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Apr 27, 2009

शिक्षण संस्थानों में रैगिंग का वाइरस

शिक्षण संस्थानों में रैगिंग का वाइरस
युवक- युवतियों को शिक्षण संस्थानों में इसलिए भेजा जाता है कि वे समाज के लिए उपयोगी, शिष्ट एवं सुसंस्कृत सदस्य बनें, लेकिन पिछले कुछ दशकों से कॉलेज एवं विश्वविद्यालयों में नए छात्र- छात्राओं के साथ जो कुछ होता है उससे सिर शर्म से झुक जाता है। पिछले दिनों रैगिंग के नाम पर हिमाचल प्रदेश में अमन काचरु बलि चढ़ गया तथा आंध्र की एक लड़की ने रैगिंग के बाद मानसिक रुप से त्रस्त होकर अपनी जान गंवा देनी चाही। देश भर से आवाज उठी कि दोषियों को कड़ी सजा दी जाए। युवा वर्ग भी इस घटना के विरोध में सड़क पर उतर आए, लेकिन हर साल रैगिंग को लेकर इस तरह के मामले उजागर होते हैं और कुछ दिन के हो- हल्ला के बाद कहीं गुम हो जाते हैं। लेकिन जब तक इस जानलेवा बीमारी को जड़ से उखाड़ फेंकने हेतु सख्ती नहीं बरती जाएगी तब तक इस पर अंकुश लगाने के ऐसे प्रयास निरर्थक होंगे।

हिंसा का रुप अख्तियार करती जा रही रैगिंग युवाओं की विकृत होती मानसिकता का परिचायक है। आधुनिकता के नाम पर अश्लील शारीरिक हरकतें, पीडि़त को शारीरिक रुप से नुकसान तो पंहुचाती ही हैं उससे कहीं ज्यादा नुकसान मानसिक स्तर पर होता है। उच्च शिक्षा प्राप्त करने गए युवा ऐसी हरकतों के जरिए किस तरह से देश के विकास में भागीदार बनेंगे, यह सोचने वाली बात है। प्रश्न यह उठता है कि शिक्षण संस्थाएं इतने गंभीर मसले पर अंकुश क्यों नहीं लगा पा रहीं हैं? सरकारें भी इस मुद्दे को वैसी गंभीरता से नहीं लेती जैसा कि अन्य मामलों पर वह पहल करती हंै। शायद इसीलिए भारत सरकार के एडीशनल सॉलीसिटर जनरल गोपाल सुब्रह्मण्यम को कहना पड़ा कि अगर सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन हो तो रैगिंग के राक्षस को रोका जा सकता है।
गोपाल सुब्रह्मण्यम का कहना बिल्कुल सही है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट का हर आदेश भी कानून होता है। रैगिंग को अपराध की श्रेणी में भी रखा जा चुका है अत: इस पर कोई बहस- या चर्चा की गुंजाइश ही नहीं बचती कि इसे लागू किया जाए या न किया जाए। हर हाल में इस कानून का पालन किया जाना ही चाहिए। लेकिन अफसोस की बात है कि मामला जब मौत पर आकर रुकता है तब कहीं जाकर लोगों की नींद खुलती है। इसका तो यही मतलब निकाला जाएगा कि डॉक्टर मरीज का इलाज तभी करेगा जब वह मरने की कगार पर होगा।
रैगिंग के ऐसे मामले ज्यादातर मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेज में सुनाई देते हैं। जहां हर जुनियर छात्र एक वर्ष तक अपने सीनियर्स की ज्यादती झेलते हुए चुप रहने को बाध्य होता है क्योंकि उन्हें अपना पहला साल खराब होने का डर बना रहता है, कोई भी इसके विरोध में सामने आने को तैयार नहीं होता। लेकिन हर जुनियर सीनियर बनते ही रैगिंग लेने के लिए तैयार हो जाते हैं, यह कहते हुए कि हमने भी भुगता है, उसका बदला तो लेंगे ही। .... इस तरह यह सिलसिला कभी थमता ही नहीं। युवाओं का यह आचरण मानवीय सभ्यता के विपरीत है। मानवीयता के विपरीत जा रही इस सामाजिक विकृति को हर हाल में यहीं रोक देना होगा। कारण इस परंपरा ने वर्तमान में जो रुप अख्तियार कर लिया है वह अब सामाजिक जागरुकता और कम उम्र की गलती बता कर माफ कर देने से नहीं रुकने वाली। यह तभी संभव है जब रैगिंग के लिए बने कानून का पालन करते हुए रैगिंग के लिए जिम्मेदार युवक एवं युवतियों को ऐसी कठोर सजा दी जाए कि वह सजा समाज के लिए मिसाल बन कर सामने आए, ताकि कोई भी छात्र या छात्रा रैगिंग लेने की कल्पना मात्र से भय खाए।
फिलहाल तो रैगिंग की उपरोक्त दोनों घटनाओं के बाद सुप्रीम कोर्ट ने देश भर की शिक्षण संस्थानों के लिए जो नया आदेश जारी किया है, उसे देखते हुए एक उम्मीद की किरण जागी है। उन्होंने कहा है कि जो संस्थान रैगिंग रोकने में असमर्थ हैं उनकी मान्यता रद्द की जाए एवं उनको दी जाने वाली वित्तीय सहायता भी रोक दी जाए। राघवन समिति द्वारा सुझाए गए दिशा-निर्देशों पर अमल करने के साथ शिक्षण संस्थानों में प्रवेश के समय प्रॉस्पेक्टस में रैगिंग संबंधी नियमों को प्रकाशित करने भी कहा है। उनके इन आदेशों तथा रैगिंग के बाद हुई मौत का परिणाम यह हुआ है कि हिमाचल प्रदेश की सरकार ने रैंगिंग के खिलाफ अध्यादेश जारी कर दिया है, जो इसे रोकने की दिशा में उठा पहला वैधानिक कदम है।
इसके साथ- साथ अब समय आ गया है कि हमारे शिक्षण संस्थानों में नैतिकता की शिक्षा भी दी जाए खासकर मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेज में इसे अनिवार्य विषय के रुप में शामिल किया जाए। इस संदर्भ में डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम के जीवन की एक घटना का उल्लेख करना यहां सामयिक होगा- डॉ. कलाम जब इंजीनियरिंग पढऩे के लिए मद्रास गए तो उनके प्रोफेसर ने उनसे कहा कि तकनीकी शिक्षा प्राप्त करके तो तुम सिर्फ एक अच्छे तकनीशियन बनोगे पर यदि अच्छे इंसान भी बनना चाहते हो तो तुम्हें साहित्य भी पढऩा चाहिए। प्रोफेसर की इस बात को अब्दुल कलाम ने जीवन भर याद रखा और इंजीनियरिंग की पढ़ाई के साथ साहित्य को भी अपने जीवन में शामिल किया, जिसका असर हम उनके जीवन एवं उनके कार्यों में प्रत्यक्ष देख ही रहे हैं। अत: कॉलेजों में साहित्य, संस्कृति और कला जैसे मानवीय भावनाओं से जुड़े विषयों को भी पढ़ाया जाना चाहिए ताकि हमारी युवा पीढ़ी यह समझ सके कि आधुनिकता का अर्थ अनाचार नहीं होता।
श्रेष्ठ आचरण के बिना शिक्षा अधूरी है।

- रत्ना वर्मा

3 comments:

राजेश उत्‍साही said...

रत्‍ना जी आपने सही समय पर सही मुदृदा उठाया है। पिछले दिनों एक पुराने मित्र लाल्‍टू से, जो जाने माने कवि भी हैं,मुलाकात हुई। वे हैदराबाद में ट्रिपल आई टी प्रोफसर हैं। मेरे छोटा बेटा आई आई टी की तैयारी कर रहा है। इस संदर्भ में बात निकली तो उन्‍होंने बताया कि उनके संस्‍थान में रेंगिग जैसा कुछ नहीं होता। बल्कि छात्रों को पहले ही साल जीवनविद्या नामक एक कोर्स करवाया जाता है। जिसमें जीवन के विभिन्‍न तत्वों तथा जीवन मूल्‍यों का परिचय करवाया जाता है। मुझे लगता है अन्‍य संस्‍थानों को इस संस्‍थान से कुछ सबक लेना चाहिए।

दीपक said...

एक विचारणीय सत्य है यह !!

कडुवासच said...

... सही मुद्दा, प्रभावशाली लेख ... यह आशा है कि आने वाले समय मे निश्चिततौर पर रैगिंग पर अंकुश लगेगा, यह एक तरह से घोर निन्दनीय कृत्य है, अमानवीय हरकत करने वाले छात्रों को कठोर दण्ड मिलना चाहिये ।