उम्र के इस पड़ाव पर लाला जी की आंखें कमजोर हो गयी हैं कानों से अब सुना नहीं जाता यहां तक कि चाल भी मद्धम हो गयी है लेकिन उनके चेहरे की तेजस्विता में कहीं कोई कमीं नहीं आयी है। वे आज भी पढ़ रहे हैं और आज भी लिख रहे हैं।
रात के लगभग नौ बजने वाले थे, मुझे इस बार डोकरीघाट पारा की वह गली अपरिचित सी लगी। उन दिनों वह खपरैल का मकान हुआ करता था जिसकी दीवारे पक्की थीं। बाहर तब भी वही चिरपरिचित बोर्ड लगा था जो आज भी है- कवि निवास। अब एक आलीशान मकान सम्मुख था जिसके मुख्य द्वार से हो कर हम भीतर प्रविष्ठ हुए। बाई ओर ही एक कक्ष था जिसमें एक खाट बिछी हुई थी और जिसके गिर्द मच्छरदानी कसी हुई थी। कमरे के बीचो- बीच एक कुर्सी पर विचारमग्न दण्डकारण्य का संत बैठा हुआ था। सामने ही एक पोर्टेबल रंगीन टेलीविजन जिसपर ईटीवी का छत्तीसगढ़ समाचार चैनल चल रहा था। समाचार फ्लैश हो रहा था- नक्सलवादियों ने एक ग्राम सरपंच की मुखबिरी के आरोप में हत्या कर दी। इस समाचार की वेदना उनके चेहरे पर साफ झलक रही थी।
लाला जी को यह महसूस करने में समय लगा कि हम उनके कक्ष के भीतर प्रविष्ठ हो गये हैं। मैंने लाला जी के चरण स्पर्श किये। लाला जगदलपुरी जी से लगभग 18 वर्ष के अंतराल के बाद मुलाकात हो रही थी।
'तुम राजीव रंजन हो न?' लाला जी की आंखें मेरे चेहरे पर टिकी, वे बहुत गौर से मुझे देख रहे थे। उनके द्वारा पहचाना जाना ही मेरे लिये उपलब्धि था और मेरे लिये सर्वदा स्मरण रहने वाला सुखद अहसास। तीन अवसर ऐसे हैं जिनमें लाला जी के सम्मुख काव्यपाठ करने का मुझे अवसर प्राप्त हुआ है। जगदलपुर में अपने स्नातक अध्ययन के तीन वर्षों में मैं प्राय: कवि निवास जाया करता था और लाला जी से कविता, साहित्य, संस्कृति, इतिहास और बस्तर जैसे विषयों पर बाते होती थीं। उनके अनुभवों ने 'बस्तर' को लेकर मुझे एक नयी दृष्टि दी।
यह मेरी खुशकिस्मती है कि मैं लाला जगदलपुरी के युग में पैदा हुआ और बस्तर की मिट्टी मेरी मातृभूमि है, लाला जगदलपुरी जिसकी अमिट पहचान हैं। 91 वर्षीय लाला जी एक व्यक्ति नहीं विरासत हैं ।
उम्र के इस पड़ाव पर लाला जी की आंखें कमजोर हो गयी हैं कानों से अब सुना नहीं जाता यहां तक कि चाल भी मद्धम हो गयी है लेकिन उनके चेहरे की तेजस्विता में कहीं कोई कमीं नहीं आयी है। वे आज भी पढ़ और लिख रहे हैं।
लाला जी से इन दिनों संवाद स्थापित करना आसान नहीं है, उन्हें प्रश्न लिख कर देने होते हैं जिन्हें पढ़, समझ कर वे प्रत्युत्तर देते हैं। लाला जी से बातचीत के आरंभ में अतीत की अनेक बाते हुईं। उन्होंने अपनी अवस्था के कारण सृजन में होने वाली तकलीफों के विषय में बताया। उनका बहुतायत सृजन अभी भी अप्रकाशित है और कोई ऐसी पहल भी नहीं हो रही है कि इस युगपुरुष की रचनाओं का संकलन उपलब्ध हो तथा पूर्वप्रकाशित पुस्तकों के नवीन संस्करण निकलें।
लाला जी केवल हिन्दी ही नहीं अपितु बस्तर के सभी क्षेत्रीय भाषाओं और बोलियों के भी विद्वान हैं। उनके कई काव्य हलबी, गोंडी, भतरी तथा छतीसगढ़ी में भी संकलित है। लाला जी का बहुचर्चित हिन्दी ग•ाल संग्रह 'मिमियाती जिन्दगी दहाड़ते
परिवेश' उस समय में प्रकाशित हुआ था जब कि ग•ाल को हिन्दी की विधा बनाये जाने की सोच भी विकसित नहीं हुई थी। यह पुस्तक अब दुर्लभ है।
लाला जी को मैंने साहित्य शिल्पी ई-पत्रिका दिखाई तथा इंटरनेट पर हिन्दी के लिये इस पत्रिका द्वारा किये जा रहे प्रयासों से अवगत कराया। मैं साहित्य शिल्पी पर लाला जी की रचनाओं और कार्यों का संकलन उपलब्ध कराने के लिये प्रयासरत हूं।
लाला जी से उनके गजल संग्रह की उनके पास इकलौती उपलब्ध प्रति जो मुझे उनके भाई तथा साहित्यकार के. एल. श्रीवास्तव के माध्यम से प्राप्त हुई, की दशा देख कर मन में
कसक सी हुई। इस पुस्तक को तीन ओर से चूहों ने कुतर लिया था। सौभाग्यवश इस पुस्तक की छायाप्रति मैंने करा ली है तथा अब साहित्यशिल्पी के माध्यम से नियमित रूप से लाला जगदलपुरी की रचनाओं को इंटरनेट माध्यम पर संग्रहित किया जा सकेगा। मेरा प्रयास होगा की उनकी संपूर्ण रचनावली 'साहित्य शिल्पी' एवं 'कविता कोष' पर उपलब्ध हो सके।
आज कौन गिनना चाहता है कि कितने लोकगीत हैं जो लाला जी ने लिखे हैं और वो मांदर की थाप के साथ गूंजती लयबद्ध स्वरलहरियां बन आदिम समाज का अभिन्न हिस्सा हो गये हैं। साहित्य के विशेषज्ञ हिन्दी और उर्दू की गजलों के बहस में उलझे फिरते हैं और इधर खामोशी से यह बस्तरिया कवि हलबी और भतरी जैसी आदिम भाषाओं में मानक ग़ज़लें उनके लिये कहता रहा है जिनके कंधे पर तूम्बा टंगा है और कमर में लुंगी भर है। वह उनका जीवन जीता है और गाता है।
'हलबी' बोली में उनकी ग़ज़ल की कुछ पंक्तियां -
धुंगिया दिया एहो कनकचुड़ी, धान लसलसा डंडिक गोठेयाऊं।
आजी काय साग खादलास तुमी, सांगुन दिया डंडिक गोठेयाऊं।
(अनुवाद: ओ कनकचुड़ी धान की लहलहाती फसल, आओ थोड़ी देर बतिया लें। यह तो बताओ कि आज तुमने कौन सा साग खाया? आओ बैठो, थोड़ी देर बतिया लें।)
एक 'भतरी' बोली में कविता देखें -
आमी खेतेआर, मसागत आमर, आमी भुतिआर, मसागत आमर
गभार- धार, मसागत आमर, नांगर- फार, मसागत आमर
धान- धन के नंगायला पुटका, हईं सौकार, मसागत आमर
(अनुवाद: हम खेतीहर, मशक्कत हमारी, हम मजदूर मशक्कत हमारी। गभार हो या धार, मशक्कत हमारी। हल- फाल, मशक्कत हमारी। धान- धन को हड़प गया 'पुटका', वही हो गया साहूकार मशक्कत हमारी)
शानी और धनन्जय वर्मा जैसे साहित्यकार अपनी लेखनी के पीछे लाला जी की प्रेरणा मानते हैं। लाला जी बस्तर के इतिहास का भी हिस्सा हैं । यह हमारा सौभाग्य है कि वे अभी हमारे बीच हैं। मुझे बस्तरिया होने में जो गर्व का अहसास है उसका पहला कारण हैं- लाला जगदलपुरी।
प्रस्तुत है लाला जी से बातचीत के कुछ अंश:
लाला जी, उम्र के इस पड़ाव पर अब तक के अपने साहित्यिक लेखकीय कार्यों को किस प्रकार मूल्यांकित
करते हैं?
- मैं अपने साहित्यिक- लेखकीय कार्यों को लगभग 91 वर्ष की आयु में भी किसी हद तक अपने ढंग से निभाता ही चला आ रहा हूं, मन- मस्तिष्क और शरीर की सक्षमता को पहले की तरह अनुकूल नहीं रख पाता। फिर भी मैं किसी तरह स्वाध्याय और लेखन से जुड़ा हुआ हूं।बस्तर की कविता का पर्याय लाला जगदलपुरी को ही माना जाता रहा है। एक युग जिसमें आप स्वयं, शानी तथा धनंजय वर्मा आदि का लेखन सम्मिलित है और दूसरा बस्तर का
वर्तमान साहित्यिक परिवेश क्या आप इन दोनों युगों में कोई अंतर पाते हैं?
- बस्तर से मेरा जन्मजात संबंध स्थापित है, इसलिए साहित्य की विभिन्न विधाओं में बस्तर को मंैने भावनात्मक अभिव्यक्तियां दे रखी हैं। साथ- साथ शोधात्मक भी। वैसे, मेरी मूल विधा तो काव्य ही है। बस्तर के धनन्जय वर्मा और शानी अपने लेखन- प्रकाशन को लेकर हिन्दी साहित्य में अखिल भारतीय स्तर पर चर्चित रहे हैं। बस्तर के लिये यह गौरव का विषय है। बस्तर का वर्तमान साहित्यिक परिवेश, वर्तमान की तरह तो चल रहा है परंतु इस परिवेश में लेखन- प्रकाशन से सम्बद्ध इक्के- दुक्के साहित्यकार ही प्रसंशनीय हो
पाये हैं।
बस्तर के साहित्य, इतिहास, संस्कृति, पर्यटन जैसे अनेकों विषयों पर आपने उल्लेखनीय कार्य किया है। आपके कार्यों और पुस्तकों को बस्तर के अध्ययन व शोध के लिये मानक माना जाता है। आप संतुष्ट है या अभी अपने कार्यों को पूर्ण नहीं मानते?
- जहां तक हो सका मैंने बस्तर पर केन्द्रित विभिन्न विषयक लेखन- प्रकाशन को अपने ढंग से अंजाम दिया है। अपनी लेखकीय सामथ्र्य के अनुसार निश्चय ही बस्तर सम्बंधी अपने लेखन- प्रकाशन से मुझे आत्मतुष्टि मिली है। मेरे पाठक भी मेरे लेखन की आवश्यकता महसूस करते हैं।
आपने बस्तर में राजतंत्र और प्रजातंत्र दोनों ही व्यवस्थाएं देखीं है। बस्तर के आम आदमी को केन्द्र में रख कर इन
दोनों ही व्यवस्थाओं में क्या अंतर महसूस करते हैं?
- बस्तर में प्रजातांत्रिक गतिविधियां केवल प्रदर्शित होती चली आ रही हैं, किंतु बस्तर के लोकमानस में पूर्णत: आज भी राजतंत्र स्थापित है। 'बस्तर दशहरा' शीर्षक की एक कविता की उल्लेखनीय पंक्तियां इसकी साक्षी हैं -
पेड़ कट कट कर, कहां के कहां चले गये।
पर फूल रथ/ रैनी रथ/ हर रथ, जहां का वहीं खड़ा है।
अपने विशालकाय रथ के सामने।
रह गये बौने के बौने, रथ निर्माता बस्तर के।
और खिंचाव में हैं, प्रजातंत्र के हाथों,
छत्रपति रथ की राजसी रस्सियां।
इन दिनों बस्तर में बारूद की गंध महसूस की जाने लगी हैं। इस क्षेत्र के वरिष्टतम बुद्धिजीवी होने के नाते बस्तर
अंचल में जारी नक्सल आतंक पर आपके विचार?
- बस्तर में नक्सली आतंक की भयानकता का मैं कट्टर विरोधी हूं। नक्सली भी यदि मनुष्य ही हैं तो उन्हें मनुष्यता का मार्ग ग्रहण करना चाहिये।
विचारधारा और साहित्य के अंतर्सम्बंध को आप किस दृष्टि से देखते हैं?
- विचारधारा और साहित्य के अनिवार्य सम्बंध को मैं मानवीय दृष्टि से महसूस करता ही आ रहा हूं।
क्या आप मानते हैं कि आज पाठक धीरे- धीरे कविता से दूर जा रहा है? इसका क्या कारण है?
- कविता स्वभावत: भावना प्रधान होती है, किंतु आज के अधिकांश व्यक्ति भावुकता से तालमेल नहीं बिठा पाते। इसी कारण कविता से आम पाठक दूर होते जा रहा है।
इन दिनों आप क्या और किन विषयों पर लिख रहे हैं?
- इन दिनों मेरा लेखन सीमित हो गया है। वयात्मक दृष्टि और शारीरिक दुर्बलता के कारण। फिर भी कुछ न कुछ लिखता ही रहता हूं। बिना लिखे रहा नहीं जाता।
आपका संदेश?
- मेरी हार्दिक इच्छा है कि कविता के प्रति पाठकों में अभिरुचि उत्पन्न हो।
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साहित्यिक- सांस्कृतिक गतिविधियां से जुड़े राजीव रंजन प्रसाद विभिन्न विषयों पर लिख रहे हैं जो पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं। वर्तमान में वे अंतर्जाल पर सक्रिय लेखन तथा साहित्य शिल्पी www.sahityashilpi.com का कुशलतापूर्वक संपादन/संचालन कर रहे हैं। संप्रति: एन.एच.पी.सी लि.(भारत सरकार का उपक्रम) में सहायक प्रबंधक (पर्यावरण) पद पर कार्यरत हैं।
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