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Oct 15, 2008

उदंती.com, अक्टूबर - 2008

वर्ष- 1, अंक- 3

अँधेरे जमाने में
क्या गाना बजाना भी होगा,
हाँ गाना बजाना भी होगा,
अँधेरे जमाने के बारे में ।
                - ब्रेख्त


अनकही / तमसो माँ ज्योतिर्गमय     -डॉ. रत्ना वर्मा

मुद्दा / बम ब्लास्ट : आतंकवादी हमले में घायल देश - विनोद कुमार मिश्रा

आस्था / व्रत उपवास : अपने आप से किया गया एक संकल्प - रंजना सिंह

टीवी / चैनल वार ...न्यूज चैनल को चाहिए सिर्फ सनसनी - विकल्प ब्यौहार

छत्तीसगढ़ / कबीर पंथ : झीनी- झीनी बीनी चदरिया - संजीत त्रिपाठी

लघुकथाएँः अंधेरा- उजाला  -फज़ल इमाम मल्लिक  कम्पन - राम पटवा

जरा सोचिए/ वक्त की कीमत

कविताः  अब दीप नहीं जलाते - सूरज प्रकाश

सफरनामा / बस्तर : कारीगरों के बीच 20 साल - जमील रिज़वी

पर्यटन/ पहाड़ों का दिल : प्रकृति के साज पर धडक़ता शिमला - गुरमीत बेदी

लोक पर्व/ कला : हाथा दीवाली का लोक चित्र - संकलित

परिवार/ बुजूर्ग : जीवित पीतरों से बढ़ती दूरियां - डॉ. राकेश शुक्ल

सीख/ तीन बंदर : बुरा मत सुनो, बुरा मत.... - संकलित

पुरातन/ संग्रहालय : रायपुर संग्रहालय में बापू के तीन बंदर - जे. आर. भगत

पुस्तकें/ ई- लाईब्रेरी : किताबों की बदलती दुनिया - नीरज मनजीत

आपके पत्र/ मेल बॉक्स :

क्या खूब कही/ हो जाईए खुश!

इस अंक के लेखक

रंग बीरंगी दुनिया

तमसो मा ज्योतिर्गमय


तमसो मा ज्योतिर्गमय

-रत्ना वर्मा

अक्टूबर का यह महीना नवरात्र, दीपावली, दशहरा तथा ईद जैसे कई त्योहारों को लेकर आया है, लेकिन साथ में बाढ़ जैसी आपदा, आतंकवाद का खौफ और कमरतोड़ मंहगाई भी आई है। ऐसी आपदा की घड़ी में जब चारों ओर दीपावली के पटाखों की आवाज नहीं, दीयों की जगमग रोशनी नहीं बल्कि बम के धमाकों का शोर और उसके धुएं की कालिख नजर आ रही हो, समझ नहीं आ रहा है कि हम कैसे उमंग और उल्लास की बात करें? क्या सिर्फ इसलिए कि ऐसा हमारी संस्कृति में कहने की परंपरा रही है? नहीं, दरअसल बात कुछ और ही है। हमारे पूर्वजों की बनाई परंपराओं के पीछे ऐसी मुश्किल की घड़ी में धैर्य न खोने का एक संदेश छिपा होता है। अत: गंभीरता से सोचने के बाद यही समझ में आ रहा है कि हमारे इन त्योहारों का उद्देश्य मनुष्य को निराशा, तनाव, चिंता और परेशानी, जो कि मानव जीवन का अनिवार्य अंग है, जैसी कमजोर करने वाली प्रवित्तियों से मुक्त करने के लिए ही है।

यह तो हम सभी जानते हैं कि हमारे सभी पर्व तथा त्योहार प्रकृति और कृषि से जुड़े होते हैं क्योंकि जीवन चक्र इसी धुरी में घूमता है। तुलसीदास जी ने भी कहा है कि वर्षा विगत शरद ऋतु आई... बारिश की समाप्ति पर ये त्योहार मानवता के सबसे सुंदर अंग को रेखांकित करने, ऊर्जा का संचार करने आते हैं, जिससे मनुष्य बुराईयों को त्याग कर अच्छाईयों की ओर बढ़ सके। बारिश के दिनों में बाढ़ जैसी आपदाएं विनाश लेकर ही आती हैं । बरसात और बाढ़ की इसी विभिषिका से त्रस्त मानव मन की पीड़ा के उपचार स्वरुप दशहरा और दीपावली जैसे त्योहारों से जनमानस को उल्लासित करने की परंपरा सदियों से रही है। इन अवसरों पर हम घर की साफ- सफाई करके न सिर्फ घर की गंदगी और कूड़े को बाहर निकाल फेंकते हैं वरन अपने दिल और दिमाग में जमे कूड़ा- करकट को भी बाहर फेंककर स्वच्छ मन से नई ऊर्जा के साथ जिंदगी में उजाला और रंग भरने की कोशिश करते हैं।
इसे विडंबना नहीं तो और क्या कहेंगे कि हम इन त्योहारों में भी ज्वलनशील पदाथोंं का उपयोग दियों, फुलझड़ी, पटाखों और अनारों के रुप में मनोरंजन के लिए करते हैं, और आतंकवादी भी इन्ही ज्वलनशील पदार्थों का उपयोग मानवता के विनाश के लिए कर रहे हैं। इस बदलती फिकाा को खौफ तथा आतंक से राहत दिलाने और मनुष्य के टूटते मनोबल को बचाए रखने के लिए ही सुरक्षा मामलों के विशेषज्ञ प्रकाश सिंह ने कहा भी है कि- आतंक की घटनाएँ सिफऱ् तैनाती से नहीं रुक सकतीं. इसके लिए देश में माहौल को बदलना होगा । यह बिल्कुल सच है कि इस समय हमें अपना मनोबल ऊंचा रखने के लिए माहौल बदलना होगा । साथ ही जरूरी है कि सिर्फ खोखली बातें न करें बल्कि कोई कारगर कदम उठाएं। अगर हम अपने को शक्तिशाली देश कहते हैं तो फिर इस आतंक से क्यों नहीं निपट सकते?

इस समय जबकि हमारा देश बम विस्फोटकों का आग में जल रहा है । लगभग सभी बड़े शहरों में गत दो- तीन वर्ष से हो रहे सिलसिलेवार बम धमाकों में सैकड़ों लोग मारे गए हैं। चारो ओर एक भयावह सन्नाटा सा पसर गया है । शक्ति की प्रतीक मां दुर्गा की आस्था में डूबे हुए हम सब लगातार हो रहे इन धमाकों और दुर्घटनाओं से सहमे हुए हैं, फिर भी त्योहारों का स्वागत कर रहे हैं। तभी तो कहते हैं कि मनुष्य के अंदर एक ऐसी शक्ति है, कि वह किसी भी तरह की मुसीबत का सामना करने को हमेशा तैयार रहता है।

ऐसे विध्वंसात्मक, विनाशकारी परिस्थितियों के बीच अपने सभी पाठको को दीपावली की शुभकामना देते हुए मन में यह भी कामना है कि हम अपने समाज को आतंकवाद से मुक्त करने में सफल हों। क्योंकि हमारे इन त्योहारों का उद्देश्य ही यही है कि वह हमें इस प्रकार की परेशानियों से मुक्ति दिलाए। हम भारतीय आस्थावान होते हैं, वह आस्था चाहे ईश्वर के प्रति हो चाहे प्रकृति के प्रति, हम कृतज्ञता ज्ञापन करते हैं कि वह हमें धन- धान्य से भरपूर करे और खुशियां दे।


आंतकवादी हमले में घायल देश

आंतकवादी हमले में घायल देश

- विनोद कुमार मिश्र

शनिवार का दिन ऑफिस से आज 6.30 बजे ही निकलने का मौका मिल गया था। मन में ढेर सारे प्रोग्राम थे, कहीं बाहर तफरी करने का मूड था .... अचानक पटना से प्रशांत का फोन आया ... कहां हो? मैंने कहा कनॉट प्लेस पहुंचने वाला हूं। उसने कहा उधर मत जाना! दो -तीन ब्लास्ट हो गए हैं। मैं तब तक कनॉट प्लेस पहुंच चुका था। मन में एक सवाल आया घर चलूं या मौके पर जाऊं ? तब तक घर से भी फोन आ चुका था कहां हो? आप ठीक हो? यही सवाल मेरे सारे चिर परिचित से आ रहे थे। मेरे साथ खड़े लगभग हर के मोबाइल बज रहे थे और हर से यही सवाल पूछे जा रहे थे। घर परिवार के लोग अपनों के सकुशल जान कर निश्चिंत हो रहे थे। कमोवेश यही निश्चिंतता सरकार के साथ भी थी। चूंकि ये सीरियल बॉम धमाके राजधानी दिल्ली में हुए थे जाहिर तौर पर होम मिनिस्टर से लेकर आला अधिकारियों को घटना स्थल पर आना जरूरी था, लेकिन मैंने किसी चेहरे पर कोई तनाव या शिकन नहीं देखा...

शायद इसलिए भी कि पाटिल साहब के गृहमंत्री रहते हुए 11 बड़े सिलसिलेवार धमाके हुए हैं जिसमे अब तक 3000 से ज्यादा लोग मारे गए है। 5000 से ज्यादा लोग जख्मी हुए हैं। जाहिर है इस हालत में कोई भी बुध बन सकता है। पाटिल साहब जीवन मरण से ऊपर उठ चुके हैं। मीडिया ने इस्तीफा मांगा तो पाटिल साहब का जबाव आया मुझे मालूम है कि लोकप्रियता के कारण उन्हें गृह मंत्री नहीं बनाया गया है उन पर सोनिया गांधी को भरोसा है यही उनकी काबिलियत है। आतंकवादी हमले मीडिया के लिए सनसनी स्टोरी है, विपक्षी दलों के लिए राजनितिक हथियार और सत्ता पक्ष के लिए आनी-जानी की चीज।


अमेरिका की एक काउंटर टेरिरिस्म संस्था ने 2004 से अब तक भारत में हुए आतंकवादी हमलों और मारे गए लोगों कि गिनती की है उसके मुताबिक भारत में इन हमलों में 4000 से ज्यादा लोग मारे गए है। यह कहना गलत नहीं होगा कि भारत का स्थान इराक के बाद आता है। लेकिन भारत में आतंकवाद कभी मुद्दा नहीं बन पाया है। दिल्ली सीरियल ब्लास्ट के बाद मीडिया के चौतरफा हमले के बाद ऐसा लगने लगा था सरकार कुछ ठोस पहल करेगी। लेकिन हंगामेदार कैबिनेट मीटिंग के बाद देश को एक बार यही सुनना पड़ा कि मौजूदा कानून आतंकवाद से लडऩे के लिए सक्षम है। यानी वोट की सियासत के सामने सरकार एक बार फिर झुकी और आतंकवाद से लडऩे का हमारा इरादा हिलते नजर आया।

पत्रकार से उद्योगपति बने राजदीप सरदेसाई जैसे लोग सरकार के सुर में सुर मिलाकर कह रहे हैं कि पोटा के रहते हुए अगर पार्लियामेंट पर हमले हुए तो ऐसी हालत में कड़े कानून कि चर्चा बेमानी है। याद रहे पोटा कानून के कारण ही कुछ लोग पकड़े गए और कुछ लोगों को सजा भी मिली। ये अलग बात है कि सियासत के कारण कानून का फैसला आज बौना साबित हुआ है।
9/11 के बाद पात्रिओत एक्ट लागू कर अमेरिका ने आतंकवादी हमले पर विराम लगा दिया है तो क्या ऐसा कानून भारत में नहीं बनाया जा सकता है। पाकिस्तान-अफगानिस्तान के जेहादियों से अलग एक देशी जेहाद का ताना-बाना बुना जा रहा है। कहा यह जा रहा है कि ये हमले पाकिस्तान के आतंकवादी नहीं कर रहे हैं बल्कि हमारे यहां के तौकीर, शबीर, बशीर, आमिर इंडियन मुजाहिद्दीन के बैनर के तहत हमले को अंजाम दे रहे है, कहा यह भी जा रहा है कि गुजरात दंगों की यह प्रतिक्रिया है। यही मानकर देश का गृह मंत्रालय आतंकवादियों को अपने गुमराह बच्चे मान रहे हैं। इंडियन मुजाहिदीन गुजरात दंगों की तस्वीर छाप कर गृहमंत्रालय को गुमराह कर रहा है। सवाल यह है कि मालेगोव धमाके और हैदराबाद सिलसिलेवार बॉम ब्लास्ट में ज्यादा मुस्लिम समुदाय के लोग ही मारे गए थे। ठीक एक साल पहले ख्वाजा के दरबार में धमाके करा कर दर्जनों नमाजियों को मार दिया गया था। उस धमाके में इंडियन मुजाहिद्दीन कि थ्योरी बदल गई और हुजी समाने आ गई। पिछले वर्षों में जो धमाके हो रहे हैं, उनमें एक ही तरह के केमिकल पाये गए हैं , एक ही तरह कि रणनीति अपनाई गई, फिऱ अलग-अलग मुजाहिद्दीन का नाम क्यों लिया जा रहा है।

प्रधान मंत्री का दावा है कि खुफिया तंत्र को मजबूत करके और जगह-जगह सीसीटीवी कैमरे लगाकर आतंकवाद का मुकाबला किया जा सकता है। सीसीटीवी कैमरे लगाने कि जिम्मेवारी प्रधानमंत्री मुनिसिपल कोउंसिल्लोर पर छोड़ देते तो अच्छा था। रही बात खुफिया तंत्र मजबूत करने कि तो जिस देश में लाख की आबादी पर महज 126 पुलिस कर्मी है जिनमें आधे से अधिक वीआईपी की सुरक्षा में लगी हैं उनसे हर आम आदमी की सुरक्षा बेमानी है। यह तभी संभव हो सकता है जब लोगों में कानून का डर हो। वेस्ट में किसी भी पुलिस कर्मी को यह अधिकार है कि वह किसी को रोककर पूछ-ताछ कर सकते हैं, लेकिन भारत में 100 वर्षों के कानून से अत्याधुनिक यंत्रों से लैस आतंकवाद को रोका जा रहा है। अमेरिका के एक रक्षा विशेषज्ञ ने कहा था मौजूदा कानून अब तक किसी विदेशी आतंकवादी से देश में आतंकवादी हमले को रोक रखा है, लेकिन जिस दिन यूरोप से गोरी चमड़ी के लोग देशी जेहाद के काज्बे से हमला करेंगे तब मौजूदा कानून बौना साबित होगा। कल तक जो लोग आईएसआई के लिए स्लीपिंग मोदुलेस का काम कर रहे थे आज वही लोग इंडियन मुजाहिद्दीन बन कर हमले को अंजाम दे रहे हैं। इस देशी जेहादी को कड़े कानून के जरिये ही रोका जा सकता है। आतंकवाद से मुसलमानों का कोई लेना देना नहीं है लेकिन वोट कि राजनीती करने वाले लोग एक समुदाय को कड़े कानून से डरा रहे हैं। हमें इस ओछी सियासत से जरूर मुक्ति मिल सकती है, लेकिन हमले में मारे गए लोगों में अपने को तलाशने के बजाय हम इस आतंकवादी हमले में घायल देश को खोजें।

हंसी का पिटारा बनते हमारे न्यूज चैनल को चाहिए सिर्फ सनसनी

हंसी का पिटारा बनते हमारे न्यूज चैनल को चाहिए 
सिर्फ सनसनी
- विकल्प ब्यौहार

हमारे देश में एक कामेडियन है राजू श्रीवास्तव । राजू ने एक टीवी शो में इलेक्ट्रोनिक मीडिया पर जोक सुनाया था कि मुंबई में बाढ़ के हालत थे और एक आदमी डूब रहा था। एक टीवी रिपोर्टर ने उससे सवाल किया कि डूबते हुए आप कैसा महसूस कर रहे हैं? राजू ने मजाक में जो बात कह दी आज मैं इस लतीफे की गंभीरता पर आना चाहता हूँ । इलेक्ट्रॉनिक मीडिया कभी कभी ऐसे कारनामें कर बैठता है कि उसका वर्णन कर पाना भी मुश्किल हो जाता है। अखबार कि तुलना में ख़ुद को ज्यादा तेज दिखने के चक्कर में वह हस्यास्पद बन जाता है।

अभी हाल ही में एक सबसे तेज न्यूज़ चैनल ने जिनेवा में हो रहे महाप्रयोग पर सनसनीखेज रिपोर्ट दी कि इस प्रयोग के शुरू होते ही संसार खत्म हो जाएगा हालांकि अब वह प्रयोग ही तकनीकी खराबी के कारण बंद हो गया है, लेकिन बेचारी इंदौर कि एक गरीब छात्रा इतना डर गई कि उसने प्रलय नहीं देखने का मन बनाया और ज़हर खा कर आत्महत्या कर ली। उस चैनल को इससे कोई फर्क नही पड़ा उसे तो चाहिए सनसनी जो उसने फैला दी।

इसी तरह उसी चैनल में एक और प्रोग्राम आता है जिसमें एक बुजुर्ग पत्रकार सामने बैठी किसी हस्ती की बखिया उधेडऩे में लग जाता है। दर्शकों को बताया जाता है कि इस कार्यक्रम में सवाल पूछे जायेंगे लेकिन उस कार्यक्रम को देखने से तो यही लगता है कि यह वाद विवाद का कार्यक्रम है।

हर गंदे सवाल पर बुजुर्ग पत्रकार ख़ुद को और भी बड़ा महसूस करने लगता है। सामने बैठा व्यक्ति ज्यादा उग्र नहीं हो सकता क्योंकि मीडिया से मुंह लड़ाने का अधिकार उसे नही मिला है। मैं साफ़ करना चाहूँगा कि मै कभी नहीं चाहता कि किसी न्यूज़ चैनल के खिलाफ़ प्रचार करूं लेकिन एक पत्रकार होते हुए खऱाब पत्रकारिता देखी भी तो नही जाती है।

आरुषि हत्याकांड के मामले में भी हमने समाचार चैनलों में एक मृत बच्ची कि बेइज्जती होते देखी है। नकली आवाज़ से एक ड्रामा दिखाया गया कि पापा ऐसा मत करो, ये पाप है, पापा.... एक बाप की वीभत्स तस्वीर उकेर दी गई थी, आखिर ऐसा ड्रामा क्रिएट करके चैनल क्या साबित करना चाहता है।
उस किशोरी का मोबाइल फोन, कम्प्यूटर, लेपटाप और डिजिटल कैमरे के अंदर के भेद उजागर होने लगे। एक जघन्य, अपराध को नौटंकी बना दिया गया और इसे न सिर्फ नित्य बल्कि एक ही दिन में छ:छ: बार दिखाने लगे। हद हो गई।

हमारी संवेदनाएं भी क्या उस लडक़ी की मौत के साथ मर गईं । हम किसी की मौत को भी भुनाने में पीछे नहीं रहते। बाद में कोर्ट ने तो आरुषि के पापा को बरी कर दिया लेकिन उस न्यूज़ चैनल ने उस टूट चुके परिवार से माफ़ी मांगने की जरूरत तक महसूस नहीं की।

मोनिका बेदी जेल से छुटी नहीं कि चैनल वालों ने उसे हाथो हाथ ले लिया, यही नहीं एक चैनल ने तो बाकायदा उसे अपने एक रीयलटी शो में भी शामिल कर लिया। अब अबू सलेम कैसे चुप बैठता, लो बन गया बैठे बिठाए एक मसालेदार कार्यक्रम, अबू सलेम अपनी प्रेमिका की एक झलक पाने, जेल के कमरे में केबल कनेक्शन चाहता है। अपराध से जुड़े लोग आज सेलीब्रिटी बनते जा रहे हैं। मोनिका बेदी का साक्षात्कार प्रसारित किया जा रहा है, ऐसे सवाल पूछे जा रहे हैं जिससे जनता यह अनुमान लगाए कि मात्र तीन बार की मुलाकात में उन्होंने क्या- क्या किया होगा? अबू से कितनी बार कहां- कहां किस रूप में मिली.....

इसी तरह भारत में लोग अन्धविश्वास कि चपेट में न जाने कब तक रहेंगे। कई संस्थाएं इसे खत्म करने कि कोशिश में हैं। दूसरी ओर समाचार चैनलों में रात बारह बजे से सुबह सात आठ बजे तक ज्योतिषियों का कब्जा होता है। तरह तरह के तांत्रिक नुमा कपड़े पहने बाबा बैरागी एंकर बने होते हैं। इनके माध्यम से लोगों का तांत्रिक समाधान समाचार चैनल वाले कर रहे हैं। प्रिंट मीडिया का एक अच्छा संपादक जिस तरह की ख़बरों को कचरे के डिब्बे में फेंक देता है उस तरह कि ख़बरों पर मसाला पोत कर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया दिखा रहा है।

भारत एक संवेदनशील देश है खासकर धर्म के मामले में। लेकिन कभी कभी धार्मिक भावनाओं को भडक़ाने वाले समाचार बेधडक़ दिखाए जाते हैं। इस पर भी रोक लगनी चाहिए।

एक साल पहले अभिषेक और ऐश्वर्या कि शादी सभी समाचार चैनलों में खूब चली थी। जब भी बिग बी के घर का दरवाजा हिलता अचानक बाकी समाचार बंद हो जाते और भारत के नागरिकों को जबरिया फिल्मी हस्तियों को देखना पड़ता। मैं यहां इस बात का जिक़्र इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि मैं वह तारिख नहीं भूल सकता क्योंकि उसी दिन छत्तीसगढ़ में एक बड़ी नक्सली घटना हुई थी जिसका समाचार मुझे उस शादी के कारण देखने को नहीं मिला था। ऐसे ही एक बिना ड्राईवर कि चलती कार पर टीवी चैनलों ने अपने 5 घंटे झोंक दिए जिसमे बाद में बताया गया कि एक आदमी उसे ट्रिक से चला रहा था। और सबसे ज्यादा बधाई की पात्र हमारी देश की वह जनता है जो बड़ी ही इमानदारी से ऐसे चैनलों को देखने कि ड्यूटी निभा रही है।

पत्रकारिता में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया एक क्रांति है जिसका अच्छा उपयोग सामाजिक चेतना फैलाने में किया जा सकता है। लेकिन दुर्भाग्य से वे दिशाहीन हो रहे हैं। अफसोस की बात है कि अब यह बीमारी प्रिंट मीडिया में भी देखने को मिल रही है। कई बड़े अखबार अपने कई पन्ने रंगीन अर्धनग्न तस्वीरों को समर्पित कर रहे हैं। वे शब्दों कि ताकत को शायद नही जानते है। ईश्वर इन्हें माफ़ करे। ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं।

कबीर पंथ- झीनी- झीनी बीनी चदरिया

कबीर पंथ-
झीनी- झीनी  बीनी चदरिया
-संजीत त्रिपाठी

हिंदी के विद्वानों में इस बात को लेकर मतभिन्नता रही कि कबीर ने अपने नाम से किसी पंथ का प्रचलन किया या नहीं। डॉ के एन द्विवेदी ने अपना मत देते हुए लिखा है,"कबीरपंथ की कतिपय रचनाओं में इस बात का उल्लेख हुआ है कि कबीर ने अपने प्रधान शिष्य धनी धर्मदास को पंथ स्थापना का आदेश देकर उनके वंश को गद्दी का उत्तराधिकारी होने का आशीर्वाद दिया था"।

वहीं आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है,"कबीर ने भारतीय ब्रह्मवाद के साथ सूफियों के भावात्मक रहस्यवाद, हठयोगियों के साधनात्मक रहस्यवाद और वैष्णवों के अहिंसावाद तथा प्रपंक्तिवाद का मेल करके अपना पंथ खड़ा किया"।

लेकिन उपरोक्त कथनों के समक्ष यदि हम कबीर के अनासक्त व्यक्तित्व और जीवन चरित को देखें तो यह कहना सही नही लगता कि वे अपने नाम से स्वयं पंथ शुरु कर चलाएं हों। जो सभी पंथ एवं संप्रदाय को समाप्त कर शुद्ध मानवता का प्रकाश चाहता रहा हो वह खुद एक नया पंथ क्यों खड़ा करेगा। अत: हम यह कह सकते हैं कि कबीर के विचारों के अनुयायियों के लिए एक स्वतंत्र संप्रदाय एवं पंथ की रचना की आवश्यक्ता हुई होगी और यही कबीरपंथ के नाम से फलित हुआ।


'बीजक' कबीरपंथ का प्रामाणिक धर्मग्रंथ माना जाता है। इसमे कुछ ऐसे संकेत प्राप्त होते हैं जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि कबीर पंथ स्थापना के कट्टर विरोधी थे, वे आचार्य या मठाधीश नही बनना चाहते थे। जैसा कि सर्वविदित है कबीर के शिष्यों की संख्या काफी थी। बताया जाता है कि इनमें से चार शिष्यों जागू साहेब,भगवान साहेब,श्रुतिगोपाल साहेब और धनी धर्मदास साहेब महत्वपूर्ण माने जाते हैं। इनके साथ ही दो और शिष्यों तत्वा और जीवा का नाम भी बड़े आदर के साथ लिया जाता है। संभवत: इन्ही शिष्यों ने मिलकर कबीर के नाम पर कबीर पंथ की स्थापना की होगी। प्रारंभ में यह संक्षिप्त स्वरूप में रहा होगा और आगे चलकर समय बीतने के साथ-साथ इस पंथ का स्वरूप अधिक बड़ा और व्यवस्था संपन्न होता चला गया।

कबीर पंथ की विविध शाखाएं-
कबीरपंथ का आविर्भाव तत्कालीन सामाजिक व धार्मिक व्यवस्था के प्रति विद्रोह का प्रतीक था। कबीरपंथ इस समय अनेक शाखाओं-उपशाखाओं में विभाजित है। इनमें से कुछ शाखाएं अपनी शुरुआत से ही स्वतंत्र हैं तो कुछ ऐसी है जो पहले स्वतंत्र शाखाओं से संबद्ध थी किन्तु बाद में संबंध विच्छेद कर लिया। कई ऐसी भी शाखाएं विद्यमान हैं जिनका संबंध कबीरपंथ से नही है लेकिन कबीरपंथी महात्मा इनका मूल स्त्रोत कबीर या कबीरपंथ से ही मानते हैं।


अभिलाष दास ने अपनी किताब 'कबीर दर्शन' में कबीरपंथ की चार शाखाओं का उल्लेख किया है। प्रथम श्री श्रुतिगोपाल साहेब,काशी कबीर चौरा। द्वितीय श्री भगवान साहेब कबीर मठ धनौती। तृतीय श्री जागू साहेब कबीरमठ विद्रुपुर और चतुर्थ श्री धर्मदास साहेब छत्तीसगढ़ी शाखा(वर्तमान में दामाखेड़ा)।

विस्तृत अध्ययन एवं निष्कर्षों के आधार पर कबीर पंथ की तीन ही प्रमुख शाखाएं मानी जाती हैं।

1- कबीर चौरा काशी
कबीर पंथ की शाखाओं में यह पहली शाखा मानी जाती है जिसकी स्थापना सूरत गोपाल (श्री श्रुतिगोपाल) ने की थी। इसकी शाखाएं पूरे भारत में फैली हैं जिसमें मुख्य रूप से लहरतारा,मगहर,बलुआ, गया,बड़ौदा,नड़ियाद,अहमदाबाद है।

2- कबीरपंथ की भगताही (धनौती) शाखा
बिहार के छपरा जिले में स्थित धनौती ग्राम में भगताही शाखा का प्रधान मठ है। इस शाखा के प्रथम आचार्य श्री भगवान साहेब थे। इसकी शाखाएं बिहार के साथ-साथ पूरे भारत में यहां-वहां फैली है जिनमें प्रमुख नौरंगा,मानसर,दामोदरपुर,चनाव(छपरा) शेखावना(बेतिया) तधवा,बड़हरवा,सवैया,बैजनाथ(मोतिहारी, लहेजी और तुर्की है।

3- कबीरपंथ की छत्तीसगढ़ी शाखा
इस शाखा के प्रवर्तक धनी धर्मदास जी थे। जिनका जन्म मध्यप्रदेश के रींवा जिले में बांधवगढ़ में हुआ था। पूर्व में मूर्तिपूजक वैष्णव मत के अनुयायी थे। प्रौढ़ावस्था में तीर्थयात्रा पर गए और वहीं मथुरा में इनकी मुलाकात कबीर से हुई। कबीर से प्रभावित होकर धर्मदास ने मूर्तिपूजा आदि छोड़ दी व उन्हें अपने घर बांधवगढ़ आमंत्रित किया, पत्नी व बच्चों सहित दीक्षा ले ली।
बताया जाता है कि जब धर्मदास साहेब ने जिनका दीक्षा से पूर्व नाम जुड़ावन प्रसाद था, बांधवगढ़ में संत समागम आयोजित किया था और वहां कबीर भी उनके आमंत्रण पर पधारे थे। इसी दौरान धर्मदास ने कबीर के कहे अनुसार अपने पूर्व गुरु रूपदास जी से इजाजत लेकर पत्नी सुलक्षणा देवी और बच्चों नारायणदास व चूरामणि समेत दीक्षा ली। दीक्षा के बाद सुलक्षणा देवी आमिन माता व चूरामनि, मुक्तामणि के नाम से जाने गए। कबीर नें धर्मदास को सारी संपत्ति दान करने के बाद ही धनी कहकर संबोधित किया तब से उन्हें धनी धर्मदास ही कहा जाने लगा।

कहते हैं कबीर ने धनी धर्मदास को पंथ की स्थापना का आशीर्वाद दिया और उनके लड़के मुक्तामणि(चूरामणि) को इस पंथ की वंशगद्दी का पहला आचार्य बताते हुए बयालिस वंश तक वंशगद्दी चलाने का आशीर्वाद दिया।


धर्मदास सुनियो चितलाई, तुम जनि शंका मानहू भाई।
हमरे पंथ चलाओ जाई, वंश बयालिस अटल अधिकाई।।
वंश बयालिस अंश हमारा, सोई समरथ वचन पुकारा।
वंश बयालिस गुरुवाई दीना, इतना वर हम तुमको दीना।।

और

मान बढ़ाई तुमको दीन्हा,जगत गुरु चूरामनि कीन्हा।
हमरो वचन चूरामनि सारा,वंश अश बयालिस अधिकारा॥

वहीं जब कबीर के समक्ष धर्मदास के मन में आने वाले बयालिस वंश के नाम जानने की जिज्ञासा हुई और उन्होने इस बारे में कबीर से पूछा तो कबीर ने उन्हें बयालिस वंश के नाम बताए।


वचन चूरामनि प्रथम कहि,बहुरि सुदर्शन नाम।
कुलपति नाम प्रमोध गुरू,नाम गुण धाम॥
नाम अमोल कहावपुनि,सूरति सनेही नाम।
हक्कनाम साहिब कहौ,पाकनाम परधाम॥
प्रकटनाम साहेब बहुरि,धीरज नाम कहुं फेर।
उग्रनाम साहिब कहूं,दयानाम कह टेर॥
गृन्धनाम साहिब तथा नाम प्रकाश कहाय।
उदित मुकुन्द बखानियो,अर्ध नार्म गुणगाय॥
ज्ञानी साहेब हंसमनि सुकृत नाम अज्रनाम।
रस अगरनाम गंगमनि पारसनाम अमीनाम॥
जागृतनाम अरू भृंगमणि अकह कंठमनि होय।
पुनि संतोषमनि कहूं,चातृक नाम गनोय।।
आदिनाम नेहनाम है,अज्रनामण महानाम।
पुनि निजनाम बखानिये,साहेब दास गुणधाम।
उधोदास करूणामय पुनि,दृगमनि हंस42।
मुक्तामणि धर्मदास के,विदित ब्यालिस वंश॥

ब्रम्हलीन मुनि, कबीर चरितम में कहते हैं कि धर्मदास साहेब के बड़े लड़के नारायण दास ने अपनी वंश गद्दी की स्थापना बांधवगढ़ में ही की जो कि नौ पीढ़ियों के बाद प्रभावशाली नही रही जबकि छोटे लड़के चूरामणि ने मुक्तामणि के नाम से अपनी वंशगद्दी की स्थापना छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले के ग्राम कुदुरमाल में की जिसे वंशगद्दी परंपरा का मुख्य केंद्र माना गया है।

भारत में भिन्न-भिन्न स्थानों में स्थित इस शाखा के प्रसिद्ध मठों के नाम इस तरह हैं।
कुदुरमाल,रतनपुर,मण्डला, धमधा, कवर्धा, दामाखेड़ा,बमनी,हरदी,धनौरा,कबीर मन्दिर मऊ,सहनिया(छतरपुर),सिंघोड़ी,छोटी बड़ैनी(दतिया) कबीर मन्दिर(नानापेट पूना),गरौठा(बुन्देलखण्ड),कबीर आश्रम जामनगर,दार्गिया मुहल्ला सूरत,लाल दरवाजा (सूरत), कबीर मन्दिर सीनाबाग बड़ौदा,अहमदाबाद,खैरा(बिहार),खांपा(नागपुर),बंगलौर,जालौन व खरसिया जहां कि विक्रम संवत 1990 में नादवंश स्थापित हुआ।


कुदुरमाल से कवर्धा और फिर दामाखेड़ा का सफर
कुदुरमाल के बाद गद्दियां रतनपुर, मंडला, धमधा, सिगोढ़ी, कवर्धा आदि में स्थापित हुई। अंतत: बारहवें महंत उग्रमुनि नाम साहेब ने विक्रम संवत् १९५३ में रायपुर जिले के दामाखेड़ा में मठ स्थापित किया।
तथ्य यह भी है कि कबीरपंथ के आठवें वंशाचार्य श्री हक्कनाम साहेब ने कवर्धा में वंशगद्दी स्थापित की। कवर्धा गद्दी पर उनके बाद उनके बेटे पाकनाम साहेब ने गद्दी संभाली फिर प्रगटनाम साहेब और धीरजनाम साहेब ने संभाली। इसी दौरान कवर्धा वंशगद्दी के लिए दादी साहेब उर्फ धीरजनाम साहेब(प्रगटनाम साहेब के भतीजे) और उग्रनाम साहेब के बीच बम्बई हाई कोर्ट में मुकदमा चला जिसमें जीत धीरजनाम साहेब की हुई। अर्थात कवर्धा गद्दी के उत्तराधिकारी धीरजनाम साहेब हुए। मुकदमा हार जाने के बाद उग्रनाम साहेब ने कवर्धा छोड़ दिया और रायपुर जिले के दामाखेड़ा में धर्मगद्दी का स्थानांतरण कर दिया। उग्रनाम साहेब के समय से ही छत्तीसगढ़ मे कबीरपंथ के अनुयायियों की संख्या कवर्धा आदि गद्दी की बजाय दामाखेड़ा गद्दी की ओर झुकती गई और अब यह सबसे प्रमुख केंद्र है।

दामाखेड़ा में कबीरपंथ वंशगद्दी की स्थापना के लिए ग्राम दामाखेड़ा को तब 14000 रूपए में बेमेतरा के कुर्मी भक्तों ने खरीदा था। यहां हर साल माघ शुक्ल दशमी से पूर्णिमा तक विशाल संत समागम व मेला का आयोजन होता है जिसमें देश-विदेश से श्रद्धालु-भक्त-व कबीर प्रेमी पहुंचते हैं।

दामाखेड़ा में वंशगद्दी की स्थापना बारहवें गुरु उग्रनाम साहेब ने की जिसमें आगे चलकर चौदहवें गुरु गृन्धमुनि साहेब भी हुए जिन्होने 18 फरवरी 1992 तक गद्दी संभाली। कहते हैं कि गृन्धमुनि साहेब के समय में छत्तीसगढ़ में कबीरपंथ ने जितनी प्रगति की उतनी अन्य किसी आचार्य के समय में नही हुई। वर्तमान में पंद्रहवें वंशाचार्य श्री प्रकाशमुनि साहेब हैं।

1982-85 के एक सर्वेक्षण के अनुसार विभिन्न शाखाओं के कबीरपंथ के अनुयायियों की संख्या देश भर में 96 लाख थी जिसका सबसे बड़ा हिस्सा दामाखेड़ा वंशगद्दी का 33.5 फीसदी था। अर्थात कबीरपंथ की सभी शाखाओं में छत्तीसगढ़ी शाखा दामाखेड़ा गद्दी का प्रचार क्षेत्र सबसे बड़ा है और पंथ प्रचार में इसे सर्वाधिक सफलता मिली है।

वेद पुराण सब झूठ है,हमने इसमें पोल देखा।
अनुभव की बात कहे कबीरा,घट का परदा खोल देखा॥

छत्तीसगढ़ में धनी धर्मदास द्वारा स्थापित कबीरपंथ की वंशगद्दी में अब तक चौदह गुरु हो चुके हैं तथा वर्तमान में पंद्रहवें आचार्य गद्दी पर विराजमान हैं जिनका ब्यौरा इस तरह है-

1- मुक्तामणि नाम साहेब विक्रम संवत 1538 से 1630
2- सुदर्शन नाम साहेब विक्रम संवत 1595 से 1630
3- कुलपत नाम साहेब विक्रम संवत 1652 से 1690
4- प्रमोद गुरु बालापीर साहेब विक्रम संवत 1728 से 1750
5- केवल नाम साहेब विक्रम संवत 1760 से 1775
6- अमोल नाम साहेब विक्रम संवत 1782 से 1825
7- सुरत सनेही नाम साहेब विक्रम संवत 1802 से 1853
8- हक्क नाम साहेब विक्रम संवत 1835 से 1890
9- पाक नाम साहेब विक्रम संवत 1855 से 1912
10- प्रकट नाम साहेब विक्रम संवत 1875 से 1939
11-धीरज नाम साहेब विक्रम संवत 1899 से 1937
(धीरज नाम साहेब गद्दीनशीन नही हुए क्योंकि इनका सतलोक गमन प्रकटनाम साहेब से पहले ही हो गया था)
12- उग्रनाम साहेब विक्रम संवत 1929 से संवत 1971
13- दया नाम साहेब विक्रम संवत 1956 से 1984
14- गृन्धमुनि नाम साहेब विक्रम संवत 1922( सन 1935 ) से सन 1992 तक
15- प्रकाश मुनि नाम साहेब जिनका जन्म हुआ सन 1967 में, 1990 में गद्दीनशीन हुए व वर्तमान में यही दामाखेड़ा के पंद्रहवें वंशगद्दी आचार्य हैं।

वेद पुराण सब झूठ है,हमने इसमें पोल देखा।
अनुभव की बात कहे कबीरा,घट का परदा खोल देखा॥

छत्तीसगढ़ में धनी धर्मदास द्वारा स्थापित कबीरपंथ की वंशगद्दी में अब तक चौदह गुरु हो चुके हैं तथा वर्तमान में पंद्रहवें आचार्य गद्दी पर विराजमान हैं जिनका ब्यौरा इस तरह है-

1- मुक्तामणि नाम साहेब विक्रम संवत 1538 से 1630
2- सुदर्शन नाम साहेब विक्रम संवत 1595 से 1630
3- कुलपत नाम साहेब विक्रम संवत 1652 से 1690
4- प्रमोद गुरु बालापीर साहेब विक्रम संवत 1728 से 1750
5- केवल नाम साहेब विक्रम संवत 1760 से 1775
6- अमोल नाम साहेब विक्रम संवत 1782 से 1825
7- सुरत सनेही नाम साहेब विक्रम संवत 1802 से 1853
8- हक्क नाम साहेब विक्रम संवत 1835 से 1890
9- पाक नाम साहेब विक्रम संवत 1855 से 1912
10- प्रकट नाम साहेब विक्रम संवत 1875 से 1939
11-धीरज नाम साहेब विक्रम संवत 1899 से 1937
(धीरज नाम साहेब गद्दीनशीन नही हुए क्योंकि इनका सतलोक गमन प्रकटनाम साहेब से पहले ही हो गया था)
12- उग्रनाम साहेब विक्रम संवत 1929 से संवत 1971
13- दया नाम साहेब विक्रम संवत 1956 से 1984
14- गृन्धमुनि नाम साहेब विक्रम संवत 1922( सन 1935 ) से सन 1992 तक
15- प्रकाश मुनि नाम साहेब जिनका जन्म हुआ सन 1967 में, 1990 में गद्दीनशीन हुए व वर्तमान में यही दामाखेड़ा के पंद्रहवें वंशगद्दी आचार्य हैं।

मै कहता सुरझावन हारी,तू राख्यो अरुझाई रे।
मै कहता तू जागत रहियो, तू जाता है सोई रे।।

वह बातें जो छत्तीसगढ़ के कबीरपंथ की पहचान हैं
1- छत्तीसगढ़ में कबीरपंथ के अंतर्गत यहां एक विशिष्ठ प्रकार की मठ व्यवस्था प्रचलित है।
2- गुरु की संतान गद्दी की उत्तराधिकारी होती है।
3- अधिकांश कबीरपंथी श्वेत वस्त्र धारण करते हैं क्योंकि उनन्के अनुसार यह आभ्यांतरिक शुद्धि और ज्ञान का प्रतीक है।
4- कबीरपंथी धोती व अचला धारण करना त्यागी और निरक्त जीवन का चिन्ह मानते हैं। ये गले में तुलसी की माला धारण करते हैं, औरतें भी कण्ठी धारण करती हैं।
5- कबीरपंथी द्वादश तिलक लगाते हैं। यह तिलक न्यायपूर्ण जीवन का प्रतीक माना जाता है।
6- कबीरपंथी अपने महात्मा या गुरुओं को तीन बार बंदगी करते है।
7- छत्तीसगढ़ी कबीरपंथी शाखा में पूर्णिमा का विशेष महत्व है। उनका यह विश्वास है कि जो व्यक्ति पूर्णिमा के दिन यह व्रत रखते है उन्हें ॠद्धि-सिद्धि, भक्ति व मुक्ति प्राप्त होती है।
8- चौका आरती को कबीरपंथ में महत्वपूर्ण विधान माना जाता है।
9- कबीरपंथ के अनुसार शव को पृथ्वी में गाड़ देने का विधान है व इसके लिए विशेष विधि प्रचलित है।

मै कहता सुरझावन हारी,तू राख्यो अरुझाई रे।
मै कहता तू जागत रहियो, तू जाता है सोई रे।।

वह बातें जो छत्तीसगढ़ के कबीरपंथ की पहचान हैं
1- छत्तीसगढ़ में कबीरपंथ के अंतर्गत यहां एक विशिष्ठ प्रकार की मठ व्यवस्था प्रचलित है।
2- गुरु की संतान गद्दी की उत्तराधिकारी होती है।
3- अधिकांश कबीरपंथी श्वेत वस्त्र धारण करते हैं क्योंकि उनन्के अनुसार यह आभ्यांतरिक शुद्धि और ज्ञान का प्रतीक है।
4- कबीरपंथी धोती व अचला धारण करना त्यागी और निरक्त जीवन का चिन्ह मानते हैं। ये गले में तुलसी की माला धारण करते हैं, औरतें भी कण्ठी धारण करती हैं।
5- कबीरपंथी द्वादश तिलक लगाते हैं। यह तिलक न्यायपूर्ण जीवन का प्रतीक माना जाता है।
6- कबीरपंथी अपने महात्मा या गुरुओं को तीन बार बंदगी करते है।
7- छत्तीसगढ़ी कबीरपंथी शाखा में पूर्णिमा का विशेष महत्व है। उनका यह विश्वास है कि जो व्यक्ति पूर्णिमा के दिन यह व्रत रखते है उन्हें ॠद्धि-सिद्धि, भक्ति व मुक्ति प्राप्त होती है।
8- चौका आरती को कबीरपंथ में महत्वपूर्ण विधान माना जाता है।
9- कबीरपंथ के अनुसार शव को पृथ्वी में गाड़ देने का विधान है व इसके लिए विशेष विधि प्रचलित है।

जात न पूछौ साधु की, जो पूछौ तो ज्ञान।
मोल करो तलवार का, परा रहन दो म्यान।।

कबीरपंथ की कुछ शाखाओं में चौका आरती का विधान है और इसे मोक्ष साधन के लिए जरुरी माना जाता है। चौका आरती को कबीरपंथ का सात्विक यज्ञ भी कहा जाता है। आम तौर पर कबीरपंथ की चौका आरती के बारे में तो बहुतों ने सुना पढ़ा होता है लेकिन इसके अलावा और भी कुछ परंपराएं या रिवाज़ हैं। आईए देखें कि दामाखेड़ा में कबीरपंथ की और क्या परंपराएं या रिवाज़ हैं।

1-दीक्षित करने की विधि
2-पूर्णिमा व्रत
3-चौका विधान- इसके अंतर्गत
-आनंदी चौका
-जन्मौती या सोलह सुत का चौका
-चलावा चौका
-एकोत्तरी चौका
4-अंत्येष्टि क्रिया
5-नित्य कर्म विधि
6-द्वादश तिलक

इसमें से हम अंत्येष्टि क्रिया और द्वादश तिलक के बारे मे थोड़ी चर्चा पहले ही कर चुके हैं अत: इनके विस्तार में न जाकर चौका आरती के के बारे में बात करते हैं।

चौका आरती की विधि केवल महंत ही संपन्न करवा सकते हैं। चौका करने के लिए जिस प्रकार किसी महंत की नियुक्ति आवश्यक है ,उसी प्रकार सर्व सामग्री को यथास्थान स्थापित करने के और चौके के कार्य में महंत को सहयोग देने के लिए दीवान का होना भी जरुरी है। चौका बनाने के सभी 'सुमिरन' दीवान को और महंत द्वारा किए जाने वाले चौका संबंधी कार्यों के समस्त सुमिरन महंत को कंठस्थ होने चाहिए । लग्नतत्व स्वरोदय और पान पहचाननें का ज्ञान भी महंत के लिए अपेक्षित है।

कबीर माला काठ की, कहि समझावे तोहि।
मन ना फिरावै आपनों, कहा फिरावै मोहि।।

आनंदी चौका- किसी नवीन व्यक्ति के कबीरपंथ में दीक्षित होने के समय य आ अन्य प्रकार के आनंदोत्सव के निमित्त यह चौका कराया जाता है।

जन्मौती या सोलह सुत का चौका- संतान प्राप्ति की कामना अथवा पुत्र जन्म के उपलक्ष्य में यह चौका संपादित होता है।

चलावा चौका- मृत व्यक्ति की आत्मा की शांति के लिए चलावा चौका की विधि की जाती है।

एकोत्तरी चौका- जो विधि एक सौ एक पूर्वजों के शांति के लिए की जाती है उसे एकोत्तरी चौका कहा जाता है।

मूरख को समुझावते, ज्ञान गाँठ का जाई।
कोयला होई न ऊजरो, नव मन साबुन लाई।।

लंबा मारग, दूरि घर, विकट पंथ, बहु मार।
कहौ संतो, क्यूं पाइये, दुर्लभ हरि-दीदार॥

कबीर और धनी धर्मदास की स्मृति में दामाखेड़ा में हर साल आयोजित होने वाला 'संत समागम समारोह' खासा महत्व रखता है। इसमें हिस्सा लेने के लिए देश विदेश से कबीरपंथ के अनुयायी पहुंचते हैं।

इस समारोह के दौरान कार्यक्रम को इस तरह बांटा गया है।
1-बसंत पंचमी (गुलाल-उत्सव)
2-संत समागम
3-भेंट बंदगी
4-सत्संग सभा
5-पंथश्री का प्रवचन
6-पूनों महात्म्य पाठ
7-आनंदी चौका आरती(सात्विक यज्ञ)
8-सामूहिक चलावा चौका
9-सामूहिक दीक्षांत समारोह व पंजा वितरण

आईए देखें दामाखेड़ा के कुछ चित्र

`कबीर सब जग हंडिया, मांदल कंधि चढ़ाइ।
हरि बिन अपना कोउ नहीं, देखे ठोकि बजाइ॥

`कबीर' कलिजुग आइ करि, कीये बहुत जो मीत ।
जिन दिलबाँध्या एक सूं, ते सुखु सोवै निचींत ॥

कामी लज्या ना करै, मन माहें अहिलाद ।
नींद न मांगै सांथरा, भूख न मांगै स्वाद ॥

माषी गुड़ मैं गड़ि रही, पंख रही लपटाइ ।
ताली पीटै सिरि धुनैं, मीठैं बोई माइ ॥

घूँघट का पट खोल रे, तोको पीव मिलेंगे।
घट-घट मे वह सांई रमता, कटुक वचन मत बोल रे॥
धन जोबन का गरब न कीजै, झूठा पचरंग चोल रे।
सुन्न महल मे दियना बारिले, आसन सों मत डोल रे।।
जागू जुगुत सों रंगमहल में, पिय पायो अनमोल रे।
कह कबीर आनंद भयो है, बाजत अनहद ढोल रे॥

जाति-पांति पूछै न कोई।
हरि का भजै सो हरि का होई॥

छत्तीसगढ़ में कबीरपंथ ने सर्वाधिक प्रभाव निचली या पिछड़ी जातियों पर ही डाला,लेकिन ऐसा नही है कि उच्च या सवर्णों पर कबीरपंथ का प्रभाव पड़ा ही नही। अब तक हुए वंशगद्दी आचार्यों में से एक-दो का विवाह ब्राम्हणी कन्या से होने का उल्लेख मिलता है। किसी ब्राम्हणी कन्या का विवाह किसी कबीरपंथी से होना तभी संभव प्रतीत होता है जब वह ब्राम्हण परिवार स्वयं भी कबीरपंथ का अनुयायी हो। दर-असल कबीरपंथ जब छत्तीसगढ़ में अपने पांव पसार रहा था तब की सामाजिक स्थिति ऐसी थी कि निचली जातियां सवर्णों से प्रताड़ित थीं और जाति-पांति का बंधन बहुत ज्यादा था। इसलिए कबीरपंथ के अनुयायी वही ज्यादा बने। जैसे कि सिदार,ढीमर, तेली,अहीर, लोधी, कुम्हार, रावत,पटवा, साहू,वैश्य,कुर्मी,कोष्टा और मानिकपुरी जिसे पनका या पनिका भी कहा जाता है। इनमें एक दोहा प्रचलित है।

पानी से पनिका भये,बूंदों रचा शरीर।
आगे-आगे पनका गये,पाछे दास कबीर।।

उनकी मान्यता है कि पनिका का उद्भव पानी से हुआ है - उनका शरीर पानी से बना है। पनिका मार्ग का नेतृत्व करते हैं और संत कबीर उनका अनुशरण। लगभग सभी पनिका कबीर पंथी हैं। पनिका शब्द की उत्पत्ति (पानी + का) से हुआ है। जैसा कि जाना जाता है जनमते ही मां ने कबीर को त्याग दिया था। मां ने एक पत्ते से कबीर को लपेटकर एक तालाब के पास छोड़ दिया था। बच्चे के रोने की आवाज सुनकर किसी और मां ने उठा लिया और उसने अपनी संतान की तरह उन्हें पाला -पोसा। क्योंकि वह शिशु पानी की सतह पर मिला था, जो आगे चलकर कबीर के नाम से प्रसिद्ध हुआ, इसलिए पनिका अपने को पनिका (पानी + का) कहने में गर्व का अनुभव करते हैं।


हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या ?
रहें आजाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या ?
जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते,
हमारा यार है हम में हमन को इंतजारी क्या ?
खलक सब नाम अनपे को, बहुत कर सिर पटकता है,
हमन गुरनाम साँचा है, हमन दुनिया से यारी क्या ?
न पल बिछुड़े पिया हमसे न हम बिछड़े पियारे से,
उन्हीं से नेह लागी है, हमन को बेकरारी क्या ?
कबीरा इश्क का माता, दुई को दूर कर दिल से,
जो चलना राह नाज़ुक है, हमन सिर बोझ भारी क्या ?
--------X-------

बैरागी बिरकत भला, गिरही चित्त उदार ।
दुहुं चूका रीता पड़ैं , वाकूं वार न पार ॥1॥
`कबीर' हरि के नाव सूं, प्रीति रहै इकतार ।
तो मुख तैं मोती झड़ैं, हीरे अन्त न फार ॥2॥
ऐसी बाणी बोलिये, मन का आपा खोइ ।
अपना तन सीतल करै, औरन को सुख होइ ॥3॥
कोइ एक राखै सावधां, चेतनि पहरै जागि ।
बस्तर बासन सूं खिसै, चोर न सकई लागि ॥4॥
जग में बैरी कोइ नहीं, जो मन सीतल होइ ।
या आपा को डारिदे, दया करै सब कोइ ॥5॥
आवत गारी एक है, उलटत होइ अनेक ।
कह `कबीर' नहिं उलटिए, वही एक की एक ॥6॥

-------X------------

अरे दिल,
प्रेम नगर का अंत न पाया, ज्‍यों आया त्‍यों जावैगा।।
सुन मेरे साजन सुन मेरे मीता, या जीवन में क्‍या क्‍या बीता।।
सिर पाहन का बोझा ल‍ीता, आगे कौन छुड़ावैगा।।
परली पार मेरा मीता खडि़या, उस मिलने का ध्‍यान न धरिया।।
टूटी नाव, उपर जो बैठा, गाफिल गोता खावैगा।।
दास कबीर कहैं समझाई, अंतकाल तेरा कौन सहाई।।
चला अकेला संग न कोई, किया अपना पावैगा।

---------------X----------

रहना नहीं देस बिराना है।
यह संसार कागद की पुडि़या, बूँद पड़े घुल जाना है।
यह संसार कॉंट की बाड़ी, उलझ-पुलझ मरि जाना है।
यह संसार झाड़ और झॉंखर, आग लगे बरि जाना है।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, सतगुरू नाम ठिकाना है।


रचना स्त्रोत
1-छत्तीसगढ़ में कबीरपंथ का ऐतिहासिक अनुशीलन-डॉ चंद्रकिशोर तिवारी
2-कबीर धर्मनगर दामाखेड़ा वंशगद्दी का इतिहास-डॉ कमलनयन पटेल

वक्त की कीमत

वक्त की कीमत
लोग वक्त से अपना संबंध तरह- तरह से स्थापित करते हैं। रेफरी समय पूरा होने की आवाज लगाते हैं। कैदी सजा का वक्त पूरा करते हैं। इतिहासकार समय के अभिलेख रखते हैं। आवारागर्द वक्त बरबाद करते हैं। आकड़ेबाज वक्त का हिसाब रखते हैं।

लेकिन लोग वक्त से चाहे किसी भी तरह संबद्ध क्यों न हो यह तथ्य बरकरार रहता है कि हम सब को वक्त समान परिमाण में दिया जाता हैं। दिन में 24 घंटे होते हैं, हफ्ते में 168 घंटे ही । उनका सदुपयोग भी कीजिए।

अँधेरा- उजाला ,कम्पन

अँधेरा- उजाला

-फज़ल इमाम मल्लिक
1
उसे अँधेरों से नफऱत थी। वह हमेशा उजालों के बीच रहता.... घरों के दरो-दीवार भी रातों में रोशन रहते.... अँधेरों को वह अपने पास फटकने नहीं देता.....।

पर एक दिन अचानक ही जब उसकी नजऱ अपने भीतर गई तो वह सकते में रह गया.... भीतर अँधेरों का साम्राज्य था.....।

2
अँधेरा उसका मुक्कदर बन चुका था... तंग और तारीक गलियों में उसने आँखें खोलीं और फिर अँधेरे ने उसका साथ नहीं छोड़ा...। उजाले की चाहत उसे भी थी और जब भी वह उजालों की तरफ़ हाथ बढ़ाता, अँधेरा उसके हाथ आता....।

मायूसी और निराशा उसे रोज़ परेशान करती। हालाँकि अँधेरे उसे अब डराते नहीं थे लेकिन उजाले की ललक अब भी उसके अंदर कहीं कौंधती। और एक दिन अचानक उसकी नजऱ अपने भीतर पड़ी तो वह हैरतज़दा रह गया.... उसके भीतर उजालों की एक दुनिया आबाद थी....।


कम्पन
- राम पटवा

अखबार का मुख पृष्ठ। शहर के एक पटाखे की फैक्टरी में भीषण आगजनी।
देर से प्राप्त समाचारों में 45 मृत 23 हताहत।
सेठजी का मुख्यमंत्री / केन्द्राय मंत्रियों से फोन पर विशेष चर्चा।
राजधानियों से जिलाध्यक्ष को तत्काल स्थिति नियंत्रण के आदेश।
सेठजी का लडक़ा गिरफ्तार।
सेठ जी सुबह की प्लेन से दिल्ली रवाना।
दूसरे दिन मृतकों के परिजनों को मुख्यमंत्री सहायता कोष से
10-10 हजाकर रुपयों की आर्थिक सहायता राशि की घोषणा।
मृतकों में 24 बच्चे 13 युवतियां एवं 8 पुरष।
तीसरे दिन फैक्टरी में तालाबंदी।
सेठ जी का लडक़ा जमानत पर रिहा।
जब भी दीवाली आती है और पटाखे की गूंज पुरे शहर में गूंजने लगती है उन मृतकों के परिवारों में आज भी एक कम्पन उनके स्मृतियों में जाग जाती है, और उनकी आंखों के सामने आंधेरा छा जाता है।

अब दीप नहीं जलाते...


              अब दीप नहीं जलाते...
                                     -सूरज प्रकाश

अब नहीं बनाती मां मिठाई दीवाली पर
हम सब भाई बहन खूब रगड़ रगड़ कर
पूरा घर आंगन नहीं चमकाते
अब बड़े भाई दिन रात लग कर नहीं बनाते
बांस की खपचियों और पन्नीदार कागजों से
रंग बिरंगा कंदील
और हम भाग भाग कर घर के हर कोने अंतरे में
पानी में अच्छी तरह से भिगो कर रखे गये
दीप नहीं जलाते
पूरा घर नहीं सजाते अपने अपने तरीके से।

अब बच्चे नहीं रोते पटाखों और फुलझडिय़ों के लिए
जि़द नहीं करते नये कपड़े दिलाने के लिए और न ही
दीवाली की छुट्टियों का बेसब्री से इंतजार करते हैं।

हम देर रात तक बाज़ार की रौनक देखने
अब नहीं निकलते और न ही
मिट्टी की रंग बिरंगी लक्ष्मी,
और दूसरी चीजें लाते हैं
दीवाली पर लगने वाले बाजार से ।

अब हम नहीं लाते खील बताशे,
देवी देवताओं के चमकीले कैलेंडर
और आले में रखने के लिए बड़े पेट वाला
मिट्टी का कोई माधो।
अब हम दीवाली पर ढेर सारे कार्ड नहीं भेजते
आते भी नहीं कहीं से
कार्ड या मिलने जुलने वाले।

सब कुछ बदल गया है इस बीच
मां बेहद बूढ़ी हो गयी है।
उससे मेहनत के काम नहीं हो पाते
वह तो बेचारी अपने गठिया की वजह से
पालथी मार कर बैठ भी नहीं पाती
कई बरस से वह जमीन पर पसर कर नहीं बैठी है।
नहीं गाये हैं उसने त्यौहारों के गीत।

और फिर वहां है ही कौन
किसके लिए बनाये
ये सब खाने के लिए
अकेले बुड्ढे बुढिय़ा के पाव भर मिठाई काफी।
कोई भी दे जाता है।

वैसे भी अब कहां पचती है इतनी सी भी मिठाई
जब खुशी और बच्चे साथ न हों...

बड़े भाई भी अब बूढ़े होने की दहलीज पर हैं।
कौन करे ये सब झंझट
बच्चे ले आते हैं चाइनीज़ लडिय़ां सस्ते में
और पूरा घर जग जग करने लगता है।

अब कोई भी मिट्टी के खिलौने नहीं खेलता
मिलते भी नहीं है शायद कहीं
देवी देवता भी अब चांदी और सोने के हो गये हैं।
या बहुत हुआ तो कागज की लुगदी के।

अब घर की दीवारों पर
कैलेंडर लगाने की जगह नहीं बची है
वहां हुसैन, सूजा और सतीश गुजराल आ गये हैं
या फिर शाहरूख खान,
ऐश्वर्य राय और ब्रिटनी स्पीयर्स
पापा छी आप भी...

आज कल ये कैलेंडर घरों में कौन लगाता है
हम झोपड़ पट्टी वाले थोड़े हैं
ये सब कबाड़ अब यहां नहीं चलेगा।

अब खील बताशे सिर्फ बाजार में देख लिये जाते हैं
लाये नहीं जाते
गिफ्ट पैक ड्राइ फ्रूट्स के चलते भला
और क्या लेना देना।
नहीं बनायी जाती घर में अब दस तरह की मिठाइयां
बहुत हुआ तो ब्रजवासी के यहां से
कुछ मिठाइयां मंगा लेंगे
होम डिलीवरी है उनकी।

कागजी सजावट के दिन लद गये
चलो चलते हैं सब किसी मॉल में,
नया खुला है अमेरिकन डॉलर स्टोर
ले आते हैं कुछ चाइनीज आइटम
वहीं वापसी में मैकडोनाल्ड में कुछ खा लेंगे।
कौन बनाये इतनी शॉपिंग के बाद घर में खाना।

मैं देखता हूं मेरे बच्चे
अजीब तरह से दीवाली मनाते हैं।
एसएमएस भेज कर विश करते हैं
हर त्यौहार के लिए पहले से बने बनाये
वही ईमेल कार्ड
पूरी दुनिया में सबके बीच
फारवर्ड होते रहते हैं।

अब नहीं आते नाते रिश्तेदार दीपावली की बधाई देने
अलबत्ता डाकिया, कूरियर वाला,
माली, वाचमैन और दूसरे सब जरूर आते हैं
विश करने नहीं...
दीवाली की बख्शीश के लिए
और काम वाली बाई बोनस के लिए।

एक अजीब बात हो गयी है
हमें पूजा की आरती याद ही नहीं आती।
कैसेट रखा है एक
हर पूजा के लिए उसमें
ढेर सारी आरतियां हैं।



अब कोई उमंग नहीं उठती दीवाली के लिए
रंग बिरंगी जलती बुझती रौशनियां
आंखों में चुभती हैं
पटाखों का कान फोड़ू शोर देर तक सोने नहीं देता
आंखों में जलन सी मची रहती है।
कहीं जाने का मन नहीं होता,
ट्रैफिक इतना कि बस...

अब तो यही मन करता है
दीवाली हो या नये साल का आगमन
इस बार भी छुट्टियों पर कहीं दूर निकल जायें
अंडमान या पाटनी कोट की तरफ
इस सब गहमागहमी से दूर।

कई बार सोचते भी हैं
चलो मां पिता की तरफ ही हो आयें
लेकिन ट्रेनों की हालत देख कर रूह कांप उठती है
और हर बार टल जाता है घर की तरफ
इस दीपावली पर भी जाना।

फोन पर ही हाल चाल पूछ लिये जाते हैं और
शुरू हो जाती है पैकिंग
गोवा की ऑल इन्क्लूसिव
ट्रिप के लिए।

सफ़रनामा- कारीगरों के बीच 20 साल

             सफ़रनामा- कारीगरों के बीच 20 साल
                                                              -जमील रिज़वी

छत्तीसगढ़ के कोंडागांव बस्तर में स्थित साथी समाज सेवी संस्था का नाम पारम्परिक का के संरक्षण और विकास के यिे किये गए उल्ेखनीय कार्यों के कारण न केव देश में बल्कि विदेश में भी प्रसिद्घ हो चुका है। संस्था से जुड़े कारीगर न सिर्फ भारत में 500 से ज्यादा प्रदर्शनियंा कर चुके हैं बल्कि विदेशों में भी अपनी का का ोहा मनवा चुके हैं। गौरतब बात यह कि साथी संस्था ने यहां तक का सफर बिना किसी सरकारी मदद के तय किया है। आज इस संस्था का वार्षिक टर्न ओव्हर गभग 40 से 50 ाख रुपयों के बीच है।

आज से 20 सा पहे यह संस्था एक छोटे अनाथ बच्चे की तरह पैदा हुई थी। शुरूआती दिनों में चंद ोगों ने इसे समझा और सराहा। कुछ कर गुजरने की लगन से संस्था की मेहनत दिन -ब -दिन रंग ाती गई और आज यह संस्था किसी नाम की मोहताज नहीं है।

बातें शुरू होती हैं 1986 से जब भद्रावती महाराष्ट्र में गांधीवादी समाजसेवी श्री कृष्णमूर्ति मिरमिरा के संस्थान ग्रामोदय संघ में 2 सा के डिपेमा इन सिरेमिक्स में देश के अन्य नौजवान डक़ों के साथ मुरैना मध्यप्रदेश से भूपेश तिवारी, भिाई मध्यप्रदेश (अब छत्तीसगढ़) से भूपेंद्र बंछोर और आजमगढ़ उत्तर प्रदेश से हरीा भारद्वाज ने यहां दाखिा यिा। यहीं पर इन तीनों नौजवानों की दोस्ती हुई और मिरमिरा जी की हिफाजत में रहते हुए महात्मा गांधी और कुमारप्पा के विचारों से प्रेरणा ेकर ये तीनों साथी डिपेमा ेने के बाद देश भर में सिरेमिक्स और कुम्हारी के विकास की संभावनाओं की ताश करते बस्तर चे आए।

कुम्हारपारा कोंडागांव में इन्होंने अपना नया ठिकाना बनाया। तीनों साथी आसपास के कुम्हारों से मिते रहे और उन्हें अपनी बातें बताते रहे। शुरू के ये दिन बड़ी तकीफ वो थे क्योंकि ना तो कोई इनकी बातें सही तौर पर सुनने वाा था और ना ही समझने वाा। हाात यहां तक आ पहुंचे थे कि इन तीनों साथियों के पास की सारी जमा पूंजी भी खत्म हो चुकी थी। बात भूखों मरने तक आ पहुंची थी। ेकिन मजबूत इरादों और कुछ स्थानीय दोस्तों की मदद से तीनों यहां टिके रहे। धीरे-धीरे कारीगर कुछ- कुछ समझने गे और यहीं से इन तीनों का संघर्षपूर्ण सफर शुरू हुआ। अफसोस सिर्फ इस बात का है कि संस्था के एक कर्मठ साथी भूपेंद्र बंछोर आज कारीगरों के बीच नहीं है। एक सडक़ दुर्घटना में उनका देहांत हो गया।
भूपेश तिवारी, साथी समाज सेवी संस्था, कुम्हारपारा कोंडागांव, बस्तर के संस्थापक अध्यक्ष हैं और कपार्ट की गवर्निंग बॉडी के पूर्व सदस्य, केंद्रीय योजना आयोग की जाएंट मशीनरी के सदस्य, छत्तीसगढ़ शासन की टास्क फोर्स फार रूर इन्डस्ट्रियाइजेशन के सदस्य, नेशन अवार्ड कमेटी के सदस्य के रूप में अपना योगदान दे चुके है और इसके आवा वे देश की कई नामी गिरामी संस्थाओं से सक्रिय रूप से जुड़े हुए हैं।


यह संस्था दक्षिणी छत्तीसगढ़ के तीन जिों बस्तर, नारायणपुर और कांकेर के 140 गांवों के करीब 2000 कारीगर कुनबों के यिे काम कर रही है। कारीगरों में सामुदायिक विकास, कारीगरों को संगठित करना, उद्यमिता विकास, नेतृत्व विकास, एक्सपोजर, तकनीक और औजारों का विकास, डिजाइन डेवपमेंट और उत्पादन क्षमता में बढ़ोतरी, स्थानीय से ेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक विपणन, काम के यिे पूंजी की व्यवस्था, जैसे मुद्दों पर साथी समाज सेवी संस्था का हमेशा ध्यान रहा है।


साथी की मदद ेकर पिछे 20 सा में 5000 से भी ज्यादा कारीगर पूरी तरह दक्ष हो चुके हैं। और आज स्वतंत्रतापूर्वक अपना रोजगार कर रहे हैं। बस्तर की विभिन्न कलाओं और कलाकारों को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक विशेष मुकाम तक पंहुचाने के साथ संस्था ने 1994 से अब तक 200 स्वसहायता समूहों का गठन करवाया है। साथी की निगरानी में सभी स्वसहायता समूह अपना अपना काम कर रहे हैं। कारीगरों के स्वसहायता समूह के सदस्य आपस में मि बैठ कर आर्थिक गतिविधियों पर काम कर रहे हैं जबकि ग्रामीण महिाओं के स्वसहायता समूह गांव में ोंगों को कम ब्याज दर पर उधार रकम देकर उनकी मदद कर रहे हैं। नगरनार क्षेत्र में 40 नए स्वसहायता समूह ग्रामीण पर्यटन से जुड़े हुए हैं। इन क्षेत्रों में आने वो सैानियों के यिे ये स्वसहायता समूह काफी मददगार साबित हुए हैं। इसके आवा साथी की मदद से पांच या सात कारीगरों के अग-अग द भी बने हुए हैं जो आपस में मि बैठ कर काम करते हैं।


ग्रामीणों में नेतृत्व के विकास के यिे साथी संस्था ने समय-समय पर युवा सम्मेन आयोजित कर खे प्रतियोगिताएं आयोजित करवाईं, कारीगरों को राष्ट्रीय कारीगर पंचायत, बस्तर शिल्पी संरक्षण संगठन जैसे मंचों से जुडऩे में मदद की।
साथी का विश्वास कम्यूनिटी ओनरशिप, कम्यूनिटी पार्टिसिपेशन, कम्यूनिटी डेवपमेंट और कम्यूनिटी स्पिरिट पर सबसे ज्यादा रहा है। साथी संस्था ने कारीगरों के यिे कई कम्यूनिटी सेंटर अपनी निगरानी में शुरू किये। जब कारीगर इन कम्यूनिटी केन्द्रों को खुद चा पाने में सक्षम हो गए तब संस्था ने उनका एक समुदाय बनाकर पूरे तौर पर अपना दख हटा कर कम्यूनिटी केंद्र का पूरा माकिाना हक कारीगरों के समुदाय के हाथों सौंप दिया। बीटीएसी कुम्हारपारा, नगरनार, गोावंड, करनपुर, नारायणपुर, उमरगांव और किड़ईछेपड़ा जैसे अनेक कम्यूनिटी सेंटर के माकि कारीगर खुद हैं और बखूबी अंजाम दे रहे हैं।

तकनीकी विकास के अंतर्गत उपयोगी औजार और तकनीकी विकास के यिे साथी संस्था ने मेपकास्ट, आई आई टी दिल्ी, आई आई टी मुम्बई, रीजन रिसर्च ेब भोपा, नेशन मेटर्जी ेब जमशेदपुर, महात्मा गांधी इंस्टिट्यूट ऑफ रूर इंडस्ट्रियाइजेशन, सेंट्र गस एंड सिरेमिक्स रिसर्च इंस्टिट्यूट खुर्जा की मदद ेकर कारीगरों का काम आसान बनाया है।
डिजाइन डेवपमेंट के यिे साथी संस्था ने बहुत बारीकी से काम किया है। भारतीय और विदेशी डिजाइनर्स के
साथ साथी कारीगरों की कार्यशाा से बेहतरनतीजे सामने आए हैं। संस्था के कारीगरों ने सन् 2000 में गेरिट रिटवेल्ड एकेडमी एम्स्टर्डम हॉेंड के 50 डिजाइन स्टुडेंट के साथ, 2002 एवं 2004 में इटायिन डिजाइनर एदुआर्दो पेरी के साथ 60 कारीगरों की चार कार्यशाा, 2004 में नीदरैंड की 2 डिजाइन स्टुडेंट स्टिना और एग्नेस एवं 2005 में इंडियन इन्टिट्यूट आफ क्राफ्ट एवं डिजाइन जयपुर के विद्घार्थी हुसैन और राजेश के साथ महत्वपूर्ण कार्यशााएं की हैं। 2006 में स्वीडन के दस डिजाइन स्टुडेंट के साथ हुई कार्यशाा के अतिरिक्त इंटेेक्चुअ प्रापर्टी राइट्स के तहत निफ्ट हैदराबाद एवं साथी के 100 कारीगरों की एक महत्वपूर्ण कार्यशाा साथी ने आयोजित की थी।



इन कार्यशााओं के जरिये साथी के कारीगरों ने नये डिजाइनों का विकास किया और बोनिया इटी में हुए साना फेयर 2007 में इसका प्रदर्शन हुआ। साथी संस्था ने अपने कारीगरों के साथ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गभग 5 से 6 का प्रदर्शनियों में भाग यिा। साथी ने आइफेट, सीटीएम, अल्ट्रा क्वाटिा जैसे संगठनों से जुडक़र कारीगरों के यिे हाइजीनिक वर्किग कंडीशन के यिे भी प्रयास किया है। साथी को डीएसटी, कापार्ट, यूएनडीपी, डीसीएच और केव्हीआई सी जैसे संस्थानों के साथ भी काम करने का अच्छा खासा अनुभव रहा है।

साथी समाज सेवी संस्था का सबसे अधिक सराहनीय काम 2003 में तब रहा, जब संस्था ने एक सहयोगी संस्था रायपुर राउंड टेब की मदद से जरूरतमंद ग्रामीण तबकों एवं कारीगरों के बच्चों के यिे एक स्कू साथी राउंड टेब गुरूकु शुरू किया। यह स्कूल आज 170 छोटे बच्चों को गुणवत्तापूर्ण और रोजगारपरक शिक्षा देकर एक नया नजरिया दे रहा है।
साथी संस्था के केम्पस में पंहुचने पर खुद-ब-खुद इस बात का अंदाज हो जाता है कि संस्था के सदस्य और कारीगरों के बीच किस कदर बेहतरीन तामे है, देखकर हैरानी होती है कि आज से बीस सा पहे अगर ये तीन साथी हिम्मत नहीं जुटा पाते तो आज बस्तर के इन करीगरों को न तो अपनी हूनर को दुनिया भर में प्रचारित करने का अवसर सुलभ होता और न ही इस क्षेत्र में आपसी तामे और भाईचारे का ये नजारा देखने को मिता।

प्रकृति के साज पर धडक़ता शहर- शिमला


      प्रकृति के साज पर धडक़ता शहर-  शिमला
                                                                   - गुरमीत बेदी

देवदार के पत्तों पर ठिठकीं पानी की बूंदें गातार इस बात की गवाही दे रही हैं कि इस शहर में झमाझम बारिश होकर हटी है। पहाड़ के सीने पर उगी ा टीनों वाी छत्तों से भी पानी की बूंदे टपाटप नीचे गिर रही हैं। थोड़ी देर पहे यही छत्तें प्रकृति का एक अनूठा साज बनी थीं, जिन पर पड़ती बारिश की बूंदें एक नैसर्गिक राग उत्पन्न कर रहीं थीं। ेकिन अब यह साज भी शांत है और राग भी। अबता बादों के झुंड शहर के कैनवस पर एक अदभुत काकृति की संरचना में गे हैं। गता है जैसे आसमान में कोई अनाम काकार अपनी तूकिा से प्रकृति के चेहरे पर नए रंग भर रहा हो।

बादों के झुण्ड जहां-तहां दरख्तों से पिटे हैं, घाटी में टह रहे हैं और कभी-कभी तो इतना नीचे आ जा रहे हैं कि रिज पर चहकदमी कर रहे सैानी बादों का परिधान ओढ़े प्रतीत हो रहे हैं। इन बादों के भी कई चेहरे हैं। कहीं पर तो बादों के टुकड़े सफेद झक्क रूई जैसे हैं तो कहीं पहाड़ की ओट से झंाकते सूरज की किरणों का स्पर्श पाकर ये सुरमई रंग में रंगे जा रहे हैं। कहीं पर ये बाद गहरे चॉकेटी रंग में रंगे हैं तो कहीं इंद्रधनुषी चोा ओढ़ते दिख रहे हैं।

यह शिमा है ! यानि पहाड़ों का दि! यहां आने वाा सैानी जब हिमाची ोकगीत की यह पंक्तियां- 'म्हारे पहाड़ा रा दि शिमा Ó गुनगुनाता है तो हवाएं भी इस गीत की य पर ता देती महसूस होती हैं। यहां की फिजाओं में अभी भी अंग्रेजों के दौर के कई किस्से गूंजते हैं और 'शिमा समझौतेÓ की इबारतें हवाओं के थपेड़ों के साथ-साथ शहर में तैरती हुई नजर आती हैं। शहर की ऐतिहासिक इमारतों में एक गौरवमयी अतीत की पदचाप दर्ज है तो देवदार, ओक, बुरांस और फर के गगनचुम्बी पेड़ शिमा के उतार-चढ़ाव की घुमावदार कहानियां सुनाते हैं। शिमा हिमाच का दि भी है, धडक़न भी और जज्बात भी। हिमाच के तमाम रंग अपने में समेटे यह एक घु हिमाच है। प्रकृति के कितने रूप हो सकते हैं और प्रकृति कैसे बनाव-सिंगार करती है, यह शिमा आकर देखा जा सकता है। देवदार के पेड़ हवा में कैसे फरफराते हैं, बर्फ से कैसे द जाते हैं और कैसे मौन तपस्वी बन जाते हैं, यह भी शिमा में आकर महसूस किया जा सकता है। हिमाच में अग-अग जिों का कैसा पहनावा है और कैसी-कैसी बोयिां हिमाच की फिजाओं में तैरती हैं, यह देखना सुनना जरूरी हो तो शिमा के मा रोड पर घूम घूम ीजिए।

शिमा का हर मौसम प्रकृति के फक्कड़पन का साक्षी है। शिमा की गर्मियां हों, शिमा की बरसातें या शिमा की बर्फ, शिमा हर रूत में हसीन गता है। हिमाच की नैसर्गिक मुस्कान कैसी है, यह शिमा के किसी भी कोने में खड़े होकर आप देख सकते हैं। कोई पहाड़ी युवती कैसे उन्मुक्त भाव से खिखिाती है, शिमा का रिज इसका आईना बनता है। शिमा ने इतिहास के अनेक उतार-चढ़ाव देखे हैं, कई पुरानी और आीशान इमारतें इसकी गवाही देती हैं। पीठ पर ादे बोझ को लेकर ोग किस तरह पहाड़ नापते हैं, शिमा इसका जीता जागता सबूत है। कोई बुजूर्ग ाठी टेके किस तरह सचिवाय के गेट पर खड़ा हांफता है और किस तरह निराशा की परतें उसकी झुर्रियों पर चमकने गती हैं, यह भी शिमा का एक चेहरा है। सीढि़यों पर टिका यह शहर रात को किस तरह जुगनुओं सा टिमटिमाता है, इसे शिमा के एक अग रूप में देखा जा सकता है। देवदार के घने जंगों के साथ-साथ कंकरीट का कैसा घना जंग यहां उग आया है और बेतरतीव निर्माण ने प्रकृति की गाों को कैसी खरोंचे डाी हैं, शिमा इसका भी साक्षी है।

चढ़ाई-उतराई से भरपूर शिमा में घरों से घर सटे हैं और छतों से छतें सटी हैं ेकिन शिमा का यह चेहरा इसी सदी की देन है। पहे ऐसा नहीं था। शिमा तो पहे महज एक गांव था, जिसका नाम था 'श्यामाÓ। फिर श्यामा से अपभं्रश होकर इसका नाम 'शुमाहÓ पड़ा जो एक अर्से तक शिमाह रहने के बाद फिर शिमा हो गया। शिमा को बसाने का श्रेय किसे जाता है, इस बारे में इतिहासकार एकमत नहीं हैं। कुछ इतिहासकारों के अनुसार, शिमा पर सर्वप्रथम एक अंग्रेज अधिकारी की नजर पड़ी थी, जो सन 1817 में सपाटू से कोटगढ़ के एि बरास्ता शिमा से होकर गुजरा था। कुछ इतिहासकार यह श्रेय उन जिराल्ड बंधुओं को देते हैं जो सन् 1817 में शिमा-जाखू मार्ग से सतुज घाटी के भू-गर्भ संबंधी सर्वेक्षण के एि किन्नौर गए थे। इन दोनों बंधुओं में से एक एैक्जैंडर जिराल्ड ने 30 अगस्त 1817 को अपने डायरी में खिा था, 'हम जाखू टिब्बा के इस ओर रात को रहे। वहां एक फकीर राहगीरों को पानी पिाता है ... वह फकीर तेजस्वी है तथा अपने जिस्म पर मात्र चीते की खा ओढ़े रहता है। इस निर्जन, भयावह और घने जंग में रहने वाा वह एक मात्र मनुष्य है ... जाखू एक अत्यंत सुहावना स्थ है और यहां से सम्पूर्ण घाटी का विहंगम दृश्य दिखाई देता है। शिमा से जाखू तक का मार्ग उबड़-खाबड़ है और जंग से होता हुआ जाता है।Ó इस डायरी का वर्णन 'शिमा पास्ट एण्ड प्रजैंटÓ में सविस्तार किया गया है।

इसी सिसिे में एक और घटना प्रचति है, जिस बारे में कई विद्वान का एक ही मत हैं। यह बात 1820 की है। घुड़सवार कैप्टन कैनेडी और उसके साथी इस क्षेत्र में टह रहे थे कि उन्होंने दूर देवदार के घने जंग में अजीब किस्म का धुआं उठते देखा। कैनेडी ने अपने साथियों के साथ उस घुएं की ओर कूच किया। वहां पहुंचने पर एक सफेद जटाधारी साधू को उन्होंने समाधिस्थ पाया। कैनेडी उस साधू के चेहरे पर दमक रहे तेज से बहुत प्रभावित हुआ और समाधि टूटने का इंतजार करने गा। शाम को जब साधू की समाधि टूटी तो अंग्रेज अधिकारियों को अपने सामने खड़ा पाकर साधू के होठों पर मुस्कान फै गई। बोा, 'आप आ गए। मैं आपका ही इंतजार कर रहा था। जल्द ही हजारों ोग आएंगे और बहुत से मकान बनेंगे ... इस जगह पर ोग खुशियां मनाएंगे।Ó इतना कहने के बाद साधू अपना कमण्ड उठाकर अज्ञात दिशा को चा गया। उस साधू को फिर कभी यहां नहीं देखा गया। ेकिन उसकी भविष्यवाणी सच हुई। शिमा गांव से शहर बना और शहर से राजधानी। अंग्रेजों ने तो इसे अपनी ग्रीष्मकाीन राजधानी भी बनाया। हिमाच की तो यह सदाबहार राजधानी है।

इतिहास के पन्ने पटें तो माूम होगा कि शिमा को सजाने और संवारने का श्रेय अंग्रेजों को जाता है। सर एडबर्ड बक के अनुसार, सन 1819 में सहायक राजनैतिक अधिकारी ैफटीनैंट रौस ने शिमा में लकड़ी और घास-फूस से झौपड़ी बनाई। रौस के बाद मेजर कैनेडी इस क्षेत्र का राजनीतिक उत्तराधिकारी हुआ। उसने सर्वप्रथम 1822 में यहां कड़ी और पत्थर से निर्मित पहा पक्का मकान बनाया, जिसे कैनेडी हाऊस के नाम से जाना गया।

फिर तो कई अंग्रेज अधिकारी यहां के सम्मोहन में बंधे और मकान बनाकर यहीं बस गए। 19वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में काका-शिमा रे मार्ग का निर्माण हुआ और 9 नवम्बर, 1906 को पही रेगाड़ी छुक-छुक करती हुई शिमा की हसीन वादियों में पहुंची। अंग्रेजों के समय में ही यहां कई सुरंगों का निर्माण हुआ। इन सुरंगों का वजूद न केव आज भी कायम है, बल्कि कई सैानी तो शिमा को 'सुरंगों की नगरीÓ का खिताव भी दे देते हैं।

शिमा का मुख्य आकर्षण यहां के गिरजाघर भी हैं। ये गिरजाघर मात्र प्रार्थनाय ही नहीं हैं, अपितु काकृति का भी बेमिसा नमूना हैं। शिमा का पहा कैथोकि चर्च ोअर बाजार के पश्चिमी किनारे पर सन् 1850 में निर्मित हुआ था। इसके निर्माण का श्रेय मिस्टर एफई जेम्स और जे नैश को जाता है। 1880 में गोर्डन केस्ट नामक स्टेट ने इस गिरजाघर को और भव्य बनाने के एि 40 हजार रुपए दिए। इसी स्थ पर 1885 में एक अन्य भव्य चर्च का निर्माण हुआ, जिस पर उस समय अस्सी हजार रुपए व्यय हुए। इसके निर्माण का श्रेय ार्ड रिपन को जाता है, जो स्वयं कैथोकि थे। ार्ड रिपन ने इस चर्च के निर्माण में व्यक्तिगत रूचि ेकर इसका डिजायन ंदन के मशहूर वास्तुकार मिस्टर मैथ्यूज से तैयार करवाया। अत्यंत भव्य कारीगरी की जीवंत मिसा यह गिरजाघर सहज ही राहगीरों को अपनी ओर आकर्षित करता है। शिमा के रिज मैदान में स्थित गिरजाघर तो अपनी भव्य निर्माण शैी औेर ंबे-ंबे बुर्जों की वजह से शिमा की शान कहाता है और देश-विदेश में अत्याधिक ख्याति अर्जित कर चुका है। आप किसी भी कोण से शिमा की तस्वीर उतार ीजिए, यह गिरजाघर आपको गर्व से खड़ा दिखेगा। शिमा का ही एक आकर्षण यहां का रिज है। गर्मियां हों या सर्दियां, रिज पर भरपूर चह- पह मिेगी। जब शिमा बर्फ की चादर ओढ़ता है, तब भी रिज पर सन्नाटा नहीं बजता। ोग गुदगुदाती बर्फ पर चने का रोमांच ेते हैं। सैानी बर्फ के गो बनाकर एक-दूसरे पर फेंकते हैं। हनीमून मनाने आए जोड़े बांहों में बाहें डो रिज पर मस्ती से घूमते हैं। सारी गयिां वीरान होने पर भी रिज देर तक आबाद रहता है। शिमा में तो यह कहावत भी प्रचति है कि अगर किसी को घर जाकर ढूंढने की जहमत नहीं उठानी हो तो उसे शााम को रिज पर मि ें। रिज में तो हर कोई तफरीह मारने को बेचैन रहता है। रिज दि वाों का है, जैसे दि वाों की है दिल्ी। हो भी क्यों न ? हमारे पहाड़ों का तो दि ही शिमा है। 'म्हारे पहाड़ा रा दि शिमाÓ गीत की पंक्त्यिां कोई पहाड़ी युवती शिमा आकर यूं ही नहीं गुनगुनाती। शिमा में कोई आकर्षण तो जरूर है जो देसी, विदेशी सैानियों को यहां खींच-खींच ाता है। शिमा की फिजां में कोई ऐसा सम्मोहन जरूर है जो सैानी यहां आते ही दुनियावी चिंताओं को भूकर मस्ती के आम में खो जाते हैं। शिमा अमस्त फक्कड़पन का नाम है, प्रकृति के फक्कड़पन की तरह। शिमा का अपना एक अग कबीराना अंदाज है ...।

शिमा महज एक पर्यटन स्थ ही नहीं, अपितु ऐतिहासिक इमारतों की नगरी भी है। समय-समय पर अग्निकांडों में यहां की ऐतिहासिक इमारतें खाक होती रहीं हैं ेकिन जो सामत बची हैं, वे अभी तक चर्चा में हैं। ये तमाम इमारतें अंग्रेजों की यादें संजोए हुए हैं और इनमें वायसरीग ाज, स्नोडन, रिट्रीट, गेयटी, गोस्टन कास और वार्नस कोर्ट को गिना जा सकता है। रेनेसां का का प्रसिद्घ भवन वायसरीग ाज सम्भवत: शिमा का सबसे विशा भवन है। इस भवन का दूसरा उदाहरण इग्ैंड में स्कोच हिडरो है। प्रख्यात वास्तुकार हैनरी अरविन तथा एचएल कौ ने भी इसे स्कोच हिडरो का दूसरा रूप माना था। 1888 में बनी यह इमारत आीशान तो है ही, इसका ऐतिहासिक महत्व भी है। इस भवन में ार्ड डफरन ने प्रथम वायसराय के रूप में पदार्पण किया था। जब वायसराय शिमा में होते तो इस भवन पर यूनियन जैक हराता था। शिमा के ोग इसे ाट साहिब की कोठी भी कहते थे। गांधी-नेहरू से ेकर जिन्नाह तक अनेक कांग्रेसी और मुस्मि ीगी नेताओं से यहां अंग्रेज साम्राज्य के अफसरों ने परामर्श किया था। शिमा के पर्यटन स्थों में कुफरी, नादेहरा, वाइल्ड फावर का नाम यिा जा सकता है। समुद्रत से 2623 मीटर की ऊंचाई पर स्थित कुफरी की शिमा से दूरी 16 किोमीटर है। गर्मियों में यहां चारों तरफ हरियाी बिछी नजर आती है। शिमा से 23 किोमीटर दूर नादेहरा विश्व के सबसे उंचे गोल्फ मैदान के एि प्रसिद्घ है। शिमा से 13 किोमीटर दूर वाइल्ड फावर की खूबसूरती भी बेमिसा है।

हाथा - दीपावली का प्रमुख लोक चित्र

हाथा -  दीपावली का प्रमुख लोक चित्र

हाथा (एक प्रकार का भित्ती चित्र) छत्तीसगढ़ में दीपावली के समय दीवारों पर बनाया जाने वाला रंगोली, मांडना जैसी ही एक लोक कला है। हाथा देने के पीछे लोक मान्यता है कि इससे घर में आई फसल और पशु धन को किसी की नजर नहीं लगती और वे सुरक्षित रहते हैं। चूंकि दीपावली के समय ही फसल कट कर घर में आ चुकी होती है अत: उसकी सुरक्षा भी आवश्यक होती है। हाथा देने की परंपरा लक्ष्मी पूजा के बाद दूसरे दिन गोवर्धन पूजा की सुबह तथा मातर के दिन और कीर्तिक माह में जेठौउनी (देव उठनी) तक बनाया जाता है। गांव की रऊताईन (राऊत महिलाएं) अपने- अपने मालिकों (दाऊ या गौटिया) के घर दो- तीन के समूह में आशीष देते हुए गीत गाती हुई जाती हैं और दीवारों पर हाथा देने की रस्म पूरा करती हैं। हाथा देने के लिए चावल आटे का इस्तेमाल किया जाता है, तथा उसमें खूबसूरती लाने के लिए वे रंगों का भी प्रयोग करती हैं।

आजकल तो कृत्रिम रंग का उपयोग होने लगा है, जबकि पहले गेरू मिट्टी तथा पेड़ों के छाल और पत्तों से रंग बनाए जाते थे। जब रऊताईन हाथा देने का कार्य संपन्न कर लेती है तब घर मालिकिन उन्हें चावल, दाल, सब्जी, नमक, मिर्च और दीवाली पर बने पकवान जिसमें पूड़ी और बड़ा प्रमुख होता है, आदि भेंट स्वरूप उन्हें देती हैं। इस परंपरा का हाथा नाम क्यों पड़ा इस पर यदि विचार करें तो यही समझ में आता है कि चूंकि हाथा, हाथ की उंगलियों से दिया जाता है इसलिए इसका लोक नाम हाथा पड़ा है। राऊत महिलाएं अपनी दो उंगलियों को रंग और चावल के आटे में डूबो- डूबो कर विभिन्न आकृतियां बनाती हैं। अब तो हाथा देने के लिए वे बबूल की डाली का उपयोग करने लगी हैं, जिसका उपयोग गांव में दातौन के लिए किया जाता है। (यह दांत के लिए जड़ी-बूटी का काम करता है नीम के डंठल की तरह) हाथा की आकृतियां भिन्न भिन्न होते हुए भी उनमें एक समरसता होती है, वे मंदिर की आकृति में ऊपर की ओर नुकीले आकार में ढलती जाती हैं। परंतु इसके लिए कोई एक नियम नहीं होता। हर कलाकार को स्वतंत्रता होती है कि वह अपनी कला का खूबसूरती से प्रदर्शन करे।

कुछ लोग हाथा देना को मांडना और रंगोली या अल्पना से तुलना करते हंै पर वास्तव में न ये रंगोली है न मांडना और न ही अल्पना, उसका एक प्रकार जरूर कह सकते हैं क्योंकि इस तरह दीवरों, आंगन तथा पूजा स्थान पर रंगों से आकृति बनाए जाने की परंपरा भारत के लगभग हर प्रदेश में कायम हैं, जो किसी न किसी रूप में सुख समृद्धि तथा टोटके के रूप में विद्यमान हैं। हाथा घर के कुछ प्रमुख स्थानों पर ही दिए जाते हैं- जैसे तुलसी चौरा में घी का हाथा दिया जाता है। जिस कोठी में धान रखा जाता हैं वहां और गाय कोठे में भी हाथा देना जरूरी होता है। घर के प्रमुख दरवाजे में भी एक हाथा दिया जाता है। एक हाथा रसोई घर में, जिसे सीता चौक कहा जाता है, देना जरूरी होता है। सीता चौक को पवित्र माना जाता है और लोगों की ऐसी धारणा है कि जिस स्थान पर सीता चौक बनाया जाता है वह स्थान पवित्र हो जाता है, इसीलिए पूजा के स्थान पर यह आकार बनाया जाता है। इसे पवित्र मानने के पीछे भी एक कथा जुड़ी हुई है- कहते है कि पावर्ती जब शंकर भगवान को प्रसन्न करने के लिए तपस्या करती है और पूजा के लिए फूल सजाकर चौक पूरती है , उस चौक ( अल्पना) का आकार इसी सीता चौक की तरह था। यद्यपि इसका नाम सीता चौक क्यों पड़ा इसके बारे में अभी कोई स्पष्ट जानकारी नहीं मिल पाई।

गोवर्धन पूजा के दिन राऊत सोहई बांधने के पूर्व रसोई में बने घी के हाथा के ऊपर, गाय का गोबर साथ में नई फसल का नया धान लेकर, दोहा पारते (कहते) हुए नाचते- गाते आते हैं और उस हाथा के ऊपर गोबर तथा धान का गोला चिपका कर अपने मालिक की सुख समृद्धि की कामना करते हुए आशीष देते हैं। इसी समय राऊतों को भी नारियल कपड़ा आदि उपहार में दे कर उनका सम्मान करने की परंपरा है। इसके बाद गांव के सब राऊत मिलकर सोहई (एक प्रकार का हार जो पशुओं के गले में बांधने के लिए दीपावली के अवसर पर ही बनाएं जाते हैं) बांधने चले जाते हैं। दीपावली में गोवर्धन पूजा के दिन खास बात यह है कि इस दिन लगभग सभी कार्य राऊत रऊतईन द्वारा ही संपन्न होता है।

हाथा बनाने के साथ गोवर्धन पूजा के दिन रऊताईन, गाय कोठे में दरवाजे के पास गोबर से प्रतीक स्वरूप देवता बनाती हैं, घर मालकिन जिसकी विधि विधान के साथ पूजा करती है और उसके गाय उसे रौंदते हुए कोठे में प्रवेश करती है। इन सबके साथ गाय की पूजा करके नए चावल की खिचड़ी खिलाना गोवर्धन पूजा के दिन का सबसे प्रमुख अंग होता है, घर वाले गाय को खिचड़ी खिलाने के बाद ही अन्न ग्रहण करते हैं। (संकलित- उदंती.com)

जीवित पितरों से बढ़ती दूरियाँ


जीवित पितरों  से  बढ़ती दूरियाँ
- डॉ. राकेश शुक्ल
बागबां फिल्म को भूले न होंगे आप। नयी सदी की कुछ वर्ष पहले आई अमिताभ बच्चन और हेमामालिनी अभिनीत यह फिल्म एक पारिवारिक प्रस्तुति थी। इसमें एक मध्यमवर्गीय परिवार के चार बेटे अपने माता व पिता को बोझ समझकर उन्हें अलग- अलग जीने को विवश कर देते हैं। पहले इस तरह की कोई घटना होने पर इसकी समाज में दूर- दूर तक चर्चा होती थी। इसे अनहोनी और कलयुग का लक्षण कहा जाता था। बीसवीं शताब्दी के सातवें दशक तक सामाजिक निंदा एक बड़ी प्रताडऩा थी। अपनों की निंदा के भय से सयाने सदस्यों की उपेक्षा की कुछ घटनाएं अघटित रह जाती थीं, तो कई दुर्घटनाओं का अंत बिना समय गंवाए मेल- मिलाप में होता था।

सिर्फ तीन सौ चूल्हे- चौकों वाले मेरे अपने गांव में फिल्म बागबां की पटकथा अब सत्यकथा बन चुकी है। अनेक परिवारों में मां- बाप को अलग रसोईघर का उपहार मिला है, तो कुछेक में घर निकाले या उदासीनता की व्यवस्था है। अनहोनी या अपवाद के दिन नहीं रहे। सामाजिक खोखलेपन के मरे हिुए सांप ने हमें अच्छी तरह लपेट लिया है। पर परीक्षित बनने की योग्यता हममें नहीं है।

पिछले दशकों में भारत ने तरक्की की जोरदार छलांग लगायी है, तो भारतीय समाज पीछे कैसे रहता। जोरदार छलांग के बड़े मायने हैं। कुछ मायनों में इससे समाज अस्त- व्यस्त हो गया। कारण यह कि छलांग स्वाभाविक नहीं थी, न इसकी तैयारी का कोई प्रारूप था। सीमा लांघने तथा दूसरों से हटकर नया करने की इच्छा से प्रेरित थी छलांग। परिवर्तनशील समाज के नये मानकों का तर्क देकर इसका डंका पीटा गया। अतिक्रामक औतर आक्रमक आवेशों से भरी छलांग ने समाजशात्रियों को भी हैरान कर दिया। सामाजिक ढांचा टूटा- फूटा, सास्कृतिक गिरावट के नवीन उच्चांक बने और धार्मिक पर्यावरण के अंधेरों को सुविधाजनक व्याख्याओं के वस्त्रों से ढंकने की कोशिशें हुईं।

संटुक्त परिवार टूटे, कुटुम्ब की जगह परिवार ने ली। एकल परिवार की व्यस्था ने जीने के अलावा सोचने की प्रणाली प्रभावी ढंग से बदलकर रख दी। अहं आत्मग्रस्तता अस्तित्व की ंिचताएं इतयादि बढ़ गईं। हर किसी के लिए अपना- अपना राग- विराग महत्वपूर्ण हो गया। इसने समाज के प्रभुत्व और सामाजिक विधानों को कमजोर किया, फलत: समाज- निंदा का भय कमतर होता गया। घर की जोरू का झोंटा पकड़ सबक सीखाना बेडरूम के भीतर का मामला था। लेकिन इससे आगे बढ़ते हुए बूढ़े अशक्त अभिभावकों को जबरिया बाहर खदेडऩे में हिचक खत्म हो रही है। विचित्र बात है कि जिस भारत- भूमि पर ईश्वर की महान कल्पना हीं त्वमेव माता च पिता... से शुरू होती है वहां बुजुर्गों को प्रताडि़त या अपमानित करने के किस्से बढ़ते ही जा रहे हैं।

सामाजिक विकास में जातीय संगठनों का खासा योगदान है । उन्होंने सामुदायिक मंगल भवन, पाठशला आदि खड़े किए। अब ये धन जमा कर रही हैं वृद्धाश्रमों के लिए। सभी जातीय ईकाइयां मानने लगी हैं कि बुजुर्गों के प्रति उदासीनता की व्याधि और बढ़ेगी, तब आश्रम विकल्प होंगे और हेल्प लाइन का काम करेंगे।

गत दिनों तर्पण का महापर्व सम्पन्न हुआ। गुजरे हुए पिता, पितामह आदि की तस्वीरों को पोंछा सया, नयी माला डाली गयी। प्रात: स्नान के बाद सफेद फूल, चावल, जल, धूप- दीप, कुश चंदन आदि संजोए गए। पेटी से बाहर निकाल पहनी गई धोती। पुष्पांजलि, श्रद्धांजलि, दान- दक्षिणाओं, अर्पण- तर्पण में व्यस्त रहे बेटे। कपिला ही नहीं, काग व कुत्ते भी श्रद्धा- पात्र बने। सारी व्यस्तता के बीच बेटे ने सथियों से मोबइल पर हैलो किया , किंतु बाजू के कमरे में पलंग पर पड़े पिता से उनकी तबियत या रात की नींद के बारे में नहीं पूछा। उनकी टिमटिमाती आंखों में कातरता बढ़ती रही। दवा सिरहाने रखी थी, लेकिन गिलास भर पानी न मिलने से ले नहीं पाए । बहू जुटी थी जल्दी- जल्दी पितरों के लिए खीर- पूड़ी बनाने में, सामाजिकाता के नाम पर पांच- सात करीबियों को भोजन कराना जरूरी जो था।

पश्चिम की नकल करते- करते हम बंद गली तक पहुंच चुके हैं। चिंता यह नहीं कि समाज परिवर्तनशील है या परिवर्तनकामी है। चिंतित करने वाला पहलू यह है कि समाज एक सिरे से दरक रहा है, घिस रहा है, तो दूसरे सिरे से नवरचना क्यों नहीं हो रही है?

सत्तर पार का बसंत स्वयं बुजुर्गों के लिए सुखकारी नहीं होता। कोई उच्चैश्रवा है, तो कोई सूरदास के पथ पर अग्रसर। कोई बोलना चाहता है तो बस हवा निकलती है। स्मृतियों व अनुभवों का कोष उनके पास है, लेकिन जानते हैं कि वे आप्रासंगिक हैं, पीछे छूट चुके हैं। वे सौंदर्य- पिपासु समाज में ड्राईंगरूम की शोभा को ग्रहण लगाए बैठे हैं? भारी संख्या में वृद्धजन मृत्यु से पूर्व फिलर का जीवन जी रहे हैं। काया, माया से विरक्त दुर्भाग्य की शैय्या पर पड़े भीष्मों को औषधि से अधिक अपनेपन की आवश्यकता है। दिवंगत हो चुके प्रियजनों की श्राद्ध- क्रियाओं के प्रति जागरूक भद्रजन क्या जीवित पितरों के लिए थोड़ा और भावुक होना पसंद करेंगे?

ई- लाईब्रेरी- किताबों की बदलती दुनिया

 ई- लाईब्रेरी-

किताबों की 
बदलती दुनिया

- नीरज मनजीत

क्या आनेवाले वर्षों में बड़े-बड़े पुस्तकालय और किताबें इतिहास की वस्तुएं हो जाएंगी? बदलती दुनिया के साथ पारंपरिक किताबें जिस तेजी से इलेक्ट्रॉनिक पृष्ठों में ढलती जा रही हैं उससे तो यही लगता है कि हां, अगले सौ-पचास वर्षों में ऐसा हो सकता है। इंटरनेट पर उपलब्ध सर्च इंजनों ने दुनिया भर की जानकारी जिस तरह से नेट पर समेट दी है, उसने इन्साइक्लोपीडिया की भारी- भरकम किताबों को वैसे ही मैदान से बाहर कर दिया है। हर जानकारी हर फोटोग्रॉफ सिर्फ माऊस की क्लिक की दूरी पर है जिसे आसानी से कहीं भी डाऊनलोड किया जा सकता है। नियमित-अनियमित छपनेवाली तमाम व्यवसायिक-अव्यवसायिक पत्रिकाएं और समाचार-पत्र इंटरनेट पर पढ़े जा सकते हैं। वो दिन भी दूर नहीं जब किसी लेखक के उपन्यास, कहानी-संग्रह, कविता-संग्रह या जीवनी कथा को एक चिप में डालकर दिया जाने लगेगा। लैपटॉप, कम्प्यूटर और यहां तक कि वाइडस्क्रीन सेलफोन पर किताबें पढ़ी जाने लगेंगी। यूरोप, अमेरिका और पूर्वी एशिया के अधिकांश नेट यूजर्स अखबार और पत्रिकाएं नेट स्क्रीन पर ही पढ़ते हैं। भारत में भी यह चलन अब शुरू हो चुका है। अब प्रश्न यह उठता है कि क्या स्क्रीन पर चमकते हुए इलेक्ट्रॉनिक अक्षर छपे हुए शब्दों जैसा प्रभाव हमारे मानस पर छोड़ पाएंगे?

इलेक्ट्रॉनिक पृष्ठों पर किसी उपन्यास या कहानी का भावभीना प्रसंग क्या हमारे अंतर्मन में वैसा ही उतर पाएगा जैसे छपे हुए पृष्ठों पर बहती संवेदनाएं हमारे बिंधे मन पर नर्म फाहा रखती हैं। क्या इलेक्ट्रॉनिक संसार से आई कोई कविता हमारे जज्बात को वैसा ही स्पर्श कर पाएगी जैसी हल्की- सी छुअन हम किसी किताब में कविता पढ़ते वक्त महसूस करते हैं? क्या किसी ब्लॉग के विचार हमारे जेहन को वैसे ही झकझोर पाते हैं जैसा पुस्तक के पृष्ठों में किसी लेख को पढक़र हम अनुभव करते हैं? हमारी पीढ़ी के किसी पुस्तक प्रेमी से यदि आप ये प्रश्न करेंगे तो उनका उत्तर होगा - नहीं, कतई नहीं। भारतीय संस्कृति और परंपराओं के बरअक्स इन सवालों को देखें तो किताबों या ग्रंथों के बगैर जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती। वेदों की ऋचाओं, उपनिषदों के श्लोकों और पुराणों की मिथक-कथाओं में ज्ञान का जो अजस्र स्त्रोत प्रवाहित हुआ है उसी ने भारत को विश्व गुरू का दर्जा दिलाया है। हस्तलिखित या छपे हुए पृष्ठ भारतीय मानस का एक अभिन्न अंग हैं। पुस्तकें हमें संस्कारशील और सुसंस्कृत बनाती हैं। पुस्तकों को लेकर ऐसा पवित्र-भाव किसी और देश में दिखाई नहीं पड़ता।

हमारे विद्वानों ने यदि ग्रंथों में संचित ज्ञान को आत्मसात करके मानव समाज को समृद्ध करने का मार्ग प्रशस्त किया है तो एक सामान्य अनपढ़ मनुष्य ने ग्रंथों की स्तुति करके ही संस्कारित होने का प्रयत्न किया है। रामचरित मानस, कुरान, ग्रंथ साहब और बाइबल -इन पवित्र किताबों ने ही भारतीय मानस को निर्मित किया है। सिखों के दशम गुरू गोविंद सिंह ने तो ग्रंथ साहब में समकालीन महापुरूषों की वाणियां संकलित करके उसे ही गुरू का दर्जा देकर गुरू प्रथा पर विराम लगा दिया था। किताबों के प्रति आस्था का इससे बड़ा और क्या प्रमाण हो सकता है? लैपटॉप या नेट के चमकते अक्षरों में सिर खपाने में वो आनंद कहां जो पालथी मारकर अखबार या पत्रिका पढऩे में है।

आरामकुर्सी पर अधलेटे किसी कहानी या उपन्यास का रस लेने और कम्प्यूटर के सामने बैठकर ई-पृष्ठों में उतरने में कितना बड़ा फर्क है, यह युवा पीढ़ी का कोई नौजवान नहीं बता सकता। इसके बावजूद यदि नई पीढ़ी पठन-पाठन का अपना एक अलग तौर-तरीका विकसित कर रही है तो उन्हें दोष देना ठीक नहीं होगा। संभव है कि वे हमें वैसे संस्कारशील न लगें जैसे हम खुद को या भारतीय जन मानस को मानते हैं। संभव है कि इलेक्ट्रॉनिक पृष्ठ उनके आधुनिकता बोध को सहलाते हों। पर एक बात तय है कि नई पीढ़ी खुद को छपे हुए शब्दों की अपेक्षा ई-अक्षरों के ज्यादा नजदीक पाती है। साथ ही यह भी महसूस किया जा रहा है कि इन ई-अक्षरों की दुनिया में मानवीय संवेदनाओं की परिभाषाएं भी बदल रही हैं। संभव है कि शब्दों के पीछे छिपी जिन संवेदनाओं को हमारी पीढ़ी शिद्दत से अनुभव करती है, वो संवेदनाएं उन्हें बिल्कुल भी स्पर्श नहीं कर पातीं। नई पीढ़ी की दुनिया हमारी दुनिया से निश्चय ही अलग है। वैसे ही जैसे हमारी दुनिया हमसे पहली पीढ़ी से अलग थी, किंतु बदलाव में पीढिय़ों के बीच विभाजन रेखाएं नहीं खिची थीं। पुरानी पीढ़ी धीरे-धीरे पुरानी होती थी और नई पीढ़ी धीरे-धीरे नई। अब हर पांच- दस साल में परिवर्तन का एक नया दौर शुरू हो जाता है। मसलन इंटरनेट ने नई पीढ़ी के सोचने के तौर-तरीके बदले, फिर सेलफोनों की नई रेंज इस पीढ़ी को बदल रही है।

बदलाव की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है। दुनिया के सारे देश एक-दूसरे के करीब आए हैं तो संस्कृतियां भी एक-दूसरे के मानस को गहराई तक प्रभावित कर रही हैं। इसके बावजूद भारत में किताबों की महत्ता कम नहीं होगी। आज से सौ बरस बाद भी हमारे आधुनिक पुस्तकालयों में हमें किताबें पढ़ते हुए लोग मिल जाएंगे।

कलात्मक और सुरुचिपूर्ण

कलात्मक और सुरुचिपूर्ण

उदंती.com का पहला अंक देख कर तबियत खुश हो गई। कलात्मकता और रचनात्मकता का अनुकरणीय समन्वय इसे संग्रहणीय बनाता है। आपने लिखा है कि पत्रिका का प्रकाशन कई वर्षों से आपका सपना था। आपने अपने सपने को बहुत ही मनमोहक ढंग से साकार करने के साथ- साथ यह भी प्रमाणित किया है कि यदि सच्ची लगन हो तो सपने साकार भी होते हैं। रचनातमक और कलात्मक प्रतिभा के लिए सपने पोषक तत्व होते हैं। विनोद साव और हरिहर वैष्णव के आलेख तथा सूरज प्रकाश का संस्मरण अच्छे लगे। सुरुचिपूर्ण संपादन के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें।

-प्रताप सिंह राठौर, अहमदाबाद से

नदी की तरह प्रवाहमान हो

यह पत्रिकाओं की बाढ़ के बीच भी अच्छी पत्रिकाओं की आवश्क्यकता बराबर बनी हुई है, आशा है उदंती इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभायेगी, प्रारूप देखकर उम्मीद जगती है, आपने विभिन्न शीर्षकों के अंतर्गत विषय संयोजन बेहद उपयोगी ढंग से किया है, पत्रिका के प्रथम सार्थक अंक के लिए बधाई, और भाविष्य के लिए शुभकामनाएं

-अजय, शिलांग से

आखिर काहे की कमी है

छत्तीसगढ़ के पास आखिर काहे की कमी है। समंदर नहीं है लेकिन समंदर जैसी विशालकाय नदियां हैं, हिमालय नहीं हैं लेकिन उतने ही खूबसूरत और ऊंचे पाट हैं। शिमला नहीं है लेकिन शिमला से ज़्यादा ठंडी हो जाने वाली चिल्पी घाटी है, बदरी केदार नहीं हैं लेकिन मंदिरों की भला कहां कमी हैं। नदियां हैं, पहाड़ हैं, पठार हैं, सैकड़ों साल पुराने मंदिर हैं, जंगल हैं जानवर हैं, छलकपट से दूर आदिवासी हैं और सबसे बड़ी बात यहां की हवा में ऑक्सीजन है। बस नहीं है तो सरकार के पास छत्तीसगढ़ को दुनिया के सामने तरीके से पेश करने की इच्छाशक्ति।
- अजय शर्मा, नई दिल्ली से
अगस्त अंक में विनोद साव के पर्यटन नीति संबंधित लेख देश के नक्शे पर छत्तीसगढ़ कहां के संदर्भ में


नदी की तरह प्रवाहमान हो

यह पत्रिका उदंति नदी की तरह प्रवाहमान हो। हिंदी की सेवा के लिए अभी बहुत जगह खाली है। निश्चित ही इस पत्रिका के लिए हिंदी-जगत में बहुत स्थान है और वह सफलता के बहाव में बहेगी। शुभकामनाएं।
- चंद्रमौलेश्वर प्रसाद, हैदराबाद से


दो हाथो से लिखना कठिन

कहा जाता है दो पैरो से चलना आसान होता है पर दो हाथो से लिखना कठिन। मानव मन को समझने के इस प्रयास का हृदय से स्वागत है।
- दीपक, कुवैत से


माटी की गंध का अहसास

उदंती.com का पहला अंक देख कर अच्छा लगा। अपनों से दूर रहते हुए भी इसे पढ़ते हुए अपनी धरती की माटी की गंध का अहसास हुआ। रचनाओं के बेहतर समायोजन और खूबसूरत प्रस्तुति के लिए बधाई।
-प्रियंका स्याल, मैकल्सफील्ड, यू. के. से