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Apr 1, 2024

लघुकथाः अपनी ही आग में

  -  आनन्द 

भाईचारे का युग था। सब मेल-मिलाप और प्यार-प्रेम से रहते। हुनरमन्द औजारों तक को इस अपनत्व से हाथ में लेते और काम को इस श्रद्धा से करते कि पूजा कर रहे हों। वह जुलाहा बड़े जतन और प्रेम से बुनता था कपड़ा। शब्द गुनगुनाते हुए पहले वह ताना बुनता फिर इस कौशल से बुन देता बाना, कि न ताना दिखता न बाना। दिखता तो बस कपड़ा। दोनों मिलकर बन जाते कपड़ा। बात भी कपड़े की होती। ताने और बाने का अलग से जिक्र तक न होता। कई बार ताना अलग रंग का होता, बाना अलग रंग का, लेकिन कपड़े में ताने का रंग दिखता, न बाने का। दिखता तो बस कपड़े का रंग, जो हालाँकि कुछ-कुछ बाने के रंग-सा, मगर पूरी तरह किसी-सा न होकर कपड़े के रंग जैसा होता। प्यार-मुहब्बत से रहने वालों की ताने-बाने से तुलना की जाती, ‘‘उन्हें देखो, कैसे ताने-बाने की तरह रहते हैं।’’

एक दिन, लेकिन अनहोनी हुई। हालाँकि था तो यह अप्रत्याशित, लेकिन हुआ कि ताना और बाना झगड़ पड़े उस दिन। दोनों गुस्से में तमतमाए हुए और एक दूसरे के प्राण लेने का आतुर। जुलाहा जा चुका था। बीच-बचाव करने को कोई था नहीं। झगड़ा बढ़ता ही गया और आवेश के एक पागल पल में बाने ने ताने के वहाँ आग लगा दी, जहाँ कि बाना अभी बुना नहीं गया था। लपटों में घिर गया ताना तो खुश हुआ बाना। लेकिन बहुत थोड़़ी देर । जल्द ही आग आगे बढ़ी और बाना भी अपनी ही आग में जलकर खाक हो गया।

सुबह जुलाहा आया। गहरे अफसोस के साथ उसने उन दोनों की इकट्ठी पड़ी मुट्ठी भर राख को देखा। वह गमगीन था कि हमेशा साथ रहने वाले आपस ही में लड़ मरे थे। यह गहरा सदमा था उसके लिए। देर तक निर्जीव सा बैठा रहा जुलाहा। आखिर उसने खुद को गम से उबारा। उसने फिर से ताना कसा और बाना बुनने लगा।  ■

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