उदंती.com को आपका सहयोग निरंतर मिल रहा है। कृपया उदंती की रचनाओँ पर अपनी टिप्पणी पोस्ट करके हमें प्रोत्साहित करें। आपकी मौलिक रचनाओं का स्वागत है। धन्यवाद।

Dec 1, 2021

उदंती.com, दिसम्बर 2021

चित्र ः डॉ. सुनीता वर्मा

वर्ष- 14, अंक- 4

बीते समय के लिए मत रोइएवो चला गया

और भविष्य की चिंता करना छोड़ो, 

क्योंकि वो अभी आया ही नहीं है

वर्तमान में जियोइसे सुन्दर बनाओ !   - गौतम बुद्ध

इस अंक में

अनकहीः  प्रदूषण फैलाती गाड़ियाँ... - डॉ.  रत्ना वर्मा

समाजः स्कूल में भूत का नज़ारा - संतोष शर्मा

कविताः मुस्कुराती हुई स्त्री -रश्मि विभा त्रिपाठी

यात्रा संस्मरणः कला की अमूल्य निधियाँ एलोरा अजन्ता - यशपाल जैन

लघुकथाः रेलगाड़ी की खिड़की - अंजू खरबंदा 

लघुकथाः लाठी - अर्चना राय

पर्यावरणः हाइवे के बोझ तले गाँव की पगडंडी - भारत डोगरा

कहानीः अकेली - मन्नू भंडारी

व्यंग्यः ट्यूशन पुराण - रामेश्वर काम्बोज हिमांशु

बाल कहानीः मिट्ठू  - मुंशी प्रेमचंद

कविताः आ लौट चलें! - डॉ. सुरंगमा यादव

दो ग़ज़लेंः 1. तसव्वुर, 2. खोमोशियाँ -विज्ञान व्रत 

कलाकारः जो कला परमानंद में लीन कर दे वही सच्ची कला -प्रो. अश्विनी केशरवानी

कविताः बच्चोंऔर बड़ों का घर – हरभगवान चावला

प्रेरकः संयम और अनुशासन का अनूठा प्रयोग- हिन्दी ज़ेन

कोविडः मास्क कैसा हो? -स्रोत फीचर्स

जीवन दर्शनः दया धर्म का मूल -विजय जोशी  

 इस बार उदंती.com के आवरण पृष्ठ पर डॉ. सुनीता वर्मा  का बनाया एक्रेलिक कलर से बना चित्र प्रस्तुत है।  प्रसन्नता की बात है कि चित्रकला के क्षेत्र में राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बना चुकी डॉ. सुनीता को चित्रकला और मूर्तिकला के लिए छत्तीसगढ़ शासन के संस्कृति परिषद में सदस्य मनोनीत किया गया है।  उल्लेखनीय है कि भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय के तहत ललितकला अकादमी (राष्ट्रीय कला संस्थान) में भी उन्हें जनरल काउंसिल मेंबर मनोनीत किया गया है। भिलाई डीपीएस स्कूल में आर्ट टीचर के रूप में कार्यरत सुनीता का पता है- फ्लैट नंबर 242, आर्किड अपार्टमेंट 11, ताल पुरी, ब्लाक – बी, भिलाई, छत्तीसगढ़।  मो. नं. 9406422222   

अनकहीः प्रदूषण फैलाती गाड़ियाँ...

 

- डॉ.  रत्ना वर्मा

जाड़े का मौसम आते ही वायु- प्रदूषण को लेकर हो हल्ला शुरू हो जाता है। उद्योगों और गाड़ियों से निकलने वाला धुआँ ठंड में प्रदूषण को दोगुना कर देता है। धरती पर बढ़ते प्रदूषण को लेकर पूरी दुनिया के पर्यावरणविद् कई दशकों से चिंताग्रस्त हैं और विकास के नाम पर हो रहे विनाश की ओर  लगातार ध्यान आकर्षित कर रहे हैं। इस मौसम में यह प्रदूषण कई गुना बढ़ जाती है।  बढ़ती जनसंख्या के साथ बढ़ते वाहनों से होने वाले प्रदूषण ने महानगरों में साँस लेना दूभर कर दिया है।

सड़क परिवहन से होने वाले प्रदूषण को कम करने के अनेक उपायों के साथ-साथ पिछले कुछ समय से इलेक्ट्रिक गाड़ियों के चलन पर अधिक जोर दिया जा रहा है। एक अध्ययन के अनुसार इलेक्ट्रिक गाड़ियों के उपयोग से वायु- प्रदूषण को घटाने के साथ ही ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन पर भी रोक लगाई जा सकती है। विभिन्न अध्ययनों में एक बात और सामने आई है कि अगर आरम्भिक तौर पर भारी गाड़ियों की बजाय सिर्फ़ छोटी गाड़ियों को इलेक्ट्रिक गाड़ियों में बदल दिया जाए, तो लोगों की सेहत पर होने वाले खर्च में और कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में लगभग दो गुनी कमी आ सकती है।

इलेक्ट्रिक गाड़ियों का इस्तेमाल अधिक से अधिक हो इस दिशा में भारत सरकार  ने भी अपने कदम बढ़ा दिए है। नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 2030 तक 70 फीसदी कॉमर्शियल गाड़ियाँ, 40 प्रतिशत बस, और 80 प्रतिशत तक दो पहिया और तीन पहिया वाहन इलेक्ट्रिक हो चुके होंगे। इससे CO2 उत्सर्जन में लगभग 846 मिलियन टन की कमी आएगी। वहीं इन इलेक्ट्रिक गाड़ियों के चलते लगभग 474 मिलियन टन तेल की बचत होगी।

फिर भी इलेक्ट्रिक गाड़ियों के चलन को लेकर अहम सवाल यह उभरता है कि इन गाड़ियों को चार्जिंग के लिए बिजली की खपत जब बढ़ेगी, तब उसकी आपूर्ति किस प्रकार होगी? आम तौर पर लोगों में सबसे बड़ा सवाल बैटरी की लाइफ और सुरक्षा को लेकर होता है साथ ही यह भी कि क्या भारत की सड़कें इलेक्ट्रिक गाड़ियों के चलने लायक है? और क्या पेट्रोल की तरह उतने ही चार्जिंग प्वाइंट उपलब्ध हो पाएँगे।

यद्यपि आज वाहन बनाने वाली बहुत सी निजी कम्पनियाँ अपने- अपने तरीके से बैटरी से चलने वाली गाड़ियों के फ़ायदों और उपयोग को लेकर विभिन्न प्रोजेक्ट पर काम भी कर रही हैं, और कई गाड़ियाँ बाजार में आ चुकी हैं। जरूरत इनके ज्यादा से ज्यादा प्रचार प्रसार की है। ताकि लोग ज्यादा से ज़्यादा इसका इस्तेमाल करना आरंभ कर दें । उम्मीद की जानी चाहिए कि ये निजी कम्पनियाँ सिर्फ़ अपना मुनाफ़ा ही नहीं देखेंगी, बल्कि देश-हित में प्रदूषण को कम करने की दिशा में भी काम करेंगी।

इस मामले में ब्रिटेन दुनिया का पहला देश होगा, जहाँ 10 साल बाद सिर्फ़ इलेक्ट्रिक कारें ही चलेंगी। वहाँ 2030 से पेट्रोल-डीजल वाली कारों की बिक्री पर पाबंदी लगा दी जागी। पर्यावरण संरक्षण के तहत ब्रिटेन सरकार ने 10 सूत्रीय ‘ग्रीन इंडस्ट्रियल रिवॉल्यूशन’ योजना लागू करने की घोषणा की है। 1.18 लाख करोड़ रुपये की इस योजना से ढाई लाख नई नौकरियाँ तो पैदा होंगी ही, साथ ही ब्रिटेन 2050 तक कार्बन उत्सर्जन से मुक्त भी हो जाएगा। योजना के अनुसार ब्रिटेन में 2025 तक सभी थर्मल पॉवर प्लांट भी बंद हो जाएँगे।

देखा जाए, तो  भारत में भी इलेक्ट्रिक गाड़ियों के लिए बन रही योजनाएँ  भी बहुत अच्छी दिखाई दे रही हैं जैसे- दिल्ली सरकार की योजना हर तीन कि.मी. पर चार्जिंग स्टेशन बनाने और साथ ही साथ प्राइवेट चार्जिंग स्टेशन बनाने के लिए सब्सिडी देने की भी है। दिल्ली सरकार सब्सिडी के साथ-साथ सभी कैटेगरी में रोड टैक्स, रजिस्ट्रेशन फीस माफ जैसे फायदे देने पर भी विचार कर रही है। वहीं, ऊर्जा मंत्रालय ने 2023 तक चार्जिंग इन्फ्रा सेटअप योजना की घोषणा कर दी है।

तकनीकी तौर पर हम भले ही विकसित हो रहे हैं, लेकिन पर्यावरण को लेकर अब हमें संवेदनशीलता दिखानी होगी, ताकि भविष्य में आने वाली पीढ़ी को एक प्रदूषण मुक्त वातावरण मिल सके। तेजी से बढ़ते वाहन प्रदूषण को देखते हुए जब दुनिया के दूसरे देश इलेक्ट्रिक वाहनों के चलन की ओर कदम बढ़ा रहे  हैं तो भारत को भी इस मामले में शीघ्रता से कदम बढ़ाना होगा ताकि हमारा देश भी प्रदूषण कम करने की दिशा में काम कर रहे देशों में अपना नाम अग्रणी रखे।

इस दिशा में पहले कदम के रूप में केंद्रीय सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी ने एक महत्त्वपूर्ण बात कही है कि अगले दो साल के अंदर एक इलेक्ट्रिक वाहन की लागत उतनी ही होगी जितनी कि आज पेट्रोल इंजन वाहन की है। वाहनों में इथेनॉल के इस्तेमाल को अन्य ईंधन की तुलना में लागत प्रभावी और प्रदूषण मुक्त विकल्प के रूप में उपयोग करने पर जोर दिया जाएगा। उन्होंने यह भी कहा है कि आने वाले दिनों में फ्लेक्स-ईंधन इंजन अनिवार्य कर दिए जाएँगे। इस संदर्भ में  टोयोटो मोटर कॉरपोरेशन, सुजुकी और हुंदै मोटर इंडिया के शीर्ष अधिकारियों ने अपने वाहनों में फ्लेक्स-ईंधन इंजन पेश करने का आश्वासन भी दिया है। यह सब कितनी जल्दी हो पायेगा और इथेनॉल की आपूर्ति किस प्रकार हो पायेगी यह तो आने वाला समय ही बताएगा, लेकिन यदि ऐसा हो जाता है तो ईँधन से होने वाले प्रदूषण को कम करने की दिशा में उठाया जाने वाला यह बहुत बड़ा कदम होगा।

परंतु यह भी सही है कि संसाधन मात्र या तकनीक बदल देने से समस्त वातावरण को शुद्ध नहीं किया जा सकता। इसके लिए प्रत्येक मनुष्य को अपनी जीवन- शैली में भी बदलाव लाना होगा। जब हम बढ़ते प्रदूषण की बात करते हैं तब सबसे ज़रूरी है कि हम अपने जीने का ढंग बदलें। जीवन को सहज सरल बना कर ही हम अपने वातावरण को जीने लायक बनाकर रख सकते हैं। वाहनों की बढ़ती संख्या और उससे होने वाले प्रदूषण को कम करने के लिए,  बहुत नहीं तो इतना तो अवश्य कर सकते हैं कि जब तक बहुत ज़रूरी न हो, वाहनों का उपयोग न करें। बहुत अधिक दूरी तय न करना हो तो साइकिल का उपयोग करें। कार्यालय, स्कूल, कॉलेज, बाजार आदि दैनिक कार्य यदि आसपास हो तो बिना वाहन के जाने की आदत बनाए। ऐसा करके हम अपने वातावरण को प्रदूषण मुक्त रखने के साथ अपनी सेहत को भी बेहतर बना सकते हैं।

तो आइए जाते हुए इस साल में हम सब मिलकर यह प्रार्थना करें कि अपने जीवन को थोड़ा सरल और सहज बनाएँगे, वातावरण शुद्ध रहे इस बात का ध्यान रखते हुए उतनी ही उपभोग की वस्तुओं का इस्तेमाल करेंगे, जितने की जरूरत है।

समाजः स्कूल में भूत का नज़ारा

-संतोष शर्मा

स्कूल के शौचालय में जाने के बाद 10वीं कक्षा की छात्रा शम्पा कुंडू दौड़ती हुई क्लास रूम में लौटी और भूत-भूत कहती हुई बेहोश होकर फर्श पर गिर गई। शम्पा की ऐसी डरी हुई हरकत देख क्लास की अन्य छात्राएँ भी डर गर्इं। यह बात तुरंत क्लास टीचर को बताई गई। टीचर क्लास रूम में पहुँचा। एक छात्रा ने शम्पा के चेहरे पर पानी के छींटे मारे और पंखे से हवा दी। कुछ देर बाद शम्पा होश में आई और खामोश बड़ी-बड़ी आँखें कर देखने लगी।

टीचर ने पूछा, “शम्पा तुम यूँ भूत-भूत क्यों चीख रही थी?”

एक बोतल से दो घूँट पानी पीने के बाद डरी-सहमी सी शम्पा ने धीमी आवाज में कहा, “स्कूल के शौचालय में भूत है! एक लड़के का भूत है। मैंने अपनी आँखों से भूत देखा। वो मुझे घूर रहा था!

देखो, भूत-प्रेत कुछ नहीं होता। तुम्हें वहम हुआ होगा। शायद तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है। तुम अभी घर जाकर आराम करो। टीचर ने शम्पा को घर भेज दिया। 

शम्पा को स्कूल से जल्दी घर लौटते देख माँ ने पूछा, “स्कूल की इतनी जल्दी छुट्टी हो गई?” जवाब दिए बिना ही शम्पा अपने कमरे में चली गई। काफी देर बाद भी वह कमरे से बाहर नहीं निकली, तो माँ उसके कमरे में गई। देखा शम्पा बिस्तर पर लेटी हुई थी।

बेटी के सिर पर प्यार भरे हाथ रखकर माँ ने पूछा, “क्या हुआ, तू इतनी थकी हुई क्यों लग रही है? तेरी तबियत अचानक बिगड़ी हुई क्यों लग रही है? स्कूल में कुछ गड़बड़ी हुई है क्या?”

इतने सारे सवालों का उत्तर देने के बजाय शम्पा माँ से लिपट कर रोने लगी। यह देख माँ ने पूछा, “अरे क्या हुआ, तू रो क्यों रही है?” आँखों के आँसू पोंछते हुए शम्पा ने कहा, “मैंने स्कूल के शौचालय में एक लड़के का भूत देखा। वो मुझे घूर रहा था और अपनी ओर बुला रहा था। मैं डर गई, मुझे अब भी डर लग रहा है।

यह सुनकर माँ बहुत घबरा गई। माँ ने कहा, “डरने की बात नहीं है बेटी। चल, तुझे ओझा के पास ले जाती हूँ। वह झाड़-फूँक कर देगा।

माँ बेटी को इलाज के लिए अस्पताल या किसी डॉक्टर पास ले जाने की बजाय वासुदेवपुर गाँव में रहने वाले ओझा दंपती शीतल बाग और शिखा बाग के घर पर ले गई। ओझा दंपति ने शम्पा की कुछ देर तक झाड़-फूँक की। इसके बाद शीतल ओझा ने कहा, “मुझे पहले से ही जिस बात का डर था वही हुआ। तुम्हारी किस्मत अच्छी थी। नहीं तो वह आज तुम्हारी जान ज़रूर ले लेता।

घबराई हुई शम्पा की माँ ने पूछा, “कौन मेरी बेटी की जान ले लेता? आपको किस बात का डर था?”

संजय सांतरा की अतृप्त आत्मा स्कूल में भटक रही है”, ओझा ने कहा, “संजय एक होनहार छात्र था। न जाने क्यों उसने आत्महत्या कर ली। उसका स्कूल से बहुत लगाव था। मरने के बाद भी उसकी आत्मा को मुक्ति नहीं मिली। नतीजा, संजय की अतृप्त आत्मा स्कूल में आज भी भटक रही है।

शीतल ने आगे और कहा, “अरूप मंडल नामक एक अन्य युवक की हादसे में मौत हो गई थी। संजय और अरूप इन दोनों की अतृप्त आत्माएँ स्कूल में अब भी भटक रही हैं। इन दोनों के अलावा भी और कई अतृप्त आत्माएँ भूत के रूप में स्कूल के आसपास, शौचालय आदि में दिखती हैं। ये भटकती आत्माएँ स्कूल की किसी न किसी छात्रा को अपने वश में लाने की पूरी कोशिश कर रही हैं। और यही हुआ है। एक अतृप्त आत्मा ने शम्पा को काबू कर लिया था। किन्तु किस्मत अच्छी थी कि वह तुम्हें क्षति नहीं पहुँचा पाया।

ओझा ने कहा, “मैंने शम्पा पर सवार भूत को भगा दिया है; लेकिन चिंता तो स्कूल के अन्य छात्रों को लेकर हो रही है, क्योंकि ये अतृप्त आत्माएँ आज नहीं तो कल किसी-न-किसी को अपना शिकार ज़रूर बनाएँगी।

शम्पा की माँ ने पूछा, “क्या इससे मुक्ति का कोई उपाय नहीं है?”

शिखा ओझा ने कहा, “ऐसी आत्माओं से मुक्त करने के लिए मैंने स्कूल में तंत्र-मंत्र व झाड़-फूँक करने की बात कही थी ; लेकिन किसी ने मेरी एक नहीं सुनी और आज इसका खामियाजा स्कूली छात्राओं को भुगतना पड़ रहा है।

मुझे डर है कि ये आत्माएँ किसी की जान न ले लें! यह कहते हुए ओझा ने माथे का पसीना पोंछा।

शम्पा की बार्इं बाँह पर लाल धागे में पिरोकर एक तावीज बाँधते हुए शिखा ओझा ने कहा, “यह तावीज अपने से दूर नहीं करना। भूत तुम्हारा अब कुछ भी बिगाड़ नहीं पाएगा।

शम्पा को कुछ जड़ी बूटियाँ दीं और ओझा दंपती ने सुझाव दिया, “इसे गंगा जल के साथ पीसकर पी लेना। तू ठीक हो जाएगी।

दूसरे दिन शम्पा स्कूल गई तो क्लास की सहपाठी पूछने लगी, “शम्पा, कल तुम्हें क्या हुआ था? तुम्हारी तबियत अभी ठीक है न?”

इस पर शम्पा ने बाग ओझा दंपती के यहाँ जाने की बात बताई और कहा, “स्कूल के शौचालय में भूतों का डेरा बना हुआ है। स्कूल में एक नहीं, कई अतृप्त आत्माएँ मँडरा रही हैं। ये भूत हमें शिकार बनाना चाहते हैं। एक भूत मुझ पर सवार हो गया था। ओझा ने झाड़-फूँक कर उसे भगा दिया।

कुछ ही देर में यह बात पूरे स्कूल में लगभग सभी छात्र-छात्राओं के कानों में पहुँच गई कि स्कूल के शौचालय में भूत है!

इसके बाद तो स्कूल में शौचालय जाने वाली छात्राएँ एक के बाद एक अजीबो-गरीब हरकत करने लगी, भूत-भूत कहकर छात्राएँ बेहोश होने लगीं। देखते ही देखते लगभग दो दर्जन छात्राओं की तबियत काफी बिगड़ गई। स्कूल में अफरा-तफरी फैल गई। शौचालय में भूत होने की अफवाह स्कूल के आसपास के इलाकों में भी जंगल की आग की तरह फैल गई। छात्राओं के परिजन भागते हुए स्कूल पहुँचने लगे। इलाज के लिए कई छात्राओं को स्थानीय अस्पताल में भर्ती भी करवाना पड़ा।

यह भुतही घटना पश्चिम बंगाल के बांकुड़ा ज़िले के कोतुलपुर थाना अंतर्गत मिर्ज़ापुर हाईस्कूल की है। स्कूल के कार्यवाहक प्रधान शिक्षक महानंद कुंडू ने कहा, “शौचालय से लौटने के बाद कई छात्राओं की तबियत अचानक बिगड़ गई। दस-बारह छात्राएँ बेहोश भी हो गर्इं। किसी के सीने में तो किसी के सिर में दर्द की भी शिकायत थी।

घटना की सूचना मिलने पर कोतुलपुर ग्रामीण अस्पताल से एक मेडिकल टीम स्कूल पहुँची। कोतुलपुर ब्लॉक स्वास्थ्य केंद्र के चिकित्सक पलाश दास और मनोरोग विशेषज्ञ पृथा मुखोपाध्याय भी स्कूल पर पहुँचे। भुतही अफवाह के चलते अस्वस्थ हुई छात्राओं का प्राथमिक उपचार किया गया जबकि चिंताजनक हालत में कई छात्राओं को इलाज के लिए कोतुलपुर ग्रामीण अस्पताल में भर्ती कराया गया।

मनोरोग विशेषज्ञ पृथा मुखोपाध्याय ने कहा, “ज़्यादातर छात्राएँ खाली पेट या थोड़ा-सा कुछ खाकर स्कूल आती हैं, जिसके कारण वे शारीरिक रूप से कमजोर होती हैं। ऐसी ही छात्राएँ भूत की अफवाह के कारण मानसिक रूप से अस्वस्थ हुर्इं।

इस स्कूल में छात्र-संख्या लगभग 800 है। अधिकतर छात्र-छात्राएँ स्कूल के आसपास रायबागिनी, झोड़ा मुराहाट, हजारपुकुर, जलजला, हरिहरचाका, हेयाबनी गाँवों के गरीब परिवारों से हैं। ज़्यादातर अपने घरों से सुबह चूड़ा व मूड़ी खाकर आते हैं और दोपहर को मध्याह्न भोजन योजना में मिलने वाले भोजन से किसी तरह से पेट भरा करते हैं। स्कूल में ऐसी कई छात्राएँ हैं, जो शारीरिक रूप से अस्वस्थ भी हैं, जिनका विभिन्न अस्पतालों में नियमित रूप से इलाज भी चल रहा है।

मिर्ज़ापुर हाईस्कूल के शौचालय में भूत की अफवाह के चलते इलाके में भुतहा आतंक सामूहिक हिस्टीरिया की तरह फैल गया। अभिभावकों ने अपने बच्चों को स्कूल जाने से रोक दिया। स्कूल में पढ़ाई-लिखाई खटाई में पड़ गई। शाम ढलने के बाद स्कूल से अजीबो-गरीब डरावनी आवाज़ आने की भी बात सुनाई पड़ने लगी। 

आसपास गाँव में रहने वाले लोग कहने लगे, “जब ओझा ने पहले ही कहा था कि स्कूल में भूत है, अतृप्त आत्माएँ भटक रही हैं, तब स्कूल में तंत्र-मंत्र या झाड़-फूँक करने में क्या दिक्कत है। अगर वक्त रहते अतृप्त आत्माओं को स्कूल से मुक्त नहीं किया गया तो बड़ी आफत आने का डर है।

भूत की अफवाह से उत्पन्न हालात से स्कूल प्रशासन चिंता में पड़ गया। इस समस्या से शीघ्र स्कूल को मुक्त करने के लिए स्कूल के कार्यवाहक प्रधान शिक्षक महानंद कुंडू और स्थानीय प्रशासन ने शिक्षकों और प्रशासनिक अधिकारियों के साथ आपात बैठक की। बैठक में काफी विचार-विमर्श के बाद फैसला लिया गया कि स्कूल में पैदा हुई भुतही समस्या के समाधान के लिए भारतीय विज्ञान व युक्तिवादी समिति के कार्यकर्ताओं को स्कूल में बुलाया जाए। तब स्कूल की ओर से युक्तिवादी समिति के अध्यक्ष प्रबीर घोष से संपर्क किया गया। एक पत्रकार के रूप में मैंने प्रबीर जी से संपर्क किया और उन्हें स्कूल में फैली भुतही अफवाह के समाधान को लेकर विस्तार से बात की। प्रबीर जी ने कहा, “युक्तिवादी समिति की बांकुड़ा जिला शाखा के रामकृष्ण चंद्र समेत कई कार्यकर्ताओं को मिर्ज़ापुर हाईस्कूल का दौरा करने का निर्देश दिया गया है।

बांकुड़ा से युक्तिवादी समिति की ओर से एक टीम हाईस्कूल पहुँची। टीम में शामिल कार्यकर्ताओं ने स्कूल के शौचालय समेत पूरे स्कूल का निरीक्षण किया। साथ ही भूत देखने वाली छात्राओं, उनके अभिभावकों, स्कूल के शिक्षकों और आसपास गाँव के लोगों से बातें की। इसके बाद समिति की ओर से स्कूल परिसर में एक मंच बनाकर अंधविश्वास विरोधी अलौकिक नहीं, लौकिक कार्यक्रम का आयोजन किया गया।

कार्यक्रम में स्कूल के शिक्षक, कोतुलपुर थाना प्रभारी, कोतुलपुर के बीडीओ गौतम बाग, मिर्ज़ापुर ग्राम पंचायत की प्रधान नमिता पाल और सर्व शिक्षा मिशन के अधिकारी, स्कूली छात्र-छात्राएँ और आसपास के गांवों के अनेक लोग भी उपस्थित हुए।

कार्यक्रम मंच पर एक टेबल पर दूध से भरा हुआ काँच का एक गिलास और एक इंसानी खोपड़ी रखते हुए एक तर्कवादी कार्यकर्ता ने कहा, “हमें सुनने को मिला है कि यह स्कूल भूतों का डेरा बन गया है। यदि यहाँ वाकई में भूत है तो हम किसी एक भूत को इस मंच पर बुलाकर उसे दूध पिलाएँगे। अपने बाएँ हाथ में इंसानी खोपड़ी को लेकर कुछ देर तक तंत्र-मंत्रनुमा कोई मंत्र पढ़ा। इसके बाद दूध से भरा हुआ गिलास खोपड़ी के सामने लाया गया। आश्चर्य! गिलास का दूध धीरे-धीरे कम होता गया। देखने से ऐसा लगा कि खोपड़ी में घुसे भूत ने दूध पी लिया हो!

इसके बाद एक कार्यकर्ता ने कपूर का एक छोटा सा टुकड़ा टेबल पर रखा। उसे माचिस की एक तीली से जला दिया। फिर जलते हुए टुकड़े को अपनी हथेली पर रख लिया। इसके बाद उसे अपनी जीभ पर रखा और आग को खा गया। एक कार्यकर्ता ने मुँह से एक घड़ा उठाकर दिखाया। इसी क्रम में बिना माचिस के ही एक यज्ञ कुंड में आग लगा कर दिखाई गई।

एक के बाद एक चमत्कारी कारनामे देख उपस्थित छात्र-छात्राएँ और लोग तालियाँ बजाने लगे। दर्शकों से पूछा गया, “आप में से कोई यह बता सकता है कि गिलास का दूध कौन पी गया?” भीड़ में बैठे एक छात्र ने कहा, “शौचालय में छिपा हुआ भूत आकर दूध पी गया!

एक छात्रा ने कहा, “शायद आप लोग कोई जादूगर हो। आप लोगों के पास तंत्र-मंत्र या भूत-प्रेत की शक्ति है।

इस पर चंद्र ने कहा, “हम तर्कवादी हैं। हम तो चमत्कारी शक्ति का दावा करने वालों की पोल खोला करते हैं। हमने ये कारनामे सिर्फ जादुई तरकीब से दिखाए हैं। हमारे पास कोई तंत्र-मंत्र या भूत-प्रेत की शक्ति नहीं हैं। भूत-प्रेत सिर्फ, और सिर्फ, कल्पना और अंधविश्वास हैं।

कार्यक्रम देख रही एक छात्रा ने कहा, “स्कूल के शौचालय में भूत है। शौचालय में उस भूत को देखकर सबसे पहले शम्पा और फिर कई छात्राएँ अस्वस्थ हो गई थीं। गाँव के ओझा दंपती ने भी स्कूल में भूत होने की बात कही है।

इस पर स्कूल के शौचालय में भूत देखने वाली छात्रा शम्पा को कार्यक्रम के मंच पर बुलाकर तर्कवादियों ने पूछा, “आपने अपनी आँखों से भूत देखा था? क्या आपको लगता है कि वाकई में भूत-प्रेत होते हैं?”

छात्रा ने कहा, “हाँ, मैंने अपनी आँखों से भूत को देखा था।

तब तो उस भूत की स्मार्ट फोन से फोटो खींची जा सकती है?”

यह सुन वह इधर-उधर देखने लगी और अन्य छात्राएँ मुस्कराने लगीं। तर्कवादी ने समझाया, “धार्मिक मान्यताओं के अनुसार आत्मा का अर्थ चिन्ता, चेतना, चैतन्य या मन है। आज आधुनिक विज्ञान ने साबित किया है कि मस्तिष्क की स्नायु कोशिकाओं की क्रिया-प्रतिक्रिया का फल ही मन या चिंता है। मस्तिष्क की कोशिकाओं के बिना चिंता, मन या आत्मा का अस्तित्व असंभव है।

शरीर की मौत के साथ ही मस्तिष्क की कोशिकाओं का भी अंत हो जाता है। ऐसे में इन कोशिकाओं की क्रिया-प्रतिक्रिया भी बंद हो जाती है। यानी मन रूपी आत्मा की भी मृत्यु हो जाती है। कुल मिलाकर शरीर की तरह आत्मा नष्ट हो जाती है। इसलिए अतृप्त आत्माओं या भूतप्रेत का वजूद ही नहीं होता है।

एक छात्रा ने पूछा, “यदि भूत-प्रेत नहीं है, तो शम्पा या अन्य छात्राओं को भूत क्यों दिखाई दिया?”

जवाब में तर्कवादी ने कहा, “हमारी दादी-नानी हमें बचपन में भूत-प्रेत की कहानियाँ सुनाया करती हैं। ये कहानियाँ हमारे बचपन के कच्चे मन-मस्तिष्क में इस कदर बैठ जाती हैं कि जब हम पढ़-लिख कर बड़े हो जाते हैं, तो भी बचपन में सुनी हुर्इं भूत-प्रेत की काल्पनिक कहानियाँ सच लगने लगती हैं। इसके अलावा, आजकल विभिन्न टीवी चैनलों पर भूत-प्रेत पर आधारित धारावाहिकों का प्रसारण किया जाता है। इन धारावाहिकों का बच्चों के मन-मस्तिष्क पर अंधविश्वासपूर्ण प्रभाव पड़ता है।

चंद्र ने कहा, “भूत-प्रेत पर विश्वास करने के कारण शम्पा जब शौचालय में गई, तो उसे भूत जैसी किसी चीज का भ्रम हुआ। भ्रम के कारण उसे भूत जैसा कुछ दिखाई दिया होगा; लेकिन जब उसे ओझा के पास ले जाया गया, तो ओझा ने भूत होने का दावा किया और इलाज के नाम पर झाड़-फूँक की। ओझा के कहने पर शम्पा ने जब स्कूल के शौचालय में भूत होने की बात कही, तो वह अफवाह की तरह अन्य छात्राओं में फैल गई। इसके बाद से जब भी कोई छात्रा शौचालय से लौटती है, तो वह भूत-भूत कहकर बेहोश हो जाती है। नतीजा, स्कूल में भूत होने की अफवाह सामूहिक हिस्टीरिया की तरह फैल गई हिस्टीरिया का काउंसलिंग द्वारा इलाज संभव है। भूत-प्रेत देखना सिर्फ व्यक्तिगत अनुभव या इंद्रिय जनित भ्रम के अलावा कुछ नहीं है। जब हमारी इंद्रियाँ भ्रम की अवस्था में होती है, तब ऐसी घटनाएँ व्यक्ति महसूस करता है। भूत शौचालय में नहीं, बल्कि मन में अंधविशावास के रूप में बसा हुआ है।

तर्कवादी ने आगे कहा, “स्कूल में भूत की अफवाह के कारण अस्वस्थ हुई अधिकतर छात्राएँ ग्रामीण इलाकों की हैं। ये छात्राएँ ज़्यादातर गरीब, किसान परिवार से हैं। कुछ लड़कियाँ शारीरिक कमज़ोरी, कुपोषण की शिकार भी होती हैं। उनमें स्वास्थ्य आदि की जागरूकता की भी कमी होती है। ये लोग भूत-प्रेत, झाड़-फूँक, ओझा आदि पर विश्वास करते हैं। ऐसी स्थिति में जब कोई लड़की ऐसी कोई हरकत करती है, जिसका वैज्ञानिक कारण पता नहीं होने के कारण उनके माता-पिता उन्हें इलाज के लिए ओझा के पास ले जाते हैं। मानसिक तनाव, दिमागी दबाव आदि कारणों से लोग अकसर मानसिक बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं, जिन्हें वे भूत-प्रेत अथवा जादू-टोने का असर समझ बैठते हैं। मनोरोग को भूत-प्रेत का साया मानकर झाड़-फूँक के चक्कर में पड़ जाते हैं। मनोरोग भी अन्य बीमारियों की तरह ही होता है, जिसका उचित काउंसलिंग और दवा के ज़रिए आसानी से इलाज किया जा सकता है।

युक्तिवादी समिति के कार्यकर्ताओं ने कहा, “अब यदि कोई दावा करता है कि स्कूल में भूत है, तो भूत दिखाने वालों को 50 लाख रुपये की चुनौती देता हूँ।

अंधविश्वास से मुक्त होने के लिए वैज्ञानिक सोच को अपनाने की सलाह देते हुए तर्कवादी कार्यकताओं ने कहा, “किसी भी बीमारी का इलाज सरकारी अस्पताल में, डॉक्टर के हाथों करवाना चाहिए। यदि किसी पर भूत बाधा होने जैसी समस्या हो तो ओझा के हाथों झाड़-फूँक करवाने की बजाय उसे मनोचिकित्सक के पास ले जाएँ। मनोचिकित्सा से आप पूर्ण रूप से स्वस्थ हो जाएँगे। आगे यह भी बताया गया, “भारतीय कानून में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि तावीज, कवच, ग्रह रत्न, तंत्र-मंत्र, झाड़-फूँक, चमत्कार, दैवी औषधि आदि द्वारा किसी भी समस्या या बीमारी से छुटकारा दिलवाने का दावा तक करना जुर्म है। तंत्र-मंत्र, चमत्कार के नाम पर आम जनता को लूटने वाले ओझा, तांत्रिक जैसे पाखंडियों को कानून की मदद से जेल की हवा तक खिलाई जा सकती है। ड्रग एंड कॉस्मेटिक एक्ट, 1940 के तहत किसी भी बीमारी से छुटकारा दिलवाने के नाम पर दिए जाने वाले तावीज, कवच, झाड़-फूँक, मंत्र युक्त जल, तंत्र-मंत्र आदि को औषधि के रूप में स्वीकार होगा। बिना लाइसेंस के तावीज, कवच इत्यादि द्वारा बीमारी से छुटकारा नहीं मिलने पर या मरीज़ की मृत्यु होने पर भारतीय दंड संहिता की धारा 320 के तहत दोषी को सज़ा होगी। इस कानून का उल्लंघन करने वाले को 10 वर्ष से लेकर आजीवन कारावास और 10 लाख रुपये तक का जुर्माना हो सकता है। इसके अलावा, ड्रग्स एंड मैजिक रेमेडीज़ (आबजक्शनेबल एडवर्टाइज़मेंट) एक्ट, 1954 के तहत तंत्र-मंत्र, गंडे, तावीज आदि तरीकों से चमत्कारिक रूप से बीमारियों के उपचार या निदान आदि दण्डनीय अपराध हैं।

अंधविश्वास विरोधी कार्यक्रम देखने के बाद छात्राओं ने कहा, “ओझा दंपती के कहने पर हमारे में मन में भूत-प्रेत को लेकर जो डर पैदा हुआ था वह दूर हो गया है। अब आगे यदि ऐसी भुतही घटना होती है तो हम उस पर ध्यान ही नहीं देंगे। यदि कोई छात्र या छात्रा भूत के नाम पर अस्वस्थ हो जाता है तो उसे इलाज के लिए डॉक्टर के पास ले जाएँगे। भूत-प्रेत के नाम पर किसी भी अफवाह पर अब ध्यान नहीं देंगे।

बीडीओ गौतम बाग ने कहा, “विज्ञान के इस युग में आज जहाँ लड़कियाँ भी चाँद पर पहुँच रही हैं, शर्म की बात यह है कि ऐसी स्थिति में एक स्कूल में भुतही अफवाह को दूर करने के लिए अंधविश्वास विरोधी कार्यक्रम भी करना पड़ रहा है। आप सभी को भूत-प्रेत जैसी किसी भी अफवाह पर कान नहीं देना चाहिए। यदि ऐसी अफवाह फैलती है तो उसके पीछे तर्कपूर्ण कारण का पता लगाना होगा आप लोगों को। तभी जाकर समस्या का समाधान करना संभव होगा।

प्रधान शिक्षक महानंद कुंडू ने कहा, “युक्तिवादी समिति के कार्यकर्ताओं ने स्कूल में कार्यक्रम कर छात्राओं के मन से भूत का डर दूर किया है, इसके लिए उन्हें धन्यवाद देना चाहूँगा।

बता दें, तर्कवादी कार्यकर्ताओं ने स्कूल पहुँचने से पहले जब ओझा बाग दंपती से मुलाकात की थी तो ओझा ने बल देते हुए कहा था कि उसने ही छात्रा पर से भूत भगाने के लिए झाड़-फूँक की। स्कूल में भुतही अफवाह फैलाने के पीछे ओझा का धँधा जुड़ा हुआ था। ओझा चाहता था कि स्कूल में यदि भूत की अफवाह के कारण छात्र अस्वस्थ हो जाते हैं,

तो उन्हें इलाज के लिए उसके पास ले जाया जाएगा। उन्हें झाड़-फूँक करने और ताबीज़-कवच देने के बदले में उनके परिजनों से पैसा भी लूटा जाएगा। लेकिन युक्तिवादी समिति के कार्यकर्ताओं ने स्कूल परिसर में अंधविश्वास विरोधी कार्यक्रम कर ओझा दंपती की सारी पोल खोल कर रख दी।

युक्तिवादी समिति की ओर से प्रधान शिक्षक महानंद कुंडू को सुझाव दिया गया, “ऐसी डरावनी अफवाह फैलाने वाले ओझा और अन्य लोगों के खिलाफ थाने में शिकायत दर्ज करें।


तर्कवादियों के सुझाव के बाद स्कूल प्रबंधन ने जिला प्रशासन को ओझा द्वारा फैलाई गई भूत की अफवाह के बारे में अवगत कराया गया और कोतुलपुर थाने में ओझा शिखा बाग और शीतल बाग के खिलाफ लिखित शिकायत दर्ज की गई। पुलिस ने आरोपी ओझा दंपती को उनके घर से गिरफ्तार कर लिया। उन्हें विष्णुपुर महकमा अदालत में पेश किया गया। न्यायाधीश ने उन्हें हिरासत में भेजने का निर्देश दे दिया। अभियुक्त ओझा दंपती के खिलाफ धारा 420 के तहत धोखाधड़ी और ड्रग्स एंड मैजिक रेमेडीज़ (आबजेक्शनेबल एडवर्टाइज़मेंट) एक्ट
, 1954 की धारा 7 के तहत मामला दायर किया गया। पुलिस को जाँच में पता चला कि स्कूल में भूत होने की अफवाह फैलाने के पीछे ओझा बाग दम्पती ही मुख्य आरोप है।

प्रधान शिक्षक महानंद कुंडू ने बताया, “स्कूल के शौचालय में भूत की अफवाह फैलाने वाले ओझा दंपती की गिरफ्तारी के बाद स्कूल में शिक्षण कार्य सामान्य हो गया है। भूत के डर से मुक्त होकर छात्र-छात्राओं का स्कूल में आना भी शुरू हो गया है।(स्रोत फीचर्स)

कविताः मुस्कुराती हुई स्त्री


-रश्मि विभा त्रिपाठी

मैं मुस्कराना चाहती हूँ

धरती के उस पाँचवें छोर पर

जहाँ मेरे बिखरे स्मित की

चमक

चहक कर चाँद चुने

रात अथवा दिन

कोई धारणा बनाए बिन

मेरा मन्तव्य

गौर से सूरज सुने

मेरी हँसी का दूसरा अर्थ

निकाले न व्यर्थ

स्त्री का मधु हास

जग में अनर्थ

 

इस ग्रह पर

एक अजीब पूर्वाग्रह है

अकारण स्त्री का हँसना

है वर्जित

होगी परिवर्धित

कहलाएगी बुरी

स्त्री की धुरी

शब्दहीन

वरन

बनेगी स्थिति दीन

होगी हँसी की पात्र

स्त्री करे मात्र

मान्यताओं की

अनुपालना

रहे मौन

कब कहाँ कौन

इस पर न दे ध्यान

बन जाए गान्धारी

पलकों पर बाँधे पट्टी

बंद कर ले कान

तभी मिलता सम्मान

 

दुनिया के अजायबघर में

दिमाग की दीवार पे टँगा

देखती आ रही हूँ

मैं सदियों से

एक ओछा

मनोवृत्ति चित्र

मुस्कराती हुई स्त्री का

मनोयोग से लोग माप रहे हैं चरित्र ।

यात्रा संस्मरणः कला की अमूल्य निधियाँ : एलोरा अजन्ता

दक्षिण-प्रवास के कुछ अनुभव

-यशपाल जैन

दक्षिण में पग-पग पर कला की अमूल्य निधियाँ बिखरी पड़ी हैं। लेकिन जिनकी ख्याति भारत में
ही नहीं, सारे संसार के इतिहास में है वे हैं एलोरा और अजन्ता की गुफाएँ। निस्संदेह, उन्होंने चित्रकला एवं स्थापत्य कला के इतिहास में एक नए युग की सृष्टि की है । वहाँ जाने के लिए दो मार्ग हैं; पहला जलगाँव और दूसरा औरंगाबाद होकर । हम लोग औरंगाबाद होकर सबसे पहले एलोरा गए । एलोरा जाते हुए रास्ते में सर्वप्रथम दौलताबाद का सुप्रसिद्ध किला आया । इस दुर्ग का अपना महत्त्व है और एलोरा जाने वाला कोई भी यात्री बिना उसे देखे आगे की यात्रा नहीं करता। एक इतिहासकार का कहना है कि इस किले की नींव यादव-वंश के अन्तिम शासक राजा रामदेव ने बारहवीं शताब्दी के अन्त में डाली थी, लेकिन उसकी स्थापत्यकला को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि वह बारहवीं शती से बहुत पहले का है। अनुमान किया जाता है कि उसका निर्माण भी एलोरा की गुफाओं के समय में ही हुआ था। अलाउद्दीन खिलजी ने 1294 में उसपर अपना आधिपत्य जमा लिया और तबसे वह स्थान
दक्षिण भारत में युद्धबंदी का एक प्रमुख केन्द्र बन गया। मुहम्मद-बिन-तुगलक ने उसे अपनी राजधानी बनाने की कल्पना की और उसने देवगिरि से बदल कर उसका नाम दौलताबाद' कर दिया। उसके प्रयोग को इतिहास का प्रत्येक पाठक जानता है। उसके पश्चात् इस दुर्ग ने कई वंशों का उत्थान-पतन देखा । बहमनी वंश, अहमदनगर के निजामशाही बादशाह तथा मुगल, इन सबके हाथों में
होते-होते अन्त में वह हैदराबाद के प्रथम निजाम आसफजाह के कब्जे में आ गया।

यह किला एक चट्टान के ऊपर बना हुआ है और उसकी ऊँचाई लगभग 600 फुट है । दौलताबाद का पुराना नगर, जो अब खंडहर हो गया है, इसी चट्टान के पूर्व और दक्षिण में बसा था। नगर की परिधि ढाई मील की थी। इस किले में जाने के लिए चट्टान को काटकर रास्ता बनाया गया है और किले के चारों ओर करीब 100 फुट गहरी खाई है, जो अब सुखी पड़ी है, पर किसी समय में निरन्तर पानी से भरी रहती थी। इस खाई को पार करने के लिए किले के सिंहद्वार के निकट एक पुल है, जिसे खतरे की घड़ी में हटाकर प्रवेश का मार्ग रोक दिया जाता था। खाई इस प्रकार बनी है कि किसी भी साधन से, कोई भी शक्ति उसे बिना पुल के पार नहीं कर सकती।

किले के अन्दर महलों, उद्यानों, मन्दिरों और मस्जिदों के भग्नावशेष आज भी उनकी विशालता का अनुमान कराते हैं। सबसे आकर्षक वस्तु है चांद-मीनार, जिसकी ऊँचाई 210 फुट है और गोलाई 70 फुट । ऊपर जाने के लिए 250 सीढ़ियाँ है । इसका निर्माण बहमनी वंश के दसवें बादशाह अलाउद्दीन अहमदशाह ने सन् 1445 में कराया था। नीचे खड़े होकर जब मीनार की चोटी पर दृष्टि जाती
है तो रोमांच हो आता है। ऐसा जान पड़ता है, मानों वह अभी-अभी बन कर तैयार हुई हो।
इस मीनार के अतिरिक्त जिस चीज की ओर यात्रियों का ध्यान सहज ही आकृष्ट हो जाता है, वह है चीनी महल । इसपर चीनी कला की छाप है। इसमें अन्तिम कुतुबशाही बादशाह अबुलहसन को औरंगजेब ने दस वर्ष तक बन्दी के रूप में रक्खा था । निजामशाही महल की भी कभी बड़ी शान रही होगी। लार्ड लिनलिथगो जब वहाँ गए थे, तब इस महल की मरम्मत कराई गई थी।
किले को देखकर हम लोग एलोरा की ओर बढ़े । औरंगाबाद से छ: मील आ गये थे। दस मील और चलकर एलोरा पहुँचे । रास्ते के दृश्य सामान्य थे और कहीं-कहीं तो ऐसा जान पड़ता था, मानों उत्तर भारत के किसी मैदानी क्षेत्र में घूम रहे हों । एलोरा पहुँचे तब भी स्थान की विशिष्टता ने मन पर कोई खास असर नहीं डाला । लेकिन जब गुफाएँ देखी तो आँखें खुल गई । एक के बाद एक वहाँ
34 गुफाएँ हैं। पहली बारह बौद्ध, बीच की सत्रह हिन्दू और अन्तिम पाँच जैन । देख कर आश्चर्य होता है कि तीन धर्मों की अमूल्य कला-कृतियाँ एक ही स्थान पर और एक ही साथ कैसे बनी और सहन की गई होंगी? इतिहासकारों का कहना है कि उनका निर्माण तीसरी से लेकर नवीं शताब्दी के बीच हुआ है।

एलोरा की यों तो सभी गुफाएँ दर्शनीय है। लेकिन सबसे अधिक भव्य और आश्चर्यजनक गुफा है सोलहवीं
, जो कैलास के नाम से प्रसिद्ध है । एक ही चट्टान को काट कर इतनी सर्वांग सुन्दर कृतियों का निर्माण किया गया है कि देख कर दर्शक दाँतों तले उँगली दबा लेता है। उसके
चार द्वार हैं, खिड़कियाँ हैं, ऊपर की मंजिल पर जाने के लिए सीढ़ियाँ हैं और पालिश किये हुए कमरे हैं । स्तंभों की सुन्दर पंक्तियाँ है। हिंदुओं की बयालीस विशाल मूर्तियाँ हैं। सभा-मंडप के सामने कैलास है। समझ में नहीं आता कि ऐसे काल में, जबकि आधुनिक यंत्र नहीं थे, किस प्रकार पहाड़ों को काट कर इनका निर्माण किया गया होगा। अनुमानतः इसका निर्माण आठवीं शती के उत्तरार्द्ध में हुआ था। इस गुफा में इतनी बारीक और सुन्दर खुदाई हो रही है कि उसे देखकर आगे बढ़ने को जी नहीं होता। उसके निकट चौदहवीं और पंद्रहवीं गुफाओं में दशावतार की मूर्तियाँ है । पन्द्रहवीं गुफा में सीता की नहानी है, बीसवीं गुफा में इन्द्र-सभा के दृश्य देखते ही बनते हैं । दसवीं गुफा में विश्वकर्मा की मूर्ति है । मूर्ति का जितना आकर्षण है, उससे कहीं अधिक इस गुफा के कलापूर्ण स्तंभों और छत का है । नवी गुफा में काली की सुन्दर मूर्ति है । जिसके दाईं ओर गणेश और बाईं ओर दो अन्य देवियाँ हैं। बारहवीं गुफा की ताण्डव नृत्य करती हुई शिव-मूत्ति और चौदहवी गुफा की मोदक खाती हुई गणेश की प्रतिमा बड़ी ही सजीव और मनोहारी है।
बौद्ध गुफाओं में बुद्ध भगवान की कई मूर्तियाँ अपनी विशालता और भव्यता के कारण दर्शकों को मोह लेती हैं। कुछ गुफाएँ दो मंजिला है। जैन गुफाओं का अपना महत्त्व है और उनकी स्थापत्य कला में सुघड़ता के साथ-साथ सुन्दरता भी है। उनमें कई मूर्तियाँ ऐसी हैं
, जिनके निर्माण करने में निश्चय ही बड़े परिश्रम और धीरज की आवश्यकता हुई होगी। चौंतीसवीं गुफा में पार्श्वनाथ की कलापूर्ण मूर्ति है । उसके उत्तर में  गोमट्ट स्वामी की और अन्य गुफाओं में महावीर स्वामी तथा शांतिनाथ की मूर्तियाँ हैं।

हम लोगों ने बड़े ध्यान से सारी गुफाओं को देखा, लेकिन कला की वहाँ इतनी विपुल सामग्री थी कि देख कर न बार-बार आश्चर्य होता था उन कलाविदों पर, जिन्होंने बड़ी ही सूझ-बूझ से अपने जीवन के अत्यंत उदात्त क्षणों में इन चिरस्थायी कलाकृतियों का निर्माण किया था। आज कहीं भी इन कलाकारों के नाम का उल्लेख मिलता, लेकिन जबतक ये गुफाएँ है, तबतक उनकी कीर्ति -पताका सदा फहराती रहेगी।

मन बार-बार दौड़ कर सोलहवीं गुफा में जाता था। कैलास का भार-वहन करती हुई हाथियों और सिंहों की पंक्तियाँ आँखों से ओझल नहीं होती थीं। शिव, पार्वती, विष्णु, लक्ष्मी, नन्दी, गणेश, महिषासुर, द्वारपाल आदि की मूर्तियाँ भुलाये नहीं भूलती थीं। और पैतालीस फुट ऊँचा ध्वजदंड (त्रिशूल को मिला कर 49 फुट) ऐसा लगता था, मानों प्रहरी की भांति खड़ा हो । रामायण और महाभारत के कुछ दृश्य, पार्वती और शिव की भांति-भांति की मुद्राएँ, ये सब इस गुफा को अद्भुत आकर्षण प्रदान करती हैं। यदि इस स्थान पर केवल यही एक गुफा होती तो भी दुनिया भर के लोग उसके दर्शन के लिए आते।

हम लोगों ने पूरा दिन इन गुफाओं के देखने में व्यतीत किया और जब दिन छिपे वहाँ से रवाना हुए, तब ऐसा जान पड़ता था, मानों मन पर जाने कितनी स्मृतियों का भार लदा हुआ है।

 रात को लौट कर औरंगाबाद रहे और अगले दिन बड़े तड़के अजन्ता की गुफाएँ देखने के लिए रवाना हुए । अजन्ता जलगाँव से 35 मील और औरंगाबाद से 55 मील है। अधिकांश मार्ग सामान्य है, लेकिन अजन्ता गाँव के निकट पहुँच कर यात्री अनुभव करता है, जैसे किसी पार्वत्य प्रदेश में आ गया हो। ऊँची-नीची सड़क और हरे-भरे वृक्षों को पार करता हुआ अचानक वह बाघोरा नदी के तटवर्ती मैदान में पहुँच जाता है, जहाँ लगभग 250 फुट की ऊँचाई पर अजन्ता की ऐतिहासिक गुफाएँ अवस्थित है। कुल मिलाकर 29 गुफाएँ हैं जिनमें से पाँच चैत्य है

और शेष विहार। इन सबका संबंध बौद्ध-धर्म से है। भारतवर्ष में अजन्ता को छोड़ कर कोई भी ऐसी कलाकृति नहीं है, जिसमें पुरातत्त्व, स्थापत्य कला और चित्रकारी का इतना सुन्दर समन्वय हुआ हो। पहली शताब्दी से लेकर सातवीं शताब्दी के मध्य तक बौद्ध कला की प्रत्येक अवस्था का प्रतिनिधित्त्व यहाँ पर हुआ है। लगभग सभी गुफाओं की दीवारें, छतें और खंभे, सुन्दर चित्रकारी से चित्रित है, लेकिन क्रूर काल ने अब केवल 13 गुफाओं में उनके अवशिष्ट रहने दिये हैं। पहली, दूसरी, नवीं, दसवीं, सोलहवीं और सत्रहवीं गुफाओं की चित्रकारी आज भी दर्शक को मुग्ध कर देती है। सारी गुफाओं के दृश्य बोधिसत्त्व के विभिन्न जन्मों से संबंधित है और जातकों से लिये गए हैं। उनमें मानव से लेकर पशु-पक्षी और सर्पादि तक के चित्र समाविष्ट है। अजन्ता की कला बौद्धों की भावनाओं और आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति है, जिसमें उल्लास ही उल्लास है। यहाँ की गुफाएँ छिपी पड़ी थीं। ऐसा लगता था जैसे कोई सामान्य पर्वत हो। एक बार निज़ाम राज्य का कोई अंग्रेज़ अधिकारी यहाँ शिकार खेलने आया । नदी के उस किनारे जब वह शिकार की खोज में घूम रहा था, तो उसे अचानक किसी इमारत का कुछ अंश दीख पड़ा। उसे संदेह हुआ। उसने बारीकी से देखा तो उसे लगा कि हो न हो, यहाँ कुछ है । उसने बाद में खुदाई कराई तो ये गुफाएँ निकलीं।

दूसरी गुफा का एक दृश्य तो आज भी मन पर ज्यों का त्यों अंकित है। राज दरबार में नर्तकियों का नृत्य हो रहा है। राजा अपने आसन पर विराजमान है। इतने में कोई महात्मा आते हैं और नर्तकियों को ललकारते हैं। वे भयभीत होकर भागती हैं। राजा की आँखें क्रोध से जल उठती हैं। एक नर्तकी रह जाती है और राजा की क्रोध भरी मुद्रा को देख कर उसके पैरों पर गिर पड़ती है। इस सारे चित्र को चित्रित करने में कलाविद ने सचमुच कमाल कर दिखाया है। राजा के चरणों में माथा टेके नर्तकी की पीठ और कमर की धनुषाकार आकृति और झीने वस्त्र कला के अद्भुत नमूने हैं।

पहली गुफा में यशोधरा का चित्र बड़ा ही आकर्षक है। सत्रहवीं गुफा में एक माँ और बेटे का चित्र बड़ा सजीव है । उसी गुफा में शृंगार करती एक महिला का चित्र ऐसा जान पड़ता है, मानों अभी बोल पड़ेगा। उन्नीसवीं को बाहर की कारीगरी देखने योग्य है। अन्दर भगवान बुद्ध की एक विशालकाय मूर्ति है। चौबीसवी गुफा कारीगरी की दृष्टि से अद्वितीय है। पत्थरों पर खुदाई का इतना बारीक काम न जाने किस देवी प्रेरणा से कलाविदों ने किया होगा। मजे की बात तो यह है कि अजन्ता-एलोरा की गुफाओं का निर्माण पत्थरों को काट-काट कर किया गया है। क्या मजाल कि कोई पत्थर कहीं से टूट जाए और जोड़ लगाना पड़े। या एक ही गुफा के स्तंभों में कहीं बाल भर का भी अन्तर हो। सूक्ष्म-से-सूक्ष्म कारीगरी को देखकर कलाविदों की कार्य-कुशलता पर आश्चर्य होता है।

यहाँ की चित्रकारी में जिन रंगों का प्रयोग हुआ है, उनमें एक भी रंग बाहर से नहीं आया था। वहीं के वृक्षों की पत्तियों, वृक्षों की छालों, पत्थरों, तथा मिट्टी आदि के मेल से विभिन्न रंग तैयार किये गए थे और उनके द्वारा चित्रों में ऐसा मेल साधा गया कि कहीं भी यह नहीं मालूम होता कि कोई भी रंग बेतुका और बेमेल है। छतों और खंभों की चित्रकारी को तो देख कर ऐसा लगता है, मानों वह कल ही तैयार हुए हों।

यहाँ पर भी हम लोगों ने एक पूरा दिन व्यतीत किया। औरंगाबाद में जनरेटर लगाकर यहाँ के लिए बिजली की विशेष व्यवस्था की गई है । हम लोगों ने सारी गुफाएँ बिजली के प्रकाश में देखीं। प्रकाश का एक और भी पुराना ढंग काम में लाया जाता है। वह यह कि बाहर एक बड़ा शीशा लगाकर सूर्य का प्रतिबिम्ब अन्दर एक सफेद पर्दे पर पहुँचाया जाता है। जिससे इतना प्रकाश हो जाता है कि बारीक से बारीक आकृति भी सहज ही देखी जा सके। वहाँ के अधिकारियों ने बताया कि इसी प्रकाश में कलाविदों ने इन गुफाओं की चित्रकारी की थी।

एलोरा की भांति यहाँ पर भी किसी भी कलाकार के नाम का उल्लेख नहीं है । नाम के प्रति इतनी उदासीनता वास्तव में उनकी महानता की द्योतक है। हमने बार-बार उन अज्ञात पर अमर कलाकारों को प्रणाम किया और उन महान गुफाओं की अमिट छाप मन पर लेकर अनिच्छा पूर्वक विदा हुए। (मासिक पत्रिका- जीवन साहित्य - दिसम्बर 1955 से साभार)

लघुकथाः रेलगाड़ी की खिड़की

-अंजू खरबंदा 

आज राकेश बहुत खुश था, होशियारपुर से शादी का बुलावा जो आया था । जिन्दगी की आपा-धापी के बीच अरसे बाद सभी से मिलना होगा । शान-ए-पंजाब से जाना तय हुआ । सर्दी हल्की हल्की दस्तक देने लगी थी, इसलिये टिकट बुक करवाते हुए उसने सोचा चलो इस बार ए.सी. की बजाय जनरल कोच से सफ़र का आनन्द लिया जाए । 

पहले बीवी बच्चे जनरल से जाने पर कुछ नाराज हुए पर फिर थोड़ी ना-नुकुर के बाद मान गए । दिल्ली से लगभग आठ घंटे का सफ़र । सीट बुक थी तो ज्यादा परेशानी नहीं हुई । बच्चों ने झट खिड़की वाली सीट झपट ली । सारा सामान सेट कर पति-पत्नी बातों में मशगूल हो गए ।

दीदी! जम्मू की शॉल ले लो! बहुत बढ़िया है !

रंग-बिरंगी शॉलों का भारी गट्ठर उठाए एक साँवली-सलोनी कजरारी आँखों वाली युवती पत्नी को इसरार करने लगी ।

कितने की है?’

अढाई सौ की!

इत्ती महँगी !

ज्यादा पीस लोगी तो कम कर दूँगी!

मैंने दुकान खोलनी है क्या?’

ले लो न! दोनों दीदियों के लिये और अपनी भाभियों के लिए!

राकेश ने पत्नी को इशारा किया तो उसने आँखें तरेर कर चुप रहने का संकेत दिया ।

अच्छा 5 पीस लूँ तो कितने के दोगी?’

दो सौ रुपए पर पीस ले लेना दीदी!

न! सौ रुपए पर पीस!

दीदी! सौ तो बहुत कम है!’ 

कहते हुए उसका गला रुँध गया और उसकी कजरारी आँखें भर आई ।

चल न तेरी न मेरी डेढ़ सौ पर पीस!

अच्छा दीदी ! ठीक है ! लो रंग पसंद कर लो !

कुछ सोचते हुए उसने कहा और गट्ठर पत्नी के सामने सरका दिया । 

पत्नी ने पाँच शॉलें अलग कर ली और पति की ओर देख रुपए देने का इशारा किया ।

राकेश ने झट 750 रुपये निकाल कर दे दिये । 

उसके जाने के बाद रास्ते भर पत्नी की सुई इसी बात पर अटकी रही  

वो एक बार में ही डेढ़ सौ में मान गई, गलती की थोड़ा तोल मोल और करना था!

और राकेश की सुई... अतीत में जा अटकी थी । 

बेटी को गोद में बिठा रेलगाड़ी की खिड़की से झाँकता वह सोच रहा था -

मेरे पिता भी रेलगाड़ी में सामान बेच जब थके-हारे घर आते तो उनकी आँखों में भी वही नमी होती थी जो आज उस लड़की की आँखों में थी।