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Dec 1, 2021

यात्रा संस्मरणः कला की अमूल्य निधियाँ : एलोरा अजन्ता

दक्षिण-प्रवास के कुछ अनुभव

-यशपाल जैन

दक्षिण में पग-पग पर कला की अमूल्य निधियाँ बिखरी पड़ी हैं। लेकिन जिनकी ख्याति भारत में
ही नहीं, सारे संसार के इतिहास में है वे हैं एलोरा और अजन्ता की गुफाएँ। निस्संदेह, उन्होंने चित्रकला एवं स्थापत्य कला के इतिहास में एक नए युग की सृष्टि की है । वहाँ जाने के लिए दो मार्ग हैं; पहला जलगाँव और दूसरा औरंगाबाद होकर । हम लोग औरंगाबाद होकर सबसे पहले एलोरा गए । एलोरा जाते हुए रास्ते में सर्वप्रथम दौलताबाद का सुप्रसिद्ध किला आया । इस दुर्ग का अपना महत्त्व है और एलोरा जाने वाला कोई भी यात्री बिना उसे देखे आगे की यात्रा नहीं करता। एक इतिहासकार का कहना है कि इस किले की नींव यादव-वंश के अन्तिम शासक राजा रामदेव ने बारहवीं शताब्दी के अन्त में डाली थी, लेकिन उसकी स्थापत्यकला को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि वह बारहवीं शती से बहुत पहले का है। अनुमान किया जाता है कि उसका निर्माण भी एलोरा की गुफाओं के समय में ही हुआ था। अलाउद्दीन खिलजी ने 1294 में उसपर अपना आधिपत्य जमा लिया और तबसे वह स्थान
दक्षिण भारत में युद्धबंदी का एक प्रमुख केन्द्र बन गया। मुहम्मद-बिन-तुगलक ने उसे अपनी राजधानी बनाने की कल्पना की और उसने देवगिरि से बदल कर उसका नाम दौलताबाद' कर दिया। उसके प्रयोग को इतिहास का प्रत्येक पाठक जानता है। उसके पश्चात् इस दुर्ग ने कई वंशों का उत्थान-पतन देखा । बहमनी वंश, अहमदनगर के निजामशाही बादशाह तथा मुगल, इन सबके हाथों में
होते-होते अन्त में वह हैदराबाद के प्रथम निजाम आसफजाह के कब्जे में आ गया।

यह किला एक चट्टान के ऊपर बना हुआ है और उसकी ऊँचाई लगभग 600 फुट है । दौलताबाद का पुराना नगर, जो अब खंडहर हो गया है, इसी चट्टान के पूर्व और दक्षिण में बसा था। नगर की परिधि ढाई मील की थी। इस किले में जाने के लिए चट्टान को काटकर रास्ता बनाया गया है और किले के चारों ओर करीब 100 फुट गहरी खाई है, जो अब सुखी पड़ी है, पर किसी समय में निरन्तर पानी से भरी रहती थी। इस खाई को पार करने के लिए किले के सिंहद्वार के निकट एक पुल है, जिसे खतरे की घड़ी में हटाकर प्रवेश का मार्ग रोक दिया जाता था। खाई इस प्रकार बनी है कि किसी भी साधन से, कोई भी शक्ति उसे बिना पुल के पार नहीं कर सकती।

किले के अन्दर महलों, उद्यानों, मन्दिरों और मस्जिदों के भग्नावशेष आज भी उनकी विशालता का अनुमान कराते हैं। सबसे आकर्षक वस्तु है चांद-मीनार, जिसकी ऊँचाई 210 फुट है और गोलाई 70 फुट । ऊपर जाने के लिए 250 सीढ़ियाँ है । इसका निर्माण बहमनी वंश के दसवें बादशाह अलाउद्दीन अहमदशाह ने सन् 1445 में कराया था। नीचे खड़े होकर जब मीनार की चोटी पर दृष्टि जाती
है तो रोमांच हो आता है। ऐसा जान पड़ता है, मानों वह अभी-अभी बन कर तैयार हुई हो।
इस मीनार के अतिरिक्त जिस चीज की ओर यात्रियों का ध्यान सहज ही आकृष्ट हो जाता है, वह है चीनी महल । इसपर चीनी कला की छाप है। इसमें अन्तिम कुतुबशाही बादशाह अबुलहसन को औरंगजेब ने दस वर्ष तक बन्दी के रूप में रक्खा था । निजामशाही महल की भी कभी बड़ी शान रही होगी। लार्ड लिनलिथगो जब वहाँ गए थे, तब इस महल की मरम्मत कराई गई थी।
किले को देखकर हम लोग एलोरा की ओर बढ़े । औरंगाबाद से छ: मील आ गये थे। दस मील और चलकर एलोरा पहुँचे । रास्ते के दृश्य सामान्य थे और कहीं-कहीं तो ऐसा जान पड़ता था, मानों उत्तर भारत के किसी मैदानी क्षेत्र में घूम रहे हों । एलोरा पहुँचे तब भी स्थान की विशिष्टता ने मन पर कोई खास असर नहीं डाला । लेकिन जब गुफाएँ देखी तो आँखें खुल गई । एक के बाद एक वहाँ
34 गुफाएँ हैं। पहली बारह बौद्ध, बीच की सत्रह हिन्दू और अन्तिम पाँच जैन । देख कर आश्चर्य होता है कि तीन धर्मों की अमूल्य कला-कृतियाँ एक ही स्थान पर और एक ही साथ कैसे बनी और सहन की गई होंगी? इतिहासकारों का कहना है कि उनका निर्माण तीसरी से लेकर नवीं शताब्दी के बीच हुआ है।

एलोरा की यों तो सभी गुफाएँ दर्शनीय है। लेकिन सबसे अधिक भव्य और आश्चर्यजनक गुफा है सोलहवीं
, जो कैलास के नाम से प्रसिद्ध है । एक ही चट्टान को काट कर इतनी सर्वांग सुन्दर कृतियों का निर्माण किया गया है कि देख कर दर्शक दाँतों तले उँगली दबा लेता है। उसके
चार द्वार हैं, खिड़कियाँ हैं, ऊपर की मंजिल पर जाने के लिए सीढ़ियाँ हैं और पालिश किये हुए कमरे हैं । स्तंभों की सुन्दर पंक्तियाँ है। हिंदुओं की बयालीस विशाल मूर्तियाँ हैं। सभा-मंडप के सामने कैलास है। समझ में नहीं आता कि ऐसे काल में, जबकि आधुनिक यंत्र नहीं थे, किस प्रकार पहाड़ों को काट कर इनका निर्माण किया गया होगा। अनुमानतः इसका निर्माण आठवीं शती के उत्तरार्द्ध में हुआ था। इस गुफा में इतनी बारीक और सुन्दर खुदाई हो रही है कि उसे देखकर आगे बढ़ने को जी नहीं होता। उसके निकट चौदहवीं और पंद्रहवीं गुफाओं में दशावतार की मूर्तियाँ है । पन्द्रहवीं गुफा में सीता की नहानी है, बीसवीं गुफा में इन्द्र-सभा के दृश्य देखते ही बनते हैं । दसवीं गुफा में विश्वकर्मा की मूर्ति है । मूर्ति का जितना आकर्षण है, उससे कहीं अधिक इस गुफा के कलापूर्ण स्तंभों और छत का है । नवी गुफा में काली की सुन्दर मूर्ति है । जिसके दाईं ओर गणेश और बाईं ओर दो अन्य देवियाँ हैं। बारहवीं गुफा की ताण्डव नृत्य करती हुई शिव-मूत्ति और चौदहवी गुफा की मोदक खाती हुई गणेश की प्रतिमा बड़ी ही सजीव और मनोहारी है।
बौद्ध गुफाओं में बुद्ध भगवान की कई मूर्तियाँ अपनी विशालता और भव्यता के कारण दर्शकों को मोह लेती हैं। कुछ गुफाएँ दो मंजिला है। जैन गुफाओं का अपना महत्त्व है और उनकी स्थापत्य कला में सुघड़ता के साथ-साथ सुन्दरता भी है। उनमें कई मूर्तियाँ ऐसी हैं
, जिनके निर्माण करने में निश्चय ही बड़े परिश्रम और धीरज की आवश्यकता हुई होगी। चौंतीसवीं गुफा में पार्श्वनाथ की कलापूर्ण मूर्ति है । उसके उत्तर में  गोमट्ट स्वामी की और अन्य गुफाओं में महावीर स्वामी तथा शांतिनाथ की मूर्तियाँ हैं।

हम लोगों ने बड़े ध्यान से सारी गुफाओं को देखा, लेकिन कला की वहाँ इतनी विपुल सामग्री थी कि देख कर न बार-बार आश्चर्य होता था उन कलाविदों पर, जिन्होंने बड़ी ही सूझ-बूझ से अपने जीवन के अत्यंत उदात्त क्षणों में इन चिरस्थायी कलाकृतियों का निर्माण किया था। आज कहीं भी इन कलाकारों के नाम का उल्लेख मिलता, लेकिन जबतक ये गुफाएँ है, तबतक उनकी कीर्ति -पताका सदा फहराती रहेगी।

मन बार-बार दौड़ कर सोलहवीं गुफा में जाता था। कैलास का भार-वहन करती हुई हाथियों और सिंहों की पंक्तियाँ आँखों से ओझल नहीं होती थीं। शिव, पार्वती, विष्णु, लक्ष्मी, नन्दी, गणेश, महिषासुर, द्वारपाल आदि की मूर्तियाँ भुलाये नहीं भूलती थीं। और पैतालीस फुट ऊँचा ध्वजदंड (त्रिशूल को मिला कर 49 फुट) ऐसा लगता था, मानों प्रहरी की भांति खड़ा हो । रामायण और महाभारत के कुछ दृश्य, पार्वती और शिव की भांति-भांति की मुद्राएँ, ये सब इस गुफा को अद्भुत आकर्षण प्रदान करती हैं। यदि इस स्थान पर केवल यही एक गुफा होती तो भी दुनिया भर के लोग उसके दर्शन के लिए आते।

हम लोगों ने पूरा दिन इन गुफाओं के देखने में व्यतीत किया और जब दिन छिपे वहाँ से रवाना हुए, तब ऐसा जान पड़ता था, मानों मन पर जाने कितनी स्मृतियों का भार लदा हुआ है।

 रात को लौट कर औरंगाबाद रहे और अगले दिन बड़े तड़के अजन्ता की गुफाएँ देखने के लिए रवाना हुए । अजन्ता जलगाँव से 35 मील और औरंगाबाद से 55 मील है। अधिकांश मार्ग सामान्य है, लेकिन अजन्ता गाँव के निकट पहुँच कर यात्री अनुभव करता है, जैसे किसी पार्वत्य प्रदेश में आ गया हो। ऊँची-नीची सड़क और हरे-भरे वृक्षों को पार करता हुआ अचानक वह बाघोरा नदी के तटवर्ती मैदान में पहुँच जाता है, जहाँ लगभग 250 फुट की ऊँचाई पर अजन्ता की ऐतिहासिक गुफाएँ अवस्थित है। कुल मिलाकर 29 गुफाएँ हैं जिनमें से पाँच चैत्य है

और शेष विहार। इन सबका संबंध बौद्ध-धर्म से है। भारतवर्ष में अजन्ता को छोड़ कर कोई भी ऐसी कलाकृति नहीं है, जिसमें पुरातत्त्व, स्थापत्य कला और चित्रकारी का इतना सुन्दर समन्वय हुआ हो। पहली शताब्दी से लेकर सातवीं शताब्दी के मध्य तक बौद्ध कला की प्रत्येक अवस्था का प्रतिनिधित्त्व यहाँ पर हुआ है। लगभग सभी गुफाओं की दीवारें, छतें और खंभे, सुन्दर चित्रकारी से चित्रित है, लेकिन क्रूर काल ने अब केवल 13 गुफाओं में उनके अवशिष्ट रहने दिये हैं। पहली, दूसरी, नवीं, दसवीं, सोलहवीं और सत्रहवीं गुफाओं की चित्रकारी आज भी दर्शक को मुग्ध कर देती है। सारी गुफाओं के दृश्य बोधिसत्त्व के विभिन्न जन्मों से संबंधित है और जातकों से लिये गए हैं। उनमें मानव से लेकर पशु-पक्षी और सर्पादि तक के चित्र समाविष्ट है। अजन्ता की कला बौद्धों की भावनाओं और आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति है, जिसमें उल्लास ही उल्लास है। यहाँ की गुफाएँ छिपी पड़ी थीं। ऐसा लगता था जैसे कोई सामान्य पर्वत हो। एक बार निज़ाम राज्य का कोई अंग्रेज़ अधिकारी यहाँ शिकार खेलने आया । नदी के उस किनारे जब वह शिकार की खोज में घूम रहा था, तो उसे अचानक किसी इमारत का कुछ अंश दीख पड़ा। उसे संदेह हुआ। उसने बारीकी से देखा तो उसे लगा कि हो न हो, यहाँ कुछ है । उसने बाद में खुदाई कराई तो ये गुफाएँ निकलीं।

दूसरी गुफा का एक दृश्य तो आज भी मन पर ज्यों का त्यों अंकित है। राज दरबार में नर्तकियों का नृत्य हो रहा है। राजा अपने आसन पर विराजमान है। इतने में कोई महात्मा आते हैं और नर्तकियों को ललकारते हैं। वे भयभीत होकर भागती हैं। राजा की आँखें क्रोध से जल उठती हैं। एक नर्तकी रह जाती है और राजा की क्रोध भरी मुद्रा को देख कर उसके पैरों पर गिर पड़ती है। इस सारे चित्र को चित्रित करने में कलाविद ने सचमुच कमाल कर दिखाया है। राजा के चरणों में माथा टेके नर्तकी की पीठ और कमर की धनुषाकार आकृति और झीने वस्त्र कला के अद्भुत नमूने हैं।

पहली गुफा में यशोधरा का चित्र बड़ा ही आकर्षक है। सत्रहवीं गुफा में एक माँ और बेटे का चित्र बड़ा सजीव है । उसी गुफा में शृंगार करती एक महिला का चित्र ऐसा जान पड़ता है, मानों अभी बोल पड़ेगा। उन्नीसवीं को बाहर की कारीगरी देखने योग्य है। अन्दर भगवान बुद्ध की एक विशालकाय मूर्ति है। चौबीसवी गुफा कारीगरी की दृष्टि से अद्वितीय है। पत्थरों पर खुदाई का इतना बारीक काम न जाने किस देवी प्रेरणा से कलाविदों ने किया होगा। मजे की बात तो यह है कि अजन्ता-एलोरा की गुफाओं का निर्माण पत्थरों को काट-काट कर किया गया है। क्या मजाल कि कोई पत्थर कहीं से टूट जाए और जोड़ लगाना पड़े। या एक ही गुफा के स्तंभों में कहीं बाल भर का भी अन्तर हो। सूक्ष्म-से-सूक्ष्म कारीगरी को देखकर कलाविदों की कार्य-कुशलता पर आश्चर्य होता है।

यहाँ की चित्रकारी में जिन रंगों का प्रयोग हुआ है, उनमें एक भी रंग बाहर से नहीं आया था। वहीं के वृक्षों की पत्तियों, वृक्षों की छालों, पत्थरों, तथा मिट्टी आदि के मेल से विभिन्न रंग तैयार किये गए थे और उनके द्वारा चित्रों में ऐसा मेल साधा गया कि कहीं भी यह नहीं मालूम होता कि कोई भी रंग बेतुका और बेमेल है। छतों और खंभों की चित्रकारी को तो देख कर ऐसा लगता है, मानों वह कल ही तैयार हुए हों।

यहाँ पर भी हम लोगों ने एक पूरा दिन व्यतीत किया। औरंगाबाद में जनरेटर लगाकर यहाँ के लिए बिजली की विशेष व्यवस्था की गई है । हम लोगों ने सारी गुफाएँ बिजली के प्रकाश में देखीं। प्रकाश का एक और भी पुराना ढंग काम में लाया जाता है। वह यह कि बाहर एक बड़ा शीशा लगाकर सूर्य का प्रतिबिम्ब अन्दर एक सफेद पर्दे पर पहुँचाया जाता है। जिससे इतना प्रकाश हो जाता है कि बारीक से बारीक आकृति भी सहज ही देखी जा सके। वहाँ के अधिकारियों ने बताया कि इसी प्रकाश में कलाविदों ने इन गुफाओं की चित्रकारी की थी।

एलोरा की भांति यहाँ पर भी किसी भी कलाकार के नाम का उल्लेख नहीं है । नाम के प्रति इतनी उदासीनता वास्तव में उनकी महानता की द्योतक है। हमने बार-बार उन अज्ञात पर अमर कलाकारों को प्रणाम किया और उन महान गुफाओं की अमिट छाप मन पर लेकर अनिच्छा पूर्वक विदा हुए। (मासिक पत्रिका- जीवन साहित्य - दिसम्बर 1955 से साभार)

2 comments:

Ashwini Kesharwani said...

बहुत सुंदर और महत्वपूर्ण जानकारियों से भरा संस्मरण के लिए साधुवाद। प्रो अश्विनी केशरवानी

Sudershan Ratnakar said...

महत्वपूर्ण जानकारी देता उपयोगी संस्मरण।