Sep 18, 2016
समय और तिथि से परे...
जीवन की संवेदनशील
आवेगमयी सघन अनुभूतियों का दैनंदिन साहित्यिक अभिलेखी करण डायरी है, इसमें दिन/तिथि/माह/वर्ष और समय का
उल्लेख प्रामाणिकता से अधिक स्मृतियों की
संभावी व्याख्या में सहायता के लिए होता
है। प्राय: घरेलू हिसाब-किताब की डायरी का प्रयोग हमारे दैनंदिन आय-व्यय, वैयक्तिक लेन-देन, किसी भेंट और आवागमन की स्मृति के लिए
होता है। जहाँ सामान्य डायरी इन भौतिक स्थितियों का उद्घाटन करती है/ स्मरण कराती
है, वहीं साहित्यिक डायरी
हमारे भीतर के संवेदन का उद्घाटन करती है। इस डायरी को किसी अनुभूत सत्य को समय और
तिथि के साथ जीने की कला भी कहा जा सकता है। इसे लिखते हुए अरस्तू के विरेचन
(कैथार्सिस) की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। डायरी को यदि विरेचन के सिद्धांत की व्यावहारिक व्याख्या कहा
जाए तो भी गलत न होगा। संस्मरण से अधिक ईमानदारी की दरकार डायरी में होती है। एक
बहुत अच्छी डायरी समय और तिथि आदि से कभी भी बँधी नहीं रहती है। वह इन्हें भावों
और विचारों के उड़ान भरने और उतरने के समय के अलावा कभी भी और कहीं भी किनारे कर
सकती है।
डायरी
के लिए कोशों में कैलेंडर, जंत्री, दैनिकी, रोजनामचा, दैनंदिनी, दिनचर्या
पत्रिका, दैनिक विवरणिका, दैनिक वृत्त की पुस्तिका, पाकेट बुक, ब्राडकास्ट, दिनपत्रिका, तिथि-पत्रक और दैनिक वृत्त की पुस्तक
आदि शब्द भी मिलते हैं जो सभी यही दर्शाते हैं कि हमारे दैनिक जीवन की घटनाओं और
ब्योरों के लिपिबद्धीकरण का नाम डायरी है; लेकिन इन सबमें
सूचनापरकता का शुष्कता बोध है, जिनसे साहित्यिक
डायरी का बोध नहीं होता। जब यही डायरी अपनी सूचनात्मक शैली को त्यागते हुए जीवन
में घटित -अघटित का वस्तु से व्यक्तिनिष्ठ होकर वर्णन करती है, अपनी भाषा- शैली में सरस हो जाती है और कथ्य में
भावों का तीव्र आलोडन- विलोडन होता है तो यही डायरी साहित्यिक हो जाती है।
साहित्यिक डायरी सूचना से संवेदना की ओर
प्रस्थान करती है जबकि अन्य डायरियाँ संवेदना से सूचना की ओर यात्रा करती हैं।
- डॉ. गंगाप्रसाद शर्मा 'गुणशेखर’
(प्रोफेसर (हिंदी) एवं संपादक 'इंदु संचेतना’ कुआंगतोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, कुआंगचौ, कुआंगतोंग प्रांत, चीन)
(प्रोफेसर (हिंदी) एवं संपादक 'इंदु संचेतना’ कुआंगतोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, कुआंगचौ, कुआंगतोंग प्रांत, चीन)
डायरी बोलती है...
80 के दशक में जब मैंने पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश किया था और दैनिक नवभारत में प्रशिक्षु पत्रकार के रूप में अपनी नयी पारी की शुरूआत की तो सपने तो बहुत थे पर भविष्य की कोई स्पष्ट रूपरेखा मन में नहीं थी। उस समय मेरे लिए इतना ही बहुत था कि मैं स्वावलम्बी बन गई हूँ। समय आगे सरकता गया और पता ही नहीं चला कि अखबारों में काम करते करते जिंदगी के इतने साल कब बीत गए। एक दौर ऐसा आया जब मुझे विभिन्न समाचार-पत्रों में नौकरी करते- करते उब सी होने लगी, तब मुझे लगा कि अब स्वयं की ही पत्रिका निकालनी चाहिए, पर साहस नहीं कर पा रही थी, मन में एक भय था कि अकेले क्या यह मैं कर पाऊँगी। 2001 में एक पत्रिका का शीर्षक दिल्ली से अनुमोदित होकर आ भी गया था , पर तब उसे निकाल नहीं पाई थी। पर परिवार में सभी का सहयोग और प्रोत्साहन मिला तो हिम्मत आ गई।
और अंतत: जब 2008 में जब मैं उदंती.com की तैयारी कर रही थी तब लगा था काश मेरे बाबूजी मेरे साथ होते। हृदयघात से 1987 में वे हम सबको छोड़कर चले गए। वे होते तो शायद मैं बहुत पहले ही अपनी पत्रिका निकाल चुकी होती। अकेले साहस बटोरते- बटोरते कई साल बीत गए, हाँ इतना जरूर है कि उनके आशीर्वाद से उदंती के प्रकाशन को भी आठ साल बीत गए। इन आठ वर्षों में मैंने अपने बाबूजी को हर पल याद किया। उनकी सिखाई, बताई बातें और उनके दिए संस्कारों को लेकर हमने सभी बाधाओं को पार किया और आगे बढ़ते ही चले गए।
मुझे याद है, जब मैंने पत्रकारिता के क्षेत्र में कदम रखा , तब मैं घर में सबसे बड़ी थी। मुझसे बड़ी बहन की शादी हो चुकी थी। छोटे भाई बहन तब स्कूल कॉलेज में पढ़ाई कर रहे थे। माँ- बाबूजी के साथ मेरा ज्यादा समय बीतता था। तब बाबूजी मेरी प्रत्येक सप्ताह प्रकाशित होने वाली फीचर रिपोर्ट और अन्य लेखों को बड़े ध्यान से पढ़ते और मुझे प्रोत्साहित करते, साथ ही सलाह भी देते। कई फीचर्स की तैयारी में तो उन्होंने मेरी भरपूर सहायता भी की। इसी तरह स्कूल और कॉलेज के समय में अच्छी पत्र- पत्रिकाएँ घर लाकर पढऩे- लिखने का जो चस्का उन्होंने लगाया था, वह सब आगे जाकर मेरे बहुत काम आया। बाबूजी ने अपनी इच्छाओं को हम बच्चों पर कभी नहीं थोपा। हमें पढऩे लिखने का उचित माहौल दिया और आगे बढऩे के लिए हमेशा उत्साहित किया।
जब से होश सम्भाला है अपने बाबूजी को मैंने खादी के कपड़ों में ही देखा है। खादी का कुर्ता पाजामा हो या धोती कुर्ता, ठंड के मौसम में जैकेट या कोट, वे सब खादी की ही पहनते थे। उनकी वह उज्ज्वल छवि आँखों में बसी हुई है। यह सब लिखते हुए मैं उन्हें महसूस कर पा रही हूँ। एक बार उन्होंने मुझसे अपने गाँव पलारी को केन्द्र में रख कर रिपोर्ताज तैयार करवाया था। मैं तभी से जान गई थी कि वे बहुत अच्छा लिख सकते हैं। राजनीति में रहते हुए उन्हें विभिन्न विषयों पर बोलते हुए तो बहुत सुना था, वकील थे तो प्रत्येक विषय पर उनकी पकड़ थी ; लेकिन उनकी लेखनी से परिचय उनके जाने के बाद हुआ ।माँ ने उनकी अलमारी से उनकी लिखी डायरी के बारे में बताया। ये डायरी उन्होंने 1975- 76 में आपातकाल के दौरान जेल में रहते हुए लिखीं थीं।
26 जून 1975 से इंदिरा गांधी ने जब पूरे देश में आपातकाल लगाया था तब कांग्रेस विरोधी राजनैतिक दलों के प्रमुख कार्यकर्ताओं को देश भर के विभिन्न जेलों में बंद कर दिया गया। मेरे बाबूजी भी उन्हीं में से एक थे। आपातकाल में 22 महीने जेल यात्रा के दौरान, जेल की एकाकीपन को खत्म करने के लिए उन्होंने डायरी लिखना आरंभ किया था ; जिसमें उन्होंने अपने बचपन से लेकर शिक्षा, वकालत, परिवार, गाँव- घर और वहाँ के लोग तथा राजनीतिक जीवन की घटनाओं को सिलसिलेवार ऐसे लिखा है मानों बचपन से लेकर अब तक के लम्हों को वे फिर से जी रहे हों। जाहिर है इस डायरी में राजनीति की बातें सबसे ज्यादा हैं, आखिर उनके जीवन का सबसे अधिक समय राजनीति में ही तो बीता है। उनके अपने पारिवारिक और व्यक्तिगत जीवन में जो भी उतार- चढ़ाव आए ,उसे उन्होंने जैसा महसूस किया , वैसे का वैसा अपनी सीधी- सरल और खड़ी भाषा में डायरी के पन्नों पर उतार दिया है। सही मायनों में यह जेल डायरी एक प्रकार से उनका जीवन- वृत्तान्त है।
बरसों तक उनकी लिखी ये डायरियाँ माँ के पास सुरक्षित रखी रहीं। अपने जीवन काल में बाबूजी ने भी कभी इनकी ओर पलट कर नहीं देखा और न कभी हम बच्चों से इसकी चर्चा की। उनके चले जाने के कई बरस बाद , जब माँ ने इन्हें निकाला और हम सब धीरे- धीरे एक एक डायरी पढ़ने लगे तो भौचक रह गई कि 22 महीनों में उन्होंने अपने जीवन के हर पहलू को याद करते हुए बस लिखा ही लिखा है। आपातकाल की 30 वीं बरसी 2008 में सांध्य दैनिक छत्तीसगढ़ के संपादक सुनील कुमार जी से इस डायरी के संदर्भ में मेरी बात हुई तब उन्होंने अपनी साप्ताहिक पत्रिका इतवारी अखबार में आपातकाल की कहानी बृजलाल वर्मा की जुबानी शीर्षक से किश्तवार प्रकाशित करने की अनुमति दी। (उन दिनों मैं उक्त पत्रिका में सहायक संपादक के रुप में कार्य कर रही थी)
यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे उनकी इस डायरी को पढऩे और इसे संपादित करने का अवसर मिला है। मुझे अपने पर गर्व है कि मैं उनकी बेटी हूँ। उदंती के नौवें वर्ष में प्रवेश करने के अवसर पर, इस अंक को मैं अपने बाबूजी पर केन्द्रित कर रही हूँ। उनकी डायरी के कुछ अंश आप सबसे साझा करते हुए मैं अपनी आदरांजलि प्रगट कर रही हूँ। विश्वास है आप सबको यह अंक पसंद आयेगा।
आपातकाल- जेल डायरी के अंश
जिन्दगी के वे अनमोल क्षण
-बृजलाल वर्मा (संपादन- डॉ. रत्ना वर्मा)
-बृजलाल वर्मा (संपादन- डॉ. रत्ना वर्मा)
रायपुर सेंट्रल जेल २९ जून १९७५
मीसा में गिरफ्तारी के लिए वारंट मेरे पास पलारी (गृह ग्राम) भेजा
गया पर वहाँ की पुलिस ने मुझे गिरफ्तार नहीं किया। एस.डी.ओ. खन्ना और सरकल थानेदार
को बतलाकर वारंट लाने वाले चले गए। मेरी गिरफ्तारी की खबर मुझे २६ जून को ही लग गई
थी उसके लिए मैं तैयार भी था।
दूसरे दिन २७ जून मैं बलौदाबाजार
में था जहाँ बिना वारंट दिखाये मुझे गिरफ्तार किया गया और रायपुर जेल में लगभग ७
बजे शाम को लाया गया। गिरफ्तारी के पहले मैं बलौदाबाजार में अपने कुछ साथियों से
मिला जिसमें त्रिवेदी, उत्तम अग्रवाल आदि थे। उनने मुझसे पूछा कि हमें अब क्या करना
चाहिए तो मैंने उन्हीं पर छोड़ दिया कि जो
ठीक लगे करो। थोड़े दिनों बाद वे सत्याग्रह करके डी.आई.आर. में रायपुर जेल आये फिर
जमानत में छोड़ दिये गए। उन सबने भी साहस का कार्य किया।
जेल में आते ही मुझे डॉ. रमेश, कौशिक, लिमिये जी आदि ने, जो आपातकाल लगने के पहले ही रायपुर जेल आ गए थे, मेरा स्वागत किया।
जेल में पार्टी के अब काफी
साथी आ गए हैं। जिनके साथ हमारी चर्चा चलती रहती है कि कांग्रेस सरकार
कम्युनिस्टों से मिलकर तानाशाही लाना चाह रही है तथा मीसा कानून में ऐसा परिवर्तन
कर रही है,
जिससे बंदियों
के लिए अदालत का दरवाजा बंद हो जाएँ। मेरी गिरफ्तारी भी गलत आरोप लगा।कर की गई है, मैंने कभी भी संवैधानिक अधिकारों
के खिलाफ अप्रजातांत्रिक कार्य नहीं किया है। न कभी कोई हिंसक कार्य किया और न
दूसरों को ही हिंसक कार्य के लिए प्रेरित करता हूँ। मैं जब कांग्रेस से
के.एम.पी.पी. में आया फिर पी.एस.पी. में आकर थोड़े दिनों के लिए अशोक मेहता के साथ
कांग्रेस में जाकर जनसंघ में शामिल हुआ वहाँ कहीं भी मेरी ऐसी प्रकृति नहीं रही कि
राजनीति में किसी प्रकार की हिंसा का
प्रवेश हो।
पत्नी निरेन्द्री के साथ |
प्रिय निरेन्द्री ( पत्नी को पत्र) २९ जून १९७५ मैं जब परसों तुम्हें घर पर छोड़कर पुलिस गाड़ी में बैठकर जेल चला गया ,तब तुम्हारे दिल में पीड़ा तो थी ;पर तुमने जरा भी मेरे सामने उसे प्रगट होने नहीं दिया। मैं तुम्हारे चेहरे से भाँप गया। तुमने तो एक दिन पहले ही जान लिया था कि मैं जेल जा रहा हूँ। तुमने ही इसकी सूचना मुझे दी थी। इतना ही नहीं मेरी सभी जरूरत के सामान को भी तुमने तैयार करके रखा था; क्योंकि तुम जानती थी कि मुझसे कुछ बात करने का ज्यादा मौका नहीं मिलेगा। मुझे यह भी याद है कि जब मैं हाथ- मुँह धोने अंदर रायपुर के घर में गया, यह कहते हुए कि बलौदाबाजार से गिरफ्तारी के समय जो पुलिस वालों मेरे साथ हैं, उन्हें चाय पिला दो। उसी दौरान पुलिस इंसपेक्टर के यह जानकारी लेने पर कि घर के पीछे कोई दरवाजा है क्या? तुमने थोड़ा नाराज होते हुए उससे कहा था कि क्या तुम यह सोचते हो ,वे भाग जाएँगे। फिर पुलिस ने तुमसे क्षमा माँगी। वे अपनी ड्यूटी निभा रहे थे। यह बात पुलिस ने मुझ बाद में बताई तो मुझे लगा तुम बहुत साहसी हो और वह होना भी चाहिए ;क्योंकि वह तुम्हारे खून में है, एक क्रांतिकारी के घर में जो पैदा होता है वह ऐसी परिस्थितियों का मुकाबला साहस से ही करता है मुझे इस पर अभिमान है। माँ बाप का असर बच्चों पर जरूर ही पड़ता है।
८ जुलाई १९७५
मैं तुम्हें हर एक दो दिन में पत्र द्वारा अपने जरूरतों तथा
स्वास्थ्य के बारे में लिखता रहा तथा घर का काम काज भी लगातार बतलाता रहा; जिसे तुम धीरज के साथ पूरा करती
रही । मुझे लगा कि तुम पर बहुत भार हो गया और उस भार को कम करने के लिए सरहूराम
वोटगन वाले को बुलाकर बात करके कुछ काम में लगा लेने के लिए भी लिखा ,जैसा तुमने किया भी। मैं राजनीति
की गतिविधियों में इतना ज्यादा व्यस्त रहता रहा हूँ कि घर का कार्य करीब-करीब
तुम्हीं लोग करते रहे हो; इसी कारण से मैं जरा निश्चित रहता था। पर आर्थिक स्थिति दिन प्रतिदिन
कमजोर होने से बाप- दादों की जायदाद को बेचकर पूरा करना तथा अपना खर्च पूरा करना कई वर्षों से चला आ रहा था। खर्च मेरा ही ज्यादा रहता है और हिसाब- किताब
में भी बहुत ज्यादा लापरवाह हूँ, इसलिए संयम से खर्च नहीं कर पाता, न नियमित बजट ही बनाता। जब तुम
पलारी में थी ,तब कुछ न कुछ करके यानी रहन वगैरह रखकर कुछ पैसा अर्जन भी कर लेती
थी। अब वह भी ४-५ वर्षों से बंद हो गया
है। तो भी तुम कैसे खर्च चलाती ही ,यह तुम्हीं जानों; क्योंकि दिन पर दिन खर्च बढ़ रहा है और आमदनी कम होती जा रही है।
बच्चे सब पढ़ाई में लगे हैं। बाबू का अब आखरी साल है ।मुझे पूर्ण आशा तो है कि वह
इस वर्ष अपनी पढ़ाई पूरी करके आ जाएगा और किसी न किसी कार्य में लग जाएगा। घर आने
पर ही पता चलेगा कि वह क्या करना चाहता है। मैं तो तुम्हें कई बार कह चुका हूँ कि
बाबू को घर के खेती- बाड़ी के पचड़े से अलग रखकर कोई स्वतंत्र कार्य करने को कहूँगा ,पर वह क्या करता है ;यह तो उसी पर ज्यादा निर्भर है।
गाँव में उसे मैं नहीं रहने देना चाहता, यह मेरी इच्छा है। यह सब उससे मालूम करके बतलाना।
जेल से लिखे पत्र में बचपन की यादें
१० जुलाई १९७५
दिल्ली में परिवार से साथ नातिन का प्रथम जन्मदिन मनातेे हुए |
मैंने अपने तथा अपने परिवार के बारे में पहले जो लिखा उसे पूरा करने
हेतु कुछ और बाते लिखना जरूरी समझता हूँ। मेरे दादा मोहन लाल अपने पिता के अकेले
पुत्र थे। उनके पास बहुत जमीन जायदाद थी दो ग्रामों में खेती व मालगुजारी थी
बरबंदा तथा पलारी ग्रामों में करीब १८-१९ सौ एकड़ जमीन थी। कुछ में खेती करते थे और
कुछ पड़ती पड़ी रहती थी। मेरे दादा ने पलारी में कई लोगों को जो कि उनसे किसी न किसी
रूप में सम्बन्धिधित थे १० एकड़ से ३० एकड़ जमीन मुफ्त में दी तथा उनके नाम पर चढ़ा
दिया। बरबंदा हमारे पुरखों का ग्राम था, जिसे शायद हमारे दादा के दादा ने अपने हिस्से में पाया था। बाद में
हमारे दादा के दादा ने पलारी को खरीदा। लोगों का कहना है पलारी ग्राम को सिर्फ उन
दिनों १०० रुपये में खरीदा! उस वक्त रुपये की कीमत भी बहुत थी। गाँव जंगल था २५-२०
लोगों की बस्ती थी। कुल मिलाकर गाँव में हमारे ही परिवार के लोगों की बस्ती थी।
परिवार के लोगों ने दूसरों को जमीन दे दे देकर बसाया। मेरी जानकारी के अनुसार पलारी ग्राम में हमारा
परिवार करीब १५० से २०० वर्षों पूर्व आकर बसा है ,ऐसा अनुमान है। इससे पहले बरबंदा
गाँव में हमरे खानदान के लोग बसे थे। वहाँ मेरे पूर्वज कब आए, मैं अंदाज नहीं लगा सकता। हमारे खानदान की एक खास बात और है
कि परिवार में लगातार चार वंशों तक एक ही
पुत्र पैदा होते रहा। इसीलिए इतनी अधिक जमीन मेरे दादा मोहनलाल के पास थी। पर उसके
बाद वंश बढ़ा मेरे दादा जी के ६ पुत्र हुए।
एक जो छोटे थे रामलाल उनकी मृत्यु बिना बाल बच्चों के युवाकाल में ही हो गई
और दूसरे पुत्र बंशीलाल की एक ही लड़की हुई, पर उनकी भी युवावस्था में ही मृत्यु हो गई। इन्हीं बंशीलाल की पत्नी
ने मुझे अपने पुत्र के समान मेरा लालन - पालन किया है।
मेरी पढ़ाई के बारे में पिता जी को हमेशा बहुत ज्यादा चिंता रहती थी।
चौथी हिन्दी पास करने के बाद (जब तक मैं अपने बड़े पिता सदाराम जी के ही यहाँ रहता
रहा) मुझे २-४ माह के लिए रायपुर अंग्रेजी स्कूल में भेजा पर फिर वहाँ से मुझे एक
संस्था जो पं. माखनलाल जी चतुर्वेदी खंडवा वाले (महान कवि तथा स्वतंत्रता संग्राम
सेनानी) की संस्था सेवा सदन हिरनखेड़ा ग्राम जो कि होशंगाबाद के इटारसी स्टेशन के
पास जंगल में है, पढऩे भेज दिया गया, यह सोच कर कि मुझे स्वदेशी शिक्षा मिलेगी तथा ४ साल में मैट्रिक भी
कर लूँगा।
मॉरीस कॉलेज नागपुर में दोस्तों के साथ |
जब मैं हिरनखेड़ा गाँव सेवा सदन संस्था में पढऩे गया तो हमारे एक
मुनीम नत्थूलाल देवांगन के पिता मुझे पहुँचाने गए वे वहाँ एक दिन ठहरकर आ गए । मैं
तब लगभग १० वर्ष का था। वहाँ २०-२५ विद्यार्थी थे। मेरे जाने के कुछ दिनों बाद
मेरा भांजा द्वारका प्रसाद सैहावाले, वीर सिंह बंरछिहा, पलारी के प्यारेलाल त्रिपाठी के लड़के, हथबन के ज्वालाधर शर्मा, कुकरडी के मुरितराम मिश्रा, कसडोल के भूपेन्द्रनाथ मिश्रा लकडियाँ
के जगदम्बा प्रसाद तिवारी आदि लगभग १५-१६ लड़के छत्तीसगढ़ के ही वहाँ पढ़नेऩे गए थे। होशंगाबाद इटारसी के आसपास के १०-१२ लड़के
थे। वहाँ जंगल था हम झोपड़ी में रहते थे वहीं एक आम व बीही (अमरूद) का बगीचा था ,जहाँ हम लोग चोरी करके आम व बीही
खाया करते थे। वहाँ हमें पढ़ाने वाले रामदयाल चतुर्वेदी, हरिप्रसाद चतुर्वेदी( दोनों पं.
माखनलाल जी के सगे भाई थे )तथा एक दो और शिक्षक थे। वहाँ ठंड खूब पड़ती थी। पर जंगल
का अलग ही आनंद था। मैंने वहीं के तालाब में पहले पहल तैरना सीखा। वहाँ पर ४ बजे सुबह से उठकर दौडऩा पड़ता था (नहीं तो
मार पड़ती थी) मैं तथा भूपेन्द्रनाथ मिश्र
ही पूरे ४ वर्ष वहाँ रहे बाकी सब एक दो साल बाद वापस आ गए। विष्णुदत्त (मेरा चचेरा
भाई) भी वहाँ गया पर वह भी तीन- चार माह
बाद ही वापस आ गया। मैंने दो वर्षों में मिडिल बोर्ड से खंडवा गवर्नमेन्ट हाई
स्कूल में परीक्षा दिला कर पास कर लिया। दो वर्ष के बाद बनारस से मैट्रिक में बैठा
तो मैट्रिक में फेल हो गया जब फिर से मैंने हिरनखेड़ा जाने की अनइच्छा प्रगट की तो
फिर बनारस ही भेज दिया गया वहाँ दो वर्षों तक रहा।
गंगा मैया की गोद
बनारस की जिंदगी पढ़ाई व दिगर वातावरण के ख्याल से मेरे जिंदगी का
(विद्यार्थी) सबसे अच्छा रहा ऐसा कहूँगा। मैं बहुत दुबला पतला था तो मुझे वहाँ दंड, बैठक, दौडऩा, तैरना आदि ज्यादा कराया जाता था।
मैं गंगा में खूब तैरता था तथा दंड बैठक भी करता था। वहाँ मैं खूब खाना खाता था, सब हजम हो जाता था। बनारस में
कमच्छा एक मुहल्ला है जहाँ बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी सेंट्रल हिंदू स्कूल था वह भी
राजनीति का केन्द्र था; क्योंकि पं. मदन मोहन मालवीय जी वहाँ के सर्वेसर्वा थे। एक दिन की
बात याद है शायद सन् १९३२ या १९३३ का साल होगा पं. जवाहरलाल नेहरू, यूनिवर्सिटी में भाषण देने आये
हम सब कालेज व स्कूल के लड़के शिवाजी हाल गए । हम सब लड़के जवाहरलाल जी का भाषण
सुनते ही नहीं थे हल्ला करने लगे। जवाहरलाल जी गुस्से में थे कहा कि मैं बिना भाषण
दिये यहाँ से हटूँगा ही नहीं। शिवाजी हाल बहुत बड़ा था एक साथ करीब ५ हजार लोग बैठ
सकते थे। पं. मालवीय जी अध्यक्षता कर रहे थे। उन्हें खड़ा होना पड़ा और जब उनने
सिर्फ दो शब्द कहे कि इन्हें हमने मेहमान के बतौर बुलाया है, क्यों हल्ला करते हो तो सब चुप
हुए और फिर शांति से भाषण हुआ। मालवीयजी का वहाँ बहुत ज्यादा आदर तथा प्यार
था। उनकी बात को कोई भी टाल नहीं सकता था।
मुझे अभी भी गर्व है कि मैंने उनकी संस्था से मेट्रिक किया।
मेरी जिंदगी में सेवा सदन की ४ वर्षों की शिक्षा तथा बनारस के दो
वर्षों की शिक्षा ने सार्वजनिक कार्य तथा स्वतंत्र विचारधारा बनाने में बहुत अधिक
प्रभाव डाला। मैं सेवासदन हिरनखेड़ा भी दो वर्षों के बाद अकेला जाने आने लगा था। घर
से कोई साथ नहीं आता था । १२ वर्ष की उम्र से ही रेल में अकेले जाने में जरा भी
कोई भय नहीं रहता था। (उन दिनों रेल में अधिकारियों का व्यवहार ठीक रहता था तथा
कोई ज्यादा स्टेशनों या रास्ते में कोई गड़बड़ी भी नहीं होती थी। )
१९४२ का आजादी आंदोलन-
जब मैं परीक्षा से वंचित कर दिया गया
मैं एक वर्ष जबलपुर सिटी कालेज में पढ़ा वहाँ इंटर में फेल हो गया, तो वहाँ से नागपुर सिटी कालेज से
इंटर किया और फिर मॉरिस कालेज नागपुर से बी.ए. पास किया। नागपुर में भी मेरी जैसी
पढ़ाई हुई तथा जो सोसाइटी वहाँ मेरी रही वह
भी मुझे हमेशा याद रहेगी। वहाँ हॉस्टल में रहता था वहाँ जो भी साथी थे सब प्रेम से
रहते थे। उन दिनों के मेरे क्लास के साथी आज बड़े अफसर हैं। द्विवेदी हाई कोर्ट जज
हैं गोरेलाल शुक्ला भोपाल में सेक्रेट्ररी हैं। रमाप्रसन्न नायक चीफ सेक्रेट्ररी
म.प्र. के थे अब दिल्ली में हैं। इन सबसे मेरा सम्बन्ध अभी भी बहुत अच्छा है। इनके अलावा बहुत से साथी
डिस्ट्रिक्ट और शेषन जज हैं जैसे गन्नू तिवारी, मिश्रा आदि।
नागपुर में ही मैंने एल.एल.बी. किया। इस प्रकार से मैं ५ वर्षों तक
नागपुर में रहा। जब मैं ला की पढ़ाई कर रहा था तब सन् १९४२ में चारों ओर आंदोलन हुआ
और उस आंदोलन और गोली बारी में एक दिन एग्रीकल्चर कालेज के बोर्डिंग में जहाँ मैं
खाना खाता था फंस गया। पुलिस ने बोर्डिंग में धावा बोला कि यहाँ से पत्थर बाजी
होती है। हम भी पकड़े गए और एक वर्ष के लिए
परीक्षा में बैठने से वंचित कर दिये गए । हमें जेल तो नहीं भेजा गया पर थाने में
४-६ घंटा जरूर बिठा कर रखा। पुलिस उस वक्त आज कल सरीखा लड़कों से खराब व्यवहार नहीं
करती थी हमें ठीक प्रकार से बोर्डिंग से ले गए, सब नाम पता लिखकर कुछ देर बैठाकर
कि अब गड़बड़ न करना कहकर छोड़ दिया।
जब पिताजी बीमार हुए
इसी साल पिताजी भी बहुत बीमार रहने लगे ।मैं भी कालेज से अलग था; क्योंकि परीक्षा में तो बैठ नहीं
सका था ,इसलिए लगातार पिताजी के ही साथ
एक साल रहा। मेरी शादी सन् १९३८ में हो गई थी। पत्नी कौशिल्या और मौसी माँ भी
पिताजी के साथ ही रहते थे। पिताजी का इलाज कई स्थानों पर हुआ। करीब ४-६ माह तो
हसदा में रहकर वहाँ के वैद्य से इलाज कराया। तिल्दा अस्पताल में ४-६ माह रहकर इलाज
हुआ, फिर रायपुर अस्पताल में कुछ दिन रहे। वहाँ उन्हें कुछ
अच्छा लगा। रायपुर पुराने अस्पताल के एक अंग्रेज सी.एस. एलेन ने मुझे प्रेम से
सलाह दी कि वे मेरे पिता जी को बिल्कुल अच्छे कर देंगे। फिर अस्पताल में करीब ७-८
माह रहकर इलाज हुआ और वे अच्छे होकर गए । इस प्रकार से उनकी बीमारी की वजह से बिना
पढ़े ही १९४३ में मैंने परीक्षा दिलाई। पिताजी के मन के खिलाफ मैं नागपुर परीक्षा देने
चला गया;
क्योंकि मालूम
नहीं उन्हें ऐसा लगता था कि मैं उन्हें एक घंटा भी न छोड़ूँ। बार-बार वे मुझे पूछते
ही रहते थे। उनके प्रेम को देखकर मैं भी एक दो घंटे घूमकर फिर उनके पास आ जाया
करता था। भले ही कुछ काम नहीं रहता था।
मुझे परीक्षा देने के लिए नागपुर भेजने का श्रेय डोमार सिंह जी जरवेवाले को
हैं;
क्योंकि वे ही
ऐसे व्यक्ति थे जो जोर देकर कुछ भी बात कहते थे। उनकी वजह से ही मुझे नागपुर भेजने
के लिए तैयार हुए। नहीं तो सब जानते हैं कि पिताजी कितने गुस्सैल तबियत के थे।
उनसे बात करना कितना कठिन होता था। उनका रुतबा घर तथा बाहर व दिगर सभी तरफ के
ग्रामों में था। ऑफिसर वर्ग तो कभी हमारे घर उनके डर से आते तक नहीं थे; क्योंकि किसी भी ऑफिसर से वे
सीधे बात नहीं करते थे। स्वतंत्रता आंदोलन से सम्बन्ध होने के कारण
लोगों में उनका बड़ा प्रभाव भी था।
जब मैं १९४४ में एल एल बी करके नागपुर से आया, तो थोड़े दिन के बाद पिताजी ने
मुझे वकालत के लिए बलौदाबाजार भेज दिया। उन्होंने हमेशा मुझे गाँव से व खेती से
अलग रखा। मेरे वकील बनने के पहले से ही दो प्लाट सन् १९४३ में बलौदाबाजार में ले
रखा था जिसमें एक में मकान है और एक को डॉ. यदु को बेच दिया।
मैंने जब १९४४ से बलौदाबाजार में वकालत शुरू की। साथ ही जल्दी ही मैं
सार्वजनिक कार्यों में लग गया। मैं बलौदा बाजार तहसील कांग्रेस कमेटी का
प्रेसीडेन्ट चुन लिया गया; क्योंकि पं. लक्ष्मी प्रसाद तिवारी जो एक बुजुर्ग व्यक्ति कांग्रेस
के पुराने आदमी तथा अध्यक्ष भी थे, वे मुझे पहले से घरेलू सम्बन्ध
के कारण ज्यादा चाहते थे। जबकि चक्रपाणि शुक्ला के चाचा बलभद्र शुक्ला जी
ने गुपचुप विरोध किया, पर किसी ने उनकी न सुनी। इस समय तक कांग्रेसियों में किसी प्रकार की
गुटबाजी नहीं थी और सब चाहते थे कि अच्छे लोग कांग्रेस में आएं। उस वक्त स्व.
बैनर्जी वकील बलौदाबाजार में कांग्रेस के मुखिया थे पर वे बलौदाबाजार छोड़कर रायपुर
चले गए थे; इसलिए शिक्षित वर्ग खासतौर से
किसी वकील या डॉक्टर को अपने साथ रखना पसंद करते थे; क्योंकि जो जेल यात्री कांग्रेस
आंदोलन में थे, वे सभी करीब-करीब ग्रामीण क्षेत्र के थे और उन पर हमारे खानदान का
अच्छा प्रभाव था। इस तरह मैं जल्दी ही राजनीति में आगे आ गया उसका श्रेय मैं अपने
खानदान तथा पिताजी को ही दूँगा, भले ही उनने मेरे लिए न कभी एक शब्द कहा और न कभी भी किसी पद या
चुनाव के वक्त मेरे लिए घर से बाहर निकले।
(आपातकाल १९७५-७६ के दौरान जेल में लिखे गए बृजलाल वर्मा की डायरी के
अंश)
आपातकाल- जेल डायरी के अंश
कुछ खट्टी-मीठी यादें
-बृजलाल वर्मा ( संपादन- डॉ. रत्ना वर्मा)
(सेंट्रल जेल रायपुर ता. १६ जुलाई १९७५)
हिरनखेड़ा सेवा सदन (होशंगाबाद के पास) जो पं. माखनलाल चतुर्वेदी की
संस्था थी,
में मुझे चौथी
(हिन्दी) पास करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए भेजा गया, क्योंकि मेरे पिताजी के अनुसार
वहाँ पर स्वराज्य अंदोलन तथा स्वदेशी शिक्षा राष्ट्रीय विचार धारा के आधार पर होती
थी। वहाँ हम सब को खादी पहनने को कहा जाता था तथा दिनचर्या के सभी काम अपने हाथ से
करने के लिए प्रोत्साहित करते थे।
यह संस्था जंगल के बीच स्थित थी। हिरनखेड़ा गाँव के एक मालगुजार जो
कुर्मी जाति के थे, ने इस संस्था के लिए जमीन दान में दी थी। हमें संस्था में खाने के
लिए सुबह नाश्ता नहीं मिलता था ।अधिकतर रोटी ही खाया करते थे। मेरे लिए पिता जी ने
अलग से नाश्ते का इंतजाम करने को जरूर कहा, पर वहाँ किसी के साथ भेदभाव का बर्ताव नहीं किया जाता था, सबको सामूहिक रूप से रहना पड़ता
था;
अत: अलग से एक
दो के लिए नाश्ते की व्यवस्था संभव नहीं थी। वहाँ हम सब अपना कपड़ा अपने हाथ से
धोते थे,
नहाने का पानी
भी कुएँ से स्वयं निकालते थे तथा अपने रहने का स्थान यानी अपनी कुटिया भी सब मिलकर
साफ करते थे। इस तरह हर प्रकार से हमें स्वावलंबी बनने की शिक्षा दी जाती थी।
प्रतिदिन सुबह चार बजे राष्ट्रीय प्रार्थना होती थी। सुबह इतनी अधिक ठंड होती थी
कि उठने में मुझे आलस आता था , पर मजबूरी थी; क्योंकि ऐसा न करूँ या कोई इस नियम का पालन न करें ,तो बेंत की मार खानी पड़ती थी।
रोज सुबह पंडित जी को प्रणाम करने भी जाना पड़ता था ;जबकि पंडित जी अपनी कुटिया में
मजे से रजाई ओढ़कर सोये रहते थे। वे सबको आशीर्वाद देते थे और ध्यान भी रखते थे कि
कौन उनके पास आया और कौन नहीं आया, क्योंकि वे सबकी आवाज पहचानते थे। उस वक्त तो वे कुछ नहीं कहते थे ,पर बाद में अच्छी मरम्मत होती
थी। खाने को भी साधारण भोजन मिला करता था; लेकिन पिताजी ने, मुझे दूसरों से दुगुना घी दिया जाए इसकी व्यवस्था कर दी थी, जो कि मुझे मिलता भी था। मुझे उस
घी का स्वाद अभी भी याद है। वहाँ का घी बड़ा शुद्ध और स्वादिष्टï होता था। मैं अपने घर पलारी आता
था ,तो घर का घी मुझे उतना अच्छा
नहीं लगता था, मालूम नहीं क्या बात थी?
हम वहाँ जंगल के बीच रहते थे। रोज जंगली सुअर हमारे कमरों के आसपास
रात में घूमते रहते थे कभी- कभी उनके बच्चों को हम लोग पकड़ लेते थे, तो वे (सुअर) हमारा कमरा घेर
लेते थे;
तब हमें उनके
बच्चे को छोडऩा पड़ता था। बड़े- बड़े दाँत वाले सुअर खतरनाक थे। चूँकि सेवा सदन जंगल
के पास स्थित था, इसलिए आस- पास हमेशा साँप, बिच्छू का भी भय बना रहता था, दो- चार दिनों में एक दो साँप हम लोगों को मारना ही पड़ता था। हमारे
पास हॅाकी स्टिक रहती थी, खेलने के लिए उससे ही साँपों को मारने और कुत्तों को भगाने का काम
लेते थे। यह सब हमारी दिनचर्या का अंग बन गया था; इसलिए हमें डर नहीं लगता था, इन सबकी आदत पड़ गई थी और हमें
बहुत मजा आता था। हममें से बहुत से विद्यार्थियों को हिन्दी बोलना नहीं आता था; क्योंकि हम सब गाँव से गए थे । दूसरे विद्यार्थी हमारी भाषा सुनकर हँसते
थे।
इन खट्टी- मीठी यादों के साथ हिरनखेड़ा में चार वर्षों का जो समय
मैंने बिताया वह कई अर्थों में मेरे लिए बहुत उपयोगी रहा। मेरे भविष्य के लिए, सामाजिक व राजनैतिक नींव वहाँ
रहने से ही पड़ी। बाहर रहकर पढ़ाई करने से स्वावलंबी बनने में सहायता तो मिली ही साथ
ही घर के लोगों से अलग, अकेले रहने की आदत भी पड़ी। उन दिनों मेरे बचपन के जो साथी थे, उनसे आज भी आत्मीयता बनी हुई है।
कुछ तो अभी भी हैं कुछ स्वर्ग सिधार गए हैं, उनकी याद हमेशा आती है। हम सब हिरनखेड़ा में प्रेम से रहते थे। हमने
अपने बचपन का एक अच्छा समय साथ में बिताया था।
मैं साल में एक बार घर आता था; परंतु एक बार बीच में ही घर आ गया, तो पिताजी बहुत नाराज हुए और
मुझे घर में घुसने नहीं दिया। जब काकाजी (बलीराम- पिताजी के छोटे भाई) तथा बड़े
पिताजी सदारामजी (पिताजी के बड़े भाई) को पता चला, तो वे दुखी हुए और मुझे अपने पास
छिपाकर रखा। जब पिताजी का गुस्सा शांत हो गया तब मैं घर गया। इन सबके बावजूद मुझे
याद नहीं है कि पिताजी ने मुझे अपने सामने खड़ा करके मेरे प्रति कभी गुस्सा किया हो
या डाँट लगाई हो। कभी कुछ कहना भी होता था, तो दूसरों के जरिये या मेरी गैरहाजरी में। बाद में जब मैं पढ़ाई पूरी
कर वकालत करने लगा, तब मुझे महसूस हुआ कि वे जो भी कहते थे, मेरे हित के लिए कहते थे। लोगों
ने यह भी बताया कि बाद में उन्हें बहुत दु:ख होता था तथा कभी- कभी उनके आँसू भी
निकाल आते थे।
पिताजी ने मुझे आगे बढ़ाने में, चाहे वह पढ़ाई हो, सामाजिक कार्य हो, घर का काम हो या राजनीति हमेशा प्रोत्साहित किया, किसी भी कार्य के लिए बाधा नहीं
डाली तथा दिल खोलकर अपना पूरा प्यार दिया। अब जबकि वे नहीं हैं, मुझे लगता है काश वे होते तो
मुझे तथा मेरे परिवार को देखकर कितना सुख व आनंद का अनुभव करते, मैं उस पल को लिखने में असमर्थ
हूँ। मैं सिर्फ अनुभव कर सकता हूँ तथा दिल को थाम कर रह जाता हूँ। ईश्वर उनकी
आत्मा को शांति प्रदान करें। यही कहकर चुप बैठ जाता हूँ कि ऐसा पिता सभी को मिले
यही कामना है मेरी।
सेवा सदन हिरनखेड़ा में पढऩे के दौरान की कुछ ऐसी बातें आज याद आ रहीं
हैं,
जिसे मैं कभी
भूल नहीं पाता। जैसा कि पहले ही बता चुका हूँ कि वहाँ रायपुर जिले से बहुत से साथी
एक साथ रहते थे एक दिन सुबह करीब ७-८ बजे हम कुछ साथी एक साथ दौडऩे या खेलने गए थे, हमारे साथ लकड़िया गाँव का रहने
वाला जगदम्बा प्रसाद तिवारी भी साथ में थे, जो अब बसंत कुमार तिवारी कहलाने
लगे हैं । वह मुझसे शरीर में तगड़ा था तथा खेलकूद, तैरने आदि में मुझसे आगे ही रहता
था। वह दातून तोड़ने के लिए एक नीम के पेड़ पर काफी ऊपर तक चढ़ गया। अचानक मैंने देखा
कि वह नीचे जमीन पर गिर गया है। हम लोगों की उम्र तब लगभग १२ साल रही होगी। मैं
एकदम घबरा गया ।वह थोड़ा बेहोश -सा लगा पर कुछ चोट नहीं लगी, फिर उठकर धीरे- धीरे साथ चला
आया॥वह जहाँ से गिरा था ,वह लगभग २० -२२ फुट ऊँचाई से कम नहीं था। ईश्वर ने उस दिन साथ दिया
मेरे प्यारे साथी को ज्यादा चोट नहीं आई और हम सकुशल संस्था वापस आ गए। मुझे वह
घटना आज भी याद है पर उसे याद है या नहीं कह नहीं सकता। हम लोगों ने डर कर पंडित
जी से यह बात नहीं बतलाई थी।
जब भी मैं गर्मी की छुट्टियों में पलारी आता था- (उस समय दीवाली, दशहरा में आना नहीं होता था) तो
अधिकांश समय खेलकूद में ही बिताता था। सुबह- सुबह पलारी के कुछ लड़कों को साथ लेकर
बालसमुंद जाता और वहाँ घंटे - दो घंटे खूब
तैरता। यह सब मैंने करीब १४-१५ साल की उम्र तक किया। उसी दौरान मैंने घर में
पिताजी की लाल घोड़ी, जो बड़ी तेज तथा बदमाश थी, जिस पर सिर्फ पिताजी ही सवारी किया करते थे, की भी घुड़सवारी करने लगा। मैं उस
घोड़ी में दो माह तक रोज सुबह उठकर घुड़सवारी करता था। सईस से कहकर उसे अस्तबल से
बाहर निकलवाता और घर में बिना किसी को बताए चुपचाप निकल पड़ता था, क्योंकि घर के लोग उस घोड़ी पर
बैठने से मना करते थे कि घोड़ी बदमाश है
गिरा देगी,
मत बैठना। सच
भी था वह घोड़ी किसी को अपनी पीठ पर बैठने नहीं देती थी। पहले तो मैं उसकी आँख में
टोपा बाँध देता था फिर एक ऊँचे स्थान पर ले जाता था और कूदकर बैठ जाता। वह दोनों
पैर से कूदती थी। पर मैं एक बार बैठ गया ,तो फिर मुझे डर नहीं लगता था। वह बड़ी तेजी से दौड़ती थी। मैं चाल से
दौड़ाना तो जानता नहीं था; अत: उसे पल्ला दौड़ाता था इसलिए वह सीधे खेतों की मेढ़ों को कूदती हुई
छलांग मारती बहुत तेजी से भागती थी। इस तरह से उसके दौडऩे से मेरा शरीर भी नहीं
हिलता था। इतनी तेज भागने वाली बहुत कम घोड़ियाँ होती हैं, मुझे उसपर घुड़सवारी करने में बड़ा
आनंद आता था। कुछ दिनों के बाद घर में सब जान गए, तब फिर मुझे उस पर बैठने से मना
भी नहीं किया। अपने इस घुड़सवारी के शौक के कारण ही, जब भी गाँव में किसी की अच्छी
बड़ी घोड़ा- घोड़ी आती ;मैं बैठने की जरूर इच्छा करता और कुछ देर बैठकर जरूर मजा ले लेता था।
एक वक्त की बात है कि हम
बहुत से लोग गर्मी की छुट्टी में गाँव आए और (तुरतुरिया पलारी गाँव के पास का
पर्यटन स्थल) जाने की इच्छा व्यक्त की, पर गाड़ी से नहीं, घोड़े से तब सबके लिए करीब ८-१० घोड़े बुलवाये गए। मैंने पास के गाँव
दतान के एक घोड़े की बहुत तारीफ सुनी थी वह भी लाया गया था। उसे सुबह पानी पिलाने
जब सहीश ले जा रहा था तो मैं ले चलता हूँ कहकर उसपर बैठ गया। मेरे बैठते ही वह
घोड़ा अड़ गया मैंने खूब पैर मारा तब कहीं वह रास्ते में आया मैंने भी उसे खूब
दौड़ाया। नये तालाब के पार के ऊपर बड़ी तेजी उसे दौड़ा रहा था तभी ठोकर खाकर घोड़े
सहित गिर गया। मैं पहले गिरा और मेरे ऊपर घोड़ा पर तालाब के पार में उतार होने से
मैंने घोड़े को अपनी छाती पर से लुढ़का दिया। वह दिन मेरी मौत का- सा दिन था मालूम
नहीं कैसे एकदम मुझे होश आया और मैंने अपने छाती पर हाथ रखके घोड़े को एकदम ढकेलकर
सिर के ऊपर से लुढ़का दिया। मेरा चचेरा भाई विष्णुदत्त सब देख रहा था वह दौड़ा, मेरी पूरी पीठ भर छिल गई थी पर
कोई अंदरूनी चोट नहीं लगी थी। चुपचाप घर आकर दवाई पीठ पर लगा ली, किसी (पिताजी) को मालूम नहीं
होने दिया। पर गाँव में बात छिपती कहाँ हैं बाद में मालूम हुआ तो पिताजी बहुत
नाराज़ हुए।
इसी तरह एक बार की और घटना है पलारी में ही मैं एक बदमाश घोड़े पर
बैठकर बाहर गया मुझे तो इस तरह के घोड़े पर बैठने पर मज़ा आने लगा था, पर बाहर जाकर घोड़े के साथ ऐसा
गिरा कि मेरी टाँग घोड़े के नीचे हो गई। मेरे घुटने में चोट आई और करीब २ माह तक
बहुत तकलीफ हुई। पिताजी को यह भी मालूम ही हो गया प,र वे इस बार कुछ बोले नहीं; क्योंकि वे जान गए थे कि अब मेरी आदत ही बदमाश किस्म के तेज घोड़ों
पर बैठने की हो गई है।
एक घटना घोड़े को लेकर और याद आ रही है- जब मैं नागपुर में ला कॉलेज
पढ़ रहा था तो कुछ घोड़े बेचने वाले वहीं पास में ठहरे थे। मेरे साथी की इच्छा हुई
कि चलो इनसे यह कहकर घोड़े पर बैठें कि हमें खरीदना है। मेरा वह साथी मंडला के
तहसीलदार का लड़का श्याम बिहारी शुक्ला था। हम दोनों दो घोड़ा लेकर दो चार दिन रोज
दौड़ाने ले जाया करते थे। उसी समय मेरी इच्छा एक घोड़ी को खरीदने की हो गई। क्योंकि
उन दिनों जो हमारे यहाँ घोड़ी थी, वह शायद मर गई थी। मैंने ३५० रुपये. में उसे खरीद लिया और घर पत्र
लिख दिया कि एक अच्छा घोड़ा खरीदा है, इसे लिवा लो और पैसे भी भेज दो। पिताजी नाराज हुए, पर काकाजी ने आदमी और पैसा भेज
दिया,
यह कहते हुए
कि उसे घोड़ों का शौक है । यहाँ हमेशा बड़ा घोड़ा रहता था, अब नहीं है खरीद लिया तो क्या
हुआ। घोड़ी बहुत खूबसूरत थी थोड़े दिनों में वह कुछ बीमार- सी दिखी तो पिताजी ने बाद
में उसे बेच दिया था।
विद्यार्थी जीवन में मैं सन् २८-२९ से लेकर ४३-४४ तक घर से बाहर रहने
के कारण अपने गाँव और जिले में लोगों से अधिक परिचय न कर सका। स्वतंत्रता आंदोलन
के दौरान पिताजी का प्रभाव राजनैतिक सहयोगी तथा सार्वजनिक कार्यकर्ता के नाते
रायपुर व दुर्ग जिले में काफी अच्छा था, उसी का फायदा मुझे पढ़ाई करके लौटने के बाद मिला। उनकी ही बदौलत मैंने
राजनैतिक क्षेत्र के लोगों के बीच जाना शुरू किया। वकालत करने के दौरान भी बहुत से
लोगों से मेरे सम्बन्ध जुड़े।
उसके बाद के राजनैतिक व सार्वजनिक कार्यों में प्रोत्साहित करने का
पूरा श्रेय स्व. डॉक्टर खूबचंद बघेल एवं ठा. प्यारेलाल सिंह को जाता है। उन्होंने
मुझे राजनीति की अच्छी शिक्षा दी, मुझे बढ़ावा दिया तथा अपने पूर्ण विश्वास में लेकर बहुत सा कार्य
मुझसे कराया और जिम्मेदारियाँ दीं। इन दोनों महान व्यक्तियों का मैं हमेशा ॠणी
रहूँगा,
जिन्होंने
मुझे हर कार्य के लिए अपने साथ रखा। इसी तरह स्व. ठाकुर निरंजन सिंह, (नर्सिंगपुर) का भी जो प्यार एवं
सहयोग मिला वह भी नहीं भुलाया जा सकता। असेम्बली में तो मुझे उन्हीं की बदौलत
कार्य करने का ज्यादा मौका मिला। उन्होंने ही मुझे सिखाया कि असेम्बली में कैसे
कार्य करना चाहिए, कैसे प्रश्न पूछना चाहिए, किस प्रकार से बोला जाता है तथा असेम्बली के अंदर शासक दल को कैसे
अड़चन में डाला जा सकता है। असेम्बली के कार्यों में मुझे स्व. ताम्रकर (दुर्ग) ने
भी बहुत प्रोत्साहित किया। उन्होंने दो वर्षों में मुझे असेम्बली के अंदर ऐसा बना
दिया कि जब कभी विरोधी दल के हमारे प्रमुख नेता गैरहाजिर रहते थे ,तब मैं अकेला असेम्बली के सभी
विषयों पर तथा बिलों पर जवाब देता था और विरोधी दल की कोई कमजोरी शासक दल को महसूस
नहीं होने देता था।
(आपातकाल १९७५-७६ के दौरान जेल में लिखे गए बृजलाल वर्मा की डायरी के
अंश)
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