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Aug 1, 2024

कविताः चलती है हवा

 -  सुरेश ऋतुपर्ण








चलती है हवा तो हो जाती है बरसात

पानी की बूँदों की तरह

पत्तियों पर पत्तियाँ झर रहीं हैं

चुपचाप !

थर-थर काँपती घाटी

बेसुध हो, झील में

नहा रही है

पानी से उठती धुंध ने पर

ढक दी है उसकी लाज !

 

चलती है हवा तो सिहर उठता है

सिल्क के रंगीन दुपट्टे की तरह

नदी का जल !

 

आसमान पर छाए हैं

उचक्के चोर बादल

नदी में उतर

अपने सफेद झोलों में

जल्दी-जल्दी भर रहे हैं

बेशुमार रंग !

 

बसंती फूलों पर

मरने वालों को कौन समझाए,

पतझरी पत्तियों की नश्वरता में

छिपी है कैसी अमरता !

1 comment:

Anonymous said...

बहुत सुंदर कविता,भावपूर्ण अभिव्यक्ति ।सुदर्शन रत्नाकर