली आर-पार निकल गयी। लहनासिंह की पसली में एक गोली लगी। उसने घाव को खंदक की गीली मिट्टी से पूर लिया। और बाकी का साफा कसकर कमर बन्द की तरह लपेट लिया। किसी को खबर नहीं हुई कि लहना के दूसरा घाव भारी घाव लगा है। लड़ाई के समय चांद निकल आया था। ऐसा चांद जिसके प्रकाश से संस्कृत कवियों का दिया हुआ क्षयी नाम सार्थक होता है। और हवा ऐसी चल रही थी जैसी कि बाणभट्ट की भाषा में दंतवीणो पदेशाचार्य कहलाती। वजीरासिंह कह रहा था कि कैसे मन- मन भर फ्रांस की भूमि मेरे बूटो से चिपक रही थी जब मैं दौड़ा- दौड़ा सूबेदार के पीछे गया था। सूबेदार लहनासिंह से सारा हाल सुन और कागजात पाकर उसकी तुरन्त बुद्धि को सराह रहे थे और कर रहे थे कि तू न होता तो आज सब मारे जाते। इस लड़ाई की आवाज तीन मील दाहिनी ओर की खाई वालों ने सुन ली थी। उन्होंने पीछे टेलिफोन कर दिया था। वहाँ से झटपट दो डाक्टर और दो बीमार ढोने की गाडिय़ाँ चली, जो कोई डेढ़ घंटे के अन्दर पहुँची। फील्ड अस्पताल नजदीक था। सुबह होते- होते वहाँ पहुँच जाएंगे, इसलिए मामूली पट्टी बांधकर एक गाड़ी में घायल लिटाये गए और दूसरी में लाशें रखी गईं। सूबेदार ने लहनासिह की जाँघ में पट्टी बंधवानी चाही। बोधसिंह ज्वर से बर्रा रहा था। पर उसने यह कह कर टाल दिया कि थोड़ा घाव है, सवेरे देखा जायेगा। वह गाड़ी में लिटाया गया। लहना को छोड़कर सूबेदार जाते नहीं थे। यह देख लहना ने कहा तुम्हें बोधा की कसम हैं और सूबेदारनी जी की सौगन्द है तो इस गाड़ी में न चले जाओ।
  और तुम?
  मेरे लिए वहाँ पहुँचकर गाड़ी भेज देना। और जर्मन मुर्दो के लिए भी तो गाडिय़ाँ आती होगीं। मेरा हाल बुरा नहीं हैं। देखते नहीं मैं खड़ा हूँ? वजीरासिंह मेरे पास है ही।
  अच्छा, पर...
  बोधा गाड़ी पर लेट गया। भला, आप भी चढ़ आओ। सुनिए तो, सूबेदारनी होराँ को चि_ी लिखो तो मेरा मत्था टेकना लिख देना।
और जब घर जाओ तो कह देना कि मुझ से जो उन्होंने कहा था, वह मैंने कर दिया।
गाडिय़ाँ चल पड़ी थीं। सूबेदार ने चढ़ते- चढ़ते लहना का हाथ पकड़कर कहा तूने मेरे और बोधा के प्राण बचाये हैं। लिखना कैसा? साथ ही घर चलेंगे। अपनी सूबेदारनी से तू ही कह देना। उसने क्या कहा था?
अब आप गाड़ी पर चढ़ जाओ। मैंने जो कहा, वह लिख देना और कह भी देना।
गाड़ी के जाते ही लहना लेट गया।  वजीरा, पानी पिला दे और मेरा कमरबन्द खोल दे। तर हो रहा है।
मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ हो जाती है। जन्मभर की घटनाएँ एक- एक करके सामने आती हैं। सारे दृश्यों के रंग साफ होते है, समय की धुन्ध बिल्कुल उन पर से हट जाती है। लहनासिंह बारह वर्ष का है। अमृतसर में मामा के यहाँ आया हुआ है। दहीवाले के यहाँ, सब्जीवाले के यहाँ, हर कहीं उसे आठ साल की लड़की मिल जाती है। जब वह पूछता है कि तेरी कुड़माई हो गई? तब वह धत कहकर भाग जाती है। एक दिन उसने वैसे ही पूछा तो उसने कहा हाँ, कल हो गयी, देखते नहीं, यह रेशम के फूलों वाला सालू? यह सुनते ही लहनासिंह को दु:ख हुआ। क्रोध हुआ । क्यों हुआ?
वजीरासिंह पानी पिला दे।
पच्चीस वर्ष बीत गये। अब लहनासिंह नं. 77 राइफल्स में जमादार हो गया है। उस आठ वर्ष की कन्या का ध्यान ही न रहा, न मालूम वह कभी मिली थी या नहीं। सात दिन की छुट्टी लेकर जमीन के मुकदमे की पैरवी करने वह घर गया। वहाँ रेजीमेंट के अफसर की चि_ी मिली। फौरन चले आओ। साथ ही सूबेदार हजारासिंह की चि_ी मिली कि मैं और बोधासिंह भी लाम पर जाते हैं, लौटते हुए हमारे घर होते आना। साथ चलेंगे।
सूबेदार का घर रास्ते में पड़ता था और सूबेदार उसे बहुत चाहता था। लहनासिंह सूबेदार के यहाँ पहुँचा। जब चलने लगे तब सूबेदार बेड़े में निकल कर आया। बोला लहनासिंह, सूबेदारनी तुमको जानती है। बुलाती है। जा मिल आ।
लहनासिंह भीतर पहुँचा। सूबेदारनी मुझे जानती है? कब से? रेजीमेंट के क्वार्टरों में तो कभी सूबेदार के घर के लोग रहे नहीं। दरवाजे पर जाकर मत्था टेकना कहा। असीस सुनी। लहनासिंह चुप।
  मुझे पहचाना?
  नहीं।
तेरी कुड़माई हो गयी? ... धत... कल हो गयी... देखते नहीं, रेशमी बूटों वाला सालू... अमृतसर में...
भावों की टकराहट से मूर्छा खुली। करवट बदली। पसली का घाव बह निकला।
  वजीरासिंह, पानी पिला उसने कहा था ।
स्वप्न चल रहा हैं। सूबेदारनी कह रही है मैंने तेरे को आते ही पहचान लिया। एक काम कहती हूँ। मेरे तो भाग फूट गए। सरकार ने बहादुरी का खिताब दिया है, लायलपुर में जमीन दी है, आज नमक हलाली का मौका आया है। पर सरकार ने हम तीमियों की एक घघरिया पलटन क्यों न बना दी जो मैं भी सूबेदारजी के साथ चली जाती? एक बेटा है। फौज में भरती हुए उसे एक ही वर्ष हुआ। उसके पीछे चार और हुए, पर एक भी नहीं जिया। सूबेदारनी रोने लगी अब दोनों जाते हैं। मेरे भाग! तुम्हें याद है, एक दिन टाँगे वाले का घोड़ा दहीवाले की दुकान के पास बिगड़ गया था। तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाये थे। आप घोड़ों की लातो पर चले गये थे। और मुझे उठाकर दुकान के तख्त के पास खड़ा कर दिया था। ऐसे ही इन दोनों को बचाना। यह मेरी भिक्षा है। तुम्हारे आगे मैं आँचल पसारती हूँ।
रोती- रोती सूबेदारनी ओबरी में चली गयी। लहनासिंह भी आँसू पोछता हुआ बाहर आया।
वजीरासिंह, पानी पिला उसने कहा था।
लहना का सिर अपनी गोद में रखे वजीरासिंह बैठा है। जब मांगता है, तब पानी पिला देता है। आध घंटे तक लहना फिर चुप रहा, फिर बोला कौन? कीरतसिंह?
वजीरा ने कुछ समझकर कहा हाँ।
भइया, मुझे और ऊँचा कर ले। अपने पट्ट पर मेरा सिर रख ले।
वजीरा ने वैसा ही किया।
हाँ, अब ठीक है। पानी पिला दे। बस। अब के हाड़ में यह आम खूब फलेगा। चाचा- भतीजा दोनों यहीं बैठकर आम खाना। जितना बड़ा तेरा भतीजा है उतना ही बड़ा यह आम, जिस महीने उसका जन्म हुआ था उसी महीने मैंने इसे लगाया था।
वजीरासिंह के आँसू टप- टप टपक रहे थे। कुछ दिन पीछे लोगों ने अखबारों में पढ़ा - फ्रांस और बेलजियम 67वीं सूची मैदान में घावों से मरा न. 77 सिख राइफल्स जमादार लहनासिंह।

चन्द्रधर शर्मा गुलेरी

चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ऐसे अकेले कथा लेखक थे जिन्होंने मात्र तीन कहानियां लिखकर कथा साहित्य को नई दिशा और आयाम प्रदान किये। गुलेरी की साहित्यिक सक्रियता की अवधि कम है। उनका जन्म 1883 ई. में हुआ और 1922 ई. में उनका निधन हो गया। उनकी तीन कहानियों में - पहला सुखमय जीवन 1911 ई. में भारत मित्र में छपी। दूसरा उसने कहा था जो उनकी सर्वाधिक महत्वपूर्ण और हिंदी साहित्य की अब तक की श्रेष्ठ कहानी मानी जाती है, 1915 ई. में छपी। उनकी तीसरी कहानी बुद्धू का कांटा है। यह हिंदी कहानी के विकास का आरंभिक समय था।

आधार

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- मुंशी प्रेमचन्द
 सारे गांव में मथुरा का सा गठीला जवान न था। कोई बीस बरस की उमर थी। मसें भीग रही थी। गउएं चराता, दूध पीता, कसरत करता, कुश्ती लड़ता था और सारे दिन बांसुरी बजाता हाट में विचरता था। ब्याह हो गया था, पर अभी कोई बाल-बच्चा न था। घर में कई हल की खेती थी, कई छोटे-बड़े भाई थे। वे सब मिलजुलकर खेती-बारी करते थे। मथुरा पर सारे गांव को गर्व था, जब उसे जांघिये-लंगोटे, नाल या मुग्दर के लिए रूपये-पैसे की जरूरत पड़ती तो तुरन्त दे दिये जाते थे। सारे घर की यही अभिलाषा थी कि मथुरा पहलवान हो जाय और अखाड़े में अपने सवाये को पछाड़े। इस लाड़-प्यार से मथुरा जरा टर्रा हो गया था। गायें किसी के खेत में पड़ी है और आप अखाडें में दंड लगा रहा है। कोई उलाहना देता तो उसकी त्योरियां बदल जाती। गरज कर कहता, जो मन में आये कर लो, मथुरा तो अखाड़ा छोड़कर हांकने न जायेंगे! पर उसका डील-डौल देखकर किसी को उससे उलझने की हिम्मत न पड़ती । लोग गम खा जाते
गर्मियों के दिन थे, ताल-तलैया सूखी पड़ी थी। जोरों की लू चलने लगी थी। गांव में कहीं से एक सांड आ निकला और गउओं के साथ हो लिया। सारे दिन गउओं के साथ रहता, रात को बस्ती में घुस आता और खूंटों से बंधे बैलों को सींगों से मारता। कभी-किसी की गीली दीवार को सींगो से खोद डालता, घर का कूड़ा सींगों से उड़ाता। कई किसानों ने साग-भाजी लगा रखी थी, सारे दिन सींचते-सींचते मरते थे। यह सांड रात को उन हरे-भरे खेतों में पहुंच जाता और खेत का खेत तबाह कर देता। लोग उसे डंडों से मारते, गांव के बाहर भगा आते, लेकिन जरा देर में गायों में पहुंच जाता। किसी की अक्ल काम न करती थी कि इस संकट को कैसे टाला जाय। मथुरा का घर गांव के बीच में था, इसलिए उसके खेतों को सांड से कोई हानि न पहुंचती थी। गांव में उपद्रव मचा हुआ था और मथुरा को जरा भी चिन्ता न थी।
आखिर जब धैर्य का अंतिम बंधन टूट गया तो एक दिन लोगों ने जाकर मथुरा को घेरा और बोले—भाई, कहो तो गांव में रहें, कहो तो निकल जाएं। जब खेती ही न बचेगी तो रहकर क्या करेगें? तुम्हारी गायों के पीछे हमारा सत्यानाश हुआ जाता है, और तुम अपने रंग में मस्त हो। अगर भगवान ने तुम्हें बल दिया है तो इससे दूसरों की रक्षा करनी चाहिए, यह नहीं कि सबको पीस कर पी जाओ। सांड तुम्हारी गायों के कारण आता है और उसे भगाना तुम्हारा काम है, लेकिन तुम कानों में तेल डाले बैठे हो, मानो तुमसे कुछ मतलब ही नहीं।
मथुरा को उनकी दशा पर दया आयी। बलवान मनुष्य प्राय: दयालु होता है। बोला—
अच्छा जाओ, हम आज सांड को भगा देंगे।
एक आदमी ने कहा—दूर तक भगाना, नहीं तो फिर लौट आयेगा।
मथुरा ने कंधे पर लाठी रखते हुए उत्तर दिया— अब लौटकर न आयेगा।
चिलचिलाती दोपहरी थी। मथुरा सांड को भगाये लिए जाता था। दोंनों पसीने से तर थे। सांड बार-बार गांव की ओर घूमने की चेष्टा करता, लेकिन मथुरा उसका इरादा ताड़कर दूर ही से उसकी राह छेंक लेता। सांड क्रोध से उन्मत्त होकर कभी-कभी पीछे मुड़कर मथुरा पर तोड़ करना चाहता लेकिन उस समय मथुरा सामना बचाकर बगल से ताबड़-तोड़ इतनी लाठियां जमाता कि सांड को फिर भागना पड़ता कभी दोनों अरहर के खेतो में दौड़ते, कभी झाडिय़ों में । अरहर की खूटियों से मथुरा के पांव लहू-लुहान हो रहे थे, झाडिय़ों में धोती फट गई थी, पर उसे इस समय सांड का पीछा करने के सिवा और कोई सुध न थी। गांव पर गांव आते थे और निकल जाते थे। मथुरा ने निश्चय कर लिया कि इसे नदी पार भगाये बिना दम न लूंगा। उसका कंठ सूख गया था और आंखें लाल हो गयी थी, रोम-रोम से चिनगारियां सी निकल रही थी, दम उखड़ गया था, लेकिन वह एक क्षण के लिए भी दम न लेता था। दो ढाई घंटों के बाद जाकर नदी आयी। यहीं हार-जीत का फैसला होने वाला था, यहीं से दोनों खिलाडिय़ों को अपने दांव-पेंच के जौहर दिखाने थे। सांड सोचता था, अगर नदी में उतर गया तो यह मार ही डालेगा, एक बार जान लड़ा कर लौटने की कोशिश करनी चाहिए। मथुरा सोचता था, अगर वह लौट पड़ा तो इतनी मेहनत व्यर्थ हो जाएगी और गांव के लोग मेरी हंसी उड़ायेगें। दोनों अपने-अपने घात में थे। सांड ने बहुत चाहा कि तेज दौड़कर आगे निकल जाऊं और वहां से पीछे को फिरूं, पर मथुरा ने उसे मुडऩे का मौका न दिया। उसकी जान इस वक्त सुई की नोक पर थी, एक हाथ भी चूका और प्राण भी गए, जरा पैर फिसला और फिर उठना नसीब न होगा। आखिर मनुष्य ने पशु पर विजय पायी और सांड को नदी में घुसने के सिवाय और कोई उपाय न सूझा। मथुरा भी उसके पीछे नदी में पैठ गया और इतने डंडे लगाये कि उसकी लाठी टूट गयी।
अब मथुरा को जोरो से प्यास लगी। उसने नदी में मुंह लगा दिया और इस तरह हौंक-हौंक कर पीने लगा मानों सारी नदी पी जाएगा। उसे अपने जीवन में कभी पानी इतना अच्छा न लगा था और न कभी उसने इतना पानी पीया था। मालूम नहीं, पांच सेर पी गया या दस सेर लेकिन पानी गरम था, प्यास न बुझी, जरा देर में फिर नदी में मुंह लगा दिया और इतना पानी पीया कि पेट में सांस लेने की जगह भी न रही। तब गीली धोती कंधे पर डालकर घर की ओर चल दिया।
लेकिन दस की पांच पग चला होगा कि पेट में मीठा-मीठा दर्द होने लगा। उसने सोचा, दौड़ कर पानी पीने से ऐसा दर्द अक्सर हो जाता है, जरा देर में दूर हो जाएगा। लेकिन दर्द बढऩे लगा और मथुरा का आगे जाना कठिन हो गया। वह एक पेड़ के नीचे बैठ गया और दर्द से बैचेन होकर जमीन पर लोटने लगा। कभी पेट को दबाता, कभी खड़ा हो जाता कभी बैठ जाता, पर दर्द बढ़ता ही जाता था। अन्त में उसने जोर-जोर से कराहना और रोना शुरू किया, पर वहां कौन बैठा था जो, उसकी खबर लेता। दूर तक कोई गांव नहीं, न आदमी न आदमजात। बेचारा दोपहरी के सन्नाटे में तड़प-तड़प कर मर गया। हम कड़े से कड़ा घाव सह सकते है लेकिन जरा सा-भी व्यतिक्रम नहीं सह सकते। वही देव का सा जवान जो कोसो तक सांड को भगाता चला आया था, तत्वों के विरोध का एक वार भी न सह सका। कौन जानता था कि यह दौड़ उसके लिए मौत की दौड़ होगी! कौन जानता था कि मौत ही सांड का रूप धरकर उसे यों नचा रही है। कौन जानता था कि जल जिसके बिना उसके प्राण ओठों पर आ रहे थे, उसके लिए विष का काम करेगा।
संध्या समय उसके घरवाले उसे ढूंढते हुए आये। देखा तो वह अनंत विश्राम में मग्न था।
एक महीना गुजर गया। गांव वाले अपने काम-धंधे में लगे। घरवालों ने रो-धो कर सब्र किया; पर अभागिनी विधवा के आंसू कैसे पुंछते। वह हरदम रोती रहती। आंखे चाहे बन्द भी हो जाती, पर हृदय नित्य रोता रहता था। इस घर में अब कैसे निर्वाह होगा? किस आधार पर जिऊंगी? अपने लिए जीना या तो महात्माओं को आता है या लम्पटों ही को। अनूपा को यह कला क्या मालूम? उसके लिए तो जीवन का एक आधार चाहिए था, जिसे वह अपना सर्वस्व समझे, जिसके लिए वह जिये, जिस पर वह घमंड करे। घरवालों को यह गवारा न था कि वह कोई दूसरा घर करे। इसमें बदनामी थी। इसके सिवाय ऐसी सुशील, घर के कामों में कुशल, लेन-देन के मामलो में इतनी चतुर और रंग रूप की ऐसी सराहनीय स्त्री का किसी दूसरे के घर पड़ जाना ही उन्हें असह्य था। उधर अनूपा के मैकेवाले एक जगह बातचीत पक्की कर रहे थे। जब सब बातें तय हो गयी, तो एक दिन अनूपा का भाई उसे विदा कराने आ पहुंचा ।
अब तो घर में खलबली मची। इधर कहा गया, हम विदा न करेंगे। भाई ने कहा, हम बिना विदा कराये मानेंगे नहीं। गांव के आदमी जमा हो गये, पंचायत होने लगी। यह निश्चय हुआ कि अनूपा पर छोड़ दिया जाय, जी चाहे रहे। यहां वालो को विश्वास था कि अनूपा इतनी जल्द दूसरा घर करने को राजी न होगी, दो-चार बार ऐसा कह भी चुकी थी। लेकिन उस वक्त जो पूछा गया तो वह जाने को तैयार थी। आखिर उसकी विदाई का सामान होने लगा। डोली आ गई। गांव-भर की स्त्रिया उसे देखने आयीं। अनूपा उठ कर अपनी सांस के पैरो में गिर पड़ी और हाथ जोड़कर बोली—अम्मा, कहा-सुना माफ करना। जी में तो था कि इसी घर में पड़ी रहूं, पर भगवान को मंजूर नहीं है।
यह कहते- कहते उसकी जबान बन्द हो गई।
सास करूणा से विहृवल हो उठी। बोली—बेटी, जहां जाओ वहां सुखी रहो। हमारे भाग्य ही फूट गये नहीं तो क्यों तुम्हें इस घर से जाना पड़ता। भगवान का दिया और सब कुछ है, पर उन्होंने जो नहीं दिया उसमें अपना क्या बस, बस आज तुम्हारा देवर सयाना होता तो बिगड़ी बात बन जाती। तुम्हारे मन में बैठे तो इसी को अपना समझो, पालो-पोसो बड़ा हो जायेगा तो सगाई कर दूंगी।
यह कहकर उसने अपने सबसे छोटे लड़के वासुदेव से पूछा—क्यों रे! भौजाई से शादी करेगा?
वासुदेव की उम्र पांच साल से अधिक न थी। अबकी उसका ब्याह होने वाला था। बातचीत हो चुकी थी। बोला— तब तो दूसरे के घर न जायगी न?
मां— नहीं, जब तेरे साथ ब्याह हो जायगी तो क्यों जायगी?
वासुदेव- तब मैं करूंगा।
मां—अच्छा,उससे पूछ, तुझसे ब्याह करेगी।
वासुदेव अनूप की गोद में जा बैठा और शरमाता हुआ बोला— हम से ब्याह करोगी?
यह कह कर वह हंसने लगा, लेकिन अनूप की आंखें डबडबा गयीं, वासुदेव को छाती से लगाते हुए बोली.. अम्मा, दिल से कहती हो?
सास— भगवान जानते हैं!
अनूपा— आज यह मेरे हो गये?
सास— हां सारा गांव देख रहा है ।
अनूपा— तो भैया से कहला भेजो, घर जायें, मैं उनके साथ न जाऊंगी।
अनूपा को जीवन के लिए आधार की जरूरत थी। वह आधार मिल गया। सेवा मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति है। सेवा ही उसके जीवन का आधार है।
अनूपा ने वासुदेव का लालन-पोषण शुरू किया। उबटन और तेल लगाती, दूध-रोटी मल-मल के खिलाती। आप तालाब नहाने जाती तो उसे भी नहलाती। खेत में जाती तो उसे भी साथ ले जाती। थोड़े ही दिनों में उससे हिल-मिल गया कि एक क्षण भी उसे न छोड़ता। मां को भूल गया। कुछ खाने को जी चाहता तो अनूपा से मांगता, खेल में मार खाता तो रोता हुआ अनूपा के पास आता। अनूपा ही उसे सुलाती, अनूपा ही जगाती, बीमार हो तो अनूपा ही गोद में लेकर बदलू वैध के घर जाती, और दवायें पिलाती।
गांव के स्त्री-पुरूष उसकी यह प्रेम तपस्या देखते और दांतों उंगली दबाते। पहले बिरले ही किसी को उस पर विश्वास था। लोग समझते थे, साल-दो-साल में इसका जी ऊब जाएगा और किसी तरफ का रास्ता लेगी, इस दुधमुंहे बालक के नाम कब तक बैठी रहेगी, लेकिन यह सारी आशंकाएं निमूर्ल निकली। अनूपा को किसी ने अपने व्रत से विचलित होते न देखा। जिस हृदय में सेवा का स्रोत बह रहा हो— स्वाधीन सेवा का— उसमें वासनाओं के लिए कहां स्थान? वासना का वार निर्मम, आशाहीन, आधारहीन प्राणियों पर ही होता है चोर की अंधेरे में ही चलती है, उजाले में नहीं।
वासुदेव को भी कसरत का शौक था। उसकी शक्ल सूरत मथुरा से मिलती-जुलती थी, डील-डौल भी वैसा ही था। उसने फिर अखाड़ा जगाया। और उसकी बांसुरी की तानें फिर खेतों में गूंजने लगीं।
इस भांति 13 बरस गुजर गये। वासुदेव और अनूपा में सगाई की तैयारी होने लगी।
लेकिन अब अनूपा वह अनूपा न थी, जिसने 14 वर्ष पहले वासुदेव को पति भाव से देखा था, अब उस भाव का स्थान मातृभाव ने लिया था। इधर कुछ दिनों से वह एक गहरे सोच में डूबी रहती थी। सगाई के दिन ज्यों- ज्यों निकट आते थे, उसका दिल बैठा जाता था। अपने जीवन में इतने बड़े परिवर्तन की कल्पना ही से उसका कलेजा दहक उठता था। जिसे बालक की भांति पाला- पोसा, उसे पति बनाते हुए, लज्जा से उसका मुख लाल हो जाता था।
द्वार पर नगाड़ा बज रहा था। बिरादरी के लोग जमा थे। घर में गाना हो रहा था! आज सगाई की तिथि थी।
सहसा अनूपा ने जा कर सास से कहा— अम्मां मैं तो लाज के मारे मरी जा रही हूं।
सास ने भौंचक्की हो कर पूछा—क्यों बेटी, क्या है ?
अनूपा— मैं सगाई न करूंगी।
सास— कैसी बात करती है बेटी ? सारी तैयारी हो गयी। लोग सुनेंगे तो क्या कहेगें ?
अनूपा— जो चाहे कहें, जिनके नाम पर 14 वर्ष बैठी रही उसी के नाम पर अब भी बैठी रहूंगी। मैंने समझा था मरद के बिना औरत से रहा न जाता होगा। मेरी तो भगवान ने इज्जत आबरू निबाह दी। जब नयी उम्र के दिन कट गये तो अब कौन चिन्ता है! वासुदेव की सगाई कोई लड़की खोजकर कर दो। जैसे अब तक उसे पाला, उसी तरह अब उसके बाल-बच्चों को पालूंगी।
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प्रेमचंद के उपनाम से लिखने वाले धनपत राय श्रीवास्तव प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी के निकट लमही गाँव में हुआ था। आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह प्रेमचंद ने हिन्दी कहानी और उपन्यास की एक ऐसी परंपरा का विकास किया जिस पर पूरी शती का साहित्य आगे चल सका। तैंतीस वर्षों के रचनात्मक जीवन में वे साहित्य की ऐसी विरासत सौंप गए जो गुणों की दृष्टि से अमूल्य है और आकार की दृष्टि से असीमित। उन्होंने कुल 15 उपन्यास, 300 से कुछ अधिक कहानियां,  3 नाटक, 10 अनुवाद, 7 बाल पुस्तकें तथा हजारों पृष्ठों के लेख, सम्पादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना की।  जीवन के अंतिम दिनों में वे गंभीर रुप से बीमार पड़े। उनका उपन्यास मंगलसूत्र पूरा नहीं हो सका और लंबी बीमारी के बाद 8 अक्टूबर 1936 को उनका निधन हो गया। देखा जाए तो भारतीय साहित्य का बहुत सा विमर्श जो बाद में प्रमुखता से उभरा चाहे वह दलित साहित्य हो या नारी साहित्य उसकी जड़ें कहीं गहरे प्रेमचंद के साहित्य में दिखाई देती हैं। प्रेमचंद के पात्र सारे के सारे वो हैं जो कुचले, पिसे और दुख का बोझ सहते हुए हैं। 

छोटा जादूगर

छोटा जादूगर

                                                                            -जयशंकर प्रसाद 
 उसने कहा-तमाशा देखने नहीं, दिखाने निकला हूँ। कुछ पैसे ले जाऊँगा, तो माँ को पथ्य दूँगा। मुझे शरबत न पिलाकर आपने मेरा खेल देखकर मुझे कुछ दे दिया होता, तो मुझे अधिक प्रसन्नता होती। मैं आश्चर्य से उस तेरह- चौदह वर्ष के लड़के को देखने लगा।
कार्निवल के मैदान में बिजली जगमगा रही थी। हँसी और विनोद का कलनाद गूँज रहा था। मैं खड़ा था। उस छोटे फुहारे के पास, जहाँ एक लड़का चुपचाप शराब पीने वालों को देख रहा था। उसके गले में फटे कुरते के ऊपर से एक मोटी-सी सूत की रस्सी पड़ी थी और जेब में कुछ ताश के पत्ते थे। उसके मुँह पर गम्भीर विषाद के साथ धैर्य की रेखा थी। मैं उसकी ओर न जाने क्यों आकर्षित हुआ। उसके अभाव में भी सम्पूर्णता थी। मैंने पूछा-क्यों जी, तुमने इसमें क्या देखा?
मैंने सब देखा है। यहाँ चूड़ी फेंकते हैं। खिलौनों पर निशाना लगाते हैं। तीर से नम्बर छेदते हैं। मुझे तो खिलौनों पर निशाना लगाना अच्छा मालूम हुआ। जादूगर तो बिलकुल निकम्मा है। उससे अच्छा तो ताश का खेल मैं ही दिखा सकता हूँ।- उसने बड़ी प्रगल्भता से कहा। उसकी वाणी में कहीं रुकावट न थी।
मैंने पूछा-और उस परदे में क्या है? वहाँ तुम गये थे।
नहीं, वहाँ मैं नहीं जा सका। टिकट लगता है।
मैंने कहा-तो चल, मैं वहाँ पर तुमको लिवा चलूँ। मैंने मन-ही-मन कहा-भाई! आज के तुम्हीं मित्र रहे।
उसने कहा-वहाँ जाकर क्या कीजिएगा? चलिए, निशाना लगाया जाय।
मैंने सहमत होकर कहा-तो फिर चलो, पहिले शरबत पी लिया जाय। उसने स्वीकार-सूचक सिर हिला दिया।
मनुष्यों की भीड़ से जाड़े की सन्ध्या भी वहाँ गर्म हो रही थी। हम दोनों शरबत पीकर निशाना लगाने चले। राह में ही उससे पूछा-तुम्हारे और कौन हैं?
माँ और बाबूजी।
उन्होंने तुमको यहाँ आने के लिए मना नहीं किया?
बाबूजी जेल में है।
क्यों?
देश के लिए। वह गर्व से बोला।
और तुम्हारी माँ?
वह बीमार है।
और तुम तमाशा देख रहे हो?
उसके मुँह पर तिरस्कार की हँसी फूट पड़ी। उसने कहा-तमाशा देखने नहीं, दिखाने निकला हूँ। कुछ पैसे ले जाऊँगा, तो माँ को पथ्य दूँगा। मुझे शरबत न पिलाकर आपने मेरा खेल देखकर मुझे कुछ दे दिया होता, तो मुझे अधिक प्रसन्नता होती।
मैं आश्चर्य से उस तेरह- चौदह वर्ष के लड़के को देखने लगा।
हाँ, मैं सच कहता हूँ बाबूजी! माँ जी बीमार है; इसलिए मैं नहीं गया।
कहाँ?
जेल में! जब कुछ लोग खेल- तमाशा देखते ही हैं, तो मैं क्यों न दिखाकर माँ की दवा करूँ और अपना पेट भरूँ।
मैंने दीर्घ निश्वास लिया। चारों ओर बिजली के लट्टू नाच रहे थे। मन व्यग्र हो उठा। मैंने उससे कहा-अच्छा चलो, निशाना लगाया जाय।
हम दोनों उस जगह पर पहुँचे, जहाँ खिलौने को गेंद से गिराया जाता था। मैंने बारह टिकट खरीदकर उस लड़के को दिये।
वह निकला पक्का निशानेबाज। उसका कोई गेंद खाली नहीं गया। देखने वाले दंग रह गये। उसने बारह खिलौनों को बटोर लिया, लेकिन उठाता कैसे? कुछ मेरी रुमाल में बँधे, कुछ जेब में रख लिए गये।
लड़के ने कहा-बाबूजी, आपको तमाशा दिखाऊँगा। बाहर आइए, मैं चलता हूँ। वह नौ-दो ग्यारह हो गया। मैंने मन-ही-मन कहा-इतनी जल्दी आँख बदल गयी।
मैं घूमकर पान की दूकान पर आ गया। पान खाकर बड़ी देर तक इधर-उधर टहलता देखता रहा। झूले के पास लोगों का ऊपर- नीचे आना देखने लगा। अकस्मात किसी ने ऊपर के हिंडोले से पुकारा-बाबूजी!
मैंने पूछा-कौन?
मैं हूँ छोटा जादूगर।
कलकत्ते के सुरम्य बोटानिकल-उद्यान में लाल कमलिनी से भरी हुई एक छोटी-सी-झील के किनारे घने वृक्षों की छाया में अपनी मण्डली के साथ बैठा हुआ मैं जलपान कर रहा था। बातें हो रही थीं। इतने में वही छोटा जादूगर दिखाई पड़ा। हाथ में चारखाने की खादी का झोला। साफ जाँघिया और आधी बाँहों का कुरता। सिर पर मेरी रुमाल सूत की रस्सी से बँधी हुई थी। मस्तानी चाल से झूमता हुआ आकर कहने लगा-
बाबूजी, नमस्ते! आज कहिए, तो खेल दिखाऊँ।
नहीं जी, अभी हम लोग जलपान कर रहे हैं।
फिर इसके बाद क्या गाना-बजाना होगा, बाबूजी?
नहीं जी-तुमको...., क्रोध से मैं कुछ और कहने जा रहा था। श्रीमती ने कहा-दिखलाओ जी, तुम तो अच्छे आये। भला, कुछ मन तो बहले। मैं चुप हो गया, क्योंकि श्रीमती की वाणी में वह माँ की- सी मिठास थी, जिसके सामने किसी भी लड़के को रोका जा नहीं सकता। उसने खेल आरम्भ किया।
उस दिन कार्निवल के सब खिलौने उसके खेल में अपना अभिनय करने लगे। भालू मनाने लगा। बिल्ली रूठने लगी। बन्दर घुड़कने लगा।
गुडिय़ा का ब्याह हुआ। गुड्डा वर काना निकला। लड़के की वाचालता से ही अभिनय हो रहा था। सब हँसते- हँसते लोट- पोट हो गये।
मैं सोच रहा था। बालक को आवश्यकता ने कितना शीघ्र चतुर बना दिया। यही तो संसार है।
ताश के सब पत्ते लाल हो गये। फिर सब काले हो गये। गले की सूत की डोरी टुकड़े- टुकड़े होकर जुट गयी। लट्टू अपने से नाच रहे थे। मैंने कहा-अब हो चुका। अपना खेल बटोर लो, हम लोग भी अब जायँगे।
श्रीमती जी ने धीरे से उसे एक रुपया दे दिया। वह उछल उठा।
मैंने कहा-लड़के!
छोटा जादूगर कहिए। यही मेरा नाम है। इसी से मेरी जीविका है।
मैं कुछ बोलना ही चाहता था कि श्रीमती ने कहा-अच्छा, तुम इस रुपये से क्या करोगे?
पहले भर पेट पकौड़ी खाऊँगा। फिर एक सूती कम्बल लूँगा।
मेरा क्रोध अब लौट आया। मैं अपने पर बहुत क्रूद्ध होकर सोचने लगा-ओह! कितना स्वार्थी हूँ मैं। उसके एक रुपये पाने पर मैं ईष्र्या करने लगा था न!
वह नमस्कार करके चला गया। हम लोग लता-कुंज देखने के लिए चले।
उस छोटे-से बनावटी जंगल में सन्ध्या साँय- साँय करने लगी थी। अस्ताचलगामी सूर्य की अन्तिम किरण वृक्षों की पत्तियों से विदाई ले रही थी। एक शान्त वातावरण था। हम लोग धीरे- धीरे मोटर से हावड़ा की ओर आ रहे थे।
रह- रहकर छोटा जादूगर स्मरण होता था। सचमुच वह एक झोपड़ी के पास कम्बल कन्धे पर डाले खड़ा था। मैंने मोटर रोककर उससे पूछा-तुम यहाँ कहाँ?
मेरी माँ यहीं है न। अब उसे अस्पताल वालों ने निकाल दिया है। मैं उतर गया। उस झोपड़ी में देखा, तो एक स्त्री चिथड़ों से लदी हुई काँप रही थी।
छोटे जादूगर ने कम्बल ऊपर से डालकर उसके शरीर से चिमटते हुए कहा-माँ।
मेरी आँखों से आँसू निकल पड़े।
बड़े दिन की छुट्टी बीत चली थी। मुझे अपने आफिस में समय से पहुँचना था। कलकत्ते से मन ऊब गया था। फिर भी चलते- चलते एक बार उस उद्यान को देखने की इच्छा हुई। साथ- ही- साथ जादूगर भी दिखाई पड़ जाता, तो और भी..... मैं उस दिन अकेले ही चल पड़ा। जल्द लौट आना था।
दस बज चुका था। मैंने देखा कि उस निर्मल धूप में सड़क के किनारे एक कपड़े पर छोटे जादूगर का रंगमंच सजा था। मोटर रोककर उतर पड़ा। वहाँ बिल्ली रूठ रही थी। भालू मनाने चला था। ब्याह की तैयारी थी, यह सब होते हुए भी जादूगर की वाणी में वह प्रसन्नता की तरी नहीं थी। जब वह औरों को हँसाने की चेष्टा कर रहा था, तब जैसे स्वयं कँप जाता था। मानो उसके रोएँ रो रहे थे। मैं आश्चर्य से देख रहा था। खेल हो जाने पर पैसा बटोरकर उसने भीड़ में मुझे देखा। वह जैसे क्षण-भर के लिए स्फूर्तिमान हो गया। मैंने उसकी पीठ थपथपाते हुए पूछा- आज तुम्हारा खेल जमा क्यों नहीं?
माँ ने कहा है कि आज तुरन्त चले आना। मेरी घड़ी समीप है।-अविचल भाव से उसने कहा।
तब भी तुम खेल दिखलाने चले आये! मैंने कुछ क्रोध से कहा। मनुष्य के सुख- दु:ख का माप अपना ही साधन तो है। उसी के अनुपात से वह तुलना करता है।
उसके मुँह पर वही परिचित तिरस्कार की रेखा फूट पड़ी।
उसने कहा-न क्यों आता!
और कुछ अधिक कहने में जैसे वह अपमान का अनुभव कर रहा था।
क्षण- भर में मुझे अपनी भूल मालूम हो गयी। उसके झोले को गाड़ी में फेंककर उसे भी बैठाते हुए मैंने कहा-जल्दी चलो। मोटरवाला मेरे बताये हुए पथ पर चल पड़ा।
कुछ ही मिनटों में मैं झोपड़े के पास पहुँचा। जादूगर दौड़कर झोपड़े में माँ- माँ पुकारते हुए घुसा। मैं भी पीछे था, किन्तु स्त्री के मुँह से, बे... निकलकर रह गया। उसके दुर्बल हाथ उठकर गिर गये। जादूगर उससे लिपटा रो रहा था, मैं स्तब्ध था। उस उज्ज्वल धूप में समग्र संसार जैसे जादू-सा मेरे चारों ओर नृत्य करने लगा।
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 जयशंकर प्रसाद जी का जन्म माघ शुक्ल 10, संवत् 1946 वि. में काशी के सरायगोवर्धन में हुआ। किशोरावस्था के पूर्व ही माता और बड़े भाई का देहावसान हो जाने के कारण 17 वर्ष की उम्र में ही प्रसाद जी पर आपदाओं का पहाड़ टूट पड़ा। प्रसाद जी की प्रारंभिक शिक्षा काशी में क्वींस कालेज में हुई, किंतु बाद में घर पर इनकी शिक्षा का प्रबंध किया गया, जहाँ संस्कृत, हिंदी, उर्दू, तथा फारसी का अध्ययन इन्होंने किया। दीनबंधु ब्रह्मचारी जैसे विद्वान इनके संस्कृत के अध्यापक थे। इनके गुरुओं में रसमय सिद्ध की भी चर्चा की जाती है।
प्रसाद जी ने वेद, इतिहास, पुराण तथा साहित्य शास्त्र का अत्यंत गंभीर अध्ययन किया था। वे बाग- बगीचे तथा भोजन बनाने के शौकीन थे और शतरंज के खिलाड़ी भी थे। कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक और निबंध, साहित्य की प्राय: सभी विधाओं में उन्होंने ऐतिहासिक महत्व की रचनाएँ कीं तथा खड़ी बोली की श्रीसंपदा को महान और मौलिक दान से समृद्ध किया। वे छायावाद के संस्थापकों और उन्नायकों में से एक हैं। वैसे सर्वप्रथम कविता के क्षेत्र में इस नव- अनुभूति के वाहक वही रहे हैं और प्रथम विरोध भी उन्हीं को सहना पड़ा है। भाषा शैली और शब्द-विन्यास के निर्माण के लिये जितना संघर्ष प्रसाद जी को करना पड़ा है, उतना दूसरों को नहीं। प्रसाद जी का जीवन कुल 48 वर्ष का रहा है। क्षय रोग से प्रबोधिनी एकादशी सं. 1993 (15 नवंबर, 1936 ई.) को उनका देहांत काशी में हुआ। उदंती के इस अंक में प्रस्तुत है उनकी एक बेहद मर्मस्पर्शी कहानी छोटा जादूगर।

ममता


ममता

- अक्षय कुमार जैन

छोटे से गाँव में हम सब रहते हैं। यद्यपि भाई-बहिनों की शिक्षा का उपयुक्त प्रबन्ध कुछ भी नहीं हो सकतापर असन्तुष्ट कोई भी नहीं है। बहिनों को पत्र-पत्रिकाओंसुई चलाने से अवकाश नहीं मिलता और अनुज़ सतीश कोया सत्तो कहना ठीक होगापशु-पक्षियों की मित्रता से छुट्टी नहीं मिलती। ब्रह्म मुहूर्त में जगेबिना शौच गए सुखिया गायमोती कुत्तालहिया चिडिय़ा और न जाने कितने मेंढक आदि जीवों सेजिनका अपना-अपना एक-एक नाम हैसुबह का सलाम कर दिया जाता है। इन सब के निर्दिष्ट स्थान भी हैं। सुखिया नौहरे मेंमोती कोठार में और लहिया ऊपर छत पर प्रात: काल से मानो सत्तो की प्रतीक्षा में बैठे रहते हैं।
लहिया मामूली-सी चिडिय़ा हैसाधारण रूप में उसमें कोई आकर्षण नहीं। दो वर्ष पहले उसने न जाने किस भौगोलिक अथवा प्राकृतिक दृष्टि से हमारी छत के टूटे हुए छप्पर में अपना घर बनाना ठीक समझा। तब से कई बार वह बच्चे दे चुकी है। बच्चे अवश्य उड़ जाते हैं पर वह यहीं की यहीं बनी है। दो वर्ष का समय सत्तो के लिए कम नहीं है। अब लहिया की और उसकी का$फी घनिष्ठता हो गई है। आरम्भ उसका मुझे ज्ञात है। पहले-पहल उसी टूटे छप्पर पर सत्तो अनाज के दाने बिखेर देता था। अब इतनी उन्नति हो चुकी है कि सुबह-शाम सत्तो दाने हाथ पर रख कर उसे पुचकारता हैबुला लेता है और न जाने कितने उलाहनों के साथ वह चिडिय़ा अपने मेज़बान के हाथ के दाने चट कर जाती है। छोटे बच्चे होने पर वही क्रिया दिन भर में चार-छह बार की जाती है। तब लहिया दाने स्वयं नहीं खाती। चोंच में भर कर बच्चों की छोटी-छोटी चोंचों में न्यायपूर्वक बाँट देती है। और चीं-चीं करते वे बच्चे किसी सीमा तक सत्तो के आगमन की प्रतीक्षा में रहते हैं। यद्यपि मुझे सत्तो के इन कामों में न दिलचस्पी हैन कुछ आनन्द ही आता हैपर जब कोई कृत्य हमारे सम्मुख प्रतिदिन होऔर वह भी कई बार तो देखना ही पड़ता है। देखना भरउससे परे कुछ नहीं। बात भी इन्हीं दोनों की हैलहिया और सत्तो की।
अभी शायद परसों की बात हैबादल सुबह से ही घिर रहे थे। संध्या को मैं लहिया के निवास-स्थान से कुछ दूर चारपाई पर बैठा एक पुस्तक पढ़ रहा था। देखा इस बार लहिया के बच्चे बड़े हृष्ट-पुष्ट और चालाक हैं। अभी शायद उनकी आँखें भी ठीक तरह से नहीं खुली हों। लहिया को उनकी रक्षा में अपने पंख उन पर रखने पड़ते हैं। पर फिर भी वे कुलबुल करते रहते हैं। कभी इधर हो जाते हैंकभी उधर और उससे बेचारी लहिया का बैलेंस ठीक नहीं रह पाताउसे रह-रह कर अपने को सम्भालना पड़ता है। मैं सोच रहा था कि यह चिडिय़ा नाहक तंग होती है। जब बच्चे कुलबुल करते हैं तो क्यों उड़ नहीं जाती। भुगतने दे शरारत का मज़ा। कुछ इसे इन बच्चों से आशा नहीं कि वृद्धावस्था में सेवा करेंगे।
पुस्तक मैंने बन्द कर दी और इसी ओर मनुष्य के स्वार्थ का दृष्टिकोण सम्मुख रखते हुए बड़ी देर तक मैं सोचता चला गया। मुझे ढूँढे कोई कारण न मिला कि क्यों वह नादान चिडिय़ा माँ बनती है और फिर क्यों अपने को अकारण मुसीबत में फँसाती है। अभी अण्डों को सेआअभी बच्चे निकालेउनकी रक्षा कीपानी-धूप से उन्हें बचायादाना-पानी दियाचाहे स्वयं भूखी रही। और फिर मनुष्य की तरह वृद्धावस्था में सेवा की भी आशा भी तो नहींजो इतना कष्ट सहा जावे। कुछ वृष्टि हो निकली और मैंक्योंकि लहिया के विषय में जानकारी कर रहा थापास के छप्पर में बैठ गया जहाँ से देख सकूँ कि लहिया किस प्रकार उन शरारती बच्चों की रक्षा करती है।
वर्षा इतने वेग से हुई कि सर्दी के कारण माँ ने मुझे नीचे बुला भेजा। बड़े कोठे में बैठे माँपिताजी और सब सत्तो से लहिया के गुण सुन रहे थे। मैं भी चुपचाप श्रोताओं में मिल गया। लहिया की समस्या मेरे मस्तिष्क में पूर्ण रूप से घूम रही थी। इधर लहिया का चरित्र-चित्रण हो रहा थामैं भी ध्यान लगा कर सुनने लगा। सत्तो ने कई घटनाएँ सुनाईं। पर एक घटना बड़ी विचित्र थी। उसी दिन सुबह एक कौवे ने बच्चों को या तो खाद्य-पदार्थ समझा अथवा न जाने क्यों किस भावना से लहिया के घर पर धावा बोल दिया। लहिया ठीक समय पर पहुँची और बड़ी वीरता से तथा चातुर्य से उसने उस दीर्घकाय (लहिया के लिए) कौवे को भगा दिया। और दूसरी ओर उन शैतान बच्चों को सम्भालती भी गई। मुझे फिर लगा- चिडिय़ा ज़रा-सी माँ बन गई तो कौवे से लड़ पड़ी और अगर कौवा मार देता तोबच्चे तो वह अंडे रखकर फिर पा सकती थी।
पानी रात भर न रुका। मैं सोचते-सोचते सो गया। क्या लहिया उस प्रलयकारी वृष्टि में भी उन शरारती बच्चों पर बैठी भीगती रहेगी और रक्षा के भार को पूर्णतया पूरा करेगीसत्तो उस रात को इतना भीगा कि उसे कुछ सर्दी-सी हो गई। मुझे तो प्रात:काल पता चला कि माता जी के सिर में दर्द हैवह रात भर न सो सकीं। सोतीं कैसेवे माँ हैं और एक माँ अपने छोटे बच्चे के लिए सब कुछ बलिदान कर सकती है। वह स्वयं कष्ट सह सकती है पर बच्चे के पसीने के स्थान पर रक्त बहा देगी क्योंकि माँ का यह जन्मसिद्ध अधिकार है। दुर्भाग्य से अथवा सौभाग्य से वह भी माँ हैं और इसीलिए रात भर नहीं सोईं। यहाँ तक तो ग्राह्य है कि माँ अपने बच्चे को सर्दी लग जाने के कारण सो न सकी और वह भी मनुष्य जाति की। पर भगिनी विमला ने मुझे दाँत साफ़ करते समय सूचना दी- 'सत्तो बड़ा रो रहा हैआप चल कर मना लीजिए।
मैंने कुल्ली करके पूछा-- 'क्यों क्या टैम्प्रेचर ज़्यादा हो गया?’
'नहींबुखार तो अब नहीं है। पर रात की वर्षा में उसकी लहिया मर गई।
मैं सन्न रह गया। वाह रे माँ की ममता! जान भी दे दी। मैं सत्तो के पास पहले न जा कर ऊपर पहुँचा। देखादोनों बच्चे अब भी कुलबुल कर रहे थे। शायद भूखे थे और लहिया का निर्जीव शरीर नीचे पड़ा था।
मैंने कहा- यह सब क्यामाँ की ममता और बलिदान। निस्सन्देह वह रात भर अपने पंख फैला कर अपने बच्चों की रक्षा करती रही होगी।
रचनाकाल: 05 जुलाई 1937

टोबा टेकसिंह

टोबा टेकसिंह
- सआदत हसन मंटो
बंटवारे के दो- तीन साल बाद पाकिस्तान और हिंदुस्तान की सरकारों को ख्याल आया कि साधारण कैदियों की तरह पागलों का भी तबादला होना चाहिए। यानी जो मुसलमान पागल हिंदुस्तान के पागलखाने में हैं, उन्हें पाकिस्तान पहुंचा दिया जाए और जो हिंदू पाकिस्तान के पागलखानों में हैं, उन्हें हिन्दुस्तान के हवाले कर दिया जाए।
मालूम नहीं यह बात ठीक थी या नहीं। बहरहाल बुद्धिमानों के फैसले के अनुसार इधर- उधर ऊंचे स्तर की कांफ्रेंस हुई और आखिरकार एक दिन पागलों के तबादलों के लिए नियत हो गया। अच्छी तरह छानबीन की गई। वे मुसलमान पागल, जिनके अभिभावक हिंदुस्तान में थे, वहीं रहने दिए गए थे। और जो बाकी थे, उन्हें सीमा पर रवाना कर दिया गया था। यहां पाकिस्तान से, क्योंकि करीब- करीब सब हिंदू- सिख जा चुके थे, इसलिए किसी को रखने- रखाने का सवाल ही न पैदा हुआ। जितने हिंदू- सिख पागल थे, सबके सब पुलिस के संरक्षण में सीमा पर पहुंचा दिए गए। उधर की मालूम नहीं, लेकिन इधर लाहौर के पागलखाने में जब इस तबादले की खबर पहुंची तो बड़ी दिलचस्प और कौतूकपूर्ण बातें होने लगीं। एक मुसलमान पागल, जो बारह बरस से रोजाना बकायदगी के साथ नमाज पढ़ता था, उससे जब उसके दोस्त ने पूछा-मौलवी साहब, यह पाकिस्तान क्या होता है? तो उसने बड़ा सोच- विचारकर जवाब दिया -'हिंदुस्तान में एक जगह है, जहां उस्तरे बनते हैं।'
यह जवाब सुनकर उसका मित्र संतुष्ट हो गया।
इसी तरह एक सिख पागल ने एक दूसरे सिख पागल से पूछा-'सरदार जी, हमें हिंदुस्तान क्यों भेजा जा रहा है? हमें तो वहां की बोली भी नहीं आती।'
दूसरा मुस्करा दिया- 'मुझे तो हिंदुस्तान की बोली आती है-हिंदुस्तानी बड़े शैतानी आकड़- आकड़ फिरते हैं-।'
एक मुसलमान पागल ने नहाते- नहाते पाकिस्तान जिंदाबाद का नारा इस जोर से बुलंद किया कि फर्श पर फिसलकर गिरा और अचेत हो गया। कुछ पागल ऐसे भी थे जो पागल नहीं थे। इनमें अधिकतर ऐसे कातिल थे, जिनके रिश्तेदारों ने अफसरों को दे-दिलाकर पागलखाने भिजवा दिया था कि वे फांसी के फंदे से बच जाएं।
ये कुछ- कुछ समझते थे कि हिंदुस्तान का क्यों विभाजन हुआ है और यह पाकिस्तान क्या है, लेकिन सभी घटनाओं से ये भी बेखबर थे। अखबारों से कुछ पता नहीं चलता था और पहरेदार सिपाही अनपढ़ जाहिल थे। उनकी बातचीत से भी वे कोई नतीजा नहीं निकाल सकते थे। उनको सिर्फ इतना मालूम था कि एक आदमी मुहम्मद अली जिन्ना है, जिसको कायदे- आजम कहते हैं। उसने मुसलमानों के लिए एक अलग मुल्क बनाया है, जिसका नाम पाकिस्तान है। वह कहां है? इसकी स्थिति क्या है? इसके विषय में वे कुछ नहीं जानते थे। यही कारण है कि पागलखाने में वे सब पागल, जिनका दिमाग पूरी तरह से खराब नहीं था, इस ऊहापोह में थे कि वे पाकिस्तान में हैं या हिंदुस्तान में। अगर हिंदुस्तान में हैं तो पाकिस्तान कहां है और अगर वे पाकिस्तान में हैं तो यह कैसे हो सकता है कि कुछ अर्सा पहले यहां रहते हुए भी हिंदुस्तान में थे। एक पागल तो पाकिस्तान और हिंदुस्तान और हिंदुस्तान और पाकिस्तान के चक्कर में ऐसा पड़ा कि और ज्यादा पागल हो गया। झाडू देते- देते एक दिन दरख्त पर चढ़ गया और एक टहनी पर बैठकर दो घंटे लगातार भाषण देता रहा, जो पाकिस्तान और हिंदुस्तान के नाजुक मामले पर था। सिपाहियों ने उसे नीचे उतरने के लिए कहा तो वह और ऊपर चढ़ गया। डराया- धमकाया गया तो उसने कहा - 'मैं न हिंदुस्तान में रहना चाहता हूं न पाकिस्तान में, मैं इस पेड़ पर ही रहूंगा।'
बड़ी मुश्किल के बाद जब उसका दौरा ठंडा पड़ गया, तो वह नीचे उतरा और अपने हिंदू- सिख दोस्तों से गले मिल- मिलकर रोने लगा। इस ख्याल से उसका दिल भर आया कि वे उसे छोड़कर हिंदुस्तान चले जाएंगे।
एक एम. एस. सी. पास रेडियो इंजीनियर, जो मुसलमान था और दूसरे पागलों से बिलकुल अलग- थलग बाग की एक खास रौश पर सारा दिन खामोश टहलता रहता था, में यह तब्दीली प्रकट हुई कि उसने तमाम कपड़े उतारकर दफेदार के हवाले कर दिए और नंग-धड़ंग सारे बाग में चलना शुरू कर दिया।
चनयूट एक मोटे मुसलमान पागल ने, जो मुस्लिम लीग का एक सक्रिय कार्यकर्ता रह चुका था और दिन में पंद्रह- सोलह बार नहाया करता, एकदम नई आदत छेड़ दी। उसका नाम मुहम्मद अली जिन्ना है। उसकी देखा- देखी एक सिख पागल मास्टर तारासिंह बन गया। करीब था कि उस जंगल में खूनखराबा हो जाए, मगर दोनों को खतरनाक पागल करार देकर अलग बंद कर दिया गया।
लाहौर का एक नौजवान हिंदू वकील था, जो मुहब्बत में पड़कर पागल हो गया था। जब उसने सुना कि अमृतसर हिंदुस्तान में चला गया है तो उसे बहुत दुख हुआ। उसी शहर की एक हिंदू लड़की से उसे प्रेम हो गया था। यद्यपि उसने उस वकील को ठुकरा दिया था, मगर दीवानगी की हालत में भी वह उसको भूला नहीं था। चुनांचे वह उन तमाम मुस्लिम लीडरों को गालियां देता था, जिन्होंने मिल-मिलाकर हिंदुस्तान के दो टुकड़े कर दिए। उसकी प्रेमिका हिंदुस्तानी बन गई और वह पाकिस्तानी।
जब तबादले की बात शुरू हुई तो वकील को पागलों ने समझाया। वह दिल छोटा न करे, उसको हिंदुस्तान भेज दिया जाएगा-उस हिंदुस्तान में, जहां उसकी प्रेमिका रहती है, मगर वह लाहौर छोडऩा नहीं चाहता था, इस ख्याल से कि अमृतसर में उसकी प्रेक्टिस नहीं चलेगी। यूरोपियन वार्ड में दो ऐंग्लो-इंडियन पागल थे। उनको जब मालूम हुआ कि हिंदुस्तान को आजाद कर अंग्रेज चले गए हैं तो उनको बड़ा दुख हुआ। वे छिप-छिपकर घंटों इस समस्या पर बातचीत करते रहते कि पागलखाने में उनकी हैसियत किस तरह की होगी- यूरोपीय वार्ड रहेगा या जाएगा। ब्रेकफास्ट मिला करेगा या नहीं। क्या उन्हें डबल रोटी के बजाए ब्लडी इंडियन चपाती तो जहर मार नहीं करनी पड़ेगी?
एक सिख था, जिसको पागलखाने में दाखिल हुए पंद्रह वर्ष हो चुके थे। हर समय उसकी जबान से अजीब- गरीब शब्द सुनने में आते थे, 'ओपड़ दी गडग़ड़ दा एनेक्स दी बेध्याना दी मुंग दी दाल आफ दी लालटेन।'
अलबत्ता कभी-कभी दीवार के साथ लगा लेता था तो भी हर समय खड़े रहने से उसके पांव सूज गए थे। पिंडलियां भी फैल गईं थीं, मगर इस शारीरिक तकलीफ के बावजूद लेटकर आराम नहीं करता था। हिंदुस्तान-पाकिस्तान और पागलों के तबादले के विषय में जब कभी पागलों में चर्चा होती थी तो वह बड़े ध्यान से सुनता था। कोई उससे पूछता कि उसका क्या ख्याल है तो वह बड़ी गंभीरता से जवाब देता 'ओपड़ दी गडग़ड़ दी एनेक्स दी बेध्याना दी मूंग दी दाल आफ दी पाकिस्तान गवर्नमेंट।'
लेकिन बाद में आफ दी पाकिस्तान गवर्नमेंट की जगह आफ दी टोबा टेकसिंह ने ले ली और उसने दूसरे पागलों से पूछना शुरू कर किया कि टोबा टेकसिंह कहां है, कहां का रहनेवाला है? लेकिन किसी को भी मालूम नहीं था कि वह पाकिस्तान में है या हिंदुस्तान में। जो बताने की कोशिश करते थे, खुद इस उलझन में फंस जाते थे कि स्यालकोट पहले हिंदुस्तान में होता था, पर अब सुना है पाकिस्तान में है। क्या पता कि लाहौर जो अब पाकिस्तान में है, कल हिंदुस्तान में चला जाएगा या सारा हिंदुस्तान ही पाकिस्तान बन जाए और यह भी कौन सीने पर हाथ रखकर कह सकता था कि हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों किसी दिन सिरे से गायब न हो जाएंगे।
एक सिख पागल के केश छिदरे होकर बहुत थोड़े ही रह गए थे। चूंकि वह बहुत कम नहाता था, दाढ़ी और बाल आपस में जम गए थे, जिसके कारण उसकी शक्ल बड़ी भयानक हो गई थी। लेकिन वह आदमी किसी का नुकसान नहीं करता था। पंद्रह वर्षों में उसने किसी से झगड़ा- फसाद नहीं किया था। पागलखाने के जो पुराने नौकर थे, वे उसके बारे में इतना जानते थे कि टोबा टेकसिंह में उसकी कई जमीनें थीं। अच्छा खाता-पीता जमींदार था कि अचानक ही दिमाग उलट गया। उसके रिश्तेदार लोहे की मोटी- मोटी जंजीरों में उसे बांध कर लाए और पागलखाने में दाखिल करा गए।
महीने में एक बार मुलाकात के लिए ये लोग आते थे और उसकी राजी- खुशी मालूम करते चले जाते थे। एक मुद्दत तक यह क्रम चलता रहा लेकिन जब पाकिस्तान- हिंदुस्तान की गड़बड़ शुरू हो गई तो उनका आना बंद हो गया।
उसका नाम बिशनसिंह था, मगर सब उसे टोबा टेकसिंह कहते थे। उसे बिल्कुल यह मालूम न था कि दिन कौन-सा है, महीना कौन-सा है या कितने साल बीत चुके हैं? लेकिन हर महीने जब उसके स्वजन और संबंधी उससे मिलने आते तो उसे अपने आप पता चल जाता था। चुनांचे वह एक दफेदार से कहता कि उसकी मुलाकात आ रही है। उस दिन वह अच्छी तरह से नहाता, बदन पर खूब साबुन घिसता और सिर में तेल लगाकर कंघी करता। अपने कपड़े, जो वह कभी इस्तेमाल नहीं करता था, निकलवाकर पहनता और यूं सज-बनकर मिलनेवालों के पास जाता। वे उससे कुछ पूछते तो वह चुप रहता था या कभी-कभी 'ओपड़ दी एनेक्स दी बेध्याना दी मुंग दी दाल आफ दी लालटेन कह देता।'
उसकी एक लड़की थी जो हर महीने में एक अंगुल बढ़ती-बढ़ती पंद्रह वर्ष में जवान हो गई थी। बिशनसिंह उसे पहचानता ही न था। जब वह बच्ची थी, तब भी अपने बाप को देख कर रोती थी। जवान हुई तब भी उसकी आंखों से आंसू बहते थे।
पाकिस्तान और हिंदुस्तान का किस्सा शुरू हुआ तो उसने दूसरे पागलों से पूछना शुरू किया कि टोबा टेकसिंह कहां है? जब संतोषजनक उत्तर न मिला तो उसकी कुरेद दिन-ब-दिन बढ़ती गई। अब मुलाकात भी नहीं आती थी। पहले तो उसे अपने आप पता चल जाता था कि मिलनेवाले आ रहे हैं, पर अब जैसे उसके दिल की आवाज भी बंद हो गई थी, जो उसे उनके आने की खबर दिया करती थी।
उसकी बड़ी इच्छा थी कि वे लोग आएं, जो उससे सहानुभूति प्रकट करते थे और उसके लिए फल, मिठाइयां और कपड़े लाते थे। वह यदि उनसे पूछता कि टोबा टेकसिंह कहां है तो वे निश्चित बता देते कि पाकिस्तान में है या हिंदुस्तान में है, क्योंकि उसका विचार था कि वे टोबा टेकसिंह ही से आते हैं, जहां उसकी जमीन है।
पागलखाने का एक और पागल ऐसा भी था जो अपने को खुदा कहता था। उससे जब एक दिन बिशनसिंह ने पूछा कि टोबा टेकसिंह पाकिस्तान में है या हिंदुस्तान में, तो उसने अपनी आदत के मुताबिक कहकहा लगाया और कहा-' यह न पाकिस्तान में है और न हिंदुस्तान में, इसलिए कि हमने अभी तक हुकम नहीं दिया।'
बिशनसिंह ने खुदा से कई बार मिन्नत -खुशामद से कहा कि वह उसे हुक्म दे दे ताकि झंझट खत्म हो, मगर वह बहुत व्यस्त था, क्योंकि उसे और भी अनगिनत हुक्म देने थे। एक दिन तंग आकर वह उस पर बरस पड़ा, 'ओपड़ दी गडग़ड़ दी एनेक्स दी बेध्याना दी मुंग दी दाल आफ वाहे गुरूजी खालसा, एंड वाहे गुरूजी दी फतह- जो बोले सो निहाल-सत श्री अकाल।'
उसका शायद यह मतलब था कि तुम मुसलमानों के खुदा हो-सिखों के खुदा होते तो जरूर मेरी सुनते।
तबादले के कुछ दिन पहले तक टोबा टेकसिंह का एक मुसलमान, जो उसका दोस्त था, मुलाकात के लिए आया। पहले वह कभी नहीं आया था। जब बिशनसिंह ने उसे देखा तो एक तरफ हटा और वापस जाने लगा। मगर सिपाहियों ने उसे रोका, 'यह तुमसे मिलने आया है-तुम्हारा दोस्त फजलुद्दीन है।'
बिशनसिंह ने फजलुद्दीन को एक नजर देखा और कुछ बड़बड़ाने लगा। फजलुद्दीन ने आगे बढ़कर उसके कंधे पर हाथ रखा- 'मैं बहुत दिनों से सोच रहा था कि तुमसे मिलूं, लेकिन फुर्सत ही न मिली- तुम्हारे सब आदमी राजी-खुशी हिंदुस्तान चले गए थे। मुझसे जितनी मदद हो सकी, मैंने की तुम्हारी बेटी रूपकौर...।'
वह कुछ कहते- कहते रूक गया। बिशनसिंह कुछ याद करने लगा-' बेटी रूपकौर? '
फजलुद्दीन ने कुछ रूककर कहा -'हां..वह...भी ठीक-ठाक है।...उनके साथ ही चली गई थी।'
बिशनसिंह चुप रहा। फजलुद्दीन ने कहना शुरू किया -'उन्होंने मुझसे कहा था कि तुम्हारी राजी- खुशी पूछता रहूं। अब मैंने सुना है कि तुम हिंदुस्तान जा रहे हो-भाई बलबीर सिंह और भाई बधवासिंह से मेरा सलाम कहना और बहन अमृतकौर से भी। भाई बलबीर सिंह से कहना फजलुद्दीन राजी-खुशी है। दो भूरी भैंसे, जो वे छोड़ गए थे, उनमें से एक ने कट्टा दिया है, दूसरे के कट्टी हुई थी, पर वह छह दिन की होकर मर गई...और... और मेरे लायक जो खिदमत हो कहना। हर वक्त तैयार हूं... और यह तुम्हारे लिए थोड़े से भरूंडे लाया हूं।'
बिशनसिंह ने भरूंडों की पोटली लेकर पास खड़े सिपाही के हवाले कर दी और फजलुद्दीन से पूछा- 'टोबा टेकसिंह कहां?'
'टोबा टेकसिंह!' उसने तनिक आश्चर्य से कहा-'कहां है? वहीं है जहां था।'
बिशनसिंह ने पूछा- 'पाकिस्तान में या हिंदुस्तान में?'
'हिंदुस्तान में... नहीं नहीं, पाकिस्तान में।' फजलुद्दीन बौखला-सा गया।
बिशनसिंह बड़बड़ाता हुआ चला गया- 'ओपड़ दी गडग़ड़ दी एनेक्स दी बेध्याना दी मुंग दी दाल ऑफ दी पाकिस्तान एंड हिंदुस्तान ऑफ दी दुर फिट्टे मुंह।' तबादले की तैयारियां पूरी हो चुकी थीं। इधर से उधर और उधर से इधर आनेवाले पागलों की सूचियां पहुंच गई थीं और तबादले की तारीख भी निश्चित हो चुकी थी। सख्त सर्दियां थीं। लाहौर के पागलखाने से हिंदू-सिख पागलों से भरी लारियां पुलिस के दस्ते के साथ रवाना हुईं। संबंधित अफसर भी उनके साथ थे। वाघा बार्डर पर दोनों ओर के सुपरिटेंडेंट एक- दूसरे से मिले और प्रारंभिक कार्यवाही खत्म होने के बाद तबादला शुरू हो गया, जो रात भर जारी रहा।
पागलों को लारियों से निकालना और उनको दूसरे अफसरों के हवाले करना बड़ा कठिन काम था। कुछ तो बाहर निकलते ही नहीं थे, जो निकलने को तैयार होते, उनको संभालना होता, क्योंकि इधर- उधर भाग उठते थे। जो नंगे थे, उनको कपड़े पहनाए जाते थे तो वे फाड़कर अपने शरीर से अलग कर देते। कोई गालियां बक रहा है। कान पड़ी आवाज सुनाई नहीं देती थी। पागल स्त्रियों का शोरगुल अलग था। और सर्दी इतने कड़ाके की थी कि दांत से दांत बज रहे थे।
अधिकतर पागल इस तबादले को नहीं चाहते थे। इसलिए कि उनकी समझ में नहीं आता था कि उन्हें अपनी जगह से उखाड़कर कहां फेंका जा रहा है? थोड़े से वे जो सोच-समझ सकते थे, 'पाकिस्तान जिंदाबाद' के नारे लगा रहे थे। दो-तीन बार झगड़ा होते-होते बचा क्योंकि कुछ हिंदुओं और सिखों को ये नारे सुनकर तैश आ गया था।
जब बिशनसिंह की बारी आई और जब उसको दूसरी ओर भेजने के संबंध में अधिकारी लिखत-पढ़त करने लगे तो उसने पूछा -'टोबा टेकसिंह कहां? पाकिस्तान में या हिंदुस्तान में?'
संबंधित अधिकारी हंसा, बोला-'पाकिस्तान में। '
यह सुनकर बिशनसिंह उछलकर एक तरफ हटा और दौड़कर अपने शेष साथियों के पास पहुंच गया। पाकिस्तानी सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया और दूसरी तरफ ले जाने लगे, किंतु उसने चलने से साफ इनकार कर दिया- 'टोबा टेकसिंह कहां है?' और जोर-जोर से चिल्लाने लगा, 'ओपड़ दी गडग़ड़ दी एनेक्सी दी बेध्याना दी मुंग दी दाल ऑफ टोबा टेकसिंह एंड पाकिस्तान।'
उसे बहुत समझाया गया, 'देखो, टोबा टेकसिंह अब हिंदुस्तान में चला गया है- यदि नहीं गया है तो उसे तुरंत ही भेज दिया जाएगा।' किंतु वह न माना। जब जबरदस्ती दूसरी ओर उसे ले जाने की कोशिशें की गईं तो वह बीच में एक स्थान पर इस प्रकार अपना सूजी हुई टांगों पर खड़ा हो गया, जैसे अब कोई ताकत उसे वहां से हटा नहीं सकेगी। क्योंकि आदमी बेजरर था, इसलिए उसके साथ जबरदस्ती नहीं की गई, उसको वहीं खड़ा रहने दिया गया और शेष काम होता रहा।
सूरज निकलने से पहले स्तब्ध खड़े हुए बिशनसिंह के गले से एक गगनभेदी चीख निकली। इधर-उधर से कई अफसर दौड़े आए और देखा कि वह आदमी, जो पंद्रह वर्ष तक दिन-रात अपनी टांगों पर खड़ा रहा था, औंधे मुंह लेटा था। इधर कांटेदार तारों के पीछे हिंदुस्तान था- उधर वैसे ही कांटेदार तारों के पीछे पाकिस्तान। बीच में जमीन के उस टुकड़े पर जिसका कोई नाम नहीं था टोबा टेकसिंह पड़ा था।

बिन्दा

बिन्दा

- महादेवी वर्मा
मैंने निश्चित रूप से समझ लिया था कि संसार का सारा कारोबार बच्चों को खिलाने-पिलाने, सुलाने आदि के लिए ही हो रहा है और इस महत्वपूर्ण कत्र्तव्य में भूल न होने देने का काम माँ नामधारी जीवों को सौंपा गया है।

भीत-सी आंखोंवाली उस दुर्बल, छोटी और अपने-आप ही सिमटी-सी बालिका पर दृष्टि डाल कर मैंने सामने बैठे सज्जन को, उनका भरा हुआ प्रवेशपत्र लौटाते हुए कहा-आपने आयु ठीक नहीं भरी है। ठीक कर दीजिए, नहीं तो पीछे कठिनाई पड़ेगी। नहीं यह तो गत आषाढ़ में चौदह की हो चुकी। सुनकर मैंने कुछ विस्मित भाव से अपनी उस भावी विद्यार्थिनी को अच्छी तरह देखा, जो नौ वर्षीय बालिका की सरल चंचलता से शून्य थी और चौदह वर्षीय किशोरी के सलज्ज उत्साह से अपरिचित।
उसकी माता के संबंध में मेरी जिज्ञासा स्वगत न रहकर स्पष्ट प्रश्न ही बन गयी होगी, क्योंकि दूसरी ओर से कुछ कुंठित उत्तर मिला- मेरी दूसरी पत्नी है और आप तो जानती ही होंगी... और उनके वाक्य को अधसुना ही छोड़कर मेरा मन स्मृतियों की चित्रशाला में दो युगों से अधिक समय की भूल के नीचे दबे बिंदा या विन्ध्येश्वरी के धुंधले चित्र पर उँगली रखकर कहने लगा- ज्ञात है, अवश्य ज्ञात है।
बिंदा मेरी उस समय की बाल्यसखी थी, जब मैं जीवन और मृत्यु का अमिट अन्तर जान नहीं पायी थी। अपने नाना और दादी के स्वर्ग-गमन की चर्चा सुनकर मैं बहुत गम्भीर मुख और आश्वस्त भाव से घर भर को सूचना दे चुकी थी कि जब मेरा सिर कपड़े रखने की आलमारी को छूने लगेगा, तब मैं निश्चय ही एक बार उनको देखने जाऊंगी। न मेरे इस पुण्य संकल्प का विरोध करने की किसी को इच्छा हुई और न मैंने एक बार मरकर कभी न लौट सकने का नियम जाना। ऐसी दशा में, छोटे-छोटे असमर्थ बच्चों को छोड़कर मर जाने वाली मां की कल्पना मेरी बुद्धि में कहां ठहरती। मेरा संसार का अनुभव भी बहुत संक्षिप्त-सा था। अज्ञानावस्था से मेरा साथ देने वाली सफेद कुतिया-सीढिय़ों के नीचे वाली अंधेरी कोठरी में आंख मूंदे पड़े रहने वाले बच्चों की इतनी सतर्क पहरेदार हो उठती थी कि उसका गुर्राना मेरी सारी ममता-भरी मैत्री पर पानी फेर देता था। भूरी पूसी भी अपने चूहे जैसे नि:सहाय बच्चों को तीखे पैने दाँतों में ऐसी कोमलता से दबाकर कभी लाती, कभी ले जाती थी कि उनके कहीं एक दांत भी न चुभ पाता था। ऊपर की छत के कोने पर कबूतरों का और बड़ी तस्वीर के पीछे गौरैया का जो भी घोंसला था, उसमें खुली हुई छोटी- छोटी चोचों और उनमें सावधानी से भरे जाते दानों और कीड़े- मकोड़ों को भी मैं अनेक बार देख चुकी थी। बछिया को हटाते  ही रँभा-रँभा कर घर भर को यह दु:खद समाचार सुनाने वाली अपनी श्यामा गाय की व्याकुलता भी मुझसे छिपी न थी। एक बच्चे को कन्धे से चिपकाये और एक उँगली पकड़े हुए जो भिखरिन द्वार-द्वार फिरती थी, वह भी तो बच्चों के लिए ही कुछ माँगती रहती थी। अत: मैंने निश्चित रूप से समझ लिया था कि संसार का सारा कारोबार बच्चों को खिलाने-पिलाने, सुलाने आदि के लिए ही हो रहा है और इस महत्वपूर्ण कत्र्तव्य में भूल न होने देने का काम माँ नामधारी जीवों को सौंपा गया है।
और बिंदा की भी तो माँ थी जिन्हें हम पंडिताइन चाची और बिंदा नई अम्मा कहती थी। वे अपनी गोरी, मोटी देह को रंगीन साड़ी से सजे-कसे, चारपाई पर बैठ कर फूले गाल और चिपटी-सी नाक के दोनों ओर नीले कांच के बटन सी चमकती हुई आंखों से युक्त मोहन को तेल मलती रहती थी। उनकी विशेष कारीगरी से संवारी पाटियों के बीच में लाल स्याही की मोटी लकीर-सा सिन्दूर उनींदी सी आँखों में काले डोरे के समान लगने वाला काजल, चमकीले कर्णफूल, गले की माला, नगदार रंग-बिरंगी चूडिय़ाँ और घुंघरूदार बिछुए मुझे बहुत भाते थे, क्योंकि यह सब अलंकार उन्हें गुडिय़ा की समानता दे देते थे।
यह सब तो ठीक था, पर उनका व्यवहार विचित्र-सा जान पड़ता था। सर्दी के दिनों में जब हमें धूप निकलने पर जगाया जाता था, गर्म पानी से हाथ मुंह धुलाकर मोजे, जूते और ऊनी कपड़ों से सजाया जाता था और मना-मनाकर गुनगुना दूध पिलाया जाता था, तब पड़ोस के घर में पंडिताइन चाची का स्वर उच्च-से उच्चतर होता रहता था। यदि उस गर्जन-तर्जन का कोई अर्थ समझ में न आता, तो मैं उसे श्यामा के रंभाने के समान स्नेह का प्रदर्शन भी समझ सकती थी, परन्तु उसकी शब्दावली परिचित होने के कारण ही कुछ उलझन पैदा करने वाली थी। उठती है या आऊं, बैल के से दीदे क्या निकाल रही है, मोहन का दूध कब गर्म होगा, अभागी मरती भी नहीं आदि वाक्यों में जो कठोरता की धारा बहती रहती थी, उसे मेरा अबोध मन भी जान ही लेता था।
कभी-कभी जब मैं ऊपर की छत पर जाकर उस घर की कथा समझने का प्रयास करती, तब मुझे मैली धोती लपेटे हुए बिंदा ही आंगन से चौके तक फिरकनी-सी नाचती दिखाई देती। उसका कभी झाडू देना, कभी आग जलाना, कभी आंगन के नल से कलसी में पानी लाना, कभी नई अम्मा को दूध का कटोरा देने जाना, मुझे बाजीगर के तमाशा जैसे लगता था, क्योंकि मेरे लिए तो वे सब कार्य असम्भव-से थे। पर जब उस विस्मित कर देने वाले कौतुक की उपेक्षा कर पंडिताइन चाची का कठोर स्वर गूंजने लगता, जिसमें कभी-कभी पंडित जी की घुड़की का पुट भी रहता था, तब न जाने किस दु:ख की छाया मुझे घेरने लगती थी। जिसकी सुशीलता का उदाहरण देकर मेरे नटखटपन को रोका जाता था, वहीं बिंदा घर में चुपके-चुपके कौन-सा नटखटपन करती रहती है, इसे बहुत प्रयत्न करके भी मैं न समझ पाती थी। मैं एक भी काम नहीं करती थी और रात-दिन ऊधम मचाती रहती, पर मुझे तो माँ ने न मर जाने की आज्ञा दी और न आंखें निकाल लेने का भय दिखाया। एक बार मैंने पूछा भी-क्या पंडिताइन चाची तुमरी तरह नहीं है ? मां ने मेरी बात का अर्थ कितना समझा यह तो पता नहीं, उनके संक्षिप्त हैं से न बिंदा की समस्या का समाधान हो सका और न मेरी उलझन सुलझ पायी।
बिंदा मुझसे कुछ बड़ी ही रही होगी, परन्तु उसका नाटापन देखकर ऐसा लगता था, मानों किसी ने ऊपर से दबाकर उसे कुछ छोटा कर दिया हो। दो पैसों में आने
वाली खँजड़ी के ऊपर चढ़ी हुई झिल्ली के समान पतले चर्म से मढ़े और भीतर की हरी-हरी नसों की झलक देने वाले उसके दुबले हाथ-पैर न जाने किस अज्ञात भय से अवसन्न रहते थे। कहीं से कुछ आहट होते ही उसका विचित्र रूप से चौंक पडऩा और पंडिताइन चाची का स्वर कान में पड़ते ही उसके सारे शरीर का थरथरा उठना, मेरे विस्मय को बढ़ा ही नहीं देता था, प्रत्युत उसे भय में बदल देता था। और बिंदा की आंखें तो मुझे पिंजड़े में बन्द चिडिय़ा की याद दिलाती थीं।
एक बार जब दो-तीन करके तारे गिनते गिनते उसने एक चमकीले तारे की ओर उँगली उठाकर कहा- वह रही मेरी अम्मा तब तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। क्या सबकी एक अम्मा तारों में होती है और एक घर में? पूछने पर बिंदा ने अपने ज्ञान-कोष में से कुछ कण मुझे दिये और तब मैंने समझा कि जिस अम्मा को ईश्वर बुला लेता है, वह तारा बनकर ऊपर से बच्चों को देखती रहती है और जो बहुत सजधज से घर में आती है, वह बिंदा की नई अम्मा जैसी होती है। मेरी बुद्धि सहज ही पराजय स्वीकार करना नहीं जानती, इसी से मैंने सोचकर कहा- तुम नई अम्मा को पुरानी अम्मा क्यों नहीं कहती, फिर वे न नई रहेंगी और न डांटेंगी।
बिंदा को मेरा उपाय कुछ जंचा नहीं, क्योंकि वह तो अपनी पुरानी अम्मा को खुली पालकी में लेटकर जाते और नई को बन्द पालकी में बैठकर आते देख चुकी थी, अत: किसी को भी पदच्युत करना उसके लिए कठिन था।
पर उसकी कथा से मेरा मन तो सचमुच आकुल हो उठा, अत: उसी रात को मैंने माँ से बहुत अनुनय पूर्वक कहा- तुम कभी तारा न बनना, चाहे भगवान कितना ही चमकीला तारा बनावें। माँ बेचारी मेरी विचित्र मुद्रा पर विस्मित होकर कुछ बोल भी न पायी थी कि मैंने अकुंठित भाव से अपना आशय प्रकट कर दिया- नहीं तो पंडिताइन चाची जैसी नई अम्मा पालकी में बैठकर आ जाएगी और फिर मेरा दूध, बिस्कुट, जलेबी सब बन्द हो जाएगा और मुझे बिंदा बनना पड़ेगा। माँ का उत्तर तो मुझे स्मरण नहीं, पर इतना याद है कि उस रात उसकी धोती का छोर मु_ी में दबाकर ही मैं सो पायी थी।
बिंदा के अपराध तो मेरे लिए अज्ञात थे, पर पंडिताइन चाची के न्यायालय से मिलने वाले दण्ड के सब रूपों से मैं परिचित हो चुकी थी। गर्मी की दोपहर में मैंने बिंदा को आंगन की जलती धरती पर बार-बार पैर उठाते और रखते हुए घंटों खड़े देखा था, चौके के खम्भे से दिन-दिन भर बंधा पाया था और भूख से मुरझाये मुख के साथ पहरों नई अम्मा और खटोले में सोते मोहन पर पंखा झलते देखा था। उसे अपराध का ही नहीं, अपराध के अभाव का भी दण्ड सहना पड़ता था, इसी से पंडित जी की थाली में पंडिताइन चाची का ही काला मोटा और घुँघराला बाल निकलने पर भी दण्ड बिंदा को मिला। उसके छोटे-छोटे हाथों से धुल न सकने वाले, उलझे, तेलहीन बाल भी अपने स्वाभाविक भूरेपन ओर कोमलता के कारण मुझे बड़े अच्छे लगते थे। जब पंडिताइन चाची की कैंची ने उन्हें कूड़े के ढेर पर बिखरा कर उनके स्थान को बिल्ली की काली धारियों जैसी रेखाओं से भर दिया तो मुझे रूलाई आने लगी, पर बिंदा ऐसे बैठी रही, मानों सिर और बाल दोनों नई अम्मा के ही हों।
और एक दिन याद आता है। चूल्हे पर चढ़ाया दूध उफना जा रहा था। बिंदा ने नन्हें-नन्हें हाथों से दूध की पतीली उतारी अवश्य, पर वह उसकी उंगलियों से छूट कर गिर पड़ी। खौलते दूध से जले पैरों के साथ दरवाजे पर खड़ी बिंदा का रोना देख मैं तो हतबुद्धि सी हो रही। पंडिताइन चाची से कह कर वह दवा क्यों नहीं लगवा लेती, यह समझाना मेरे लिए कठिन था। उस पर जब बिंदा मेरा हाथ अपने जोर से धड़कते हुए हृदय से लगाकर कहीं छिपा देने की आवश्यकता बताने लगी, तब तो मेरे लिए सब कुछ रहस्मय हो उठा।
उसे मैं अपने घर में खींच लाई अवश्य, पर न ऊपर के खण्ड में मां के पास ले जा सकी और न छिपाने का स्थान खोज सकी। इतने में दीवारें लाँघ कर आने वाले, पंडिताइन चाची के उग्र स्वर ने भय से हमारी दिशाएँ रूंध दीं, इसी से हड़बडाहट में हम दोनों उस कोठरी में जा घुसीं, जिसमें गाय के लिए घास भरी जाती थी। मुझे तो घास की पत्तियाँ भी चुभ रही थीं, कोठरी का अंधकार भी कष्ट दे रहा था, पर बिंदा अपने जले पैरों को घास में छिपाये और दोनों ठंडे हाथें से मेरा हाथ दबाये ऐसे बैठी थी, मानों घास का चुभता हुआ ढेर रेशमी बिछौना बन गया हो।
मैं तो शायद सो गई थी, क्योंकि जब घास निकालने के लिए आया हुआ गोपी इस अभूतपूर्व दृश्य की घोषणा करने के लिए कोलाहल मचाने लगा, तब मैंने आँखें मलते हुए पूछा- क्या सबेरा हो गया?
मां ने बिंदा के पैरों पर तिल का तेल और चूने का पानी लगाकर जब अपने विशेष सन्देशवाहक के साथ उसे घर भिजवा दिया, तब उसकी क्या दशा हुई, यह बताना कठिन है, पर इतना तो मैं जानती हूँ कि पंडिताइन चाची के न्याय विधान में न क्षमता का स्थान था, न अपील का अधिकार।
फिर कुछ दिनों तक मैंने बिंदा को घर-आंगन में काम करते नहीं देखा। उसके घर जाने से माँ ने मुझे रोक दिया था, पर वे प्राय: कुछ अंगूर और सेब लेकर वहां हो आती थीं। बहुत खुशामद करने पर रूकिया ने बताया कि उस घर में महारानी आई हैं। क्या वे मुझसे नहीं मिल सकती पूछने पर वह मुंह में कपड़ा ठूंस कर हंसी रोकने लगी। जब मेरे मन का कोई समाधान न हो सका, तब मैं एक दिन दोपहर को सभी की आंख बचाकर बिंदा के घर पहुँची। नीचे के सुनसान खण्ड में बिंदा अकेली एक खाट पर पड़ी थी। आँखें गड्ढे में धँस गयी थीं, मुख दानों से भर कर न जाने कैसा हो गया था और मैली- सी सादर के नीचे छिपा शरीर बिछौने से भिन्न ही नहीं जान पड़ता था। डाक्टर, दवा की शीशियां, सिर पर हाथ फेरती हुई मां और बिछौने के चारों चक्कर काटते हुए बाबूजी के बिना भी बीमारी का अस्तित्व है, यह मैं नहीं जानती थी, इसी से उस अकेली बिंदा के पास खड़ी होकर मैं चकित-सी चारों ओर देखती रह गयी। बिंदा ने ही कुछ संकेत और कुछ अस्पष्ट शब्दों में बताया कि नई अम्मा मोहन के साथ ऊपर खण्ड में रहती हैं, शायद चेचक के डर से। सबेरे-शाम बरौनी आकर उसका काम कर जाती है।
फिर तो बिंदा को देखना सम्भव न हो सका, क्योंकि मेरे इस आज्ञा-उल्लंघन से मां बहुत चिन्तित हो उठी थीं।
एक दिन सबेरे ही रूकिया ने उनसे न जाने क्या कहा कि वे रामायण बन्दर कर बार-बार आँखें पोंछती हुई बिंदा के घर चल दीं। जाते-जाते वे मुझे बाहर न निकलने का आदेश देना नहीं भूली थीं, इसी से इधर-उधर से झांककर देखना आवश्यक हो गया। रूकिया मेरे लिए त्रिकालदर्शी से कम न थी, परन्तु वह विशेष अनुनय-विनय के बिना कुछ बताती ही नहीं थी और उससे अनुनय-विनय करना मेरे आत्म-सम्मान के विरूद्ध पड़ता था। अत: खिड़की से झांककर मैं बिंदा के दरवाजे पर जमा हुए आदमियों के अतिरिक्त और कुछ न देख सकी और इस प्रकार की भीड़ से विवाह और बारात का जो संबंध है, उसे मैं जानती थी। तब क्या उस घर में विवाह हो रहा है और हो रहा है, तो किसका? आदि प्रश्न मेरी बुद्धि की परीक्षा लेने लगे। पंडित जी का विवाह तो तब होगा, जब दूसरी पंडिताइन चाची भी मर कर तारा बन जाएगी और बैठ न सकने वाले मोहन का विवाह संभव नहीं, यही सोच-विचार कर मैं इस परिणाम तक पहुंची कि बिंदा का विवाह हो रहा है और उसने मुझे बुलाया तक नहीं। इस अचिन्त्य अपमान से आहत मेरा मन सब गुडिय़ों को साक्षी बनाकर बिंदा को किसी भी शुभ कार्य में न बुलाने की प्रतिज्ञा करने लगा।
कई दिन तक बिंदा के घर झांक-झाककर जब मैंने मां से उसके ससुराल से लौटने के संबंध में प्रश्न किया, तब पता चला कि वह तो अपनी आकाश-वासिनी अम्मा के पास चली गयी। उस दिन से मैं प्राय: चमकीले तारे के आस-पास फैले छोटे तारों में बिंदा को ढूंढ़ती रहती, पर इतनी दूर से पहचानना क्या संभव था?
तब से कितना समय बीत चुका है, पर बिंदा और उसकी नई अम्मा की कहानी शेष नहीं हुई। कभी हो सकेगी या नहीं, इसे कौन बता सकता है ?