सिद्धेश्वर मंदिर छत्तीसगढ़ राज्य के रायपुर जिले में रायपुर से बलौदाबाजार रोड पर ७० कि.मी. दूर स्थित पलारी ग्राम में बालसमुंद तालाब के तटबंध पर यह शिव मंदिर स्थित है। ईंट निर्मित यह मंदिर पश्चिमाभिमुखी है। मंदिर का गर्भगृह पंचस्थ शैली का है तथा जंघा तक अपने मूल रूप में सुरक्षित है। शिखर का शीर्ष भाग पुर्ननिर्मित है। पाषाण निर्मित द्वार के चौखट कलात्मक एवं अलंकृत है, इसके दोनों पाश्र्वों में नदी देवियों, गंगा एवं यमुना का त्रिभंग मुद्रा में अंकन है। सिरदल पर ललाट बिंब में शिव का चित्रण है, तथा दोनों पार्श्वों में ब्रह्मा तथा विष्णु का अंकन है। मंदिर के द्वार पर निर्मित पाषाण पर तराशे गए शिव विवाह अंकन पुरातत्व विशेषज्ञों के अनुसार अद्भुत है।
मंदिर की द्वार शाखा पर नदी देवी गंगा एवं यमुना त्रिभंगमुद्रा में
प्रदर्शित हुई हैं। द्वार के सिरदल पर त्रिदेवों का अंकन है। द्वार शाखा पर अष्ट
दिक्पालों का अंकन है। गर्भगृह में शिवलिंग प्रतिष्ठापित है। इस मंदिर का शिखर भाग
कीर्तिमुख,
गजमुख एवं
व्याल की आकृतियों से अलंकृत है जो चैत्य गवाक्ष के भीतर निर्मित हैं। विद्यमान
छत्तीसगढ़ के ईंट निर्मित मंदिरों का यह उत्तम नमूना है।
यह स्मारक छत्तीसगढ़ राज्य द्वारा अधिनियम १९६४ तथा ६५ के अधीन राज्य
संरक्षित स्मारक घोषित किया गया हैं। कलाशैली की दृष्टि से यह मंदिर ९०० ई. का
माना जाता है। जिसे छत्तीसगढ़ में ही स्थित विश्व विख्यात लक्ष्मण मंदिर जो सिरपुर
में है,
के समकक्ष कहा
जा सकता है। जनश्रुतियों के अनुसार इस मंदिर एवं तालाब का निर्माण नायकों ने
छैमासी रात में किया गया। इस अंचल में घुमंतू नायक जाति होती है जो नमक का व्यापार
करती थी। उनका कबीला नमक लेकर दूर- दूर तक भ्रमण करता था। कहते हैं कि इस पड़ाव पर
नायकों को जल की समस्या हमेशा बनी रहती थी। उन्होंने यहाँ तालाब बनवाने का कार्य शुरु
किया। (नायकों द्वारा तालाब निर्माण की कहानी अन्य स्थानों पर भी सुनाई देती हैं, खारुन नदी के उद्गम पेटेचुआ का
तालाब भी नायकों ने बनवाया था। इससे प्रतीत होता है कि नायक अपने व्यापार के मार्ग
में जलसंसाधन का निर्माण करते थे।) तालाब का निर्माण होने के बाद इस तालाब में
पानी नहीं आया तो किसी बुजूर्ग के कहने से नायकों के प्रमुख ने अपने नवजात शिशु को
परात में रख कर तालाब में छोड़ दिया, इसके बाद तालाब में भरपूर पानी आ गया और यह लबालब भर गया। बालक भी
सुरक्षित परात सहित उपर आ गया। तब से इस तालाब का नाम बालसमुंद रखा गया। इस तालाब
का विस्तार १२० एकड़ में है। तालाब के मध्य में एक टापू बना हुआ है, कहते हैं इसका निर्माण तालाब
खोदने के दौरान तगाड़ी झाडऩे से झड़ी हुई मिट्टी से हुआ। किवंदंतियाँ कई हैं जो
क्षेत्रीय जनता के विश्वास पर आधारित है।
इस मंदिर का जीर्णोद्धार तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री बृजलाल वर्मा ने
१९६०-६१ के दौरान अपने पिता कलीराम जी इच्छा का मान रखते हुए अपने दादाजी मोहनलाल
की स्मृति में करवाया था।
बात १९५०- ६० के दशक की है जब
पलारी गांव के आस- पास घना जंगल था तथा शेर, भालू, तेंदुआ यहाँ आसपास विचरते रहते थे। जंगल के बीच झाडिय़ों में
छिपे इस जीर्णशीर्ण मंदिर के पास कलीराम जी एक दिन
शिकार के दौरान घूमते
हुए पँहुच गए। उन्होंने देखा मंदिर का गर्भ गृह तब खाली है
यानी वहाँ स्थापित मूर्ति गायब है। लेकिन घाट, तालाब और वहाँ यत्र- तत्र बिखरे
अवशेष के चिन्हों को देखकर उन्होंने अनुमान लगाया कि हो न हो यह शिव मंदिर था।
उन्हें यह ऐतिहासिक और पुरातन मंदिर भा गया और उनके मन में धाराशाई होते इस
जीर्ण-शीर्ण मंदिर का जीर्णोद्धार एवं घाट का निर्माण करने की इच्छा हुई। एक बार
जब वे बीमार पड़े तो, उन्होंने अपनी यह इच्छा पुत्र बृजलाल से जाहिर की कि वे अपने पिता
स्व. मोहनलाल की स्मृति में इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाना चाहते हैं।
उनकी इच्छानुसार पुत्र बृजलाल वर्मा ने सन् १९६०-६१ में इस मंदिर का
जीर्णोद्धार करवाया और मंदिर के गर्भगृह में संगमरमर के शिवलिंग की स्थापना की और
तालाब में घाट का करके अपने पिता की इच्छा पूरी की। इस तरह सन् १९६० के दशक से ही यहाँ पूजा अर्चना
होती आ रही है। इस मंदिर में प्रति वर्ष माघ पूर्णिमा के दिन भव्य मेले की आयोजन
किया जाता है। जिसमें हजारों श्रद्धालु आकर बालसमुंद में स्नान कर पूण्यार्जित
करते हैं। मेले के दिन आस-पास के गाँव से हजारों की संख्या में लोग दिन भर मेले का
आनंद लेते हैं।
1 comment:
अद्भुत अद्भुत क्षमता और अद्बुत योगदान। सादर प्रणाम सहित हार्दिक हार्दिक बधाई।
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