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Apr 27, 2009

उदंती.com, अप्रैल 2009

वर्ष 1, अंक 9, अप्रैल 2009
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लोकतंत्र इस धारणा पर आधारित है कि साधारण लोगों में असाधारण संभावनाएं होती हैं।
— हेनरी एमर्शन फास्डिक
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अनुभव
जब तक हम कड़वेपन के स्वाद का अनुभव प्राप्त नहीं कर लेते, तब तक मिठास के स्वाद का आनंद भी नहीं पा सकते।
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शिक्षण संस्थानों में रैगिंग का वाइरस

शिक्षण संस्थानों में रैगिंग का वाइरस
युवक- युवतियों को शिक्षण संस्थानों में इसलिए भेजा जाता है कि वे समाज के लिए उपयोगी, शिष्ट एवं सुसंस्कृत सदस्य बनें, लेकिन पिछले कुछ दशकों से कॉलेज एवं विश्वविद्यालयों में नए छात्र- छात्राओं के साथ जो कुछ होता है उससे सिर शर्म से झुक जाता है। पिछले दिनों रैगिंग के नाम पर हिमाचल प्रदेश में अमन काचरु बलि चढ़ गया तथा आंध्र की एक लड़की ने रैगिंग के बाद मानसिक रुप से त्रस्त होकर अपनी जान गंवा देनी चाही। देश भर से आवाज उठी कि दोषियों को कड़ी सजा दी जाए। युवा वर्ग भी इस घटना के विरोध में सड़क पर उतर आए, लेकिन हर साल रैगिंग को लेकर इस तरह के मामले उजागर होते हैं और कुछ दिन के हो- हल्ला के बाद कहीं गुम हो जाते हैं। लेकिन जब तक इस जानलेवा बीमारी को जड़ से उखाड़ फेंकने हेतु सख्ती नहीं बरती जाएगी तब तक इस पर अंकुश लगाने के ऐसे प्रयास निरर्थक होंगे।

हिंसा का रुप अख्तियार करती जा रही रैगिंग युवाओं की विकृत होती मानसिकता का परिचायक है। आधुनिकता के नाम पर अश्लील शारीरिक हरकतें, पीडि़त को शारीरिक रुप से नुकसान तो पंहुचाती ही हैं उससे कहीं ज्यादा नुकसान मानसिक स्तर पर होता है। उच्च शिक्षा प्राप्त करने गए युवा ऐसी हरकतों के जरिए किस तरह से देश के विकास में भागीदार बनेंगे, यह सोचने वाली बात है। प्रश्न यह उठता है कि शिक्षण संस्थाएं इतने गंभीर मसले पर अंकुश क्यों नहीं लगा पा रहीं हैं? सरकारें भी इस मुद्दे को वैसी गंभीरता से नहीं लेती जैसा कि अन्य मामलों पर वह पहल करती हंै। शायद इसीलिए भारत सरकार के एडीशनल सॉलीसिटर जनरल गोपाल सुब्रह्मण्यम को कहना पड़ा कि अगर सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन हो तो रैगिंग के राक्षस को रोका जा सकता है।
गोपाल सुब्रह्मण्यम का कहना बिल्कुल सही है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट का हर आदेश भी कानून होता है। रैगिंग को अपराध की श्रेणी में भी रखा जा चुका है अत: इस पर कोई बहस- या चर्चा की गुंजाइश ही नहीं बचती कि इसे लागू किया जाए या न किया जाए। हर हाल में इस कानून का पालन किया जाना ही चाहिए। लेकिन अफसोस की बात है कि मामला जब मौत पर आकर रुकता है तब कहीं जाकर लोगों की नींद खुलती है। इसका तो यही मतलब निकाला जाएगा कि डॉक्टर मरीज का इलाज तभी करेगा जब वह मरने की कगार पर होगा।
रैगिंग के ऐसे मामले ज्यादातर मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेज में सुनाई देते हैं। जहां हर जुनियर छात्र एक वर्ष तक अपने सीनियर्स की ज्यादती झेलते हुए चुप रहने को बाध्य होता है क्योंकि उन्हें अपना पहला साल खराब होने का डर बना रहता है, कोई भी इसके विरोध में सामने आने को तैयार नहीं होता। लेकिन हर जुनियर सीनियर बनते ही रैगिंग लेने के लिए तैयार हो जाते हैं, यह कहते हुए कि हमने भी भुगता है, उसका बदला तो लेंगे ही। .... इस तरह यह सिलसिला कभी थमता ही नहीं। युवाओं का यह आचरण मानवीय सभ्यता के विपरीत है। मानवीयता के विपरीत जा रही इस सामाजिक विकृति को हर हाल में यहीं रोक देना होगा। कारण इस परंपरा ने वर्तमान में जो रुप अख्तियार कर लिया है वह अब सामाजिक जागरुकता और कम उम्र की गलती बता कर माफ कर देने से नहीं रुकने वाली। यह तभी संभव है जब रैगिंग के लिए बने कानून का पालन करते हुए रैगिंग के लिए जिम्मेदार युवक एवं युवतियों को ऐसी कठोर सजा दी जाए कि वह सजा समाज के लिए मिसाल बन कर सामने आए, ताकि कोई भी छात्र या छात्रा रैगिंग लेने की कल्पना मात्र से भय खाए।
फिलहाल तो रैगिंग की उपरोक्त दोनों घटनाओं के बाद सुप्रीम कोर्ट ने देश भर की शिक्षण संस्थानों के लिए जो नया आदेश जारी किया है, उसे देखते हुए एक उम्मीद की किरण जागी है। उन्होंने कहा है कि जो संस्थान रैगिंग रोकने में असमर्थ हैं उनकी मान्यता रद्द की जाए एवं उनको दी जाने वाली वित्तीय सहायता भी रोक दी जाए। राघवन समिति द्वारा सुझाए गए दिशा-निर्देशों पर अमल करने के साथ शिक्षण संस्थानों में प्रवेश के समय प्रॉस्पेक्टस में रैगिंग संबंधी नियमों को प्रकाशित करने भी कहा है। उनके इन आदेशों तथा रैगिंग के बाद हुई मौत का परिणाम यह हुआ है कि हिमाचल प्रदेश की सरकार ने रैंगिंग के खिलाफ अध्यादेश जारी कर दिया है, जो इसे रोकने की दिशा में उठा पहला वैधानिक कदम है।
इसके साथ- साथ अब समय आ गया है कि हमारे शिक्षण संस्थानों में नैतिकता की शिक्षा भी दी जाए खासकर मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेज में इसे अनिवार्य विषय के रुप में शामिल किया जाए। इस संदर्भ में डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम के जीवन की एक घटना का उल्लेख करना यहां सामयिक होगा- डॉ. कलाम जब इंजीनियरिंग पढऩे के लिए मद्रास गए तो उनके प्रोफेसर ने उनसे कहा कि तकनीकी शिक्षा प्राप्त करके तो तुम सिर्फ एक अच्छे तकनीशियन बनोगे पर यदि अच्छे इंसान भी बनना चाहते हो तो तुम्हें साहित्य भी पढऩा चाहिए। प्रोफेसर की इस बात को अब्दुल कलाम ने जीवन भर याद रखा और इंजीनियरिंग की पढ़ाई के साथ साहित्य को भी अपने जीवन में शामिल किया, जिसका असर हम उनके जीवन एवं उनके कार्यों में प्रत्यक्ष देख ही रहे हैं। अत: कॉलेजों में साहित्य, संस्कृति और कला जैसे मानवीय भावनाओं से जुड़े विषयों को भी पढ़ाया जाना चाहिए ताकि हमारी युवा पीढ़ी यह समझ सके कि आधुनिकता का अर्थ अनाचार नहीं होता।
श्रेष्ठ आचरण के बिना शिक्षा अधूरी है।

- रत्ना वर्मा

वे अपने खर्च कम कर रही हैं

वे अपने खर्च कम कर रही हैं
- रमेश मेनन
मंदी जल्दी खत्म होने वाली नहीं है, दुर्भाग्यवश बुरा दौर अभी आना है ! ये बात कई कामकाजी महिलाओं के बीच चिंता का विषय बनी हुई है।
क्या लगता है कि ये मंदी का दौर कब तक रहेगा? ये सवाल हर कोई पूछ रहा है। विशेषज्ञ इस बारे में कुछ पक्का नहीं पक्का नहीं बता पा रहे हैं, पर उनका कहना है कि मंदी जल्दी खत्म होने वाली नहीं है, दुर्भाग्यवश बुरा दौर अभी आना है! ये बात कई कामकाजी महिलाओं के बीच चिंता का विषय बनी हुई है, उनमें से कई अपने ऑफिस में मंदी का असर देख रही हैं। ज्यादातर महिलाओं के लिए ये समस्या बिल्कुल नई है और वे इससे सख्ती से निबटना सीख रही हैं। इसके लिए वे अपने खर्चे कम कर रही हैं, अपनी जीवनशैली को बदल रही हैं, ऐसा शायद उन्होंने पहले कभी न किया हो।
भारत उन देशों में से है जिन पर वैश्विक आर्थिक संकट का असर कम पड़ा है- पश्चिम में अर्थव्यवस्था पहले ही मंदी झेल रही हैं - पर लाखों परिवारों ने तुरंत स्थिति को समझते हुए अपने खर्चों को कम कर दिया।
बेशक, इस नई प्रवृति का नेतृत्व महिलाएं कर रही हैं, जिन्हें घर खर्च चलाना होता है। कई महिलाओं ने गैर-जरुरी खर्चों को टाल दिया है।
इस नए माहौल में महिलाएं अपने पतियों को नए काम में हाथ डालने से बचने की सलाह दे रही हैं। वे परिवार का पैसा पुराने व भरोसेमंद बैंकों में निवेश कर रही हैं और मंहगी छुट्टियों की योजना को उन्होंने फिलहाल टाल दिया है। कईयों ने तो मनोरंजन, बाहर खाना खाने और नए कपड़े खरीदने जैसे पारिवारिक खर्चों को कतर दिया है। इसके अलावा बिजली व ईंधन के गैर-जिम्मेदराना इस्तेमाल से बचने पर भी काफी ध्यान दिया जा रहा है।
दिल्ली में रह रहीं 46 वर्षीय श्रीदेवी सुंदराजन एक अंतरराष्ट्रीय एनजीओ में पब्लिक रिलेशन एक्सीक्यूटिव हैं, वे कहती हैं, 'मंदी और नौकरियों में कटौती के बाद भाविष्य को लेकर काफी अनिश्चितता बनी हुई है। मैंने किसी भी बड़े खर्चे को रोक दिया है। मुझे अपने घर का नवीकरण कराना था, ये काम काफी समय से लटका हुआ था और इसके लिए मैंने अलग से पैसा बचा रखा था, पर अब मैं इंतजार करुंगी। अब मैं अपने घर- खर्च का हिसाब करुंगी ये देखने के लिए कि कहां कटौती की जा सकती है। अब मैं हर चीज में सस्ते विकल्प तलाशती रहती हूं, हालांकि परिवार में हम सिर्फ दो लोग ही हैं।'
अचानक, भारतीय मध्यम वर्ग के सपने महज सपने ही लगने लगे हैं। हर साल कर्मचारी अपनी वार्षिक वेतन वृद्घि का इंतजार करते हैं। इस साल परिस्थितियां कुछ अलग हैं। छोटे व्यवसाय से लेकर बड़े उद्योग तक में वेतन में कटौती एक आम बात हो गई है। हाल ही में एक टीवी चैनल के हैड ने अपने कर्मचारियों को लिखा कि टॉप मैनेजमेंट अपने वेतन में 20 प्रतिशत की कटौती के लिए राजी हो गया है। इसका मतलब ये था कि अब बाकी कर्मचारियों को भी इसके लिए तैयार रहना होगा।
इस संकट का एक और असर पड़ा वो ये था कि महिलाएं इस बार साल के अंत में होने वाली सेल की तरफ आकर्षित नहीं हुईं - आमतौर पर ये त्योहार के मौसम और नए साल का मुख्य आकर्षण होता है। आर्थिक अनुशासन एक ऐसा सिद्घांत है जिसे बहुत से लोग आने वाले कठिन समय को ध्यान में रखते हुए दृढ़ता से अपना रहे हैं।
पूना की एक रियल एस्टेट कंपनी नाइट फ्रेंक में सीनियर मैनेजर 27 वर्षीय रजनी प्रधान ने अब सेलफोन से ज्यादा लैंडलाइन फोन का इस्तेमाल करना शुरु कर दिया है। उन्होंने बाहर खाना खाने, लोगों से मिलने-जुलने पर होने वाले खर्चें कम कर दिए हैं, कुक को हटा दिया है।
रजनी के कहने पर अब उनके पति अपने व्यवसाय से जुड़े लोगों को खाने के लिए किसी रेस्त्रां में ले जाने की बजाय घर पर डिनर कराते हैं, और इस तरह उन्होंने अपने खर्चों में कटौती की। उनके पति आलोक के पास तीन -तीन मोबाइल फोन थे, उनमें से दो फोन वे शायद ही कभी इस्तेमाल करते थे, पर हर महीने उनका बिल आता था। रजनी ने अब उन दोनों फोनों से छुटकारा पा लिया। रजनी कहती हैं, 'हालांकि , कुक से छोडऩे के लिए कहना इतना आसान नहीं था, क्योंकि इससे मेरे ऊपर और जिम्मेदारियां आ जाती, पर हमें इनसे निबटना सीखना होगा।'
और ऐसा नहीं है कि रजनी मंदी से सिर्फ घर पर ही लड़ रही हैं, ऑफिस में भी वे इस बात का ख्याल रखती हैं कि अगर कंप्यूटर्स का इस्तेमाल नहीं हो रहा है तो वे बंद हों। इसके अलावा अपनी कुशलता को बढ़ाने के लिए उन्होंने कई जिम्मेदारियां संभाल ली हैं, और सबसे अहम बात, ऐसा वे अपनी नौकरी बचाने के लिए कर रही हैं। इसके अलावा और भी कई छोटे-मोटे बदलाव किए हैं, जैसे अब अगर उन्हें काम के सिलसिले में मुंबई जाना होता है तो वे आरामदायक टैक्सी की बजाय बस या ट्रेन से जाती हैं ।
नई दिल्ली में बतौर मीडिया एंड ब्रांड कंसल्टैंट कार्यरत 44 वर्षीय सुलीना मेनन को अपने कई दोस्तों की नौकरी जाते देख बुरा लगता है, चूंकि लागत में कटौती का दौर चल रहा है। वे जानती हैं कि ये सिर्फ समय की बात है और इसका असर उस पर भी पड़ सकता है। वे एक फ्रीलंासर के तौर पर काम कर रही हैं और हो सकता है आने वाले समय में उन्हें भी प्रोजेक्ट मिलने कम हो जाएं। वे चेतावनी देती हैं, 'हम सभी को इसके लिए कमर कस लेनी चाहिए।'
अमेरिका में कुछ महीने पहले नील्सन कंज्यूमर रिसर्च ने द नील्सन ऑनलाइन ग्लोबल कंस्यूमर सर्वे किया, जिसमें 28, 663 इंटरनेट उपभोक्ताओं में से 27 प्रतिशत पुरुषों की तुलना में सिर्फ 11 प्रतिशत महिलाओं को लगा कि मंदी जल्दी समाप्त हो जाएगी। भारत में ऐसा कोई सर्वे नहीं किया गया, पर यहां हालात कुछ अलग नहीं हैं। महिलाएं पुरुषों की तुलना में ज्यादा चिंतित दिखती हैं।
कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय द्वारा हाल ही में की गई एक स्टडी बताती है कि अगर उच्च पदों पर ज्यादातर महिलाएं होतीं तो वैश्विक आर्थिक संकट का फैलाव और असर शायद कम होता। 'मैनेजिंग रैडिकल चैंज' की लेखिका डा. गीता पिरामल इस बात से सहमत होंगी : 'गहराई से सोचना, सच्चा होना, अपने हाथ गंदे करने और आगे आकर किसी भी चीज का सामना करना, पोषण करना व संभालना, ये एक औरत की पारंपरिक विशेषताएं हैं, पर ये संकट के समय में उभर कर आती हैं।
महिलाएं जीवनशैली में कई बदलाव ला रही हैं और जानती हैं कि वेतन में कमी कभी भी हो सकती है। फिर भी घबराने की कोई बात नहीं है। वे जानती हैं कि पैसे के संकट से बचने के लिए आर्थिक अनुशासन जरुरी है, निवेश करने से पहले विशेषज्ञ की सलाह लेनी होगी और व्यावसायिक कुशलता को बढ़ाना होगा जिससे कि वे ऑफिस में 'अतिरिक्त' की श्रेणी में न आएं।
श्रीदेवी की तरह कुछ लोग स्मार्ट तरीके से निवेश करके मंदी से फायदा उठा रही हैं। तेजी के दौर में वे किसी ब्लू चिप कंपनी के शेयर नहीं खरीद पाई , चूंकि अब कीमतें काफी कम हैं इसलिए श्रीदेवी के कहने पर उनके पति बेहतर शेयर खरीदने के लिए रिसर्च कर रहे हैं । (विमेन्स फीचर)

बरसने वाली हरेक बूंद इकट्ठी कर लें

पाल के किनारे रखा इतिहास
बरसने वाली हरेक बूंद  इकट्ठी कर लें
-अनुपम मिश्र
जल संरक्षण के क्षेत्र में असाधारण काम करने वाले अनुपम मिश्र की 1993 में छपी किताब 'आज भी खरे हैं तालाब' कम असाधारण नहीं है। जाने कितनी भाषाओं में कितनी-कितनी बार इस किताब के संस्करण छपे और पानी के लिए तरसने वाले समाज को राह दिखाने का काम करते रहे। अनुपम मिश्र के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए हम यहां उसी पुस्तक का एक अंश प्रकाशित कर रहे हैं।
अच्छे-अच्छे काम करते जाना, राजा ने कूडऩ किसान से कहा था। कूडऩ, बुढ़ान, सरमन और कौंराई थे चार भाई। चारों सुबह जल्दी उठकर अपने खेत पर काम करने जाते। दोपहर को कूडऩ की बेटी आती, पोटली से खाना लेकर।
एक दिन घर से खेत जाते समय बेटी को एक नुकीले पत्थर से ठोकर लग गई। उसे बहुत गुस्सा आया। उसने अपनी दरांती से उस पत्थर को उखाडऩे की कोशिश की। और फिर बदलती जाती है इस लंबे किस्से की घटनाएं बड़ी तेजी से। पत्थर उठा कर लड़की भागी-भागी खेत पर आती है। अपने पिता और चाचाओं को सब कुछ एक सांस में बता देती है। चारो भाइयों की सांस भी अटक जाती है। जल्दी-जल्दी सब घर लौटते हैं। उन्हें मालूम पड़ चुका है कि उनके हाथ में कोई साधारण पत्थर नहीं है, पारस है। वे लोहे की जिस चीज को छूते हैं, वह सोना बन कर उनकी आंखों में चमक भर देती है।
पर आंखों की यह चमक ज्यादा देर तक नहीं टिक पाती। कूडऩ को लगता है कि देर-सबेर राजा तक यह बात पहुंच ही जाएगी और तब पारस छिन जाएगा। तो क्या यह अच्छा नहीं होगा कि वे खुद जाकर राजा को सब कुछ बता दें।
किस्सा आगे बढ़ता है। फिर जो कुछ घटता है, वह लोहे की नहीं बल्कि समाज को पारस से छुआने का किस्सा बन जाता है।
राजा न पारस लेता है, न सोना। सब कुछ कूडऩ को वापस देते हुए कहता है - जाओ इससे अच्छे-अच्छे काम करते जाना, तालाब बनाते जाना।
यह कहानी सच्ची है, ऐतिहासिक है- नहीं मालूम। पर देश के मध्य भाग में एक बहुत बड़े हिस्से में यह इतिहास को अंगूठा दिखाती हुई लोगों के मन में रमी हुई है। यहीं के पाटन नामक क्षेत्र में चार बहुत बड़े तालाब आज भी मिलते हैं और इस कहानी को इतिहास की कसौटी पर कसने वालों को लजाते हैं- चारों तालाब इन्हीं चारों भाइयों के नाम पर है। बुढ़ागर में बूढ़ा सागर है, मझगवां में सरमन सागर है, कुआंग्राम में कौंराई सागर है तथा कुंडम गांव में कुंडम सागर।
सन् 1907 में गजेटियर के माध्यम से इस देश का 'व्यवस्थित' इतिहास लिखने घूम रहे अंग्रेज ने भी इस इलाके में कई लोगों से यह किस्सा सुना था और फिर देखा- परखा था इन चार बड़े तालाबों को। तब भी सरमन सागर इतना बड़ा था कि उसके किनारे पर तीन बड़े-बड़े गांव बसे थे। और तीनों गांव इस तालाब को अपने-अपने नामों से बांट लेते थे। पर वह विशाल ताल तीनों गांवों को जोड़ता था और सरमन सागर की तरह स्मरण किया जाता था। इतिहास ने सरमन, बुढ़ान, कौंराई और कूडऩ को याद नहीं रखा लेकिन इन लोगों ने तालाब बनाए और इतिहास को किनारे पर रख दिया था।
देश के मध्य भाग में, ठीक हृदय में धड़कने वाला यह किस्सा उत्तर-दक्षिण, पूरब-पश्चिम- चारों तरफ किसी न किसी रूप में फैला हुआ मिल सकता है और इसी के साथ मिलते हैं सैकड़ों, हजारों तालाब। इनकी कोई ठीक गिनती नहीं है। इन अनगिनत तालाबों को गिनने वाले नहीं, इन्हें तो बनाने वाले लोग आते रहे और तालाब बनते रहे।
किसी तालाब को राजा ने बनाया तो किसी को रानी ने, किसी को किसी साधारण गृहस्थ ने, विधवा ने बनाया तो किसी को किसी आसाधारण साधु-संत ने- जिस किसी ने भी तालाब बनाया, वह महाराज या महात्मा ही कहलाया। एक कृतज्ञ समाज तालाब बनाने वालों को अमर बनाता था और लोग भी तालाब बना कर समाज के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते थे।
समाज और उसके सदस्यों के बीच इस विषय में ठीक तालमेल का दौर कोई छोटा दौर नहीं था। एकदम महाभारत और रामायण काल के तालाबों को अभी छोड़ दें तो भी कहा जा सकता है कि कोई पांचवी सदी से पन्द्रहवीं सदी तक देश के इस कोने से उस कोने तक तालाब बनते ही चले आए थे। कोई एक हज़ार वर्ष तक अबाध गति से चलती रही इस परंपरा में पन्द्रहवीं सदी के बाद कुछ बाधाएं आने लगी थीं, पर उस दौर में भी यह धारा पूरी तरह से रुक नहीं पाई, सूख नहीं पाई। समाज ने जिस काम को इतने लंबे समय तक बहुत व्यवस्थित रूप में किया था, उस काम को उथल-पुथल का वह दौर भी पूरी तरह से मिटा नहीं सका। अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी के अंत तक भी जगह-जगह पर तालाब बन रहे थे।
लेकिन फिर बनाने वाले लोग धीरे-धीरे कम होते गए। गिनने वाले कुछ जरूर आ गए पर जितना बड़ा काम था, उस हिसाब से गिनने वाले बहुत ही कम थे और कमजोर भी।
इसलिए ठीक गिनती भी कभी हो नहीं पाई। धीरे-धीरे टुकड़ों में तालाब गिने गए, पर सब टुकड़ों का कुल मेल कभी बिठाया नहीं गया। लेकिन इन टुकड़ों की झिलमिलाहट पूरे समग्र चित्र की चमक दिखा सकती है।
लबालब भरे तालाबों को सूखे आंकड़ों में समेटने की कोशिश किस छोर से शुरू करें? फिर से देश के बीच के भाग में वापस लौटें।
आज के रीवा जि़ले का जोड़ौरी गांव है, कोई 2500 की आबादी का, लेकिन इस गांव में 12 तालाब हैं। इसी के आसपास है ताल मुकेदान। आबादी है बस कोई 1500 की, पर 10 तालाब हैं गांव में। हर चीज़ का औसत निकालने वालों के लिए यह छोटा-सा गांव आज भी 150 लोगों पर एक अच्छे तालाब की सुविधा जुटा रहा है। जिस दौर में ये तालाब बने थे, उस दौर में आबादी और भी कम थी। यानी तब जोर इस बात पर था कि अपने हिस्से में बरसने वाली हरेक बूंद इक'ट्ठी कर ली जाए और संकट के समय में आसपास के क्षेत्रों में भी उसे बांट लिया जाए। वरुण देवता का प्रसाद गांव अपनी अंजुली में भर लेता था।
और जहां प्रसाद कम मिलता है? वहां तो उसका एक कण, एक बूंद भी भला कैसे बगरने दी जा सकती थी। देश में सबसे कम वर्षा के क्षेत्र जैसे राजस्थान और उसमें भी सबसे सूखे माने जाने वाले थार के रेगिस्तान में बसे हजारों गांवों के नाम ही तालाब के आधार पर मिलते हैं। गांवों के नाम के साथ ही जुड़ा है 'सर'। सर यानी तालाब। सर नहीं तो गांव कहां? यहां तो आप तालाब गिनने के बदले गांव ही गिनते जाएं और फिर इस जोड़ में 2 या 3 से गुणा कर दें।
जहां आबादी में गुणा हुआ और शहर बना, वहां भी पानी न तो उधार लिया गया, न आज के शहरों की तरह कहीं और से चुरा कर लाया गया। शहर ने भी गांवों की तरह ही अपना इंतज़ाम खुद किया। अन्य शहरों की बात बाद में, एक समय की दिल्ली में कोई 350 छोटे-बड़े तालाबों का जिक्र मिलता है।
गांव से शहर, शहर से राज्य पर आएं। फिर रीवा रियासत लौटें। आज के मापदंड से यह पिछड़ा हिस्सा कहलाता है। लेकिन पानी के इंतज़ाम के हिसाब से देखें तो पिछली सदी में वहां सब मिलाकर कोई 5000 तालाब थे।
नीचे दक्षिण के राज्यों को देखें तो आज़ादी मिलने से कोई सौ बरस पहले तक मद्रास प्रेसिडेंसी में 53000 तालाब गिने गए थे। वहां सन् 1885 में सिर्फ 14 जिलों में कोई 43000 तालाबों पर काम चल रहा था। इसी तरह मैसूर राज्य में उपेक्षा के ताजे दौर में, सन् 1980 तक में कोई 39000 तालाब किसी न किसी रूप में लोगों की सेवा कर रहे थे।
इधर-उधर बिखरे ये सारे आंकड़े एक जगह रख कर देखें तो कहा जा सकता है कि इस सदी के प्रारंभ में आषाढ़ के पहले दिन से भादों के अंतिम दिन तक कोई 11 से 12 लाख तालाब भर जाते थे- और अगले जेठ तक वरुण देवता का कुछ न कुछ प्रसाद बांटते रहते थे। क्योंकि लोग अच्छे-अच्छे काम करते जाते थे।

कांगड़ा- सुगंधित ग्रीन टी


कांगड़ा -  सुगंधित ग्रीन टी
- प्रिया आनंद
नीलगिरि, दार्जिलिंग और कांगड़ा वैली की चाय के बीच कांगड़ा ग्रीन टी दार्जिलिंग चाय के बाद दूसरे नंबर पर आती है। यह स्वाद और सुगंध दोनों के आधार पर विशिष्ट है।
आप हिमाचल आएं तो यहां के चाय बगानों की खूबसूरती आपको मंत्रमुग्ध कर देगी। हिमाचल का प्रमुख उत्पाद कांगड़ा चाय है। जिसकी बात करते ही एक अलग तरह के फ्लेवर की याद आ जाती है। इसकी अनोखी सुगंध जो किसी दूसरी हरी चाय में नहीं है। हिमाचल के संसाधनों में कांगड़ा टी का स्थान प्रमुख है। यह एक आश्चर्यजनक सत्य है कि किसी समय कागड़ा चाय लंदन और एम्सटर्डम तक मशहूर थी।
इस चाय का इतिहास लगभग 160 साल पुराना है, जब अंग्रेज यहां आए तो यहां की जलवायु का अध्ययन करके उन्होंने पाया कि यह चाय के उत्पादन के बिल्कुल उपयुक्त है। उन्होंने यहां चाय के बागान लगवाने शुरु किए और उनके बेहतर प्रयासों से यह व्यवसाय फलने फूलने लगा। व्यवसाय नया था और फायदेमंद भी इसलिए स्थानीय लोगों ने भी इसमें रूचि ली। इस तरह कांगड़ा की हरी चाय का व्यापार लंदन और एम्सटर्डम तक पहुंच गया। अगर हम भारत की चाय का सम्मिलित आकलन करें तो नीलगिरि, दार्जिलिंग और कांगड़ा वैली की चाय के बीच कांगड़ा ग्रीन टी दार्जिलिंग चाय के बाद दूसरे नंबर पर आती है। यह स्वाद और सुगंध दोनों के आधार पर विशिष्ट है। अंग्रेजों के समय में इस चाय का उत्पादन जोरो पर था और इससे स्थानीय लोगों की भी अच्छी आय होने लगी थी। कांगड़ा में जब 1905 का भूकंप आया तो इसमें काफी जान-माल का नुकसान हुआ। बड़ी-बड़ी इमारतें किले और महल धाराशायी हो गए। अंग्रेज इस तबाही को देख कर डर गए तथा स्थानीय लोगों के हाथ औने-पौने दामों में चाय बागान बेच कर चले गए।
कहना न होगा कि यह हादसा कांगड़ा चाय पर काफी भारी पड़ा क्योंकि इसी के बाद कांगड़ा चाय के उत्पादन का ग्राफ गिरता चला गया। कांगड़ा चाय के व्यवसाय के पतन की रफ्तार अब भी जारी है तथा भरपूर प्रयासों के बाद भी इसे अब तक नहीं संभाला जा सका है। कारण कितने ही होंगे, पर उन्हें आसानी से विश्लेषित किया जा सकता है।
चाय की पत्तियां, बागानों से तोड़कर सीधी फैक्टरी में आ जाती हैं। इनके तोडऩे का समय अप्रैल से अक्टूबर तक है। फैक्टरी में लाने के बाद पत्तियों को रोलिंग प्रक्रिया में डाला जाता है, फिर आक्सीडेशन का काम शुरु होता है। इसके बाद इसकी ग्रेडिंग और पैकिंग होती है। वार्षिक, तैयार हरी चाय का उत्पादन पांच लाख किलोग्राम का ठहरता है, जो अब घट कर महज तीन लाख बीस हजार किलोग्राम रह गया है। यह आश्चर्य का विषय है कि इतनी बेहतर क्वालिटी की चाय होने पर भी कांगड़ा ग्रीन टी पूरे भारत में नहीं जाती। यही नहीं उत्पादन में कमी होने के कारण एक्सपोर्ट क्वालिटी की चाय भारत में ही रह जाती है। चाय की यह विशेष किस्म पर्यटकों के लिए ही रखी जाती है और वही इसे ले भी जाते हैं। गौरतलब है कि इसकी कुछ मात्रा अवश्य बाहर जाती है, पर यह एक दुखद सत्य है कि कांगड़ा चाय को थोक में खरीद कर उस पर मशहूर कंपनियों का लेबल लगाकर बाहर भेजा जाता है। यानि कि कांगड़ा चाय अगर अब बाहर जाती भी है तो कांगड़ा ग्रीन टी के नाम से नहीं, किसी और नाम से बिकती है।
कांगड़ा में चाय की पहली फैक्टरी 1980 में लगी। पहले कुटीर उद्योग के तहत ही काम चलता रहा। लोग तब भी निजी व्यवसाय के आधार पर इस उद्योग में शामिल थे। इसके बाद बीड़, बैजनाथ और सिद्धबाड़ी में फैक्टरिया खुलीं। तब कुल छह फैक्टरियां थीं जिनमें चार को-आपरेटिव थी और दो निजी हाथों में चल रही थी। ये दोनों ही निजी फैक्टरियां ग्रीन टी बना रही थीं। कुछ समय तक तो यह सिलसिला चला, पर ग्रीन टी का मार्केट डाउन होते ही इन दोनों फैक्टरियों में भी ब्लैक टी बनाना शुरू कर दिया।
एक अंतराल ले कर बीड़, बैजनाथ और सिद्ध बाड़ी की फैक्टरियां बंद हो गई, साथ ही चाय के उत्पादन भी ढीले पड़ गए। जाहिर है जब उन्हें अपने उत्पाद का पैसा ही नहीं मिलता था तो यह काम क्यों करते...? अगर वे चाय का उत्पादन करते भी तो उसकी खपत कहां होनी थी? इसलिए स्थानीय चाय उत्पादक चाय का काम छोड़, आजीविका के दूसरे संसाधन तलाशने में लग गए। यही इस व्यवसाय के पतन की शुरुआत थी। चाय उत्पादकों ने अपने पुश्तैनी व्यवसाय से मुंह मोड़ा और उधर चाय की झाडिय़ों का पूरा जंगल खड़ा हो गया। कहना न होगा कि इसमें बदलते हुए सामाजिक परिवेश ने भी भूमिका निभाई। धीरे-धीरे परिवार एकल व्यवस्था की ओर मुड़े, संयुक्त परिवारों का चलन खत्म होता गया और साथ मिलकर काम की परंपरा भी समाप्त हो गई। कुटीर उद्योग के आधार पर जो हरी चाय का व्यवसाय लोगों के लिए किसी खजाने से कम नहीं था वह अब विघटन की कगार पर आ गया है। कांगड़ा ग्रीन टी के इस गिरते ग्राफ की ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया। इसके बावजूद कांगड़ा चाय का अस्तित्व बाजारों में बना रहा, इसे पसंद करने वाले खरीदते भी रहे और इसे इस्तेमाल भी करते रहे। हाल में कुछ निजी व्यवसायियों ने सिद्धबाड़ी और बैजनाथ की फैक्टरियों को लीज पर लिया है और इनमें काम भी शुरू हो गया है। यही नहीं, यहां से चाय एक्सपोर्ट भी हो रही है। आमतौर पर कांगड़ा ग्रीन टी की कीमत 320 रुपए प्रति किलो है जबकि एक्सपोर्ट क्वालिटी की चाय 3000 रुपए किलो बिकती है। प्रदेश के इस हसीन और मजबूत आर्थिक उत्पादन का ग्राफ क्यों गिरा, इसका सबसे पहला जवाब तो यही है कि इसकी पैकिंग का स्वरूप ही निर्धारित नहीं है। हिमाचल की इस चाय की पैकिंग अलग-अलग तरह की है इसलिए यह निर्धारित करने में बेहद मुश्किल होती है कि हम किस क्वालिटी या ब्रांड की चाय खरीद रहे हैं। गौरतलब है कि एक्सपोर्ट क्वालिटी की चाय ज्यादातर पर्यटकों के द्वारा ही खरीदी जाती है। इससे पहले मोनाल चिडिय़ा वाले कार्टन के पैक में चाय अधिक पसंद की जाती थी, अब उसकी जगह साधारण पैकिंग्स ने ले ली है। आप इसे अनाकर्षक पैकिंग भी कह सकते हैं, देखकर यही अनुमान लगाना मुश्किल हो जाता है कि यह कांगड़ा चाय होगी। दरअसल सच तो यह है कि हम अपनी चीजों की कीमत ही नहीं जानते, फिर अगर बेहतरीन कांगड़ा टी सिर्फ देसी चाय बन कर रह जाए तो क्या आश्चर्य?
कारणों में नंबर दो पर आता है कि इस चाय को सही पब्लिसिटी नहीं मिली। सबसे पहले तो मार्केट के हिसाब से इस चाय की गुणवत्ता सुधारनी होगी, इसी के साथ अगर इसका डिमांस्टे्रशन विदेशों में किया जाय तो इस उत्पादन को जीवनदान मिल सकता है। मार्केट में आगे बढऩे के लिए जो प्रतिद्वंदिता चाहिए उसकी भी कमी है। इन सारी बातों पर जब तक पूरी तरह ध्यान नहीं दिया जाता तब तक इस व्यवसाय में सुधार की आशा बेमानी है। एक बात और भी ध्यान देने योग्य है कि जब तक टी प्लांटर्स को उनके माल की सही कीमत नहीं मिलती तब तक इसके विकास की बात नहीं सोची जा सकती। किसी समय यह व्यवसाय लघु कुटीर उद्योग का रूप ले चुका था जो अब समाप्त प्राय: है। इसके बावजूद ग्रीन टी बनाने वाली 80 के करीब छोटी यूनिटें अब भी काम कर रही हैं।
यह कांगड़ा चाय का दुर्भाग्य है कि दार्जिलिंग के बाद दूसरे नबंर होने के बावजूद इस चाय को वह अहमियत नहीं मिली जो इसे मिलनी चाहिए। इस उत्कृष्ट चाय का उत्पाद जो गिरा तो संभलने में ही नहीं आया। यहां की टी बोर्ड सभी सुविधाएं बागबानों को देने को तैयार है और देता भी है, पर उसका कोई सुखद परिणाम नजर नहीं आ रहा। टी प्लांटर्स के लिए 25 प्रतिशत सबसिडी का प्रावधान है, यह सबसिडी अलग-अलग कामों के लिए दी जाती है। हां यह जरुर है कि एक बार सबसिडी देने के बाद 20 सालों तक नहीं दी जाती। चाय के बागों की बात करें तो इस समय कुल 25 हेक्टेयर जमीन इस के लिए बची है जिसमें भी 53 प्रतिशत पर ही काम चल रहा है। गौरतलब है कि इसका हालिया सर्वे भी नहीं हुआ कि इसकी हालत सुधारने के बारे में कुछ सोचा जा सके।
बागबानों को यह सबसिडी रीजुविनिएशन और रीप्लाटेंशन के लिए दी जाती है। रीजुविनिएशन में चाय की झाड़ी की छंटाई जमीन से होती है और इसकी सबसिडी की राशि 16 हजार रुपए प्रति हेक्टेयर है जबकि रीप्लाटेंशन में पूरी झाड़ी उखाड़कर नया पौधा लगाया जाता है। रीप्लाटेंशन के लिए मिलने वाली सबसिडी की राशि 62 हजार प्रति हेक्टेयर है।
मुश्किल यह है कि अच्छा उत्पाद पाने के लिए चाय बागबानों ने अब तक रीप्लाटेंशन ही नहीं किया है। पहले की ही चायना बुश लगी हुई है तथा उसी को मेंटेन कर के काम चलाया जा रहा है। ऐसी स्थिति में चाय के अधिक उत्पादन और बेहतरीन गुणवत्ता की आशा कैसे की जा सकती है....? दरअसल चाय की झाड़ी तैयार करने में कम से कम पांच साल का वक्त लगता है यही गैप बागबान लेना नहीं चाहते। ऐसे में कांगड़ा ग्रीन टी के जरिए सुधारने की बात बेमानी है। कांगड़ा टी का विकास तभी हो सकता है जब प्रशासन, बागबान और उपभोक्ता के बीच सही तारतम्य स्थापित हो वरना यह खजाना हमारे हाथ से निकल जाएगा।
इधर चाय उत्पादक संघ ने यह तय किया है कि कांगड़ा चाय का एक प्रतीक चिन्ह होना ही चाहिए, ताकि कांगड़ा वैली चाय को किसी और नाम से न बेचा जा सके। अगर ऐसा हो जाता है तो बागवान इस चाय की मांग को व्यवस्थित तरीके से तैयार कर सकेंगे और उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार होगा। ऐसा जी आई सी की मान्यता मिलने से हुआ है। संभवत: कांगड़ा चाय के संदर्भ में इसे सकारात्मक माना जाना चाहिए।
सुनने में यह भी आया है कि अमरटेक्स अपने सभी शोरुमों में यह चाय बेचने की योजना बना रहा है जहां इसे कांगड़ा चाय के नाम से ही बेचा जाएगा। कहना न होगा कि यह एक अच्छी खबर है और इससे इस चाय को नवजीवन मिलेगा। अगर हिमाचल सरकार सचमुच आर्थिकी का एक मजबूत संसाधन विकसित करना चाहती है तो उसे इस तरफ पूरा ध्यान देना होगा साथ ही बागबानों को भी उत्साहित करना होगा। कांगड़ा चाय, हिमाल की खूबसूरत पहचान है इस पहचान को बनाए रखना सरकार की जिम्मेदारी है।
संपर्क: दिव्य हिमाचल, पुराना मटौर कार्यालय, कांगड़ा पठानकोट मार्ग, कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश)176001 फोन नं. 09816164058

लिंकन वर्सेस केनेडी

लिंकन वर्सेस केनेडी
इतिहास कभी कभी कुछ ऐसी घटनाओं को एक दूसरे से जोड़ देता है कि हम दांतों तले उंगली दबाने को बाध्य हो जाते हैं। लिंकन और केनेडी के जीवन और मृत्यु से भी जुड़ी कुछ घटनाएं ऐसी हैं जो उन दोनों को एक दूसरे से कुछ इस तरह जोड़ देती हैं कि हम आश्चर्य से भर उठते हैं जैसे- दोनों की हत्या शुक्रवार को हुई और दोनों के सेक्रेटरी का नाम एक दूसरे के नाम पर था। इस तरह की कई घटनाएं हैं जो दोनों के जीवन में एक समान घटी और वह भी सौ साल का अंतर होने के बावजूद.....
- अब्राहम लिंकन कांग्रेस के लिए सन् 1846 में चुने गए।
- जॉन एफ केनेडी कांग्रेस के लिए सन् 1946 में चुने गए।
- अब्राहम लिंकन सन् 1860 में राष्ट्रपति बने।
- जॉन एफ केनेडी सन् 1960 में राष्ट्रपति बने।
- दोनों ही सामाजिक अधिकारों (सीविल राईट्स) के विषय में चिंतित थे।
- दोनों की पत्नियों ने व्हाईट हाऊस में अपने बच्चों को खो दिया।
- दोनों राष्ट्रपतियों की हत्या शुक्रवार को की गई।
- दोनों ही राष्ट्रपतियों को सिर पर गोली मारी गई।
अब कुछ अद्भूत...
- लिंकन के सेक्रेटरी का नाम केनेडी था
- केनेडी के सेक्रेटरी का नाम लिंकन था।
- दोनों राष्ट्रपतियों की हत्या साउथ अमेरीकनों ने की।
- दोनों की हत्या के बाद जॉनसन नाम के व्यक्ति राष्ट्रपति चुने गए।
- लिंकन के बाद राष्ट्रपति बने एन्ड़्र्यू जॉनसन का जन्म 1808 में हुआ था।
- केनेडी के बाद राष्ट्रपति बने लिंडन जॉनसन का जन्म 1908 में हुआ था।
- लिंकन के हत्यारे जॉन विल्क्स बूथ (John Wilkes Booth) का जन्म 1839 को हुआ था।
- केनेडी के हत्यारे ली हार्वे ऑस्वल्ड (Lee Harvey Oswald) का जन्म 1939 को हुआ था। इन दोनों के नाम में तीन- तीन शब्द थे और उनमें 15 वर्ण थे।
अब दिल थाम कर बैठिए!
- लिंकन की हत्या फोर्ड नाम के थियेटर में हुई थी और केनेडी की हत्या फोर्ड कंपनी की बनाई लिंकन कार में हुई थी।
- लिंकन के हत्यारे ने उनकी हत्या थियेटर में की और माल गोदाम में जाकर छिप गया, दूसरी ओर केनेडी के हत्यारे ने माल गोदाम से उनकी हत्या की और थियेटर में जाकर छिप गया।
-दोनों हत्यारे मुकदमें से पहले ही मारे गए।
कुछ और रोचक...
लिंकन की हत्या के एक सप्ताह पूर्व वे मोनरो मैरीलैंड में थे।
और मजेदार बात ये है कि केनेडी अपनी हत्या के एक सप्ताह पहले मैरीलीन मोनरो के साथ थे।

भित्ति चित्रों के लोक चितेरे खेम वैष्णव

भित्ति चित्रों के लोक चितेरे  खेम वैष्णव
उदंती.com का यह अंक खेम वैष्णव के चित्रों से सज्जित है। प्राकृतिक रंगों से सजे खेम वैष्णव के चित्र लोक परंपरा का जीवंत चित्रण है। उनके चित्रो में बस्तर की संस्कृति का व्यापक फलक नजर आता है, जो उनके चित्रों को एक विशेष पहचान देता है।
बस्तर में भित्ति चित्रों की सुदीर्घ एवं समृद्घ परम्परा रही है और इस महत्त्वपूर्ण परम्परा को आगे बढ़ाने में लोक चित्रकार खेम वैष्णव का अवदान रेखांकित किये जाने योग्य है। लगभग चार दशकों से वे इस कला विधा से सक्रिय रूप से जुड़े रहे हैं।
बस्तर में जहां धातु शिल्प, प्रस्तर शिल्प, काष्ठ शिल्प आदि शिल्प विधायें उपलब्ध हैं वहीं भित्ति-चित्रों की भी अपनी विशिष्ट परम्परा रही है। लेकिन आज भित्ति-चित्रों के अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया है। ऐसे समय में बस्तर के लोक चित्रकार खेम वैष्णव की लोक कलाकृतियों में उद्भासित होती उनकी जिजीविषा हमें उस खतरे से जूझने का रास्ता बतलाती नजर आती है।
बस्तर के लोक चित्रों को उनकी प्रकृति के आधार पर 3 शैलियों में वर्गीकृत किया जा सकता है : 1. माडि़या शैली, 2. घोटुल शैली, एवं 3. जगार शैली। इनमें से जगार शैली के अन्तर्गत 4 रूप पाये जाते हैं : गड़, बाना या बाधा, हाता और छापा। खेम जगार शैली के कुशल चितेरे हैं। वे गड़ लिखते हैं। गड़ लिखना यानी भित्ति पर चित्रांकन करना।
खेम की कला यात्रा आरम्भ होती है उनके बाल्य-काल से। तब से जब वे महज कक्षा 4 के विद्यार्थी रहे। दादाजी एवं पिताजी 'कल्याण' पत्रिका के सदस्य रहे। सो 'कल्याण' का अंक प्रति माह घर में आता और खेम उन अंकों में छपे रंगीन और श्वेेत-श्याम चित्रों को बाल-सुलभ जिज्ञासा के साथ देखा करते। इस तरह देखते-देखते न जाने कब उनके भीतर एक चित्रकार का अंकुरण होता गया वे जान ही नहीं पाये। उन्होंने गेरु मिट्टी, स्याही की टिकिया, आलता आदि को रंग की तरह इस्तेमाल करना शुरु कर दिया और घर की दीवारों, उसके बाद कागज और कैनवास पर वे चित्र उकेरते चले गये। कागज तक तो ठीक था किन्तु दीवारों पर उनकी चित्रकारी मां को रास न आती। दीवारों को रंगना मां की दृष्टि में खेम की शरारत ही थी। सो वे उन्हें डांटतीं किन्तु खेम को कागज की बजाय दीवारों पर ही चित्रकारी करना अच्छा लगता था। बहरहाल, उनकी यह रुचि बढ़ती चली गयी। वे अपनी पाठशाला में भी एक चित्रकार के रूप में पहचान बन गई। उनके चित्रों में प्रमुखता से स्थान पाते थे विभिन्न पशु-पक्षी। मिडिल कक्षाओं तक आते-आते वे जल रंगों से भी परिचित हो चुके थे। वे हरी पत्तियों को भी वे रंगों की तरह इस्तेमाल करते रहे हैं।
इसी बीच उन्हें अपने ननिहाल जाने का मौका लगा। वहां उस समय 'लछमी जगार' महोत्सव का आयोजन सम्पन्न हो रहा था। गुरुवार, जो लछमी जगार का सबसे महत्त्वपूर्ण दिन होता है, को जगार के आयोजकों को तत्काल कोई 'लिखनकार' (चित्रकार) नहीं मिल रहा था जबकि 'लछमी जगार' की परम्परा के अनुसार खेत से लछमी (लक्ष्मी) लाने के पूर्व ही जगार-स्थल पर लखी-नरायन (लक्ष्मी-नारायण) का चित्र अंकित हो जाना चाहिये।
संयोग से जगार-स्थल पर खेम अपनी माता के साथ उपस्थित थे। तभी मां ने जगार के आयोजकों से कहा कि उनका बेटा घर की दीवारों पर तरह-तरह के चित्र बनाया करता है। सम्भवत: वह यहां भी बना सके। इतना सुनकर आयोजकों ने खेम से चित्र बनाने को कहा। उस समय तक खेम 'लछमी जगार' में बनाये जाने वाले चित्र से अनभिज्ञ थे। तब जगार गायिकाओं के मार्गदर्शन में उन्होंने लछी-नरायन का चित्र लोक शैली में पहली बार बनाया। उनके बनाये चित्र की प्रशंसा हुई, और यहीं से उनके चित्रकार ने लोक- चित्रों से साक्षात्कार किया और तब से आज तक वे लोक- चित्रों के माध्यम से बस्तर की संस्कृति को कागज, कैनवास और दीवारों पर उकेरने में तल्लीन हैं।
अन्य रेखांकनों एवं चित्रों के अलावा बस्तर की वाचिक परम्परा के सहारे मुखान्तरित होते आ रहे चारों लोक महाकाव्यों (लछमी जगार, तीजा जगार, आठे जगार और बाली जगार) के उनके द्वारा किये गये विस्तृत रेखांकनों एवं चित्र-श्रृंखला को देख कर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि ये रेखांकन एवं चित्र खेम द्वारा इन लोक महाकाव्यों की चित्रात्मक व्याख्या हैं, कारण उन्होंने इन सभी लोक महाकाव्यों को आत्मसात् किया है।
दीवारों पर चित्रांकन करने के लिये वे पारम्परिक रंग ही प्रयोग में लाते रहे हैं- गेरु, छुई मिट्टी, पीली मिट्टी, कोयला, सेम की पत्तियां आदि। जहां तक बात प्रदर्शनियों की है, उनके लिये वे कागज या कपड़े पर चित्रांकन करते हैं लेकिन इनमें भी रंगों के लिये इन्हीं पारम्परिक साधनों का ही उपयोग करते हैं।
खेम भित्ति चित्रों के साथ लोक संगीत, लोक नाट्य और छायाचित्रों से भी जुड़े हैं, वे कहते हैं कि यों तो किसी भी कला का उद्देश्य जनरंजन और संस्कारित करना तो है ही किन्तु इसके साथ ही वे बस्तर के सुख-दु:ख को भी अपनी कला के माध्यम से रुपायित करना चाहते हैं और वे ऐसा कर भी रहे हैं। (उदंती फीचर्स)
खेम वैष्णव
31 जुलाई 1958 को अविभाजित बस्तर जिले के दन्तेवाड़ा में जन्मे लोक चित्रकार खेम वैष्णव ने लोक चित्रों की शिक्षा जगार गायिकाओं (गुरुमायों) से ली। 1970-71 से सृजनरत खेम की कलाकृतियों की प्रदर्शनियां और कार्यशालाएं देश के विभिन्न महत्वपूर्ण स्थानों पर लग चुकी हैं- जहांगीर आर्ट गैलरी, नेहरु सेन्टर, कमलनयन बजाज गैलरी मुम्बई, आल इंडिया फाईन आट्र्स एंड क्राफ्ट्स सोसायटी नई दिल्ली, इंजीनियरिंग इन्स्टीट्यूट आफ साइंस बैंगलोर, सूरजकुंड क्राफ्ट्स मेला, गुवाहाटी असम, पणजी गोवा, मद्रास, हैदराबाद, तथा कोलकाता के साथ 1992 में नारा सिटी जापान, 2002 में द राकेफेलर फाउन्डेशन न्यूयार्क (सं.रा. अमेरिका) के अन्तर्गत बेलाजो स्टडी एंड कांफ्रेंस सेन्टर बेलाजो (इटली) में ''जगार'' पर किए जा रहे शोध कार्य में प्रदर्शन। इसके अलावा उनकी कृतियां देश-विदेश में संग्रहीत भी हैं। समकालीन चित्रकला पर केन्द्रित 'इंडियन ड्राइंग टुडे 1987Ó पुस्तक जिसे जहांगीर आर्ट गैलरी ने ही प्रकाशित किया है, में देश के चोटी के कलाकारों सर्वश्री एम.एफ.हुसैन, के.के.हेब्बार, जतीनदास, अकबर पदमसी, जेराम पटेल, एन.एस.बेन्द्रे आदि की कलाकृतियों के साथ खेम वैष्णव के भित्ति-चित्र को देखना अपने-आप में महत्वपूर्ण और सुखद है।
लोकचित्रकला के साथ-साथ छायांकन एवं लोक संगीत में भी उनकी रुचि है। बस्तर के मौखिक लोक महाकाव्य 'लछमी जगार' पर केन्द्रित 'प्रि$जर्वेशन, प्रमोशन एंड डिसेमिनेशन ऑफ ट्राइबल एंड फोक आर्ट एंड कल्चर' विषय पर अध्ययन के सिलसिले में द राकेफेलर फाउन्डेशन, न्यूयार्क (सं.रा.अमेरिका) के बेलाजो (इटली) स्थित बेलाजो स्टडी एंड कान्फ्रेन्स सेन्टर में 2002 में 30 दिवसीय प्रवास भी उनकी उपलब्धियों में जुड़ा है। देश की विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं, उनके लोक चित्रों का प्रकाशन होता रहा है और भारत शासन, संस्कृति विभाग के सांस्कृतिक स्रोत एवं प्रशिक्षण केन्द्र नई दिल्ली द्वारा पारम्परिक भित्ति चित्र के लिए 'गुरु' की मान्यता भी उन्हें प्राप्त हुई है।
पता: सरगीपाल पारा, कोंडागांव 494226, बस्तर-छ.ग.
दूरभाष : 07786-242693, मोबा. : 93004-29264
ईमेल : lakhijag@sancharnet.in

परिंदे जब गुनगुनाते हैं जीवन का गीत

परिंदे जब गुनगुनाते हैं जीवन का गीत
- सत्यनारायण भटनागर
भारत में पाई जाने वाली 1700 प्रजातियों में से अनेक खतरे के बिन्दु पर पहुंच रही है। अस्सी प्रजातियां तो विलोपित हो गई है। घटते जंगल और बढ़ती आबादी प्रतिदिन परिन्दों के जीवन को दुश्वार बना रहे है।
हिन्दी में एक सन्त कवि हो गए हैं मलूकदास। उनकी ये पंक्तिया बहुत सुनाई जाती है, दोहराई जाती है।
अजगर करें न चाकरी, पंछी करे न काज।
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम।।
व्यवहारिक अनुभव में मलूकदास के इन विचारों से सहमत होने का कोई कारण दिखाई नहीं देता। दुनिया में कर्मवाद का सिद्धांत प्राणी मात्र पर दिखाई देता है। पंछी पर तो विशेष रूप से कर्म का सिद्धांत प्रभावी दिखाई देता है। पंछी बिना काम किए दाना पानी प्राप्त कर ही नहीं सकता। हम अक्सर देखते है कि पंछी प्रात: काल की पहली किरण के साथ पंख फडफ़ड़ाकर आकाश में उड़ान भरते है। वे खोजते है दाना-पानी। कैसी ही आंधी चले, वर्षा हो, तूफान आए, आसमान से सूरज अंगारे बरसाए या बर्फ गिरे पंछी समस्त परिस्थियों में संघर्षरत रहता है। वह बिना काम के एक क्षण भी नहीं रहता। पंछी कर्मयोगी होता है। वह अपने जीवन के अन्तिम क्षणों तक कर्मयोगी बना रहता है। सन्त कवि मलूकदास ने अध्यात्म की दृष्टि से जो कुछ कहा, वह वास्तविक जीवन का सच नहीं है। इस दोहे ने आलसियों को भले ही सन्तोष दिया हो किन्तु यह व्यवहारिक जीवन का सच नहीं है। पंछी अनेक जातियों के है। अधिकतर पक्षियों के पंख होते है और ये हवा में उड़ते हैं। ये अत्यंत सुंदर होते हैं, भोले होते हैं और स्वतंत्र होते हैं। कोई पक्षी गुलाम मानसिकता का हो ही नहीं सकता। जो पींजरे में बंद हैं, वे मजबूर है। पींजरे में रहना उनका आनन्द नहीं है। सब सुख सुविधा पाने के बाद भी उर्दू के प्रसिद्ध शायर इकबाल ने लिखा है-
ए तायरे-लाहूती उस रिज्क से मौत अच्छी
जिस रिज्क से आती हो परवाज में कोताही ..
अर्थात ओ आसमान में उडऩे वाले पंछी उस जीविका से मौत अच्छी जिस जीविका में उडऩे में बाधा पड़ती हो। कोई पंछी घोसला बना कर भी नहीं रहना चाहता, सब खुले आसमान के नीचे किसी वृक्ष की छाया में अपना बसेरा रखते है। पक्षी प्रकृति की सन्तान है, वे प्रकृति के साथ जीवन प्रारम्भ करते है और प्रकृति के साथ खेलते कुदते अठखेलिया करते अन्तिम सांस लेते है। प्रकृति कर्मयोग सीखती है। प्रकृति के साथ आलस्य रह नहीं सकता। पक्षी केवल प्रसव काल में अपने बच्चें पर आत्मनिर्भर होने तक घोसलों में रहते है। अपनी सन्तान के पंखों की ताकत आते ही वे खुले आकाश में उड़ कर गाना गाते है, नाचते है। गाते-खाते है इठलाते है। दुनिया भर के बवण्डरों के बाद भी पंछी अपने पंखों पर ही विश्वास करते है। चिडिय़ा पंछी आसमान में उड़ते हुए गाना गाती है। उसका गाना बिना साज के आनन्द देता है। वातावरण को मनोरम बनाता है। आसमान में उड़ते हुए क्या आपने किसी चिडिय़ा का बिना कारण चहचहाना सुना है। यह क्षण आनन्द का क्षण है, प्रसिद्ध विद्वान जोअन एग्लाड कहते है- चिडिय़ा इसलिए नहीं गाती कि उसके पास गाने के कारण है, वह गाती है क्योंकि उसके पास गीत है ..। प्रकृतिविद् कहते हैै कि चिडिय़ा अपने साथी को आकर्षित करने के लिए गाती है। चिडिय़ा न केवल गाती है, वह नाचती भी है। क्या आपने मयूर का नृत्य नहीं देखा। उस नृत्य को देखकर तो हमारा भी मनमयूर नाचने लगता है। नृत्य करना सामान्य क्रिया नहीं है। जब तक हमारा मन आनन्द से परिपूर्ण न हो हम नाच ही नहीं सकते। हम तो अपनी पद-प्रतिष्ठा और वातावरण के कारण संकोच धारण कर लेते है। सार्वजनिक रूप से नाचना ही नहीं चाहते किन्तु वास्तव में जब आनन्द के क्षण हमारे अन्दर हिलोरे लेने लगते है, तब हम बिना नाचे रह ही नहीं सकते। हमारे पैर तब अनायास थिरकने लगते है। इसलिए पक्षी हमें नृत्य का भरपूर आनन्द लेने का सन्देश देते है। अंग्रेजी के लेखक मार्क ट्वेन लिखते है- नृत्य का आरम्भ किया जाए, आनन्द को बेशुमार बनने दिया जाये.. पक्षी हमें सन्देश देते है आनन्द से नृत्य करने के लिए, मुक्त रूप से गीत गाने के लिए, निरन्तर कर्मरत रहने के लिए। पक्षी वर्ग हमारे पर्यावरण को स्वच्छ रखने में भी हमारे सहयोगी होते है। वे कीट, पतंगों का भक्षण कर अनायास ही हमारे वातावरण को शुद्ध करते है। आज हमारे प्राकृतिक परिवेश में गिद्ध अत्यन्त कम पड़ गए है अत: मृत पशु, पक्षियों की लाश दुर्गन्ध छोड़ती है एक विकराल समस्या खड़ी कर रहीं है। ये प्रकृति का सन्तुलन बनाए रखने के लिए आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है। जलचर पक्षी जल में किल्लोल करते जहां आनन्द मनाते है, वहां जल की शुद्धि भी करते है। पक्षी पर्यावरण की शुद्धता-स्वच्छता बनाए रखने के लिए अनथक प्रयत्नशील अधिकारी है।
पक्षी निहारने का आनन्द- पक्षी निहारने के क्षण जहां हमें आनन्द देते हैं, वहां वे हमारे लिए शिक्षालय का काम भी करते है। उनकी प्रत्येक गतिविधि का अर्थ होता है, उनका बोलना, चहचहाना, गाना अपने आप में मगन रहना आदि हमें जीवन में प्रेरणा देता है। स्मरण रहे पक्षी कभी अवसाद में नहीं जाते। कितने ही तूफान हो, वर्षा हो, वे संघर्ष करते है। संघर्ष करते हुए मृत्यु को भले ही प्राप्त हो पर वे तनावग्रस्त हो आत्म हत्या नहीं करते। अब पक्षी निहारने के कार्य में लगे वैज्ञानिक भी मानने लगे है कि पक्षी भी अनुभव से हमारी तरह ही सीखते है उनमें तर्क की समझ होती है। वे समय के साथ अपने आप में परिवर्तन कर लेते है। पक्षी निहारना जहां हमें शिक्षा देता है, वहीं तनाव से मुक्त भी करता है। परिंदे निहारते समय उनकी प्रत्येक गतिविधि पर ध्यान दिया जाता है। वे कैसे रहते है? उनका आकार और रंग कैसा है। वे क्या खाते है वे प्रवास करते है तो किस मौसम में करते है। प्रजनन के लिए घोंसला कहां बनाते हैं आदि। पक्षी के प्रति प्रेम-प्रकृति के प्रति प्रेम है।
हमारी प्राचीन कथाओं में इसलिए पक्षियों का वर्णन है। लोक कलाओं में भी विभिन्न पक्षियों को कलाकृति के रूप में उकेरा गया है। भारतीय ऋषियों को हजारों वर्ष पूर्व यह ज्ञान हो गया था कि मानव इस प्रकृति श्रंृखला की एक कड़ी है। मानव में योग्यता, क्षमता है कि वे इस वर्ग की रक्षा कर सके। मानव परिन्दों को सहजीवी बनाए। अध्यात्म में पक्षी- भारतीय ऋषियों ने आत्मा को अणु के रूप में माना है और प्रतीक रूप में आत्मा व परमात्मा को दो मित्र पक्षियों की उपमा दी है। मुण्डक और श्वेताश्वसर उपनिषदों में इन्हें दो ऐसे मित्र पक्षी बताए है जो एक ही वृक्ष पर बैठे है। इसमें एक पक्षी संसार रूपी वृक्ष के फलों को खा रहा है और दूसरा परमात्मा रूपी पक्षी अपने मित्र को देख रहा है। परमात्मा की ही अंश रूप आत्मा है। इनमें समान गुण है किन्तु हम संसार रूपी वृक्ष के भौतिक फलों पर मोहित हो परमात्मा को विस्मृत कर देते है। परमात्मा साक्षी रूप हमें निहारता रहता है। इन उपनिषदों में कहा गया है-
सामने वृक्षे परूषों निमगोन्डनीशया शोचति मुहयमान।
जुष्टं यदा पश्यत्यन्यभीशमस्य महिमानमिति वीत शोक:।।
अर्थात यद्यपि दोनों पक्षी एक ही वृक्ष पर बैठे है किन्तु फल खाने वाला पक्षी वृक्ष के फल के भोक्ता रूप में चिन्ता और विषाद में निमग्न है। यदि किसी तरह वह अपने मित्र भगवान की ओर उन्मुख होता है और उनकी महिमा को जान लेता है तो वह कष्ट भोगने वाला पक्षी तुरन्त सब चिन्ताओं से मुक्त हो जाता है ऋषियों का यह प्रकृति प्रेम ही आत्मा के प्रतीक रूप में उजागर हुआ है। पक्षी के इस अणु रूप की महत्ता बताने के लिए एक छोटी चिडिया गौरय्या की संकल्प कथा प्रचलित है जिसमें गौरय्या के बार-बार निवेदन करने पर भी समुद्र अण्डे वापस नहीं करता, तब गौरय्या ने अपनी छोटी-सी चोंच से समुद्र के पानी को उलेचने का यत्न प्रारम्भ किया। यह प्रयत्न हंसी का कारण हो सकता था किन्तु कथा कहती है कि भगवान विष्णु के वाहन पक्षीराज गरूड़ को जब इसकी जानकारी मिली तो उसने समुद्र को चेतावनी दी और तब समुद्र को अण्डे लौटाने पड़े। पक्षी राज गरूड़ की तो अनेक कथाएं महाभारत में वर्णित है। पक्षी केवल प्रतीक नहीं है। वे वास्तव में प्रकृति में सन्तुलन बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण कारक भी है। वे अनायास अध्यात्मिक जीवन का सन्देश भी देते है।
संकट में है पक्षी - आज पक्षी जगत संकट में है। हम पक्षियों की ओर ध्यान नहीं दे रहे। अपने स्वार्थो की पूर्ति के लिए अंधाधुंद रसायनिक खाद और कीटनाशकों का प्रयोग कर रहे है। प्रकृतिविदों के अनुमान के अनुसार भारत में पाई जाने वाली 1700 प्रजातियों में से अनेक खतरे के बिन्दु पर पहुंच रही है। अस्सी प्रजातियां तो विलोपित हो गई है। घटते जंगल और बढ़ती आबादी प्रतिदिन परिन्दों के जीवन को दुश्वार बना रहे है। पक्षीविद् विश्वमोहन तिवारी कहते है- इसमें किसी को सन्देह नहीं होना चाहिए कि पंछी नहीं तो मनुष्य भी नहीं बचेगा। भारतीय ऋषियों की हजारों वर्ष पूर्व की इस समझ का हमें ध्यान रखना चाहिए कि प्रकृति के सन्तुलन को बचाए रखने में हमारा भी सक्रिय योगदान होना चाहिए।

लोकनाट्य

पारसी थियेटर से प्रभावित छत्तीसगढ़ के लोक नाट्य
-प्रो. अश्विनी केशरवानी

छत्तीसगढ़ में लोकनाट्य दो रूपों में विकसित हुआ। एक तो निम्न वर्ग के देवार, नट, भट ने आल्हा उदल, ढोला मारू जैसी परंपरा तथा पंडु, कंवर और संवरा जाति ने पंडवानी और पंथी को विकसित किया। छत्तीसगढ़ में इसका प्रचार-प्रसार लगभग 16 वीं और 17 वीं शताब्दी के मध्य हुआ।
अभिनय मनुष्य की सहज प्रवृत्ति है। हर्ष, उल्लास और खुशी से झूमते, नाचते-गाते मनुष्य की सहज अभिव्यक्ति है अभिनय। छत्तीसगढ़ के लोक जीवन की झांकी गांवों के खेतों, खलिहानों, गली, चौराहों और घरों में स्पष्ट देखी जा सकती है। इस ग्रामीण अभिव्यक्ति को 'लोक नाट्यÓ कहा जाता है। छत्तीसगढ़ में लोक नाट्य की प्राचीन परंपरा रही है। यही आगे चलकर नाटक के रूप में विकसित हुआ। 'नाट्य शास्त्रÓ जैसे महत्वपूर्ण ग्रंथ का प्रणयन दूसरी सदी में हुआ। भरत मुनि ने ऋग्वेद से पाठ्य, सामवेद से गान, यजुर्वेद से अभिनय, और अथर्वेद से रस लेकर इसकी रचना की। भरत मुनि के समक्ष लोकधर्म का आदर्श सर्वोपरि था। कदाचित् इसी कारण उन्होंने लोकधर्म के प्रति अपना अनुराग दर्शाया है।
छत्तीसगढ़ में लोकनाट्य दो रूपों में विकसित हुआ। एक तो निम्न वर्ग के देवार, नट, भट ने आल्हा उदल, ढोला मारू जैसी परंपरा को तथा पंडु, कंवर और संवरा जाति ने पंडवानी और पंथी को विकसित किया। छत्तीसगढ़ में इसका प्रचार-प्रसार लगभग 16 वीं और 17 वीं शताब्दी के मध्य हुआ। उत्तर भारत के रासलीला और रामलीला मथुरा, वृंदावन, काशी और इलाहाबाद से सतना, रीवा, अमरकंटक होते हुए पेंड्रा, रतनपुर, शिवरीनारायण, अकलतरा, सारंगढ़, किकिरदा, मल्दा, नरियरा, बलौदा, कवर्धा, कोसा और राजिम आदि में फैल गया। इसलिए छत्तीसगढ़ी भाषा में ब्रज और अवधी का पुट मिलता है। दूसरी ओर बंगाल की जात्रा, उड़ीसा की पाल्हा, जगन्नाथपुरी से सुंदरगढ़, संबलपुर, सारंगढ़, चंद्रपुर, पुसौर, रायगढ़, और तमनार आदि जगहों मेंं फैल गया। यहां की नाट्य परंपराओं में इसका स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। पं. हीराराम के गीत गाये प्रचलित थे -
कृष्ण कृपा नहिं जापर होई दुई लोक सुख ताहिं न होई।
देव नदी तट प्यास मरै सो अमृत असन विष सम पलटोई।।
धनद होहि पै न पावै कौड़ी कल्पद्रुम तर छुधित सो होई।
ताको चन्द्र किरन अगनी सम रवि-कर ताको ठंढ करोई।।
द्विज हीरा हरि चरण शरण रहु तोकू त्रास देइ नहिं कोई।।
डॉ. बल्देव से मिली जानकारी के अनुसार रायगढ़ के राजा भूपदेवसिंह के शासनकाल में नगर दरोगा ठाकुर रामचरण सिंह जात्रा से प्रभावित रास के निष्णात कलाकार थे। उन्होंने इस क्षेत्र में रामलीला और रासलीला के विकास के लिए अविस्मरणीय प्रयास किया। गौद, मल्दा, नरियरा और अकलतरा रासलीला के लिए और शिवरीनारायण, किकिरदा, रतनपुर, सारंगढ़ और कवर्धा रामलीला के लिए प्रसिद्घ थे। नरियरा के रासलीला को इतनी प्रसिद्घि मिली कि उसे 'छत्तीसगढ़ का वृंदावनÓ कहा जाने लगा। ठाकुर छेदीलाल बैरिस्टर, उनके बहनोई कोसिरसिंह और भांजा विश्वेश्वर सिंह ने नरियरा और अकलतरा के रासलीला और रामलीला के लिए अथक प्रयास किया। उस काल में जांजगीर क्षेत्रान्तर्गत अनेक गम्मतहार सुरमिनदास, धरमलाल, लक्ष्मणदास चिकरहा का नाचा पार्टी में रास का यथेष्ट प्रभाव देखने को मिलता था। उस समय दादूसिंह गौद और ननका रहस मंडली, रानीगांव रासलीला के लिए प्रसिद्घ था। वे पं. हीराराम त्रिपाठी के श्री कृष्णचंद्र का पचरंग श्रृंगार गीत गाते थे-
पंच रंग पर मान कसें घनश्याम लाल यसुदा के।
वाके वह सींगार बीच सब रंग भरा बसुधा के।।
है लाल रंग सिर पेंच पाव सोहै,
अंखियों में लाल ज्यौं कंज निरखि द्रिग मोहै।
है लाल हृदै उर माल कसे जरदा के।।1।।
पीले रंग तन पीत पिछौरा पीले।
पीले केचन कड़ा कसीले पीले।।
पीले बाजूबन्द कनक बसुदा के ।। पांच रंग ।।2।।
है हरे रंग द्रुम बेलि हरे मणि छज्जे।
हरि येरे वेणु मणि जडि़त अधर पर बज्जे।।
है हरित हृदय के हार भार प्रभुता के।। पांच रंग।। 3।।
है नील निरज सम कोर श्याम मनहर के।
नीरज नील विसाल छटा जलधर के।।
है नील झलक मणि ललक वपुष वरता के।। पांच रंग।।4।।
यह श्वेत स्वच्छ वर विसद वेद जस गावे।
कन स्वेत सर्वदा लहत हृदय तब आवे।।
द्विज हीरा पचरंग साज स्याम सुखदा के।। पांच रंग।।5।।
इसी प्रकार छत्तीसगढ़ में नाट्य लेखन की परंपरा रही है। भारतेन्दु युग में हिन्दी रंगमंच का निर्माण हुआ और अधिक से अधिक अभिनय, नाटक और प्रहसन आदि लिखे और प्रस्तुत किये गये। हालांकि यह रंगमंच सामाजिक परिस्थितियों के कारण चिरस्थायी न रह सका और उसका स्थान पारसी थियेट्रिकल कम्पनियों ने ले लिया। इसके अवसान काल में सिनेमा का प्रादुर्भाव हुआ। इसके बावजूद लोग सजीव व्यक्ति को अपने सम्मुख उनके और उनकी समस्याओं का अभिनय करते देखना चाहते थे। इस युग में अंग्रेजी और संस्कृत नाटकों के अनुवाद का प्रचलन था।
सुप्रसिद्घ साहित्यकार भारतेन्दु हरिश्चंद्र के बाल सखा, कवि और सुप्रसिद्घ आलोचक ठाकुर जगमोहन सिंह के प्रिय शिष्य और शिवरीनारायण के मालगुजार पंडित यदुनाथ भोगहा के सुपुत्र पं. मालिकराम भोगहा ने रामराज्यवियोग, प्रबोध चंद्रोदय, और सती सुलोचना नाटक लिखा। इन नाटकों का शिवरीनारायण के अलावा कई स्थानों में सफलता पूर्वक मंचन किया गया। भोगहा जी ने शिवरीनारायण में एक नाटक मंडली बनायी थी।
छत्तीसगढ़ के अनेक साहित्यकारों ने नाटक लिखा है। इनमें साहित्य वाचस्पति जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' के पिता श्री बक्षीराम ने 'हनुमान' नाटक लिखा था। रायगढ़ के पं. अनंतराम पांडेय ने सन 1903 में 'कपटि मुनि' नाटक लिखा था जिसे मंचित भी किया गया। द्विवेदी युगीन साहित्यकार पंडित शुकलाल पांडेय ने 1930 में मातृमिलन नाटक लिखा था। पंडित लोचन प्रसाद पांडेय ने सन 1994 में 'साहित्य सेवा' प्रहसन लिखा था। डॉ. बल्देव प्रसाद मिश्र ने शंकर दिग्विजय, वासना वैभव, समाज सेवक, दानी सेठ, असत्य संकल्प और क्रांति आदि नाटक लिखा है। उनके नाटकों के कथोपकथन काव्यमय और चमत्कारपूर्ण हैं। उनके कुछ नाटकों की शैली पारसी नाट्य परंपरा पर आधारित है।
छत्तीसगढ़ी में व्यवस्थित नाट्य लेखन की शुरूवात डॉ. खूबचंद बघेल से होती है। उन्होंने सन 1930 से 1950 के बीच अनेक नाटक लिखा जिसमें ऊंच नीच, करम छटहा, जनरैल सिंह, बेटवा बिहाव, किसान के करलई और काली भाटो आदि प्रमुख हैं। वे अपने इन नाटकों का उपयोग छत्तीसगढ़ में जनजागरण के लिए करते थे। पंडित शुकलाल पांडेय ने छत्तीसगढ़ी में भूल भुलईया, गींया, छत्तीसगढ़ी ग्राम गीत, कलिकाल, उपसहा दामाद, सीख देवैया, केकरा धरैया आदि लिखा है। डॉ. प्यारेलाल गुप्त ने छत्तीसगढ़ी नाटक 'दू सौत' लिखा है। इसी प्रकार श्रीरामगोपाल कश्यप ने 'माटी के मोल', डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा ने सोनहा बिहान, गुरू चेला, भोला बनाइले, महेत्तर साहू ने 'राजा बेटा', नारायणलाल परमार ने 'भुल सुधार' और भुवनलाल मिश्र ने 'रतिहा मदरसा' नामक छत्तीसगढ़ी नाटक लिखकर नाट्य परंपरा को पुष्ट किया है।
छत्तीसगढ़ी नाटकों को लोकनाट्य के बजाय हिन्दी और एकांकी से प्रभावित समस्या मूलक नाटक कहा जाना अधिक उपयुक्त होगा। क्योंकि इनमें समसामयिक चेतना तो है लेकिन गांव की अल्हड़ता नहीं है। इनमें समसामयिक लोक भाषाओं का उद्दाम आवेग, लोकधर्मी प्रस्तुतियां नहीं होती और न ही इन्हें खुले मंच पर खेला जा सकता है। रंगकर्मी चाहे तो इन्हें आधार बनाकर लोकनाट्य के रूप में प्रस्तुत कर सकता है। जैसे डॉ. खूबचंद बघेल ने काली माटी, रामचंद्र देशमुख ने सरग अऊ नरक, जनम अऊ मरन, हबीब तनवीर ने चरनदास चोर, मोर गांव के नाम ससुराल मोर नाम दामद और महासिंह चंद्राकर ने सोनहा बिहान को सफलता पूर्वक प्रस्तुत किया है।
लोकनाट्य की स्वाभाविक भावधारा को श्री रामचंद्र देशमुख द्वारा निर्देशित 'चंदैनी गोंदा' ने आज के सिनेमाई युग में संबल प्रदान किया है। इनसे प्रभावित होकर अनेक कला मंडलियों, नाट्य संस्थाओं और कला पथकों का निर्माण हुआ मगर सिनेमाई युग की मार, उसमें प्रदर्शित पश्चिमी अंग प्रदर्शन के दृश्य ने कुछ ही समय में उसे धराशायी कर दिया। यह अत्यंत चिंता का विषय है कि हमारी सांस्कृतिक परंपराएं धीरे-धीरे लुप्त होने लगी हैं। इसके संरक्षण की दिशा में प्रयास किया जाना उचित होगा।
बहुत कम लोगों को मालूम है कि शिवरीनारायण का अभिनय संसार केवल छत्तीसगढ़ में ही नहीं वरन् देश के कोने-कोने में प्रसिद्घ था। हालांकि हर गांव में नाचा, गम्मत, रामलीला और रासलीला पार्टी होती थी लेकिन यहां की रामलीला और नाटक मंडली की बात ही कुछ और थी। 'छत्तीसगढ़ गौरव' में पंडित शुकलाल पांडेय ने लिखा है-
ब्रज की सी यदि रास देखना हो तो प्यारों
ले नरियर नरियरा ग्राम को शीघ्र सिधारों
यदि लखना हो सुहृद ! आपको राघव लीला
अकलतरा को चलो, करो मत मन को ढीला
शिवरीनारायण को जाइये लखना हो नाटक सुघ्घर
बस यहीं कहीं मिल जायेंगे जग नाटक के सूत्रधार।
प्राचीन साहित्य में उल्लेख मिलता है कि पंडित मालिकराम भोगहा ने एक नाटक मंडली यहां बनायी थी। इस नाटक मंडली द्वारा अनेक धार्मिक और सामाजिक नाटकों का सफलता पूर्वक मंचन किया जाता था। भोगहा जी भी छत्तीसगढ़ के एक उत्कृष्ट नाटककार थे। उन्होंने अनेक नाटक लिखे जिसमें राम राज्य वियोग, प्रबोध चंद्रोदय और सती सुलोचना प्रमुख हैं। इन नाटकों का यहां सफलता पूर्वक मंचन भी किया गया था।
इस सदी के दूसरे दशक में महंत गौतमदास के संरक्षण में पंडित विश्वेश्वर तिवारी के कुशल निर्देशन में एक नाटक मंडली संचालित होती थी जिसे उनके पुत्र कौशलप्रसाद तिवारी ने 'महानद थियेट्रिकल कम्पनी' नाम से कुशलता पूर्वक संचालित और निर्देशित किया। इसी प्रकार श्री भुवनलाल शर्मा 'भोगहा' के निर्देशन में नवयुवक नाटक मंडली और विद्याधर साव के निर्देशन में केशरवानी नाटक मंडली संचालित थी। कौशलप्रसाद तिवारी ने भी एक बाल महानद थियेट्रिकल कम्पनी का गठन किया था। आगे चलकर इस नाटक मंडली को उन्होंने महानद थियेट्रिकल कंपनी में मिला दिया। पंडित कौशलप्रसाद तिवारी पारसी थियेटर के अच्छे जानकार थे। उनको नाटकों का बहुत अच्छा ज्ञान था। वे नाटक मंडली के केवल निर्देशक ही नहीं बल्कि एक अच्छे कलाकार भी थे। कलकत्ता के नाट्य मंडलियों और निर्देशकों से उनका सतत् संपर्क था।
नाटकों का मंचन पहले केशवनारायण मंदिर प्रांगण में होता था। फिर मठ के गांधी चौरा प्रांगण में और बाद में बाजार में, कुआं के बगल में होता था। महानद थियेट्रिकल कम्पनी के कलाकारों को कलकत्ता के डॉ. अब्दुल शकूर और खुदीराम बोस रिहर्सल कराने आते थे। तब उन्हें 'बाजा मास्टर' कहा जाता था।
कौशलप्रसाद तिवारी, रथांग पांडेय और गुलजारीलाल शर्मा के द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार सन् 1944-45 में अंग्रेज सरकार के सहायतार्थ नाटकों का मंचन मेला के मैदान में किया गया था। इसे देखने के लिये सारंगढ़ के राजा, भटगांव, बिलाईगढ़, अकलतरा, पिथौरा के जमींदार और अनेक गांव के मालगुजार, अंग्रेज अधिकारी और बिलासपुर जिले के कलेक्टर सहित बहुत लोग आये थे। तब सिनेमा और सर्कस खाली रहते थे और पूरी भीड़ नाटक देखने के लिये उमड़ पड़ी थी। नाटक के एक ट्रिक सीन को देखकर अंग्रेज अधिकारी बहुत उत्तेजित हो गये थे जिन्हें बड़ी मुश्किल से शांत किया जा सका था। सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार महानद थियेट्रिकल कंपनी का निर्माण और नाटकों का पहला मंचन सन् 1925 में हुआ और अंतिम नाटक सन् 1952 में खेला गया था।
महानद थियेट्रिकल कम्पनी के द्वारा मंचित नाटकों में प्रमुख रूप ये धार्मिक और सामाजिक नाटक होते थे। धार्मिक नाटकों में सीता वनवास, सती सुलोचना, राजा हरिश्चंद्र, वीर अभिमन्यु, दानवीर कर्ण, सम्राट परीक्षित, कृष्ण और सुदामा, भक्त प्रहलाद, भक्त अम्बरीश आदि सामाजिक नाटकों में आदर्श नारी, दिल की प्यास, आंखों का नशा, नई जिंदगी, महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, आदि प्रमुख थे।
 इस थियेट्रिकल कम्पनी के प्रमुख पात्रों में श्री कौशलप्रसाद तिवारी, पंडित श्यामलाल, पंडित गयाराम, पंडित ओंकारप्रसाद, विशेशर चौबे, बनमाली भ_, प्यार पठान, गुलजारीलाल शर्मा, लक्ष्मण चौबे, रामगुलाम साव, जवाहर जायसवाल, भीम साव, बोधी पांडेय, दीनबंधु पोद्दार, मोहन भट्ट, रथांग पांडेय, भूषण तिवारी, मातादीन सेठ, हरि महाराज, सीताराम हलवाई, याकूब पठान, भालचंद्र तिवारी, तिजाऊ प्रसाद केशरवानी, केदार मुकिम, लादूराम पुजारी आदि प्रमुख थे। इनमेें गयाराम पांडेय अर्जुन और कंस, गुलजारीलाल शर्मा हिरण्य कश्यप, मातादीन केडिया दुर्योधन, लादूराम पुजारी द्रोणाचार्य और शंकर, तिजाऊ प्रसाद केशरवानी राणाप्रताप और भालचंद्र तिवारी प्रमुख नायक के रूप में तथा विशेशर चौबे, लक्ष्मण शर्मा, केदार मुकिम प्रमुख नायिका के अभिनय के लिये बहुत चर्चित थे। श्यामलाल शर्मा, बनमाली भट्ट और विश्वेश्वर चौबे हास्य कलाकार थे।
 इन नाटक मंडलियों के कलाकार प्रतिष्ठित परिवारों के बच्चे थे और केवल मनोरंजन के लिये नाटक मंडलियों से जुड़े थे। क्योंकि उस समय मनोरंजन का कोई दूसरा साधन नहीं था। महंत लालदास के जीते जी महानद थियेट्रिकल कम्पनी के कलाकारों को आर्थिक सहयोग मठ से मिलता रहा उसके बाद पूरी नाटक मंडली बिखर गयी। यहां के नाटकों में अल्फे्रड, कोरियन्थर और पारसी थियेटर का स्पष्ट प्रभाव था। यह यहां के साहित्यिक पृष्ठभूमि का मजबूत अभिनय पक्ष है। केशरवानी नाटक मंडली तो कालकवलित बहुत पहले हो चुकी थी, भोगहा नाटक तो काफी दिनों तक नाटकों का मंचन करती रही है बाद में वह भी बंद हो गया।
पंडित शुकलाल पांडेय ने छत्तीसगढ़ की गौरवशाली नाट्य परंपरा के बारे में लिखा है-
हैं शिवलाल समान यहीं पर उत्तम गायक।
क्षिति गंधर्व सुरेश तुल्य रहते हैं वादक।
विविध नृत्य में कुशल यहीं हैं माधव नर्तक।
राममनोहर तुल्य यहीं हैं निपुण विदूषक।
हैं गयाराम पांडेय से अभिनेता विश्रुत यहीं।
भारत में तू छत्तीसगढ़ ! किसी प्रान्त से कम नहीं।।

जंगली भैंसा संसार का सबसे खतरनाक प्राणी

जंगली भैंसा संसार का सबसे खतरनाक प्राणी
-बिमल श्रीवास्तव
भारत की भैंसें तो पालतू भैंसे अर्थात वॉटर बफैलो हैं। किन्तु अफ्रीका के भैंसे किंग बफैलो अथवा केप बफैलो हैं जो कभी पालतू नहीं बनाए जा सकते और बहुत ही खूंखार होते हैं। मौका पडऩे पर तो ये शेर को भी पछाड़ देते हैं।
कुछ वर्ष पूर्व मुझे केन्या की राजधानी नैरोबी के राष्ट्रीय उद्यान में जाने का अवसर मिला था। राष्ट्रीय उद्यान के गाइड नें हमें बताया कि अफ्रीका के पांच बड़ेे पशुओं में शेर, तेंदुआ, हाथी, गैण्डा तथा भैंसे का नाम आता है। इन्हें देखने के लिए यूरोप, अमरीका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया आदि के पयर्टक टूट-से पड़ते हैं। ये सारे पशु मात्र आकार के कारण नहीं बल्कि इसलिए बड़े कहलाते हैं कि ये अत्यंत खतरनाक होते हैं और यदि ये किसी के पीछे पड़ जाएं तो उसका बच पाना मुश्किल होता है। शुरू के दिनों में जब शिकारी लोग अफ्रीका में शिकार के उद्देश्य से आते थे, तो जो शिकारी इन बड़े पशुओं का शिकार कर लेता था उसे बहुत बहादुर माना जाता था और इन पांच बड़े पशुओं में भी सबसे खतरनाक भैंसे होते हैं।
यह जान कर तो मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। मैंने बताया कि भारत में तो भैंसों को हम लोग पालते हैं, उन पर सवारी करते हैं, और तो और उनका दूध भी पीते हैं। अफ्रीकी गाइड ने फौरन टोका। उसने बताया कि भारत की भैंसें तो पालतू भैंसे अर्थात वॉटर बफैलो हैं। किन्तु अफ्रीका के भैंसे किंग बफैलो अथवा केप बफैलो हैं जो कभी पालतू नहीं बनाए जा सकते और बहुत ही खूंखार होते हैं। मौका पडऩे पर तो ये शेर को भी पछाड़ देते हैं। यह सुनकर इन पशुओं के बारे में मेरी जिज्ञासा बढ़ गई। अफ्रीकी भैंसा या केप भैंसा ये जंगली भैंसे मुख्यत: अफ्रीका के मध्य भाग में (सहारा के दक्षिण तथा दक्षिण अफ्रीका के उत्तर में) पाए जाते हैं। जैसे इथोपिया, सोमालिया, जिम्बाब्वे, नमीबिया, बोत्सवाना, मोज़ाम्बिक, दक्षिण अफ्रीका, केन्या, तथा तंज़ानिया आदि। चरने के लिए ये प्राय: जंगल के आसपास का खुला मैदान पसन्द करते हैं। आश्चर्य की बात यह है कि अफ्रीकी भैंसे और भारतीय भैंस रंग-रूप, आकार, खानपान तथा बनावट में एक-दूसरे से बहुत मेल खाते हैं, किन्तु वास्तव में ये दो अलग-अलग प्रजाति के जीव हैं जिनका जीव विज्ञान के अनुसार सम्भवत: निकट का सम्बंध नहींं है। इनकी आदतें भी एकदम अलग-अलग होती हैं। जहां भारतीय भैंस सीधी-साधी, शान्त तथा पालने योग्य होती है, वहीं केप भैंसा अत्यंत बलशाली, खूंखार, हिंसक प्रकृति का तथा बदले की भावना से ग्रस्त होता है। अनुमान है कि पूरे विश्व इतिहास में शिकार के दौरान हिंसक पशुओं द्वारा मारे गए सर्वाधिक शिकारी भैंसों के शिकार हुए हैं। इनसे टक्कर लेने की हिम्मत शेर भी नहीं कर पाता। जब भी शेर इनका शिकार करता है तो उसका निशाना केवल बूढ़े, बीमार या छोटे बच्चे या नौसिखिया भैंसे ही होते हैं। अन्यथा ये अपने नुकीले सींगों तथा शक्तिशाली प्रहार से शेर को गम्भीर रूप से घायल कर सकते हैं, मार भी सकते हैं। इस प्रकार अफ्रीकी भैंसे को संसार का सबसे खतरनाक प्राणी माना जा सकता है। किन्तु यदि इन्हें छेड़ा ना जाए तो सामान्यत: ये नुकसान नहीं पहुंचाते तथा रास्ता छोड़कर अन्दर चले जाते हैं।
अफ्रीकी भैंसे का जीव वैज्ञानिक नाम सिन्सेरस काफर है। इसका भार लगभग 750-900 किलोग्राम (नर) तथा 400- 750 किलोग्राम (मादा) होता है। इनकी ऊंचाई लगभग 1.7 मीटर तक होती है। इनके सींग एक मीटर या उससे भी अधिक लंबे हो सकते हैं। नर लगभग 8 वर्षों में तथा मादाएं लगभग 5 वर्षों में युवा हो जाते हैं। लगभग 11 महीने के गर्भ धारण के बाद मादा एक बच्चे को जन्म देती है। इनका जीवन काल 15 से 23 वर्षों का होता है। ये 15-20 से लेकर 300 या अधिक के विशाल समूहों में रहते हैं तथा घास पर अपना गुज़ारा करते हैं।
किसी ज़माने में अफ्रीकी भैंसों का बहुत अधिक शिकार किया गया था, जिसका प्रमुख प्रयोजन शिकारी की बहादुरी का प्रदर्शन हुआ करता था। ये शिकारी लोग भैंसों के विशाल सींगों को अपने ड्राइगं रूम की शोभा बढ़ाने के काम में लाते थे। अब तो इस प्रकार के शिकार पर प्रतिबन्ध है, किन्तु अभी भी चोरी छुपे अफ्रीका में इनका शिकार होता रहता है। इसके अलावा खेती के लिए भूमि का अधिक उपयोग किए जाने के कारण इनके प्राकृतिक वास भी सिकुड़ गए हैं। इन सभी कारणों से अफ्रीकी भैंसों की संख्या काफी कम हो गई है। फिलहाल इसे कम जोखिम (लो रिस्क) श्रेणी के प्राणियों (श्रेणी सी, डी) में रखा जाता है। अफ्रीकी भैंसे को पालतू बनाने तथा उनका समागम घरेलू भैंसों से कराने के प्रयास भी असफल रहे हैं।
भारतीय भैंस
जब हम भारतीय भैंसों की बात करते हैं, तब तो सारा वातावरण ही बदला नजऱ आता है। कहां वे अफ्रीकी खूंखार भैंसे, और कहां ये पालतू, सीधी-सादी जुगाली करती हुई घरेलू भैंसें, जिनकी पीठ पर बैठे-बैठे छोटे बच्चे, उन्हें हांकते हुए ले जाते हैं। लगभग वही शक्ल, वही आकार, वही रंग-रूप किन्तु फिर भी अलग प्रजाति। वास्तव में भारत में रहने वाले किसी ग्रामीण बच्चे को अफ्रीकी भैंसा दिखाया जाए तो संभवत: वह उसकी पीठ थपथपाने को आगे बढ़ जाए और दूसरी तरफ यदि किसी अफ्रीकी वनवासी को भारतीय भैंस दिखाई जाए तो सम्भवत: वह उससे दूर भागने का प्रयास करे। वैसे केप भैंसों तथा घरेलू भैंसों में प्रमुख अन्तर यह होता है कि केप भैंसों के दोनों सींगों की जड़ें सिर पर लगभग जुड़ी रहती हैं, जबकि एशियाई भैंसों में सींगों की जड़ें काफी दूर-दूर होती हैं। वास्तव में भैंसों का मानव के साथ सदियों पुराना नाता रहा है। सम्भवत: मानव ने भैंसों को ईसा से तीन सदी पूर्व पालना शुरू किया था। भारत की भैंस का वैज्ञानिक नाम बुबालिस है, तथा मुख्यत: ये भारत, पाकिस्तान तथा दक्षिण पूर्व एशिया के अनेक देशों से लेकर मिस्र आदि तक पाई जाती हैं। यदि इनकी एक और प्रजाति (जिन्हें दलदली भैंसे कहते हैं) को भी शामिल कर लें तो ये भैंसें इन्डोनशिया, चीन, ताईवान, थाईलैण्ड, मलेशिया, फलीपीन्स, बर्मा वगैरह में भी बहुतायत से पाई जाती हैं। भारतीय भैंस का भार 300-400 से लेकर 700-1200 किलोग्राम तक होता है। इनकी ऊंचाई 1.5 से 1.8 मीटर तक होती है तथा रंग अधिकतर काला (या भूरा) होता है। इनके सींग प्राय: वक्राकार होते हैं, जिनकी लम्बाई एक मीटर तक होती है। इनकी पूंछ लम्बी होती है तथा उसके अन्त में बालों का घना गुच्छा होता है।
भैंस लगभग 18 महीने के बाद युवावस्था को प्राप्त कर लेती है तथा लगभग 10 महीने की गर्भावस्था के पश्चात एक या दो बच्चों को जन्म देती है। इन भैंसों को पानी या कीचड़ बहुत पसन्द है। उत्तर भारत में प्रचलित एक मुहावरे (अब गई भैंस पानी में) का अर्थ है कि यदि भैंस एक बार पानी में चली जाए तो उसे बाहर निकालना बहुत ही कठिन है। पानी में घुसकर तथा कीचड़ में लोटकर यह मच्छरों, पिस्सुओं तथा परजीवियों से अपनी रक्षा करती है। भैंस भारत तथा दक्षिण पूर्व एशियाई देशों का एक लोकप्रिय पशु है, क्योंकि यह कठिन परिस्थितियों को सहने में सक्षम होती है। इन देशों में भैंस को दूध के लिए पाला जाता है। इसके अलावा इनका उपयोग खेती, बोझ ढोने, हल जोतने तथा सवारी, दौड़ आदि के लिए भी किया जाता है। इनकी खाल उत्तम श्रेणी के जूते बनाने के काम आती है। भैंस के मांस को काराबीफ कहते हैं तथा इसमें कम कैलोरी होती है। दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में इसका भी बहुत अधिक उपयोग होता है। अधिक चर्बी के कारण भैंस के दूध से मोजरेला चीज़ का निर्माण किया जाता है। वर्ष 1992 में सम्पूर्ण विश्व में भैंसों की कुल संख्या लगभग 14.8 करोड़ आंकी गई थी। इनमें से 95 प्रतिशत केवल एशिया में थीं। इनकी सबसे अधिक संख्या भारत में (8.2 करोड़) और चीन (2.2 करोड़) थी। पाकिस्तान तीसरे स्थान पर था। भारत की प्रसिद्ध भैंसों में मुर्रा, नीली रावी, जफ़राबादी, सूरती, मेहसाना, कुण्डी, नागपुरी आदि हैं। इनमें सबसे अधिक दूध देने वाली मुर्रा भैंस होती है। वैसे सबसे अधिक प्रचलित तो यहां की देशी भैंस है। भारत में भारतीय बाइसन (अरना भैंसा) नामक जंगली भैंसे की एक प्रजाति पाई जाती है, जिसका वैज्ञानिक नाम बूबलिस है। यह अधिकतर असम तथा देश के अन्य उत्तर-पूर्वी राज्यों, और भूटान व नेपाल में पाया जाता है।
जल भैंसें
दक्षिण-पूर्व एशिया, इन्डोनेशिया, मलेशिया, फिलीपीन्स, म्यांमार, चीन, लाओस, वियतनाम, ताईवान आदि में एक अलग प्रजाति की भैंस पाई जाती है, जिसे दलदली भैंस या स्वैम्प बफैलो कहते हैं। इसका जीव वैज्ञानिक नाम बुबालुस काराबान्सिस है। इसका रंग भूरा, पीठ चौड़ी, तथा सींग सीधे तथा पीछे की ओर फैले होते हैं। ये भैंसें खेती तथा बोझा ढोने के लिए उपयुक्त होती हैं मगर दूध कम देती हैं। इन देशों में भैसों से शारीरिक श्रम का बहुत काम लिया जाता है।
दलदली भैंस
फिलीपीन्स में दलदली भैंस जिसका स्थानीय नाम काराबाओ है - की बहुत महत्ता है तथा इसे वहां का राष्ट्रीय पशु घोषित किया गया है। इसे विभिन्न पर्यटन पुस्तिकाओं, डाक टिकटों तथा प्रचार सामग्री में दर्शाया जाता है। ऑस्ट्रेलिया में भी भैंसें पाई जाती हैं, जो पिछली सदी में बोझा ढोने तथा मांस के लिए आयात की गई थीं। इसके अलावा कई पालतू भैंसें ऑस्ट्रेलिया में पुन: जंगली भैंसों में परिवर्तित हो गई हैं। उत्तरी अफ्रीका तथा पश्चिमी एशिया के देशों (जैसे, ईरान, मिस्र, ट्यूनीशिया आदि) में भी थोड़ी भिन्न प्रकार की जल भैंसें पाई जाती हैं। भैंस का आयात अफ्रीका तथा यूरोप में भी किया गया है। वहां पर इसके पशु फार्म स्थापित किए गए हैं। वर्ष 1978 में अमरीका में लगभग 50 भैंसों का आयात किया गया था। इसके बाद वहां पर कम कैलोरी युक्त मांस तथा मोजरेला चीज़ के उत्पादन के उद्देश्य से इनका प्रजनन कराने का प्रयास किया गया। आजकल अमरीका में लगभग 3500 भैंसें पल रही हैं।
उत्तरी अमरीका में एक और प्रकार का भैंसा पाया जाता है जिसे बाइसन कहते हैं। यह अन्य भैंसों से भिन्न होता है। जीव विज्ञान की भाषा में यह बाइसन (मैदानी भैंसा) तथा अथाबास्क (जंगली भैंसा) कहलाता है। यह एक विशाल प्राणी है, जिसके कन्धों पर एक कूबड़ होता है, सींग छोटे तथा सिर बड़ा होता है। इसकी ऊंचाई 2 मीटर, लम्बाई 2.7 से 3.7 मीटर तथा भार 850 से 1100 किलोग्राम होता है। इसके शरीर पर घने बाल होते है तथा नर के मुंह पर लगभग 30 से.मी. दाढ़ी होती है। यह प्राणी भैंस की बजाय गौवंश का निकट सम्बंधी माना जा सकता है, यद्यपि इसे अमरीका मे भैंसा ही कहते हैं। लगभग 8-9 महीने की गर्भावस्था के पश्चात मादा एक बच्चे को जन्म देती है।
उन्नीसवीं सदी तक अमरीका, कनाडा तथा मेक्सिको में इन प्राणियों के विशाल समूह पाए जाते थे, जिनकी कुल संख्या 6 करोड़ तक आंकी गई थी। किन्तु इनके मांस, खाल तथा अन्य कारणों से इनका अंधाधुन्ध शिकार किया गया जिससे इनकी संख्या में बहुत कमी आई और वर्ष 1839 तक वह घट कर 1000 से भी कम रह गई थी। आज कल संरक्षित क्षेत्रों तथा निजी उद्यानों में इनकी संख्या लगभग दो लाख तक पहुंच गई है। (स्रोत)