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Apr 1, 2024

उदंती.com, अप्रैल- मई 2024

चित्रः संदीप राशिनकर
वर्ष - 16, अंक - 9- 10

एक समय में एक काम करो, ऐसा करते समय अपनी पूरी आत्मा उसमें डाल दो और बाकी सब कुछ भूल जाओ।   - स्वामी विवेकानंद

संयुक्तांक
इस अंक में

अनकहीः बूँद- बूँद पानी बचाना होगा,,, - डॉ. रत्ना वर्मा 

आलेखः पीड़ितों को नागरिकता देने का बना कानून - प्रमोद भार्गव

आलेखः 2029 में संयुक्त चुनाव कराने की तैयारी- एक-देश, एक-चुनाव 

 नवगीतः पानी की हर बूँद बचाने - सतीश उपाध्याय

 पर्यावरणः हर वर्ष नया फोन पर्यावरण के अनुकूल नहीं - सोमेश केलकर

 लघुकथाः कबाड़ - सुभाष नीरव

 चिंतनः मन थोड़ा बदल जाए तो... - सीताराम गुप्ता

 बाल कविताः चिड़िया गीत सुनाती है - रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

स्वास्थ्यः ऊँचे पहाड़ जीवन के लिए बेहतर - डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

कविताः नदिया - गौतमी पाण्डेय

डायरी के पन्नों सेः मन्नत का वह धागा - शशि पाधा

 यात्रा- संस्मरणः एलिफैंटा केव्स- अद्भुत संरचना - प्रिया आनंद

 लघुकथाः अपनी ही आग में - आनन्द

कहानीः नजर बट्टू - ज्योति जैन

कविताः बकरी - हरभगवान चावला

व्यंग्यः ट्रेम्पोलीन में कूद झमाझम - बी. एल. आच्छा

लोककथाः इतना महँगा नाश्ता

किताबेंः उदासी की चुप्पी को झकझोरती संवेदना की गूँज - अरुणेन्द्र नाथ वर्मा

कविताः बाट जोहते चौखट - शुभ्रा मिश्रा

 प्रेरकः जीवन कितना न्यायपूर्ण है - निशांत

 जीवन दर्शनः मनवा भीतर क्यों ना झाँके - विजय जोशी 

अनकहीः बूँद- बूँद पानी बचाना होगा...

 - डॉ. रत्ना वर्मा

पानी अमृत था कभी, सूखी नदियाँ ताल ।

दर-दर हैं सब खोजते, जीना हुआ मुहाल ।।

गर्मी ने अभी पूरी तरह से दस्तक भी नहीं दी है कि पानी की समस्या की खबरें आनी शुरू हो गई हैं। मार्च माह के पहले ही सप्ताह में यह प्रमुख खबर थी कि बेंगलूरु शहर पानी की समस्या से जूझ रहा है। बेंगलूरु देश भर में एक ऐसा शहर है, जहाँ के बारे में यह जग प्रसिद्ध था कि वहाँ हर मौसम में साथ में छाता लेकर चलना पड़ता है - कब तेज धूप हो जाए, कब बारिश हो जाए; किसी को पता नहीं चलता था। लोग वहाँ के मौसम को रहने के लिए सबसे अनुकूल मानते थे। वहाँ का मौसम ऐसा इसलिए था; क्योंकि यह शहर कभी हज़ार झीलों वाला शहर कहलाता था, जिनमें से कुछ झीलें आठवीं शताब्दी और उससे भी पहले की थीं।  लेकिन, विकास की बयार ने सब कुछ बदल दिया। झीलों और बगीचों के शहर से देशी सिलिकॉन वैली बनने तक के सफर में बेंगलूरु ने अपना काफी कुछ खो दिया है।

यह विडम्बना है कि जिस शहर को बनाने में झीलों का महत्त्वपूर्ण हाथ रहा, वही झीलें अब उनके लिए मुसीबत बन गई हैं। झीलों के पानी को नियंत्रित करने के लिए पानी के निकास का रास्ता होना चाहिए;  लेकिन आज बची हुई झीलें गाद से भरी हुई हैं, और उनमें जल निकासी का रास्ता नहीं है बेंगलुरु में पानी की स्थिति इतनी बदतर नहीं होती, अगर शहर ने अपनी हजार झीलों की उपेक्षा न की होती। अब गंभीर जल संकट के बीच, कर्नाटक जल आपूर्ति और सीवरेज बोर्ड ने कार धोने, बागवानी, भवन- निर्माण, पानी के फव्वारे, सड़क निर्माण और रखरखाव के लिए पीने के पानी के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया है। इसके साथ ही, स्पष्ट तौर पर कहा है कि आदेश का उल्लंघन करने पर 5000 रुपये का जुर्माना देना पड़ेगा।

वह दिन दूर नहीं, जब धीरे- धीरे इस प्रकार की खबरें देश के सभी हिस्सों से आनी शुरू हो जाएँगी। अमूमन हर बरस ही पानी की समस्या से हम सब जूझते हैं। ढेरों उपाय, ढेरों नसीहतें देते गर्मी बीत जाती है और जब तक गर्मी रहती है, तब तक लोग जागरूक होने की थोड़ी- सी जिम्मेदारी निभाते हैं। कुछ समय के लिए कार की धुलाई करना बंद कर देते हैं, आँगन की धुलाई रोज नहीं करते, शॉवर से नहाना बंद करते हैं...नल टपकने पर चिंतित हो जाते हैं... पर यह सब कुछ दिन तक रहता है, उसके बाद फिर वही ढाक के तीन पात...  चाहे सरकार हो, प्रशासन हो या हम स्वयं। सबको पता है कि पानी की कमी के पीछे क्या कारण हैं और किन उपायों के जरिए पानी बचाया जा सकता है, लेकिन उन उपायों को लागू करने के लिए न कोई कठोर नियम या कानून बनाए जाते हैं, न ही उनपर अमल करने के लिए सख्ती बरती जाती।

जैसे आप जब अपना घर बनाना शुरू करते हैं तो  सबसे पहले ये देखते है कि पानी का सबसे अच्छा स्रोत कहाँ हैं, ताकि वहाँ बोरिंग करवा सकें। उसी समय वे यह नहीं सोच पाते कि उनका बोर कभी न सूखे, इसके लिए उन्हें वॉटर हारवेस्टिंग सिस्टम भी लगाना अनिवार्य है । आप ही सोचिए ,अगर  प्रत्येक घर में अगर एक बोर होगा, तो धरती भी कहाँ तक सबकी प्यास बुझा पाएगी। यदि एकमात्र इसी एक नियम को भी सख्ती से लागू कर दिया जाए,  तो वर्षा -जल का संचयन करके पानी की इस किल्लत से कुछ सीमा तक राहत पाई जा सकती है। ऐसा भी नहीं है कि पानी बचाने के लिए कुछ किया नहीं जा रहा है - पानी बचाओ अभियान जैसे अनेक कार्यक्रम और योजनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर बहुत तेजी से चल रही हैं। वर्षा के पानी का संचयन करो, पेड़ लगाओ, पर्यावरण बचाओ, प्रदूषण कम करो जैसे अनेक कार्यक्रम निरंतर चल रहे हैं। हमारी  शिक्षण- संस्थाओं ने भी एक विषय के रूप में  इन्हें शामिल किया है;  परंतु  जितनी जागरूकता  आनी चाहिए, वह दिखाई नहीं देती। सबकी समस्या दरअसल यही है, हम कभी गंभीर होते ही नहीं। तो जरूरत गंभीर होने की है।

 यह तो सर्वविदित है कि मानव सभ्यता का विकास नदियों और जलस्रोतों के पास ही हुआ है। सिंधु घाटी सभ्यता का विकास सिंधु नदी, मिस्र की सभ्यता नील नदी, चीन की सभ्यता येलो और यांगत्जे नदियों के पास हुआ है। सिंधु घाटी सभ्यता के नगरों के उत्खनन से उस जमाने में भी वाटर हार्वेस्टिंग और ड्रेनेज की उत्कृष्ट तकनीक मौजूद होने के प्रमाण मिलते हैं। यही नहीं हमारी परम्पराओं, उत्सव और मान्यताओं का नाता मौसम और पानी से जुड़ा हुआ है, इसीलिए पानी के संरक्षण को लेकर हमारे पूर्वज जागरूक थे और उन्होंने तालाब, कुएँ और बावड़ियों के निर्माण को समाज का आवश्यक हिस्सा बनाया था। पानी तब भी हमारे जीवन के लिए पूजनीय था, आज भी है;  पर आज  हमने पानी का सम्मान करना छोड़ दिया हैं। विकास के नाम पर उद्योग- धंधों और शहरीकरण के दबाव में तालाबों और जलाशयों को हमने नष्ट ही कर दिया है। कुछ जलाशयों पर अवैध कब्जा करके बिल्डिंग खड़ी कर दी जाती है।  नतीजा सबके सामने है । इस समय हम और आप पानी की गंभीर किल्लत झेल ही रहे हैं. हमारी आने वाली पीढ़ी कैसे इसका सामना करेगी, यह चिंतनीय है। इससे बचने के लिए बहुत ज्यादा प्रयास और उपाय करने होंगे।

 पानी बचाने के लिए प्राकृतिक उपायों के साथ साथ उद्योगों में इस्तेमाल होने वाले पानी की जरूरत को रोकना होगा। इसके लिए रिसाइक्लिंग टेक्नोलॉजी का सहारा लेना होगा। साथ ही घरों में होने वाले पानी की बर्बादी पर अंकुश लगाना होगा। फिलहाल तो इतना ही कि पानी के इस भीषण संकट से जूझना है, तो  सरकार के साथ-साथ सभी नागरिकों की यह जिम्मेदारी होनी चाहिए कि सब मिलकर पानी की भरपूर बचत करें. , उतना ही उपयोग करें, जितनी आवश्यकता हो। इसके लिए सिर्फ गर्मी ही नहीं, साल भर पानी बचाना होगा। तो आइए, अपने पर्यावरण को, अपनी धरती को फिर से हरा- भरा बना कर पानी को संरक्षित करें।

मानव रखना याद तू, जल जीवन का मूल ।

बूँद-बूँद सँभालना, रखना यही उसूल ।।

आलेखः नागरिकता संशोधन कानून- पीड़ितों को नागरिकता देने का बना कानून

  - प्रमोद भार्गव

आखिरकार लंबी चली जद्दोजहद के बाद नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के नियम अधिसूचित कर दिए हैं। लोकसभा चुनाव के ठीक पहले इस कानून को अमल में लाना भाजपा की चुनावी रणनीति का हिस्सा भी माना जा सकता है। हालांकि इसे लागू करने में देरी हुई है; क्योंकि ये विधेयक दोनों सदनों से  पाँच साल पहले ही पारित हो चुका है। कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दल इस कानून का इसलिए दुश्प्रचार करते रहे हैं कि इससे मुसलमानों की नागरिकता संकट में पड़ जाएगी, जबकि इसमें देश के किसी भी धर्म से जुड़े नागरिक की नागरिकता छीनने का कोई प्रावधान नहीं है, हाँ घुसपैठियों को जरूर नागरिकता सिद्ध नहीं होने पर बाहर का रास्ता दिखाया जा सकता है। संसद और उसके बाहर ऐसे अनेक बौद्धिक आलोचक थे, , जो यह प्रमाणित करने में लगे थे कि यह कानून ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ अर्थात संविधान की मूल भावना के विरुद्ध है। लेकिन यह संदेह जम्मू-कश्मीर से हटाई गई धारा-370 और 35-ए की तरह ही संवैधानिक है।

इस कानून का मुख्य लक्ष्य धार्मिक आधार पर प्रताड़ित वह हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई हैं, जिन्हें पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से पलायन को मजबूर होना पड़ा है। भारत में आकर शरणार्थी जीवन जी रहे इन समुदायों के लोगों को अब देश की नागरिकता मिलना आसान हो जाएगी। नागरिकता प्राप्त करने के लिए आवेदन भी ऑनलाइन जारी कर दिया है। इसे शरणार्थी जरूरी दस्तावेजों के साथ भरकर नागरिकता की मांग कर सकते है। आवेदन करने वालों को 31 दिसंबर 2014 से पहले भारत में प्रवेश का वीजा और अप्रवासी होने के प्रमाण देने होंगे। धारा 5  के अंतर्गत अप्रवासी मुस्लिम या कोई भी विदेशी नागरिक आवेदन कर सकते हैं। पहले भी इन तीनों देशों के मुसलमानों को भारतीय नागरिकता दी जा चुकी है। यह व्यवस्था आगे भी जारी रहेगी। जाहिर है, यह कानून किसी धर्म या संप्रदाय के आधार पर भेदभाव से नहीं जुड़ा है। साफ है, यह कानून किसी की नागरिकता छीनने का नहीं, बल्कि देने का कानून हैं।

यह विधेयक मूल रूप में 1955 के नागरिकता विधेयक में ही कुछ परिवर्तन करके अस्तित्व में लाया गया है। 1955 में यह कानून देश में दुखद विभाजन के कारण बनाया गया था। इस समय बड़ी संख्या में अलग-अलग धर्मों के लोग पाकिस्तान से भारत आए थे। इनमें हिंदू, सिख. जैन, बौद्ध, पारसी और ईसाई थे। कुछ लोग भारत से पाकिस्तान भी गए थे। इस आवागमन में सांप्रदायिक दंगे भी हुए, जिनमें ज्यादातर सहिष्णु हिंदू मारे गए थे। इसके बावजूद भारत ने धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश बनाने का निर्णय लिया। लेकिन पाकिस्तान ने खुद को इस्लामिक राष्ट्र घोषित कर दिया। पाक के संस्थापक और बँटवारे के दोषी मोहम्मद अली जिन्ना के प्रजातांत्रिक सिद्धांत तत्काल नेस्तनाबूद कर दिए गए। 1948 में जिन्ना की मौत के बाद पाकिस्तान पूरी तरह कट्टर मुस्लिम राष्ट्र् में बदलता चला गया। नतीजतन , जो भी गैर-मुस्लिम समुदाय थे, उन्हें प्रताड़ित करने के साथ उनकी स्त्रियों के साथ दुराचार व धर्म परिवर्तन का सिलसिला तेज हो गया। ऐसे में ये पलायन कर भारत आने लगे। दरअसल इन गैर-मुस्लिमों का भारत के अलावा कोई दूसरा ठिकाना इसलिए नहीं था, क्योंकि पड़ोसी अफगानिस्तान भी कट्टर इस्लामिक देश बन गया था। 1955 तक ही करीब 45 लाख हिंदू और सिख भागकर भारत आ गए थे। इनको ही दृष्टिगत रखते हुए नागरिकता निर्धारण विधेयक 1955 बनाया गया था। 

1971 में जब पाकिस्तान से अलग होकर नया बांग्लादेश बना तो इस दौरान हिंदू समेत अन्य गैर-मुस्लिमों पर विकट अत्याचार हुए। फलतः इनके पलायन और धर्मस्थलों को तोड़ने का सिलसिला और तेज हो गया। नतीजतन बड़ी संख्या में हिंदुओं के साथ बांग्लादेशी एवं पाकिस्तानी मुस्लिम भी बेहतर भविष्य के लिए भारत चले आए। जबकि वे धर्म के आधार पर प्रताड़ित नहीं थे। ये घुसपैठिए बनाम शरणार्थी पूर्वोत्तर के सातों राज्यों समेत पश्चिम बंगाल में भी घुसे चले आए। इनकी संख्या तीन करोड़ तक बताई जाती है। शरणार्थियों की तो सूची है, लेकिन घुसपैठिए केवल अनुमान के आधार पर हैं। पाकिस्तान, बांग्लादेश व अफगानिस्तान से आए शरणार्थियों की सूची तो मात्र 1 लाख 16 हजार लोगों की हैं, बाकी घुसपैठिए हैं। इन घुसपैठियों और शरणार्थियों की सही पहचान करने की दृष्टि से ही यह नागरिकता संशोधन विधेयक लाया गया है।  

दरअसल मुस्लिम घुसपैठियों को बाहर करने की बात इनकी भारत में दस्तक शुरू होने के साथ ही हो गई थी। 26 सितंबर 1947 को एक प्रार्थना सभा में महात्मा गांधी ने कहा था कि पाकिस्तान में , जो हिंदू एवं सिख प्रताड़ित किए जा रहे हैं, उनकी मदद हम करेंगे। 1985 में केंद्र में जब राजीव गांधी की सरकार थी, तब असम में घुसपैठियों के विरुद्ध जबरदस्त प्रदर्शन हुए थे। नतीजतन राजीव गांधी और आंदोलनकारियों के बीच एक समझौता हुआ, जिसमें घुसपैठियों को क्रमबद्ध खदेड़ने की शर्त रखी गई। लेकिन इस पर अमल नहीं हुआ। डॉ. मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री रहते हुए सदन में कहा था कि यदि पाकिस्तान व बांग्लादेश  में धार्मिक अल्पसंख्यक प्रताड़ित किए जा रहे हैं और वे पलायन को मजबूर हुए हैं, तो उन्हें भारतीय नागरिकता दी जानी चाहिए। किंतु मनमोहन सिंह ने लगातार दस साल प्रधानमंत्री बने रहने के बावजूद इस दिशा में कोई स्थाई कानूनी पहल नहीं की। जबकि, असम में इस दौरान कांग्रेस की सरकार थी और मनमोहन सिंह यहीं से राज्यसभा सदस्य थे। यदि नेहरु और लियाकत अली के बीच हुए समझौते का पालन पाक ने किया होता तो भारत को इस   विधेयक की न तो 1955 में बनाने की जरूरत पड़ती और न ही इसमें अब संशोधन किया गया होता.  

दरअसल पाक, बांग्लादेश और अफगानिस्तान ऐसे मुस्लिम बहुल देश हैं, जिनमें गैर-मुस्लिम नागरिकों पर अत्याचार और स्त्रियों के साथ दुश्कर्म किए जाते हैं। चूँकि ये देश एक समय अखंड भारत का हिस्सा थे, इसलिए इन तीनों देषों में हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध और पारसी बड़ी संख्या में रहते थे। 1947 में जब भारत से अलग होकर पाकिस्तान नया देश बना था, तब वहाँ 20 से 22 प्रतिशत गैर-मुस्लिमों की आबादी थी,  जो अब घटकर दो प्रतिशत रह गई है। अफगानिस्तान में 2 लाख हिंदू और सिख थे , जो निरंतर प्रताड़ना के चलते महज 500 रह गए हैं। पाक ने दोगली मंशा के चलते बंटवारे के समय दलित हिंदुओं को केवल इसलिए रोक कर रखा, जिससे वे वहाँ गंदगी और मल-मूत्र साफ करते रहें। इन्हें आज भी न तो वोट का अधिकार प्राप्त है और न ही ये वहाँ चल रही लोक-कल्याणकारी योजनाओं का लाभ ले पाते हैं। इन्हें किसी भी तरह का चुनाव लड़ने का अधिकार भी नहीं है। नतीजतन ये 1947 से भी ज्यादा बदतर जीवन  वर्तमान में गुजार रहे हैं। 

 जब बांग्लादेश वजूद में आया, तब वहाँ, बांग्लादेश की आजादी की लड़ाई लड़ रहे मुक्ति संग्राम के जवानों ने गैर-मुस्लिम स्त्री व पुरुषों के साथ ऐसे दुराचार व अत्याचार किए कि वे भारत की ओर पलायन करने को मजबूर हुए। इन लोगों की संख्या 10 लाख से भी ज्यादा थी। बांग्लादेश के समाज के मिजाज पर निगाहें रखने वाले समाजशास्त्री इस्माइल सादिक, रॉबिन डिसूजा व पुरंदर देवरॉय बहुत पहले लिख चुके हैं कि वहाँ के समाज का बड़ा हिस्सा धार्मिक अल्पसंख्यकों की आजादी को पसंद नहीं करता है। इन समुदायों के पर्व-त्योहारों पर इसलिए आक्रामक हो उठता है, ताकि वे अपने पर्वों को मनाने से डरें और पलायन को विवश हों, हम सब जानते हैं कि अफगानिस्तान के आतंकवादियों ने वामियान की चट्टानों पर उकेरी गईं, भगवान बुद्ध की मूर्तियों को तोपों से सिर्फ इसलिए उड़ा दिया था, क्योंकि वे भिन्न धर्म से संबंध रखती थीं। इससे पता चलता है कि इन देशों में बहुसंख्यक धर्मावलंबी, दूसरे धार्मिक समुदायों को कतई पसंद नहीं करते हैं।

ऐसे गैर-मुस्लिम अब तक भारत में पहचान छिपाकर रहने को मजबूर थे, क्योंकि उनके पास भारतीय नागरिकता नहीं थी। छह धर्मों से जुड़े ऐसे गैर-मुस्लिमों को इस कानून में नागरिकता देने के कारगर प्रावधान किए गए हैं।; लेकिन इसमें मुस्लिमों को शामिल नहीं किए जाने का विरोध कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस और वामपंथी संगठन इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि वे मुस्लिमों को महज वोट-बैक मानते हैं। जबकि 1947 से लेकर अब तक कांग्रेस ने हिंदू, सिख, जैन और बौद्धों को तो नागरिकता देने की पैरवी की, किंतु घुसपैठी मुस्लिमों को नागरिकता देने की वकालात कभी की हो, ऐसा  देखने में नहीं आया है। मनमोहन सिंह के कार्यकाल में राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की मांग पर 13 हजार हिंदू और सिखों को नागरिकता दी गई थी। अलबत्ता नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में अब तक 566 मुस्लिमों को भारतीय नागरिकता दी गई है। यह आंकड़ा स्वयं गृहमंत्री अमित शाह ने राज्यसभा में बहस के दौरान पेश किया था। खासतौर से कांग्रेसियों को नहीं भूलना चाहिए कि 1971 में जब इंदिरा गांधी के प्रयास से बांग्लादेश वजूद में आया था, तब बांग्लादेश से आए लोगों को तो नागरिकता दी गई थी, लेकिन पाकिस्तान से आए लोगों को नहीं दी गई थी। युगांडा के शरणार्थियों को भी इंदिरा गांधी ने नागरिकता दिलाई थी। लिहाजा देश किसे नागरिकता दे, किसे न दे, यह संविधान सम्मत है। इस नाते समानता का सिद्धांत उन्हीं पर लागू हो सकता है, जिन्हें भारतीय नागरिकता दी गई है। यह अधिकार केंद्र सरकार के पास सुरक्षित है कि वह किसे शरण दे और किसे भारतीय नागरिकता प्रदान करे।

मूल नागरिकता कानून में किसी को भी भारत का नागरिक बनने के लिए लगातार 11 वर्षों तक भारत में रहने की शर्त पूरी करनी होती है। नए विधेयक में इसे घटाकर 6 वर्ष कर दिया गया है। यह इसलिए जरूरी था, क्योंकि कि भारत में, जो गैर-मुस्लिम धर्म के आधार पर सताए जाने के कारण आए हैं, उनके पास भारत के अलावा कोई ठिकाना नहीं है ? जो घुसपैठिए मुस्लिम हैं, वे तो किसी भी मुस्लिम देश में शरण ले सकते हैं। इसलिए इस ऐतिहासिक कानून के वजूद में आने के बाद न तो भारत की पंथ या धर्मरिपेक्षता प्रभावित होती है और न ही उसके उदार व सहिश्णु चरित्र को हानि पहुँचती है; क्योंकि भारत ने तो उदार सहिष्णुता दर्शाते हुए उन लोगों को नागरिकता का अधिकार देने के कानूनी उपाय किए हैं, जिन्हें धर्म के आधार पर इस्लामिक देशों ने प्रताड़ित किया। बहरहाल यह कानून मानवीयता के सारोकारों से जुड़ा अह्म कानून है, जिसे दुनिया को एक मिसाल के रूप में देखना चाहिए।     ■

आलेखः 2029 में संयुक्त चुनाव कराने की तैयारी- एक-देश, एक-चुनाव

 2029 में एक देश, एक चुनाव, यानी देश में लोकसभा और विधानसभा चुनावों के साथ निकाय व पंचायत चुनाव भी एक साथ कराने की दिशा में केंद्र सरकार एक कदम आगे बढ़ गई है। पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली समिति ने इस परिप्रेक्ष्य में अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू को सौंप दी है। 7 माह की मेहनत मशक्कत से यह रिपोर्ट एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज के रूप में सामने आई है। इसमें एक साथ चुनाव कैसे संभव होंगे, क्या- क्या संविधान में संशोधन करने पड़ेंगे, इसका खाका खींच दिया है। अब इस रिपोर्ट में सुझाई गई सिफारिशों को विधेयक के रूप में संसद के दोनों सदनों से पारित कराने का काम नरेंद्र मोदी सरकार का है।

    ऐसी संभावना है कि इन सिफारिशों को कानूनी रूप देने के बाद अगले आम चुनाव में एक साथ चुनाव कराने का सिलसिला शुरू हो जाए। इस समय जिन राज्य सरकारों का कार्यकाल बचा होगा, वह लोकसभा चुनाव तक ही पूरा मान लिया जाएगा। वैसे भी आजादी के बाद 1952,1957,1962 और 1967 में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ साथ होते रहे हैं; लेकिन 1968 और 1969 में समय के पहले ही कुछ राज्य सरकारें भंग कर दिए जाने से यह परंपरा टूट गई। अब इस व्यवस्था को लागू करने के लिए संविधान में करीब 18 संशोधन करने होंगे। इनमें से कुछ बदलावों के लिए राज्यों की भी अनुमति जरूरी होगी। यदि स्थानीय निकाय और पंचायत चुनाव भी साथ साथ होते हैं, तो फिर मतदाता सूची तैयार निर्वाचन आयोग कराएगा। इस हेतु अनुच्छेद 325 में परिवर्तन करना होगा। साथ ही अनुच्छेद 324 ए में संशोधन करते हुए निगमों और पंचायतों के चुनाव भी लोकसभा चुनाव के साथ करा लिए जाएँगे। संविधान के अनुच्छेद 368 ए के तहत इस संशोधन विधेयक को आधे राज्यों से भी पास करना जरूरी होगा। इसी अनुरूप केंद्र शासित प्रदेशों के लिए भी अलग से संविधान संशोधन की आवश्यकता पड़ेगी।

इस रिपोर्ट से पहले संसदीय समिति भी देश में एक साथ चुनाव कराने की वकालत कर चुकी थी। समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि यदि लोकसभा, विधानसभा, नगरीय निकायों और पंचायतों के चुनाव एक साथ होते हैं, तो लंबी चुनाव- प्रक्रिया के चलते मतदाता में , जो उदासीनता छा जाती है, वह दूर होगी। एक साथ चुनाव में वोट डालने के लिए मतदाता को एक ही बार घर से निकलकर मतदान केंद्र तक पहुँचना होगा, अतएव मतदान का प्रतिशत बढ़ जाएगा। यदि यह स्थिति बनती है, तो चुनाव में होने वाले सरकारी धन का खर्च कम होगा। 2019 के आम चुनाव में करीब 60,000 करोड़ खर्च हुए थे और 2024 के चुनाव में एक लाख करोड़ रुपये खर्च होने की उम्मीद है। एक साथ चुनाव में राजनीतिक दल और प्रत्याशी को भी कम धन खर्च करना होगा। दरअसल अलग-अलग चुनाव होने पर हारने वाले कई प्रत्याशी एक बार फिर किस्मत आजमाने के मूड में आ जाते हैं, वहीं विधायकों को भी लोकसभा चुनाव लड़ा दिया जाता है। ऐसी स्थिति में , जो सीट खाली होती है, उसे फिर से छह माह के भीतर भरने की संवैधानिक बाध्यता के चलते चुनाव कराना पड़ता है। नतीजतन जनता के साथ-साथ प्रत्याशी को भी चुनाव प्रक्रिया से जुड़ी उदासीनता झेलनी पड़ती है। इस कारण सरकारी मशीनरी की जहाँ कार्य- संस्कृति प्रभावित होती है, वहीं मानव संसाधन का भी ह्रास होता है। 

  चूंकि संविधान के मुताबिक केंद्र और राज्य सरकारें अलग-अलग इकाइयाँ हैं। इस परिप्रेक्ष्य में संविधान में समानांतर;  किंतु भिन्न-भिन्न अनुच्छेद हैं। इनमें स्पष्ट उल्लेख है कि इनके चुनाव प्रत्येक पाँच वर्ष के भीतर होने चाहिए। लोकसभा या विधानसभा जिस दिन से गठित होती है, उसी दिन से पाँच साल के कार्यकाल की गिनती शुरू हो जाती है। इस लिहाज से संविधान विशेषज्ञों का मानना है कि एक साथ चुनाव के लिए कम से कम 18 अनुच्छेदों में संशोधन किया जाना जरूरी होगा। विधि आयोग, निर्वाचन आयोग, नीति आयोग और संविधान समीक्षा आयोग तक इस मुद्दे के पक्ष में अपनी राय दे चुके हैं। ये सभी संवैधानिक संस्थाएँ हैं।  यदि विपक्षी दल सहमत हो जाते हैं तो दो तिहाई बहुमत से होने वाले ये संशोधन कठिन कार्य नहीं हैं। अब जैसा कि लग रहा है 2024  में मोदी सरकार की लगभग फिर से सत्ता में बहाली हो रही है, तब फिर 2029 के चुनाव एक साथ ही होंगे। इस दौरान ईवीएम समेत अन्य चुनावी उपकरणों की जरूरत पूरी कर ली जाएगी।

अनेक असमानताओं, विसंगतियों और विरोधाभासों के बावजूद भारत एक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के सूत्र से बँधा है। निर्वाचन- प्रक्रिया राष्ट्र को एक ऐसी संवैधानिक व्यवस्था देती है, जिससे भिन्न स्वभाव वाली राजनीतिक शक्तियों को केंद्रीय व प्रांतीय सत्ताओं में भागीदारी का अवसर मिलता है। नतीजतन लोकतांत्रिक प्रक्रिया गतिशील रहती है, जो देश की अखंडता व संप्रभुता के प्रति जवाबदेह है। देश में मानव संसाधन सबसे बड़ी पूँजी है। गोया, यदि बार-बार चुनाव की स्थितियाँ बनती हैं तो मनुष्य का ध्यान बँटता है और समय व पूँजी का क्षरण होता है। इस दौरान आदर्श आचार संहिता लागू हो जाने के कारण प्रशासनिक शिथिलता दो-ढाई महीने तक बनी रहती है, फलतः विकास कार्य और जन-कल्याणकारी योजनाएँ प्रभावित होती हैं। सरकारी कर्मचारियों और सुरक्षा बलों को बार बार चुनाव ड्यूटी का मानसिक तनाव नहीं झेलना पड़ेगा। इन सब मुद्दों के मद्देनजर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने दूसरे कार्यकाल के आरंभ से ही ‘एक देश, एक चुनाव’ की पैरवी कर रहे हैं, इसी दिशा में इस पहल को अमलीजामा पहनाने की कवायद कहा जा सकता है। 

एक साथ चुनाव के पक्ष में यह तर्क दिया जाता है कि देश प्रत्येक छह माह बाद चुनावी मोड़ पर आ जाता है, लिहाजा सरकारों को नीतिगत फैसले लेने में तो अड़चनें आती हैं, दूसरे नीतियों को कानूनी रूप में देने में अतिरिक्त विलंब भी होता है। यह तर्क अपनी जगह जायज है। वैसे भी राजनीतिक दलों की महत्ता तभी है,  जब वे नीतिगत फैसलों को अधिकतम लोकतांत्रिक बनाने के लिए अपने सुझाव दें व उन्हें विधेयक के प्रारूप का हिस्सा बनाने के लिए नैतिक दबाव बनाएँ। ऐसा नहीं है कि एक साथ चुनाव का विचार कोई नया विचार है। 1952 से लेकर 1967 तक चार बार लोकसभा व विधानसभा चुनाव पूरे देश में एक साथ ही हुए हैं। इंदिरा गांधी का केंद्रीय सत्ता पर वर्चस्व कायम होने के बाद राजनीतिक विद्वेश व बेजा हस्तक्षेप के चलते इस व्यवस्था में बदलाव आना शुरू हो गया। इंदिरा गांधी को विपक्ष की  जो सरकार पसंद नहीं आती थी, उसे वे कोई न कोई बहाना ढूँढकर अनुच्छेद-356 के तहत राष्ट्रपति से बर्खास्त करा  देती थीं। नतीजतन मध्यावधि चुनावों की परिपाटी बढ़ती चली गई। इससे राज्यों में अलग-अलग समय पर चुनाव कराने की बाध्यता निर्मित हो गई। अयोध्या में विवादित ढाँचा ध्वस्त होने के बाद पीवी नरसिंह राव ने भी भाजपा शासित कई राज्य सरकारों को गिरा दिया था। फलतः ऐसा अवसर आ गया कि देश में कहीं न कहीं चुनाव की डुगडुगी बजती रहती है। देश का लगभग 90 करोड़ मतदाता किसी न किसी चुनाव की उलझन में जकड़ा रहता है।

चूँकि संविधान में लोकसभा और विधानसभा चुनाव कराने का उल्लेख तो है, लेकिन दोनों चुनाव एक साथ कराने का हवाला नहीं है। संविधान में इन चुनावों का निश्चित जीवनकाल भी नहीं है। वैसे यह कार्यकाल पाँच वर्ष के लिए होता है, लेकिन बीच में सरकार के अल्पमत में आ जाने के कारण या किसी अन्य कारण के चलते सरकार गिर या गिराई जा सकती है। केंद्रीय विधि आयोग ने 2018 में केंद्र सरकार को प्रस्ताव दिया था कि पाँच साल के भीतर यदि सरकार के भंग होने की स्थिति बने तो ‘रचनात्मक अविश्वास’ मत हासिल किया जाए। मसलन, किसी सरकार को लोकसभा या विधानसभा के सदस्य अविश्वास मत से गिरा सकते हैं, तो इसके विकल्प में जिस दल या गठबंधन पर विश्वास हो या जिसे विश्वास मत हासिल हो जाए, उसे बतौर नई सरकार की शपथ दिला दी जाए। इसी के साथ दूसरा प्रस्ताव यह भी था- ‘लोकसभा चुनाव के साथ विधानसभाओं के चुनाव कराने के लिए उनकी अवधि एक मर्तबा कम कर दी जाए;  लेकिन इस प्रस्ताव पर अमल के लिए भी संविधान में संशोधन जरूरी हैं।’

कुछ विपक्षी दल एक साथ चुनाव के फेवर में शायद इसलिए नहीं हैं;  क्योंकि उन्हें आशंका है कि ऐसा होने पर जिस दल ने अपने पक्ष में माहौल बना लिया, तो केंद्र व ज्यादातर राज्य सरकारें उसी दल की होंगी ? जैसे कि सत्रहवीं (2019) लोकसभा के चुनाव में राष्ट्रवाद की हवा के चलते भाजपा नेतृत्व वाले राजग को बड़ा जनादेश मिला। ऐसे में यदि विधानसभाओं के भी चुनाव हुए होते, तो कांग्रेस समेत क्षेत्रीय दलों का भी सूपड़ा साफ हो गया होता ? हालाँकि ऐसा हुआ नहीं। इस बार लोकसभा चुनाव के साथ ओडिशा, आंध्र-प्रदेश, सिक्किम, तेलंगाना और अरुणाचल प्रदेश में भी चुनाव हुए थे, इनमें परिणामों में भिन्नता देखने में आई है। लिहाजा यह दलील बेबुनियाद है कि एक साथ चुनाव में क्षेत्रीय दल नुकसान में रहेंगे।

बार-बार चुनाव की स्थितियाँ निर्मित होने के कारण सत्ताधारी राजनीतिक दल को यह भय भी बना रहता है कि उसका कोई नीतिगत फैसला ऐसा न हो जाए कि दल के समर्थक मतदाता नाराज हो जाएँ। लिहाजा सरकारों को लोक-लुभावन फैसले लेने पड़ते हैं। वर्तमान में अमेरिका सहित अनेक ऐसे देश हैं, जहाँ एक साथ चुनाव बिना किसी बाधा के संपन्न होते हैं। गोया, भारत में भी यदि एक साथ चुनाव की प्रक्रिया 2029 से शुरू हो जाती है, तो केंद्र व राज्य सरकारें बिना किसी दबाव के देश व लोकहित में फैसले ले सकेंगी। सरकारों को पूरे पाँच साल विकास व सुशासन को सुचारू रूप से लागू करने का अवसर मिलेगा। ■ - प्रमोद भार्गव

सम्पर्कः शब्दार्थ 49 श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी (म.प्र.), मो. 09425488224, 09981061100


. नवगीतः पानी की हर बूँद बचाने

  






-  सतीश उपाध्याय

भीतर की गूँज कह रही

 कोशिश  बारंबार करें 

पानी की हर बूँद बचाने 

खुद को हम तैयार करें ।

*

जल से ही रंगत रौनक है 

धरती की हरियाली 

उत्सव और उल्लास इसी से 

और ऋतुएँ मतवाली ।

*

तितली की है फुरगन इसमें

 बंद कली की शोख अदा

 रस, रंग, परिहास इसी से

 कोयल की है मधुर सदा।

*

 बूँद बद संचय करने की

 युक्ति सौ -सौ बार करें।।

*

नव पल्लव की रक्तिम आभा

बीजों की भी थिरकन है 

ऊँचे , पर्वत ,चट्टानों में

झीलों की भी सिहरन है।

*

हर क्यारी गुलजार इसी से

 खिले फूल में लाली है 

ये रखवाला रूप , गंध का 

हर बगिया का माली है।

*

बूँद तोड़ दे सारी जड़ता 

इन पर तो एतबार करें।।

सम्पर्कः स्वतंत्रता सेनानी कुटी, कृष्णा वार्ड, मनेंद्रगढ़ जिला एमसीबी, छत्तीसगढ़, 9300091563

पर्यावरणः हर वर्ष नया फोन पर्यावरण के अनुकूल नहीं

 - सोमेश केलकर

एक बार फिर ऐप्पल कंपनी के सीईओ टिम कुक ने हरे-भरे ऐप्पल पार्क में कंपनी के नवीनतम, सबसे तेज़ और सबसे सक्षम आईफोन (इस वर्ष आईफोन 15 और आईफोन 15-प्रो) को गर्व से प्रस्तुत किया। पिछले वर्ष सितंबर के इस ऐप्पल इवेंट के बाद दुनियाभर में हलचल मच गई थी और पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष प्री-ऑर्डर में 12% की वृद्धि देखी गई; अधिकांश प्री-ऑर्डर अमेरिका और भारत से रहे। 

वास्तव में ऐप्पल कई उदाहरणों में से एक है कि कैसे आम लोग नासमझ उपभोक्तावाद के झाँसे में आ जाते हैं और तकनीकी कंपनियाँ नए-नए आकर्षक उत्पादों के प्रति हमारी अतार्किक लालसा का फायदा उठाती हैं। निर्माता हर वर्ष स्मार्टफोन, लैपटॉप, कैमरे, इलेक्ट्रिक वाहन, टैबलेट जैसे अपने उत्पादों को रिफ्रेश करते हैं। अलबत्ता सच तो यह है कि किसी को भी हर साल एक नए स्मार्टफोन की ज़रूरत नहीं होती, नई इलेक्ट्रिक कार की तो बात ही छोड़िए। 

एक दिलचस्प बात तो यह है कि ये इलेक्ट्रॉनिक गैजेट, कार्बन तटस्थ और पर्यावरण-अनुकूल के बड़े-बड़े दावों के बावजूद, केवल सतही तौर पर ही इस दिशा में काम करते हैं। कुल मिलाकर, सच्चाई उतनी हरी-भरी नहीं है जितनी ऐप्पल पार्क के बगीचों में नज़र आती है जिस पर टिम कुक चहलकदमी करते हैं।

पर्यावरण अनुकूलता का सच

आज हमारे अधिकतर उपकरण जैसे स्मार्टफोन, टैबलेट, लैपटॉप, कैमरा, हेडफोन, स्मार्टवॉच या फिर इलेक्ट्रिक वाहन, सभी में धातुओं, मुख्य रूप से तांबा, कोबाल्ट, कैडमियम, पारा, सीसा इत्यादि का उपयोग होता है। ये अत्यंत विषैले पदार्थ हैं,  जो खनन करने वालों के साथ-साथ पर्यावरण के लिए भी हानिकारक हैं। इसका एक प्रमुख उदाहरण कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य (डीआरसी) में देखा जा सकता है। हाल ही में डीआरसी में मानव तस्करी का मुद्दा चर्चा में रहा है जहा बच्चों से कोबाल्ट खदानों में जबरन काम करवाया जा रहा है। कोबाल्ट एक अत्यधिक ज़हरीला पदार्थ है, जो बच्चों में कार्डियोमायोपैथी (इसमें हृदय का आकार बड़ा और लुंज-पुंज हो जाता है और अपनी संरचना को बनाए रखने और रक्त पंप करने में असमर्थ हो जाता है) के अलावा खून गाढ़ा करता है तथा बहरापन और अंधेपन जैसी अन्य समस्याएँ  पैदा करता है। कई बार मौत भी हो सकती है। कमज़ोर सुरक्षा नियमों के कारण ये बच्चे सुरंगों में खनन करते हुए कोबाल्ट विषाक्तता का शिकार हो जाते हैं। गैस मास्क या दस्ताने जैसे सुरक्षा उपकरणों के अभाव में कोबाल्ट त्वचा या श्वसन तंत्र के माध्यम से रक्तप्रवाह में आसानी से प्रवेश कर जाता है। इन सुरंगों के धँसने का खतरा भी होता है। 

कोबाल्ट और कॉपर का उपयोग इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के साथ-साथ अर्धचालकों के सर्किट निर्माण में किया जाता है, जिन्हें मोबाइल फोन और टैबलेट में सिस्टम ऑन-ए-चिप (एसओसी) और कंप्यूटर में प्रोसेसर कहा जाता है। सीसा, पारा और कैडमियम बैटरी में उपयोग की जाने वाली धातुएँ  हैं। कैडमियम का उपयोग विशेष रूप से रोज़मर्रा के इलेक्ट्रॉनिक्स में लगने वाली लीथियम-आयन बैटरियों को स्थिरता प्रदान करने के लिए किया जाता है।

एमनेस्टी इंटरनेशनल की एक रिपोर्ट के अनुसार, खनन उद्योग ने डीआरसी की सेना के साथ मिलकर संसाधन-समृद्ध भूमि का उपयोग करने के उद्देश्य से पूरे के पूरे गांवों को ज़मींदोज़ करके हज़ारों नागरिकों को विस्थापित कर दिया है। 

एक अन्य रिपोर्ट में फ्रांस की दो सरकारी एजेंसियों ने यह गणना की है कि एक फोन के निर्माण के लिए कितने कच्चे माल की आवश्यकता होती है। इस रिपोर्ट के अनुसार सेकंड हैंड फोन खरीदने या नया फोन खरीदने को टालकर हम कोबाल्ट और तांबे के खनन की आवश्यकता को 81.64 किलोग्राम तक कम कर सकते हैं। रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि अगर अमेरिका के सभी लोग एक और साल के लिए अपने पुराने स्मार्टफोन का उपयोग करते रहें, तो हम लगभग 18.14 लाख किलोग्राम कच्चे माल के खनन की आवश्यकता से बच जाएँगे। इसे भारतीय संदर्भ में देखा जाए, जिसकी जनसंख्या अमेरिका की तुलना में 4.2 गुना है, तो हम 76.2 लाख किलोग्राम कच्चे माल के खनन की आवश्यकता से बच सकते हैं।

संख्याएँ चौंका देने वाली लगती हैं; लेकिन दुर्भाग्य से यही सच है। और तो और, ये संख्याएँ बढ़ती रहेंगी; क्योंकि दुनियाभर की सरकारें इलेक्ट्रॉनिक वाहनों और अन्य तथाकथित ‘पर्यावरण-अनुकूल’ जीवन समाधानों को प्रोत्साहित कर रही हैं। ये उद्योग विषाक्त पदार्थों का खनन करने वाले बच्चों के कंधों पर खड़े हैं, उनकी क्षमताओं का शोषण कर रहे हैं और उन्हें उनकी इच्छा के विरुद्ध कार्य करने के लिए मजबूर कर रहे हैं। हाल के वर्षों में तांबे के खनन में 43% और कोबाल्ट के खनन में 30% की वृद्धि हुई है। 

यह सच है कि इलेक्ट्रिक वाहन के उपयोग से प्रत्यक्ष उत्सर्जन कम होता है, लेकिन इससे यह सवाल भी उठता है कि पर्यावरण की रक्षा करने की ज़िम्मेदारी क्या सिर्फ आम जनता पर है। व्यक्तिगत रूप से देखा जाए तो एक व्यक्ति इतना कम उत्सर्जन करता है कि भारी उद्योग में किसी एक कंपनी के वार्षिक उत्सर्जन की बराबरी करने के लिए उसे कई जीवन लगेंगे। आइए अब हमारी पसंदीदा टेक कंपनियों की कुछ गुप्त रणनीतियों पर एक नज़र डालते हैं, जो हमें उन नई और चमचमाती चीज़ों की ओर आकर्षित करती हैं, जिनकी वास्तव में हमें आवश्यकता ही नहीं है।

टेक कंपनियों की तिकड़में 

आम तौर पर टेक कंपनियाँ ऐसे उपकरण बनाती हैं, जो बहुत लम्बे समय तक कार्य कर सकते हैं। स्मार्टफोन, टैबलेट या कंप्यूटर के डिस्प्ले तथा एंटीना और अन्य सर्किटरी दशकों तक काफी अच्छा प्रदर्शन करने में सक्षम होते हैं। हर हार्डवेयर सॉफ्टवेयर पर चलता है , जो अंततः उपयोगकर्ता के अनुभव को निर्धारित करता है। इसका मतलब यह है कि सॉफ्टवेयर को ऑनलाइन अपडेट करके उपयोगकर्ता द्वारा संचालन के तरीके को बदला जा सकता है। हम यह भी जानते हैं कि टेक कंपनियों का मुख्य उद्देश्य लंबे समय तक चलने वाले उपकरण बनाना नहीं है, बल्कि उपकरण बेचना है और यदि उपभोक्ता नए-नए फोन न खरीदें तो कारोबर में पैसों का प्रवाह नहीं हो सकता है। इसका मतलब है कि फोन बेचते रहना उनकी ज़रूरत है और टिकाऊ उपकरण बनाना टेक कंपनियों के इस प्राथमिक उद्देश्य के विरुद्ध है।

नियोजित रूप से चीज़ों को अनुपयोगी बना देना भी टेक जगत की एक प्रसिद्ध तिकड़म है। हर साल सैमसंग, श्याओमी और ऐप्पल जैसे प्रमुख टेक निर्माता ग्राहकों को अपने उत्पादों के प्रति लुभाने के लिए नए-नए लैपटॉप, स्मार्टफोन और घड़ियाँ जारी करते हैं, ताकि ग्राहक जीवन भर ऐसे नए-नए उपकरण खरीदते रहें जिनकी उनको आवश्यकता ही नहीं है। अभी हाल तक प्रमुख एंड्रॉइड फोन और टैबलेट निर्माता अपने उपकरणों के सॉफ्टवेयर और सुरक्षा संस्करणों को 2 साल के लिए अपडेट करते थे। यह एक ऐसा वादा था, जो शायद ही पूरा होगा। ऐप्पल कंपनी 5-6 साल के वादे के साथ अपडेट के मामले में सबसे आगे थी, , जो उन लोगों के लिए अच्छी खबर थी , जो अपने फोन को लंबे समय तक अपने पास रखना चाहते थे। लेकिन सच तो यह है कि प्रत्येक अपडेट में पिछले की तुलना में अधिक कम्प्यूटेशनल संसाधनों की आवश्यकता होती है। जिसके परिणामस्वरूप फोन धीमा हो जाता है और उपभोक्ताओं को 6 साल तक अपडेट चक्र से पहले ही नया फोन खरीदने के लिए मजबूर होना पड़ता है।

ऐप्पल जैसी कंपनियाँ फोन के विभिन्न पार्ट्स को क्रम संख्या देने और उन्हें लॉजिक बोर्ड में जो ड़ने के लिए भी बदनाम हैं ताकि दूसरी कंपनी के सस्ते पार्ट्स उनके हार्डवेयर के साथ काम न करें। यह बैटरी या फिंगरप्रिंट या भुगतान के दौरान चेहरे की पहचान करने वाले सेंसर जैसे पार्ट्स के लिए तो समझ में आता है , जो हिफाज़त या सुरक्षा की दृष्टि से आवश्यक हैं। लेकिन एक चुंबक को क्रम संख्या देना एक मरम्मत-विरोधी रणनीति है। यह लैपटॉप को बस इतना बताता है कि उसका ढक्कन कब नीचे है और उसकी स्क्रीन बंद होनी चाहिए। वैसे कैमरा, लैपटॉप और स्मार्टफोन बनाने वाली प्रमुख कंपनियाँ कार्बन-तटस्थ होने का दावा तो करती हैं लेकिन इन कपटी रणनीतियों से ई-कचरे में वृद्धि होती है।

यह मामला टेस्ला जैसे विद्युत वाहन निर्माताओं और जॉन डीरे जैसे इलेक्ट्रिक कृषि उपकरण निर्माताओं के साथ भी है। फरवरी 2023 में, अमेरिकी न्याय विभाग ने इलिनॉय संघीय न्यायालय से अपने उत्पादों की मरम्मत पर एकाधिकार स्थापित करने की कोशिश के लिए जॉन डीरे के खिलाफ प्रतिस्पर्धा-विरोधी (एंटी-ट्रस्ट) मुकदमे को खारिज न करने का निर्देश दिया था। 2020 में जॉन डीरे पर पहली बार अपने ट्रैक्टरों की मरम्मत के लिए बाज़ार पर एकाधिकार स्थापित करने और उसे नियंत्रित करने की कोशिश करने का आरोप लगाया गया था। कंपनी ने उत्पादों को इस प्रकार बनाया था कि उनकी मरम्मत के लिए एक सॉफ्टवेयर की आवश्यकता अनिवार्य रहे , जो केवल कंपनी के पास था। टेस्ला ने कारों में भी इन-बिल्ट सॉफ्टवेयर का उपयोग किया था जिससे यह पता लग जाता है कि थर्ड पार्टी या आफ्टरमार्केट रिप्लेसमेंट पार्ट्स का इस्तेमाल किया गया है। ऐसा करने वाले ग्राहकों को अमेरिका भर में फैले टेस्ला के फास्ट चार्जिंग इंफ्रास्ट्रक्चर से ब्लैकलिस्ट करके दंडित किया जाता है जिसकी काफी आलोचना भी हुई है। 

इस मामले में यह समझना आवश्यक है कि निर्माता कार्बन-तटस्थ और पर्यावरण-अनुकूल होने के बारे में बड़े-बड़े दावे तो करते हैं लेकिन सच्चाई कहीं अधिक कपटपूर्ण और भयावह है। टेक कंपनियों की रुचि मुनाफा कमाने और अपने निवेशकों को खुश रखने के लिए हर साल नए उत्पाद लॉन्च करके निरंतर पैसा कमाने की है। उन्हें पर्यावरण-अनुकूल होने की चिंता नहीं है, बल्कि उनके लिए यह सरकार को खुश रखने का एक दिखावा मात्र है जबकि इन उपकरणों के लिए आवश्यक कच्चे माल से समृद्ध देशों में बच्चों का सुनियोजित शोषण एक अलग कहानी बताते हैं। इन सामग्रियों की विषाक्त प्रकृति के कारण बच्चों का जीवन छोटा हो जाता है। कंपनियाँ अपना खरबों डॉलर का साम्राज्य बाल मज़दूरों की कब्रों पर बना रही हैं।

निष्कर्ष

तो इन कंपनियों के साथ संवाद करते समय उपभोक्ता के रूप में हम किन बातों का ध्यान रखें? हमें यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि विज्ञापन का हमारे अवचेतन पर व्यापक प्रभाव पड़ता है और ये हमें ऐसी चीज़ें खरीदने के लिए मजबूर करते हैं जिनकी हमें ज़रूरत नहीं है। ऐसा विभिन्न कारणों से हो सकता है - कभी-कभी हम इन वस्तुओं को अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ते हैं, हो सकता है कोई व्यक्ति नए आईफोन को अपने दोस्तों के बीच प्रतिष्ठा में वृद्धि के रूप में देखता हो। कोई हर साल नया उत्पाद इसलिए भी खरीद सकता है क्योंकि मार्केटिंग हमें यह विश्वास दिलाता है कि हमें हर साल नए उत्पादों में होने वाले मामूली सुधारों की आवश्यकता है। यह सच्चाई से कोसों दूर है। अगर हम केवल कॉल करते हैं, सोशल मीडिया ब्राउज़ करते हैं और ईमेल और टेक्स्ट भेजते और प्राप्त करते हैं तो हमें 12% अधिक फुर्तीले फोन की आवश्यकता कदापि नहीं है। यदि सड़कों पर 100 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से गाड़ी चला ही नहीं सकते, तो ऐसी कार की क्या ज़रूरत है , जो पिछले साल के मॉडल के 4 सेकंड की तुलना में 3.5 सेकंड में 0-100 की रफ्तार तक पहुँच जाए। यहाँ मुद्दा यह है कि हम अक्सर, अतार्किक कारणों से ऐसी चीज़ें खरीदते हैं जिनकी हमें आवश्यकता नहीं होती और ऐसा करते हुए इन उत्पादों की मांग पैदा करके पर्यावरण को नुकसान पहुँचाते हैं।

उत्पाद खरीदते समय हमें इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए कि इन उत्पादों के पार्ट्स को बदलना या मरम्मत करना कितना कठिन या महँगा होने वाला है। मरम्मत करने में कठिन उत्पाद उपभोक्ता को एक नया उत्पाद खरीदने के लिए मजबूर करता है जिससे अर्थव्यवस्था में इन उत्पादों की मांग पैदा होती है। नतीजतन अंततः पर्यावरण को नुकसान पहुँचता है तथा मानव तस्करी और बाल मजदूरी के रूप में मानवाधिकारों का उल्लंघन होता है।

ऐसे मामलों में जब भी बड़ी कंपनियों की प्रतिस्पर्धा-विरोधी (एंटी-ट्रस्ट) प्रथाओं की बात आती है तो जागरूकता की सख्त ज़रूरत होती है। मानव तस्करी और बाल श्रम जैसी संदिग्ध नैतिक प्रथाओं तथा प्रतिस्पर्धा-विरोधी नीतियों में लिप्त कंपनियों से उपभोक्ताओं को दूर रहना चाहिए और उनका बहिष्कार करना चाहिए। इन बहिष्कारों का कंपनियों पर गहरा प्रभाव पड़ता है क्योंकि मुनाफे के लिए वे अंतत: उपभोक्ताओं पर ही तो निर्भर हैं। दिक्कत यह है कि उपभोक्ता संगठित नहीं होते हैं। दरअसल बाज़ार उपभोक्ताओं को उनके पसंद की विलासिता प्रदान करता है, ऐसे में उपभोक्ता की यह ज़िम्मेदारी भी है कि वह बाज़ार को सतत और नैतिक विनिर्माण विधियों की ओर ले जाने के लिए अपनी मांग की शक्ति का उपयोग करे। अब देखने वाली बात यह है कि हम अपनी बेतुकी मांग से पर्यावरण व मानवाधिकारों को होने वाले नुकसान के प्रति जागरूक होते हैं या नहीं। (स्रोत फीचर्स)   ■

लघुकथाः कबाड़

  -  सुभाष नीरव

बेटे को तीन कमरों का फ्लैट आवंटित हुआ था। मजदूरों के संग मजदूर बने किशन बाबू खुशी-खुशी सामान को ट्रक से उतरवा रहे थे। सारी उम्र किराये के मकानों में गला दी। कुछ भी हो, खुद तंगी में रहकर बेटे को ऊँची तालीम दिलाने का फल ईश्वर ने उन्हें दे दे दिया था। बेटा सीधा अफसर लगा और लगते ही कम्पनी की ओर से रहने के लिए इतना बड़ा फ्लैट उसे मिल गया।

बेटा सीधे आफिस चला गया था। किशन बाबू और उनकी बहू दो मजदूरों की मदद से सारा सामान फ्लैट में लगवाते रहे।

दोपहर को लंच के समय बेटा आया, तो देखकर दंग रह गया। सारा सामान करीने से सजा-सँवारकर रखा गया था। एक बैडरूम, दूसरा ड्राइंगरूम और तीसरा पिताजी और मेहमानों के लिए। वाह !

बेटे ने पूरे फ्लैट का मुआयना किया। बड़ा-सा किचन, किचन के साथ बड़ा-सा एक स्टोर, जिसमें फालतू का काठ-कबाड़ भरा पड़ा था। उसने गौर से देखा और सोचने लगा। उसने तुरन्त पत्नी को एक ओर ले जाकर समझाया-- देखो, स्टोर से सारा काठ-कबाड़ बाहर फिंकवाओ। वहाँ तो एक चारपाई बड़े आराम से आ सकती है। ऐसा करो, उसकी अच्छी तरह सफाई करवाकर पिताजी की चारपाई वहीं लगवा दो। तीसरे कमरे को मैं अपना रीडिंग-रूम बनाऊँगा।

रात को स्टोर में बिछी चारपाई पर लेटते हुए किशन बाबू को अपने बूढ़े शरीर से पहली बार कबाड़-सी दुर्गन्ध आ रही थी।    ■


बाल कविताः चिड़िया गीत सुनाती है

  -  रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

चित्रः स्वाति बरणवाल 








बैठ मुँडेरे, बड़े सवेरे

चिड़िया गीत सुनाती है।

सोते रहते सभी घरों में;

लेकिन वह जग जाती है।


नन्हे बच्चे चोंच खोलकर

चींचीं-चींचीं गाते हैं

चिड़िया जो लाकर दे देती

मिल-जुलकर खा जाते हैं।

कभी संग उनको लेजाकर

उड़ना वह सिखलाती है।


होती शाम, डूबता सूरज

नभ में घिरता अँधियारा

होते फिर आबाद घोंसले

गूँज उठा उपवन सारा

बैठ डाल पर प्यारी चिड़िया

रुक-रुक लोरी गाती है।


चिंतनः मन थोड़ा बदल जाए तो...

-  सीताराम गुप्ता

प्रसिद्ध उर्दू शायर शुजाअ खावर साहब का एक शेर है – 

थोड़ा-सा बदल जाए, तो बस ताज हो और तख़्त, 

इस दिल का मगर क्या करें सुनता नहीं कमबख़्त। 

यदि हमारा मन थोड़ा सा बदल जाए, तो सचमुच कमाल हो जाए। क्या करें इस मन का? यह मन है कि मानता ही नहीं। यह मन ही है, जो हमें अपने अनुसार चलाता है लेकिन यदि हम मन को अपनी बात सुना सकें, इसे थोड़ा मना सकें और अपने अनुसार चला सकें तो यही मन हमें जीवन के हर क्षेत्र में अपार सफलता और खुशियाँ दिलवा सकता है। हमारे जीवन में क्रांति उत्पन्न कर सकता है। 

कालिदास कहते हैं - नास्त्यगतिर्मनोरथानां अर्थात् मन की इच्छा के समक्ष कुछ भी अगम्य नहीं है। मन , जो चाहे कर सकता है और मन को बदलना, मन पर नियंत्रण कर इसको अपेक्षित दिशा में ले जाना, थोड़ा कठिन जरूर है लेकिन असंभव नहीं। एक बार इस मन को अपने नियंत्रण में ले लिया, इसकी चंचलता पर क़ाबू पा लिया तो जीवन में कुछ भी करना असंभव नहीं रह जाएगा। कहा गया है मन के हारे हार है मन के जीते जीत। वास्तव में जीवन में हम न तो हारते हैं और न ही असफल होते हैं अपितु यह हमारा मन है, जो हमारी हार-जीत अथवा सफलता-असफलता के लिए उत्तरदायी होता है। हार-जीत अथवा सफलता-असफलता की अनुभूति भी मन के कारण ही होती है अन्यथा जीवन में न तो हार-जीत होती है और न ही सफलता-असफलता ही।

 हार-जीत अथवा सफलता-असफलता मन की विभिन्न स्थितियाँ है। एक बच्चा परीक्षा में चालीस प्रतिशत अंक लेकर पास होता है और ख़ुश है लेकिन दूसरे बच्चे के अस्सी प्रतिशत अंक आने पर भी वो दुखी है। यहाँ सफलता अथवा ख़ुशी अंकों के आधार पर नहीं अपितु मन की स्थिति पर निर्भर है। हार-जीत ही क्या किसी भी प्रकार का सुख-दुख, लाभ-हानि, आरोग्य अथवा रुग्णता सब मन की स्थिति पर निर्भर करता है। मन न केवल प्रसन्नता अथवा दुख का कारण बनता है अपितु मन द्वारा ही अपेक्षित प्रसन्नता व सफलता भी प्राप्त की जा सकती है। मन की स्थिति अथवा सोच को परिवर्तित करके न केवल वर्तमान स्थिति में परिवर्तन संभव है अपितु नई लाभप्रद स्थितियों का निर्माण भी संभव है।

  सोच क्या है और इसका प्रभाव कैसे पड़ता है? हमारे शरीर को कई प्रकार से विभाजित और वर्गीकृत किया गया है। इसे कई भागों, कई परतों अथवा कोशों में विभाजित किया गया है लेकिन यहाँ हम मोटे तौर पर शरीर को तीन भागों में विश्लेषित करेंगे। एक है हमारा स्थूल शरीर अथवा भौतिक शरीर (फिजिकल बॉडी), दूसरा है कारण शरीर अथवा मानसिक शरीर अर्थात् ‘मन’ (मेंटल बॉडी अर्थात् माइंड) और तीसरा है सूक्ष्म शरीर अथवा आध्यात्मिक शरीर या ‘चेतना’ (स्पिरिच्युअल बॉडी अथवा कांशियसनेस या सोल)। कारण शरीर अथवा हमारा मन हमारे हाड़-मांस द्वारा निर्मित भौतिक शरीर और हमारी चेतना के मध्य सेतु का काम करता है, हमारे स्थूल शरीर को हमारी चेतना से जोड़ता है और हमारी चेतना ही तमाम संभावनाओं का विपुल क्षेत्र है।

     मन की शक्ति द्वारा जब हम इस अपरिमित ऊर्जा के स्रोत से जुड़ जाते हैं तो जीवन में कुछ भी कर गुज़रना या पा लेना असंभव नहीं रहता। मन में इच्छा उत्पन्न होने की देर है पूरा होने में नहीं। भौतिक शरीर में वांछित सकारात्मक परिवर्तन के साथ-साथ संपूर्ण भौतिक जगत में किसी भी वस्तु की प्राप्ति सुलभ है मन की शक्ति के द्वारा। मन की शक्ति अथवा मन की एकाग्रता के द्वारा अर्थात् मन को केवल एक स्थान, एक स्थिति या एक बिंदु पर केंद्रित करके भौतिक जगत की हर वस्तु की प्राप्ति संभव है। लेकिन मन तो बड़ा चंचल है इसमें परस्पर विरोधी विचारों का ताना-बाना चलता ही रहता है फिर इसे एक विचार पर  कैसे केंद्रित करें और वो भी उपयोगी विचार पर?

     मन में उठने वाले विचारों को हम दो भागों में बाँट सकते हैं। सकारात्मक विचार तथा नकारात्मक विचार। हमारे दोनों प्रकार के विचारों का कारण है हमारा परिवेश, हमारे संस्कार तथा हमारी शिक्षा-दीक्षा। इन्हीं तत्त्वों से हमारे विचारों की उत्पत्ति प्रभावित होती है। समय के अनुसार भी इनमें परिवर्तन होता रहता है। क्योंकि मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है अतः वह अपने विवेक द्वारा अच्छे या बुरे विचारों में अर्थात् सकारात्मक या नकारात्मक विचारों में अतंर करके अपने लिए सकारात्मक विचारों का चुनाव कर सकता है। विचारों का चुनाव ही सबसे महत्त्वपूर्ण होता है। विचार ही हमारी नियति के निर्धारक तत्त्व होते हैं। सही सकारात्मक विचार के चुनाव के उपरांत उस विचार को एक सपने के रूप में लें। किसी विचार या घटना का चुनाव करने के उपरांत दिन-रात, सोते-जागते, उठते-बैठते उसी का सपना देखें। उस विचार को बीज की तरह बो दें। मन में उसे दृढ़तर करते जाएँ।

     आप , जो भी हृदय से चाहते हैं, आपका जीवन के प्रति , जो दृष्टिकोण है यदि आज उसको एक सपने के रूप में ले सकते हैं, उसका बार-बार ख़्वाब देखने की ताक़त पैदा कर सकते हैं तो आप उसे निश्चित रूप से प्राप्त भी कर सकते हैं। प्रायः कहा जाता है कि व्यक्ति का मनचाहा नहीं होता लेकिन वास्तविकता यही है कि व्यक्ति का मनचाहा ही होता है और केवल मनचाहा ही होता है। क्या मटर के बीज बोने से चने के पौधे उग सकते हैं? नहीं, बिलकुल नहीं। यदि मटर के बीज बोने पर चने के पौधे उग आते हैं तो इसका सीधा सा अर्थ है कि हमें या तो बीजों की पहचान नहीं है या फिर हमने कौन से बीज बोए थे, यह भूल गए हैं। हमें सोच-समझकर सही बीज बोने चाहिए और कौन से बीज बोए थे यह भी याद रखना चाहिए।

     ऐसा ही हमें अपने विचारों के साथ करना चाहिए। हमें न केवल सोच-समझकर उपयोगी विचारों का चयन करना चाहिए अपितु उन्हें याद भी रखना चाहिए। उन्हें बार-बार दोहराते रहना चाहिए। हमारा मनचाहा कभी नहीं होता, यह हमें इसलिए लगता है कि हमारा अपने विचारों पर नियंत्रण नहीं होता। हम , जो चाहते हैं, प्रायः उसका विरोधी विचार हमारे मन पर उससे भी अधिक तीव्रता से प्रभावी हो जाता है और , जो अधिक प्रभावशाली विचार होता है, वही हमारे जीवन की वास्तविकता बन जाता है। यदि हमारा अपने मन पर नियंत्रण हो, तो हम ऐसे विचारों की पहचान कर उनसे बच सकते हैं। इसलिए हमें हर समय अपने विचारों पर नजर रखनी चाहिए और अनपेक्षित विचारों को मन से निकाल देना चाहिए। इसका भी एक तरीक़ा है और वो है जब भी कोई अनचाहा विचार प्रभावी होने लगे फ़ौरन उसका विरोधी विचार, जो स्वयं के लिए उपयोगी हो मन में ले आएँ।

     वास्तव में हम ऐसा कोई स्वप्न देख ही नहीं सकते जिसको पूरा करने की सामर्थ्य या क्षमता हममें न हो। हमारे अंदर किसी विचार, किसी स्वप्न के बीज हैं तो उनको कार्यरूप में परिणत करने की योग्यता भी हममें है। इसके लिए समस्त ब्रह्माण्डीय शक्तियाँ हमारा सहयोग करती हैं ताकि हमारे सपने अथवा विचार वास्तविकता में परिवर्तित हो सकें। गोस्वामी तुलसीदास ने भी कहा है कि-

 जेहि का जेहि पर सत्य सनेहू, 

सो तेहि मिलहिं न कछु संदेहू। 

जिसे हम मन से प्यार करते हैं उसे अवश्य पा लेते हैं। इसे यूँ भी कह सकते हैं कि जिसे या जिस वस्तु को पाना हो उसे मन से प्यार कीजिए। सच्चा प्यार, अच्छे मित्र, धन-दौलत अथवा मान-प्रतिष्ठा सच्चे मन से चाहने पर कुछ भी असंभव नहीं।

   हमारी वर्तमान स्थिति वास्तव में हमारे पिछले चिंतन अथवा हमारी पिछली सोच का परिणाम मात्र है। जिसे हम कर्म का सिद्धांत कहते हैं वह भी यही है। हम , जो कर्म करते हैं अथवा हमने , जो कर्म किए हैं, वे हमारी सोच द्वारा ही निर्धारित होते हैं। अतः सोच द्वारा कर्म तथा कर्म द्वारा अपने जीवन को अपेक्षित आकार देना हमारे अपने हाथों में ही है। और यह संभव है सकारात्मक सोच द्वारा और सकारात्मक सोच संभव है मन पर नियंत्रण द्वारा। सरल सूत्र है: मन को मनाइए सफलता पाइए, मन को मनाइए प्रभावशाली व्यक्तित्व पाइए अथवा मन को मनाइए अच्छा स्वास्थ्य पाइए। मन की शक्ति द्वारा हम क्या-क्या पा सकते हैं इस सूची की कोई सीमा नहीं है।

   इस प्रकार मन पर नियंत्रण और विचारों के सुसंस्कार द्वारा मनोवृत्तियों का रूपातंरण कर हम जीवन के हर क्षेत्र में अपार सफलता प्राप्त करने में सक्षम हैं। मित्रो! तख़्तो-ताज की प्राप्ति अर्थात् जीवन में सुख-समृद्धि, प्रतिष्ठा, प्रभावशाली व्यक्तित्व, अच्छा स्वास्थ्य या आरोग्य तथा मनोनुकूल परिस्थितियाँ चाहते हो तो आज ही मन को अपने नियंत्रण में करने का प्रयास कीजिए और उसे विवश कर दीजिए कि वो आपकी बात सुने। उससे अपनी बात कहते रहिए, कहते रहिए। वो कब तक आपकी बात नहीं मानेगा? और एक बार उसने आपकी बात मान ली तो परिस्थितियाँ अपने आप अनुकूल होती चली जाएँगी। बस एक ही बात का ध्यान रखना ज़रूरी है और वह यह  है कि हर बात अथवा हर विचार सकारात्मक, सार्थक व उपयोगी हो। ■

सम्पर्कः ए.डी. 106 सी., पीतमपुरा, दिल्ली – 110034, मोबा. नं. 9555622323, Email : srgupta54@yahoo.co.in


कविताः नदिया

-  गौतमी पाण्डेय






सागर से मिलने पर नदिया के

देखो नयन भर आए हैं!

क्या पाया था! क्या कर बैठे!

इस पार उतर जब आए हैं।


जिनके सिंचन-पोषण को मैं

हिम पर्वत से मुँह मोड़ चली,

दायित्व निभाने को अपने,

सम्बंध सभी मैं, तोड़ चली!


पोषण लेकर दूषण लौटाया,

ममता का ऋण यूँ है चुकाया!

उद्धार पाकर, मानव जाति,

मर्यादा अपनी छोड़ चली!


इतना अपशिष्ट प्रवाहित कर,

इस शुभ्र आभा को मलिन किया।

माँ हूँ! क्या करती, बालक को,

अपनी क्षमता से अधिक दिया!


कहती- "बालक अपने ही हैं"

रहती वात्सल्य, लुटाए है!

सागर से मिलने पर नदिया के

देखो नयन भर आए हैं!

स्वास्थ्यः ऊँचे पहाड़ जीवन के लिए बेहतर

  - डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

समुद्र तल से 4570 मीटर की ऊँचाई पर बसा लद्दाख का कर्ज़ोक गाँव हमारे देश की सबसे ऊँची बस्ती है। आबादी है तकरीबन 1300। हिमाचल प्रदेश के कोमिक और हानले गाँव भी समुद्र तल से 4500 मीटर से अधिक की ऊँचाई बसे हैं। 

अनुमान है कि पूरी दुनिया में लगभग 64 लाख लोग (विश्व जनसंख्या के लगभग 0.1 प्रतिशत) समुद्र तल से 4000 मीटर या अधिक की ऊँचाई पर रहते हैं। इनमें से अधिकतर लोग 10,000 से अधिक वर्षों से दक्षिणी अमेरिका के एंडीज़ और एशिया के तिब्बत के ऊँचे मैदानी इलाकों में रहते आए हैं। कम ऊँचाई पर रहने वाले लोग जब अधिक ऊँचाई पर पहुँचते हैं तो वहाँ की अधिक ठंड और कम वायुमंडलीय दाब, जिसके कारण यहाँ ऑक्सीजन कम होती है, से तालमेल बनाने में कठिनाई होती है। तो सवाल यह है कि वहाँ रहने वाले लोग इसके प्रति कैसे अनुकूलित हैं और उन्हें क्या मुश्किलें पेश आती हैं?

उसमें जाने से पहले आर्थिक हालात पर एक नज़र डालते हैं। हिमालय जैसी जगहों पर बहुत कम लोगों के बसने का एक मुख्य कारण है अवसरों की कमी। अव्वल तो खेती के लिए खड़ी पहाड़ी ढलानों को सपाट या सीढ़ीदार आकार देने की आवश्यकता होती है। फिर, सिंचाई के लिए पानी एक बड़ी चुनौती है। इसके अलावा, जैसे-जैसे आप ऊँचाई पर जाते हैं तो मिट्टी को पोषण प्रदान करने वाले जीव (जैसे कवक और कृमि) कम होते जाते हैं।

ऊँचे इलाकों में मवेशियों, जैसे हिमालय में याक और एंडीज़ में लामा, अलपाका और विकुना, की चराई साल के केवल गर्म महीनों में संभव है। जहाँ संसाधन मिलते हैं वहाँ खनन किया जाता है। दुनिया की सबसे ऊँची बस्ती पेरु स्थित ला रिकोनेडा (ऊँचाई समुद्र तल से 5100 मीटर) में सोने की खान पता चलने के बाद हज़ारों लोग वहाँ बसना चाहते हैं। आजकल एडवेंचरस पर्यटन भी जीविका प्रदान करता है – समुद्र तल से 4950 मीटर की ऊँचाई पर स्थित नेपाल का लोबुचे गाँव माउंट एवरेस्ट फतह करने की कोशिश करने वाले पर्वतारोहियों को आश्रय देता है।

फेफड़ों की क्षमता

कम ऊँचाई पर रहने वाले लोग जब अधिक ऊँचाई पर जाते हैं तो उनकी आधारभूत चयापचय दर 25-30 प्रतिशत बढ़ जाती है। आधारभूत चयापचय दर कैलोरी की वह मात्रा है , जो तब खर्च होती है जब आप कुछ ना करें, पूरे दिन बिस्तर पर पड़े रहें। उच्च आधारभूत चयापचय का मतलब है कि शरीर को अधिक ऑक्सीजन चाहिए होती है जबकि हवा कम है और ऑक्सीजन भी कम है। ऐसे कम ऑक्सीजन वाले माहौल में अनुकूलित होने में कुछ हफ्ते लगते हैं।

दिलचस्प बात यह है कि अधिक ऊँचाई के लिए अनुकूलित तिब्बतियों और एंडियन्स की आधारभूत चयापचय दर मैदानों में रहने वाले लोगों के बराबर ही होती है। फोर्स्ड वाइटल केपेसिटी (FVC) श्वसन सम्बंधी एक आंकड़ा होता है। यह हवा की वह अधिकतम मात्रा है जिसे आप गहरी सांस खींचने (फेफड़ों में भरने) के बाद ज़ोर लगाकर बाहर छोड़ सकते हैं। ऊँचाई पर रहने के लिए अनुकूलित पुरुषों में यह फोर्स्ड वाइटल कैपेसिटी 15 प्रतिशत अधिक और महिलाओं में 9 प्रतिशत अधिक होती है। और प्रति सेंकड श्वास के साथ छोड़ी गई हवा भी अधिक होती है।

दक्षिण अमेरिका के मूल निवासी केचुआ जाति (इन्का लोग इसी समूह के हैं) के लोगों का सीना गहरा होता है। अधिक ऊँचाई पर पैदा हुए और पले-बढ़े इन लोगों की फोर्स्ड वाइटल कैपेसिटी समुद्र के करीब रहने वाले इनके वंश के लोगों और रिश्तेदारों की तुलना में अधिक होती है।

लगता है कि जीवन की कठिन परिस्थितियाँ फिटनेस सुनिश्चित करती हैं। हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जि़ले में हुए अध्ययनों से पता चलता है कि 70-74 वर्ष की आयु में भी औसत रक्तचाप 120/80 बना रहता है।

अधिक ऊँचाई पर रहने से जुड़ी कठिनाइयों के साथ कुछ फायदे भी हो सकते हैं। मई 2023 में प्लॉस वन बायोलॉजी में प्रकाशित एक अध्ययन में मूलत: कम जीवनकाल वाले चूहों की एक नस्ल के साथ काम करते हुए शोधकर्ताओं ने पाया कि एवरेस्ट बेस कैंप जैसी कम ऑक्सीजन वाली आबोहवा में ये चूहे 50 प्रतिशत ज़्यादा जीवित रहे!    ■

डायरी के पन्नों सेः मन्नत का वह धागा

  - शशि पाधा

अपनी कहानी कहाँ से शुरू करूँ ? जिन्दगी का सफ़र  जिस मोड़ पर शुरू हुआ, चलो  वहीं से शुरू करती हूँ -

वर्ष 1967 के दिसंबर महीने में मैं अपने कालेज के वार्षिक टूयर पर गई थी। सारी प्रिय सहेलियाँ, दो प्रोफेस्सर और एक बस। दिल्ली, आगरा, जयपुर, मथुरा -वृन्दावन जैसे प्रसिद्ध नगरों की सैर का कार्यक्रम था। उन दिनों जम्मू से कोई रेलगाड़ी नहीं चलती थी, इसीलिए यह सारा सफ़र बस से ही करना था। सफर कितना भी लंबा हो, अगर साथ मजेदार हो, तो कहना ही क्या! 

मैंने  अपने कपड़ों में अपनी भाभी से माँगी हुई दो साड़ियाँ, हलके रंग की लिपस्टिक भी पैक कर ली थी। साथ में धूप वाला काला  चश्मा भी। यह सब सभी सहेलियों ने मिल बैठ के तय किया था। सब मस्ती करने के मूड में थे। बस अभी जम्मू से निकली ही थी कि अन्ताक्षरी शुरू हो गई। खाना-पीना, गाना-बजाना करते हुए हम दिल्ली पहुँच गए।

दिल्ली में पहुँचते ही धीरे-धीरे लड़कियों के पर्स से लिपस्टिक निकलने लगी। किसी ने हल्की सी लगाईं और किसी ने ज़रा गहरी गुलाबी। सब के पास, तो माँगी हुई ही थी न, , जो भाभी-दीदी ने दे दी वही , तो लगानी थी। वैसे क्या फर्क पड़ता था। अपना, तो कोई आस-पास था नहीं, कौन देख रहा था। दिल्ली के प्रसिद्ध स्थानों को देख कर दो दिन के बाद हमारी बस आगरा पहुँची। 

 मेरी कहानी का पहला चैप्टर आगरा से ही  शुरू हुआ था । ताज महल, सिकंदरा, आगरा फोर्ट देखने के बाद हम सब फतेहपुर सीकरी पहुँच गए। दरगाह में माथा टेकने के बाद गाइड हमें एक  पेड़ के पास ले गया और लम्बी कहानी सुनाते हुए उसने कहा, “ यहाँ पर धागा बाँधने से सब के मन की मुराद पूरी होती है।” गाइड भी एक लड़का सा ही था। हम लड़कियों को देख कर शरारत से शब्दों में उसने कहा, “ जिसके मन में , जो कोई है, आज माँग लो। देखना वही मिलेगा।”

हमारी बस वहाँ से शहर की तरफ जा रही थी। कुछ लड़कियाँ एक- दूसरे की मन्नत के बारे में अनुमान लगा रहीं थी। जिनके मन का रहस्य पता था, उनका नाम लेकर छेड़- छाड़ चल रही थी। 

अचानक मेरे साथ बैठी मेरी सहेली ने मुझसे पूछा, “ शशि, तूने किसके लिए धागा बाँधा है? तू चुप रहती है पर ज़रूर कोई है तेरे दिल में। हैं ना? और उसके साथ बाकी लड़कियों  ने भी पूछना शुरू कर दिया। 

“ है न कोई, बता न- धागा किसके लिए बाँधा है ??” और पता नहीं क्या क्या बोलकर उन सब ने बस में शोर मचाना शुरू कर दिया। 

सच बताऊँ? मैं उस समय बस की खिड़की से बाहर देख रही थी। बाहर सड़क पर लाल कैप (फौज में पैराट्रूपर ही लाल रंग की कैप पहनते हैं)  पहने हुए  एक सुंदर- सा फौजी अफसर अपनी मोटर साइकल पर जा रहा था। एक स्मार्ट  फौजी अफसर को देखकर लड़कियों ने खिड़कियों से हाथ हिलाना शुरू कर दिया। बस की खिड़कियों से लड़कियों की हँसी सुनकर उसने एक नज़र हमारी ओर डाली और मुस्कराकर, हाथ हिलाते हुए  निकल गया।

 हाँ वैसे मैं स्वभाव से इतनी खुली -डुली नहीं थी, अधिकतर चुप ही रहती थी; लेकिन पता नहीं मुझे क्या सूझी, मैंने जोर से एलान कर दिया - “ वह , जो फौजी अभी -अभी गया है न, उसी  के लिए मन्नत का धागा बाँधा है । बस खुश?”

बस में हँसी का, जोदौर शुरू हुआ, वह कई घंटों तक चलता रहा। 

ओ! स्मार्ट फौजी? पर वो, तो हाथ हिलाकर चला गया-  छेड़छाड़ का दौर बड़ी देर तक चलता रहा।

यह बात 28 दिसंबर की है। मुझे याद है क्योंकि कुछ तारीखें भूलती नहीं -

30 दिसम्बर को हम अपने टूयर से वापिस जम्मू पहुँचे थे। 31 दिसम्बर की दोपहर माँ ने मुझे सोते हुए जगाया और कहा, “कमला बुआ को तुमसे कोई ज़रूरी काम है। मुन्ना तुझे बुलाने के लिए आया है। जरा चली जा।”

कमला बुआ का घर मेरे घर के पास ही था। वह अक्सर स्वेटर के डिज़ाइन बनाते हुए मुझसे पूछती रहती थीं। मैंने सोचा, कुछ यही पूछना होगा। मन, तो नहीं था, थकी भी थी, पर चली गई।

कमला बुआ आँगन में बैठी स्वेटर बुन रही थी। पास ही कुर्सी पर किसी को बैठे देख मैं ठिठक गई । बुआ ने पास बिठाया और स्वेटर के डिज़ाइन की बात करने लगीं । फिर उस अजनबी की ओर देखते हुए कहा, “यह मेरा भतीजा है, कल ही आगरा से आया है। वहाँ फौज में कैप्टन है।”

मैंने उन्हें  नमस्ते कहा और जैसे ही जाने को उठी कैप्टन साहब ने कहा, ‘‘बैठ जाइए। बुआ बता रहीं थी कि आप भी आगरा गईं थी।’’

“हाँ!” कालेज टूयर के साथ।” -कुछ शर्माते हुए मैंने संक्षिप्त- सा उत्तर दिया और उठ खड़ी हुई। 

 “वहाँ कहाँ ठहरे थे आप लोग, क्या- क्या देखा?” उसने मुझे फिर रोक लिया था।

 मन में सोचा, न जान न पहचान। क्यों रुक जाऊँ? फिर भी खड़े- खड़े ही मैंने उस अजनबी के  प्रश्नों का ऊतर दिया। 

“देख शशि! यह डिज़ाइन ठीक से बन नहीं रहा है, ज़रा बैठकर तुम बुन के दिखाओ।” कहकर बुआ ने फिर से बिठा लिया।

मैं स्वेटर बुन रही थी और कैप्टन साहब बीच-बीच में आगरा, ताजमहल, आदि  की बात करते रहे। वो अधिकतर अंग्रेज़ी में बोल रहे थे और मैं हिन्दी में जवाब दे रही थी। (यह बात मुझे अभी तक याद है; क्योंकि मुझे , तो अंग्रेज़ी में बात करने की आदत नहीं थी और यह ठहरे फौजी)

दस-बारह सिलाइयों के बाद डिज़ाइन बन गया, तो मैं जाने को फिर से उठ खड़ी हुई। मैंने बड़े संकोच के साथ इन्हें नमस्ते कहा। हाँ! जाते जाते इन्होंने कहा था— It was good to talk to you.  

 घर आकर फिर से सोने की कोशिश करने लगी। अचानक मेरे मन-मस्तिष्क में  बिजली की तरह कुछ कौंधा-  कहीं यह वही फौजी अफसर , तो नहीं  जिसे आगरा में देख कर मैंने शरारत में अपनी सहेलियों से कह दिया था - इसके लिए मन्नत का धागा बाँधा है। अरे! मैं क्या सोच रही थी? यह कैसे हो सकता है????

हाँ! सच में वो वही था। पर यह कैसे हुआ, क्या संयोग था- मैं अभी तक नहीं जान पायी।

 बुआ का मन था कि मेरी शादी उनके परिवार में हो । स्वेटर का डिज़ाइन, तो बस बहाना था, वहाँ , तो मेरे भविष्य का डिज़ाइन तैयार हो रहा था।

6  जनवरी के दिन  इनके परिवार की ओर से  सगाई का संदेसा आया। मेरा पूरा परिवार बेहद खुश और मैं बेहद हैरान। 

ऐसा भी कभी होता है क्या? है न रोमांचक कहानी ????? ऐसा ही हुआ था।

शादी के कुछ दिन जब  मैंने आगरा वाली बात सुनाई , तो हैरान हो कर इन्होंने कहा, “ हाँ! वो मैं ही था। मैंने बस की नंबर प्लेट पर J&K लिखा देखा , तो हैरान हो गया था। जम्मू की बस और आगरा में?

थोड़ा रुक गया था मैं । खिड़की से कुछ लोग हाथ हिला रहे थे, तो मैंने भी जवाब दे दिया। क्या तुम भी उस बस में थी?”

हम दोनों एक दूसरे को देखकर खूब हँसे थे।

दो साल के बाद हम जब आगरा गए, तो दोनों ने फतेहपुर सीकरी के उस पेड़ पर बँधा मन्नत का धागा खोला और अटूट बंधन की प्रार्थना में एक बार फिर से नया धागा बाँध दिया। 

                        ■

यात्रा- संस्मरणः एलिफैंटा केव्स- अद्भुत संरचना

 - प्रिया आनंद

इस महीने के पहले सप्ताह के तीन दिन समंदर के सान्निध्य में ही बीते। वह चार जनवरी का दिन था, जब हम ऐलिफेंटा गुफाएँ देखने गए थे। बचपन से ही उनके बारे में सुना और सिखाया गया था इसलिए मन में उत्सुकता भी थी। गेटवे ऑफ इंडिया से हम फेरी पर गए। अचानक ही हमें बहुत सारा सीगल्स ने घेर लिया था। वे पंख फड़फड़ाती सिर के ऊपर उड़ती और शोर मचाती रहीं। लोग हाथों मे बिस्किट, चिप्स और कुरकुरे के लिए हाथ बढ़ाते हैं और वे बड़ी सफाई से हाथों से उठा लेतीं। यह एक खूबसूरत नजारा था।

सागर मुझे चंचल नहीं बेहद बेचैन सा लगता है।  जैसी इसकी गहराई है, उतनी ही बेचैनी ऊपर दिखाई देती है।  ठीक ऐसे मनुष्य के मन की तरह, जो ऊपर से बेहद शांत सा दिखाई देता है।  हालांकि हम फेरी से उतरकर टॉय ट्रेन में बैठे और फिर पत्थर की सीढ़ियों की बारी आई।  किसी तरह ऊपर भी पहुँच गए।  यह एकल शैलोत्खनित मंदिर समूह है, जिनमें बेहतरीन कलात्मकता के दर्शन होते हैं।  इतनी बड़ी और भव्य मूर्तियाँ। लगभग सभी खंडित देखकर दिल उदास हो गया। 

 इतनी सुंदर मूर्तियों को तोड़ते हुए किसी का दिल नहीं कांपा होगा? किसी भी देश पर आक्रमण करने वालों के लिए यह जरूरी हो जाता है कि उस देश की सांस्कृतिक धरोहरों को ही ध्वंस किया जाए? पूरे परिसर में गहन सन्नाटा था पर वे खंडित मूर्तियाँ और सुंदर प्रस्तर स्तंभ अपनी कहानी अलग ही कह रहे थे। लौटते वक्त फेरी पर बैठते ही फिर सीगल्स ने घेर लिया। इस बार उनकी तादाद कुछ ज्यादा ही थी। दूर कितने ही मालवाहक विशाल जलपोत सागर के बीच में खड़े थे। यह सुखद सुखद पर्यटन था , जो बहुत दिनों तक मेरी स्मृतियों में बना रहेगा। । 

कोंकण समुद्र तट पर

 सागरतट अपने आप में एक चुंबकीय आकर्षण रखता है। किसी भी बीच में जाइए आप घंटों टहलते हुए वक्त गुजार सकते हैं। इसके अलावा कोंकण के तटीय क्षेत्र बहुत ही आकर्षक हैं। एलिफैंटा से लौटते हुए अगले दिन हमने देवगढ़ बीच जाने का फैसला किया हालांकि तय यही हुआ कि इसी के साथ और सभी बीच भी देखते चलते हैं। रास्ता काफी लंबा और उबाऊ था सुबह आठ बजे के चले हुए  वहाँ हम साढ़े तीन बजे पहुँचे। इस बार का रिजॉर्ट बीच के काफी करीब था इसलिए जल्दी ही सभी बीच की तरफ हो लिए। बच्चे बहुत खुश थे, पर इस बार भी वही काली रेत थी। सफेद लहरें और काली रेत। शाम होने की वजह से लहरें काफी तेज थीं । अंदर जाते ही हम लोग बुरी तरह भीग गए।

पुणे का मौसम भी ऐसा है कि दिल कभी-कभी बारिश की तमन्ना करने लगता है। तब इस कमी को सागर की लहरें एक हद तक पूरा कर देती हैं। अगले दिन सुबह साढ़े छह बजे तक तो उजाले का कहीं अता-पता नहीं था। साथ के सभी लोग वॉक करने चले गए और मैं वहीं आस-पास के क्षेत्र में टहलती रही। अंतिम कॉटेज का नाम एकांतिका था इस कॉटेज के सामने बहुत बड़ा तालाब था जिसमें सफेद और गुलाबी कमल की खुशबू थी। जगह अच्छी है आँखों को राहत देने वाली। अब सबसे मजेदार बात यह हुई कि यहाँ किसी का फोन ही काम नहीं कर रहा था। इसलिए हम सिर्फ तस्वीरें खींच रहे थे। उस पूरे दिन हम जाने कितने बीच ही घूमते रहे। श्रीधर बीच सबसे सुंदर था। रेत काली ही थी पर लहरें काफी बड़ी और साफ सफेद थीं। सूरज डूबने के बाद भी हम वहाँ टहलते रहे।  

 फिर आई बी रेजोर्ट में शानदार डिनर किया और अपने होटल वापस हो लिए।

 लौटने से पहले हम आरावी बीच पर चले गए । बच्चों ने कहा था कि यहाँ काफी बड़े शेल थे। बड़े तो क्या वहाँ छोटे घटिया शेल भी नहीं मिले, पर बीच का नजारा खूबसूरत था आँखों को ठंडक देने वाला। ये हमारी तफ़रीह के सुनहरे दिन थे। ■


लघुकथाः अपनी ही आग में

  -  आनन्द 

भाईचारे का युग था। सब मेल-मिलाप और प्यार-प्रेम से रहते। हुनरमन्द औजारों तक को इस अपनत्व से हाथ में लेते और काम को इस श्रद्धा से करते कि पूजा कर रहे हों। वह जुलाहा बड़े जतन और प्रेम से बुनता था कपड़ा। शब्द गुनगुनाते हुए पहले वह ताना बुनता फिर इस कौशल से बुन देता बाना, कि न ताना दिखता न बाना। दिखता तो बस कपड़ा। दोनों मिलकर बन जाते कपड़ा। बात भी कपड़े की होती। ताने और बाने का अलग से जिक्र तक न होता। कई बार ताना अलग रंग का होता, बाना अलग रंग का, लेकिन कपड़े में ताने का रंग दिखता, न बाने का। दिखता तो बस कपड़े का रंग, जो हालाँकि कुछ-कुछ बाने के रंग-सा, मगर पूरी तरह किसी-सा न होकर कपड़े के रंग जैसा होता। प्यार-मुहब्बत से रहने वालों की ताने-बाने से तुलना की जाती, ‘‘उन्हें देखो, कैसे ताने-बाने की तरह रहते हैं।’’

एक दिन, लेकिन अनहोनी हुई। हालाँकि था तो यह अप्रत्याशित, लेकिन हुआ कि ताना और बाना झगड़ पड़े उस दिन। दोनों गुस्से में तमतमाए हुए और एक दूसरे के प्राण लेने का आतुर। जुलाहा जा चुका था। बीच-बचाव करने को कोई था नहीं। झगड़ा बढ़ता ही गया और आवेश के एक पागल पल में बाने ने ताने के वहाँ आग लगा दी, जहाँ कि बाना अभी बुना नहीं गया था। लपटों में घिर गया ताना तो खुश हुआ बाना। लेकिन बहुत थोड़़ी देर । जल्द ही आग आगे बढ़ी और बाना भी अपनी ही आग में जलकर खाक हो गया।

सुबह जुलाहा आया। गहरे अफसोस के साथ उसने उन दोनों की इकट्ठी पड़ी मुट्ठी भर राख को देखा। वह गमगीन था कि हमेशा साथ रहने वाले आपस ही में लड़ मरे थे। यह गहरा सदमा था उसके लिए। देर तक निर्जीव सा बैठा रहा जुलाहा। आखिर उसने खुद को गम से उबारा। उसने फिर से ताना कसा और बाना बुनने लगा।  ■

कहानीः नजर बट्टू

  - ज्योति जैन

‘‘जल्दी से लाओ यार... लपक के भूख लग रही है...’’ दोनों हाथों को आपस में रगड़ते हुए नव्या ने कहा। मानो दोनों हथेलियाँ रगड़ने से जिन्न प्रकट होगा और नाश्ता उसके हाथों में।

‘‘हाँ यार... मुझे तो उसल की खुशबू से ही मुँह में पानी आ रहा है...’’ पलक ने नाक से गहरी सांस ली और आँखें बंद करके मानों उसल का स्वाद ले रही थी।

‘‘ओ भई... अपने को तो पहले जलेबी...’’ तन्मय की बात बीच में ही काटकर स्वीटी ने ‘‘ऽऽ.....’’ बिल्कुल विज्ञापन वाले बच्चे के अंदाज में ‘‘जलेबीऽऽऽ’’ कहा...’’ और सब खिलखिला कर हँस पड़े।

तब तक अंकित, गगन और इंदर गरम-गरम नाश्ता ले आऐ। जिनमें पोहे, उसल व जलेबी शामिल थे। 

‘‘ओ भई प्याज-नींबू अलग से...’’ स्वीटी चिल्लाई।

‘‘ठण्ड रख बेटा... ला रहा हूँ...’’ इंदर बिल्कुल बड़ों जैसी स्टाईल में बोला।

सबने फिर ठहाका लगाया।

वो एक 7-8 जनों का ग्रुप था , जो पढ़ाई में अंतिम वर्ष में था। और सब उस रविवार की ठण्डी सुबह में खाऊ ठिये पर नाश्ते का आनन्द लेने आए थे।

पहले एक-डेढ़ मिनट में तो सब चुपचाप सूतने में लग गए। पेट में जब थोड़ा वजन पड़ा तो बातचीत का क्रम फिर शुरू हो गया।

‘‘अबे... क्या पेटू की तरह खाए जा रहा है...’’ यह स्वीटी थी, जो अंकित को टारगेट बना रही थी। ‘‘तेरे झाँसी में खाने को नहीं मिलता क्या......?’’

‘‘ऐ... अपने शहर के बारे में कुछ नहीं बोलना हो... झाँसी की रानी...’’

और सब फिर हँस पड़े। बड़ी मस्त जिन्दगी लगती है वो, जब लोग बात-बात पर हँस दें। आजकल तो हँसी से भरी जिन्दगी कम ही नजर आती है।

‘‘सही है रे झाँसी की रानी...’’ अब नव्या ने छेड़ा ‘‘बेचारे को नजर मत लगा...’’ ‘‘देख तो कितना दुबला हो रहा है’’ और उसने हथेली के पृष्ठ भाग से उसकी हल्की उभरती ‘टमी’ पर धीरे से हाथ मारा।

फिर बिंदास ठकाहा गूंज उठा था।

‘‘अरे नजर से याद आया... पलक ने नव्या से पूछा तेरे पैर में यह काला धागा नजर के लिए ही बंधा है क्या...?’’ सबकी नजर नव्या के पैरों पर चली गई। उसके खुबसूरत, नाजुक पैरों में से बायें पैर में एक काला धागा बंधा था।

‘‘हाँ यार... नव्या ने एक सांस भरकर कहा - ‘‘दादी ने बंधवाया है। बीच में मुझे वायरल हो गया था ना। तब से तबियत कुछ ज्यादा ही बिगड़ गई थी। बस...... दादी को लगा कि मुझे नजर लग गई है। और उन्होंने पता नहीं कहाँ से मंत्रा कर यह ‘नजर बट्टू’ बाँध दिया।’’

’’तुझे लगता है यह नजर-वजर कुछ होती है...’’ स्वीटी ने पूछा। वह जरा अलग सोच वाली लड़की थी।

‘‘देख यार... जवाब इन्दर ने दिया।... नजर होती है या नहीं, इससे बड़ी यह चीज है कि यह हमारे बड़ों की आस्था होती है... हमारे लिए प्यार व फिक्र होती है... मैंने कहीं एक कविता पढ़ी थी, ऐसी कुछ थी कि

माँ ने नजर से बचाने को

काले धागे बाँध दिये

पर वो नहीं जानती कि

ताकत काले धागे में नहीं

खुद माँ की उंगलियों में है...

ऐसी कुछ थी... कविता से इंदर ने अपनी बात पूरी की।

‘‘वा...वा......ऽऽ बहुत खूब... अंकित बोल पड़ा... ‘‘तो ऐसा है कि मेरे खाने को कोई नजर न लगे इसलिए मैं भी माँ से धागा बंधवा कर आऊँगा अगली बार... क्या कहते हैं इसे...? नजर बट्टू ना...?

खाऊ ठिये पर फिर ठहाका गूँज उठा।

‘‘और इसी बात पर एक समोसा लेने जा रहा हूँ और कोई खाएगा क्या...? कहते हुए अंकित उठा।

‘‘रुक मैं भी आ रहा हूँ’’ और इंदर उसके पीछे-पीछे चला गया, तभी... उन 4-5 बच्चों का झुण्ड उन लोगों के थोड़ा और करीब खिसक आया , जो काफी देर से थोड़ी दूर खड़े थे। शायद इस उम्मीद से कि अब बचा-खुचा कुछ तो मिल ही जाएगा।

दोस्तों की टोली का ध्यान उन बच्चों की ओर गया तो एक-दो बच्चों ने कहा - ‘‘भैया-दीदी कुछ खाने को दिला दो ना... भूख लगी है।’’

आजकल की युवा पीढ़ी को शायद हम ठीक से समझ नहीं पाते हैं। ये लोग जीवन को जीना जानते हैं, काटना नहीं। देने का सुख भी यह पीढ़ी शायद बेहतर जानती है। इसीलिए लेने से ज्यादा देने में यकीन रखती है।

स्वीटी, पलक, तन्मय... सभी ने एक दूसरे की आँखों में देखा और शायद सब, सबकी बात समझ गए। दो-तीन दोस्त अंकित व इंदर के पास गए और उन्होंने दुकानदार से उन भिक्षुक बच्चों को पाँच पैकेट पोहे और पाव भर जलेबी देने को कहकर पेमेन्ट कर दिया।

धूल-गंदगी से काले पड़े बच्चों के चेहरों पर सफेद आँखें चमकीली हो उठी। गरम पोहे, जलेबी मिलेंगे इस विचार ने ही उनकी ठंड भगा दी।

दोस्तों की टोली नाश्ते को ‘दी एण्ड’ करती पार्किंग की ओर बढ़ गई।

वे पाँचों बच्चे ललचाई निगाहों से अपने हाथ में आने वाले पैकेट का इन्तजार कर रहे थे, लेकिन दुकानदार को उन्हें देने की कोई जल्दी नहीं थी। मानो उससे ही भीख ले रहे थे।

बड़ी हिकारत से उसने पूरा समय लेकर खाने की पुड़ियाँ उन बच्चों के हाथों में पटक दीं।

‘‘नीम्बू...? नीम्बू... तो अलग से देओ ना अंकल जी’’। एक बच्चे ने हिम्मत करके कहा।

‘‘नीम्बू चाहिए... स्याले चल भाग... पता नहीं है दस रुपये के दो है... भागों यहाँ से। इतना मिल गया है ना... चल भाग...’’ और उसने दुत्कार दिया...।

पाँचों बच्चों ने पोहे की पाँचों पुड़िया व जलेबी का पैकेट एक मटमैले झोले में डाला व एक ओर दौड़ लगा ली।

पार्किंग स्थल से सटी एक जगह थी, जहाँ वे पाँचों आराम से नीचे जमीन पर बैठ गए और लपलपाती जीभ व चमकीली आँखों से पाँचों ने अपनी-अपनी पोहे की पुड़िया अपने हाथों में ले ली। इसके बावजूद खोलने की कोई जल्दी नहीं थी। ये आश्चर्य की बात थी। दरअसल सबकों नीम्बू की कमी खटक रही थी। पाँच में से तीन तो ऐसे थे जिन्हें नींबू का स्वाद बड़ा भाता था। उनमें से एक , जो लीडर टाइप था या उसकी अगुवाई वही करता था, (कुछ लोग यों ही कहते हैं कि गरीब ईमानदार नहीं होते)/(कौन कहता है गरीबी ईमानदार नहीं होती?) उसने ईमानदारी से जलेबी के पाँच हिस्से करके सबकों देते हुए कहा - ‘‘अब बिना नींबू के ही खाले रे... मिला , जो ही भोत है।’’

‘‘रुक जरा...’’ नींबू के लिए जिसने दुकानदार से कहा था वो बच्चा बोला - ‘‘रुकना सब... मैं अब्बी आया...’’

और वो एक ओर भाग लिया। मिनट भर में लौटा तो उसके हाथ में चार फांक कटे कुछ नींबू थे।

‘‘वाह...’’ सबको मजा आ गया।

‘‘कां से लाए रे फत्तू...? वो अंकल से...?

‘‘नई रे... वो कां देता...!’’ विजयी मुस्कान से वो बोला। आखिर नींबू तो वो ही लाया था ना।

‘‘अपन वो चौराहे से आ रहे थे ना... तभी मैंने देखा था। सड़क पे पड़े थे... कोई डाल गिया था। वो ही उठा लाया।’’

मैले थेले से नींबू पोंछकर पोहे में निचोड़ते हुए वो बोला। और पहला कौर खाते ही उसने अपार तृप्ति से आँखे बंद करते हुए नींबू का स्वाद लिया।

इस सारे घटनाक्रम का साक्षी पार्किंग में खड़ा उन दोस्तों का ग्रुप था जिसने इन बच्चों को नाश्ता दिलवाया था। वे सब पर्किंग के पास ही खड़े बतिया रहे थे। और अब सब खामोश थे।

उन सबसे वे बेखबर वे भिक्षुक बच्चे नींबू पोहे व जलेबी का आनन्द ले रहे थे।

‘‘यार... क्या लाइफ़ है ना इनकी...’’ पलक का गला भर आया था।

‘‘हाँ यार... बेचारे... अपन तो कितनी अच्छी जगह है ना...? हमें , जो मिला है, उसके लिए भगवान का धन्यवाद करना चाहिए।’’ इंदर बोला।

‘‘पर एक बात बता यार...’’ अंकित असमंजस में था। ‘‘ये , जो नींबू उठाकर लाए वे किसी ने नजर उतारने के बाद चौराहे पर लाकर काटकर डाले होंगे... इन्हें तो नजर नहीं लग जाएगी?’’

‘‘नहीं लगेगी... तन्मय का स्वर गंभीर था...’’ ‘‘जिन्हें गरीबी लगी हो, उन्हें कोई और नजर क्या लगेगी...?

ठण्डी सांस ले उसल पोहे का स्वाद भूल वे दोस्त अब जिन्दगी के विभिन्न स्वाद के बारे में बात कर रहे थे और इन सबसे बेखबर वे भिक्षुक बच्चे नजर बट्टू नींबू का स्वाद ले रहे थे।

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सम्पर्कः 1432/24, नन्दानगर, इन्दौर-452011, मो.93003-18182, e-mail : jyotijain218@gmail.com


कविताः बकरी

 - हरभगवान चावला





बकरी - 1

बकरी ने कभी शहर नहीं देखा था 

पर उसने जाये थे, जितने भी मेमने 

वे सब शहर गए थे 

और कभी लौटकर नहीं आए थे ।

बकरी - 2

अचानक किसी दिन 

बकरी के देखते-देखते 

ग़ायब हो जाता है 

उसका बच्चा 

बकरी उसे खोजती है 

हर संभावित जगह पर 

नहीं मिलता तो 

उसकी जान की ख़ैर मनाती है

और मनाती ही रहती है 

उसके मर जाने के बाद भी ।

सम्पर्कः 406, सेक्टर-20, सिरसा-125055 ( हरियाणा)

किताबें - उदासी की चुप्पी को झकझोरती संवेदना की गूँज

  - अरुणेन्द्र नाथ वर्मा

तुम क्यों उदास हो (कहानी संग्रह- कुलबीर  बड़ेसरों) हिन्दी में अनुवाद : सुभाष नीरव, संस्करण: 2023, पृष्ठ संख्या 128,  मूल्य 200/-, प्रकाशक : नीरज बुक सेंटर,  सी-22, आर्यनगर, सोसायटी , प्लॉट -91, दिल्ली-110092

कुलबीर बड़ेसरों मूलतः पंजाबी साहित्य व अभिनय कला से जुड़ी हुई हैं। ‘तुम क्यों उदास हो’ पंजाबी भाषा में लिखे गए उनके कहानी संग्रह का हिन्दी- अनुवाद है। अनुवादक हैं सुपरिचित कथाकार एवं कवि सुभाष नीरव।

‘तुम क्यों उदास हो’ संग्रह की कहानियाँ तीन अलग-अलग पृष्ठभूमियों के कथानकों पर आधारित हैं। तीनों कुलबीर के भोगे हुए यथार्थ को प्रतिध्वनित करती हैं। कुलबीर  का निजी जीवन एक विशाल फलक पर उकेरे गए चित्रों से मिलकर बना है, जिनके सारे रंग इन्द्रधनुषी नहीं हैं। कई चित्र भूरे और धूमिल रंगों में भी हैं; लेकिन उनका अपना विशिष्ट सौन्दर्य है। बचपन बिताया उन्होंने धरती की सोंधी महक से गमकते पंजाब में अपने काव्यरसिक पिता की कविताओं का आस्वादन करते हुए। कविता के अंकुर उनके संवेदनशील मन में स्वतः फूट पड़े थे लेकिन कविता का भावनात्मक पक्ष उन्हें बहुत अधिक बाँधकर नहीं रख पाया। यथार्थ की कड़ी भूमि पर चलते जाना उन्हें स्वप्निल उड़ानें भरने से अधिक प्रिय लगा, तभी शब्दों से खेलने की जगह वह पंजाब के रेडियो और दूरदर्शन के नाटकों से गुज़रती हुई मुंबई की फ़िल्मी दुनिया तक का सफ़र पूरा करने के लिए चल पड़ीं। बहुत सारी फिल्मों में अभिनय किया उन्होंने; लेकिन हिन्दी और पंजाबी फिल्मों की रूमानी दुनिया के पीछे छुपे हुए संघर्षों, आँसुओं, ध्वस्त अभिलाषाओं और निष्ठुर चूहादौड़ ने उनके संवेदनशील हृदय को बार-बार झिंझोड़ा। जगमगाते रजतपट की आड़ में जूनियर कलाकारों के आत्मसम्मान और आकांक्षाओं को निष्ठुरता से ठोकर मारती निष्ठुर फ़िल्मी दुनिया का असली चेहरा उनकी कई कहानियों में जीवंत हुआ है।

 इनका एक अन्य संसार भी है, जो पंजाब में जिला होशियारपुर के गाँव बड़ेसरों को कुलबीर के नाम के साथ जोड़कर बहुतों के संज्ञान में आया है। इस पंजाब की सीमाएँ बड़ी भरजाई जी के लन्दन के व्हाईटहाल और मासी जी के कैनेडा तक फैली हुई हैं। कुलबीर की कहानियों का दूसरा आयाम है यह विशाल पंजाब , जो कभी अथक श्रम से कमाए यूरो की थैली हाथों में थामकर घमंड से देखता है, पीछे छूटे अपनों को तो कभी घुट्टी में पिलाई हुई आत्मीयता के चलते स्वजनों की पीड़ा महसूस करके मजबूर हो जाता है। ऐसे बहुरंगी रचना संसार ने कुलबीर  की कहानियों को सहज पठनीय बना दिया है। विषय वैविध्य से इस संग्रह की कहानियों बहुत जीवंत बन गई हैं।

कुलबीर  का तीसरा संसार है, एक नारी का। लेखक हो, अभिनेता हो या दुनिया घूमता हुआ एक सैलानी, इन सारे मुखौटों के पीछे एक संवेदनशील नारी का चेहरा है। कुलबीर  के इन तीनों संसारों का जायजा लेने पर सबसे अधिक मर्मस्पर्शी लगती हैं फ़िल्मी दुनिया वाली कहानियाँ। वे उस बेमुरव्वत संसार की कहानियाँ हैं , जो फर्श से अर्श तक पहुँचने के सपने देखती लाखों आँखों में आँसू भर देने से झिझकता नहीं। जगमगाते सितारे बन पाने की जगह जुगनुओं की तरह टिमटिमा कर रह गए अभागों के आक्रोश को एक झन्नाटेदार थप्पड़ में समेट लेने वाली कहानी ‘आक्रोश’ हो या ‘मजबूरी’ में हर तरह की हेठी सहने वाली जूनियर कलाकार नीति की मन मसोसती दास्तान, दोनों कड़वे यथार्थ को खूबसूरती से दिखाती हैं। खूबसूरती और कड़वापन परस्पर विरोधी तत्त्व लग सकते हैं; लेकिन सोने और सुहागे को अलग अलग करके देखना समझदारों का काम नहीं।

फ़िल्म-जगत से जुड़ी इस लेखिका की कहानियों में आज के पंजाब की माटी की सुगंध भी है; लेकिन इस पंजाब की सीमाएँ ‘कैनेडा’ से लेकर होशियारपुर के ‘पिंड’ बडेसरों तक फैली हुई हैं। सात समन्दरों के बीच की दूरी कुलबीर की किस्सागोई में सिमटकर नामालूम-सी हो जाती है। नारी-विमर्श का झंडा फहराते हुए विद्रोह के स्वर गुँजाना कुलबीर की शैली नहीं। कुछ कहने को आतुर; लेकिन कुछ भी न कह पाने की विवशता में जकड़ी हुई नारी पात्र के मन में गहरी डुबकी लगाने वाला ही किसी कहानी का अंत इन शब्दों में कर सकता है- “पहली बार मेरे एक्सीडेंट की बात सुनते हुए किसी ने कहा है ‘फिर’, नहीं तो –‘उसके होंठ काँपे और आँखें भर आईं। बेड पर लेटे हुए उसको लगा सामने बैठी हुई औरत और कोई नहीं, वह खुद ही थी.’ न कह पाना बहुत कुछ कह पाने से अधिक प्रभावशाली कैसे हो सकता है इसे ‘फिर’ कहानी को पढ़कर ही महसूस किया जा सकता है। असल में, इस संग्रह की लगभग सभी कहानियाँ समझी जाने वाली नहीं अपितु महसूस की जाने वाली हैं। नारी मन की परतों को भेदकर उसकी उच्छवास संवेदना की सतह पर लाना ही कुलबीर  का नारी-विमर्श है। मद्धिम आग में पकाई हुई संवेदना की ऊष्मा नारी-विमर्श के कई गरजने-बरसने वाले झंडाबरदारों की गरज-बरस पर भारी पड़ सकती है, इसका एहसास कुलबीर की कई कहानियों से होता है।

पुरुष पात्रों की तरह इन कहानियों के नारी पात्र भी तरह तरह के साँचों में ढले हुए हैं। एक तरफ है ‘बहू-सास’ की उदास तरुणी बलबीर और दूसरी तरफ है ‘दो औरतें’ की हरलीन। दोनों की मानसिकता बहुत फर्क है, समानता है,तो बस यह कि दोनों को एक सशक्त कलम ने अपनी नायिका चुना है। इस संग्रह की सारी कहानियाँ पठनीय हैं। पाठक के मन को छू लेने का सिलसिला पहली कहानी ‘तुम क्यों उदास हो’ से लेकर लगभग अंत में आई ‘बकबक’ तक बना हुआ है।

पंजाबी की इन कहानियों को हिन्दी भाषी पाठकों तक लाने में अनुवादक सुभाष नीरव ने उनकी मौलिक सुन्दरता खूब बनाए रखी है। पंजाबी हो या हिन्दी, टकसाली शब्दों का इस्तेमाल सुन्दर शैली को सहज पठनीयता की चुन्नी ओढ़ाकर और खूबसूरत बना देता है। सुभाष इस सच्चाई से परिचित हैं।

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