- डॉ. कविता भट्ट
विदाई में तुम्हारे चेहरे की सलवटें
मुझे सताए जैसे बेघर को गर्म लू
तू रो न सका, मेरे आँसू न
रुके
पहाड़ी घाटी में उदास नदी- सा तू
छोड़ रहा था चुन्नी काँपते हाथों से
सुना था पुरुष लौह स्तम्भ हैं हूबहू
तेरे मन के कोने मैंने भी रौशन किए
मेरी नजर में मंदिर के दिये -सा है तू
चार कदम में कई जीवन जी लिये
अमरत्व को उन्मुख अब यौवन शुरू...
सम्प्रति: फैकल्टी डेवलपमेंट सेण्टर, पी.एम.एम.एम.एन.एम.टी.टी., प्रशासनिक भवन II, हे.न.ब.गढ़वाल विश्वविद्यालय, श्रीनगर (गढ़वाल), उत्तराखंड
3 comments:
सहज शब्दावली और सरल प्रवाह में
सुगठित कविता वाक़ई बहुत सुंदर
.
बहुत सुंदर भावपूर्ण अभिव्यक्ति। सुदर्शन रत्नाकर
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