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Oct 21, 2015

उदंती - अक्टूबर- 2015

उदंती - अक्टूबर- 2015

भगवान ने हमारे मष्तिष्क और व्यक्तित्व में असीमित शक्तियाँ और क्षमताएँ दी हैं। ईश्वर की प्रार्थना हमें इन शक्तियों को  विकसित करने में मदद करती है। अब्दुल कलाम

पर्व-संस्कृति विशेष

Oct 20, 2015

आस्था, परम्परा और विश्वास


आस्था, परम्परा और विश्वास
- डॉ. रत्ना वर्मा
 उदंती का यह अंक तैयार करते समय मन में यही विचार था कि छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति, लोक पर्व, लोक परम्पराओं, लोक आस्था और लोक विश्वास को एक जगह संजोने का प्रयास किया जाए... पुरातन काल से ही हमारी लोक- परम्पराएँ और लोक विश्वास इस आधार पर अनदेखा कर दिए जाते हैं कि ये सब गाँव- गँवई के पुरातनपंथी ढकोसले हैं। लेकिन हम अपनी परम्पराओं को सिर्फ यह कह कर अनदेखी नहीं कर सकते कि ये सब पुरातन काल से चली आ रही हैं और आज इनके कोई मायने नहीं है। समय के अनुसार बदलाव जरूरी है; परंतु हम यह भी जानते हैं हमारे पूर्वजों ने जिन परम्पराओं को पीढ़ी- दर पीढ़ी चलाया है उसके पीछे कुछ तो निहितार्थ छिपा है।    
इस संदंर्भ में हम कुछ ऐसी परम्पराओं को ले सकते हैं;  जिनके महत्त्व को वैज्ञानिक भी नकार नहीं सकते। जैसे पेड़ों की पूजा- जिसमें तुलसी, आँवला, वट, पीपल आदि। इन सबकी पूजा के पीछे भले ही धार्मिक आस्था और व्रत उपवास को जोड़ दिया गया हो; पर इनकी पूजा के पीछे का कारण एकमात्र यही रहा है कि वृक्षों का जीवित रहाना हमारे जीवन के लिए आवश्यक हैं और इनको बचाया जाना जरूरी है। पेड़ों को बचाने के लिए जरूर इनके साथ कुछ अंधविश्वास जुड़ गए कि इन पुराने पेड़ों में भूत प्रेत का निवास होता है, ऐसा मैंने अपने गाँव में भी देखा-सुना है। मैं अपने जन्म से लेकर आज तक उस वृक्ष को हरा-भरा देख रही हूँ शायद उस विशाल वृक्ष की उम्र सौ साल से  भी ज्यादा होगी। इस वृक्ष के साथ अंधविश्वास कब और कैसे जुड़ गया मैं नहीं जानती लेकिन जब हम बच्चे खेलते हुए उस वृक्ष के पास जाते थे; तो वहाँ चढ़ावे के रूप में चूड़ी,सिंदूर बाँस की छोटी -छोटी टोकनी आदि रखी रहती थीं, तब हमें भी उस पीपल पेड़ के पास जाने में डर लगता था। खासकर जब अँधेरा छाने लगता था, तो उधर जाकर खेलने पर मनाही भी होती थी। शायद मनुष्य की बढ़ती लालची प्रवृत्ति को देखते हुए हमारे पूर्वजों ने ऐसा डर पैदा करके पेड़ों की रक्षा की होगी यह कहकर कि यदि उनकी पूजा न की गई, तो वे उनको नुकसान पँहुचा सकते हैं। या इन पेड़ों पर भूत प्रेतों का वास होता है ,यदि इन्हें काटोगे या इनकी उपेक्षा करोगे तो इनमें रहने वाली प्रेतात्माएँ तुम्हें परेशान करेंगी। नतीजा सामने है कि तब डर से ही सही ,पर आदि कालसे ही मनुष्यों ने इन वृक्षों की पूजा करके इनकी अंधाधुंध कटाई तो रोकी ही है?
इसी तरह अन्य वृक्षों को बचाकर रखने के लिए न जाने कब से हम पीढ़ी दर पीढ़ी पर्यावरण का पाठ अपने बच्चों को पढ़ाते आ रहे हैं।  अब तो स्कूलों में यह पाठ इसलिए पढ़ाया जाना जरूरी हो गया है ;क्योंकि हम अपनी धरती को धीरे धीरे वृक्ष विहिन करते चले जा रहे हैं। परिणाम सब देख ही रहे हैं एक के बाद एक कभी भूंकप ,कभी बाढ़ तो कभी सूखा।
यहाँ मैं इस अंक में शामिल पंकज अवधिया जी के एक लेख का उल्लेख करना चाहूँगी जो हरेली पर्वको ध्यान में रखकर हमारी आस्था परम्परा और विश्वास के आधार पर लिखा गया है । इस आलेख को जब आप पढ़ेंगे, तो आपको पता चलेगा कि किस तरह एक पर्व के बहाने हम रोग- निरोधक नीम की टहनियाँ घर -घर लगाते हैं और कई  रोगों से अपना बचाव करते हैं। इस पर्व में भले ही यह कहते हुए कि- नीम की टहनी लगाने से हमारे घर परिवर को किसी बुरी आत्मा की नजर नहीं लगेगी,हम अपने आस-पास के वातावरण को नीरोगी बनाते है।अवधिया जी ने सत्य ही तो कहा है बीमारी बुरी आत्मा ही तो है।
 सेहत की बात करें तो आज हम फिर अपनी उसी चिकित्सा पद्धति की ओर लौट रहे हैं ,जिसमें जड़ी- बूटियों से ही हर मर्ज की दवा की जाती थी, हमारे देश में ऐसे हजारों पेड़- पौधे हैं जिनसे अनेक बीमारियों का इलाज होता है, पर आज हम उन सबको भूल चुके हैं और बहुत सारे पेड़ पौधों को तो नष्ट भी कर चुके हैं। शुद्ध पर्यावरण, शुद्ध हवा और बेहतर स्वास्थ्य के लिए हमें अपनी पुरानी परम्पराओं पर फिर से विश्वास करना होगा और लोगों में इसके लिए आस्था जगानी होगी।

यहाँ कहना मैं यही चाह रही हूँ, कि हमारे सभी लोक विश्वास अंधविश्वास नहीं होते और न ही सभी लोक परम्पराओं को पुरातनपंथी कहते हुए नकार सकते। जब कोई मनुष्य अपने फायदे के लिए लोगों के डर का फायदा उठाते हुए अंधविश्वास फैलाए, तो उसका पुरजोर विरोध होना ही चाहिए। जैसे किसी स्त्री को टोनही बताते हुए उसे गाँव से बाहर कर देना या उसके साथ अत्याचार करना।  कहीं भी एक पत्थर रखकर उसे गेरू रंग से रंग कर लोगों को पूजा के लिए बाध्य करना फिर यह कहते हुए कि यह सिद्ध देवी है या देवता, यहाँ आपकी सभी मान्यताएँ पूरी होंगी, पुत्र की प्राप्ति होगी जैसी अपवाह फैलाकर धीरे- धीरे उस पत्थर के चारो ओर घेर लेते हैं और वहाँ विशाल मंदिर भी खड़ा कर लेते हैं फिर कुछ ही सालों में वहाँ नवरात्रि जैसे पर्व त्योहार के समय मेला भी भरने लगता है।यह सब काम हमारी शासन और प्रशासन की नाक के नीचे होता है पर वह समय रहते कुछ नहीं करती। बरसो पहले मैंने अपने गाँव जाने वाले रास्ते में एक ऐसे ही पत्थर को गेरूए रंग से रंगकर उसे पूजा स्थल बनाकर उस स्थान पर विशाल मंदिर खड़ा होते देखा है, अब वह मंदिर फोरलेन सड़क बनने के रास्ते में आएगा और बस फिर वहाँ भी विभिन्न राजनीतिक दल वोट बटोरने के लिए अपनी सियासी चाल चलेंगे, लेकिन समय रहते शुरू में उसका विरोध करने कोई नहीं आता। आपने अपने शहर में भी ऐसे कई धार्मिक स्थलों को पनपते जरुर देखा होगा। जनता इसका विरोध करना चाहती है; पर मामला जहाँ धर्म का होता है ,वहाँ सब पीछे हट जाते हैं ; क्योंकि धर्म के नाम पर बड़े–बड़े कांड होते सबने देखा है।
यहाँ आशय किसी की भावनाओं को, किसी की धार्मिक आस्था को ठेस पँहुचाने का नहीं है। कहना सिर्फ इतना ही है कि जीवन के प्रति आस्था और विश्वास कायम रहे।इस संसार को चलाने वाले के प्रति जब तक हम श्रद्धा भक्ति का भाव नहीं रखेंगे ,तो जीवन चल नहीं पाएगा। पर अंध श्रद्धा- अंध भक्ति किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। विरोध इन सब बुराइयों का होना चाहिए। इतना ही नहीं आजकल तो हमारे देश में ऐसे कई ढोंगी साधु महात्मा बने बैठे , जो अपने हजारों अनुयायी बनाकर जनता को लूट रहे है, ऐसे कई आज जेल की हवा खा रहे हैं ;पर हमारी भोली जनता फिर भी ऐसे लोगों की चपेट में क्यों और किस तरह आती है यह आश्चर्यजनक है। ऐसे ही अंधविश्वास को मिटाना है और जीवन में उत्साह और उमंग का संचार हो ऐसी आस्था लोगों के मन में जगाना है।   

उत्साह, उमंग और भक्ति रस में डूबा देश

उत्साह, उमंग और 
भक्ति रस में डूबा देश
- पल्लवी सक्सेना
भारत एक ऐसा देश है जहाँ अनेकता में एकता ही उसकी पहचान  है। भारत में रहने वाले सभी भारतवासी या फिर वे जो भारत को, यहाँ की संस्कृति को, सभ्यता को जानते हैं, पहचानते हैं, उन्हें  यह बात बताने की जरूरत ही नहीं कि कितना सुंदर है हमारा भारत देश। यहाँ मुझे हिन्दी फिल्म 'फना' का एक गीत याद आ रहा है -
यहाँ हर कदम- कदम पर धरती बदले रंग
यहाँ की बोली में रंगोली सात रंग,
धानी पगड़ी पहने मौसम है,
नीली चादर ताने अंबर है,
नदी सुनहरी, हरा समंदर,
है यह सजीला, देस रंगीला, रंगीला, देस मेरा रंगीला...   
यह बात अलग है कि पिछले कुछ वर्षों में आतंकी हमलों के कारण यहाँ की आन- बान और शानो- शौकत पर थोड़ी सी शंका की धूल गिरी है मगर इसका गौरव आज भी वैसा ही है, जैसे पहले हुआ करता था। रही सुख और दु:ख की बात तो वह तो जीवन चक्र की भांति सदा ही इंसान की जिंदगी में चलते ही रहता है। फिल्म दिलवाले दुलहनिया ले जायेंगे का एक संवाद है- 'बड़े- बड़े शहरों में ऐसी छोटी- छोटी बातें होती रहती हैं जिसे मैंने बदल कर दिया है कि 'बड़े- बड़े देशों में ऐसी छोटी- छोटी वारदातें होती रहती हैं क्योंकि जितना बड़ा परिवार हो उतनी ही ज्यादा बातें भी तो होगी।  जहाँ प्यार होगा वहाँ लड़ाई भी होगी।  ऐसा ही कुछ मस्त मिजाज का है अपना भारत भी। 
इतना कुछ घट जाने के बाद भी यहाँ हर एक त्योहार बड़ी धूमधाम से मनाए जाते है। हर त्यौहार का अपना एक अलग ही रंग और अपना एक अलग ही मजा होता है। देखा जाए तो यह  पूरा महीना ही त्योहारों से भरा हुआ  होता है। तो क्यूँ ना आप और हम भी सब कुछ भूलाकर, सारे गिले- शिकवे मिटा कर त्योहारों का लुफ्त उठायें-
जैसा कि आप सब जानते हैं कि भारत में रक्षाबंधन के बाद से ही त्योहारों का सिलसिला शुरू हो जाता है। नवरात्र के नौ दिन सबसे पहले आता है। अभी लिखते वक्त जैसे आँखों के सामने एक चलचित्र सा चल रहा है। चारो ओर माँ के नाम का जयकारा। पूरा माहौल भक्ति रस में डूबा हुआ। जगह- जगह माँ की सुंदर मूर्तियों से सुशोभित मनमोहक झांकियाँ, मेले, गाना- बजाना और जागरण।  इन नौ दिनों में दुनिया अपना सारा दु:ख- दर्द भूल कर सिर्फ माँ के भक्ति रस में भाव विभोर हो जाती है।  जगह- जगह गरबा प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता है। कितने आनंददायक होते हैं नवरात्र के ये दिन।
फिर आता है दशहरा यानी बुराई पर अच्छाई की जीत का पर्व, इस दिन माँ दुर्गा की मूर्ति का विसर्जन भी किया जाता है और ऐसी मान्यता है कि इस दिन माँ दुर्गा भगवान श्री राम को विजयी होने का आशीर्वाद देती हुई विसर्जन के माध्यम से लुप्त हो जाती हैं और उसके बाद  दशहरे का पर्व शुरू होता है।
इस त्योहार के मौसम में इस साल यह अक्टूबर का महीना महिलाओं के लिए भी रंगों भरा महीना ले कर आया है। जिसमें चाँद की महिमा लिये करवाचौथ जिसे अखंड सुहाग का त्यौहार माना जाता है। इस दिन सभी सुहागिन औरतें अपने- अपने पति की दीर्घ आयु के लिए करवा चौथ का उपवास रखती हैं। चाँद देखने के बाद पति का चेहरा देख कर व्रत खोलती हैं। पहले यह त्योहार इतनी धूम- धाम से नहीं मनाया जाता था। मेरी मम्मी के अनुसार मेरी दादी ऐसा बताया करती थीं कि यह सब गृहस्थी की पूजा है। जिसे पहले के जमाने में घर की औरतें आपस में मिल जुल कर ही कर लिया करती थी। मगर अब फिल्म वालों की मेहरबानी से पतियों को भी इस व्रत के महत्त्व की जानकारी मिल गई है। अब तो पति भी अपनी पत्नी के लिए यह व्रत करते देखे जा सकते हैं।
अब बारी आती है साल के सबसे बड़े हिन्दू पर्व की यानी दीपावली की। हिंदुओं का सबसे बड़ा यह त्योहार हिन्दी कैलेंडर के अनुसार कार्तिक अमावस्या को मनाया जाता है। इस दिन भगवान श्री राम अपने चौदह वर्ष का वनवास पूरा करके अयोध्या लौट कर आये थे और लोगों ने दीप प्रज्वलित कर उनका स्वागत किया था। लोग महीनों पहले से इस त्योहार के लिए तैयारियाँ करते हैं। बरसात के बाद आने के कारण लोग घर की रँगाई करवाते हैं। जिससे सारे घर की साफ- सफाई अच्छी तरह हो जाती है। क्योंकि ऐसी मान्यता है कि जिसका घर जितना साफ सुथरा होगा उसके घर माँ लक्ष्मी का आगमन उतनी जल्दी होगा। और इस अवसर पर तरह- तरह के पकवान भी बनाये जाते हैं। दीपावली के दिन एक और रिवाज है दीपावली के दिन शाम को लक्ष्मी पूजन के बाद लोग एक दूसरे के घर जलता हुआ दिया लेकर जाते हैं। ताकि किसी के भी घर दिये की रोशनी के बिना अंधेरा ना रहे, है ना अच्छी परंपरा।  चूंकि मैं भोपाल की हूं अत: वहां मैंने इस परम्परा को देखा है। लोग एक दूसरे से गले मिलते हैं, उपहार देते है, दीपावली की शुभकामनाएँ देते हैं, फटाखे फोड़ते हैं।  घर के लिए कोई नया सामान लेना हो तो भी दीपावली के आने का इंतजार रहता है। दीपावली पाँच दिनों का उत्सव होता है पहले धनतेरस, फिर नरक चौदस और फिर लक्ष्मी पूजा, और इसके बाद गोवर्धन पूजा जिसे अन्नकूट के नाम से भी जाना जाता है इसके बाद पांचवे दिन भाई दूज। धनतेरस वाले दिन वैसे तो सोना या चाँदी खरीदे जाने का रिवाज है, मगर आज कल की महँगाई के इस दौर में सबके लिए यह सब संभव नहीं इसलिए हमारे समझदार बुजूर्गों ने सोने चाँदी के अलावा इस दिन कोई भी नया समान खरीदने का चलन बना दिया। ताकि गरीब से गरीब इंसान भी इस दिन कुछ नया समान लेकर यह त्योहार मना सके।
नरक चौदस को यमराज का दिन माना जाता है और उनसे तो सभी को डर लगता है। इसलिए इस दिन को मनाना कोई नहीं भूलता... इस दिन आधी रात को मूँग की दाल से बने पापड़ पर काली उड़द की दाल रख कर उस पर यम के नाम का चार बत्ती वाला दिया जलाकर रास्ता शांत हो जाने के बाद बीच रास्ते में रख देते हैं, जब तक दीपक शांत न हो जाए वहाँ खड़े रहकर प्रतीक्षा करते हैं। जैसे ही दिया शांत होता है, उस स्थान पर पानी डाल कर बिना पीछे देखे घर में चले जाते हैं। इसके पीछे मान्यता यह है कि मरणोंपरांत जब यमदूत आपको लेकर जाते हैं तब उन चार बत्तियों वाले दिये की चारों बत्तियाँ चार दिशाओं का प्रतीक होती हैं। यमदूत के साथ होते हुए भी आपको उस मार्ग की चारों दिशाओं में उस दीपक की वजह से भरपूर रोशनी मिलती है। मगर सभी घरों में ऐसा नहीं होता है। हर घर की अलग मान्यता होती है, जो मैंने अभी बताया वो मेरे अपने घर की प्रथा है।
फिर आती है दीपावली यानी लक्ष्मी पूजा और अगली सुबह गोवर्धन पूजा। इस त्योहार का भारतीय लोकजीवन में काफी महत्त्व है। इस पर्व में प्रकृति के साथ मानव का सीधा सम्बन्ध दिखाई देता है। इस पर्व की अपनी मान्यता और लोककथा है। गोवर्धन पूजा में गोधन यानी गायों की पूजा की जाती है । शास्त्रों में बताया गया है कि गाय उसी प्रकार पवित्र होती जैसे नदियों में गंगा। गाय को देवी लक्ष्मी का स्वरूप भी कहा गया है। देवी लक्ष्मी जिस प्रकार सुख समृद्धि प्रदान करती हैं उसी प्रकार गौ माता भी अपने दूध से स्वास्थ्य रूपी धन प्रदान करती हैं। इनका बछड़ा खेतों में अनाज उगाता है। इस तरह गौ सम्पूर्ण मानव जाती के लिए पूजनीय और आदरणीय है। गौ के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए ही कार्तिक शुक्ल पक्ष प्रतिपदा के दिन गोर्वधन की पूजा की जाती है और इसके प्रतीक के रूप में गाय की।
जब कृष्ण ने ब्रजवासियों को मूसलधार वर्षा से बचने के लिए सात दिन तक गोवर्धन पर्वत को अपनी सबसे छोटी उँगली पर उठाकर रखा और गोप- गोपिकाएँ उसकी छाया में सुखपूर्वक रहे और सातवें दिन भगवान ने गोवर्धन को नीचे रखा और इस दिन गोवर्धन पूजा करके अन्नकूट उत्सव मनाने की आज्ञा दी। तभी से यह उत्सव अन्नकूट के नाम से मनाया जाने लगा।
 इसके बाद आता है भाई दूज।  इस दिन सभी बहनें अपने भाइयों को तिलक करती हैं और उनकी सुख समृद्धि की कामना करती हैं। साधारण तौर पर हिन्दू धर्म में इस त्यौहार को मनाने का यही तरीका है। मगर कायस्थ समाज में इस त्योहार के मनाए जाने का कुछ अलग रिवाज है। इस दिन वहां भगवान श्री चित्रगुप्त की पूजा की जाती है और दूध में उंगली से पत्र लिखा जाता है। मान्यता यह है कि आपकी मनोकामनाओं का पत्र देव लोक तक पहुँच जाता है।
पहले लड़कियों को ज्यादा पढ़ाया लिखाया नहीं जाता था।  इसलिए इस पूजा में लड़कियों को शामिल नहीं किया जाता है। किन्तु अब ऐसा नहीं है। बदलते वक्त ने लोगों की मानसिकता को बदला है। आजकल लड़कियाँ पढ़ी- लिखी होती हंै इसलिए अब बहुत से घरों में लड़कियों को भी इस पूजा में शामिल होने दिया जाता है। मैंने भी अपने घर यह पूजा
की है।
अब बारी आती है देवउठनी ग्यारस की। इसे बड़ी ग्यारस के नाम से भी जाना जाता है। इस वक्त गन्ने की फसल आती है अत: रात को गन्ने से झोपड़ी बना कर पूजा की जाती है।  इस दिन से ही शादी तय करने तथा घर बनाने जैसे शुभ कार्य करने की शुरूआत होती है।  ऐसा माना जाता है कि ग्यारस से भगवान विष्णु चार महीने बाद निंद्रा से जाग जाते है। भगवान के सोने के पीछे  की  मान्यता  के बारे में मेरे  ससुर जी का कहना है कि पहले आवागमन के साधन कम थे, लोग गाँव में रहते थे अत: बारिश में मौसम खराब होने के कारण बहुत दिक्कते आती होंगी  इसलिए देव सो गए हैं तीन- चार माह के लिए शादी में रोक लगा दी  गई होगी। दीपावली के बाद मौसम ठंडा और सुहाना हो जाता है तो देवों को उठा दिया और शादियों कि अनुमति दे दी गई।
अन्त में बस इतना ही कहना चाहूँगी कि त्यौहार हर बार सभी के लिए खुशियाँ लेकर आये यह जरूरी नहीं, आज न जाने कितने ऐसे परिवार हैं जिनके लिए इन त्योहारों का कोई मोल ना बचा हो मगर चलते रहना ही जिंदगी है जो रुक गया उसका सफर वहीं खत्म हो जाया करता है। इसलिए यदि हो सके तो पुरानी बातों को भूल कर आगे बढऩे का प्रयास कीजिये अगर अपनों के जाने के गम ने आपसे त्यौहार की ख़ुशी छीनी है तब भी आपके अपने कई और भी हंै, जो आपको इन त्योहारों के खुशनुमा माहौल में खुश देखना चाहते हैं। कुछ और नहीं तो अपनों की खुशी के लिए ही सही जिंदगी में दर्द और गम को भुलाकर आगे बढिय़े क्योंकि...
'जीने वालों जीवन छुक- छुक गाड़ी का है खेल,
कोई कहीं पर बिछड़ गया किसी का हो गया मेल' ....

सम्पर्क:  द्वारा: डॉ. एस.के. सक्सेना, 27/1 गीतांजलि कॉम्पलेक्स, गेट न. 3 भोपाल (म.प्र.)

                Email- pallavisaxena80@gmail.com

विभिन्न संस्कृतियों के विकास का केन्द्र रहा है छत्तीसगढ़

विभिन्न संस्कृतियों के 

विकास का केन्द्र रहा है 

छत्तीसगढ़

- जी.के. अवधिया
भारत में दो क्षेत्र ऐसे हैं जिनका नाम विशेष कारणों से बदल गया- एक तो 'मगध' जो बौद्ध विहारों की अधिकता के कारण बिहार बन गया और दूसरा 'दक्षिण कौशल' जो छत्तीस गढ़ों को अपने में समाहित रखने के कारण 'छत्तीसगढ़' बन गया। किन्तु ये दोनों ही क्षेत्र अत्यन्त प्राचीन काल से ही भारत को गौरवान्वित करते रहे हैं। छत्तीसगढ़ तो वैदिक और पौराणिक काल से ही विभिन्न संस्कृतियों के विकास का केन्द्र रहा है। यहाँ के प्राचीन मन्दिर तथा उनके भग्नावशेष इंगित करते हैं कि यहाँ पर वैष्णव, शैव, शाक्त, बौद्ध के साथ ही अनेकों आर्य तथा अनार्य संस्कृतियों का विभिन्न कालों में प्रभाव रहा है।
छत्तीसगढ़ का पौराणिक महत्त्व
छत्तीसगढ़ प्राचीनकाल के दक्षिण कौशल, जिसका विस्तार पश्चिम में त्रिपुरी से लेकर पूर्व में उड़ीसा के सम्बलपुर और कालाहण्डी तक था का एक हिस्सा है और इसका इतिहास पौराणिक काल तक पीछे की ओर चला जाता है। पौराणिक काल का 'कौशल' प्रदेश, जो कि कालान्तर में 'उत्तर कौशल' और 'दक्षिण कौशल' नाम से दो भागों में विभक्त हो गया, का 'दक्षिण कौशल' ही वर्तमान छत्तीसगढ़ कहलाता है। इस क्षेत्र के महानदी (जिसका नाम उस काल में चित्रोत्पला था) का मत्स्यपुराण तथा महाभारत के भीष्म पर्व में वर्णन है -
चित्रोत्पला चित्ररथां मंजुलां वाहिनी तथा।
मन्दाकिनीं वैतरणीं कोषां चापि महानदी।।
- महाभारत- भीष्मपर्व- 9/34
मन्दाकिनीदशार्णा च चित्रकूटा तथैव च।
तमसा पिप्पलीश्येनी तथा चित्रोत्पलापि च।।
मत्स्यपुराण- भारतवर्ष वर्णन प्रकरण- 50/25)
चित्रोत्पला वेत्रवपी करमोदा पिशाचिका।
तथान्यातिलघुश्रोणी विपाया शेवला नदी।।
ब्रह्मपुराण -  भारतवर्ष वर्णन प्रकरण- 19/31)
वाल्मीकि रामायण में भी छत्तीसगढ़ के बीहड़ वनों तथा महानदी का स्पष्ट उल्लेख है। यहाँ स्थित सिहावा पर्वत के आश्रम में निवास करने वाले शृंगी ऋषि ने ही अयोध्या में राजा दशरथ के यहाँ पुत्र्येष्टि यज्ञ करवाया था जिससे कि तीनों भाइयों सहित भगवान श्री राम का पृथ्वी पर अवतार हुआ। इस दृष्टि से राम को धरती पर लाने का प्रमुख श्रेय छत्तीसगढ़ को ही प्राप्त है। राम के काल में यहाँ के वनों में ऋषि- मुनि- तपस्वी आश्रम बना कर निवास करते थे और अपने वनवास की अवधि में राम यहाँ आये थे।
प्रतीत होता है कि राम के काल में भी कौशल राज्य उत्तर कौशल और दक्षिण कौशल में विभाजित था। कालिदास के रघुवंश काव्य में उल्लेख है कि राम ने अपने पुत्र लव को शरावती का और कुश को कुशावती का राज्य दिया था। यदि शरावती और श्रावस्ती को एक मान लिया जाये तो निश्चय ही लव का राज्य उत्तर भारत में था और कुश दक्षिण कौशल के शासक बने। सम्भवत: उनकी राजधानी कुशावती आज के बिलासपुर जिले में थी, शायद कोसला ग्राम ही उस काल की कुशावती थी। यदि कोसला को राम की माता कौशल्या की जन्मभूमि मान लिया जावे तो भी किसी प्रकार की विसंगति प्रतीत नहीं होती। रघुवंश के अनुसार कुश को अयोध्या जाने के लिये विन्ध्याचल को पार करना पड़ता था इससे भी सिद्ध होता है कि उनका राज्य दक्षिण कौशल में ही था।
उपर्युक्त  सभी उद्धरणों से स्पष्ट है कि छत्तीसगढ़ आदिकाल से ही ऋषियों, मुनियों और तपस्वियों का पावन तपोस्थल    रहा है।
रामायण कालीन छत्तीसगढ़
ऐसे अनेकों तथ्य हैं जो इंगित करते हैं कि ऐतिहासिक दृष्टि से छत्तीसगढ़ प्रदेश की प्राचीनता रामायण युग को स्पर्श करती है। उस काल में दण्डकारण्य नाम से प्रसिद्ध यह वनाच्छादित प्रान्त आर्य-संस्कृति का प्रचार केन्द्र था। यहाँ के एकान्त वनों में ऋषि-मुनि आश्रम बना कर रहते और तपस्या करते थे। इनमें वाल्मीक, अत्रि, अगस्त्य, सुतीक्ष्ण प्रमुख थे इसीलिए  दण्डकारण्य में प्रवेश करते ही राम इन सबके आश्रमों में गये।
प्रतीत होता है कि छोटा नागपुर से लेकर बस्तर तथा कटक से लेकर सतारा तक के बिखरे हुये राजवंशों को संगठित कर राम ने वानर सेना बनाई हो। आर.पी. व्हान्स एग्न्यू लिखते हैं, 'सामान्य रूप से इस विश्वास की परम्परा चली आ रही है कि रतनपुर के राजा इतने प्राचीनतम काल से शासन करते चले आ रहे हैं कि उनका सम्बन्ध हिन्दू 'माइथॉलाजी' (पौराणिक कथाओं) में वर्णित पशु कथाओं (fables)  से है। (चारों महान राजवंश) सतारा के नरपति, कटक के गजपति, बस्तर के रथपति और रतनपुर के अश्वपति हैं (A Reeport on the Suba or Province of Chhattisgarh - written in 1820)। अश्व और हैहय पर्यायवाची हैं। श्री एग्न्यू का मत है कि कालान्तर में 'अश्वपति' ही हैहयवंशी हो गये। इससे स्पष्ट है कि इन चारों राजवंशों का सम्बन्ध अत्यन्त प्राचीन है तथा उनके वंशों का नामकरण चतुरंगिनी सेना के अंगों के आधार पर किया गया है।
बस्तर के शासकों का रथपति होने के प्रमाण स्वरूप आज भी दशहरे में रथ निकाला जाता है तथा दन्तेश्वरी माता की पूजा की जाती है। यह राम की उस परम्परा का संरक्षण है जबकि दशहरा के दिन राम ने शक्ति की पूजा कर लंका की ओर प्रस्थान किया था। यद्यपि लोग दशहरा को रावण- वध की स्मृति के रूप में मनाते हैं किन्तु उस दिन रावण का वध नहीं हुआ था वरन उस दिन राम ने लंका के लिए  प्रस्थान किया था। (दशहरा को रावण-वध का दिन कहना ठीक वैसा ही है जैसे कि संत तुलसीदास के रामचरितमानस को रामायण कहना।)
राजाओं की उपाधियों से यह स्पष्ट होता है राम ने छत्तीसगढ़ प्रदेश के तत्कालीन वन्य राजाओं को संगठित किया और चतुरंगिनी सेना का निर्माण कर उन्हें नरपति, गजपति, रथपति और अश्वपति उपाधियाँ प्रदान की। इस प्रकार रामायण काल से ही छत्तीसगढ़ प्रदेश राम का लीला स्थल तथा दक्षिण भारत में आर्य संस्कृति का केन्द्र बना।
इतिहास में इसके प्राचीनतम उल्लेख सन 639 ई0 में प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रा विवरण में मिलते हैं। उनकी यात्रा विवरण में लिखा है कि दक्षिण-कौसल की राजधानी सिरपुर थी। बौद्ध धर्म की महायान शाखा के संस्थापक बोधिसत्व नागार्जुन का आश्रम सिरपुर (श्रीपुर) में ही था। इस समय छत्तीसगढ़ पर सातवाहन वंश की एक शाखा का शासन था। महाकवि कालिदास का जन्म भी छत्तीसगढ़ में हुआ माना जाता है। प्राचीन काल में दक्षिण-कौसल के नाम से प्रसिद्ध इस प्रदेश में मौर्यों, सातवाहनों, वकाटकों, गुप्तों, राजर्षितुल्य कुल, शरभपुरीय वंशों, सोमवंशियों, नल वंशियों, कलचुरियों का शासन था। छत्तीसगढ़ में क्षेत्रीय राजवंशों का शासन भी कई जगहों पर मौजूद था। क्षेत्रिय राजवंशों में प्रमुख थे बस्तर के नल और नाग वंश, कांकेर के सोमवंशी और कवर्धा के फणि नागवंशी। बिलासपुर जिले के पास स्थित कवर्धा रियासत में चौरा नाम का एक मंदिर है जिसे लोग मंडवा-महल भी कहते है। इस मंदिर में सन् 1349 ई. का एक शिलालेख है जिसमें नाग वंश के राजाओं की वंशावली दी गयी है। नागवंश के राजा रामचन्द्र ने यह लेख खुदवाया था। इस वंश के प्रथम राजा अहिराज कहे जाते हैं। भोरमदेव के क्षेत्र पर इस नागवंश का राजत्व 14 वीं सदी तक कायम रहा।
पृथक राज्य के रूप में छत्तीसगढ़ राज्य का गठन 1 नवंबर 2000 को हुआ था। यह भारत का 26वां राज्य है।
छत्तीसगढ़ के उत्तर और उत्तर-पश्चिम में मध्यप्रदेश का रीवां संभाग, उत्तर-पूर्व में उड़ीसा और बिहार, दक्षिण में आंध्र प्रदेश और पश्चिम में महाराष्ट्र राज्य स्थित हैं। यह प्रदेश ऊँची नीची पर्वत श्रेणियों से घिरा हुआ घने जंगलों वाला राज्य है। यहाँ साल, सागौन, साजा और बीजा और बाँस के वृक्षों की अधिकता है। छत्तीसगढ़ क्षेत्र के बीच में महानदी और उसकी सहायक नदियाँ एक विशाल और उपजाऊ मैदान का निर्माण करती हैं, जो लगभग 80 कि.मी. चौड़ा और 322 कि.मी. लम्बा है। समुद्र सतह से यह मैदान करीब 300 मीटर ऊँचा है। इस मैदान के पश्चिम में महानदी तथा शिवनाथ का दोआब है। इस मैदानी क्षेत्र के भीतर हैं रायपुर, दुर्ग और बिलासपुर जिले के दक्षिणी भाग। धान की भरपूर पैदावार के कारण इसे धान का कटोरा भी कहा जाता है। मैदानी क्षेत्र के उत्तर में है मैकल पर्वत शृंखला। सरगुजा की उच्चतम भूमि ईशान कोण में है। पूर्व में उड़ीसा की छोटी-बड़ी पहाडिय़ाँ हैं और आग्नेय में सिहावा के पर्वत शृंग है। दक्षिण में बस्तर भी गिरि-मालाओं से भरा हुआ है। छत्तीसगढ़ के तीन प्राकृतिक खण्ड हैं उत्तर में सतपुड़ा, मध्य में महानदी और उसकी सहायक नदियों का मैदानी क्षेत्र और दक्षिण में बस्तर का पठार। राज्य की प्रमुख नदियाँ हैं- महानदी, शिवनाथ, खारुन, पैरी तथा इंद्रावती नदी।
सम्पर्क: अवधिया पारा चौक, पीपल झाड़ के पास, रायपुर (छ.ग.) 492001

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छत्तीसगढ़ में दशहरा

   
   शौर्य और शक्ति के प्रदर्शन का पर्व

- प्रो. अश्विनी केशरवानी
दशहरा भारत का एक प्रमुख लोकप्रिय त्योहार है। इसे देश के कोने-कोने में हर्ष और उल्लास के साथ मनाया जाता है। वास्तव में यह त्योहार असत्य के ऊपर सत्य का और अधर्म पर धर्म की विजय का प्रतीक है। श्रीराम सत्य के प्रतीक हैं। रावण असत्य के प्रतीक हैं। विजय प्राप्त करने के लिए शक्ति की आवश्यकता होती है और हमें शक्ति माँ भवानी की पूजा-अर्चना से मिलती है। इसके लिए अश्विन शुक्ल प्रतिपदा से नवमीं तक माँ दुर्गा की पूजा-अर्चना करते हैं और दसमीं को दस सिर वाले रावण के उपर विजय प्राप्त करते हैं। कदाचित् इसी कारण दशहरा को 'विजयादशमीÓ कहा जाता है। वास्तव में रावण अजेय योद्धा के साथ साथ प्रकांड विद्वान भी थे। उन्होंने अपने बाहुबल से देवताओं, किन्नरों, किरातों और ब्रह्मांड के समस्त राजाओं को जीतकर अपना दास बना लिया था। मगर वे अपनी इंद्रियों कों नहीं जीत सके तभी तो वे काम, क्रोध, मद और लोभ के वशीभूत होकर कार्य करते थे। यही उन्हें असत्य के मार्ग में चलने को मजबूर करते थे। इसी के वशीभूत होकर उन्होंने माता सीता का हरण किया और श्रीराम के हाथों मारे गये। श्रीराम की विजय की खुशी में ही लोग इस दिन को 'दशहरा' कहने लगे और प्रतिवर्ष रावण के प्रतिरूप को मारकर दशहरा मनाने लगे।
 यहाँ यह बात विचारणीय है कि आज हम गाँव-गाँव और शहर में इस दिन रावण की आदमकद प्रतिमा बनाकर जलाकर दशहरा मनाते हैं। इस दिन रावण की प्रतिमा को जलाकर घर लौटने पर माँ अपने पति, बेटे और नाती-पोतों तथा रिश्तेदारों की आरती उतारकर दही और चावल का तिलक लगाती है और मिष्ठान खाने के लिए पैसे देती है। कई घरों में नारियल देकर पान-सुपारी खिलाने का रिवाज है। इस दिन अपने मित्रों, बड़े बुर्जुर्गों, छोटे भाई-बहनों, माताओं आदि सबको 'सोनपत्ति' देकर यथास्थिति आशीर्वाद प्राप्त किया जाता है। लोग अपने मित्रों से गले मिलकर रावण मारने की बधाई देते हैं। कहीं-कहीं दशहरा के पहले 'रामलीला' का मंचन होता है और रामराज्य की कल्पना की जाती है। रायगढ़ में मथुरा की नाटक मंडली आकर रामलीला का मंचन करती थी। छत्तीसगढ़ में रामलीला के लिए अकलतरा और कोसा बहुत प्रसिद्ध था। इसी प्रकार रासलीला के लिए नरियरा और नाटक के लिए शिवरीनारायण बहुत प्रसिद्ध था। दूरदर्शन की चकाचौंध ने रामलीला, रासलीला और नाटकों के मंचन को प्रभावित ही नहीं किया बल्कि समाप्त ही कर दिया है। यह एक विचारणीय प्रश्न है।
छत्तीसगढ़ के प्राय: सभी रियासतों और जमींदारी में कोई न कोई देवी प्रतिष्ठित हैं जो उनकी 'कुलदेवी ' हैं। ऐसा विश्वास किया जाता है कि देवियों की पूजा से राजा जहाँ शक्ति संपन्न होता था वहीं रियाया की सुरक्षा के शक्ति संचय आवश्यक भी था। वे अपनी मान्यता के अनुसार देवी के नाम पर अपनी राजधानी का नामकरण किये हैं। चंद्रपुर की चंद्रसेनी देवी, दंतेवाड़ा की दंतेश्वरी देवी, सारंगढ़ की सारंगढ़हीन देवी और संबलपुर की समलेश्वरी देवी आदि।
छत्तीसगढ़ में प्रमुख रूप से महामाया और समलेश्वरी देवी प्रतिष्ठित हैं। वास्तव में ये दोनों देवी दो प्रमुख रियासत क्रमश: रतनपुर और संबलपुर की कुलदेवी हैं। छत्तीसगढ़ की रियासतें और जमींदारी या तो रतनपुर से जुड़ी थी या फिर संबलपुर रियासत से। यहाँ के सामंतों ने मित्रतावश वहाँ की देवियों को अपनी राजधानी में स्थापित करके उन्हें अपनी कुलदेवी मान लिया। इसके अलावा यहाँ अनेक देवियाँ क्षेत्रीयता का बोध कराती हैं, जैसे- सरगुजा की सरगुजहीन दाई, चंद्रपुर की चंद्रसेनी देवी, डोंगरगढ़ की बमलेश्वरी देवी, अड़मार की अष्टभुजी देवी, कोरबा की सर्वमंगला देवी, दंतेवाड़ा की दंतेश्वरी देवी, जशपुर की कालीमाई आदि। इन देवियों की प्राण प्रतिष्ठा कई रियासतों और जमींदारी के निर्माण की गाथा से जुड़ी हैं। यहाँ नवरात्रि में देवियों की विशेष पूजा-अर्चना और दशहरा मनाने की विशिष्ट परम्परा रही है जो आज काल कवलित होती जा रही है। कहीं-कहीं इसके अवशेष देखे जा सकते हैं।
सक्ती रियासत में आज भी होती है
लकड़ी की तलवार की पूजा:
 इतिहास के पन्नों को उलटने से पता चलता है कि सक्ती रियासत यहाँ के शासक के शौर्य के प्रदर्शन के फलस्वरूप निर्मित हुआ था। पूर्व में यह क्षेत्र संबलपुरराज के अंतर्गत था। यहाँ के शासक संबलपुर रियासत की सेना में महत्त्वपूर्ण ओहदेदार थे और अपनी शूर वीरता के लिए बहुत चर्चित थे। यह दो जुड़वा भाई हरि और गुजर की कहानी है जिन्होंने लकड़ी की तलवार को अपना हथियार बनाया था। उसी तलवार से शिकार भी करते थे। जब संबलपुर के राजा कल्याणसाय को पता चला कि उनकी विशाल सेना में दो अधिकारी ऐसे हैं जो लकड़ी की तलवार से लड़ते हैं। तब उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ था। वे विचार करने लगे कि कहीं हमारी सेना की यह तौहीन तो नहीं है? उन्होंने तत्काल आदेश दिया कि इस वर्ष विजयादशमी पर्व में माँ समलेश्वरी में भैंस की बलि उन्हीं जुड़वा भाइयों की तलवार से दी जायेगी। शर्त यह होगी कि भैंस का सिर लकड़ी के तलवार के एक ही वार से कटना चाहिये अन्यथा दोनों भाईयों का सिर कलम कर दिया जाएगा...?
दशहरा के दिन संबलपुर में विशाल जन समुदाय के बीच राजा कल्याणसाय ने देखा कि हरि और गुजर ने अपनी लकड़ी की तलवार से एक ही वार से भैंस का सिर काट डाला, अविश्वसनीय किंतु सत्य। विशाल जन समुदाय ने करतल ध्वनि से दोनों भाइयों का स्वागत किया। राजा ने उनके शौर्य से प्रसन्न होकर घोषणा की कि 'तुम दोनों एक ऐसे क्षेत्र का विस्तार करो जो शक्ति का प्रतीक हो और जिसके तुम दोनों जमींदार होगे।' तब दोनों भाईयों ने एक ऐसा करतब दिखाया जिनसे सबको पुन: आश्चर्य में डाल दिया। उन्होंने राजा बहादुर से निवेदन किया कि 'हम दोनों सूर्योदय से सूर्यास्त तक पैदल जितनी भूमि नाप सकेंगे, हम उसी भूमि के अधिकारी होंगे। 'उनकी बात  राजा ने मान ली। शर्त के मुताबिक हरि और गुजर दिन भर में 138 वर्ग मील का क्षेत्र पैदल चलकर तय किया और शौर्य के प्रतीक 'सक्ती रियासत' की स्थापना की। उनके शौर्य गाथा में एक जनश्रुति और प्रचलित है जिसके अनुसार दोनों भाई एक बार निहत्थे एक आदमखोर शेर से लड़े थे। रियासत बनने के बाद सक्ती जमींदारी में प्रजा बड़ी सुखी थी। आगे चलकर यहाँ के जमींदार रूपनारायण सिंह को अंग्रेजों ने सन् 1892 में 'राजा की बहादुर' का सनद प्रदान किया। आज भी यहाँ दशहरा पर्व में देवी की पूजा-अर्चना और लकड़ी की तलवार की पूजा की जाती है।
सारंगढ़ में गढ़ भेदन की विचित्र परम्परा:
वर्तमान सारंगढ़ पूर्व में सारंगपुर कहलाता था। सारंग का शाब्दिक अर्थ है-बाँस। अर्थात् यहाँ प्राचीन काल में बाँसों का विशाल जंगल था। कहा तो यहाँ तक जाता है कि यहाँ के सैनिकों के हथियार भी बाँस के हुआ करते थे। यहाँ के राजा के पूर्वज बालाघाट जिलान्तर्गत लाँजी से पहले फूलझर आए। यहाँ के जमींदार उनके रिश्तेदार थे। बाद में श्री नरेन्द्रसाय को संबलपुर के राजा ने सैन्य सेवा के बदले सारंगढ़ परगना पुरस्कार में दिया था। आगे चलकर वे सारंगढ़ के जमींदार बने थे। यहाँ के राजा कल्याणसाय (सन् 1736 से 1777) हुए, जिन्हें मराठा शासक ने 'राजा' की पदवी प्रदान की थी। यहाँ के राजा संग्रामसिंह (सन् 1830 से 1872) को अंग्रेजों ने 'फ्यूडेटरी चीफ' बनाया था।
यहाँ के राजा की कुलदेवी 'सम्लाई देवीÓ है, जो गिरि विलास पैलेस परिसर में आज भी प्रतिष्ठित है। प्राप्त जानकारी के अनुसार समलेश्वरी देवी की स्थापना सन् 1692 में की गयी थी। सारंगढ़ छत्तीसगढ़ का उड़ीसा प्रांत से लगा सीमांत तहसील मुख्यालय है। यहाँ छत्तीसगढ़ी और उडिय़ा परम्परा आज भी देखने को मिलती है। यहाँ के प्रमुख त्योहारों में रथयात्रा और दशहरा है। रथयात्रा में जहाँ भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी सवारी पूरे नगर में बड़े उल्लास और श्रद्धा के साथ मनाई जाती है वहीं दशहरा में गढ़ भेदन की परम्परा यहाँ के मुख्य आकर्षक हैं। शिवरीनारायण मार्ग पर नगर से 4 कि.मी. की दूरी पर खेलभाठा में गढ़ भेदन किया जाता है। यहाँ  चिकनी मिट्टी का प्रतीकात्मक गढ़ (मिट्टी का ऊँचा टीला) बनाया जाता है और उसके चारों ओर पानी भरा होता है। गढ़ के सामने राजा, उसके सामंत और अतिथियों के बैठने के लिए मंच बनाया जाता था, जिसके अवशेष यहाँ आज भी मौजूद है। विभिन्न ग्रामों से दशहरा मनाने आये ग्रामीण जन इस गढ़ भेदन में प्रतियोगी होते थे। वे इस मिट्टी के गढ़ में चढऩे का प्रयास करते और फिसल कर पानी में गिर जाते हैं। पानी में भीगकर पुन: गढ़ में चढऩे के प्रयास में गढ़ में फिसलन हो जाती थी। बहुत प्रयत्न के बाद ही कोई गढ़ के शिखर में पहुँच पाता था और विजय स्वरूप गढ़ की ध्वजा को लाकर राजा को सौंपता था। करतल ध्वनि के बीच राजा उस विजयी प्रतियोगी को तिलक लगाकर नारियल और धोती देकर सम्मानित करते थे। फिर राजा की सवारी राजमहल में आकर दरबारेआम में बदल जाती थी जहाँ दशहरा मिलन होता था। ग्रामीणजन अपने राजा को इतने करीब से देखकर और उन्हें सोनपत्ती देकर, उनकी चरण वंदना कर आल्हादित हो उठते थे। सहयोगी सामंत, जमींदार और गौटिया नजराना पेश कर अपने को धन्य मानते थे। अंत में माँ समलेश्वरी देवी की पूजा अर्चना करके खुशी-खुशी घर को लौटते थे। राजा नरेशचंद्र सिंह ने यहाँ के दशहरा उत्सव को अधिक आकर्षक बनाने के लिए मध्यप्रदेश के मुख्य मंत्रियों को आमंत्रित किया करते थे जो गढ़ भेदन के समय मंच पर राजा के बगल में बैठते थे। यहाँ के दशहरा उत्सव में भाग लेने वाले मुख्य मंत्रियों में डॉ. कैलाशनाथ काटजू, श्री भगवंतराव मंडलोई, श्री द्वारिकाप्रसाद मिश्र, राजा गोविंदनारायण सिंह और पंडित श्यामाचरण शुक्ल प्रमुख थे। यहाँ भी बाँस के हथियारों की पूजा की जाती है।
चंद्रपुर में नवमी को दशहरा:
उड़ीसा के संबलपुर रियासत के अंतर्गत चंद्रपुर एक छोटी जमींदारी थी। जब मध्यप्रदेश बना तब चंद्रपुर को बिलासपुर जिलान्तर्गत जांजगीर तहसील में सम्मिलित किया गया था जो महानदी और मांड नदी के तट पर स्थित है। यहाँ की अधिष्ठात्री चंद्रसेनी देवी हैं। इस मंदिर की स्थापना के बारे में एक किंवदंती प्रचलित है। जिसके अनुसार चंद्रसेनी देवी, सरगुजा की सरगुजहीन दाई और संबलपुर की समलेश्वरी देवी की छोटी बहन है। समलेश्वरी देवी रायगढ़ और सारंगढ़ में भी विराजमान हैं। एक बार किसी बात को लेकर चंद्रसेनी देवी नाराज होकर सरगुजा को छोड़कर निकल जाती हैं। सरगुजा की सीमा को पार करके उदयपुर (वर्तमान धरमजयगढ़) होते हुए रायगढ़ आ जाती है। यहाँ समलेश्वरी देवी उन्हें रोकने का बहुत प्रयास करती है लेकिन चंद्रसेनी देवी यहाँ भी नहीं रुकती और दक्षिण दिशा में आगे बढ़ जाती है। रास्ते में वह सोचने लगती है कि अगर सारंगढ़ में समलेश्वरी दीदी पुन: रोकेंगी तो मैं क्या करूँगी..? इस प्रकार सोचते हुए वह महानदी के तट पर पहुँच गई और वहाँ विश्राम करने लगी। सफर की थकान से उन्हें गहरी नींद आ गई। एक बार संबलपुर के राजा की सवारी महानदी पार करते समय और अनजाने में राजा के पैर की ठोकर मिट्टी से दबी चंद्रसेनी देवी की लग गई जिससे उनकी निद्रा खुल गई। उन्होंने राजा को स्वप्न में निर्देश दिया कि तुमने मेरा अपमान किया है अगर तुमने महानदी के तट पर एक मंदिर निर्माण कराकर मेरी स्थापना नहीं कराई तो तुम्हारा सर्वनाश हो जाएगा..? तत्काल राजा ने मूर्ति को निकलवाकर महानदी के तट पर टीले के ऊपर एक मंदिर बनवाकर चंद्रसेनी देवी की स्थापना विधिवत् कराई। आगे चलकर उनके नाम पर चंद्रपुर नगर बसा। आज चंद्रसेनी देवी छत्तीसगढ़ और उड़ीसा की अधिष्ठात्री देवी हैं। यहाँ प्रतिवर्ष बड़ी धूमधाम से नवरात्र पर्व में पूजा-अर्चना की जाती है। यहाँ 'जेवरहा परिवार' को पूजा करने का अधिकार मिला है। अष्टमी के दिन यहाँ बलि देने की परंपरा है। यहाँ शुरू से ही भैस की बलि दी जाती है। और नवमी को विजय की खुशी मनाते हुए विजयादशमीं (दशहरा) मनाई जाती है।
पूजा उत्सव सरगुजा रियासत का प्रमुख आकर्षण:
सरगुजा रियासत में दशहरा उत्सव वास्तव में सरगुजहीन और महामाया देवी की पूजा-अर्चना का पर्व होता है। यहां दो देवियों-सरगुहीन (समलेश्वरी) और महामाया देवी की पूजा एक साथ होती है। इस प्रकार दो देवियों की पूजा एक साथ कहीं देखने को नहीं मिलता। शक्ति संचय का यह नवरात्र पर्व बड़ी श्रद्धा से यहाँ मनाया जाता है। अश्विन शुक्ल परवा के दिन महामाया देवी के मंदिर में कलश स्थापना का कार्य पूरा होता है। इसे 'पहली पूजा' कहा जाता है। इसी दिन से सरगुजा रियासत के अंतर्गत आने वाले राजा, जमींदार, गौंटिया, किसान और ग्रामीण जन यहाँ इकठ्ठा होने लगते हैं। अष्टमी के दिन राजा की सवारी का विशाल जुलूस 'बलि पूजा'  के लिए नगर भ्रमण के बाद महामाया मंदिर पहुँचती थी। महामाया देवी को प्राचीन काल में नरबलि देने का उल्लेख तत्कालीन साहित्य में मिलता है। बाद में उसे बंद कर दिया गया और पशु बलि दी जाने लगी। इस दिन को 'महामार' कहा जाता था। फिर दशहरा को राजा की सवारी पुन: देवी दर्शन कर नगर भ्रमण करती हुई राजमहल परिसर में पहुँचकर 'मिलन समारोहÓ में परिवर्तित हो जाता था। उस समय राज परिवार के सभी सदस्य, अन्य सामंत, जमींदार, ओहदेदार विराजमान होते थे। ग्रामीणजन सोनपत्ती देकर उन्हें बधाई देते थे। उस दिन सरगुजा के लिए अविस्मरणीय होता था जिसका स्मरण कर आज भी वहाँ के लोग रोमांचित हो उठते हैं। सरगुजा में देवी पूजा का वर्णन सुप्रसिद्ध कवि पंडित शुकलाल पांडेय ने 'छत्तीसगढ़ गौरव' में की है।
लखना हो शक्ति उपासना तो चले सिरगुजा जाइये।।
रतनपुर जहाँ नरबलि दी जाती थी:
रतनपुर कलपुरी राजाओं की वैभवशाली राजधानी थी। यह नगर महामाया देवी की उपस्थिति के कारण 'शक्तिपीठ' कहलाता है। रतनपुर का राजधानी के रूप में निर्माण महामाया देवी के आदेश-आशीष का ही प्रतिफल है। तत्कालीन साहित्य में उपलब्ध जानकारी के अनुसार रतनपुर में महामाया देवी की मूर्ति को मराठा सैनिकों ने बंगाल अभियान से लौटते समय सरगुजा से लाकर प्रतिष्ठित किया था। राजा की सरगुजा में महामाया देवी की पूर्ति बहुत अच्छी लगी और वे उन्हें अपने साथ नागपुर ले जाना चाहते थे। इसी उद्देश्य से वे उस मूर्ति को वहाँ से उठाना चाहे लेकिन मूर्ति टस से मस नहीं हुई। हारकर राजा देवी के सिर को ही काटकर अपने साथ ले आए लेकिन उसे रतनपुर से आगे नहीं ले जा सके और रतनपुर में ही स्थापित कर दिया। सरगुजा में आज भी सिरकटी महामाया देवी की मूर्ति है जिसमें प्रतिवर्ष मोम (अथवा मिट्टी) का सिर बनाया जाता है। रतनपुर में नवरात्र बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। यहाँ आज भी हजारों मनोकामना ज्योति कलश प्रज्वलित किए जाते है। एक अन्य किंवदंती में राजा रतनदेव शिकार करते रास्ता भटककर यहाँ के जंगल में आ गए और एक पेड़ की डाल पर में रात गुजारी। रात्रि में उन्हें पेड़ के नीचे महामाया देवी का दरबार देखने को मिला। बाद में उन्हें स्वप्नादेश हुआ कि यहाँ अपनी राजधानी बनाओ। तब राजा रतनदेव से यहाँ अपनी राजधानी बसाई और रतनपुर नाम दिया। प्राचीन काल में यहाँ नरबलि देने की प्रथा थी जिसे राजा बहरसाय ने बंद करा दिया। लेकिन पशुबलि आज भी दी जाती है।
बस्तर में दंतेश्वरी देवी की शोभायात्रा:
 बस्तर का दशहरा अन्य स्थानों से भिन्न होता है क्योंकि यहाँ दशहरा में दशानन रावण का वध नहीं बल्कि बस्तर की अधिष्ठात्री दंतेश्वरी माई की विशाल शोभायात्रा निकलती है। दशहरा आमतौर पर अयोध्यापति राजा राम की रावण के ऊपर विजय का पर्व के रूप में मनाया जाता है लेकिन यहाँ ऐसा कुछ नहीं होता। वास्तव में बस्तर का ऐतिहासिक दशहरा यहाँ के राजवंश की गौरवगाथा का जीवन्त दस्तावेज है। ऐतिहासिक दस्तावेज से पता चलता है कि यहाँ का दशहरा राजधानी का आयोजन रहा है। इस राज्योत्सव का उल्लेख प्रथम काकतीय नरेश अन्नमदेव (1313 ई.) से ही मिलता है। राजा अन्नमदेव अपनी विजययात्रा के दौरान चक्रकोट (बस्तर का प्राचीन नाम) की नलवंशीय राजकुमारी चमेली बाबी पर मुग्ध हो गए। उन्होंने राजकुमारी के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा जिसे राजकुमारी ने अस्वीकार कर दिया, यही नहीं बल्कि राजा अन्नमदेव के विरूद्ध सैन्य संचालन करती हुई वीरगति को प्राप्त हुई। इस घटना का राजा के ऊपर गहरा प्रभाव पड़ा...और उन्होंने चमेली बाबी की स्मृति में नारंगी नदी के जल में पुष्प प्रवाहित करने की परंपरा शुरू की। कालान्तर में यह दशहरा की एक अनिवार्य परंपरा बन गयी। आज भी इसका निर्वहन किया जाता है। राजाओं के साथ जहाँ उनकी राजधानियाँ बदलीं वही दशहरा उत्सव के स्वरूप में भी परिवर्तन आता गया।
बस्तर की आराध्या दंतेश्वरी माई आज अवश्य है लेकिन वास्तव में वह राजा की इष्ट देवी के रूप में पूजित होती रहीं है। नवरात्र में बस्तर के राजा दंतेश्वरी माई के मंदिर में पुजारी के रूप में नौ दिन रहकर शक्ति साधना किया करते थे। जो देवी राजा की इष्ट हो वह बस्तरांचल में पूजित न हो ऐसा कदापि नहीं हो सकता। यही कारण है कि आज दंतेश्वरी माई का बस्तरांचल में विशेष स्थान है। बस्तर की ग्राम देवियों में मावली देवी, हिंगलाजिन, परदेसिन, तेलिन, करनकोटिन, बंजारिन, डोंगरी माता और पाट देवी प्रमुख हैं।
 दशहरा उत्सव में रथयात्रा की शुरूआत राजा पुरुषोत्तमदेव के शासनकाल (1407-39 ई.) में हुई। उन्होंने लोट मारते हुए जगन्नाथ पुरी की यात्रा पूरी की थी जिससे प्रसन्न होकर भगवान जगन्नाथ के आदेशानुसार वहाँ के पुजारी ने राजा को एक रथचक्र प्रदान कर उसे रथपति की उपाधि प्रदान की थी। उन्होंने अपने राज्य में रथयात्रा का आयोजन इसी रथचक्र प्राप्ति के बाद शुरू किया था। जगन्नाथपुरी की रथयात्रा की तर्ज में उन्होंने बस्तर में गोंचा परब और नवरात्र के बाद दशहरा उत्सव की शुरूआत की।
काछन गादी, बस्तर दशहरा की एक प्रमुख रस्म है। यह दशहरा का एक प्रारंभिक विधान है। इसके द्वारा युद्ध की देवी काछन माता को तांत्रिक अनुष्ठान के द्वारा जगाया जाता है। काँटों की सेज पर एक महार कन्या को बिठाया जाता है। यहीं पर से वह कन्या दशहरा उत्सव मनाने की घोषणा करती है। पथरागुड़ा के पास जेल परिसर से लगा काछन देवी की गुड़ी है। सुप्रसिद्ध साहित्यकार स्व. लाला जगदलपुरी के अनुसार हरिजनों की देवी काछन देवी को बस्तर के राजाओं द्वारा सम्मान देना इस बात की पुष्टि करता है कि वे इस राज्य में अपृश्य नहीं थे। इसी प्रकार आपसी सहयोग से विशाल रथ का निर्माण सँवरा जाति के लोग  करते हैं।
दशहरा का प्रमुख आकर्षण मुरिया दरबार होता था। कदाचित मुरिया जाति का दरबार में ऊंचा स्थान था। दरबार का मुखिया राजा होता था। इस दरबार में राजा अनेक विषयों पर चर्चा करके आदेश जारी करता था और मुरिया इस आदेश को लेकर साल भर के लिए दंतेश्वरी माई से वर्ष भर राज्य में खुशहाली के लिए प्रार्थना कर नई उमंग, नई जागृति और आत्म विश्वास लिए आदिवासी जन अपने गाँवों को लौटते हैं।
शिवरीनारायण में गादी पूजा:
छत्तीसगढ़ का सांस्कृतिक और धार्मिक तीर्थ शिवरीनारायण में दो प्रकार का दशहरा मनाया जाता है। नगर के उत्साही नवयुवकों के द्वारा मेला ग्राउंड में जहाँ रावण की मूर्ति की स्थापना कर श्रीराम लक्ष्मण और हनुमान की शोभायात्रा निकालकर रावण का वध किया जाता है, वहीं मठ के महंत की बाजे-गाजे के साथ शोभायात्रा निकाली जाती है। इस शोभायात्रा में तलवारबाजी और आतिशबाजी की धूम होती है जो जनकपुर जाकर सोनपत्ती के पेड़ की पूजा-अर्चना करके मठ लौट आती है और मठ के बाहर स्थित गादी चौरा में महंत के द्वारा हवन-पूजन की जाती है। इस अवसर पर मठ के साधु संत और नगर के गणमान्य नागरिक उपस्थित होते हैं। हवन पूजन के उपरांत महंत गादी चौरा में विराजमान होते हैं। उस समय सभी उन्हें यथा शक्ति भेंट देते हैं। ऐसी किंवदंती है कि यह प्राचीन काल में दक्षिणापथ और जगन्नाथ पुरी जाने का मार्ग था। लोग इसी मार्ग से जगन्नाथ पुरी और दक्षिण दिशा में तीर्थ यात्रा करने जाते थे। उस समय यहाँ नाथ संप्रदाय के तांत्रिक रहते थे और यात्रियों को लूटा करते थे। एक बार आदि गुरु दयाराम दास तीर्थाटन के लिए ग्वालियर से रतनपुर आए। उनकी विद्वता से रतनपुर के राजा बहुत प्रभावित हुए और उन्हें अपना गुरु बनाकर अपने राज्य में रहने के लिए निवेदन किया। रतनपुर के राजा  शिवरीनारायण में तांत्रिकों के प्रभाव और लूटमार से परिचित थे। उन्होंने स्वामी दयाराम दास से तांत्रिकों से मुक्ति दिलाने का अनुरोध किया। आदि स्वामी दयाराम दास जी शिवरीनारायण गये। वहाँ उन्हें भी तांत्रिकों ने लूटने का प्रयास किया मगर वे सफल नहीं हुए, उनकी तांत्रिक सिद्धि स्वामी जी के ऊपर काम नहीं कर सकी। तांत्रिकों ने स्वामी दयाराम दास को शास्त्रार्थ करने के लिए आमंत्रित किया जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया और फिर दोनों के बीच शास्त्रार्थ हुआ जिसमें तांत्रिकों की पराजय हुई और जमीन के भीतर एक चूहे के बिल में प्रवेश कर अपनी जान की भीख माँगने लगे। स्वामी जी ने उन्हें जमीन के भीतर ही रहने की आज्ञा दी और उनकी तांत्रिक प्रभाव की शांति के लिए प्रतिवर्ष माघ शुक्ल त्रयोदशी और विजयादशमी (दशहरा) को पूजन और हवन करने का विधान बनाया। आज भी शिवरीनारायण में शबरीनारायण मंदिर परिसर में दक्षिण द्वार के पास स्थित एक गुफानुमा मंदिर में नाथ सम्प्रदाय के तांत्रिक गुरु कनफड़ा और नगफड़ा बाबा की पगड़ी धारी मूर्ति स्थित है। साथ ही बस्ती के बाहर एक नाथ गुफा भी है। शिवरीनारायण में 9वीं शताब्दी में निर्मित और नाथ सम्प्रदाय के कब्जे में बरसों से रहे मठ में वैष्णव परंपरा की नींव डाली। शिवरीनारायण के इस मठ के स्वामी दयाराम दास पहले महंत हुए। तब से आज तक 14 महंत हो चुके हैं और 15 वें महंत राजेश्री रामसुंदरदास जी वर्तमान में हैं। इस मठ के महंत रामानंदी सम्प्रदाय के हैं।
जिस स्थान में दोनों के बीच शास्त्रार्थ हुआ था वहाँ पर एक चबूतरा और छतरी बनवाए गए। बरसों से प्रचलित इस पूजन परम्परा को 'गादी पूजा' कहा गया। क्योंकि पूजन और हवन के बाद महंत उसके ऊपर विराजमान होते हैं और नागरिक गणों द्वारा गादी पर विराजित होने पर महंत को श्रीफल और भेंट देकर उनका सम्मान किया जाता है। इस परम्परा के बारे में कोई लिखित दस्तावेज नहीं है मगर महंती सौंपते समय उन्हें मठ की परम्पराओं के बारे में जो गुरु मंत्र दिया जाता है उनमें यह भी शामिल होता है। इस मठ में जितने भी महंत हुए सबने इस परम्परा का बखूबी निर्वाह किया है।

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