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Nov 1, 2022

उदंती.com, नवम्बर - 2022

वर्ष - 15, अंक - 3

एक बेहतरीन किताब 100 अच्छे दोस्त के बराबर है,

लेकिन एक सर्वश्रेष्ठ दोस्त पुस्तकालय के बराबर है। 

           -अब्दुल कलाम


इस अंक में

अनकहीः  असुरक्षा का बढ़ता घना कोहरा... - डॉ. रत्ना वर्मा           

शौर्य गाथाः वीरता और संकल्प की मूरत- मेजर मोहित शर्मा -  शशि पाधा

आलेखः आदिकवि महर्षि वाल्मीकि - डॉ. सुरंगमा यादव

शिक्षाः लीक से हटकर पढ़ाया जाएगा सोच का पाठ - प्रमोद भार्गव

पर्यावरणः‘गीले कचरे’ से वेस्टलैंड  का कायाकल्प - सुबोध जोशी

कविताः मंदिर के दिये-सा है तू  - डॉ.कविता भट्ट

चिंतनः स्त्री का आसमान - सांत्वना श्रीकान्त

स्वास्थ्यः अधिक उम्र में व्यायाम याददाश्त कोभी तेज करता है - डॉ. डी. बालसुब्रमण्यम

आधुनिक बोध कथा 11ः लो मैं आ गया - सूरज प्रकाश

लघुकथाः एक सच्चाई   - पवित्रा अग्रवाल

लघुकथाः प्यारी अम्मा - हरभगवान चावला

कहानीः बकरी – सुकेश साहनी

कविताः जो दिखते नहीं - प्रगति गुप्ता

व्यंग्यः आपदाएँ  बार -बार आए   - डॉ. गोपालबाबू शर्मा

कविताः आखिरी क़तरा - लिली मित्रा

कविताः पंचतत्त्व और विचार - डॉ. यासमीन मूमल

रेखाचित्रः एक बूँद  - कुसुमलता चांडक

प्रेरकः पत्थर और घी - निशांत

किताबेंः भावना की अभिव्यक्ति के सहज स्वर  ‘रंग भरे दिन- रैन’ - डॉ. उपमा शर्मा

जीवन दर्शनः भाग्य से सौभाग्य की यात्रा - विजय जोशी

अनकहीः असुरक्षा का बढ़ता घना कोहरा...

 - डॉ. रत्ना वर्मा        

यह सब इतना शर्मनाक और दुःखद है कि इस विषय पर फिर एक बार लिखते हुए मन बहुत उदास और असहाय महसूस कर रहा है। आज हम एक ऐसे दौर में जी रहे हैं कि माता- पिता अपनी बेटियों को कहीं भी अकेली भेजने से डरने लगे हैं। रोज- रोज आ रही बलात्कार की खबरें, जिनमें चाहे वह चार- पाँच साल की बच्ची हो, स्कूल में पढ़ने वाली किशोरी, कॉलेज या ट्यूशन से लौटती छात्रा अथवा कामकाजी महिला या घर में अकेली गृहिणी; कब किस मोड़ पर कोई दरिंदा बाज की तरह उसपर झपटेगा, कह नहीं सकते और  फिर कभी बहला- फुसलाकर, कभी जबरदस्ती से, तो कभी दरिंदगी के साथ अपहरण, कुकृत्य और फिर हत्या करके कहीं फेंक जाएगा। कहने का तात्पर्य- असुरक्षा का घना कोहरा इतना गहरा है कि कोई मार्ग दिखाई नहीं देता। इसके लिए जिम्मेदार कारकों में परिवार को, उनके पालन- पोषण को,  शिक्षा को, बदलते सामाजिक और आर्थिक परिवेश को, आधुनिकीकरण को दोषी मानकर और इनमें सुधार करने के भाषण सुन- सुनकर कान पक चुके हैं। यह सब अपने मन को बहलाने के साधन हैं; जबकि सत्य यही है कि इलाज के लिए अब कोई दूसरा सशक्त माध्यम तलाशना होगा।

पिछले महीने ही देश भर में नवरात्र का पावन पर्व मनाया गया, उसके बाद बुराई पर अच्छाई की जीत का पर्व विजयादशमी उल्लास और उत्साह के साथ मनाया गया। लेकिन इसी उत्साह और उल्लास के बीच नौ दिनों तक देवी की आराधना करने वाले देशवासियों का ध्यान देशभर में महिलाओं और देवी- तुल्य बच्चियों पर होने वाले अत्याचार की ओर शायद ही गया।  प्रत्येक मिनट घटने वाली इस तरह की घटनाएँ केवल समाचार पत्रों और न्यूज चैनलों तक ही सिमट कर रह गईं।  अब पूरा देश आने वाले उजाले के त्योहार दीपावली की तैयारी में इस तरह मगन हो गया , मानों ये सब तो रोचमर्रा की बात हों। दीपावली भी देवी के स्वागत का पर्व है; परंतु देवी को पूजने वाले देश में कुछ बीमार मानसिकता के लोगों ने हमारे देश की भव्य सभ्यता और उच्च सांस्कृतिक विरासत की धज्जियाँ उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।

कोविड -19 के प्रकोप के बाद से सामने आए आँकड़ों और रिपोर्टों से पता चला है कि महिलाओं एवं बालिकाओं के खिलाफ सभी प्रकार की हिंसा में वृद्धि हुई है। एक अध्ययन के अनुसार प्रति एक लाख की आबादी पर महिलाओं के खिलाफ अपराध की दर 2020 में 56.5 प्रतिशत से बढ़कर 2021 में 64.5 प्रतिशत हो गई । जिसमें महिलाओं के अपहरण के मामलों में 17.6 प्रतिशत और बलात्कार की घटनाओं में भी 2020 के मुकाबले 7.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इसी प्रकार साल 2021 में बच्चों के खिलाफ होने वाली हिंसा 2020 के  मुकाबले 16 प्रतिशत ज्यादा हैं । साल 2021 में प्रति लाख बच्चों की आबादी पर दर्ज अपराध का प्रतिशत 33.6 है, जो कि 2020 में 28.9 प्रतिशत था । अब 2022 में जो आँकड़े सामने आ रहे हैं,  वे इस बात की ओर इंगित करते हैं कि ऐसे अपराधों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। ये वे आँकड़ें हैं, जो दर्ज किए जाते हैं, अक्सर पुलिस स्टेशनों में महिलाओं और बच्चों के साथ होने वाले अपराधों को दर्ज नहीं किया जाता और जितने मामले दर्ज होते हैं, उनमें भी दोष सिद्धि की दर बहुत कम होती है। बलात्कार और यौन- अपराधों से बच्चों का संरक्षण एक्ट, 2012 के अंतर्गत मामलों के लिए 1,023 फास्ट ट्रैक अदालतों का लक्ष्य है; लेकिन सिर्फ 597 अदालतें काम कर रही हैं।

नाबालिग बच्चों के साथ होने वाले अपराधों के मामलों में कार्रवाई करने और उन्हें यौन-उत्पीड़न, यौन- शोषण और पोर्नोग्राफी जैसे गंभीर अपराधों से सुरक्षा प्रदान करने के उद्देश्य से बच्चों के संरक्षण का अधिनियम 2012 (Protection of Children from Sexual Offences Act – POCSO) पारित किया गया है। 18 साल से कम उम्र के नाबालिग बच्चों के साथ किया गया किसी भी तरह का यौन व्यवहार इस कानून के अन्तर्गत आता है। वहीं इस कानून के तहत रजिस्टर मामलों की सुनवाई विशेष अदालत में होती है।

 परंतु फिर भी पुख्ता साक्ष्य के अभाव में हमारा कानून भी अधिकतर मामलों में कमजोर साबित होता है और अपराधी कोई बड़ी सजा पाए बिना ही छूट जाता है। पिछले दिनों कुछ ऐसे मामले सामने आए हैं, जो कानून व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं- जैसे बिलकिस बानो केस-  साल 2002 में हुए गुजरात दंगों के दौरान अहमदाबाद के पास रनधिकपुर गाँव में एक भीड़ ने पाँच महीने की गर्भवती बिलकिस बानो के साथ सामूहिक बलात्कार और उनके परिवार के सात सदस्यों की हत्या के मामले में 11 लोगों को उम्र-कैद की सज़ा सुनाई गई थी; लेकिन गुजरात सरकार ने माफी नीति के आधार पर इस साल 15 अगस्त को इन 11 दोषियों को समय से पहले ही रिहा कर दिया गया । हाल ही में मध्य प्रदेश के जबलपुर जिले में हुए एक बलात्कार के मामले में गिरफ्तारी के बाद जमानत पर रिहा हुए एक व्यक्ति ने अपने मित्र के साथ मिलकर पीड़िता से कथित रूप से दोबारा सामूहिक बलात्कार किया और घटना का वीडियो बनाकर उस पर मुकदमा वापस लेने का दबाव बनाया। इसी तरह लखनऊ की टिक-टॉक स्टार लड़की से रेप और गर्भपात करवाने के आरोपी ने जेल से छूटने के बाद गाड़ियों के काफिले के साथ रोड शो निकाला था। यह तो केवल एक- दो उदाहरण हैं। ऐसे ही कानून को अपनी मुट्ठी में रखने वाले लोगों की कमी नहीं है ,जो बड़े – बड़े अपराध करके आराम से समाज के बीच रहते हैं और कोई कुछ नहीं कर पाता, इतने पर भी अपराधियों के हौसले बुलंद रहते हैं।

ऐसे अपराधों को बढ़ावा देने में एक बहुत बड़ा और मुख्य कारक है-  आर्थिक व्यवस्था, सामाजिक सरोकार, लोक-लिहाज, बदनामी व भविष्य में शादी-ब्याह न होने की समस्या के भय से ऐसे कुकृत्यों के विरुद्ध खुलकर आवाज उठा पाने में पीड़ित  स्वयं और उनके अभिभावक खुद को असमर्थ पाते हैं। पपरिणामस्वरूप आरोपियों के हौसले और भी बढ़ जाते हैं। काश माता- पिता अपनी मासूम बच्ची के साथ हुए अत्याचार को छुपाने के बचाए दोषी को सजा दिलाने के लिए आगे आएँ, तो ऐसे अनेकों कुत्सित इरादों पर बंदिश लगाई जा सकती है; क्योंकि परिवार में अक्सर उन मामलों को छिपाया जाता है, जो घर के ही किसी सदस्य द्वारा अथवा करीबी रिश्तेदार या पड़ोसी द्वारा घर के भीतर ही किए जाते हैं।

देशभर के समाजशास्त्री, मनोवैज्ञानिक, शिक्षाशास्त्री, परिवार, समाज, संस्थाएँ, आदि के साथ कानून- व्यवस्था, पुलिस, चिकित्सा और स्वास्थ्य विभाग आदि सभी जिम्मेदार लोगों को एक होकर इसे रोकने के लिए मिलकर कारगर उपाय खोजने होंगे, क्योंकि इन अपराधों का समाधान केवल कानून के तहत अदालतों  में ही नहीं किया जा सकता है;  बल्कि इसके लिये एक समग्र दृष्टिकोण और पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को बदलना आवश्यक है। सर्वप्रथम तो शिकायत दर्ज करने से लेकर पुलिस की कार्यवाही तक होने वाली प्रक्रिया को सुधारा जाए, महिला पुलिस की संख्या में बढ़ोतरी की जाए।  हेल्पलाइन नम्बर और हेल्पडेस्क की सुविधा को आसान किया जाए। इन दिनों टेलीकॉम कम्पनियाँ अपने फायदे के लिए हजारों एप और भरपूर डाटा उपलब्ध कराकर ऐसी सामग्री परोस रही हैं,  जिनसे केवल अपराधों को ही बढ़ावा मिलता है।  इन्हें चाहिए कि कोई ऐसा अनिवार्य ऐप या बटन बनाएँ, जिसे दबाते ही पीड़ित को सही समय पर सहायता मिल सके।

शौर्य गाथाः वीरता और संकल्प की मूरत- मेजर मोहित शर्मा

-  शशि पाधा

वर्ष 1857 से 1947 तक के इतिहास को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के नाम से जाना जाता है। इस काल में भारत को अंग्रेजों की दासता से मुक्ति दिलाने के लिए बहुत से स्वतंत्रता सेनानियों और क्रांतिकारियों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। स्वतंत्रता की लड़ाई के इस महायज्ञ में अनेक महानायकों ने अपने जीवन की आहुति दी है। हम भारतवासी उन वीर योद्धाओं, वीरांगनाओं के ऋणी हैं, जिनके सतत्त प्रयास और बलिदान के फलस्वरूप आज भारत स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव बहुत उल्लास और गौरव के साथ मना रहा है। हम भारतीय भाग्यशाली हैं जो इस उत्सव के साक्षी हैं।

जब हम स्वतंत्रता के इस महासंग्राम के इतिहास पर दृष्टि दौड़ाएँ, तो एक बात स्पष्ट हो जाती है कि स्वतंत्रता प्राप्ति की भावना की जो लौ इन वीरों ने जलाई थी, उसकी ज्योति को स्वतंत्र भारत की नई पीढ़ी ने बुझने नहीं दिया। जब भी भारत भूमि की रक्षा पर आँच आई अथवा जब भी शत्रु ने भारतभूमि की पावन धरती पर पाँव रखने का दुस्साहस किया, इस नई पीढ़ी ने उतने ही संकल्प और पराक्रम से सीमाओं पर शत्रु को पछाड़कर देश की स्वतंत्रता को अक्षुण्ण रखा।

इस असीमित आकाश में स्वतंत्रता के ध्वज को गर्व के साथ थामने वाले वाहकों में से आज मैं आपको एक ऐसे योद्धा से परिचित कराती हूँ, जिसने अपनी वीरता के साथ-साथ अपने सैनिक प्रशिक्षण से प्राप्त की हुई सूझबूझ के द्वारा बार- बार चालाक शत्रु के देश की सीमाओं में हिंसा फैलाने के प्रयत्नों को विफल किया।

  स्वतंत्रता की उसी ज्वलंत ज्योत को थामने वाले मेजर मोहित शर्मा की शौर्य गाथा को स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव के स्वर्णिम पलों में ऋणी देशवासियों के साथ साझा करते हुए मुझे अपरिमित गौरव और गर्व की भावना की अनुभूति हो रही है।

 उनकी कहानी कहाँ से आरम्भ करूँ?  मनुष्य इस संसार में एक निश्चित उद्देश्य की प्राप्ति, किसी संदेश को प्रचारित करने के लिए जन्म लेता है और उसी के अनुसार अपना कर्मक्षेत्र भी निर्धारित कर लेता है। मेजर मोहित के मन में देश प्रेम, स्वाभिमान और साहस की भावना बचपन से ही प्रबल थी। भारत माता के जाँबाज सपूत मोहित शर्मा उन लोगो में से थे, जिन्हें खुद से ज़्यादा देश से प्यार था।

मोहित शर्मा का जन्म रोहतक, हरियाणा में 13 जनवरी 1978 को हुआ था। मोहित के घरवाले उन्हें प्यार से चिंटू और उनके दोस्त माइक कहकर बुलाते थे। मोहित के माता-पिता उन्हें इंजीनियर बनाना चाहते थे;  इसीलिए मोहित ने स्कूल के बाद संत गजानन महाराज कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग, महाराष्ट्र में एडमिशन भी लिया था।

दरअसल मोहित के घर वालों का मानना था कि उनका वजन काफी कम है, वह शरीर से भी थोड़े दुर्बल हैं, इसी कारण वह कभी सेना में भर्ती नहीं हो सकते हैं। इधर मोहित ने मन ही मन ठान लिया था कि वह भारतीय सेना में भर्ती होकर ही रहेंगे। इसके लिए उन्होंने इंजीनियरिंग में एडमिशन लेने के बाद भी एनडीए की तैयारी शुरू कर दी और कुछ समय बाद उन्होंने एनडीए की परीक्षा भी पास कर एसएसबी का इंटरव्यू भी पास कर लिया। यह सब उन्होंने अपने माता-पिता की जानकारी के बिना ही किया। जब उन्होंने यह बात अपने घर वालों को बताई कि वह  NDA की परीक्षा में सफल हो गए हैं, तब उनके परिवार वालों को यकीन ही नहीं हुआ। मेजर मोहित शर्मा ने घरवालों से छुपाकर NDA का फॉर्म भरा था और चुपचाप ही तैयारी कर रहे थे। यानी अपने जीवन के उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने हर उस बाधा को लाँघा, जो उनके मार्ग में आई। इस बाधा को लाँघने के लिए युवा मोहित ने अपने परिवार से अपने मन के भेद को छुपाने का मार्ग अपनाया।

आखिर उनकी ज़िद्द पूरी हुई और 11 दिसंबर 1999 को आइएमए से पास आउट होकर उन्हें मद्रास रेजिमेंट में कमीशन मिली थी। इस यूनिट के अंतर्गत उन्होंने काउंटर इंसरजेंसी (COUNTER INSERGENSI) ऑपरेशन के हिस्से के रूप में कश्मीर में 38 राष्ट्रीय रायफल्स के साथ कई बार आतंकियों से लोहा लिया था और हर बार सफल हुए थे। उनके इस वीरतापूर्ण  अभियानों की सफलता के फलस्वरूप वह  चीफ ऑफ़ आर्मी स्टाफ के  COMMNEDTION मैडल से भी अलंकृत हुए थे।

भारतीय सेना के वीर योद्धाओं की शौर्य गाथा सुनाते हुए मैं एक बात स्पष्ट करना चाहती हूँ कि सीमाओं पर शत्रु के साथ युद्ध करना और अपने देश की सीमाओं के भीतर घने जंगलों में छिपे हुए, अपने ही जैसी वेशभूषा और बोली बोलने वाले देश के शत्रुओं के साथ आमने- सामने का युद्ध करना कहीं अधिक कठिन होता है। इसके लिए सैनिक को विशेष प्रशिक्षण लेना पड़ता है, जिसमें वीरता के साथ-साथ साहस और युद्ध शास्त्र के दाँव- पेच को भी अपने मन मस्तिष्क में हर घड़ी तैयार रखना पड़ता है।


मोहित ने भी अपनी कश्मीर पोस्टिंग के समय कई बार आतंकियों को हराया
;  लेकिन उन के लिए बस इतना कुछ काफी नहीं था। वे तो वीरता के शिखर की ऊँचाइयों को  छूना चाहते थे। वे तो साधारण से कुछ असाधारण करना चाहते थे। अपनी इसी उमंग और जोश के कारण उन्होंने भारतीय सेना की महत्वपूर्ण पलटन ‘1पैरा सपैशल फोर्सेस’ में सम्मिलित होने के लिए वालंटियर  किया। यह पलटन उन दिनों कश्मीर के पहाड़ों और जंगलों में छिपे हुए आतंकवादियों का सफाया करने के महत्त्वपूर्ण अभियानों में लगी हुई थी।

मोहित के जीवन का हर पल बस आतंकियों को समूल नष्ट करने के जुनून में बीतता था। अपने इसी संकल्प को मूर्त रूप देने के लिए उन्होंने आतंकियों की भाषा सीखी, उनके जैसी वेशभूषा धारण की और अपने वरिष्ठ अधिकारियों के साथ कुछ असाधारण  करने की योजना बनाई। आइए अब मैं आपको मोहित के उस संकल्प और साहस की कहानी सुनाती हूँ जिसे सुन कर हर किसी के रोंगटे खड़े हो सकते हैं...

कश्मीर के किसी इलाके में एक युवा कश्मीरी बालक, इफ्तिकार भट्ट ने कंधे तक लम्बे बालों के साथ और पारम्परिक कश्मीरी पोशाक ‘फिरन’ पहने हुए, बड़ी बदहवास हालत में शोपियाँ, कश्मीर में खूँखार हिजबुल मुजाहिदीन से संपर्क किया। जब इनसे वहाँ आने का कारण पूछा गया, तो बहुत आत्मविश्वास के साथ उसने अपने मन में गढ़ी हुई कहानी दोहरा दी। जब उनसे पूछा गया कि वह भारतीय सेना से क्यों लड़ना चाहते हैं, तो उन्होंने शुद्ध कश्मीरी में सेना पर सबसे अच्छे अपशब्दों से वार किया और बड़े संयत स्वर में उन्हें बताया कि वर्ष 2001 में सुरक्षा बलों द्वारा किए गए पथराव की घटना में उन्होंने अपने भाई को खो दिया था। उन्होंने बड़े रोष के साथ सुरक्षा-बलों को अपने भाई की मौत के लिए जिम्मेदार ठहराया। अब वह अपने भाई की मौत का बदला लेना चाहते थे और इसके लिए उन्हें आतंकियों की सहायता चाहिए। कुछ प्रश्न पूछने पर मोहित ने आतंकियों के नेताओं को बताया कि उनकी प्लानिंग आर्मी चेक प्वाइंट पर सेना के काफ़िले पर हमला करने की है और इसके लिए उन्होंने पूरी तैयारी भी कर ली है।

शत्रु के सामने अपना संकल्प रखने के लिए उन्होंने न जाने कितने दृढ़ आत्मविश्वास का सहारा लिया होगा। शायद यह उनकी ट्रेनिंग का ही प्रतिफल था कि आतंकियों के नेता उनकी सहायता के लिए तैयार हो गए। मोहित ने उनसे कहा कि वह कई सप्ताह के लिए भूमिगत रहेंगे,  ताकि हमले के लिए पूरे हथियार और मैप आदि जुटा सकें। इस बीच वह अपने गाँव भी नहीं जाएँगे। आतंकी नेता ‘तोरारा’ और ‘सबजार’ ने मोहित के लिए ग्रेनेड की खेप इकट्ठा करनी शुरू कर दी और उन्हें अन्य तीन आतंकियों के साथ पास के गाँव में एक कमरे में ठहरा दिया।

आशंका के कारण बार-बार उनकी कहानी की जाँच की गई;  लेकिन हर बार वह उन्हें झाँसा देने में सफल हो गए। पूरी तरह आश्वस्त होने के बाद उन्हें आगे के प्रशिक्षण के लिए उस पार के कैम्प में ले जाया गया। अन्य रंगरूटों के विपरीत इस युवा लड़के ने उत्कृष्ट पहल और उत्साह का प्रदर्शन किया;  तो उन्हें और आगे के नेतृत्व और वैचारिक प्रशिक्षण के लिए तुरंत चिह्नित किया गया। आखिरकार उन्हें एलओसी पार करने और भारतीय सेना की चौकी पर हमला करने का मौका दिया गया। इस अभूतपूर्व फैसले में उन्हें अबू सब्जार और अबू तोरारा नाम के हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडरों के तहत सीधे तौर पर प्रतिनियुक्त किया गया।

कुछ दिनों में ही मोहित ने दोनों को आश्वस्त किया कि वह सेना की चौकी पर हमला कर सकता है, 

जिससे सेना का अधिकतम नुकसान हो सकता है। अपनी इस सुनिश्चित योजना के अनुसार वह उन्हें एक सुविधाजनक स्थान पर ले गया और उन दोनों को प्रभावित करते हुए उसने अपनी योजना का विस्तृत प्रदर्शन किया। उनके कौशल को देखकर अबू सब्जार को अब इस बात पर संदेह हो गया कि बिना सैन्य अनुभव वाला यह युवक इतनी सावधानी से सैन्य हमले की योजना कैसे बना सकता है। वह उससे उसकी पृष्ठभूमि और कहानी के बारे में एक बार फिर से सवाल पूछने लगा।

उनके अविश्वास को भाँपते हुए युवा लड़के ने उनसे कहा, “अगर आपको मुझ पर कोई शक है, तो मुझे गोली मार दो। इसके साथ ही इस निर्भीक योद्धा ने निडरता से अपनी एके 47 ज़मीन पर गिरा दी और कहा कि अगर वे उस पर भरोसा नहीं करते हैं, तो वे उसे गोली मार सकते हैं। तोरारा यह सुनकर सोच में पड़ गया और आश्वस्त होने के लिए उसने अपने दूसरे साथी की ओर देखा। यही एक सूक्ष्म पल था, जब मोहित ने अपने जीवन का सब से महत्त्वपूर्ण निर्णय लिया। मोहित की आँखों में झाँकते हुए उन दोनों ने अपने हथियार रख दिए और पीठ मोड़कर आगे चलने लगे। कुछ कदम मोहित भी उनके साथ चलता रहा। आगे चलकर वह रुका, अपनी कमरबंद से अपनी 9 एमएम की पिस्तौल निकाली और उन दोनों को गोली मार दी। यह एक भारतीय सेना के पैरा एसएफ ऑपरेटर के ट्रेडमार्क शॉट्स थे

, जिसकी ट्रेनिंग वह कितनी बार ले चुके थे। आज उन्हें वह अवसर मिला कि वह अपनी शिक्षा के सिद्धांतों को मूर्तरूप कर सके। इस अभूतपूर्व, साहसिक घटना के बाद इफ्तिकार भट्ट अपने सारे हथियार उठाकर छिपते-छिपाते, चुपचाप नज़दीकी आर्मी कैंप में चले गए। अब वह पुन: मेजर मोहित शर्मा थे।

परमवीर मेजर मोहित शर्मा के लिए यह छद्म वेश का अभियान एक खेल के समान था। इस ऑपरेशन के बाद वह अपनी यूनिट लौटे, जो कि हिमाचल प्रदेश के एक खूबसूरत स्थान नाहन में स्थित थी। चार वर्षों तक उन्हें भारत के विभिन्न सैन्य शिक्षा संस्थानों में एक प्रशिक्षक के पद पर नियुक्त किया गया। कालान्तर में इस युवा सैन्य अधिकारी की भेंट एक अन्य युवा सैनिक अधिकारी कैप्टन रिश्मा सरीन से हुई। दोनों के जीवन का एक ही ध्येय था, राष्ट्र सेवा और राष्ट्र रक्षा। जल्दी ही दोनों विवाह बंधन में बँध गए।

इनका वैवाहिक जीवन बहुत ही कम अवधि तक रहा। ‘1 पैरा स्पेशल फोर्सेस’ उस समय कश्मीर घाटी में फैले आतंकवाद से लड़ने के लिए वहाँ पर तैनात थी। मोहित को भी अपनी ‘ब्रावो  असाल्ट टीम’ के साथ कश्मीर के कुपवाड़ा क्षेत्र में एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण अभियान के लिए भेज दिया गया।

21 मार्च 2009 के दिन विश्वस्त सूत्रों के द्वारा मोहित को जंगलों में कुछ आतंकियों के छिपे होने की खबर मिली थी, जो घाटी में घुसपैठ करके आतंक फ़ैलाने की कोशिशें कर रहे थे। इन्हें नष्ट करने के लिए ‘1 पैरा स्पेशल फोर्सेस’ की ब्रावो टीम को आदेश दिए गए। शत्रु को परास्त करने की मंशा से मोहित ने पूरे ऑपरेशन की योजना बनाई और अपनी कमांडो टीम का नेतृत्व करते हुए घने जंगलों में शत्रु की टोह लेते हुए, अँधेरे को चीरते हुए आगे बढ़ते रहे।

ऐसे अभियान में शत्रु का पलड़ा हमेशा भारी इसलिए होता है;  क्योंकि उन्हें उस जंगल के चप्पे- चप्पे की पहचान होती है। इसके विपरीत हमारे सैनिकों को उन्हें अँधेरे में ढूँढकर उन पर प्रहार करना होता है। इस अभियान में भी आतंकी तीनों तरफ से फायरिंग कर रहे थे। मेजर मोहित बड़ी कुशलता से अपनी टीम को आगे बढ़ने के निर्देश देते रहे। उस जंगल के हर कोने से परिचित आतंकियों की फायरिंग इतनी सही निशाने पर थी कि मोहित की टीम के चार कमांडो तुरंत ही उसकी चपेट में आ गए। उस समय मोहित ने अपनी सुरक्षा पर ज़रा भी ध्‍यान नहीं दिया और वह रेंगते हुए अपने साथियों तक पहुँचे और उनकी जान बचाई। इसी बीच उन्होंने आतंकियों पर ग्रेनेड फेंके। दो आतंकी वहीं ढेर हो गए। आमने-सामने के इस युद्ध में मेजर मोहित के सीने में एक गोली लग गई। इसके बाद भी वह रुके नहीं। बुरी तरह घायल होने के बाद भी अपने कमांडोज़ को निर्देश देते रहे। उस समय मोहित को अपने साथियों पर खतरे का अंदेशा हो गया था। अपनी गहरी चोट को बिलकुल नज़रंदाज़ करते हुए उन्होंने आगे बढ़कर फिर से शत्रु पर हमला किया और बचे हुए आतंकियों को ढेर किया।  इस अभियान में वीरता और संकल्प की मूरत यह वीर योद्धा  अपनी मातृभूमि की रक्षा करते हुए शहीद हो गए। उनके अंतिम शब्द थे... ‘देखना एक भी न बचे’।

मेजर मोहित जिस ऑपरेशन का नेतृत्व  कर रहे थे, उस ऑपरेशन को ‘ऑप रक्षक’ नाम दिया गया था। पराक्रम और अदम्य साहस की मिसाल मेजर मोहित शर्मा ने उस रात वास्तव में रक्षक नाम को अक्षरश: चरितार्थ कर दिया।

 अपने सेवा काल में ‘सेना मेडल’ से अलंकृत मेजर मोहित को इस अभियान में उनकी बहादुरी के लिए शांति काल में दिए जाने वाले सर्वोच्‍च सम्‍मान ‘अशोक चक्र’ से सम्मानित किया गया। यह सम्‍मान मरणोपरांत उन्हें दिया गया, जो उनकी सैनिक पत्नी मेजर रिश्मा सरीन ने ग्रहण किया।

राष्ट्रहित वेश बदलकर शत्रु के साथ युद्ध में शत्रु को हराने की बहुत सी घटनाएँ भारत के इतिहास में मिल जाएँगी। भगवान् कृष्ण को राजनीति और कूटनीति में दक्ष माना गया है। अपने जीवन काल में उन्हें भी कई बार छलपूर्ण नीति का सहारा लेना पड़ा और इसके लिए उन्हें वेश भी बदलना पड़ा। लेकिन सत्य और धर्म की रक्षा के लिए यह करना आवश्यक था। यदि वह ऐसा नहीं  करते तो समाज में अधर्म का राज होता। इसी प्रकार स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेता सुभाष चन्द्र बोस भी पठान का वेश बनाकर भारत से बाहर गए थे। इसके बाद ही उन्होंने आज़ाद हिन्द फौज की नींव रखी थी। अगर उस समय वह यह कदम नहीं उठाते, तो शायद भारत की स्वतंत्रता की कहानी के पन्नों में कुछ और लिखा जाता ।

युवा सैनिक अधिकारी मेजर मोहित ने भी कभी वेश बदलकर और कभी युद्ध के दाव-पेंच के सहारे खूँखार आतंकियों को और उससे भी अधिक उनके हिंसक इरादों को अपनी वीरता और सूझबूझ से नष्ट कर दिया। शायद उन्होंने अपने बाल्यकाल में भगवान् कृष्ण और सुभाषचंद्र बोस की कहानियाँ सुनी होंगी।

 आज मेजर मोहित युवा वर्ग के हृदय में शौर्य शक्ति को उद्भासित करके, राष्ट्र सेवा और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए प्राण उत्सर्ग करने के जीवंत प्रतिमान बन कर खड़े हैं। स्वाधीनता के महायज्ञ की अमर ज्योति में उनका नाम अकम्पित लौ के समान सदैव प्रकाशित रहेगा।

 अप्रतिम योद्धा मेजर मोहित शर्मा को समर्पित एक सैनिक पत्नी के उद्गार -

खो न जाए गहन गुहा में

हो न जाए बात पुरानी

आओ फिर से दोहराएँ हम

उन वीरों की कथा-कहानी।                      

आलेखः आदिकवि महर्षि वाल्मीकि

- डॉ. सुरंगमा यादव
उल्टा नाम जपत जग जाना, वाल्मीकि भए ब्रह्म समाना।

    वाल्मीकि के विषय में तुलसीदास जी की ये पंक्तियाँ उनके जीवन के पूर्वार्ध और उत्तरार्ध दोनों का परिचय कराती हैं।  राम का नाम उल्टा  अर्थात मरा- मरा का जाप करते- करते वाल्मीकिजी स्वयं राममय होकर ब्रह्म स्वरूप हो गए।  रत्नाकर से वाल्मीकि, वाल्मीकि से महर्षि और महर्षि से आदि कवि बनने की कथा भी कम रोचक नहीं है।

 वाल्मीकिजी का  जन्म आज से लगभग 9300 वर्ष पूर्व आश्विन मास की पूर्णिमा को हुआ था, जिसे हम शरद् पूर्णिमा भी कहते हैं।  वाल्मीकि जयंती को ‘प्रकट दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।  पौराणिक कथाओं के अनुसार वाल्मीकिजी महर्षि कश्यप और अदिति के नौवें पुत्र  प्रचेता की संतान थे इनकी माता का नाम चर्षणी था।   कथाओं के अनुसार बचपन में उन्हें एक नि:संतान भीलनी ने चुरा लिया था।  इस कारण उनका पालन- पोषण भील प्रजाति में हुआ। वाल्मीकिजी का प्रारंभिक नाम रत्नाकर था।  घने जंगलों में रहने वाला भील समुदाय वन्य प्राणियों का  आखेट और दस्युकर्म किया करता था।  यही कारण है कि वे बड़े होकर कुख्यात डाकू रत्नाकर बने।  अपनी आजीविका चलाने के लिए वे राहगीरों से  लूटपाट करते थे तथा कई बार उनकी हत्या भी कर देते थे।  एक बार जंगल में शिकार  की खोज में भटकते हुए उनका सामना नारदमुनि से हुआ, जो उस जंगल से गुजर रहे थे।

    अपनी प्रवृत्ति के अनुसार रत्नाकर ने उन्हें बंधक बना लिया।  नारदमुनि ने उनसे सवाल किया कि तुम ऐसा पापकर्म क्यों कर रहे हो? रत्नाकर ने तत्काल उत्तर दिया- अपने परिवार के जीवन यापन के लिए।  तब नारद मुनि ने पूछा-जिस परिवार के लिए तुम ये पाप कर रहे हो,  क्या वह परिवार तुम्हारे पापों के फल का सहभागी बनेगा? इस पर रत्नाकर ने अति उत्साह के साथ कहा - ‘हाँ बिलकुल मेरा परिवार सदैव मेरे साथ खड़ा रहेगा।’  नारद मुनि ने फिर कहा- एक बार उनसे जाकर पूछ लो यदि वे हाँ कहेंगे

, तो मेरे पास जो कुछ है, मैं वह सब  इस तुम्हें   दे दूँगा।  दस्यु रत्नाकर ने सबसे पहले अपनी पत्नी से प्रश्न किया कि क्या वह उनके पापों मैं सहभागी होगी? पत्नी ने कहा- आप मेरे पति हैं, मेरा भरण -पोषण करना आपका दायित्व है, मैं आपके  सुख- दुख की साथी हूँ; परन्तु आपके पापों का भार मैं नहीं उठा सकती।  यही प्रश्न रत्नाकर ने अपने माता पिता से किया और उनसे भी उसे नकारात्मक उत्तर मिला। उन्होंने स्पष्ट कहा कि वृद्धावस्था में माता-पिता की देखभाल  करना संतान  का उत्तरदायित्व है। रत्नाकर को इस बात से गहरा आघात पहुँचा। उन्होंने शीघ्रता से जाकर देवर्षि को बंधनमुक्त किया और विलाप करते हुए उनके चरण पकड़ लिये तथा नारदजी से मार्गदर्शन माँगा। नारद जी ने उन्हें राम- राम का जाप करने का उपदेश दिया।  रत्नाकर के बारे में यह प्रचलित है कि पूर्वकृत कर्मों के कारण वे राम नाम का उच्चारण नहीं कर पा रहे थे; इसलिए नारद मुनि ने उन्हें राम का उल्टा अर्थात मरा- मरा जपने का उपदेश दिया;  लेकिन इस बारे में कि नारद जी ने उन्हें मरा-मरा जपने का उपदेश दिया, मुझे कुछ तार्किक प्रतीक नहीं होता, मेरा मंतव्य इस विषय में थोड़ा-सा अलग  है, वह यह कि नारद जी उन्हें राम- राम जपने का मंत्र देकर चले गए होंगे, चूँकि रत्नाकर  भील समुदाय में पले बढ़े थे, जो कि सभ्यता संस्कृति दूर घने जंगलों में  रहने वाली आदिवासी जनजातियाँ थीं, जिनका उल्लेख रामायण में भील, कोल, किरात आदि नामों से मिलता है। आदिवासियों के अपने देवता और अपने संस्कार होते हैं;  इसलिए उन्होंने पहले कभी ये नाम नहीं सुना होगा, अतः वे भूल गए होंगे कि नारदजी क्या नाम बता कर गए थे, बिल्कुल उसी तरह जैसे हम कभी- कभी किसी काम के सिलसिले में यह अन्य किसी संदर्भ में यदि किसी का नाम एक ही बार सुनते हैं, तो अकसर ऐसा होता है कि हम वो नाम भूल जाते हैं और फिर याद करते हैं कि क्या नाम बताया था, उसकी जगह कई नाम हमारे दिमाग में आते हैं कि ये था या ये था।   इसी प्रकार रत्नाकर भी भूल गए होंगे और राम- राम की जगह मरा- मरा का जाप करने लगे।  वैसे भी यदि हम जल्दी- जल्दी राम -राम कहें,  तो मरा- मरा और मरा- मरा कहें तो राम- राम की ध्वनि उच्चारित होते हुए प्रतीत होती है। 

वैसे भी राम और मरा दोनों ही शब्द बहुत महत्त्वपूर्ण और अटल हैं।  राम अखिल ब्रह्मांड का अंतिम सत्य तो मृत्यु जीवन का अंतिम सत्य है।  यदि व्यक्ति को जीवन की नश्वरता का बोध रहे,  तो वह पापों से बचेगा और सत्पथ पर चल कर राममय हो जाएगा।  हृदय परिवर्तन होने के बाद रत्नाकर ने कई वर्षों तक ध्यानमग्न होकर कठिन साधना की।  इनके शरीर को दीमकों ने अपना घर बनाकर ढक लिया।  आप कभी घने जंगलों में गए होंगे तो आपने देखा होगा मिट्टी के ढेर को इकट्ठा करके दीमक अपनी बांबी या घर बना लेती हैं उसे वल्मीक  भी कहा जाता है।  जब इन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ और इनकी साधना पूरी हुई,  तो यह उससे बाहर निकले, तभी से लोग इन्हें वाल्मीकि कहने लगे।  इस प्रकार यह रत्नाकर से वाल्मीकि बन गए।  चाहे वाल्मीकि हों या तुलसीदास, दोनों के जीवन  की एक घटना ने  न केवल उनके जीवन की दिशा बदली बल्कि उन्हें उच्चतम सोपान पर प्रतिष्ठित भी किया। दोनों को ही अपनों से ही आघात पहुँचा, अपनों से मिली हुई पीड़ा सचमुच असहनीय होती है, परन्तु व्यक्ति को सन्मार्ग पर लाने के लिए ये कड़वी औषधि की तरह काम करती है।

    इनकी गणना वैदिक काल के महान् ॠषियों में की जाती है।  विभिन्न धार्मिक ग्रंथों और पुराणों के अनुसार उन्होंने कठोर तप और अनुष्ठान सिद्ध करके वैदिक युगीन ऋषियों में सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त करते हुए महर्षि का पद प्राप्त किया था।

 महर्षि वाल्मीकि आदिकवि हैं।  आदिकवि शब्द ‘आदि’ और ‘कवि’ के मेल से बना है ।  आदि का अर्थ होता है ‘प्रथम’ और कवि का अर्थ होता है काव्य की रचना करने वाला।  वाल्मीकिजी ने संस्कृत के प्रथम महाकाव्य ‘रामायण’ की रचना की थी।  कविता उनके मुख से सहसा प्रकट हुई।  महर्षि वाल्मीकि तमसा नदी के तट पर रहा करते थे।  ये कथा है कि एक बार वे स्नान इत्यादि के लिए नदी पर जा रहे थे।  वहाँ उन्होंने क्रौंच पक्षी के एक जोड़े को प्रेम मग्न देखा।  तभी एक बहेलिए ने उस जोड़े में से नर पक्षी का वध कर दिया।  इस पर मादा पक्षी व्यग्र होकर करुण विलाप करने लगा।  क्रौंच सारस पक्षी को कहते हैं इसके बारे में कहा जाता है की यह अपना जोड़ा एक ही बार बनाता है।  यदि ये अपने साथी से बिछड़ जाता है तो पूरा जीवन एकाकी ही काटता है।  उसके विलाप को सुन कर वाल्मीकि की करुणा जाग उठी और द्रवित अवस्था में उनके मुख से स्वतः ही प्रथम अनुष्टुप छंद निःसृत हो उठा –

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।

यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्॥

अर्थात् अये निषाद तू ने प्रेम में लिप्त पक्षी का वध किया है। तुझे कभी भी प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं होगी।  वाल्मीकि के मुख से उस व्याध के लिए शाप स्वरूप जो पंक्तियाँ निकलीं, वे संस्कृत भाषा में तथा अनुष्टुप छंद में थी। 

आश्रम में आकर वाल्मीकि जी व्याध को दिए गए शाप को लेकर चिंतित थे। तभी वहाँ ब्रह्मा जी प्रकट हुए और उन्होंने कहा कि यह श्लोक मेरी इच्छा से ही माँ सरस्वती ने आपके मुख से प्रकट किया है। आप अब श्रीराम का जीवन चरित्र लिखिए।  वाल्मीकिजी को अपने तपोबल से श्री राम के जीवन के भूत

, वर्तमान और भविष्य से जुड़ी सभी घटनाओं का ज्ञान हो गया; इसीलिए उन्हें   त्रिकालदर्शी भी कहते हैं।  उन्होंने संस्कृत भाषा के प्रथम महाकाव्य रामायण की रचना की। रामायण में लगभग 24,000 श्लोक हैं।  ‘रामायण’ एक ऐसा ग्रंथ है, जिसने मर्यादा, सत्य, प्रेम, भ्रातृत्व, मित्रता एवं राजा- प्रजा के धर्म की परिभाषा सिखाई। वाल्मीकि रामकथा के रचयिता ही नहीं बल्कि वे रामकथा के पात्र भी रहे हैं।  रामकथा में वाल्मीकि जी की महत्वपूर्ण भूमिका है।  अपने 14 वर्ष के वनवास काल के दौरान भगवान श्री राम वाल्मीकि जी के आश्रम में भी गए थे और स्वयं भगवान राम ने उन्हें त्रिकालदर्शी बताते हुए उनसे पूछा था कि  इस वन प्रदेश में सीता और लक्ष्मण सहित मैं कहाँ निवास करूँ? वे कहते हैं-

 तुम त्रिकालदर्शी मुनिनाथा,विस्ब बदर जिमि तुम्हरे हाथा।

इसलिए हे मुनीश्वर-

 अस जिय जानि कहिअ सोई ठाँऊँ,सिय सौमित्र सहित जह जाऊँ।

तब वाल्मीकि जी ने उन्हें चित्रकूट में निवास करने की सलाह दी।

सीता जी को जब पुनः कतिपय कारणों से वन जाना पड़ता है,  तब वाल्मीकि जी उन्हें अपनी मानस पुत्री मानकर अपने आश्रम में स्थान देते हैं।  सीता और राम जी के पुत्र लव और कुश का जन्म भी वाल्मीकि के आश्रम में ही होता है।  महर्षि वाल्मीकि लवकुश को शिक्षा दीक्षा देते हैं और हर प्रकार से निपुण बनाते हैं।  सामाजिक धार्मिक राजनीतिक शिक्षा के साथ साथ ललित कलाओं में तो निपुण बनाते ही हैं, युद्धकौशल भी ऐसा सिखाते हैं कि वे बालक श्रीराम द्वारा छोड़े गए राजसूय यज्ञ के घोड़े को बंधक बना लेते हैं और राम की सेना के योद्धाओं को परास्त कर देते हैं।

 वाल्मीकि का जीवन हमें बहुत कुछ सिखाता है।  उनके मन में दृढ़ इच्छा शक्ति और अटल निश्चय का भाव था। जीवन में घटित एक घटना ने उनके जीवन का रास्ता बदल दिया।  जैसे ही उन्हें ये अहसास हुआ कि वे अनुचित मार्ग पर चल रहे हैं उन्होंने अपने जीवन की दिशा ही बदल दी।  आज हम भली-भाँति ये जानते हुए भी की हमारा रास्ता सही नहीं है, हमारे बड़े, हमारे हितैषी, गुरुजन हमें लाख समझाते है लेकिन हम उस रास्ते को छोड़ना तो दूर,  कभी अपने कृत्यों पर विचार भी नहीं करते।  हम यह भूल जाते हैं की व्यक्ति अपने कृत्यों के लिए स्वयं उत्तरदायी होता है ओर कुकृत्यों की हानि कभी न कभी उसे अवश्य उठानी पड़ती है।  तुलसीदास जी ने कहा भी है-

कर्म प्रधान विश्व रचि राखा,जो जस करइ सो तस फल चाखा।

 वाल्मीकि जी का जीवन हमें सिखाता है कि व्यक्ति मनुष्यमात्र के लिए ही नहीं प्राणिमात्र के लिए अपने मन में दया, ममता ,करुणा और परोपकार की भावना रखे, एक पक्षी की व्यथा देख कर वाल्मीकि का हृदय किस तरह व्याकुल हो उठा ।  आज मनुष्य के भीतर मानवीय गुण ही जैसे समाप्त होते जा रहे हैं। उसी का परिणाम हम समाज में हिंसा, हत्या अपराध और सांप्रदायिकता के रूप में देख रहे हैं।  वाल्मीकि का जीवन हमें यह भी सिखाता है कि यदि व्यक्ति अपने मन में ठान लें तो वह क्या से क्या बन सकता है। 

सम्पर्कः असिस्टेंट प्रोफेसर, 4/27, जानकीपुरम विस्तार, लखनऊ 226031

शिक्षाः लीक से हटकर पढ़ाया जाएगा सोच का पाठ

- प्रमोद भार्गव 

देश का भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मद्रास ऐसा उच्च शिक्षण संस्थान है, जिसे केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय ने लगातार चौथी बार देश का श्रेष्ठ शिक्षण संस्थान घोषित किया है। यह देश का एक मात्र ऐसा संस्थान है, जो शिक्षा में नवाचारी प्रयोगों के लिए आगे रहा है। विज्ञान के आविष्कार और श्रेष्ठ साहित्य लेखन की बुनियाद ‘विचार’ या ‘सोच’ है। परंतु सोच का पाठ्यक्रम देश में कहीं पढ़ाया जाता हो, ऐसा अब तक देखने-सुनने में नहीं आया है ? यही कारण है कि 900 के करीब उच्च शिक्षण संस्थान होने के बावजूद हम नए शोध, प्रयोग और आविष्कार के क्षेत्र में पिछड़े हुए हैं। लेकिन अब यह खुशी की बात है कि आईआईटी मद्रास ने गणित के माध्यम से ‘लीक से हटकर सोच’ अर्थात ‘आउट ऑफ द बाक्स थिंकिंग’ पर आधारित पाठ्यक्रम शुरू किया है। इसके जरिए नवोन्मेषी सोच को बढ़ावा दिया जाएगा। अपनी तरह की इस अनोखी पहल के तहत संस्थान का विद्यालय और महाविद्यालयों के करीब 10 लाख विद्यार्थियों को जोड़ने का लक्ष्य है। इसके अलावा शोधकर्ताओं और व्यवसायियों को भी जोड़ा जाएगा। यदि छात्र की सोच को ठीक से प्रोत्साहित किया गया तो तय है, देश के 70 प्रमुख शोध-संस्थानों में 3200 वैज्ञानिकों के पद खाली हैं उनके भरने का सिलसिला शुरू हो जाएगा। बैंगलुरु के वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद् (सीएसआइआर) से जुड़े संस्थानों में सबसे ज्यादा 177 पद रिक्त हैं। पुणे की राष्ट्रीय रसायन प्रयोगशाला में 123 वैज्ञानिकों के पद खाली हैं।

कहते हैं कि पक्षियों के पंख प्राकृतिक रूप से ही सम्पूर्ण रूप में विकसित हो जाते हैं, लेकिन हवा के बिना उनमें पक्षी को उड़ा ले जाने की क्षमता नहीं होती है। अर्थात उड़ने के लिए वायु आवश्यक तत्व है। इसी तथ्य के आधार पर हम कह सकते हैं, आविष्कारक वैज्ञानिक को सोच के धरातल पर जिज्ञासु एवं कल्पनाशील होना जरूरी है। कोई वैज्ञानिक कितना भी शिक्षित क्यों न हो, वह कल्पना के बिना कोई मौलिक या नूतन आविष्कार नहीं कर सकता। शिक्षा संस्थानों से विद्यार्थी जो शिक्षा ग्रहण करते हैं, उसकी एक सीमा होती है, वह उतना ही बताती व सिखाती है, जितना हो चुका है। आविष्कार सोच एवं कल्पना की वह श्रृंखला है, जो हो चुके से आगे की अर्थात कुछ नितांत नूतन करने की जिज्ञासा को आधार तल देती है। स्पष्ट है, आविष्कारक लेखक या नए सिद्धांतों के प्रतिपादकों को उच्च शिक्षित होने की कोई बाध्यकारी अड़चन पेश नहीं आनी चाहिए।

अतएव हम जब लब्ध-प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों की जीवन-गाथाओं को पढ़ते हैं, तो पता चलता है कि न तो वे उच्च शिक्षित थे, न ही वैज्ञानिक संस्थानों में काम करते थे और न ही उनके इर्द-गिर्द विज्ञान-सम्मत परिवेश था। उन्हें प्रयोग करने के लिए प्रयोगशालाएँ भी उपलब्ध नहीं थीं। सूक्ष्मजीवों का अध्ययन करने वाले पहले वैज्ञानिक ल्यूवेनहॉक द्वारपाल थे और लैंसों की घिसाई का काम करते थे। लियोनार्दो विंची एक कलाकार थे। आइंस्टीन पेटेंट कार्यालय में लिपिक थे। न्यूटन अव्यावहारिक और एकांतप्रिय थे। उन्होंने विवाह भी नहीं किया था। न्यूटन को मंदबुद्धि भी कहा गया है। थॉमस अल्वा एडिसन को मंदबुद्धि बताकर प्राथमिक पाठशाला से निकाल दिया गया था। इसी क्षीण बुद्धि बालक ने कालांतर में बल्व और टेलीग्राफ का आविष्कार किया। फैराडे पुस्तकों पर जिल्दसाजी का काम करते थे; लेकिन उन्होंने ही विद्युत-मोटर और डायोनामा का आविष्कार किया। प्रीस्टले पुरोहित थे। लेवोसिएर कर विभाग में कर वसूलते थे। संगणक (कंप्यूटर) की बुद्धि अर्थात् सॉफ्टवेयर बनाने वाले बिलगेट्स का शालेय पढ़ाई में मन नहीं रमता था, क्योंकि उनकी बुद्धि तो सॉफ्टवेयर निर्माण की परिकल्पना में एकाग्रचित्त से लगी हुई थी। स्वास्थ्य के क्षेत्र में अनेक रोगों की पहचान कर दवा बनाने वाले आविष्कारक भी चिकित्सा विज्ञान या चिकित्सक नहीं थे। आयुर्वेद उपचार और दवाओं का जन्म तो हुआ ही ज्ञान परंपरा से है। गोया, हम कह सकते हैं कि प्रतिभा जिज्ञासु के अवचेतन में कहीं छिपी होती है। इसे पहचानकर गुणिजन या शिक्षक प्रोत्साहित कर कल्पना को पंख देने का माहौल दें, तो भारत की धरती से अनेक वैज्ञानिक-आविष्कारक निकल सकते हैं।

पुरानी कहावत है कि आवश्यकता आविष्कार की जननी है; लेकिन नूतन आविष्कार वही लोग कर पाते हैं, जो कल्पनाशील होते हैं और ‘लोग क्या कहेंगे’ इस उपहास की परवाह नहीं करते। बस वे अपने मौलिक इनोवेटिव आइडियाज़ को आकार देने में जुटे रहते हैं। अतएव संस्थागत स्तर पर सोच को शैक्षिक ज्ञान का धरातल मिलेगा तो परिकल्पनाएँ आविष्कार के रूप में आकार लेने लग जाएँगी। कुछ समय पहले हमने जाना था कि कर्नाटक के एक अशिक्षित किसान गणपति भट्ट ने पेड़ पर चढ़ जाने वाली बाइक का आविष्कार करके देश के उच्च शिक्षित वैज्ञानिकों व विज्ञान संस्थाओं को हैरानी में डालने का काम कर दिया था। गणपति ने एक ऐसी अनूठी मोटरसाइकल का निर्माण किया, जो चंद पलों और कम खर्च में नारियल एवं सुपारी के पेड़ों पर आठ मिनट में चढ़ जाती है। इस बाइक से एक लीटर पेट्रोल में 80 पेड़ों पर आसानी से चढ़ा जा सकता है। यह एक उत्कृष्ठ नवाचार था, जो सोच के बूते अस्तित्व में आया।

दरअसल बीते 75 सालों में हमारी शिक्षा प्रणाली ऐसी अवधारणाओं का शिकार हो गई है, जिसमें समझने-बूझने के तर्क को नकारा जाकर रटने की पद्धति विकसित हुई है। दूसरे संपूर्ण शिक्षा को विचार व ज्ञानोन्मुखी बनाने की बजाय, नौकरी अथवा कैरियर उन्मुखी बना दिया गया है। मसलन शैक्षिक उपलब्धियों को व्यक्ति केंद्रित बना दिया गया, जो संकीर्ण सोच और निजी विशेषज्ञता को बढ़ावा देती हैं। नए आविष्कार या अनुसंधानों की शुरुआत अकसर समस्या के समाधान से होती है, जिसमें उपलब्ध संसाधनों को परिकल्पना के अनुरूप ढालकर क्रियात्मक अथवा रचनात्मक रूप दिया जाता है। यही वैचारिक स्रोत आविष्कार के आधार बनते हैं; किंतु हमारी शिक्षा पद्धति से इन कल्पनाशील वैचारिक स्रोतों को तराशने का अध्यापकीय कौशल कमोबेश नदारद रहा है। लिहाजा सोच कुंठित होती रही है। अंग्रेजी का दबाव भी नैसर्गिक प्रतिभाओं को कुंठित कर रहा है। देर से ही सही आईआईटी मद्रास ने सोच का पाठ्यक्रम शुरू करके एक आवश्यक पहल की है।

यह पाठ्यक्रम आईआईटी मद्रास प्रवर्तक तकनीकी फाउंडेशन के माध्यम से शुरू किया गया है। इसमें परीक्षा में बैठने वाले विद्यार्थियों को मामूली शुल्क देने के बाद श्रेणी आधारित प्रमाण-पत्र मिल जाएगा। इसकी अंतिम परीक्षा भारत के चुनिंदा शहरों में होगी। पाठ्यक्रम ऑनलाइन प्रारूप में उपलब्ध होगा, जो निशुल्क होगा। भारत समेत दूसरे देशों में रहने वाले छात्र भी इस शिक्षा का लाभ उठा सकते हैं। चार श्रेणी वाला यह स्वतंत्र स्तर का यह पाठ्यक्रम विद्यार्थियों, व्यवसायियों और शोधार्थियों के लिए आसानी से उपलब्ध होगा। अतएव इस पाठ्यक्रम के जरिए

, जो छात्र अपनी मौलिक सोच के बूते कोई नूतन आविष्कार करते हैं, तो यह परिकल्पना साकार रूप में कैसे अवतरित हो, इस लक्ष्यपूर्ति के लिए लिए प्राध्यापक ज्ञान के मार्ग सुझाएँगे। मौलिक शोध लिखने की प्रवृत्ति बढ़ेगी, एम. फिल .और पीएच.डी .का आधार बनेंगे। जो आविष्कार उपकरण के रूप में विकसित कर लिए जाएँगे, उन्हें बाजार में उपभोक्ता उपलब्ध कराने के लिए व्यवसायी मार्ग दर्शन करेंगे। छात्र, व्यापारी और शोधार्थियों का यह ऐसा गठजोड़ साबित हो सकता है, जो वैज्ञानिक आविष्कार के क्षेत्र में क्रांति लाने के साथ, संस्थानों में वैज्ञानिकों की कमी पूरी कर सकता है। इसीलिए आइआइटी मद्रास के निर्देशक वी कामकोटी का कहना है - अपने तरह का यह पाठ्यक्रम भारत में पहला है और आने वाले दिनों में इसका व्यापक प्रभाव दिखाई देगा। इस पाठयक्रम का स्कूल और कॉलेज के छात्रों, खासकर ग्रामीण भारत में रहने वालों को काफी लाभ होगा। लीक से हटकर सोच या तर्क शक्ति का उपयोग करके छात्र अप्रत्यक्ष एवं रचनात्मक माध्यम से समस्याओं का समाधान करते हैं, तो वे तत्काल जाहिर नहीं होते है।; क्योंकि इसमें विचार की आवश्यकता होती है, जिसे केवल पारंपरिक तरीके से साकार करना मुश्किल होता है। इसीलिए इस अनूठे पाठ्यक्रम में तार्किक रूप से गणित के ज्ञात एवं अज्ञात तथ्यों को पुनः तलाशने वाली सोच पर जोड़ दिया जा रहा है, जिससे विचारशील छात्र की रुचि विकसित हो। वाकई यह ज्ञान के क्षेत्र में जड़ता को तोड़ने की उल्लेखनीय कोशिश है।

यहाँ गौरतलब है कि 1930 में जब देश में फिरंगी हुकूमत थी, तब देश में वैज्ञानिक ‘शोध का बुनियादी ढाँचा न के बराबर था। विचारों को रचनात्मकता देने वाला साहित्य भी अपर्याप्त था और गुणी शिक्षक भी नहीं थे। अंग्रेजी शिक्षा शुरुआती में दौर में थी। बावजूद सीवी रमन ने साधारण देशी उपकरणों के सहारे देशज ज्ञान और भाषा को आधार बनाकर काम किया और भौतिक विज्ञान में नोबेल दिलाया। जगदीशचंद्र बसु ने पेड़ों में रेडियो और सूक्ष्म तरंगों की प्रकाशिकी पर महत्त्वपूर्ण कार्य किया। भारत के वे पहले ऐसे वैज्ञानिक थे, जिन्होंने अमेरिकी पेटेंट प्राप्त किया। उन्हें रेडियो विज्ञान का जनक माना जाता है। जीवन की खोज के साथ सत्येंद्रनाथ बसु ने आइंस्टीन के साथ काम किया। मेघनाथ साहा, रामानुजम, पीसी रे और होमी जहाँगीर भाभा ने अनेक उपलब्धियाँ पाईं। रामानुजम के एक-एक सवाल पर पीएच.डी. की उपाधि मिल रही हैं। ए.पी.जे. कलाम और के. शिवम जैसे वैज्ञानिक मातृभाषा में आरंभिक शिक्षा लेकर महान वैज्ञानिक बने। लेकिन वर्तमान में उच्च शिक्षा में तमाम गुणवत्तापूर्ण सुधार होने और अनेक प्रयोगशालाओं के खुल जाने के बावजूद गंभीर अनुशीलन का काम थमा है। अतीत की उपलब्धियों को दोहराना मुमकिन नहीं हो रहा है। विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में हम पश्चिम के प्रभुत्व से छुटकारा नहीं पा, पा रहे ? हालाँकि मंगल अभियान इस दिशा में अपवाद के रुप में पेश आया है, जिसे स्वदेशी तकनीक से अंतरिक्ष में छोड़ा गया है। तय है, सोच का पाठ्यक्रम इस दिशा में मौलिक प्रयोग व आविष्कार सामने लाने की दिशा में अहम् पहल करेगा। 

                            

सम्पर्कः शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी म.प्र.

मो. 09425488224, 09981061100    

पर्यावरणः‘गीले कचरे’ से वेस्टलैंड का कायाकल्प

- सुबोध जोशी
जिस तेज़ी से औद्योगिक अपशिष्ट, प्लास्टिक और इलेक्ट्रॉनिक कचरे से भूमि को बेकार बनाया जा रहा है वह चिंता का विषय है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि विश्व में भूमि एक सीमित संसाधन है यानी भूमि बढ़ाई नहीं जा सकती। सीमित होते हुए भी भूमि को वेस्टलैंड बनने देना या बेकार पड़े रहने देना गंभीर लापरवाही है।

वर्ष 2004 में आधिकारिक तौर पर हमारे देश के कुल क्षेत्रफल का 20 प्रतिशत से अधिक (करीब 6.3 करोड़ हैक्टर) क्षेत्र वेस्टलैंड के रूप चिह्नित किया गया था। संभव है अब यह आंकड़ा बढ़ गया हो। वेस्टलैंड पर न तो खेती हो सकती है और न ही प्राकृतिक रूप से जंगल और वन्य जीव पनप पाते हैं। और न ही कोई अन्य उपयोगी कार्य हो पाता।

वेस्टलैंड अनेक कारणों से अस्तित्व में आती है। जिसमें प्राकृतिक और मानव निर्मित दोनों कारण शामिल हैं। उदाहरण के लिए बंजर भूमि, खनन उद्योग के कारण जंगलों का विनाश एवं परित्यक्त उबड़-खाबड़ खदानें, अकुशल या अनुचित ढंग से सिंचाई, अत्यधिक कृषि, जलभराव, खारा जल, मरुस्थल और रेत के टीलों का स्थान परिवर्तन, पर्वतीय ढलान, घाटियाँ, चारागाह का अत्यधिक उपयोग एवं विनाश, प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन, औद्योगिक कचरे एवं मल निकासी का जमाव, मिट्टी का क्षरण, जंगलों का विनाश वगैरह।

तो सवाल है कि क्या वेस्टलैंड को उपजाऊ बनाया जा सकता है? इसका जवाब मध्य अमेरिका में कैरेबियाई क्षेत्र के एक देश कोस्टा रिका में हुए एक बहुत ही आसान, किंतु अनोखे ‘प्रयोग' के नतीजे में देखा जा सकता है। वास्तव में यह बीच में छोड़ दिया गया एक अधूरा प्रयोग था। इसके बावजूद लगभग दो दशकों बाद प्रयोग स्थल का दृश्य पूर्णतः बदल चुका था।

दरअसल वर्ष 1997 में दो शोधकर्ताओं के मन में एक विचार उपजा और उन्होंने एक जूस कंपनी से संपर्क कर उसके सामने एक प्रायोगिक परियोजना का प्रस्ताव रखा। इसके तहत एक नेशनल पार्क से सटे क्षेत्र की बेकार पड़ी भूमि पर कंपनी को संतरे के अनुपयोगी छिलके फेंकने थे और वह भी बिना किसी लागत के। कंपनी इस बंजर भूमि पर 12,000 टन बेकार छिलके डालने के लिए सहर्ष तैयार हो गई। उसने वहाँ 1000 ट्रक संतरे के छिलके डाल भी दिए। जल्द ही इसके नतीजे दिखाई देने लगे। संतरे के छिलके छः माह में काली मिट्टी में बदलने लगे। बंजर भूमि उपजाऊ बनने लगी। वहाँ जीवन पनपने लगा।

इस बीच एक प्रतियोगी जूस कंपनी ने आपत्ति उठाते हुए अदालत में मुकदमा दायर कर दिया- कहना था कि छिलके डालकर वह कंपनी पर्यावरण को नुकसान पहुँचा रही है। अदालत ने इस तर्क को स्वीकर करके जो फैसला सुनाया उसके कारण यह प्रायोगिक परियोजना बीच में ही रोकनी पड़ी। इसके बाद वहाँ और छिलके नहीं डाले जा सके। अगले 15 साल डाले जा चुके छिलके और यह स्थान एक भूले-बिसरे स्थान के रूप में पड़ा रहा।

फिर 2013 में जब एक अन्य शोधकर्ता अपने किसी अन्य शोध के सिलसिले में कोस्टा रिका गए तब उन्होंने इस स्थल के मूल्यांकन का भी निर्णय लिया। घोर आश्चर्य! वे दो बार वहाँ गए; लेकिन बहुत खोजने पर भी उन्हें वहाँ वेस्टलैंड जैसी कोई चीज़ नहीं मिली। कभी बंजर रहा वह भू-क्षेत्र घने जंगल में तबदील हो चुका था और उसे पहचान पाना असंभव था।

इसके बाद, आसपास के क्षेत्र और उस नव-विकसित वन क्षेत्र का तुलनात्मक अध्ययन करने पर पता चला कि उस नव-विकसित वन क्षेत्र की मिट्टी कहीं अधिक समृद्ध थी और वृक्षों का बायोमास भी अधिक था। इतना ही नहीं, वहाँ वृक्षों की प्रजातियाँ भी अधिक थी। गुणवत्ता का यह अंतर एक ही उदाहरण से आसानी से समझा जा सकता है कि वहाँ अंजीर के एक पेड़ का घेरा इतना बड़ा था कि तीन व्यक्ति मिलकर हाथ से उसे बमुश्किल घेर पाते थे। और इतना सब कुछ जैविक कचरे की बदौलत सिर्फ 15-20 सालों में अपने आप हुआ था!

सोचने वाली बात है कि जब यह अधूरा प्रयास ही इतना कुछ कर गया तो यदि नियोजित ढंग से किया जाए तो अगले 25 सालों में कितनी वेस्टलैंड को सुधार कर प्रकृति, पारिस्थितिकी, पर्यावरण आदि को सेहतमंद बनाए रखने की दिशा में कार्य किया जा सकता है। जैविक कचरा (जिसे गीला कचरा कहते हैं) एक बेकार चीज़ न रहकर उपयोगी संसाधन हो जाएगा, विशाल मात्रा में उसका सतत निपटान संभव हो जाएगा, मिट्टी उपजाऊ होगी और वेस्टलैंड का सतत सुधार होता जाएगा। प्राकृतिक रूप से बेहतर गुणवत्तापूर्ण, जैव-विविधता समृद्ध घने जंगल पनपने लगेंगे। वन्य जीव भी ऐसी जगह पनप ही जाएँगे। वायु की गुणवत्ता सुधरना और वातावरण का तापमान घटना लाज़मी है। घने जंगल वर्षा को आकर्षित करेंगे। भू-जल भंडार और भूमि की सतह पर जल स्रोत समृद्ध होंगे। कुल मिलाकर पर्यावरण समृद्ध होगा।

चूंकि भारत एक कृषि प्रधान देश है, यहाँ बड़े पैमाने पर अनाजों, दालों, सब्ज़ियों और फलों की पैदावार और खपत होती है। खाद्य प्रसंस्करण उद्योग भी बढ़ते जा रहे हैं। इसलिए घरों, खेतों, उद्योगों आदि से गीला कचरा प्रतिदिन भारी मात्रा में निकलता है जिसका इस्तेमाल वेस्टलैंड पुनरुत्थान में किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

कविताः मंदिर के दिये-सा है तू

- डॉ. कविता भट्ट

विदाई में तुम्हारे चेहरे की सलवटें

मुझे सताए जैसे बेघर को गर्म लू

 

तू रो न सका, मेरे आँसू न रुके

पहाड़ी घाटी में उदास नदी- सा तू

 

छोड़ रहा था चुन्नी काँपते हाथों से

सुना था पुरुष लौह स्तम्भ हैं हूबहू

 

तेरे मन के कोने मैंने भी रौशन किए

मेरी नजर में मंदिर के दिये -सा है तू

 

चार कदम में कई जीवन जी लिये

अमरत्व को उन्मुख अब यौवन शुरू... 

सम्प्रति: फैकल्टी डेवलपमेंट सेण्टर, पी.एम.एम.एम.एन.एम.टी.टी., प्रशासनिक भवन II, हे.न.ब.गढ़वाल विश्वविद्यालय, श्रीनगर (गढ़वाल), उत्तराखंड