‘जलियाँवाला बाग़ गोलीकांड’
अप्रैल का काला और क्रूरतम दिन
- डॉ. कुँवर दिनेश सिंह
अमेरिकी कवि एलियट की बहुचर्चित उक्ति - "अप्रैल एक क्रूरतम माह है" के बहुत-से मानी निकाले जाते रहे हैं, परन्तु इसका सर्वाधिक मान्य भावार्थ है -दिसम्बर माह में शीत ऋतु में हुई हानि व ह्रास का विषाद, जिसकी स्मृति-मात्र अप्रैल में वसन्त के चरम पर भी मानव-मन को खिन्न कर देता है। इसी आशय से एलियट ने अप्रैल को क्रूरतम माह कह दिया। भारतीय इतिहास में यह उक्ति एक अन्य सन्दर्भ में भी चरितार्थ होती है , वह है पराधीन भारत में 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जलियाँवाला बाग़ में अंग्रेज़ों द्वारा किया गया नरसंहार। आज सौ साल बीत जाने के बाद भी जैसे ही जलियाँवाला बाग़ गोलीकाण्ड का ज़िक्र आ जाता है, मन में उदासी के साथ-साथ रोष भर आता है, आक्रोश आ जाता है।
उस दिन बैसाखी थी। पूरे भारत में बैसाखी का त्योहार मनाया जाता है, परन्तु पंजाब और हरियाणा में इसका विशेष महत्त्व है। किसान रबी की फसल काट लेने के बाद नए साल की खुशियाँ मनाते हैं। बैसाखी के दिन, यानी 13 अप्रैल 1699 को सिक्खों के दसवें गुरु गोविंद सिंह ने खालसा पंथ की स्थापना की थी। इस कारण से भी बैसाखी पंजाब और आस-पास के प्रान्तों में एक बड़े पर्व के रूप में मनाई जाती है। अपने पंथ की स्थापना के कारण सिक्ख इस दिन को सामूहिक जन्मदिवस के रूप में मनाते हैं। अमृतसर में बैसाखी मेला सैंकड़ों सालों से लगता चला आ रहा था। उस दिन भी बैसाखी के मेले के लिए दूर-दूर से आए हज़ारों लोग स्वर्ण-मन्दिर के निकट जलियाँवाला बाग़ में एकत्र हुए थे। इसी बाग़ में रॉलेट एक्ट का विरोध करने के लिए भी एक सभा हो रही थी। 1918 में एक ब्रिटिश जज सिडनी रॉलेट की अध्यक्षता में नियुक्त एक सेडीशन समिति के सुझावों के अनुसार भारत प्रतिरक्षा विधान (1915) का विस्तार कर के भारत में रॉलट एक्ट लागू किया गया था, जो भारतीयों द्वारा स्वतन्त्रता के लिए किए जा रहे आंदोलन पर रोक लगाने के लिए था। इसके अन्तर्गत ब्रिटिश सरकार को ऐसे अधिकार दिए गए थे, जिनसे वह प्रेस पर सेंसरशिप लगा सकती थी, लोगों को बिना वॉरण्ट के गिरफ़्तार कर सकती थी और बिना मुकद्दमे के जेल में रख सकती थी, उन पर बंद कमरों में अपना पक्ष रखे बिना मुकद्दमा चला सकती थी, इत्यादि। इस कारण इस एक्ट का पूरे भारत में लोग आन्दोलन कर रहे थे और गिरफ़्तारियाँ दे रहे थे।
उस दिन अमृतसर पहुँचे बहुत-से लोग ऐसे थे, जो परिवार के साथ मेला देखने और अमृतसर शहर घूमने आए थे, लेकिन सभा की खबर सुन कर वहाँ जा पहुंचे थे। जब नेता बाग़ में पड़ी रोड़ी के ढेरों पर खड़े होकर भाषण दे रहे थे, तभी ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर 90 ब्रिटिश सैनिकों को लेकर वहाँ पहुँच गया। उन सब के हाथों में भरी हुई राइफलें थीं। आन्दोलनकारी नेताओं ने ब्रिटिश सैनिकों को देखकर वहां मौजूद लोगों से शांत बैठे रहने के लिए कहा। लेकिन सैनिकों ने बाग़ को घेर कर बिना कोई चेतावनी दिए निहत्थे लोगों पर गोलियाँ चलानी शुरु कर दीं। वहां मौजूद लोगों ने बाहर निकलने की कोशिश भी की, लेकिन अन्दर आने और बाहर जाने के लिए रास्ता एक ही था और बहुत सँकरा था, और डायर के फौजी उसे रोककर खड़े थे। इसी वजह से कोई बाहर नहीं निकल पाया। कुछ लोग जान बचाने के लिए मैदान में मौजूद एकमात्र कुएं में कूद गए, पर देखते ही देखते वह कुआँ भी लाशों से भर गया। डायर के आदेश पर ब्रिटिश सैनिकों ने बिना रुके लगभग 10 मिनट तक गोलियाँ बरसाईं। करीब 1650 राउंड फायरिंग की गई। बुलेट ख़त्म हो जाने तक फ़िरंगी फ़ौज लगातार फ़ायरिंग करती रही।
अमृतसर के डिप्टी कमिश्नर कार्यालय में 484 शहीदों की सूची है, जबकि जलियाँवाला बाग़ में कुल 388 शहीदों की सूची है। बाग़ में लगी पट्टिका पर लिखा है कि 120 शव तो सिर्फ कुएँ से ही मिले। ब्रिटिश राज के अभिलेख इस घटना में 200 लोगों के घायल होने और 379 लोगों के शहीद होने की बात स्वीकार करते है, जिनमें से 337 पुरुष, 41 नाबालिग़ लड़के और एक 6-सप्ताह का बच्चा था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मुताबिक 1000 से अधिक लोग मारे गए और 2000 से अधिक घायल हुए। पंडित मदन मोहन मालवीय के अनुसार कम से कम 1300 लोग मारे गए। स्वामी श्रद्धानंद के अनुसार मरने वालों की संख्या 1500 से अधिक थी, जबकि अमृतसर के तत्कालीन सिविल सर्जन डॉक्टर स्मिथ के अनुसार मरने वालों की संख्या 1800 से अधिक थी। घायलों को इलाज के लिए भी कहीं ले जाया नहीं जा सका, जिससे लोगों ने तड़प-तड़प कर वहीं दम तोड़ दिया ।
जनरल डायर रॉलेट एक्ट का बहुत बड़ा समर्थक था, और उसे इसका विरोध मंज़ूर नहीं था। उसकी मंशा थी कि इस हत्याकांड के बाद भारतीय डर जाएँगे, लेकिन इसके ठीक उलट ब्रिटिश सरकार के खिलाफ पूरा देश आंदोलित हो उठा। हत्याकांड की पूरी दुनिया में आलोचना हुई। आखिरकार दबाव में भारत के लिए सेक्रेटरी ऑफ स्टेट एडविन मॉन्टेग्यू ने 1919 के अंत में इसकी जाँच के लिए हंटर कमीशन बनाया। कमीशन की रिपोर्ट आने के बाद डायर का डिमोशन कर उसे कर्नल बना दिया गया, और साथ ही उसे ब्रिटेन वापस भेज दिया गया। मुख्यालय वापस पहुँचकर ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर ने अपने वरिष्ठ अधिकारियों को टेलीग्राम किया कि उस पर भारतीयों की एक फ़ौज ने हमला किया था, जिससे बचने के लिए उसको गोलियाँ चलानी पड़ीं। ब्रिटिश लेफ़्टिनेण्ट गवर्नर मायकल ओ’ ड्वायर ने इसके उत्तर में ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर को टेलीग्राम किया कि तुमने सही कदम उठाया। मैं तुम्हारे निर्णय को अनुमोदित करता हूँ।’ फिर ब्रिटिश लेफ़्टिनेण्ट गवर्नर मायकल ओ’ ड्वायर ने अमृतसर और अन्य क्षेत्रों में मार्शल लॉ लगाने की माँग की, जो अंग्रेज़ सरकार लगा नहीं पाई। हंटर कमीशन की पूछताछ के दौरान डायर ने गोली चलाने का यह कारण दिया: "मैं समझता हूँ मैं बिना फ़ायरिंग के भी भीड़ को तितर-बितर कर सकता था, लेकिन वे फिर इकट्ठा होकर वापिस आ जाते और हँसते, और मैं बेवक़ूफ़ बन जाता. . ." और उसने बड़ी निर्लज्जता के साथ यह भी स्वीकार किया कि फ़ायरिंग के बाद उसने घायलों का इलाज नहीं करवाया: "बिल्कुल नहीं। यह मेरा काम नहीं था। अस्पताल खुले थे; वे लोग वहाँ जा सकते थे।" किन्तु विश्वव्यापी निंदा के दबाव में ब्रिटिश सरकार ने उसका निंदा प्रस्ताव पारित किया और 1920 में ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर को इस्तीफ़ा देना पड़ा। 23 जुलाई 1927 को पक्षाघात से उसकी मृत्यु हो गई।
जब जलियाँवाला बाग़ में यह हत्याकांड हो रहा था, उस समय ख़ालसा यतीमख़ाने में पला एक सिक्ख युवक, ऊधमसिंह, वहीं मौजूद थे और उन्हें भी गोली लगी थी। इस घटना ने ऊधमसिंह को झकझोर कर रख दिया और उन्होंने अंग्रेजों से इसका बदला लेने की ठानी। हिन्दू, मुस्लिम और सिक्ख एकता की नींव रखने वाले ऊधमसिंह उर्फ राम मोहम्मद आजादसिंह ने इस बर्बर घटना के लिए मायकल ओ’ ड्वायर को जिम्मेदार माना जो उस समय पंजाब प्रांत का गवर्नर था, जिसके आदेश पर ही ब्रिगेडियर जनरल डायर ने जलियाँवाला बाग़ को चारों तरफ़ से घेर कर गोलियाँ चलवाईं। 13 मार्च 1940 को उधमसिंह ने लंदन के कैक्सटन हॉल में लेफ़्टिनेण्ट गवर्नर मायकल ओ’ ड्वायर को गोली चला के मार डाला। 31 जुलाई 1940 को ऊधमसिंह को फाँसी पर चढ़ा दिया गया। गांधी और जवाहरलाल नेहरू ने ऊधमसिंह द्वारा की गई इस हत्या की निंदा करी थी;लेकिन उधमसिंह ने फ़ाँसी से पहले लेफ़्टीनेंट गवर्नर को मारने के अपने उद्देश्य के बारे में अदालत में ये शब्द कहे थे: "यही असली मुजरिम था। यह इसी के योग्य थे। यह मेरे देश के लोगों की आत्मा को कुचलना चाहता था; इसलिए मुझे इसे कुचलना ही था।"
इस हत्याकांड ने तब 12 वर्ष की उम्र के भगत सिंह की सोच पर गहरा प्रभाव डाला था। इसकी सूचना मिलते ही भगत सिंह अपने स्कूल से 12 मील पैदल चलकर जलियाँवाला बाग़ पहुँच गए थे। अंग्रेज़ी हुक़ूमत के ख़िलाफ़ उग्र आन्दोलन करते हुए वे भी भारत की आज़ादी के लिए शहीद हो गए। इस कांड के बाद भारतीयों का हौसला पस्त नहीं हुआ, बल्कि इसके कारण देश में आज़ादी का आन्दोलन और अधिक उग्र और तेज़ हो गया था। उन दिनों संचार और परस्पर संवाद के साधनों के अभाव में भी इस गोलीकांड की खबर पूरे देश में आग की तरह फैल गई। अब केवल पंजाब नहीं, बल्कि पूरे देश में आज़ादी की जंग शुरू हो गई थी। पंजाब तब तक मुख्य भारत से कुछ अलग चला करता था, लेकिन इस कांड के बाद पंजाब पूरी तरह से भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ गया। 1920 में महात्मा गांधी द्वारा शुरू किए गए असहयोग आंदोलन की नींव भी जलियाँवाला बाग़ का गोलीकांड ही था।
1920 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा एक प्रस्ताव पारित होने के बाद साइट पर एक स्मारक बनाने के लिए एक ट्रस्ट की स्थापना की गई थी, जिसके तहत 1923 में स्मारक परियोजना के लिए भूमि ख़रीदी गई थी। अमेरिकी वास्तुकार बेंजामिन पोल्क द्वारा स्मारक का डिज़ाइन तैयार किया गया था। 13 अप्रैल 1961 को जवाहरलाल नेहरू और अन्य नेताओं की उपस्थिति में भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने इस स्मारक का उद्घाटन किया था। बुलेट की गोलियाँ दीवारों और आस-पास की इमारतों में आज भी देखी जा सकती हैं। गोलियों से खुद को बचाने की कोशिश कर रहे लोग जिस कुएँ में कूद गए थे, वह ‘शहीदी कुआँ’ आज भी पार्क के अंदर एक संरक्षित स्मारक के रूप में है। 1997 में महारानी एलिज़ाबेथ ने इस स्मारक पर शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित की थी। 2013 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरॉन भी इस स्मारक पर आए और उन्होंने विज़िटर्ज़ बुक में ये शब्द दर्ज़ किए: "ब्रिटिश इतिहास की यह एक शर्मनाक घटना थी।"
यदि किसी एक घटना ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर सबसे अधिक प्रभाव डाला था, तो वह घटना यह जघन्य हत्याकाण्ड ही था। कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता ‘जलियाँवाला बाग़ में बसन्त" इस नरसंहार की नृशंसता एवं कुरूपता को बड़े ही करुण और मार्मिक शब्दों में कुछ इस तरह बयान करती है:
“परिमल-हीन पराग दाग सा बना पड़ा है, / हा! यह प्यारा बाग खून से सना पड़ा है।
ओ, प्रिय ऋतुराज! किन्तु धीरे से आना, / यह है शोक-स्थान यहाँ मत शोर मचाना।
वायु चले, पर मंद चाल से उसे चलाना, / दुःख की आहें संग उड़ा कर मत ले जाना।
कोकिल गावें, किन्तु राग रोने का गावें, / भ्रमर करें गुंजार कष्ट की कथा सुनावें।
लाना संग में पुष्प, न हों वे अधिक सजीले, / तो सुगंध भी मंद, ओस से कुछ कुछ गीले।
किन्तु न तुम उपहार भाव आ कर दिखलाना, / स्मृति में पूजा हेतु यहाँ थोड़े बिखराना।
कोमल बालक मरे यहाँ गोली खा कर, / कलियाँ उनके लिये गिराना थोड़ी ला कर।
आशाओं से भरे हृदय भी छिन्न हुए हैं, / अपने प्रिय परिवार देश से भिन्न हुए हैं।
कुछ कलियाँ अधखिली यहाँ इसलिए चढ़ाना, / कर के उनकी याद अश्रु के ओस बहाना।
तड़प तड़प कर वृद्ध मरे हैं गोली खा कर, / शुष्क पुष्प कुछ वहाँ गिरा देना तुम जा कर।
यह सब करना, किन्तु यहाँ मत शोर मचाना, / यह है शोक-स्थान बहुत धीरे से आना।”
इंग्लैण्ड के प्रधानमन्त्री विन्स्टन चर्चिल ने इस गोलीकाण्ड को इन शब्दों में बयान किया है: "भारतीयों की ऐसी भीड़ जमा थी कि एक ही बुलेट तीन-चार शरीरों के पार हो रहा था. . . लोग पागलों की तरह यहाँ-वहाँ भागने लगे। जब मध्य में गोलियाँ चलाईं गईं, तो वे किनारों की ओर भाग रहे थे। फिर किनारों पर गोलियाँ चलाईं गईं। बहुत से लोग ज़मीन पर लेट गए। फिर ज़मीन की ओर गोलियाँ चलाईं गईं। ऐसा आठ से दस मिनट तक किया गया, तब तक जब तक कि अस्लाह ख़त्म नहीं हो गया. . . " उनके विवरण में कहीं न कहीं खेद तो है, मगर न उस समय, और न ही उसके बाद आज तक अंग्रेज़ी सरकार द्वारा इस हत्याकांड की पुरज़ोर भर्त्सना की गई थी। ब्रिटिश उच्चायुक्त डोमिनिक अस्किथ अमृतसर में जलियाँवाला बाग़ में पहुँचे और शहीदों को श्रद्धांजलि दी । उन्होंने इस कांड को शर्मनाक बताकर खेद भी प्रकट दिया।। इतिहास उन्हें इस बर्बरता के लिए कभी क्षमा नहीं कर सकता; और भारतीयों के लिए 13 अप्रैल 1919 का दिन काला दिन रहेगा। भारत शहीदों की क़ुर्बानी को हमेशा याद रखेगा, सदा उनका ऋणी रहेगा। ¡
लेखक के बारे में- हिन्दी और अंग्रेज़ी के जाने-माने लेखक, कवि, कथाकार एवं साहित्य-समालोचक हैं। वर्तमान में शिमला के राजकीय महाविद्यालय में अंग्रेज़ी के एसोशिएट प्रोफ़ेसर हैं और साहित्यिक पत्रिका "हाइफ़न" के सम्पादक हैं। सम्पर्क: #3, सिसिल क्वार्टर्ज़, चौड़ा मैदान, शिमला: 171004 हिमाचल प्रदेश। ई-मेल:
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