- डॉ. रत्ना वर्मा
यह सब इतना शर्मनाक और
दुःखद है कि इस विषय पर फिर एक बार लिखते हुए मन बहुत उदास और असहाय महसूस कर रहा
है। आज हम एक ऐसे दौर में जी रहे हैं कि माता- पिता अपनी बेटियों को कहीं भी अकेली
भेजने से डरने लगे हैं। रोज- रोज आ रही बलात्कार की खबरें, जिनमें चाहे वह चार- पाँच साल की बच्ची हो, स्कूल
में पढ़ने वाली किशोरी, कॉलेज या ट्यूशन से लौटती छात्रा
अथवा कामकाजी महिला या घर में अकेली गृहिणी; कब किस मोड़ पर
कोई दरिंदा बाज की तरह उसपर झपटेगा, कह नहीं सकते और फिर कभी बहला- फुसलाकर, कभी
जबरदस्ती से, तो कभी दरिंदगी के साथ अपहरण, कुकृत्य और फिर हत्या करके कहीं फेंक जाएगा। कहने का तात्पर्य- असुरक्षा
का घना कोहरा इतना गहरा है कि कोई मार्ग दिखाई नहीं देता। इसके लिए जिम्मेदार
कारकों में परिवार को, उनके पालन- पोषण को, शिक्षा को, बदलते सामाजिक और आर्थिक परिवेश को, आधुनिकीकरण को
दोषी मानकर और इनमें सुधार करने के भाषण सुन- सुनकर कान पक चुके हैं। यह सब अपने
मन को बहलाने के साधन हैं; जबकि सत्य यही है कि इलाज के लिए
अब कोई दूसरा सशक्त माध्यम तलाशना होगा।
पिछले महीने ही देश भर
में नवरात्र का पावन पर्व मनाया गया, उसके बाद
बुराई पर अच्छाई की जीत का पर्व विजयादशमी उल्लास और उत्साह के साथ मनाया गया।
लेकिन इसी उत्साह और उल्लास के बीच नौ दिनों तक देवी की आराधना करने वाले
देशवासियों का ध्यान देशभर में महिलाओं और देवी- तुल्य बच्चियों पर होने वाले
अत्याचार की ओर शायद ही गया। प्रत्येक
मिनट घटने वाली इस तरह की घटनाएँ केवल समाचार पत्रों और न्यूज चैनलों तक ही सिमट
कर रह गईं। अब पूरा देश आने वाले उजाले के
त्योहार दीपावली की तैयारी में इस तरह मगन हो गया , मानों ये
सब तो रोचमर्रा की बात हों। दीपावली भी देवी के स्वागत का पर्व है; परंतु देवी को पूजने वाले देश में कुछ बीमार मानसिकता के लोगों ने हमारे
देश की भव्य सभ्यता और उच्च सांस्कृतिक विरासत की धज्जियाँ उड़ाने में कोई कसर
नहीं छोड़ी है।
कोविड -19 के प्रकोप के बाद से सामने आए आँकड़ों और रिपोर्टों से पता चला है कि
महिलाओं एवं बालिकाओं के खिलाफ सभी प्रकार की हिंसा में वृद्धि हुई है। एक अध्ययन
के अनुसार प्रति एक लाख की आबादी पर महिलाओं के खिलाफ अपराध की दर 2020 में 56.5 प्रतिशत से बढ़कर 2021 में 64.5 प्रतिशत हो गई । जिसमें महिलाओं के अपहरण
के मामलों में 17.6 प्रतिशत और बलात्कार की घटनाओं में भी 2020 के मुकाबले 7.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इसी
प्रकार साल 2021 में बच्चों के खिलाफ होने वाली हिंसा 2020 के मुकाबले 16 प्रतिशत ज्यादा हैं । साल 2021 में प्रति लाख
बच्चों की आबादी पर दर्ज अपराध का प्रतिशत 33.6 है, जो कि 2020 में 28.9 प्रतिशत था
। अब 2022 में जो आँकड़े सामने आ रहे हैं, वे इस बात की ओर इंगित करते हैं
कि ऐसे अपराधों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। ये वे आँकड़ें हैं, जो दर्ज किए जाते हैं, अक्सर पुलिस स्टेशनों में
महिलाओं और बच्चों के साथ होने वाले अपराधों को दर्ज नहीं किया जाता और जितने
मामले दर्ज होते हैं, उनमें भी दोष सिद्धि की दर बहुत कम
होती है। बलात्कार और यौन- अपराधों से बच्चों का संरक्षण एक्ट, 2012 के अंतर्गत मामलों के लिए 1,023 फास्ट ट्रैक
अदालतों का लक्ष्य है; लेकिन सिर्फ 597
अदालतें काम कर रही हैं।
नाबालिग बच्चों के साथ
होने वाले अपराधों के मामलों में कार्रवाई करने और उन्हें यौन-उत्पीड़न, यौन- शोषण और पोर्नोग्राफी जैसे गंभीर अपराधों से सुरक्षा प्रदान करने के
उद्देश्य से बच्चों के संरक्षण का अधिनियम 2012 (Protection of Children
from Sexual Offences Act – POCSO) पारित किया गया है। 18 साल से कम उम्र के नाबालिग बच्चों के साथ किया गया किसी भी तरह का यौन
व्यवहार इस कानून के अन्तर्गत आता है। वहीं इस कानून के तहत रजिस्टर मामलों की
सुनवाई विशेष अदालत में होती है।
परंतु फिर भी पुख्ता साक्ष्य के अभाव में हमारा
कानून भी अधिकतर मामलों में कमजोर साबित होता है और अपराधी कोई बड़ी सजा पाए बिना
ही छूट जाता है। पिछले दिनों कुछ ऐसे मामले सामने आए हैं, जो कानून व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं- जैसे बिलकिस बानो केस- साल 2002 में हुए गुजरात
दंगों के दौरान अहमदाबाद के पास रनधिकपुर गाँव में एक भीड़ ने पाँच महीने की
गर्भवती बिलकिस बानो के साथ सामूहिक बलात्कार और उनके परिवार के सात सदस्यों की
हत्या के मामले में 11 लोगों को उम्र-कैद की सज़ा सुनाई गई
थी; लेकिन गुजरात सरकार ने माफी नीति के आधार पर इस साल 15 अगस्त को इन 11 दोषियों को समय से पहले ही रिहा कर
दिया गया । हाल ही में मध्य प्रदेश के जबलपुर जिले में हुए एक बलात्कार के मामले
में गिरफ्तारी के बाद जमानत पर रिहा हुए एक व्यक्ति ने अपने मित्र के साथ मिलकर
पीड़िता से कथित रूप से दोबारा सामूहिक बलात्कार किया और घटना का वीडियो बनाकर उस
पर मुकदमा वापस लेने का दबाव बनाया। इसी तरह लखनऊ की टिक-टॉक स्टार लड़की से रेप
और गर्भपात करवाने के आरोपी ने जेल से छूटने के बाद गाड़ियों के काफिले के साथ रोड
शो निकाला था। यह तो केवल एक- दो उदाहरण हैं। ऐसे ही कानून को अपनी मुट्ठी में
रखने वाले लोगों की कमी नहीं है ,जो बड़े – बड़े अपराध करके
आराम से समाज के बीच रहते हैं और कोई कुछ नहीं कर पाता, इतने
पर भी अपराधियों के हौसले बुलंद रहते हैं।
ऐसे अपराधों को बढ़ावा
देने में एक बहुत बड़ा और मुख्य कारक है-
आर्थिक व्यवस्था, सामाजिक सरोकार, लोक-लिहाज, बदनामी व भविष्य में शादी-ब्याह न होने
की समस्या के भय से ऐसे कुकृत्यों के विरुद्ध खुलकर आवाज उठा पाने में पीड़ित स्वयं और उनके अभिभावक खुद को असमर्थ पाते हैं।
पपरिणामस्वरूप आरोपियों के हौसले और भी बढ़ जाते हैं। काश माता- पिता अपनी मासूम
बच्ची के साथ हुए अत्याचार को छुपाने के बचाए दोषी को सजा दिलाने के लिए आगे आएँ,
तो ऐसे अनेकों कुत्सित इरादों पर बंदिश लगाई जा सकती है; क्योंकि परिवार में अक्सर उन मामलों को छिपाया जाता है, जो घर के ही किसी सदस्य द्वारा अथवा करीबी रिश्तेदार या पड़ोसी द्वारा घर
के भीतर ही किए जाते हैं।
देशभर के समाजशास्त्री, मनोवैज्ञानिक, शिक्षाशास्त्री, परिवार, समाज, संस्थाएँ,
आदि के साथ कानून- व्यवस्था, पुलिस, चिकित्सा और स्वास्थ्य विभाग आदि सभी जिम्मेदार लोगों को एक होकर इसे
रोकने के लिए मिलकर कारगर उपाय खोजने होंगे, क्योंकि इन
अपराधों का समाधान केवल कानून के तहत अदालतों
में ही नहीं किया जा सकता है;
बल्कि इसके लिये एक समग्र दृष्टिकोण और पूरे पारिस्थितिकी
तंत्र को बदलना आवश्यक है। सर्वप्रथम तो शिकायत दर्ज करने से लेकर पुलिस की
कार्यवाही तक होने वाली प्रक्रिया को सुधारा जाए, महिला
पुलिस की संख्या में बढ़ोतरी की जाए।
हेल्पलाइन नम्बर और हेल्पडेस्क की सुविधा को आसान किया जाए। इन दिनों
टेलीकॉम कम्पनियाँ अपने फायदे के लिए हजारों एप और भरपूर डाटा उपलब्ध कराकर ऐसी
सामग्री परोस रही हैं, जिनसे केवल अपराधों को ही बढ़ावा मिलता है। इन्हें चाहिए कि कोई ऐसा अनिवार्य ऐप या बटन
बनाएँ, जिसे दबाते ही पीड़ित को सही समय पर सहायता मिल सके।
5 comments:
आदरणीया,
हमारी संस्कृति में कहा गया है - यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता: अर्थात जहां नारी की पूजा की जाती है, उसका सम्मान किया जाता है वहां देवताओं का वास होता है। किंतु अफ़सोस यह केवल धर्म में है कर्म में तो सर्वथा उलट तमाम प्रगति, शिक्षा के बाद भी।
आदमी के अंदर का भेड़िया मौका देखते ही बाहर आ जाता है। कानून न्याय लचर व लाचार बना हुआ है।
समाज भी कम अपराधी नहीं। अधिकांशतया लोग मदद के बजाय वीडियो बनाने में व्यस्त पाये जाते हैं। आकंठ भ्रष्टाचार में डूबी व्यवस्था की तो बात ही मत पूछिये। नेता तो निराशा के पर्याय हैं। परिवार भी संस्कार देने में पिछड़ चुके हैं। दूर दूर तक सुधार की संभावना नज़र नहीं आती।
आपने सदा की तरह बहुत सामयिक विषय पर कलम उठाई है। अतः आपके सोच और जज़्बे को प्रणाम। सादर
विचारणीय लेख
कम से ोने की अपेक्षा समस्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। न आयु का लिहाज़ है न ही रिश्तों का। जब तक पुरुष की मानसिकता नहीं बदलती उसकी पाशविक प्रवृत्ति में परिवर्तन नहीं आएगा। विचारणीय सम्पादकीय। सुदर्शन रत्नाकर
समाज के कटु यथार्थ को उजागर करता विचारणीय आलेख।
एक गम्भीर सामाजिक समस्या को आपने उठाया है,भौतिकता के विकास के साथ नारी उत्पीड़न की घटनाएँ बढ़ रही हैं,ऐसे अपराधी विकृत मनोविकृति के शिकार हैं।इस दिशा में गम्भीर पहल की आवश्यकता है।एक गम्भीर आलेख हेतु बधाई।
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