एक टोकरी भर मिट्टी
- माधवराव सप्रे
किसी श्रीमान जमींदार के महल के पास एक गरीब अनाथ विधवा की झोपड़ी थी। जमींदार साहब को अपने महल का हाता उस झोपड़ी तक बढ़ाने की इच्छा हुई। विधवा से बहुतेरा कहा कि अपनी झोपड़ी हटा ले। पर वह तो कई जमाने से वहीं बसी थी।
उसका प्रिय पति और इकलौता पुत्र भी उसी झोपड़ी में मर गया था। पतोहू भी एक पांच बरस की कन्या को छोड़कर चल बसी थी। अब यही उसकी पोती इस वृद्धकाल में एकमात्र आधार थी। जब कभी उसे अपनी पूर्वस्थिति की याद आ जाती तो मारे दु:ख के फूट- फूट कर रोने लगती थी। और जबसे उसने अपने श्रीमान पड़ोसी की इच्छा का हाल सुना, तब से वह मृतप्राय हो गई थी।
उस झोपड़ी में उसका मन ऐसा लग गया था कि बिना मरे वहां से वह निकलना ही नहीं चाहती थी। श्रीमान के सब प्रयत्न निष्फल हुए। तब वे अपनी जमींदारी चाल चलने लगे। बाल की खाल निकालने वाले वकीलों की थैली गरम कर उन्होंने अदालत में उस झोपड़ी पर अपना कब्जा कर लिया और विधवा को वहां से निकाल दिया। बेचारी अनाथ तो थी ही, पास- पड़ोस में कहीं जाकर रहने लगी।
एक दिन श्रीमान उस झोपड़ी के आसपास टहल रहे थे और लोगों को काम बतला रहे थे कि इतने में वह विधवा हाथ में एक टोकरी लेकर वहां पहुंची। श्रीमान ने उसको देखते ही अपने नौकरों से कहा कि उसे यहां से हटा दो। पर वह गिड़गिड़ाकर बोली, 'महाराज, अब तो यह झोपड़ी तुम्हारी ही हो गई है। मैं उसे लेने नहीं आई हूं। महाराज क्षमा करें तो एक बिनती है।'
जमींदार साहब के सिर हिलाने पर उसने कहा, 'जब से यह झोपड़ी छूटी है तब से मेरी पोती ने खाना- पीना छोड़ दिया है। मैंने बहुत समझाया पर वह एक नहीं मानती। यही कहा करती है कि अपने घर चल, वहीं रोटी खाऊंगी। अब मैंने यह सोचा है कि इस झोपड़ी में से एक टोकरी भर मिट्टी लेकर उसी का चूल्हा बनाकर रोटी पकाऊंगी। इससे भरोसा है कि वह रोटी खाने लगेगी। महाराज, कृपा करके आज्ञा दीजिए तो इस टोकरी में मिट्टी ले जाऊं।' श्रीमान ने आज्ञा दे दी।
विधवा झोपड़ी के भीतर गई। वहां जाते ही उसे पुरानी बातों का स्मरण हुआ और उसकी आंखों से आंसू की धारा बहने लगी। अपने आन्तरिक दु:ख को किसी तरह सम्हालकर उसने अपनी टोकरी मिट्टी से भर ली और हाथ से उठा कर बाहर ले आई। फिर हाथ जोड़कर श्रीमान से प्रार्थना करने लगी, 'महाराज, कृपा करके इस टोकरी को जरा हाथ लगाइये जिससे कि मैं उसे अपने सिर पर धर लूं।'
जमींदार साहब पहले तो बहुत नाराज हुए, पर जब वह बार- बार हाथ जोडऩे लगी और पैरों पर गिरने लगी तो उनके भी मन में कुछ दया आ गई। किसी नौकर से न कहकर आप ही स्वयं टोकरी उठाने आगे बढ़े। ज्योंही टोकरी को हाथ लगाकर ऊपर उठाने लगे त्यों ही देखा कि यह काम उनकी शक्ति के बाहर है। फिर तो उन्होंने अपनी सब ताकत लगाकर टोकरी को उठाना चाहा, पर जिस स्थान पर टोकरी रखी थी वहां से वह एक हाथ- भर भी ऊंची न हुई। तब लज्जित होकर कहने लगे, 'नहीं यह टोकरी हमसे न उठाई जाएगी।'
यह सुनकर विधवा ने कहा, 'महाराज! नाराज न हों। आप से तो एक टोकरी भर मिट्टी नहीं उठाई जाती और इस झोपड़ी में तो हजारों टोकरियां मिट्टी पड़ी हैं। उसका भार आप जन्म भर क्यों कर उठा सकेंगे? आप ही इस बात पर विचार कीजिए!'
जमींदार साहब धन- मद से गर्वित हो अपना कर्तव्य भूल गये थे, पर विधवा के उक्त वचन सुनते ही उनकी आंखें खुल गईं। कृतकर्म का पश्चाताप कर उन्होंने विधवा से क्षमा मांगी और उसकी झोपड़ी वापस दे दी।
पं. माधवराव सप्रे की कालजयी कहानी
19 जून 1871 को मध्यप्रदेश के दमोह जिले में स्थित गांव पथरिया में जन्में पं. माधवराव सप्रे ने छत्तीसगढ़ में साहित्य, पत्रकारिता एवं शिक्षा के क्षेत्रों में वंदनीय कार्य किया है। बिलासपुर में मिडिल तक की पढ़ाई के बाद मेट्रिक शासकीय विद्यालय रायपुर से उत्तीर्ण किया। कलकत्ता विश्वविद्यालय से बीए की डिग्री लेने के बावजूद उन्होंने अंग्रेजों की चाकरी कुबूल नहीं की वे राष्ट्रभक्त एवं सेवाव्रती समाजसेवी बनकर जिये और अपनी साहित्य साधना एवं देश सेवा के लिए पूजित हुए। सप्रे जी ने 1921 में रायपुर में राष्ट्रीय विद्यालय तथा प्रथम कन्या विद्यालय जानकी देवी महिला पाठशाला की भी स्थापना की।
1900 में जब समूचे छत्तीसगढ़ में प्रिंटिंग प्रेस नहीं था तब उन्होंने बिलासपुर जिले के एक छोटे से गांव पेंड्रा से छत्तीसगढ़ मित्र नामक मासिक पत्रिका निकालकर मध्य भारत में हिन्दी पत्रकारिता की शुरुआत की। इसी पत्रिका में छपी उनकी कहानी एक टोकरी भर मिट्टी हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी के रूप में चर्चित हुई। सप्रेजी ने इस कहानी के लिए लोकजीवन में प्रचलित कथा- कंथली से मिट्टी लेकर उसे अभिनव स्वरूप दिया। छत्तीसगढ़ में प्रचलित डोकरी अर्थात वृद्धा से जुड़ी कथाओं का विपुल भंडार रहा है। हर कहानी में केंद्रीय चरित्र के रूप में उपस्थित वृद्धा अपनी समझदारी से विध्नों पर नकेल कसती है और आततायी को पराजित कर देती है। इस कहानी की वृद्धा भी बुद्धि- कौशल से जमींदार को झुका देती है। बुढिय़ा का व्यक्तित्व भावना से परिचालित है। भावाकुलता और चातुर्य के साथ वैराग्य के छत्तीसगढ़ी गुण को भी इस कहानी में बखूबी रेखांकित किया गया है। छत्तीसगढ़ की बूढ़ी दाई अपनी समग्र गरिमा के साथ इस कहानी में उपस्थित है।
इससे पूर्व प्रेमचंद, मुक्तिबोध एवं पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी की कहानियां इस स्तंभ में प्रस्तुत की जा चुकी हैं। पढि़ए इस स्तंभ की चौथी कहानी एक टोकरी भर मिट्टी। इस कहानी को साहित्य अकादमी के लिए कमलेश्वर जी ने हिन्दी की कालजयी कहानियां शृंखला में प्रथम कहानी के रूप में छापकर इसके महत्व को रेखांकित किया है।
संयोजक- डॉ. परदेशीराम वर्मा , एल आई जी-18, आमदीनगर, भिलाई 490009, मोबाइल 9827993494
- माधवराव सप्रे
'जब से यह झोपड़ी छूटी है तब से मेरी पोती ने खाना- पीना छोड़ दिया है। मैंने बहुत समझाया पर वह एक नहीं मानती। यही कहा करती है कि अपने घर चल, वहीं रोटी खाऊंगी। अब मैंने यह सोचा है कि इस झोपड़ी में से एक टोकरी भर मिट्टी लेकर उसी का चूल्हा बनाकर रोटी पकाऊंगी। इससे भरोसा है कि वह रोटी खाने लगेगी। महाराज, कृपा करके आज्ञा दीजिए तो इस टोकरी में मिट्टी ले जाऊं।'
उसका प्रिय पति और इकलौता पुत्र भी उसी झोपड़ी में मर गया था। पतोहू भी एक पांच बरस की कन्या को छोड़कर चल बसी थी। अब यही उसकी पोती इस वृद्धकाल में एकमात्र आधार थी। जब कभी उसे अपनी पूर्वस्थिति की याद आ जाती तो मारे दु:ख के फूट- फूट कर रोने लगती थी। और जबसे उसने अपने श्रीमान पड़ोसी की इच्छा का हाल सुना, तब से वह मृतप्राय हो गई थी।
उस झोपड़ी में उसका मन ऐसा लग गया था कि बिना मरे वहां से वह निकलना ही नहीं चाहती थी। श्रीमान के सब प्रयत्न निष्फल हुए। तब वे अपनी जमींदारी चाल चलने लगे। बाल की खाल निकालने वाले वकीलों की थैली गरम कर उन्होंने अदालत में उस झोपड़ी पर अपना कब्जा कर लिया और विधवा को वहां से निकाल दिया। बेचारी अनाथ तो थी ही, पास- पड़ोस में कहीं जाकर रहने लगी।
एक दिन श्रीमान उस झोपड़ी के आसपास टहल रहे थे और लोगों को काम बतला रहे थे कि इतने में वह विधवा हाथ में एक टोकरी लेकर वहां पहुंची। श्रीमान ने उसको देखते ही अपने नौकरों से कहा कि उसे यहां से हटा दो। पर वह गिड़गिड़ाकर बोली, 'महाराज, अब तो यह झोपड़ी तुम्हारी ही हो गई है। मैं उसे लेने नहीं आई हूं। महाराज क्षमा करें तो एक बिनती है।'
जमींदार साहब के सिर हिलाने पर उसने कहा, 'जब से यह झोपड़ी छूटी है तब से मेरी पोती ने खाना- पीना छोड़ दिया है। मैंने बहुत समझाया पर वह एक नहीं मानती। यही कहा करती है कि अपने घर चल, वहीं रोटी खाऊंगी। अब मैंने यह सोचा है कि इस झोपड़ी में से एक टोकरी भर मिट्टी लेकर उसी का चूल्हा बनाकर रोटी पकाऊंगी। इससे भरोसा है कि वह रोटी खाने लगेगी। महाराज, कृपा करके आज्ञा दीजिए तो इस टोकरी में मिट्टी ले जाऊं।' श्रीमान ने आज्ञा दे दी।
विधवा झोपड़ी के भीतर गई। वहां जाते ही उसे पुरानी बातों का स्मरण हुआ और उसकी आंखों से आंसू की धारा बहने लगी। अपने आन्तरिक दु:ख को किसी तरह सम्हालकर उसने अपनी टोकरी मिट्टी से भर ली और हाथ से उठा कर बाहर ले आई। फिर हाथ जोड़कर श्रीमान से प्रार्थना करने लगी, 'महाराज, कृपा करके इस टोकरी को जरा हाथ लगाइये जिससे कि मैं उसे अपने सिर पर धर लूं।'
जमींदार साहब पहले तो बहुत नाराज हुए, पर जब वह बार- बार हाथ जोडऩे लगी और पैरों पर गिरने लगी तो उनके भी मन में कुछ दया आ गई। किसी नौकर से न कहकर आप ही स्वयं टोकरी उठाने आगे बढ़े। ज्योंही टोकरी को हाथ लगाकर ऊपर उठाने लगे त्यों ही देखा कि यह काम उनकी शक्ति के बाहर है। फिर तो उन्होंने अपनी सब ताकत लगाकर टोकरी को उठाना चाहा, पर जिस स्थान पर टोकरी रखी थी वहां से वह एक हाथ- भर भी ऊंची न हुई। तब लज्जित होकर कहने लगे, 'नहीं यह टोकरी हमसे न उठाई जाएगी।'
यह सुनकर विधवा ने कहा, 'महाराज! नाराज न हों। आप से तो एक टोकरी भर मिट्टी नहीं उठाई जाती और इस झोपड़ी में तो हजारों टोकरियां मिट्टी पड़ी हैं। उसका भार आप जन्म भर क्यों कर उठा सकेंगे? आप ही इस बात पर विचार कीजिए!'
जमींदार साहब धन- मद से गर्वित हो अपना कर्तव्य भूल गये थे, पर विधवा के उक्त वचन सुनते ही उनकी आंखें खुल गईं। कृतकर्म का पश्चाताप कर उन्होंने विधवा से क्षमा मांगी और उसकी झोपड़ी वापस दे दी।
पं. माधवराव सप्रे की कालजयी कहानी
19 जून 1871 को मध्यप्रदेश के दमोह जिले में स्थित गांव पथरिया में जन्में पं. माधवराव सप्रे ने छत्तीसगढ़ में साहित्य, पत्रकारिता एवं शिक्षा के क्षेत्रों में वंदनीय कार्य किया है। बिलासपुर में मिडिल तक की पढ़ाई के बाद मेट्रिक शासकीय विद्यालय रायपुर से उत्तीर्ण किया। कलकत्ता विश्वविद्यालय से बीए की डिग्री लेने के बावजूद उन्होंने अंग्रेजों की चाकरी कुबूल नहीं की वे राष्ट्रभक्त एवं सेवाव्रती समाजसेवी बनकर जिये और अपनी साहित्य साधना एवं देश सेवा के लिए पूजित हुए। सप्रे जी ने 1921 में रायपुर में राष्ट्रीय विद्यालय तथा प्रथम कन्या विद्यालय जानकी देवी महिला पाठशाला की भी स्थापना की।
1900 में जब समूचे छत्तीसगढ़ में प्रिंटिंग प्रेस नहीं था तब उन्होंने बिलासपुर जिले के एक छोटे से गांव पेंड्रा से छत्तीसगढ़ मित्र नामक मासिक पत्रिका निकालकर मध्य भारत में हिन्दी पत्रकारिता की शुरुआत की। इसी पत्रिका में छपी उनकी कहानी एक टोकरी भर मिट्टी हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी के रूप में चर्चित हुई। सप्रेजी ने इस कहानी के लिए लोकजीवन में प्रचलित कथा- कंथली से मिट्टी लेकर उसे अभिनव स्वरूप दिया। छत्तीसगढ़ में प्रचलित डोकरी अर्थात वृद्धा से जुड़ी कथाओं का विपुल भंडार रहा है। हर कहानी में केंद्रीय चरित्र के रूप में उपस्थित वृद्धा अपनी समझदारी से विध्नों पर नकेल कसती है और आततायी को पराजित कर देती है। इस कहानी की वृद्धा भी बुद्धि- कौशल से जमींदार को झुका देती है। बुढिय़ा का व्यक्तित्व भावना से परिचालित है। भावाकुलता और चातुर्य के साथ वैराग्य के छत्तीसगढ़ी गुण को भी इस कहानी में बखूबी रेखांकित किया गया है। छत्तीसगढ़ की बूढ़ी दाई अपनी समग्र गरिमा के साथ इस कहानी में उपस्थित है।
इससे पूर्व प्रेमचंद, मुक्तिबोध एवं पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी की कहानियां इस स्तंभ में प्रस्तुत की जा चुकी हैं। पढि़ए इस स्तंभ की चौथी कहानी एक टोकरी भर मिट्टी। इस कहानी को साहित्य अकादमी के लिए कमलेश्वर जी ने हिन्दी की कालजयी कहानियां शृंखला में प्रथम कहानी के रूप में छापकर इसके महत्व को रेखांकित किया है।
संयोजक- डॉ. परदेशीराम वर्मा , एल आई जी-18, आमदीनगर, भिलाई 490009, मोबाइल 9827993494
3 comments:
हिन्दी की यह कहानी अद्भुत है ।
1900 में छपी पहली मौलिक कहानी होने के बावजूद
यह आज की कहानियों के बीच भी पूरे प्रभाव और
प्रसंगिकता के साथ उपस्थित है ।
इस कहानी को मैंने पहली बार लगभग पचास वर्ष पूर्व
चंदामामा में पढ़ा था । बाद में पहली कहानी को ले कर
हुई बहसों के चलते सारिका आदि में ।
आपने इसका उपयुक्त चयन किया ।
यह कहानी हर एक को पढ़ना चाहिये
Is kahani se hme bhut prerna milti h.
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