कान्ता देवी ने अपने बेटों को दिखाया :
वसीयत में ठेंगा
-डॉ. रत्ना वर्मा
पारंपरिक भारतीय संस्कृति में माता- पिता की तुलना भगवान से की जाती है। प्रचीन काल से ही भारत में आने वाले विदेशियों ने भी अपने संस्मरण में भी इस बात को भारतीय परिवार की एक विशिष्टता के रुप मे उल्लेख किया है कि यह भारत ही है जहां संतान अपने माता- पिता के प्रति भक्ति भाव रखते हुए उनकी सेवा करते हैं उन्हें पूजते हैं। हमारे समाज की इस विशिष्टता से विदेशी पर्यटकों में ईष्र्या की झलक मिलती है। इसी संदर्भ में यह भी यथार्थ है कि पारिवारिक संसार में माता का स्थान पिता की तुलना में कुछ ऊंचा ही है। संतान को आजीवन माता से ज्याादा लगाव होता है। यही कारण है कि रोग या दुर्घटना में दर्द से बिलखते अधिकांश वयस्क अपनी मां को ही पुकारते देखे जाते हैं। संतान और माता- पिता के अटूट संबंघ ही, संतान को वृद्ध माता- पिता की सेवा सुश्रुषा को धार्मिक कर्तव्य मानने को प्ररित करते हैं।
दुर्भाग्य की बात यह है कि पश्चिमी उपभोक्तावादी संस्कृति की आंधी में हमारी इस विश्व विख्यात सामिाजिक विशिष्टता की नींव हिलने लगी है और ऐसे लोगों की संख्या बढ़ रही है जो माता- पिता को भी उपभोक्तावादी दृष्टिकोंण से देखने लगे हैं। उनके अनुसार भावनात्मक संबंध एक नुसकानदेह बोझ होते हैं, जो कुछ तुरत उपयोगी न हो उसे फेंक देना चाहिए, जो कुछ पुराना हो या टूट- फूट जाए उसे कूड़ेदान में डाल देना चाहिए। इसी के चलते समर्थ वयस्क संताने अब वृद्ध माता- पिता को अनुपयोगी वस्तु की भांति त्यागने लगे हैं। जिसका परिणाम यह है कि भारत में संतान द्वारा उपेक्षित वृद्ध माता- पिता की संख्या बढ़ रही है विशेषतया हमारे शहरों में। यद्यपि कि वृद्ध माता पिता की देख रेख को संतान का उत्तरदायित्व स्वीकार करते हुए इसके उल्लंघन को दंडनीय अपराध मानने वाले कानून भी देश में हंै, फिर भी अधिकांश माता पिता मोह और ममता के दबाव में इस कानून की सहायता नहीं लेते हैं और अपनी संतान की निर्मम बेरूखी पर सिर्फ आंसू ही बहाते रहते हैं।
ऐसे परिदृश्य में अहमदाबाद की संतानो द्वारा उपेक्षित एक वृद्ध विधवा मां ने अपनी संतान को एक ऐसा सबक सिखाया है जो समाज में भावनात्मक संबंधों को रुपए पैसों में तौलने की बढ़ती प्रवृत्ति के कारण परित्यक्त वृदध माता- पिता का भी वांछित मार्गदर्शन करती है। साथ ही यह घटना हमें जैसे को तैसा और ठेंगा दिखाना जैसी कहावतों के न्यायोचित गूढ़ार्थों से भी रूबरू कराती है।
वास्तविक घटना कुछ इस प्रकार है- पुत्रों द्वारा उपेक्षित एक 70 वर्षीया वृद्धा ने अपने दोनों पुत्रों को वसीयत के नाम पर वास्तव में ठेंगा दिखा दिया। अहमदाबाद की कान्ता देवी के दो पुत्र हैं- बड़ा अमरीका में बसा है और छोटा मुंबई में सरकारी अधिकारी है। कान्ता देवी नर्स थीं और उन्होंने अपने दोनों पुत्रों का भली- भांति लालन पालन किया जिससे दोनों अच्छी नौकरियां पाने के काबिल बने। पश्चिमी सभ्यता की आंधी में हमारे समाज में वृद्ध माता- पिता की उपेक्षा करने के तेजी से बढ़ते फैशन के अनुरूप कान्ता देवी के दोनों पुत्रों ने भी रोग से जर्जर वृद्ध मां से मुख मोड़ लिया और कभी भी उनकी सुध- बुध नहीं ली। नर्सिंग से रिटायर होने पर कांता देवी ने वसीयत की, कि उनका विशाल मकान और शेष सब चल सम्पत्ति उनकी नौकरानी को दे दी जाए और उनका शव मेडिकल कालेज में चिकित्सा शास्त्र की शिक्षा देने में उपयोग किया जाए। बीमार कान्ता देवी ने अस्पताल में 20 अतगस्त 2008 को अंतिम सास ली। उस समय उनके पास सिर्फ उनकी विश्वस्त नौकरानी थी जिसने तनमन से उनकी सेवा पिछले कई वर्षों से की थी। कान्ता देवी अपनी वसीयत उसी को थमा गई थी। वसीयत के इनुसार कान्ता देवी का पार्थिव शरीर मेडिकल कालेज को दे दिया गया।
अंखो में मां की चल- अचल संपत्ति पाने के सपने संजोए मुम्बई वाला छोटा पुत्र जब कान्ता देवी का शव अंत्येष्टि के लिए लेने मेडिकल कालेज पंहुचा तो मेडिकल कालेज ने कांता देवी के हाथ का एक अंगूठा ( ठेंगा) उसे सौंप दिया। कांन्ता देवी को मालुम था कि कानून के तहत मेडिकल कालेज को दान किए गए शव का सिर्फ अंगूठा ही संबधियों को अंत्येष्टि करने के उद्देश्य से दिया जाता है।
स्वीकार करना पड़ेगा कि अपने पैरो पर खड़े होते ही अपनी विधवा मां को ठेंगा दिखा देने वाले निष्ठुर पुत्रों को विरासत में ठेंगा दिखा कर हमारे तेजी से बदलते समाज को भी कान्ता देवी ने एक महत्वपूर्ण संदेश दिया है। जिस तेजी से हमारे समाज में हजारों वर्षों से चले आ रहे मानवीयता के आदर्श मूल्यों का क्षरण हो रहा है उसे देखते हुए माता- पिता को कान्ता देवी की भांति वयस्क संतान के प्रति ममता और मोह की तुलना में आवश्यकता पडऩे पर जैसे को तैसा नीति अपनाने के लिए अपने दिल और दिमाग को मजबूत बनाना चाहिए। संसार के पवित्रतम संबंन्ध को ठेंगा दिखाने वाले निर्दयी संतान को वसीयत में ठेंगा थमाना पूर्णतया न्यायोचित है।
वसीयत में ठेंगा
-डॉ. रत्ना वर्मा
पारंपरिक भारतीय संस्कृति में माता- पिता की तुलना भगवान से की जाती है। प्रचीन काल से ही भारत में आने वाले विदेशियों ने भी अपने संस्मरण में भी इस बात को भारतीय परिवार की एक विशिष्टता के रुप मे उल्लेख किया है कि यह भारत ही है जहां संतान अपने माता- पिता के प्रति भक्ति भाव रखते हुए उनकी सेवा करते हैं उन्हें पूजते हैं। हमारे समाज की इस विशिष्टता से विदेशी पर्यटकों में ईष्र्या की झलक मिलती है। इसी संदर्भ में यह भी यथार्थ है कि पारिवारिक संसार में माता का स्थान पिता की तुलना में कुछ ऊंचा ही है। संतान को आजीवन माता से ज्याादा लगाव होता है। यही कारण है कि रोग या दुर्घटना में दर्द से बिलखते अधिकांश वयस्क अपनी मां को ही पुकारते देखे जाते हैं। संतान और माता- पिता के अटूट संबंघ ही, संतान को वृद्ध माता- पिता की सेवा सुश्रुषा को धार्मिक कर्तव्य मानने को प्ररित करते हैं।
दुर्भाग्य की बात यह है कि पश्चिमी उपभोक्तावादी संस्कृति की आंधी में हमारी इस विश्व विख्यात सामिाजिक विशिष्टता की नींव हिलने लगी है और ऐसे लोगों की संख्या बढ़ रही है जो माता- पिता को भी उपभोक्तावादी दृष्टिकोंण से देखने लगे हैं। उनके अनुसार भावनात्मक संबंध एक नुसकानदेह बोझ होते हैं, जो कुछ तुरत उपयोगी न हो उसे फेंक देना चाहिए, जो कुछ पुराना हो या टूट- फूट जाए उसे कूड़ेदान में डाल देना चाहिए। इसी के चलते समर्थ वयस्क संताने अब वृद्ध माता- पिता को अनुपयोगी वस्तु की भांति त्यागने लगे हैं। जिसका परिणाम यह है कि भारत में संतान द्वारा उपेक्षित वृद्ध माता- पिता की संख्या बढ़ रही है विशेषतया हमारे शहरों में। यद्यपि कि वृद्ध माता पिता की देख रेख को संतान का उत्तरदायित्व स्वीकार करते हुए इसके उल्लंघन को दंडनीय अपराध मानने वाले कानून भी देश में हंै, फिर भी अधिकांश माता पिता मोह और ममता के दबाव में इस कानून की सहायता नहीं लेते हैं और अपनी संतान की निर्मम बेरूखी पर सिर्फ आंसू ही बहाते रहते हैं।
ऐसे परिदृश्य में अहमदाबाद की संतानो द्वारा उपेक्षित एक वृद्ध विधवा मां ने अपनी संतान को एक ऐसा सबक सिखाया है जो समाज में भावनात्मक संबंधों को रुपए पैसों में तौलने की बढ़ती प्रवृत्ति के कारण परित्यक्त वृदध माता- पिता का भी वांछित मार्गदर्शन करती है। साथ ही यह घटना हमें जैसे को तैसा और ठेंगा दिखाना जैसी कहावतों के न्यायोचित गूढ़ार्थों से भी रूबरू कराती है।
वास्तविक घटना कुछ इस प्रकार है- पुत्रों द्वारा उपेक्षित एक 70 वर्षीया वृद्धा ने अपने दोनों पुत्रों को वसीयत के नाम पर वास्तव में ठेंगा दिखा दिया। अहमदाबाद की कान्ता देवी के दो पुत्र हैं- बड़ा अमरीका में बसा है और छोटा मुंबई में सरकारी अधिकारी है। कान्ता देवी नर्स थीं और उन्होंने अपने दोनों पुत्रों का भली- भांति लालन पालन किया जिससे दोनों अच्छी नौकरियां पाने के काबिल बने। पश्चिमी सभ्यता की आंधी में हमारे समाज में वृद्ध माता- पिता की उपेक्षा करने के तेजी से बढ़ते फैशन के अनुरूप कान्ता देवी के दोनों पुत्रों ने भी रोग से जर्जर वृद्ध मां से मुख मोड़ लिया और कभी भी उनकी सुध- बुध नहीं ली। नर्सिंग से रिटायर होने पर कांता देवी ने वसीयत की, कि उनका विशाल मकान और शेष सब चल सम्पत्ति उनकी नौकरानी को दे दी जाए और उनका शव मेडिकल कालेज में चिकित्सा शास्त्र की शिक्षा देने में उपयोग किया जाए। बीमार कान्ता देवी ने अस्पताल में 20 अतगस्त 2008 को अंतिम सास ली। उस समय उनके पास सिर्फ उनकी विश्वस्त नौकरानी थी जिसने तनमन से उनकी सेवा पिछले कई वर्षों से की थी। कान्ता देवी अपनी वसीयत उसी को थमा गई थी। वसीयत के इनुसार कान्ता देवी का पार्थिव शरीर मेडिकल कालेज को दे दिया गया।
अंखो में मां की चल- अचल संपत्ति पाने के सपने संजोए मुम्बई वाला छोटा पुत्र जब कान्ता देवी का शव अंत्येष्टि के लिए लेने मेडिकल कालेज पंहुचा तो मेडिकल कालेज ने कांता देवी के हाथ का एक अंगूठा ( ठेंगा) उसे सौंप दिया। कांन्ता देवी को मालुम था कि कानून के तहत मेडिकल कालेज को दान किए गए शव का सिर्फ अंगूठा ही संबधियों को अंत्येष्टि करने के उद्देश्य से दिया जाता है।
स्वीकार करना पड़ेगा कि अपने पैरो पर खड़े होते ही अपनी विधवा मां को ठेंगा दिखा देने वाले निष्ठुर पुत्रों को विरासत में ठेंगा दिखा कर हमारे तेजी से बदलते समाज को भी कान्ता देवी ने एक महत्वपूर्ण संदेश दिया है। जिस तेजी से हमारे समाज में हजारों वर्षों से चले आ रहे मानवीयता के आदर्श मूल्यों का क्षरण हो रहा है उसे देखते हुए माता- पिता को कान्ता देवी की भांति वयस्क संतान के प्रति ममता और मोह की तुलना में आवश्यकता पडऩे पर जैसे को तैसा नीति अपनाने के लिए अपने दिल और दिमाग को मजबूत बनाना चाहिए। संसार के पवित्रतम संबंन्ध को ठेंगा दिखाने वाले निर्दयी संतान को वसीयत में ठेंगा थमाना पूर्णतया न्यायोचित है।
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