- डॉ. आशा पाण्डेय दिसम्बर महीने के शुरुआती दिनों की ये रात ठंड में काँप रही है। रात ढाई बजे ट्रेन से बाहर निकलते ही हवा का एक झोंका हड्डियों के भीतर तक उतर कर हमारा स्वागत किया। लपेटी हुई शाल को और कसते हुए मैं परिवार के साथ स्टेशन से बाहर निकलने के लिए सीढ़ियाँ उतर रही हूँ। ऑटो, जीप रिक्शेवाले हमारी ओर उम्मीद से देखते हुए आगे बढ़ते हैं, लेकिन ‘गोविंदपुर’ का नाम सुनते ही उदासीन होकर पीछे हो जाते हैं। इस ठंड में इतनी दूर शायद नहीं जाना चाहते।
पिछली पंक्ति में खड़े कुछ ऑटो ड्राइवर हमें आवाज दे रहे हैं, किंतु पति एक रिक्शेवान से बात करने लगे। वह चलने को तैयार है।
“बहुत दिनों से साइकिल रिक्शे पर नहीं बैठे हैं, चलो रिक्शे से ही चलते हैं ।”
“इतनी रात को! ठीक रहेगा ?” मेरे मन में शंका उठती है। पति सिर झटक कर मेरी शंका को निर्मूल सिद्ध कर देते हैं। इस बीच रिक्शेवान एक और रिक्शे को बुलाकर हमारे सामने खड़ा कर देता है।
“लालच बुरी बला है बिटिया, किसी काम की नहीं होती। जिसको लग गई, समझो उसको खा गई।”- रिक्शेवान रिक्शे पर सामान लादता जा रहा है, बोलता जा रहा है।
“किशोर बढ़ा आगे... बाबू जी, तुम बेबी के साथ उस रिक्शे पर बैठ जाओ, बिटिया तुम मुन्ना के साथ मेरे रिक्शे पर आ जाओ ।”
मुन्ना और बेबी! कितना आत्मीय नामकरण! मुझे भी अपनी बिटिया बना लिया। मन प्रेम का कितना भूखा होता है! इस आत्मीय संबोधन मात्र से मेरा हृदय अंदर तक भीग गया। कितने गहरे रिश्ते जोड़ लिए इस रिक्शेवान ने!
मेरे ऊपर इस रिश्ते की मिठास का नशा चढ़ना शुरू हो गया है,किंतु इसमें पूरी तरह डूबने के पहले ही मैं सम्भल जाती हूँ। अब तक के अनुभवों ने सिखा दिए हैं मुझे कि ये रिश्ते पल भर भी नहीं टिकते। बस, इनकी डोर पकड़ कर बेवकूफ बनाने के लिए गढ़े जाते हैं। क्या मेरे साथ ही इस रिक्शेवान को इतनी आत्मीयता हो गई ? नहीं, ये आत्मीयता नहीं। रोज मुझ जैसी तमाम सवारियाँ इसके लिए मुन्ना, बेबी, बिट्टन और बिटिया बनती होंगी। इन रिश्तों की गहराई से इसे कुछ लेना देना नहीं है, ये सवारियों को प्रभावित करने का तरीका मात्र है, बस।
मेरे मन मे एकदम से उमड़ आए मधुर भाव बिला गए अब। दिमाग में संदेह का कीड़ा घुसने लगा है। मैं अपना सामान गिनती हूँ.. एक बार, दो बार, तीन बार - जितने सामान लेकर चली थी, सब हैं। पर लग रहा है जैसे कुछ गायब हो गया है, कुछ छूट गया है। पति से कहती हूँ। वे भी गिनते हैं। सारे सूटकेस, बैग- सब है। मैं आश्वस्त होती हूँ। रात के तीन बज रहे हैं। रिक्शे पर बैठने के पूर्व मेरे पति ने दोनों रिक्शेवान को हिदायत दी कि वे साथ-साथ ही चलें।
“चिंता मत करो बाबू जी, हम साथ-साथ ही चलेंगे... अरे वो किशोर, आगे पीछे ही चलना रे। ठीक से बैठ जाओ बिटिया, डरो नहीं। रिक्शा चलाते-चलाते पूरी उमर निकल गई, गिराऊँगा नहीं। धीरे-धीरे ही चलूँगा।”
मन में आया कह दूँ - “क्यों डरूँगी ? रिक्शे से डर ! इसी रिक्शे से तो इस शहर का चप्पा-चप्पा घूमी हूँ। तुम्हारे इस रिक्शे पर बैठते ही तो मैं वर्षों पहले के इलाहाबाद में पहुँच गई हूँ। कहना ये भी चाह रही हूँ कि कुछ भी नहीं बदला है इलाहाबाद में। माँ की गोद-सा ठंडक देता है ये शहर।” किंतु रिक्शेवान से अधिक बात करना उचित नहीं लग रहा है। चुपचाप बैठी रह जाती हूँ।
“लगता है बहुत दिनों बाद अपने शहर में आई हो बिटिया?” रिक्शेवान पूछता है।
“हाँ, पाँच साल बाद।” मैं अनमने मन से जवाब देती हूँ।
“अब बताओ भला, तुम लोग अपने शहर में इतने दिन बाद आए हो और बाबूजी हैं कि किराए का मोल-भाव करने लगे... मेरा भी कुछ फर्ज बनता है बिटिया। में ज्यादा पैसे क्यों लूँगा ? जो समझना, सो दे देना... अब महँगाई की मार तो देख ही रही हो बिटिया।”
मैं मन ही मन मुस्कुराती हूँ। रिक्शेवान अधिक पैसा वसूलने की भूमिका बना रहा है। कितने चालाक होते हैं ये लोग ! अपनी बातों में उलझा कर रिश्ता जोड़ लेते हैं ! बस, सवारियाँ फँस जाती हैं। किराया तय नहीं करती। उसका फायदा उठाकर ये बाद में अधिक पैसा ऐठने की कोशिश करते हैं। बैठ तो हम लोग भी गए हैं रिक्शे पर। उतरने पर ये पता नहीं कितने पैसे माँगेगा और कितनी देर तक बहस करेगा।
रात का समय ! ठंड तेज पड़ रही है। नगरपालिका एवं स्वयंसेवी संस्थाओं के द्वारा रास्ते में जगह-जगह अलाव जलाए गए हैं। गरीब, मजदूर, रिक्शेवान अलाव को चारो ओर से घेर कर आग ताप रहे हैं।
मेरा रिक्शेवान भी अलाव के पास दो मिनट रुककर अपने हाथों को सेंक लेना चाहता है। उसके दोनों हाथों की हथेलियाँ तथा उँगलियाँ रिक्शे के हैंडिल को पकड़े –पकड़े अब तक ऐठ-सी गई हैं। रिक्शेवान की माने, तो उसे समझ में ही नहीं आ रहा है कि उसने रिक्शे की हैंडिल पकड़ी है या नहीं। ठंड के मारे सुन्न पड़ गए हैं उसके हाथ।
पति ने कहा , “पहले हमें पहुँचा दो यार, लौटते समय सेंक लेना हाथ।”
हम किसी प्रकार का खतरा मोल लेना नहीं चाहते। इन आग तापते लोगों के साथ मिलकर ये रिक्शेवान हमें नुकसान भी तो पहुँचा सकता है। इन लोगों का क्या भरोसा!
हाथ सेंकने से मना कर देने पर रिक्शेवान मन मसोसकर रह गया। रिक्शे की पैडिल पर उसके पैरों की गति अब कुछ तेज हो गई है। रिक्शा चलाते-चलाते उसने कान में लपेटे मफलर को और कस लिया तथा अपना बाँया हाथ कोट की जेब में डाल लिया।
कोट कई जगह से फट गई है। फटी जगह में दूसरे कपड़े का पैबंद लगाकर कोट को पहनने लायक बना लिया है। थोड़ी देर बाद उसने अपने बाँए हाथ को कोट की जेब से निकाल कर उससे रिक्शे का हैंडिल पकड़ लिया तथा दायें हाथ को कोट की जेब में डाल लिया। हर थोड़ी-थोड़ी देर में अब वह हाथ बदल-बदल कर कोट की जेब में डाल रहा है।
मैं उसे टोकती हूँ, “दोनों हाथ से हैंडल पकड़कर ठीक से चलाओ, देख नहीं रहे हो कितने गड्ढे हैं सड़क पर, रिक्शा कहीं उलट-पलट गया, तो आफत हो जाएगी।”
“कुछ नहीं होगा बिटिया, तुम डरो मत।”
“मैं डर नहीं रही हूँ, तुम दोनों हाथों से हैंडिल पकड़ कर ठीक से चलाओ रिक्शा। मुझे तुम्हारा स्टंट नहीं देखना है।” बिलकुल सपाट और तीखे शब्द हैं मेरे।
रिक्शेवान स्टंट का मतलब समझ पाया या नहीं, किंतु जेब से हाथ निकाल कर दोनों हाथों से हैंडिल संभाल लिया। मेरी चिंता कम हुई।
यूँ तो हम लोग गरम कपड़ों से लदे हैं। यहाँ तक कि हमारे हाथ-पैर की उँगलियाँ भी दस्तानों और मोजों से ढकी हुई हैं, किंतु ठंड है कि रास्ता बनाते हुए हमारी हड्डियों तक में घुसी आ रही है। ठंड से ध्यान हटाने के लिए मैं सड़क किनारे की दुकानों और मकानों को देखने लगती हूँ।
कुछ इमारतें किसी न किसी याद को ताजा कर रहीं हैं।
कम्पनीबाग से आगे बढ़ रहे हैं हम। बाई तरफ इलाहाबाद विश्वविद्यालय की इमारतें खड़ी हैं। गोल गुम्बद वाली ऊँची बिल्डिंग – यहीं तो हुई थी मेरी बी.ए. द्वितीय वर्ष की परीक्षा। अर्थशास्त्र का पेपर था। गुम्बद के ठीक नीचे मेरी सीट थी। जब मेरे सिर पर कुछ गीला-गीला गिरा, तो मैं चौंक गई। ऊपर देखने के लिए सिर उठा रही थी कि टेबल पर भी टप की आवाज करता हुआ कुछ टपक पड़ा। यह कबूतरों का कमाल था। मेरी उत्तरपुस्तिका सुरक्षित थी इसलिए मैंने भगवान को धन्यवाद दिया। पेपर समाप्त होने में मात्र पन्द्रह मिनट बचे थे। मैंने बेवश नजरों से कबूतरों को देखा और तेज रफ़्तार से लिखने में जुट गई। उत्तर पुस्तिका जमा कर बाहर निकली, तो हमारे कालेज का चपरासी शिवचरण दिखाई दिया। उसको मैंने सारी बातें बताकर अपना सिर दिखाया। मुस्कुराते हुए उसने बाहर रखे मटके से एक जग पानी लाया। तब मैंने सिर की गंदगी साफ की।
इस घटना की याद ने इतनी ठंड में भी एक स्फूर्ति-सी भर दी मेरे मन में। रिक्शा आगे बढ़ रहा है और मैं पीछे यादों में लौट रही हूँ।
कटरा की सब्जी मंडी पीछे छूट रही है। अब आगे लगभग दो किलोमीटर का रास्ता एकदम सूना है। दूसरा रिक्शा, जिस पर मेरे पति बैठे हैं, वह भी साथ ही साथ चल रहा है। जब पति का रिक्शा एकदम मेरे नजदीक हुआ , तो मैंने धीरे से कहा, “बहुत बड़ी भूल हुई। ऑटो रिक्शा या जीप से आना चाहिए था। साइकिल रिक्शे पर बैठने का शौक कहीं मँहगा न पड़ जाए ।”
मेरी चिंता को सुनकर रिक्शेवान ने कहा, “बिटिया, डरो मत। पहले हमें कुछ होगा तब तुम लोगों पर आँच आएगी। बस, भगवान का नाम लेती रहो।”
पति ने घड़ी देखकर कहा, “अब चार बज गए हैं, डरने की कोई बात नहीं है।”
थोड़ी देर बाद हम सुनसान रास्ते को पीछे छोड़ते हुए अपट्रान के सामने पहुँच गए। कुछ दूर चढ़ाई है। रिक्शेवान सीट से उतरकर रिक्शा खींचते हुए पैदल चलने लगा। मैं रिक्शे से उतरना चाहती हूँ, जिससे उसकी मेहनत कम हो जाए। पर रिक्शेवान मुझे उतरने नहीं दिया, बोला, “दो मिनट की तो बात है बिटिया, अधिक दूर तक चढ़ाई नहीं है। हम लोगों की तो आदत पड़ गई है रिक्शा खींचने की... चाहे पैडल मारकर खींचूँ, चाहे पैदल चल कर।”
बस, पाँच मिनट का रास्ता और।
घर आ गया। रिक्शेवान दोनों रिक्शे का मात्र दो सौ रुपये ही लिया। मुझे लग रहा है कि उचित किराए से भी कम लिया है शायद। मैं नाहक इसके बारे में अनाप-शनाप सोच रही थी। मन ही मन मुझे कुछ ग्लानि हुई, किंतु अधिक देर तक मैंने इस ग्लानि को अपने दिल पर लदने नहीं दिया। गुंजाइश भी नहीं है, क्योंकि घर का दरवाजा खुल गया है। हम एक दूसरे से गले लगे, खुश हुए और किराए की बात भूल गए।
कुछ देर बाद फिर से दरवाजा खटका। पति ने दरवाजा खोलकर देखा, तो सामने वही रिक्शेवान मेरा सूटकेस लिये खड़ा है—“बाबूजी ये लीजिए आपका बक्सा, सामान उतारते समय इसपर ध्यान ही नहीं गया... सीट के पीछे रख दिया था न... इंजीनियरिंग कॉलेज के सामने एक सवारी बैठाने लगा, तब मेरा ध्यान इस बक्से पर गया। सवारी को मनाकर मैं बक्सा देने आ गया।”
हम सब अवाक्! पति ने उसकी ईमानदारी की प्रशंसा करते हुए सूटकेस ले लिया। रिक्शेवान चला गया।
उस सूटकेस में कपड़े-लत्ते के अलावा कुछ पैसे भी रखे थे। रिक्शेवान के लिए ये बड़ी रकम थी। सूटकेस से कुछ ऊनी कपड़े उसे मिलते, जो इस सर्दी में उसके लिए बहुत उपयोगी होते; लेकिन बिना किसी लालच में पड़े, मिली हुई सवारी को भी छोड़कर यहाँ तक दौड़ा आया सूटकेस लौटाने !
घर में सब लोग रिक्शेवान की ईमानदारी पर दो-तीन मिनट बात करके फिर से हँसी-मजाक में लग गए। मैं भी सबके साथ बात कर रही हूँ, पर मेरा उत्साह अब समाप्त हो गया है। रास्ते भर मैं इस रिक्शेवान को शंकालु नजर से देखती रही। इसकी सीधी-सादी बातों में भी चालाकी खोजती रही। अब, जब वह सूटकेस लौटाकर चला गया, तो लग रहा है कि उसकी अपनत्व भरी बातों का प्रेम से जवाब दे देती। कह देती , “काका, हम पाँच मिनट रुके रहेंगे, तुम ठंड में अकड़ गए अपने हाथों को सेंक लो। अपट्रान की चढ़ाई पर उसके मना करने के बाद भी उतर जाती और कह देती कि अब तुम्हारी उमर नहीं रही सवारियों को बैठा कर चढ़ाई पर रिक्शा खींचने की। या फिर किराए के रूप में कुछ अधिक पैसा देकर कह देती कि फ़र्ज सिर्फ तुम्हारा ही नहीं है काका, मेरा भी है। इन पैसों को रख लो। यह किराया नहीं है, बेटी का प्रेम है।
बेटी का प्रेम !
रिक्शेवान के बार-बार बिटिया कहने पर भी जो नहीं उमड़ा!
प्रेम भरे शब्दों को जमा दे, इतनी ठंड तो नहीं है इस शहर में!
‘बेटी’ शब्द फाँस- सा अटक गया है गले में ।
अमरावती, महाराष्ट्र