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Aug 1, 2024

उदंती.com, अगस्त - 2024

 वर्ष- 17, अंक- 1

स्वतंत्रता की रक्षा करना केवल सैनिकों का काम नहीं है, बल्कि पूरे देश को मजबूत होना चाहिए।  - लाल बहादुर शास्त्री 

 इस अंक में

अनकहीः  अरे ओ आसमाँ वाले...  - डॉ. रत्ना वर्मा

आलेखः स्वतंत्रता के बाद आत्मनिर्भर होता भारत - प्रमोद भार्गव

दो  कविताएँः भारती वन्दना, आज प्रथम गाई पिक पंचम - सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’

कविताः विजयी के सदृश जियो रे - रामधारी सिंह 'दिनकर'

आलेखः आज़ादी की जंग में कूदी नारी-शक्ति - रमेशराज

साहित्यः सूरसागर में डूबते हुए - विनोद साव

कविताः शहीद - डॉ. सुषमा गुप्ता

चिंतनः उचित नहीं बच्चों के जीवन में अत्यधिक हस्तक्षेप - सीताराम गुप्ता 

खानपानः फ्रिज में गाजर को रसीला कैसे  रखें 

स्वास्थ्यः सिकल सेल रोग के सस्ते इलाज की उम्मीद 

कविताः चलती है हवा - सुरेश ऋतुपर्ण

प्रेरकः चोर बादशाह  - निशांत कविताः प्रेम और नमक - सांत्वना श्रीकान्त  

लघुकथाः पानी की जाति - विष्णु प्रभाकर

तीन लघुकथाएँः 1. नारे, 2. कलाकार, 3. लॉ और ऑर्डर - अनूप मणि त्रिपाठी

कहानीः फाँस – डॉ. आशा पाण्डेय

हास्य व्यंग्यः बत्तीसी पुराण -  प्रेम गुप्ता ‘मानी’   

शोधः प्लास्टिकोसिस की जद में पक्षियों का जीवन - अली खान          

किताबेंः समृद्ध अतीत के सिंहावलोकन का अवसर - पुरु शर्मा      

लघुकथाः झूले का दाम - भावना सक्सेना            

जीवन दर्शनः स्वर्ग का मॉल - विजय जोशी 

अनकहीः अरे ओ आसमाँ वाले...

 - डॉ.  रत्ना वर्मा

समझ नहीं आ रहा है कि इस बार देश को दो-दो मेडल देने वाली पहली एथलीट मनु भाकर के बारे में बात की शुरूआत करते हुए जश्न मनाया जाए या दिल्ली के कोचिंग सेंटर हादसे में काल के गाल में समा चुके उन तीन छात्रों की मौत पर आँसू बहाया जाए... या फिर केरल के वायनाड के चार गाँवों पर प्रकृति के रौद्र रुप को देखकर गमगीन हुआ जाए... वैसे देश में हो रहे विकास और युवा पीढ़ी के बढ़ते कदमों को देखकर खुशियाँ तो मनाई ही जानी चाहिए, वे हमारे देश का गर्व हैं, और हमें पूरा विश्वास है कि ओलंपिक के समाप्त होते होते हमें कई मेडल मिलेंगे।

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... पर देश में निरंतर हो रहे हादसों को नजरअंदाज करते हुए आगे बढ़ जाना तो बिल्कुल भी सही नहीं होगा। ऐसा क्यों है कि हम पहले किसी अनहोनी का इंतजार करते हैं फिर उसके बाद सचेत होते हैं। और बार बार मिल रही चेतावनी के बाद भी हम सबक नहीं लेते। 

बेसमेंट में अवैध रुप से संचालित कोचिंग में बारिश का पानी भर जाने से हुई तीन युवकों की मौत के बाद ऐसे अनेक कोचिंग सेंटर को नोटिस जारी किया गया, बहुतों को तुरंत बंद भी कर दिया गया। जाहिर है ये सब न जाने कितने बरसों से नियम-कानून को ताक पर रखकर संचालित किए जा रहे थे।  अब जाँच के लिए  कमेठी गठित होगी, हादसे के कारणों की जाच होगी,  जिम्मेदार लोगों को सजा देने के लिए कानूनी लड़ाइयाँ लड़ी जाएँगी, साथ ही ऐसे हादसों से बचने के उपाय और नीति में बदलाव की सिफारिश भी होगी। इन सबमें बरसों बरस निकल जाएँगे और लोग इसे फिर भूल जाएँगे, तब तक के लिए, जब तक कि फिर कोई हादसा नहीं हो जाता। 

सबसे दुखद स्थिति तब होती है, जब इस तरह से के हादसे में होने वाली मौत पर राजनीति होने लगती है। जबकि जिम्मेदार वे सभी हैं, जो ऐसी व्यवस्था को बनाते हैं, उन्हें लागू करते हैं। इन्तेहा तो तब होती है जब व्यवस्था को बनाने वाले ही नियम और कानून की धज्जियाँ उड़ाते हुए भ्रष्टाचार में लिप्त हो जाते हैं। 

बात निकली है तो सम्पूर्ण देश में चल रहे कोचिंग के व्यापार पर भी बात होग,  जो दिनबदिन बढ़ते ही चला जा रहा है, जो हमारी सम्पूर्ण शिक्षा व्यवस्था की गुणवत्ता को मुँह चिढ़ाते नजर आता है। आखिर इन कोचिंग संस्थानों में ऐसा क्या पढ़ाया जाता है, जो स्कूल और महाविद्य़ालयों में नहीं पढ़ाया जाता। आखिर हमारे शिक्षकों, हमारे पाठ्यक्रम और हमारे पढ़ाए जाने वाले शिक्षण- विधि में ऐसी क्या कमी है कि बच्चों को ट्यूशन और कोचिंग के लिए जाना पड़ता है, ताकि वे बेहतर कैरियर बना सकें। मैं अपने समय की शिक्षण- व्यवस्था की बात करूँ, तो प्रथम तो तब निजी स्कूल ही बहुत कम हुआ करते थे, और रही बात ट्यूशन की, तो तब ट्यूशन के लिए वही बच्वा जाता था, जो किसी विषय में कमजोर होता था, सच तो यही है कि तब ट्यूशन जाने वाली बात को लोग छिपा लिया करते थे ।

 परंतु अब तो सब कुछ उलट हो गया है। ट्यूशन जाना अब स्टेटस सिंबल हो गया है, जितने बड़े बोर्ड वाला कोचिंग सेंटर, उतनी महँगी वहाँ की फीस। जहाँ हर साल टॉप करने वाले बच्चों के चित्र और उनके रैंक लिखे बड़े - बड़े होर्डिंग चौराहों पर लगाए जाते हैं। वहाँ जाने वाला बच्चा और बच्चे से ज्यादा उनके माता पिता गर्व महसूस करते हैं। हमारी पूरी शिक्षण- व्यवस्था पर यह कितना बड़ा प्रश्न चिह्न है; लेकिन फिर भी इस विषय पर सब चुप्पी साधे हुए हैं।

... लेकिन अभी इस विषय पर बस इतना ही। आगे आप सब चिंतन- मनन कीजिए...

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अब आया जाए प्रकृति की विनाश लीला पर। इस बार वायनाड पर यह कहर बरपा है। पहली बार नहीं है कि पहाड़ों पर ऐसी आपदाएँ आई हों। पिछले कई बरसों से हम देखते आ रहे हैं। भारतीय अन्तरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने अपने  वैज्ञानिक अध्ययन के जरिए यह चेतावनी बहुत पहले ही दे दी थी।  पिछले साल हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड में हुई तबाही तो हम देख ही चुके हैं,  और अब केरल में 30 जुलाई को आए विनाश को देख ही रहे हैं। 

भारतीय अन्तरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) द्वारा गत वर्ष तैयार भूस्खलन की दृष्टि से देश के 147 जिलों के मानचित्र में उत्तराखण्ड को सर्वाधिक और उसके बाद दक्षिण में केरल को दूसरे नंबर पर संवेदनशील दर्शाया गया था। दरअसल उत्तराखण्ड और  हिमालय के साथ ही दक्षिण के सभी पहाड़ी इलाके भूस्खलन की जद में आते हैं। भूस्खलन का एक बहुत बड़ा कारण वनों का विनाश है। पेड़, पहाड़ों की मिट्टी को बाँध कर रखते हैं यदि हम पेड़ ही नहीं बचाएँगे, तो इन आपदाओं के लिए तैयार रहना होगा। अगर समय रहते अब भी हमने अपने वैज्ञानिकों, पर्यावारणविदों और विशेषज्ञों की चेतावनी को अनदेखा किया, तो ऐसे हादसों के लिए हमें तैयार रहना होगा। 

 वैज्ञानिक यह मानते हैं कि कुछ भूस्खलन भले ही प्राकृतिक हैं; परंतु अब मानवीय कारणों से इस तरह के हादसे बढ़ते ही चले जा रहे हैं। अतः अब यह जरूरी है कि हम प्रकृति के व्यवहार को समझते हुए उसके साथ जीना सीखें; क्योंकि यदि हमने प्रकृति से छेड़छाड़ बंद नहीं की, तो दुनिया का विनाश निश्चित है। 

... कुल मिलाकर एक तरफ खुशियाँ हैं, तो दूसरी तरफ गम। पर यह भी सच है कि दोनों ही हमारे हाथ में है । अतः खुशियों का स्वागत कीजिए और गम कभी न आए इसके लिए अपने आप को तैयार कीजिए।

 साहिर लुधियानवी के शब्दों में- 

अरे ओ आसमाँ वाले बता इस में बुरा क्या है, 

ख़ुशी के चार झोंके गर इधर से भी गुज़र जाएँ।


आलेखः स्वतंत्रता के बाद आत्मनिर्भर होता भारत

  - प्रमोद भार्गव

    15 अगस्त 1947 की आधी रात को खंडित स्वतंत्रता स्वीकारने के बाद बड़ा सवाल आर्थिक विकास और स्वावलंबन का था। स्वावलंबन ही वह आधार है, जो नागरिक और उसके पारिवारिक सदस्यों की आजीविका और रोजागार के संसाधनों को उपलब्ध कराने का काम आसान करता है। यह इसलिए जरूरी था; क्योंकि ब्रिटिश हुक्मरानों ने देशी सामंतों की मदद से न केवल देश की स्वतंत्रता हथियाई, बल्कि जो भारतीय समाज स्वावलंबी रहते हुए खेती और कुटीर उद्योग से अपना और अपने परिवार के साथ देश का भरण-पोषण सम्मानजनक ढंग से कर रहा था, उस पर आघात किए और देश में यांत्रिकीकरण की बुनियाद रखी। इसका परिणाम यह निकला कि जिस देश को 1823 तक एक गज भी सूत विदेश से मँगाने की जरूरत नहीं पड़ती थी, उसे 1828 में करीब 80 लाख रुपये के कपड़े के अलावा 35,22,640 रुपये  का सूत भी ब्रिटेन से आयात करना पड़ा। इसके बाद भारतीय वस्त्र उद्योग को चौपट करने के नजरिए से फिरंगियों की क्रूरता हदें पार करती चली गईं।  उन्होंने मलमल बुनने वाले करीब दो लाख जुलाहों के दाहिने हाथ के अँगूठे काट दिए, जिससे वे हथकरघे नहीं चला सकें। ब्रिटेन के औद्योगिक विकास की बुनियाद भारत में किए कपड़े के व्यापार और सामंतों से लूटे धन पर ही रखी गई। आजादी के बाद देश स्वावलंबन की ओर तेजी से बढ़ रहा था, लेकिन 1991 में भूमंडलीय पैरोकारों के दबाव में आर्थिक उदारवाद के लिए सरंचनात्मक समायोजन के बहाने, जिस बेल आउट डील पर हस्ताक्षर किए, उससे देश को एक बार फिर आर्थिक गुलामी भेागने के लिए विवष कर दिया। नतीजतन देश फिर औपनिवेशिक ताकतों के शिंकजें में उलझकर परावलंबन की ओर बढ़ रहा है।

  भारत का विकास सिंधु घाटी की सभ्यता से माना जाता है। हड़प्पा और मोहन-जोदड़ों में जिस तरह के विकसित नगरों की शृंखला देखने में आई है, वह आश्चर्यचकित करती है। वहाँ सिले वस्त्रों में लगाए जाने वाले बटनों से लेकर वर्तमान किस्म के शौचालय भी हैं। ऐसा तभी संभव था, जब भारत आधुनिक सोच वाला बड़ी अर्थव्यवस्था का देश रहा हो। प्राचीन काल से 17वीं सदी तक भारत वास्तव में बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश रहा है। इस कारण प्रचुर मात्रा में रोजगार उपलब्ध थे। कृषि, वस्त्र, आभूषण, धातु, मिट्टी के बर्तन, चीनी तेल और इत्र जैसे उद्योगों में उत्पादन चरम पर था। ढाका की मलमल और बनारस, चंदेरी तथा महेश्वर की सिल्क तो पूरी दुनिया में मशहूर थीं। लोहा, जहाजरानी और कागज के निर्माण व उत्पादन में करोड़ों लोग लगे थे। नतीजतन 18वीं शताब्दी तक भारत वैश्विक अर्थव्यवस्था में अव्वल बना रहा। इस समय तक हमारी अर्थव्यवस्था में 25 फीसदी तक भागीदारी रही।

   इसी दौरान फिरंगियों ने भारत में पैर जमाने तक लघु और कुटीर उद्योगों में आबादी के बड़े हिस्से को रोजगार मिला हुआ था। अंग्रेजों ने भेदभावपूर्ण नीति अपनाकर जब भारतीय उद्योग-धंधों को चौपट कर दिया, तो बड़ी संख्या में लोग रोजगार- विहीन हो गए। फलस्वरूप भारत औद्योगिक राष्ट्र से गरीब राष्ट्र बन गया और बेरोजगारी व परावलंबन बड़ी समस्या बन गए। आजादी के बाद हम तेजी से स्वावलंबन की दिशा में बढ़ रहे थे। 1990 तक जो जहाँ था, लगभग संतुष्ट था। लघु व कुटीर उद्योग उत्पादन की प्रक्रिया से जुड़े रहकर अनेक जरूरतों की पूर्ति अपने स्थानीय संसाधनों से कर रहे थे। सरकारी अमले के वेतन भी एक मध्यमवर्गीय किसान और व्यापारी की मासिक आय के समतुल्य थे।  लेकिन वैश्विक ताकतों को यह स्थिति रास नहीं आ रही थी, लिहाजा उन्होंने विश्व-बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और संयुक्त राष्ट्र संघ के माध्यम से भारत पर दबाव डालना शुरू कर दिया। नतीजतन भारत संकटों से घिरने लगा। यही वह समय था, जब खाड़ी युद्ध के चलते भारत के पास विदेशी मुद्रा का संकट गहरा गया। इस कारण एक ओर तो पेट्रोल की कीमतों में उछाल आया, वहीं दूसरी तरफ खाड़ी में फँसे भारतीयों को निकालने में बहुत धन खर्च हुआ। भारत के पास कर्जों के भुगतान के लिए भी धन की कमी आ गई। इस समय दुर्योग से 40 सांसदों के बूते चंद्रशेखर प्रधानमंत्री थे। उन्होंने जैसे-तैसे सोना गिरवी रखके अपना कार्यकाल तो निपटा लिया, लेकिन पीवी नरसिंह की नई सरकार के लिए भारी वित्तीय संकट खड़ा हो गया। इसी सरकार में बेहद चौंकाने वाले ढंग से भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर मनमोहन सिंह को वित्तमंत्री के पद पर तैनात कर दिया गया। 

सिंह के बैठते ही आर्थिक नीतियों में बदलाव की आँधी चल पड़ी। विश्व बैंक खुली अर्थनीति और खुले बाजार का पैरोकार रहा है, सो मनमोहन ने इन्हीं नीतियों की साधना के लिए मंत्र फूँक दिया। चूँकि सिंह विश्वबैंक के दबाव के चलते वित्तमंत्री बने थे, इसलिए उनकी निष्ठा भारतीय गरीब से कहीं ज्यादा विश्व बैंक के प्रति थीं। नरसिंह राव की सरकार बनते ही 24 जुलाई 1991 को आर्थिक उदारवादी नीतियों के अनुबंध पर हस्ताक्षर कर दिए गए। यह एक तरह से देश को बेच देने का सौदा था। नई गुलामी का समझौता था। इस समझौते ने स्वावलंबन, स्वदेशी और रोजगार सृजन के संगठित क्षेत्र में नए अवसरों पर विराम लगा दिया। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के नए खतरे को भाँपते हुए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को भी विरोध के स्वर मुखर करने पड़े, जबकि संघ अब तक सामाजिक और आर्थिक मुद्दों से दूर ही रहता था। इस नई आर्थिक गुलामी से निजात के लिए संघ को नए आनुशंगिक संगठन स्वदेशी जगरण मंच की भी स्थापना करनी पड़ी। वहीं दूसरी तरफ पूँजी के एकाधिकार के परंपरागत विरोधी रहे समाजवादी और गांधीवादी भी ‘आजादी बचाओ अंदोलन’ के मार्फत इस आंदोलन के हिस्सा बने। लेकिन यह समझौता अंगद का ऐसा पांव साबित हुआ, जिसे अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी की सरकारें भी नहीं डिगा पाईं। गोया स्वावलंबन और बेरोजगार के संकट भी विस्तृत होते गए।

   इन समस्याओं से छुटकारे के लिए नरेंद्र मोदी ने इन्हीं उदारवादी नीतियों के परिप्रेक्ष्य में ही डिजिटल माध्यमों से रोजगार के उपाय खोजे। स्टार्टअप और स्टैंडअप जैसी डिजिटल योजनाएँ जमीन पर उतारीं।, जिससे युवा उद्यमिता प्रोत्साहित हो और कुछ नवोन्मेष भी दिखे। देश ने इन 76 सालों में बहुत प्रगति की है। धरती से लेकर अंतरिक्ष तक भारत की छाप बनी है। संरचनात्मक विकास का जाल फैला है। इसके वृहदाकार प्रमाण धरती पर खड़े हुए हैं। बीते चार सालों में मिसाइलों के परीक्षण में हमने सात हजार किमी तक की मारक क्षमता हासिल कर ली है। नतीजतन इसरो अब विदेशी मुद्रा कमाने का भी जारिया बन गया है। चंद्रयान-3 चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव की दिशा में झंडा फहराने की दृष्टि से छोड़ दिया है। यह इसी माह 23 या 24 अगस्त को चंद्रमा की धरती छू लेगा। अगले कुछ समय में हम मंगल पर मानव उतारने की तैयारी में हैं। अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में ये ऐसी उपलब्धियाँ हैं, जो हमें अमेरिका, रूस और चीन के समतुल्य खड़ा करती हैं। इन उपलब्धियों की पृष्ठभूमि में खास बात यह भी रही है कि ये सभी उपलब्धियाँ हमने स्वदेशी तकनीक से प्राप्त की हैं। फिर भी आबादी का एक बड़ा हिस्सा समृद्धि से अछूता है। u

सम्पर्कः शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी म.प्र., मो. 09425488224, 09981061100

दो कविताएँः

  -  सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

1. भारती वन्दना 










भारति, जय, विजय करे
कनक-शस्य-कमल धरे!

लंका पदतल-शतदल
गर्जितोर्मि सागर-जल
धोता शुचि चरण-युगल
स्तव कर बहु अर्थ भरे!

तरु-तण वन-लता-वसन
अंचल में खचित सुमन
गंगा ज्योतिर्जल-कण
धवल-धार हार लगे!

मुकुट शुभ्र हिम-तुषार
प्राण प्रणव ओंकार
ध्वनित दिशाएँ उदार
शतमुख-शतरव-मुखरे!

2. आज प्रथम गाई पिक पंचम








आज प्रथम गाई पिक पंचम।
गूँजा है मरु विपिन मनोरम।

मस्त प्रवाह, कुसुम तरु फूले,
बौर-बौर पर भौंरे झूले,
पात-गात के प्रमुदित झूले,
छाई सुरभि चतुर्दिक उत्तम।

आँखों से बरसे ज्योतिःकण,
परसे उन्मन-उन्मन उपवन,
खुला धरा का पराकृष्ट तन,
फूटा ज्ञान गीतमय सत्तम।

प्रथम वर्ष की पांख खुली है,
शाख-शाख किसलयों तुली है,
एक और माधुरी घुली है,
गीत-गन्ध-रस वर्णों अनुपम।

कविताः विजयी के सदृश जियो रे











  -  रामधारी सिंह 'दिनकर'

वैराग्य छोड़ बाँहों की विभा सँभालो
चट्टानों की छाती से दूध निकालो
है रुकी जहाँ भी धार शिलाएँ तोड़ो
पीयूष चन्द्रमाओं का पकड़ निचोड़ो

चढ़ तुंग शैल शिखरों पर सोम पियो रे
योगियों नहीं, विजयी के सदृश जियो रे!

जब कुपित काल धीरता त्याग जलता है
चिनगी बन फूलों का पराग जलता है
सौन्दर्यबोध बन नई आग जलता है
ऊँचा उठकर कामार्त्त राग जलता है

अम्बर पर अपनी विभा प्रबुद्ध करो रे
गरजे कृशानु तब कंचन शुद्ध करो रे!


जिनकी बाँहें बलमयी ललाट अरुण है
भामिनी वही तरुणी नर वही तरुण है
है वही प्रेम जिसकी तरंग उच्छल है
वारुणी धार में मिश्रित जहाँ गरल है

उद्दाम प्रीति बलिदान बीज बोती है
तलवार प्रेम से और तेज होती है!

छोड़ो मत अपनी आन, सीस कट जाए
मत झुको अनय पर भले व्योम फट जाए
दो बार नहीं यमराज कण्ठ धरता है
मरता है जो एक ही बार मरता है

तुम स्वयं मृत्यु के मुख पर चरण धरो रे
जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे!

स्वातंत्र्य जाति की लगन व्यक्ति की धुन है
बाहरी वस्तु यह नहीं भीतरी गुण है

वीरत्व छोड़ पर का मत चरण गहो रे
जो पड़े आन खुद ही सब आग सहो रे!

जब कभी अहम पर नियति चोट देती है
कुछ चीज़ अहम से बड़ी जन्म लेती है
नर पर जब भी भीषण विपत्ति आती है
वह उसे और दुर्धर्ष बना जाती है

चोटें खाकर बिफरो, कुछ अधिक तनो रे
धधको स्फुलिंग में बढ़ अंगार बनो रे!

उद्देश्य जन्म का नहीं कीर्ति या धन है
सुख नहीं धर्म भी नहीं, न तो दर्शन है
विज्ञान ज्ञान बल नहीं, न तो चिंतन है
जीवन का अंतिम ध्येय स्वयं जीवन है

सबसे स्वतंत्र रस जो भी अनघ पिएगा
पूरा जीवन केवल वह वीर जिएगा!


आलेखः आज़ादी की जंग में कूदी नारी-शक्ति

झलकारी बाई
  - रमेशराज

अंग्रेजी शासन से मुक्त होने के लिए, दासता की बेडि़यों को तोड़ने में केवल राष्ट्रभक्त क्रान्तिवीरों ने ही अपने प्राणों की आहुति नहीं दी, बल्कि गुलाम भारत में ऐसी अनेक वीरांगनाएँ भी जन्मीं, जिनके मन को क्रान्ति की ज्वाला ने तप्त किया। जरूरत पड़ने पर सौन्दर्य की देवी नारियों ने भी रणचण्डी का रूप धारण किया। अंग्रेजों के छक्के छुड़ाने, उन्हें लोहे के चने चबवाने में विशेषकर दो वीरांगनाओं रानी लक्ष्मीबाई और बेगम हजरत महल के नाम से तो सब परिचित हैं। लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि अंग्रेज अफसरों के यहाँ काम करने वाली लाजो के द्वारा ही मंगल पांडे तक चर्बी के कारतूसों की जानकारी पहुँची थी। मुगल सम्राट बहादुर शाह की बेगम जीनतमहल ने दिल्ली और उसके आसपास के क्षेत्रों में अंग्रेजों के खिलाफ जंग लड़ने के लिये अनेक योद्धाओं को संगठित किया था। चिनहट की लड़ाई में शहीद हुए पति का प्रतिशोध लेने वाली वीरांगना ऊदा देवी ने पीपल के पेड़ की घनी शाखों में छुपकर अपने तीरों से 32 अंग्रेज सैनिकों को मार गिराया और बाद में वीरगति को प्राप्त हुई।

अवन्ती बाई

तुलसीपुर रियासत की रानी राजेश्वरी ने होम ग्राण्ट के सैनिक दस्ते को जमकर टक्कर दी। अवध की बेगम आलिया ने अपनी लड़ाकू महिला फौज के साथ एक नहीं कई बार ब्रिटिश सैनिकों को अवध से बाहर खदेड़ा। ठकुराइन सन्नाथ कोइर और मनियापुर की सोगरा बीबी ने विद्रोही नेता नाजिम और मेंहदी हसन को जांबाज सैनिक, तोपें और धन देकर क्रान्तिकारियों की सहायता और हौसला अफजाई की।

झाँसी की रानी के ‘दुर्गा-दल’ की कुशल नेतृत्व देने वाली  झलकारी बाई झाँसी के किले से अदम्य साहस के साथ लड़ी। मध्य प्रदेश के रामगढ़ की रानी अवन्तीबाई ने अंग्रेजों से जमकर युद्ध किया और घिरने पर स्वयं को खत्म कर लिया।

मध्य प्रदेश के जैतपुर और तेजपुर की रानियों ने दतिया के क्रान्तिकारियों के साथ अंग्रेजी फौज पर हमला किया।

जीनत महल
मुजफ्फरपुर की महावीरी देवी ने 22 महिलाओं के साथ अंग्रेजों को टक्कर दी। अनूपशहर की चौहान रानी ने घोड़े पर सवार हो, तलवार लेकर अनेक ब्रिटिश सैनिकों को मौत के घाट उतारते हुए यूनियन जैक को उतारकर थाने पर राष्ट्रीय ध्वज फहरा दिया।

स्वामी श्रद्धानंद की पुत्री वेदकुमारी, आज्ञावती और सत्यवती के स्वाधीनता संघर्ष को भी भुलाया नहीं जा सकता है। कोल आन्दोलन, टाना आन्दोलन में आदिवासी जनजातियों की महिलाओं ने फरसा-बलुआ से अंग्रेजों के सर कलम किए।

चटगाँव विद्रोह की क्रान्तिकारी महिला प्रीतिलता वाडेयर ने एक यूरोपीय क्लब पर हमला किया और गिरफ्तार होने के डर से आत्महत्या कर ली। 1931 में स्कूल की दो छात्रा शांति घोष और सुनीता चौधरी ने जिला कलेक्टर को गोली मार दी। बीना दास ने कलकत्ता विश्व विद्यालय के दीक्षांत समारोह में गवर्नर को गोली मारकर ‘हिन्दुस्तान आजाद होकर रहेगा’, यह संदेश पूरे देश को दिया। बंगाल की ही सुहासिनी अली और रेणुसेन की क्रान्तिकारी गतिविधियों को देखकर अंग्रेज मन ही मन भयभीत हुए।

अजीजन बाई
दुर्गाभाभी के नाम से प्रसिद्ध वीरांगना ने हर प्रकार क्रान्तिकारियों का सहयोग तो किया ही, बम्बई के गवर्नर हेली को मारने के लिये गोली भी चलाई, जिसमें हेली के स्थान पर टेलर नामक  एक अंग्रेज अफसर घायल हो गया। क्रान्तिकारी आन्दोलन में सुशीला देवी की भूमिका भी; इसलिए अविस्मरणीय है; क्योंकि इन्होंने काकोरी कांड के कैद क्रान्तिकारियों के मुकदमे की पैरवी के लिए 10 तोला सोना तो दिया ही, ‘मेवाड़पति’ नामक नाटक खेलकर क्रान्तिकारियों की सहायतार्थ धन इकट्ठा किया। तिलक के गरमदल में शामिल वीरांगना हसरत मोहनी की त्याग गाथा को भी कैसे भुलाया जा सकता है, जिन्होंने आजादी की खातिर जेल में चक्की पीसी।
मस्तानी बाई

सुभाष चन्द्रबोस की आजाद हिन्द फौज की रेजिमेंट की कमाण्डिग ऑफीसर कैप्टन लक्ष्मी सहगल की आजादी की लड़ाई जितनी गौरवशाली है, भारतीय मूल की फ्रांसीसी नागरिक मैडम भीकाजी कामा को भी कैसे भुलाया जा सकता है जिन्होंने ब्रिटिश शासन को मानवता पर कलंक बताते हुए अन्तरराष्ट्रीय सोशलिस्ट कांग्रेस कान्फ्रेंस में भारतीय ध्वज फहराया। कलकत्ता विश्व विद्यालय के दीक्षांत समारोह में वायसराय लार्ड कर्जन के अपमानजनक शब्दों का खुले मुखर होकर प्रतिकार करने वाली भगिनी निवेदिता की निर्भीकता भी वन्दनयोग्य है।

 भीकाजी कामा
इन वीरांगनाओं के अतिरिक्त भी ऐसी अनेक वीरांगनाएँ इस माटी ने पैदा की हैं जिनमें अदम्य साहस, अनन्य राष्ट्रप्रेम हिलोरें मारता था। वीरांगनाओं के इस गौरवमय योगदान और बलिदान की गाथा में कई ऐसी वीरांगानाओं का नाम भी इतिहास के पन्नों में दर्ज है जो पेशे से वेश्याएँ अवश्य थीं; लेकिन जब देश पर मर-मिटने का समय आया तो वे भी किसी से पीछे नहीं रहीं। लखनऊ की तवायफ हैदरीबाई ऐसी ही एक वीरांगना थी, जो रहीमी दल की सैनिक बनकर क्रान्तिकारियों के खिलाफ बनने वाली योजनाओं की जानकारी अंग्रेजों से घुलमिल कर जुटाती और क्रान्तिकारियों तक पहुँचाती थी। इसी पेशे से जुड़ी कानपुर की एक और क्रान्ति-नायिका अजीजन बाई ने तो क्रान्तिकारियों से प्रेरणा पाकर 400 वेश्याओं की एक ऐसी टोली बनाई थी, जो मर्दाने वेश में रहती थी और क्रांतिकारियों की मदद करती थी। 125 अंग्रेज महिलाओं और उनके बच्चों की रखवाली का कार्य अजीजनबाई की टोली के ही जिम्मे था। इसी कारण इस टोली को आसानी से अंग्रेजों की योजनाओं की गुप्त सूचनाएँ प्राप्त हो जातीं, जिन्हें वे क्रांतिकारियों तक पहुँचा देतीं। बिठूर के संग्राम में पराजित होने के बाद जब नाना साहब और तात्याटोपे पलायन कर गए, तो अजीजन बाई को गिरफ्तार कर जब अंग्रेज अफसर हैवलाक के समक्ष प्रस्तुत किया, तो उसने मृत्युदंड का आदेश दे दिया । इस प्रकार यह वीरांगना भी वीरगति को प्राप्त हुई। ठीक इसी तरह का कार्य नाना साहब की मुँहबोली बहिन तवायफ मैनावती और मस्तानी बाई करती थीं। इन दोनों को भी षड्यंत्र के आरोप में अंग्रेजों ने आग के हवाले कर दिया। u

सम्पर्कः 15/109 ईसा नगर थाना सासनी गेट अलीगढ़, मोबा- 817145588

साहित्यः सूरसागर में डूबते हुए

  - विनोद साव

भक्तिकालीन कवियों में कबीरदास और तुलसीदास को पढ़ने के अवसर पर्याप्त मिले पर दो प्रमुख कवि सूरदास और मीराबाई रह गए थे। इनमें मीरा को छुटपुट पढ़ पाया था; पर सूरदास के मामले में तो अध्ययन लगभग शून्य ही रहा। जबकि सूरदास के ईष्ट कृष्ण और राम दोनों, मिथकों के सर्वप्रिय महानायक रहे। कभी मथुरा वृन्दावन की यात्रा के बाद मैंने यात्रा-वृत्तांत लिखा था ‘कृष्ण पक्ष के श्याम रंग’ उसे प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका ‘पहल’ ने छापा था। यात्रा तो अयोध्या की भी हुई थी बाबरी मस्जिद कांड के तुरंत बाद, पर वहाँ से आकर व्यंग्य रचना ही बनी थी ‘तुझको रक्खे राम तुझको अल्लाह रक्खे।’ बात वैसे ही नहीं जमी जैसे सूरदास की रामभक्ति लेखन पर नहीं जमी और तुलसीदास की कृष्ण भक्ति पर नहीं जमी थी। सूरदास के मुख्य आराध्य कृष्ण रहे जिन्हें उन्होंने अपनी भक्ति का आलम्बन बनाया था। ईश्वर के कई अवतारों का स्मरण करते हुए उन्होंने अपनी पदावलियाँ उन्हें समर्पित की हैं पर कृष्णलीला सम्बन्धी पदों में उनकी रचनाशीलता खूब पल्लवित हुई है और उन्हीं में कवि कल्पना उत्कृष्ट काव्य की सृष्टि में सफल हुई है।  

यह देखकर आश्चर्य हुआ कि सूरसागर में रामकथा पर भी सूरदास ने बड़े विस्तार से लिखा है। राम जन्म से लेकर रावण के अंत तक और अयोध्या प्रवेश तक की सारी कथा है। बड़े कवि कितने व्यापक होते थे। इस कृति में सूरदास ने जैनियों के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव और गौतम बुद्ध को भी सम्मिलित किया है। उन पर भी अपनी पदावलियाँ समर्पित की हैं। ऋषभदेव जब श्रावक (जैन) होने गए, तब उन्होंने अपने पुत्र को राज्य सौंपा था जो ‘जड़ भरत’ कहलाए। सूर ने कृष्ण की सुन्दरता का चरम प्रस्तुत करते हुए उनकी राम से भी तुलना की है- ‘कृष्ण कमल लोचन... रामचन्द्र राजीव नैन बर (कमल-नयन कृष्ण तुम्हारी ऑंखें रामजी के राजीव लोचन के समान हैं)। पदसंख्या-९८१ राग भैरव।

उपन्यासकारों में अमृतलाल नागर के वृत्तान्त मुझे रुचिकर लगा करते थे। विशेषकर मिथक, इतिहास या आधुनिक सन्दर्भों में भी उनके प्रख्यात कथा लेखन को लेकर। उन्होंने तुलसीदास और सूरदास दोनों पर प्रामाणिक ग्रंथ लेखन किया है। तुलसी के जीवन पर प्रामाणिक उनका उपन्यास ‘मानस का हंस’ तो उनकी एक ‘माइलस्टोन’ कृति रही जो एम.ए.(हिंदी) के लिए महाविद्यालयों में पढ़ाई जाती थी। इस हिसाब से उनका सूरदास पर लिखा ‘खंजन नयन’ भले ही कमतर माना गया हो, पर वह भी उल्लेखनीय कृति रही और सूरदास के जीवन पर एक आवश्यक प्रामाणिक कथा भी बनी। खंजन का हिंदी अर्थ है- काले-मटमैले रंग की एक चिड़िया जो बहुत चंचल होती है। खंजन नयन यानी चंचल आँखें। नागर जी के उपन्यास में या अन्यत्र कहीं ऐसा कुछ पढ़ा है कि बालक सूर तेरह बरस की उम्र में चेचक से ग्रस्त हुए तब उनकी आँखों पर चेचक का प्रभाव पड़ा था। द्विवेदी युग के महत्त्वपूर्ण समालोचक बाबू श्यामसुन्दर दास कहते भी हैं कि "सूर वास्तव में जन्मांध नहीं थे, क्योंकि शृंगार तथा रंग-रुपादि का जो वर्णन उन्होंने किया है, वैसा कोई जन्मान्ध नहीं कर सकता।" प्रेमचंद के उपन्यास ‘रंगभूमि’ के सूत्रधार एक नेत्रहीन व्यक्ति है, जिसे सूरदास कहा जाता है। यह क्रान्तिकारी सूरदास उपन्यास में कारखाने के लिए बनने वाले गोदाम में पशुओं की चारागाह युक्त जमीन के छिन जाने पर छिड़े आन्दोलन में आगे आकर नेत्रवानों में अलख जगाता है।

पिछली बार मुझे सूरदास की मुख्य कृति ‘सूरसागर सटीक’ पढ़ने को मिली। इसके दो भाग हैं। दोनों भागों में एक एक हजार के लगभग पदावलियाँ हैं। लोक भाषाओँ की व्याख्या बड़ी कठिन होती है। इनके कई अर्थ निकलते हैं। विशेषकर यह जटिलता कबीर और मीरा में और अधिक दिखाई देती है.. और कुछ सूरदास में भी। इस मायने में तुलसी बाजी मार ले गए हैं। उनकी अवधी बोली अपनी सरलता के कारण हिंदी क्षेत्रों में सर्वाधिक सुगम हुई और इसलिए जन में सबसे अधिक ग्राह्य एवं प्रिय भी हो गई। तुलसी के रामचरित मानस का हिंदी में भावानुवाद भी बड़ा सरल है और बिलकुल सामान्य भाषा में है जबकि ‘सूरसागर’ में ब्रज बोली से हिन्दी भाषा में अनुवाद अपने पूरे सामर्थ्य और वैभव के साथ उपस्थित हुई है। इनका संपादन तथा अनुवाद करने वाले हरदेव बाहरी और राजेंद्र कुमार ने इस ग्रंथ का उत्कृष्ट प्रवाहमय अनुवाद किया है। यह भाषा संगीतमयी है सूर की पदावलियों की तरह। वैसे भी सूर की रचनाओं को क्लासिकल संगीत के लिए बड़ा मुफ़ीद माना गया है। सूर के पिता भी प्रसिद्ध गायक थे। फिर ग्रंथ के केन्द्रीय पात्र कृष्ण हैं जिन्हें अवतारों में सर्वाधिक कलायुक्त माना गया है। जिनके पास बँसुरी वादन और नृत्य- कौशल भी है और इसलिए वे रस, माधुर्य से भरे संगीतमय महाचारित्र हैं। उनके इसी रस और माधुर्य भरे व्यक्तित्व ने सूर को आसक्त किया है। यह पूरी रचना भक्ति और आसक्ति के बीच डोलती, फिरती और घूमती महाकथा है। यहाँ सूरसागर के दर्शन, भक्तिपक्ष, भावप्रसार, अभियंजना कौशल, पदशैली और भाषा इन सबका विवेचन रोचक ढंग से किया गया है। प्रत्येक पदावली में उनका संगीत राग भी दिया गया है यथा: राग भैरव, राग सारंग, राग बिलावल, राग केदारौ या राग मारू जैसे सभी रागों के इनमें पद हैं। सूरदास की रचनाओं में तुलसी की तरह संस्कृत में लिखे मंगलाचरण दिखाई नहीं देते। आरंभ में एक मंगलाचरण है पर वह ब्रज बोली में ही है।

सूरदास से सम्बंधित ‘गोकुलनाथ’ की वार्ता से ज्ञात होता है कि समकालीन सम्राट अकबर ने सूरदास से भेंट की थी और उनके पदों का संकलन कराया था। जिस समय संवत सोलह सौ एकतीसा में तुलसीदास ने रामचरित मानस लिखना आरंभ किया था ठीक उसी समय जयपुर के पोथीखाना में सूरसागर की प्रति उपलब्ध हो चुकी थी। मतलब सूर अपनी कृति तुलसी से पहले लिख गए थे। वे दीर्घायु भी रहे और 105 वर्ष की उम्र तक जिए। 19वीं सदी में आगरा मथुरा और दिल्ली से सूरसागर मुद्रित हुई। ग्रंथ के बाएँ पन्ने पर ब्रज में पद रचनाएँ हैं और दाएँ पन्ने पर उसकी टीकाएँ हैं। उनकी श्रद्धा का आवेग ‘राग बिलावल’ से बद्ध पहले ही मंगलाचरण में यों उजागर हुआ है ‘सर्वेश हरि के चरण-कमलों की मैं वंदना करता हूँ जिसकी कृपा से लंगड़ा पहाड़ को पार कर जाता है, अँधे को सब कुछ दिखाई पड़ने लगता है, बहरा आदमी सुनने लग जाता है। गूँगा पुनः बोलने लग जाता है, कंगाल भी छत्रधारी राजा हो जाता है।’ सूरदास कहते हैं कि “मैं ऐसे दयामय स्वामी के चरणों की बारम्बार वंदना करता हूँ।” राग बिलावल से ही संगीत बद्ध उनका एक भक्ति पद चिरपरिचित पद है:

“हरि हरि हरि हरि सुमिरन करौ

हरि चरनार बिन्द उर धरौ।” (भाग-1 पृ-157)

ग्रंथ में यह पदावलि पूरी ब्रज भाषा में है पर मंदिरों में भजन कीर्तन में इसे जनप्रिय बनाने के लिए इसका सरल हिन्दीकरण किया गया है। क्लिष्ट को सरल सुबोध सुगम्य बनाकर उसे लोकप्रिय बना देना- यह हिंदी भाषा की शक्ति है।

सूर के लीला वर्णन का चरमोत्कर्ष कृष्ण की सर्वोत्कृष्ट बाललीला और रासलीला के अंतर्गत लक्षित होता है। अपने अराध्य के रूप और उनकी क्रीड़ाओं के वे चित्र उभार देते हैं। सूर कहते हैं कि कृष्ण अत्यधिक छेड़छाड़ करता है, वह हाथ नहीं आता है- “सूर स्याम अतिकरत अचगरी / कैसेहूँ कहू हाथ न आवै।” वहीँ वे मानवीय चेतना से समग्रतः अनुप्राणित हैं और इसीलिए वे लोकधर्मी हैं। नन्दनन्दन सहज मानवीय व्यापार करते हुए लोकानुरूप आचरण करते हैं। उनके प्रेम का वाणिज्यिक रूप भी सामने आता है। यमुना तट पर गगरी भरने आई गोपिकाओं से कृष्ण ‘चुंगी’ माँगते हैं। कहते हैं यहाँ वाणिज्य का पसरा लगाए मैं बैठा हूँ। तुम दूध दही तो दिखाती हो पर अपना यौवन धन छिपाती हो।” कृष्ण से जब राधा की पहली मुलाकात होती है तब राधा कहती है कि “तू... यशोदा का बेटा... हमसे हिसाब माँगता है माखनचोर... हमने तेरा क्या चुराया है?”

सूरदास की गणना अष्टछापी कवियों में होती है। यहाँ कृष्ण के बालरूप के पूजक उनके स्वामी वल्लभाचार्य द्वारा निर्धारित कृष्ण भक्त आठ कवियों की गणना है। इनमें भक्तिकाल के हिंदी के कवि कुम्भनदास भी शामिल हैं। संभवतः ऐसी ही किसी प्रेरणा से अज्ञेय को आधुनिक हिन्दी कविता में ‘तार सप्तक’ निकालने की प्रेरणा मिली होगी।

सूरदास को पढ़ते समय कालिदास की भी याद आती है, जिनके आराध्य शिव-पार्वती हुआ करते थे। काल-भिन्नता के बावजूद भी अपनी कथाओं के चित्रण में ये दोनों महाकवि बेहद उन्मुक्त हैं। इस चित्रण में सूरदास तो और भी आगे निकल गए हैं और आधुनिकता के साथ उन्मुक्त हुए हैं। इसके संपादकों ने भी माना है कि “अनेक ऐसी पंक्तियाँ हैं, जिनके एक से अधिक अर्थ हो सकते हैं। हम अपनी सीमाओं के रहते सारे अर्थ नहीं दे सकते।” हजारों की पद संख्या में कृष्ण, राधा, गोप गोपिका, ब्रजांगनाओं के प्रेम व अंतरंग संबंधों का ऐसा खुलकर चित्रण सूरदास ने किया है, जो आज किसी भी स्थिति में किसी ईश्वरीय शक्ति के लिए कह पाना संभव नहीं हैं, जबकि वह भी कला का उत्कृष्ट प्रतिरूप है, जिनकी प्रेरणा से निर्मित हम खजुराहो, कोणार्क या अजंता एलोरा के चित्रों व मूर्तियों को देख अभिभूत होते हैं। 

बचपन में बुआ के गाँव में कभी रासलीला देखी थी। आज वह पढ़ने को मिली। इस रासलीला पर सूरदास ने अपने तन मन से ऐसी स्याही उड़ेली है कि अपनी कृष्ण भक्ति पर वे स्वयं ही बोलते हैं-‘सूरदास की कारी कमरी चढ़े न दूजो रंग’। यहाँ कारी कमरी से आशय काले कृष्णा से है।

चलिए यहाँ सूरदास जी के चमत्कारिक लेखन- कौशल को उसके ज्यादा अतिरेक से बचते हुए मध्यम मार्ग पर लाते हैं, जब वंशी की मधुर ध्वनि को सुनकर ब्रजांगनाओं में विचलन की स्थिति आती है। “युवतियाँ शृंगार करती करती भुला गई हैं। उन्हें अपने अंगों की सुधि तक नहीं रही। वे उलटे वस्त्र धारण करने लगीं, बड़े उल्लास से उन्होंने नेत्रों के अंजन को अधरों पर लगा लिया और कान में कर्णफूल उल्टे लगा लिये। ऐसे चल पड़ी कि वे अपना आँचल भी नहीं सँभाल पा रही थीं। उनके शरीर को कामदेव ने निढाल कर दिया था। वे चरणों में हार बाँधती जा रही हैं। कंचुकी को कमर में अलंकृत कर रही हैं और लहँगे को छाती में धारण कर रही हैं। हरि ने उनकी चतुराई चुरा ली है। कामदेव को अत्यधिक मोहित करने वाले सूर के प्रभु गोपाल ने रास रचा दिया। हरे हरे! हे गोविन्द, मुकुंद माधव.... (पद संख्या-998 राग गुंड मलार)।

सूर ने कृष्ण के रसरंग से ब्रज में होने वाले कोहराम को विष्णु तक पहुँचवा दिया है। मुरली की ध्वनि स्वर्ग में पहुँच गई, विष्णु इसे सुनकर प्रेम विभोर हो गए और बोले “लक्ष्मी! सुनो! कुंजबिहारी को रास- क्रीड़ा करते देखकर जीवन और जनम सुफल कर लो। ऐसा सुख तीनों लोकों में कहाँ है? वृन्दावन तो हमसे दूर पड़ता है। काश किसी प्रकार उसकी धूल रज पड़ जाती। (पद संख्या-1180 राग धनाश्री की यह एक पदावलि पाँच पृष्ठों में है)।

कृष्ण चरित के माध्यम से रससिद्ध कवि सूरदास ने जीवन को सार्थक एवं आनंदमय बनाने हेतु प्रेम और सौन्दर्य को उदात्त स्तर पर एक जीवनदृष्टि के रूप में चित्रित किया है। उनकी यह कृति भक्ति और आसक्ति के सागर में लीन हो जाने के मध्य कृष्ण के सरोकारों की उद्दाम कथा कहती है- जिसमें अपने घर, गाँव, गोवर्धन, ग्वालों, गोपी-गोपिकाओं और उनके बाल गोपालों के प्रति हर कहीं कृष्ण पूरी तरह चैतन्य और जिम्मेदार खड़े हैं। वे प्रेम और देखभाल की भावना से भरे समाजचेता और नियन्ता हैं। इन्हें, वे अपनी लीलाओं के मध्य पूरा करते चलते हैं। सूर अपने कृष्ण को ‘अशरण-शरण’ कहते हैं अर्थात् जिन्हें कहीं शरण नहीं मिलती, उन्हें कृष्ण शरण देते हैं। इस ग्रंथ की अंतिम पद संख्या-1646 में एक गोपिका की मनः स्थितियों के उहापोह का ह्रदय-विदारक चित्रण देखें जिसमें वह कृष्ण के रंग में रँग जाती है। वह बेचते समय अपने गोरस का नाम भूल जाती है... कहती है कि “गोपाल ले लो गोपाल... वह गली गली में शोर मचाती है- श्याम ले लो श्याम। उस ग्वालिन को याद नहीं कि उसके गोरस को लेने वाला कहीं कोई घर है भी या नहीं! वह भले- बुरे का विचार छोड़कर सूरदास के प्रभु से जा मिली। उसके शरीर में चूने हल्दी के रंग की तरह कृष्ण का प्रेम व्याप्त हो गया था।

सम्पर्कः मुक्तनगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़), मो. 9009884014

कविताः शहीद

  -  डॉ. सुषमा गुप्ता







हमारे देश के सच्चे

 जाँबाजों के परिवारों 

के नाम ...

दो दिन हल्ला मचाके 

सब भूल जाएँगे.. 

दर्द क्या है 

उस बेवा से पूछो जिसकी

आँखों से अब सावन न जाएँगे ।

चार दिन शहीद शहीदी के 

सब नारे लगाएँगे... 

इंतजार क्या है

उन बच्चों से पूछो

 जिनके खिलौने अब न आएँगे।

अखबारों में बड़े दावे 

टीवी पे चर्चाएँ कराएँगे...

सूनापन उन माँ बाप से पूछो 

जो रुख़सती पे अब कंधा न पाएँगे ।

दो मुल्कों की सियासत में 

इनके नाम आएँगे ...

पर किसी को भी नहीं परवाह 

ये उजड़े घर 

कभी न मुस्कुराएँगे ...

कभी न मुस्कुराएँगे ।

सम्पर्कः 327/सेक्टर 16A, फरीदाबाद-121002 (हरियाणा) , ई मेल : 327suumi@gmail.com

चिंतनः उचित नहीं बच्चों के जीवन में अत्यधिक हस्तक्षेप

  - सीताराम गुप्ता

बच्चे हों अथवा बड़े परिवर्तित समय में आज सभी की आकांक्षाएँ व अपेक्षाएँ बदल चुकी हैं। यह अस्वाभाविक भी नहीं। बच्चों के संदर्भ में बड़ों को इस तथ्य को न केवल स्वीकार करना चाहिए अपितु उनके सहयोग के लिए भी तत्पर रहना चाहिए अन्यथा समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं। पिछले दिनों एक मित्र महोदय का फोन आया। पौत्र-पौत्रियों के बारे में बातें करने लगे। उनकी पढ़ाई-लिखाई, प्राप्त अंक, करियर, खानपान, दिनचर्या, आदतों व उनके व्यवहार के बारे में काफी बातें कीं। बतलाया कि कई बार छुट्टियों में भी हमारे पास न आकर हॉस्टल में ही पड़े रहते हैं। बच्चों की और भी कई बातों से संतुष्ट नहीं थे। बात करते हुए बीच-बीच में उत्तेजित तक हो जाते थे। अपने किशोर अथवा युवा बच्चों अथवा पौत्र-पौत्रियों को लेकर माता-पिता अथवा घर के बुजुर्गों की चिंता स्वाभाविक है लेकिन हर चीज़ की एक सीमा होती है। अपने बच्चों अथवा पौत्र-पौत्रियों के मामलों में कितनी चिंता की जाए अथवा उनके जीवन में कितना हस्तक्षेप किया जाए। यदि हम इस सीमारेखा को समझकर उसके अनुसार व्यवहार करेंगे, तो उनसे हमारे संबंध सदैव आत्मीय व अर्थपूर्ण बने रहेंगे; अन्यथा हमेशा के लिए तनावपूर्ण हो जाएँगे; क्योंकि आजकल के किशोर अथवा युवा अपने जीवन में दूसरों का अधिक हस्तक्षेप पसंद नहीं करते। 

 जहाँ तक किशोरावस्था का प्रश्न है, यह अत्यंत संवेदनशील अवस्था होती है। अपने किशोर पौत्र-पौत्रियों की पढ़ाई-लिखाई अथवा उनके भविष्य को लेकर घर के बुजुर्गों की चिंता स्वाभाविक है; लेकिन उम्र के आखिरी पड़ाव पर पहुँचने के बाद इसकी मुख्य चिंता बच्चों के माता-पिता पर छोड़ देनी चाहिए और जहाँ बहुत ज़रूरी अथवा अपेक्षित हो वहीं अपनी राय व्यक्त करनी चाहिए। उनकी शिक्षा-दीक्षा और करियर के विषय में उनके माता-पिता अपेक्षाकृत अधिक उचित निर्णय ले सकते हैं। उनको माँगने पर सलाह दी जा सकती है; लेकिन उनके निर्णयों को बदलने अथवा उनमें कमी निकालने का प्रयास किसी भी दृष्टि से उचित प्रतीत नहीं होता। वैसे भी आज करियर के क्षेत्र में बहुत परिवर्तन हो चुके हैं; अतः समय के अनुसार करियर के सही चयन के विषय में वे स्वयं अधिक जानते हैं। आज के ज़माने की तुलना अपने ज़माने से करना तो किसी भी तरह से उचित नहीं ठहरता। समय के साथ हर चीज़ बदलती है, इस बात को अच्छी तरह से जान लेना और स्वीकार कर लेना चाहिए।

     समय के साथ-साथ नई पीढ़ियाँ भी बदल जाती हैं। उनकी सोच पुरानी पीढ़ियों की सोच जैसी नहीं हो सकती। होनी भी नहीं चाहिए। यदि नई पीढ़ी की सोच में समयानुसार अपेक्षित परिवर्तन नहीं होगा, तो वो आगे बढ़ने की बजाय पिछड़ जाएगी। नई पीढ़ी की सोच ही नहीं उनका खानपान, पहनावा व आदतें सब बदल जाते हैं जो अत्यंत स्वाभाविक है। उनकी दिनचर्या, खानपान व पहनावे को लेकर ज़्यादा टोकाटोकी करना अथवा हर बात में हस्तक्षेप करना, किसी भी तरह से उचित नहीं। विशेष रूप से उनके मित्रों अथवा अपने परिचितों या रिश्तेदारों की उपस्थिति में तो बिलकुल नहीं। उनके स्वास्थ्य के विषय में चिंता व्यक्त की जा सकती है; लेकिन उनकी शारीरिक बनावट अथवा देहयष्टि के विषय में नकारात्मक टिप्पणी करके नहीं। यदि हम किसी बच्चे से कहें कि ये क्या गैंडे जैसा शरीर बना रखा है; तो निश्चित रूप से वो हमसे दूर-दूर रहने और हममें कमियाँ निकालने का प्रयास करेगा। हमारी बातों से किसी भी तरह से बच्चे के स्वाभिमान को ठेस नहीं पहुँचनी चाहिए। बच्चों के मित्रों के विषय में भी ज़्यादा टीका-टिप्पणी न करके, उन्हें भी अपने बच्चों की तरह ही समझकर व्यवहार करना चाहिए। 

जो बच्चे घर से बाहर रहकर पढ़ाई करते हैं, वे छुट्टियों में अथवा बीच में जब कभी भी घर के सदस्यों से मिलने अथवा छुट्टियाँ बिताने के लिए घर आएँ, तो उनकी हर बात में हस्तक्षेप करने या उन्हें हर बात पर प्रवचन देने से वे घर आना-जाना कम कर देते हैं, जो दोनों के लिए ही ठीक नहीं। माना कि हम अत्यंत सात्त्विक भोजन करते हैं और हमारी दिनचर्या भी आदर्श और व्यवस्थित रहती है; लेकिन बाहर पढ़ने वाले बच्चों के लिए यह संभव नहीं हो पाता। आजकल स्टूडेंट्स पर पढ़ाई का बड़ा प्रेशर रहता है। रात-रात भर जागकर पढ़ने वाले बच्चों के लिए ब्रह्म मुहूर्त्त में उठकर स्नान-ध्यान करना कैसे संभव है? हम अपने बच्चों को डॉक्टर अथवा इंजीनियर बनाना चाहते हैं; लेकिन साथ ही ये भी चाहते हैं कि उनकी दिनचर्या गुरुकुलों में शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों जैसी हो, तो ये असंभव है। बच्चों की दिनचर्या को न केवल महत्त्व ही देना चाहिए; अपितु इसके लिए उन्हें अनुकूल परिस्थितियाँ भी उपलब्ध करवाने का प्रयास करना चाहिए।  

     हमें परिवर्तित समय में परिस्थितियों के अनुसार होने वाले परिवर्तनों को स्वीकार कर लेना चाहिए; अन्यथा ये हमारे लिए ठीक नहीं होगा। बच्चों के पहनावे अथवा कपड़ों को लेकर भी ज़्यादा परेशान रहना ठीक नहीं। यदि हम बच्चों पर अपनी पसंद थोप देंगे, तो इसकी संभावना अधिक है कि वे अपने पीयर ग्रुप में उपहास के पात्र बन जाएँ। इससे उनके व्यक्तित्व का विकास बुरी तरह से प्रभावित हो सकता है, जो हर तरह से उनकी उन्नति में बाधक होगा। बच्चों को उपहार के रूप में देने के लिए अपनी पसंद की नहीं; अपितु उनकी पसंद और उपयोगिता की चीज़ें लानी या मँगवानी चाहिए। खानपान के संबंध में भी ऐसा ही करना चाहिए। यदि बच्चे गलतियाँ करते हैं, तो भी निराश होने की ज़रूरत नहीं; क्योंकि गलतियों से भी वे अधिकाधिक सीखते हैं। यदि बच्चों की गलतियों से परेशान होकर उन्हें टोकते व कुछ नया करने से रोकते रहेंगे, तो उनकी रचनात्मकता समाप्त हो जाएगी और वे बहुत अधिक नया नहीं सीख पाएँगे। इससे उनकी निर्णय लेने की क्षमता भी प्रभावित हो सकती है। हमें चाहिए कि बच्चों को स्वयं निर्णय लेने के लिए प्रोत्साहित करें। 

     प्रश्न उठता है कि बच्चों के मामले में माता-पिता अथवा बुजुर्गों की भूमिका क्या हो? वे किस सीमा तक उनके जीवन में हस्तक्षेप करें। बच्चों से यहाँ तात्पर्य किशोरों और युवाओं से है। बेटे-बेटियाँ अथवा पौत्र-पौत्रियाँ चाहे वे स्कूल-कॉलेज में पढ़ रहे हों अथवा अन्य किसी प्रकार का प्रशिक्षण ले रहे हों या किसी व्यवसाय अथवा सेवा में जा रहे हों, उनके जीवन में बुजुर्गों की महत्त्वपूर्ण भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता; लेकिन उनकी भूमिका फिलर की तरह होनी चाहिए। पत्र-पत्रिकाओं में विभिन्न रचनाओं अथवा आलेखों के अंत में कई बार कुछ जगह बच जाती है। संपादक उन स्थानों पर छोटी-छोटी रचनाएँ, प्रेरक प्रसंग, दोहे अथवा शेर आदि डाल देते हैं। मज़े की बात तो ये है कि कई बार ये संक्षिप्त प्रस्तुतियाँ मुख्य रचनाओं से भी अधिक महत्त्वपूर्ण और उपयोगी ही नहीं, रोचक भी होती हैं। मुझे याद है कि मैं प्रारंभ से ही जब भी किसी पत्रिका को पढ़ने के लिए खोलता था, तो सबसे पहले इन फिलर्स को ही पढ़ता था। मैंने इन्हें हमेशा ही रोचक व ज्ञानवर्धक पाया। यदि हम बच्चों के जीवन में हस्तक्षेप के मामले में अपनी भूमिका फिलर्स की रखें और अच्छे फिलर्स की रखें, तो बच्चे न केवल हमारी ओर ध्यान देंगे अपितु हमारी बातों से लाभांवित भी होंगे। 

     हम उनके जीवन के उन हिस्सों को प्रभावित करें, जिनका पाठ्यक्रमों में कोई स्थान नहीं अथवा जो अन्य किसी कारण से उपेक्षित रह जाते हैं। जब वे चलते हुए किसी दोराहे पर आकर भ्रमित होकर रुक जाएँ अथवा कोई ग़लती कर बैठें तब उनका मार्गदर्शन करें व उन्हें सही मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करें। बच्चों की पसंद को महत्त्व दें और उनकी पसंद में अपनी पसंद जोड़ दें; लेकिन आटे में नमक के समान। बच्चों की आलोचना करने की बजाय उनकी अच्छी आदतों को रेखांकित करके इनके लिए उनकी प्रशंसा करें। आज बच्चे ऐसा बहुत कुछ जानते हैं, जो हम बिलकुल नहीं जानते। उनकी नई-नई जानकारियों और ज्ञान को न केवल महत्त्व दें; अपितु उनसे कुछ नया सीखने का प्रयास करें। इससे उन्हें अच्छा लगेगा और वे हमारे और अधिक निकट आने लगेंगे। इससे हमारे आपसी संबंधों में तनाव की अपेक्षा प्रगाढ़ता उत्पन्न होगी। यदि किशोरों से हमारे संबंधों में आत्मीयता होगी तो वे हम पर न केवल पूर्ण विश्वास करेंगे अपितु हमारी बातों को भी अवश्य महत्त्व देंगे और ऐसी अवस्था में उनको समझाना अथवा उनका सही मार्गदर्शन करना सरल हो जाएगा। एक विज्ञापन कहता है कि पहले इस्तेमाल करें, फिर विश्वास करें। इसी प्रकार से पहले बच्चों की परिवर्तित परिस्थितियों को स्वीकार करें, तदुपरांत यदि उनमें कुछ परिवर्तन अपेक्षित व संभव है तो उसके लिए प्रयास करें।

सम्पर्कः ए.डी. 106 सी., पीतम पुरा,, दिल्ली - 110034, मो. नं. 9555622323, Email : srgupta54@yahoo.co.in


खानपानः फ्रिज में गाजर को रसीला कैसे रखें

 आप बाज़ार से ताज़ातरीन गाजर लाते हैं और फ्रिज में इस उम्मीद से रखते हैं कि वे थोड़ा लंबे समय तक ताज़ा, रसीली और खस्ता बनी रहेंगी। लेकिन आप देखते हैं कि फ्रिज में भी गाजर कुछ ही दिनों में मुरझा-सी जाती हैं और अपनी ताज़गी खो देती हैं। गाजर ही नहीं, कई सब्ज़ियों, खासकर पत्तेदार सब्ज़ियों, के साथ भी ऐसा ही होता है।

यह जानने के लिए कि ऐसा क्यों होता हैं, शोधकर्ताओं ने गाजर को लंबाई में काटकर फ्रिज में रखा। इससे उन्हें यह समझने में मदद मिली कि शीतलन से गाजर का आंतरिक भाग कैसे प्रभावित होता है। उन्होंने पाया कि फ्रिज का ठंडा वातावरण सब्ज़ियों और भोजन वगैरह को सड़ने से तो बचा देता है, लेकिन फ्रिज में चल रही वायु धाराओं के कारण सब्ज़ियाँ अपनी नमी खोती जाती हैं और सूख जाती हैं।

शोधकर्ताओं ने रॉयल सोसाइटी ओपन साइंस में बताया है कि फ्रिज में गाजर ने 22 प्रतिशत तक नमी गँवाई थी और प्रति दिन औसतन 0.37 प्रतिशत सिकुड़ती जा रही थीं। गाजरों की नमी खोने से उनकी कोशिकाओं ने अपना आकार खो दिया, जिससे सब्ज़ियाँ सूख-सिकुड़ गईं। मेकेनिकल और सिविल इंजीनियरिंग में प्रयुक्त एक 3डी-मॉडल प्रोग्राम ने एकदम सही भविष्यवाणी की थी कि समय के साथ गाजरें कैसे मुरझाएँगी।

गाजरों के मुरझाने में एक अन्य कारक भी भूमिका निभाता है। गाजर काटने के बाद, वे उस अक्ष से मुड़ती हैं, जिससे उन्हें काटा गया था - एक यांत्रिक गुण, जिसे ‘अवशिष्ट तनाव’ कहा जाता है।

मॉडल ने गाजर को कुरकुरा रखने का एक तरीका भी बताया है: उन्हें ठंडे, हल्के नमीदार और एयरटाइट (सीलबंद) डिब्बे में रखें। सीधे फ्रिज की किसी शेल्फ या कंटेनर में न पटक दें। इस तरीके का उपयोग अवशिष्ट तनाव झेलने वाली चीज़ों, जैसे लकड़ी, बाँस और अन्य जैविक सामग्री का स्वरूप और आकार बरकरार रखने के लिए किया जा सकता है ताकि सुरक्षित भवन, खिड़की-दरवाज़े, कलाकृतियाँ बनाने में मदद मिले और वे अपना स्वरूप न खोएँ। (स्रोत फीचर्स) 

स्वास्थ्यः सिकल सेल - सस्ते इलाज की उम्मीद

सिकल सेल रोग से दुनिया भर के लाखों लोग प्रभावित हैं। एक अनुमान के मुताबिक प्रति वर्ष लगभग पौने चार लाख लोग इसकी वजह से जान गँवाते हैं और लाखों लोग दर्दनाक तकलीफें झेलते हैं। यू.एस. खाद्य एवं औषधि प्रशासन (एफडीए) ने पिछले वर्ष इसके उपचार के लिए दो जीन थेरेपी प्रक्रियाओं को मंज़ूरी दी थी। लेकिन ये उपचार काफी महँगे हैं - इनका खर्च प्रति व्यक्ति करीब 17 करोड़ रुपये  बैठता है। साथ ही इनमें जोखिमभरी कीमोथेरेपी शामिल होती है। 

हाल ही में औषधि शोधकर्ताओं ने मुँह से दी जाने वाली एक दवा की खोज की है। इस औषधि ने सिकल सेल रोग से ग्रसित जंतुओं में स्वस्थ रक्त कोशिकाओं को पुनर्स्थापित किया है। देखा जाए, तो जीन थेरेपी एक बार करनी होती है और वह लंबे समय तक लाभ प्रदान कर सकती है। इसके विपरीत इस नई दवा को समय-समय पर जीवन भर लेने की आवश्यकता हो सकती है। 

यह दवा मनुष्यों में अभी सुरक्षा परीक्षण से नहीं गुज़री लेकिन साइंस जर्नल में वर्णित इस प्रायोगिक दवा ने व्यापक रूप से सुलभ और किफायती उपचार की एक उम्मीद जगाई है।

गौरतलब है कि सिकल सेल रोग वयस्क हीमोग्लोबीन के उत्पादन के लिए ज़िम्मेदार जीन में उत्परिवर्तन के कारण होता है। यह उत्परिवर्तन लाल रक्त कोशिकाओं को हंसिए (सिकल) आकार का बना देता है, जिससे रक्त कोशिकाएँ आपस में चिपक जाती हैं। इसके चलते रक्त वाहिकाएँ अवरुद्ध होती हैं, और तेज़ दर्द के साथ ऊतकों को नुकसान पहुँचाती हैं।

रोचक तथ्य यह है कि इस जीन में उत्परिवर्तन से पीड़ित व्यक्तियों में भी भ्रूणावस्था में सामान्य लाल रक्त कोशिकाएँ बनती हैं। उपचारों में कोशिश यह की जाती है कि वयस्क व्यक्ति में वयस्क जीन को बाधित करके भ्रूण के लाल रक्त कोशिका जीन को सक्रिय कर दिया जाए ताकि सामान्य लाल रक्त कोशिकाएँ बनने लगें।

सिकल सेल रोग उस जीन में उत्परिवर्तन के कारण होता है जो वयस्क में हीमोग्लोबीन बनाने के लिए ज़िम्मेदार होता है। वर्तमान में स्वीकृत एक जीन थेरेपी में किया यह जाता है कि एक वायरस की मदद से वयस्क हीमोग्लोबीन का संशोधित जीन व्यक्ति की स्टेम कोशिकाओं में प्रविष्ट करा दिया जाता है। फिर इन संशोधित कोशिकाओं को वापिस उस व्यक्ति के शरीर में डाला जाता है। लेकिन उससे पहले उसके शरीर में पहले से मौजूद रक्त स्टेम कोशिकाओं को नष्ट कर दिया जाता है।

दूसरी जीन थेरेपी में भी मरीज़ की रक्त स्टेम कोशिकाओं में संशोधन किया जाता है लेकिन इसके लिए क्रिस्पर नामक तकनीक की मदद ली जाती है। क्रिस्पर की मदद से BCL11A नामक एक प्रोटीन को बाधित कर दिया जाता है। यह वह प्रोटीन है जो वयस्कों में भ्रूणीय हीमोग्लोबीन का उत्पादन रोक देता है। तो जब BCL11A जीन को ठप कर दिया जाता है , तो रक्त स्टेम कोशिकाओं में भ्रूणीय हीमोग्लोबीन फिर बनने लगता है और मरीज़ को मदद मिलती है।

लेकिन जीन थेरेपी के भारी खर्च और जटिलता के चलते हर व्यक्ति तक इसकी पहुँच सीमित हो जाती है, खासकर अफ्रीका जैसे क्षेत्रों में जहाँ सिकल सेल रोगी अधिक पाए जाते हैं।

अलबत्ता, वयस्कों में भ्रूणीय हीमोग्लोबीन जीन को सक्रिय करने वाली औषधियाँ विकसित करने के प्रयास लंबे समय से चल रहे हैं लेकिन उतने कारगर नहीं रहे हैं।

जैसे नोवार्टिस की पामेला टिंग और जे ब्रैडनर एक ऐसा यौगिक खोज रहे थे, जो BCL11A द्वारा बनाए गए प्रोटीन से जुड़ सके और उसे कोशिका की प्रोटीन विध्वंस मशीनरी में पहुँचा सके, ताकि वह भ्रूणीय हीमोग्लोबीन के जीन को शांत न कर सके। टीम ने एक यौगिक (dWIZ-1) की पहचान की है जो कोशिका में डाले जाने पर भ्रूणीय हीमोग्लोबीन का उत्पादन बढ़ा देता है। लेकिन यह BCL11A को लक्षित नहीं करता। 

इस यौगिक में संशोधन कर dWIZ-2 का निर्माण किया गया, जिसने लाल रक्त कोशिकाओं में भ्रूणीय हीमोग्लोबीन का स्तर 17-45 प्रतिशत तक बढ़ा दिया। यह स्तर मनुष्यों में लाल रक्त कोशिकाओं के कार्यात्मक उत्पादन करने के लिए पर्याप्त है।

dWIZ-2 ने चूहों और तीन में से दो साइनोमोल्गस बंदरों में प्रभावशीलता दिखाई है और कोई दुष्प्रभाव भी नज़र नहीं आए हैं। यह ऐसा पहला छोटा अणु है, जो स्टेम कोशिकाओं को नुकसान पहुँचाए बिना भ्रूणीय हीमोग्लोबीन का उत्पादन बढ़ा देता है। 

दिक्कत यह है कि dWIZ प्रोटीन कई कोशिकाओं में बनता है और यह कई जीनों को नियंत्रित करता है। यानी इसकी नियामक भूमिका काफी व्यापक हो सकती है और इसका दमन करना शायद सुरक्षित न हो। बहरहाल, ब्रैडनर का मत है कि भ्रूणीय हीमोग्लोबन को बढ़ाने की dWIZ-2 की क्षमता बहुत अधिक है और यह आगे के विकास का रास्ता तो खोलता ही है। (स्रोत फीचर्स) 

कविताः चलती है हवा

 -  सुरेश ऋतुपर्ण








चलती है हवा तो हो जाती है बरसात

पानी की बूँदों की तरह

पत्तियों पर पत्तियाँ झर रहीं हैं

चुपचाप !

थर-थर काँपती घाटी

बेसुध हो, झील में

नहा रही है

पानी से उठती धुंध ने पर

ढक दी है उसकी लाज !

 

चलती है हवा तो सिहर उठता है

सिल्क के रंगीन दुपट्टे की तरह

नदी का जल !

 

आसमान पर छाए हैं

उचक्के चोर बादल

नदी में उतर

अपने सफेद झोलों में

जल्दी-जल्दी भर रहे हैं

बेशुमार रंग !

 

बसंती फूलों पर

मरने वालों को कौन समझाए,

पतझरी पत्तियों की नश्वरता में

छिपी है कैसी अमरता !

प्रेरकः चोर बादशाह

 - निशांत 
 
गज़नी के बादशाह का नियम था कि वह रात को भेष बदलकर गज़नी की गलियों में घूमा करता था. एक रात उसे कुछ आदमी छुपते-छुपाते चलते दिखाई दिए। वह भी उनकी तरफ बढ़ा. चोरों ने उसे देखा, तो वे ठहर गए  और उससे पूछने लगे – “भाई, तुम कौन हो और रात के समय किसलिए घूम रहे हो?” बादशाह ने कहा – “मैं भी तुम्हारा भाई हूँ और रोज़ी की तलाश में निकला हूँ” यह सुनकर चोर बड़े खुश हुए और कहने लगे – “यह बहुत अच्छा हुआ, जो तुम हमसे आ मिले। जितने ज्यादा हों, उतनी ही ज्यादा कामयाबी मिलती है। चलो, किसी बड़े आसामी के घर चोरी करे।” जब वे लोग चलने लगे , तो उनमें से एक ने कहा, “पहले यह तय कर लेना चाहिए कि कौन आदमी किस काम को अच्छी तरह कर सकता है, जिससे हम एक-दूसरे के हुनर को जान जाएँ और जो ज्यादा हुनरमंद हो उसे नेता बनाएँ।”

यह सुनकर हर एक ने अपनी-अपनी खूबियाँ बतलाईं। एक बोला – “मैं कुत्तों की बोली पहचानता हूँ। वे जो कुछ कहें, उसे मैं अच्छी तरह समझ लेता हूँ। हमारे काम में कुत्तों से बड़ी अड़चन पड़ती है. हम यदि उनकी बोली जान लें , तो हमारा ख़तरा कम हो सकता है और मैं इस काम को बड़ी अच्छी तरह कर सकता हूँ।”

दूसरा कहने लगा – “मेरी आंखों में ऐसी ताकत है कि जिसे अंधेरे में देख लूं, उसे फिर कभी नहीं भूल सकता। और दिन के देखे को अंधेरी रात में पहचान सकता  हूँ। बहुत से लोग हमें पहचानकर पकड़वा देते हैं. मैं ऐसे लोगों को तुरन्त भांप लेता हु और अपने साथियों को सावधान कर देता हूँ। इस तरह हमारी हिफ़ाज़त हो जाती है”.

तीसरा बोला – “मुझमें ऐसी ताकत है कि मज़बूत दीवार में सेंध लगा सकता हूँ और यह काम मैं ऐसी फुर्ती और सफाई से करता हूँ कि सोनेवालों की आंखें नहीं खुलतीं और घण्टों का काम पलों में हो जाता है।”

चौथा बोला – “मेरी सूँघने की ताकत इतनी खास है कि ज़मीन में गड़े हुए धन को वहाँ की मिट्टी सूँघकर ही बता सकता हूँ। मैंने इस काम में इतनी कामयाबी पाई है कि मेरे दुश्मन भी मेरी बड़ाई करते हैं. लोग अमूमन धन को धरती में ही गाड़कर रखते हैं. इस वक्त यह हुनर बड़ा काम देता है. मैं इस इल्म का पूरा जानकार हूँ। मेरे लिए यह काम बड़ा आसान है।”

पांचवे ने कहा – “मेरे हाथों में ऐसी ताकत है कि ऊँचे-ऊँचे महलों पर बिना सीढ़ी के चढ़ सकता हूँ और ऊपर पहुँचकर अपने साथियों को भी चढ़ा सकता हूँ। तुममें तो कोई ऐसा नहीं होगा, जो यह काम कर सके।”

इस तरह जब सब लोग अपने-अपने हुनर बता चुके, तो नए  चोर से बोले – “तुम भी अपना कमाल बताओ, जिससे हमें अन्दाज हो कि तुम हमारे काम में कितने मददगार हो सकते हो”. बादशाह ने जब यह सुना , तो खुश होकर कहने लगा – “मुझमें ऐसा इल्म है, जो तुममें से किसी में भी नहीं है। और वह इल्म यह है कि मैं गुनाहों को माफ़ कर सकता हूँ। अगर हम लोग चोरी करते पकड़े जाएँ, तो अवश्य सजा पाएँगे लेकिन मेरी दाढ़ी में यह खूबी है कि उसके हिलते ही सारे गुनाह माफ़ हो जाते हैं। तुम चोरी करके भी साफ बच सकते हो। देखो, कितनी बड़ी ताकत है मेरी दाढ़ी में।”

बादशाह की यह बात सुनकर सबने एक सुर में कहा – “भाई तू ही हमारा नेता है। हम सब तेरी ही इशारों पर काम करेंगे, ताकि अगर कहीं पकड़े जाएँ , तो बख्शे जा सकें। ये हमारी खुशकिस्मती है कि तुझ-जैसा हुनरमंद साथी हमें मिला।”

इस तरह मशवरा करके ये लोग वहाँ से चले। जब बादशाह के महल के पास पहुँचे , तो कुत्ता भौंका. चोर ने कुत्ते की बोली पहचानकर साथियों से कहा कि यह कह रहा है कि बादशाह पास ही हैं; इसलिए होशियार होकर चलना चाहिए। मगर उसकी बात किसीने नहीं मानी। जब नेता आगे बढ़ता चला गया , तो दूसरों ने भी उसके संकेत की कोई परवाह नहीं की. बादशाह के महल के नीचे पहुँचकर सब रुक गए  और वहीं चोरी करने का इरादा किया। दूसरा चोर उछलकर महल पर चढ़ गया और फिर उसने बाकी चोरों को भी खींच लिया। महल के भीतर घुसकर सेंध लगाई गई और खूब लूट हुई. जिसके जो हाथ लगा, समेटता गया. जब लूट चुके, तो चलने की तैयारी हुई। जल्दी-जल्दी नीचे उतरे और अपना-अपना रास्ता लिया। बादशाह ने सबका नाम-धाम पूछ लिया था। चोर माल-असबाब लेकर चंपत हो गए।

बादशाह ने अपने मंत्री को आज्ञा दी कि तुम अमुक स्थान में तुरन्त सिपाही भेजो और फलाँ- फलाँ-लोगों को गिरफ्तार करके मेरे सामने हाजिर करो। मंत्री ने फौरन सिपाही भेज दिए। चोर पकड़े गए  और बादशाह के सामने पेश किए  गए. जब इन लोगों ने बादशाह को देखा, तो एक-दूसरे से कहा – “बड़ा गजब हो गया! रात चोरी में बादशाह हमारे साथ था.” और यह वही नया चोर था, जिसने कहा था कि “मेरी दाढ़ी में वह शक्ति है कि उसके हिलते ही अपराध क्षमा हो जाते हैं।”

सब लोग साहस करके आगे बढ़े और बादशाह के सामने सज़दा किया. बादशाह ने उनसे पूछा – “तुमने चोरी की है?”

सबने एक साथ जवाब दिया – “हाँ, हूजर. यह अपराध हमसे ही हुआ है।”

बादशाह ने पूछा – “तुम लोग कितने थे?”

चोरों ने कहा – “हम कुल छह थे।”

बादशाह ने पूछा – “छठा कहाँ है?”

चोरों ने कहा – “अन्नदाता, गुस्ताखी माफ हो। छठे आप ही थे।”

चोरों की यह बात सुनकर सब दरबारी अचंभे में रह गए . इतने में बादशाह ने चोरों से फिर पूछा – “अच्छा, अब तुम क्या चाहते हो?”

चोरों ने कहा – “अन्नदाता, हममें से हर एक ने अपना-अपना काम कर दिखाया. अब छठे की बारी है। अब आप अपना हुनर दिखाएँ, जिससे हम अपराधियों की जान बचे।”

यह सुनकर बादशाह मुस्कराया और बोला – “अच्छा! तुमको माफ किया जाता है। आगे से ऐसा काम मत करना।”  (हिन्दी जेन से) 

( जलालुद्दीन रूमी की किताब मसनवी से ली गई कहानी  )

कविताः प्रेम और नमक

  -  सांत्वना श्रीकान्त








प्रेम और नमक

रूपक  हैं

दोनों का उपयोग किया गया

ज़रूरत के हिसाब से

‘स्वादानुसार’

तेज नमक से छाले हुए

और कम नमक बेस्वाद लगा

जब रिश्ते में फफूँद लगने की

आशंका हुई तो

नमक बढ़ा दिया गया।

और जब तृप्ति की अनुभूति हुई

खारापन बहुत बढ़ गया है

मानकर

अवहेलित कर दिया गया।

email - drsantwanapaysi276@gmail.com


लघुकथाः पानी की जाति

  -  विष्णु प्रभाकर

बी.ए. की परीक्षा देने वह लाहौर गया था। उन दिनों स्वास्थ्य बहुत ख़राब था। सोचा, प्रसिद्ध डॉ. विश्वनाथ से मिलता चलूँ। कृष्णनगर से वे बहुत दूर रहे थे। सितम्बर का महीना था और मलेरिया उन दिनों यौवन पर था। वह भी उसके मोहचक्र में फँस गया। जिस दिन डॉ. विश्वनाथ से मिलना था, ज्वर काफ़ी तेज़ था। स्वभाव के अनुसार वह पैदल ही चल पड़ा, लेकिन मार्ग में तबीयत इतनी बिगड़ी कि चलना दूभर हो गया। प्यास के कारण, प्राण कंठ को आने लगे। आसपास देखा, मुसलमानों की बस्ती थी। कुछ दूर और चला, परन्तु अब आगे बढ़ने का अर्थ ख़तरनाक हो सकता था। साहस करके वह एक छोटी-सी दुकान में घुस गया। गांधी टोपी और धोती पहने हुए था।

दुकान के मुसलमान मालिक ने उसकी ओर देखा और तल्ख़ी से पूछा—"क्या बात है?"

जवाब देने से पहले वह बेंच पर लेट गया। बोला—"मुझे बुखार चढ़ा है। बड़े ज़ोर की प्यास लग रही है। पानी या सोडा, जो कुछ भी हो, जल्दी लाओ!"

मुस्लिम युवक ने उसे तल्ख़ी से जवाब दिया—"हम मुसलमान हैं।"

वह चिनचिनाकर बोल उठा—"तो मैं क्या करूँ?"

वह मुस्लिम युवक चौंका। बोला—"क्या तुम हिन्दू नहीं हो? हमारे हाथ का पानी पी सकोगे?"

उसने उत्तर दिया—"हिन्दू के भाई, मेरी जान निकल रही है और तुम जात की बात करते हो। जो कुछ हो, लाओ!"

युवक ने फिर एक बार उसकी ओर देखा और अन्दर जाकर सोडे की एक बोतल ले आया। वह पागलों की तरह उस पर झपटा और पीने लगा।

लेकिन इससे पहले कि पूरी बोतल पी सकता, उसे उल्टी हो गई और छोटी-सी दुकान गन्दगी से भर गई, लेकिन उस युवक का बर्ताव अब एकदम बदल गया था। उसने उसका मुँह पोंछा, सहारा दिया और बोला—"कोई डर नहीं। अब तबीयत कुछ हल्की हो जाएगी। दो-चार मिनट इसी तरह लेटे रहो। मैं शिंकजी बना लाता हूँ।"

उसका मन शांत हो चुका था और वह सोच रहा था कि यह पानी, जो वह पी चुका है, क्या सचमुच मुसलमान पानी था?

तीन लघुकथाएँ

  -  अनूप मणि त्रिपाठी

1- नारे

दो लाशें पोस्टमार्टम के लिए रखी गई थीं।

“तुम यहाँ कैसे आईं!”

“भीड़ ने घेर लिया था और तुम!”

“मैं भी भीड़ में फँस गई थी!”

“तुमने उन्हें कुछ कहा नहीं!”

“कहा न! और तुमने!”

“कहा! कसके कहा!”

“क्या कहा!”

“लोकतंत्र! और तुमने!”

“संविधान!”

2- कलाकार

मैं एक सभागार में हूँ। देख रहा हूँ कि एक शेर मंच की ओर बढ़ रहा है। उसे उसके लेखन हेतु पुरस्कार मिल रहा है। वह  बहुत ठसक से मंच की ओर बढ़ रहा है। मुझे उम्मीद थी कि शेर है,  सिंहावलोकन अवश्य करेगा। मगर वह नहीं करता है। अब शेर मंचासीन है। पुष्पगुच्छ, अंगवस्त्र, प्रतीक चिह्न, चेक वगैरह मिल जाने और फोटो उतर जाने के बाद संचालक शेर से दो शब्द बोलने का अनुरोध करता है। शेर माइक के पास आता है। अपना बड़ा-सा  मुँह खोलता है और शेर के मुँह से निकलता है म्याऊँ। सब ताली बजाने लगते हैं, मगर मेरी हँसी छूट जाती है।

शेर लपककर मेरे पास आता है। मुझसे कहता है, “तुमने अभी मेरी दहाड़ नहीं सुनी!”

मैं हँसते हुए कहता हूँ, “अभी सुनी न!” वह कुछ झेंपता है।

वह विनम्र बनने की कोशिश करता है और कहता है,  “तुम गलत समझ रहे हो! मैं मिमिक्री कर रहा था!”

मैं अपनी हँसी रोककर कहता हूँ, “गलत तो तुम समझ रहे हो दोस्त! अब तक जो तुम कर रहे थे, दरअस्ल वह मिमिक्री थी।”

3- लॉ  और ऑर्डर

लॉ और ऑर्डर बैठे टीवी देख रहे हैं। दोनों अक्सर टीवी देखते हुए पाए जाते हैं। इन्हें न्यूज एंकर से ही पता चलता कि उन्हें क्या करना है।  तो इस वक़्त भी दोनों टीवी देख रहे हैं ।  

“कानून सबके लिए बराबर है!”  कैमरों से घिरा,  खच! खच! फोटो खिंचवाता एक बड़ा नेता बोलता है।

“सुन लिये गुरु!” लॉ बोला।

“बरसों से सुन रहे हैं! कानूनी छाँट रहे हैं!” ऑर्डर ने जवाब दिया।

“अगर कानून सबके लिए बराबर होता, तो सबसे पहले ये नेता जी ही गिरफ्तार होते!”  लॉ गुस्से से बोला।

“काहे बे!” ऑर्डर ने चौंकते हुए पूछा।

“अफवाह फैलाने के जुर्म में!  औऊर का!”  लॉ ने जवाब दिया।

कहानीः फाँस

- डॉ. आशा पाण्डेय

  दिसम्बर महीने के शुरुआती दिनों की ये रात ठंड में काँप रही है। रात ढाई बजे ट्रेन से बाहर निकलते ही हवा का एक झोंका हड्डियों के भीतर तक उतर कर हमारा स्वागत किया। लपेटी हुई शाल को और कसते हुए मैं परिवार के साथ स्टेशन से बाहर निकलने के लिए सीढ़ियाँ उतर रही हूँ। ऑटो, जीप रिक्शेवाले हमारी ओर उम्मीद से देखते हुए आगे बढ़ते हैं, लेकिन ‘गोविंदपुर’ का नाम सुनते ही उदासीन होकर पीछे हो जाते हैं। इस ठंड में इतनी दूर शायद नहीं जाना चाहते।

     पिछली पंक्ति में खड़े कुछ ऑटो ड्राइवर हमें आवाज दे रहे हैं, किंतु पति एक रिक्शेवान से बात करने लगे। वह चलने को तैयार है।

 “बहुत दिनों से साइकिल रिक्शे पर नहीं बैठे हैं, चलो रिक्शे से ही चलते हैं ।”

 “इतनी रात को! ठीक रहेगा ?” मेरे मन में शंका उठती है। पति सिर झटक कर मेरी शंका को निर्मूल सिद्ध कर देते हैं। इस बीच रिक्शेवान एक और रिक्शे को बुलाकर हमारे सामने खड़ा कर देता है।     

 “लालच बुरी बला है बिटिया, किसी काम की नहीं होती। जिसको लग गई, समझो उसको खा गई।”-    रिक्शेवान रिक्शे पर सामान लादता जा रहा है, बोलता जा रहा है।

“किशोर बढ़ा आगे... बाबू जी, तुम बेबी के साथ उस रिक्शे पर बैठ जाओ, बिटिया तुम मुन्ना के साथ मेरे रिक्शे पर आ जाओ ।”

मुन्ना और बेबी! कितना आत्मीय नामकरण! मुझे भी अपनी बिटिया बना लिया। मन प्रेम का कितना भूखा होता है! इस आत्मीय संबोधन मात्र से मेरा हृदय अंदर तक भीग गया। कितने गहरे रिश्ते जोड़ लिए इस रिक्शेवान ने! 

मेरे ऊपर इस रिश्ते की मिठास का नशा चढ़ना शुरू हो गया है,किंतु इसमें पूरी तरह डूबने के पहले ही मैं सम्भल जाती हूँ। अब तक के अनुभवों ने सिखा दिए  हैं मुझे कि ये रिश्ते पल भर भी नहीं टिकते। बस, इनकी डोर पकड़ कर बेवकूफ बनाने के लिए गढ़े जाते हैं। क्या मेरे साथ ही इस रिक्शेवान को इतनी आत्मीयता हो गई ? नहीं, ये आत्मीयता नहीं। रोज मुझ जैसी तमाम सवारियाँ इसके लिए मुन्ना, बेबी, बिट्टन और बिटिया बनती होंगी। इन रिश्तों की गहराई से इसे कुछ लेना देना नहीं है, ये सवारियों को प्रभावित करने का तरीका मात्र है, बस।

 मेरे मन मे एकदम से उमड़ आए  मधुर भाव बिला गए अब। दिमाग में संदेह का कीड़ा घुसने लगा है। मैं अपना सामान गिनती हूँ.. एक बार, दो बार, तीन बार -  जितने सामान लेकर चली थी, सब हैं। पर लग रहा है जैसे कुछ गायब हो गया है, कुछ छूट गया है। पति से कहती हूँ। वे भी गिनते हैं। सारे सूटकेस, बैग-  सब है। मैं आश्वस्त होती हूँ। रात के तीन बज रहे हैं। रिक्शे पर बैठने के पूर्व मेरे पति ने दोनों रिक्शेवान को हिदायत दी कि वे साथ-साथ ही चलें।

 “चिंता मत करो बाबू जी, हम साथ-साथ ही चलेंगे...  अरे वो किशोर, आगे पीछे ही चलना रे। ठीक से बैठ जाओ बिटिया, डरो नहीं। रिक्शा चलाते-चलाते पूरी उमर निकल गई, गिराऊँगा नहीं। धीरे-धीरे ही चलूँगा।”

 मन में आया कह दूँ -  “क्यों डरूँगी ? रिक्शे से डर ! इसी रिक्शे से तो इस शहर का चप्पा-चप्पा घूमी हूँ। तुम्हारे इस रिक्शे पर बैठते ही तो मैं वर्षों पहले के इलाहाबाद में पहुँच गई हूँ। कहना ये  भी चाह रही हूँ कि कुछ भी नहीं बदला है इलाहाबाद में। माँ की गोद-सा ठंडक देता है ये शहर।” किंतु रिक्शेवान से अधिक बात करना उचित नहीं लग रहा है। चुपचाप बैठी रह जाती हूँ।

 “लगता है बहुत दिनों बाद अपने शहर में आई हो बिटिया?” रिक्शेवान पूछता है।

 “हाँ, पाँच साल बाद।” मैं अनमने मन से जवाब देती हूँ।

 “अब बताओ भला, तुम लोग अपने शहर में इतने दिन बाद आए  हो और बाबूजी हैं कि किराए  का मोल-भाव करने लगे... मेरा भी कुछ फर्ज बनता है बिटिया। में ज्यादा पैसे क्यों लूँगा ? जो समझना, सो दे देना... अब महँगाई की मार तो देख ही रही हो बिटिया।” 

 मैं मन ही मन मुस्कुराती हूँ। रिक्शेवान अधिक पैसा वसूलने की भूमिका बना रहा है। कितने चालाक होते हैं ये लोग ! अपनी बातों में उलझा कर रिश्ता जोड़ लेते हैं ! बस, सवारियाँ फँस जाती हैं। किराया तय नहीं करती। उसका फायदा उठाकर ये बाद में अधिक पैसा ऐठने की कोशिश करते हैं। बैठ तो हम लोग भी गए हैं रिक्शे पर। उतरने पर ये पता नहीं कितने पैसे माँगेगा और कितनी देर तक बहस करेगा।

  रात का समय ! ठंड तेज पड़ रही है। नगरपालिका एवं स्वयंसेवी संस्थाओं के द्वारा रास्ते में जगह-जगह अलाव जलाए  गए हैं। गरीब, मजदूर, रिक्शेवान अलाव को चारो ओर से घेर कर आग ताप  रहे हैं।

 मेरा रिक्शेवान भी अलाव के पास दो मिनट रुककर अपने हाथों को सेंक लेना चाहता है। उसके दोनों हाथों की हथेलियाँ तथा उँगलियाँ रिक्शे के हैंडिल को पकड़े –पकड़े अब तक ऐठ-सी गई हैं। रिक्शेवान की माने, तो उसे समझ में ही नहीं आ रहा है कि उसने रिक्शे की हैंडिल पकड़ी है या नहीं। ठंड के मारे सुन्न पड़ गए हैं उसके हाथ।

पति ने कहा , “पहले हमें पहुँचा दो यार, लौटते समय सेंक लेना हाथ।”

हम किसी प्रकार का खतरा मोल लेना नहीं चाहते। इन आग तापते लोगों के साथ मिलकर ये रिक्शेवान हमें नुकसान भी तो पहुँचा सकता है। इन लोगों का क्या भरोसा!

हाथ सेंकने से मना कर देने पर रिक्शेवान मन मसोसकर रह गया। रिक्शे की पैडिल पर उसके पैरों की गति अब कुछ तेज हो गई है। रिक्शा चलाते-चलाते उसने कान में लपेटे मफलर को और कस लिया तथा अपना बाँया हाथ कोट की जेब में डाल लिया।

 कोट कई जगह से फट गई है। फटी जगह में दूसरे कपड़े का पैबंद लगाकर कोट को पहनने लायक बना लिया है। थोड़ी देर बाद उसने अपने बाँए हाथ को कोट की जेब से निकाल कर उससे रिक्शे का हैंडिल पकड़ लिया तथा दायें हाथ को कोट की जेब में डाल लिया। हर थोड़ी-थोड़ी देर में अब वह  हाथ बदल-बदल कर कोट की जेब में डाल रहा है।

 मैं उसे टोकती हूँ, “दोनों हाथ से हैंडल पकड़कर ठीक से चलाओ, देख नहीं रहे हो कितने गड्ढे हैं सड़क पर, रिक्शा कहीं उलट-पलट गया, तो आफत हो जाएगी।”

“कुछ नहीं होगा बिटिया, तुम डरो मत।”

  “मैं डर नहीं रही हूँ, तुम दोनों हाथों से हैंडिल पकड़ कर ठीक से चलाओ रिक्शा। मुझे तुम्हारा स्टंट नहीं देखना है।” बिलकुल सपाट और तीखे शब्द हैं मेरे।

रिक्शेवान स्टंट का मतलब समझ पाया या नहीं, किंतु जेब से हाथ निकाल कर दोनों हाथों से हैंडिल संभाल लिया। मेरी चिंता कम हुई।

 यूँ तो हम लोग गरम कपड़ों से लदे हैं। यहाँ तक कि हमारे हाथ-पैर की उँगलियाँ भी दस्तानों और मोजों से ढकी हुई हैं, किंतु ठंड है कि रास्ता बनाते हुए हमारी हड्डियों तक में घुसी आ रही है। ठंड से ध्यान हटाने के लिए मैं सड़क किनारे की दुकानों और मकानों को देखने लगती हूँ।

कुछ इमारतें किसी न किसी याद को ताजा कर रहीं हैं।

कम्पनीबाग से आगे बढ़ रहे हैं हम। बाई तरफ इलाहाबाद विश्वविद्यालय की इमारतें खड़ी हैं। गोल गुम्बद वाली ऊँची बिल्डिंग – यहीं तो हुई थी मेरी बी.ए. द्वितीय वर्ष की परीक्षा। अर्थशास्त्र का पेपर था। गुम्बद के ठीक नीचे मेरी सीट थी। जब मेरे सिर पर कुछ गीला-गीला गिरा, तो मैं चौंक गई। ऊपर देखने के लिए सिर उठा रही थी कि टेबल पर भी टप की आवाज करता हुआ कुछ टपक पड़ा। यह कबूतरों का कमाल था। मेरी उत्तरपुस्तिका सुरक्षित थी इसलिए मैंने भगवान को धन्यवाद दिया। पेपर समाप्त होने में मात्र पन्द्रह मिनट बचे थे। मैंने बेवश नजरों से कबूतरों को देखा और तेज रफ़्तार से लिखने में जुट गई। उत्तर पुस्तिका जमा कर बाहर निकली, तो हमारे कालेज का चपरासी शिवचरण दिखाई दिया। उसको मैंने सारी बातें बताकर अपना सिर दिखाया। मुस्कुराते हुए उसने बाहर रखे मटके से एक जग पानी लाया। तब मैंने सिर की गंदगी साफ की।

इस घटना की याद ने इतनी ठंड में भी एक स्फूर्ति-सी भर दी मेरे मन में। रिक्शा आगे बढ़ रहा है और मैं पीछे यादों में लौट रही हूँ।

 कटरा की सब्जी मंडी पीछे छूट रही है। अब आगे लगभग दो किलोमीटर का रास्ता एकदम सूना है। दूसरा रिक्शा, जिस पर मेरे पति बैठे हैं, वह भी साथ ही साथ चल रहा है। जब पति का रिक्शा एकदम मेरे नजदीक हुआ , तो मैंने धीरे से कहा, “बहुत बड़ी भूल हुई। ऑटो रिक्शा या जीप से आना चाहिए था। साइकिल रिक्शे पर बैठने का शौक कहीं मँहगा न पड़ जाए ।”

 मेरी चिंता को सुनकर रिक्शेवान ने कहा, “बिटिया, डरो मत। पहले हमें कुछ होगा तब तुम लोगों पर आँच आएगी। बस, भगवान का नाम लेती रहो।”

 पति ने घड़ी देखकर कहा, “अब चार बज गए हैं, डरने की कोई बात नहीं है।” 

 थोड़ी देर बाद हम सुनसान रास्ते को पीछे छोड़ते हुए अपट्रान के सामने पहुँच गए। कुछ दूर चढ़ाई है। रिक्शेवान सीट से उतरकर रिक्शा खींचते हुए पैदल चलने लगा। मैं रिक्शे से उतरना चाहती हूँ, जिससे उसकी मेहनत कम हो जाए। पर रिक्शेवान मुझे उतरने नहीं दिया, बोला, “दो मिनट की तो बात है बिटिया, अधिक दूर तक चढ़ाई नहीं है। हम लोगों की तो आदत पड़ गई है रिक्शा खींचने की... चाहे पैडल मारकर खींचूँ, चाहे पैदल चल कर।”

 बस, पाँच मिनट का रास्ता और।

 घर आ गया। रिक्शेवान दोनों रिक्शे का मात्र दो सौ रुपये ही लिया।  मुझे लग रहा है कि उचित किराए  से भी कम लिया है शायद। मैं नाहक इसके बारे में अनाप-शनाप सोच रही थी। मन ही मन मुझे कुछ ग्लानि हुई, किंतु अधिक देर तक मैंने इस ग्लानि को अपने दिल पर लदने नहीं दिया। गुंजाइश भी नहीं है, क्योंकि घर का दरवाजा खुल गया है। हम एक दूसरे से गले लगे, खुश हुए और किराए  की बात भूल गए।

 कुछ देर बाद फिर से दरवाजा खटका। पति ने दरवाजा खोलकर देखा, तो सामने वही रिक्शेवान मेरा सूटकेस लिये खड़ा है—“बाबूजी ये लीजिए आपका बक्सा, सामान उतारते समय इसपर ध्यान ही नहीं गया... सीट के पीछे रख दिया था न... इंजीनियरिंग कॉलेज के सामने एक सवारी बैठाने लगा,  तब मेरा ध्यान इस बक्से पर गया। सवारी को मनाकर मैं बक्सा देने आ गया।”

हम सब अवाक्! पति ने उसकी ईमानदारी की प्रशंसा करते हुए सूटकेस ले लिया। रिक्शेवान चला गया।

उस सूटकेस में कपड़े-लत्ते के अलावा कुछ पैसे भी रखे थे। रिक्शेवान के लिए ये बड़ी रकम थी। सूटकेस से कुछ ऊनी कपड़े उसे मिलते, जो इस सर्दी में उसके लिए बहुत उपयोगी होते; लेकिन बिना किसी लालच में पड़े, मिली हुई सवारी को भी छोड़कर यहाँ तक दौड़ा आया सूटकेस लौटाने !

 घर में सब लोग रिक्शेवान की ईमानदारी पर दो-तीन मिनट बात करके फिर से हँसी-मजाक में लग गए। मैं भी सबके साथ बात कर रही हूँ, पर मेरा उत्साह अब समाप्त हो गया है। रास्ते भर मैं इस रिक्शेवान को शंकालु नजर से देखती रही। इसकी सीधी-सादी बातों में भी चालाकी खोजती रही। अब, जब वह सूटकेस लौटाकर चला गया, तो लग रहा है कि उसकी अपनत्व भरी बातों का प्रेम से जवाब दे देती।  कह देती , “काका, हम पाँच मिनट रुके रहेंगे, तुम ठंड में अकड़ गए अपने हाथों को सेंक लो। अपट्रान की चढ़ाई पर उसके मना करने के बाद भी उतर जाती और कह देती कि अब तुम्हारी उमर नहीं रही सवारियों को बैठा कर चढ़ाई पर रिक्शा खींचने की। या फिर किराए  के रूप में कुछ अधिक पैसा देकर कह देती कि फ़र्ज सिर्फ तुम्हारा ही नहीं है काका, मेरा भी है। इन पैसों को रख लो। यह किराया नहीं है, बेटी का प्रेम है।

   बेटी का प्रेम !

   रिक्शेवान के बार-बार बिटिया कहने पर भी जो नहीं उमड़ा!

 प्रेम भरे शब्दों को जमा दे, इतनी ठंड तो नहीं है इस शहर में!

 ‘बेटी’ शब्द फाँस- सा अटक गया है गले में ।

अमरावती, महाराष्ट्र