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Dec 12, 2019

उदन्ती. com दिसम्बर 2019


उदन्ती. com दिसम्बर 2019   वर्ष-12 , अंक -5

साहित्य का कर्तव्य केवल ज्ञान देना नहीं है, परंतु एक नया वातावरण देना भी है।
- डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन

साहित्य विशेष

ग़ज़ल: लोग नहीं ये मौके हैं -सुधा राजे 

और कब तक...



और कब तक...
-डॉ. रत्ना वर्मा
मन तो था कि जाते हुए साल को अच्छी यादों के साथ बिदाई देने के बाद आने वाले साल का खुशियों के साथ स्वागत करूँ; पर इस जाते हुए साल में दिल दहला देने वाली कुछ ऐसी घटनाएँ  घटी कि नए साल के स्वागत की सारी खुशियों पर पानी फिर गया।
हैदराबाद में हुई महिला पशु चिकित्सक के साथ गैंगरैप के बाद उसे जलाकर मार डालने वाली घटना और इसके एक दिन पहले ही रांची में लॉ कॉलेज की छात्रा के साथ गैंगरेप, राजस्थान में 6 वर्षीय मासूम छात्रा के साथ बलात्कार फिर उन्नाव की युवती को गवाही से रोकने के लिए उसे सरेआम जला डालने और फिर उसकी मौत की घटना ने  फिर एक बार पूरे देश को दुःख और गुस्से से भर दिया है। ये कैसी मानसिकता है कि अब बलात्कारियों ने सबूत मिटाने के लिए बलात्कार के बाद महिला को जला कर मार डालने का नया तरीका निकाल लिया है। क्या उन्हें लगता है ऐसा करके वे पकड़े नहीं जाएँगे? या कानून सबूत न मिलने पर उन्हें छोड़ देगा?
अभी निर्भया कांड का मामला पूरी तरह से ठंडा हुआ भी नहीं है कि जाते हुए साल के अंतिम महीने में एक के बाद एक बेटियों के साथ हो रही दरिंदगी ने बेहद निराश और दुखी  कर दिया है। किसी ने कहा दोषियों को जनता के हवाले करो,  कोई कह रहा है उन्हें सरेआम फाँसी दो, तो कोई कह रहा है उन्हें पूरी जिंदगी जेल में ही रखो,  यहाँ तक की माबलीचिंग की बात भी की जा रही है। वकील कह रहे हैं हम इनकी पैरवी नहीं करेंगे। जितने लोग उतनी बातें... और अन्ततः जब हैदराबाद के चारो आरोपी पुलिस एनकाऊंटर में मारे गए , तो कई और नए प्रश्न उठ खड़े हुए।  एक बहुत बड़ा वर्ग कह रहा है कि वे इसी सजा के लायक थे, इन दरिंदों की यही सजा है,  तो दूसरा वर्ग कह रहा है कि यदि यही न्याय है तो फिर उन दोषियों का क्या, जिन्हें जेल में रखा गया है? ऐसे में न्याय व्यवस्था की आवश्यकता ही नहीं। क्यों नहीं उन सबका भी एनकाउंटर करके एक बार में ही मामला समाप्त कर दिया जाए।  
हमारी सरकार देश की प्रत्येक समस्या के समाधान के लिए रास्ता निकालने का प्रयास करती है,  दुनिया भर में बातचीत होती हैं। परंतु हमारी आधी आबादी की सुरक्षा के मामले में गंभीरता नहीं दिखलाई दे रही है । हम क्यों महिलाओं को सुरक्षित नहीं कर पा रहे हैं ? अफसोस की बात है कि महिलाओं पर हो रहे अत्याचार पर यह बातचीत सिर्फ उस समय होती है, जब निर्भया जैसा कोई दिल दहला देने वाला मामला सामने आता है। अब फिर लोग सड़क पर उतर आए हैं। यही नहीं एनकाउंटर के बाद तो दोषी को तुरंत सजा देने की माँग उठ रही है। जनता कानून को अपने हाथ में लेने को तैयार है। इसका ताजा उदाहरण  बिलासपुर छत्तीसगढ़ का है, जहाँ एक आठ साल की बच्ची के साथ दुष्कर्म के आरोपी को कोर्ट से जेल ले जाते समय बाहर खड़ी जनता ने पीटना शुरू कर दिया, किसी तरह  पुलिस उसे छुड़ाकर ले गई। 
कहने का तात्पर्य यही है कि अब पानी सिर से ऊपर जा चुका है,  देश गुस्से से उबल रहा है। बलात्कारियों को तुरंत सख्त से सख्त सजा देने की पुरजोर माँग हो रही है।
सच भी है , कुछ महीनों से लेकर चार- छह वर्ष की नाबालिग बच्चियों के साथ आ दिन बलात्कार की खबरें सुनकर तो शर्म आती है कि हम ये कौन से दौर में जी रहे हैं, जहाँ बच्ची के पैदा होते ही माता- पिता के दिल में उनकी सुरक्षा को लेकर ख़ौफ का साया मँडराने लगता है। अब तक तो भारत में लड़कियाँ पैदा होते ही इसलिए मारी जाती रही हैं क्योंकि उनके लिए दहेज इकट्ठा करना पड़ता  है , वे वंश नहीं चला सकती, वे घर के लिए बोझ होती हैं आदि- आदि... ,पर अब लगता है माता- पिता इसलिए बेटी नहीं चाहेंगे; क्योंकि अब तो छोटी छोटी दूध पीती बच्चियाँ भी सुरक्षित नहीं हैं। बलात्कार, हत्या, शोषण और अत्याचार जैसे मामले हर दिन बढ़ते ही चले जा रहे हैं। ऐसे में  कब तक हमारी बेटियाँ और उनके माता पिता डर-डरकर जीते रहेंगे। यह हमारे लिए बेहद शर्म की बात है कि पिछले साल थॉमसनरॉयटर्स फाउंडेशन के एक सर्वे के अनुसार पूरी दुनिया में भारत को महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक और असुरक्षित देश बताया था।
ऐसा भी नहीं है कि महिला अत्याचार के मामलों में कानून में परिवर्तन नहीं किए गए हैं, निर्भया मामले के बाद तो महिलाओं की सुरक्षा के लिए कई नियम- कानून बनाए गए थे। जैसे-  पेट्रोलिंग से लेकर एफआईआर के तरीकों तथा ट्रैफिक व्यवस्था में बदलाव।  2013 के केन्द्रीय बजट में निर्भयाफंड नाम से 100 करोड़ रुपये का प्रावधान,  जो आज 300 करोड़ तक हो गया है। महिलाओं की सुरक्षा को लेकर देश में ऐसे 600 केन्द्र खोले जाने थे, जहाँ एक ही छत के नीचे पीड़ित महिला को चिकित्सा, कानूनी सहायता और मनोवैज्ञानिक परामर्श हासिल हो सके। सार्वजनिक स्थानों पर सीसीटीवी कैमरे लगाने, महिला थानों की संख्या बढ़ाने और हेल्पलाइन सेवा शुरू करने की बातें भी कही गई थीं। पर इनमें से कौन-कौन से काम शुरू हुए हैं और वे कितने सक्रिय हैं, यह तो सरकार ही बता सकती है ; क्योंकि यदि ये सुविधाएँ शुरू हो गईं हैं, तो फिर आए दिन महिलाओं पर अत्याचार के इतने ज्यादा वीभत्स और क्रूर मामले क्यों बढ़ते जा रहे हैं? दिसम्बर 2012में निर्भया गैंगरेप के बाद आज 2019 तक महिलाओं पर हो रहे अत्याचार की संख्या में वृद्धि ही हुई है। यदि कानून व्यवस्था सख्त हुए हैं और सुरक्षा के इंतजाम बढ़ें हैं तो फिर बलात्कार की घटनाओं में कमी क्यों नहीं आई, उल्टे महिलाएँ अब अकेले आने जाने में डरने लगी हैं कि न जाने किस मोड़ पर दरिंदे छिप कर बैठे हों।
पहला सवाल उठता है - न्याय व्यवस्था पर, कानून पर, कानून के रखवालों पर, सरकार पर। दिन प्रति दिन बढ़ रहे ऐसे मामलों को देखते हुए तो यही कहना पड़ेगा कि कानून-व्यवस्था और सख्त हों, दोषी को सजा शीघ्र मिले, माफ़ी का तो प्रश्न ही नहीं उठता चाहे वह नाबालिग ही क्यों न हो। दूसरा सवाल उठता है – हमारे समाज पर, परिवार पर पालन पोषण के तरीकों पर और सबसे अहम् शिक्षा व्यवस्था पर। कहाँ कमी रह गई है उसपर चिंतन का समय आ गया है।  तीसरा सबसे जरूरी सवाल उठता है आज के बदलते परिवेश में बच्चों से लेकर बड़ों तक, सबके हाथ में मोबाइल। इससे पहले टीवी को दोषी ठहराया जाता था कि टीवी बच्चो को बिगाड़ रहा है। परंतु अब मोबाइल की लत ने तो क्या बच्चे और क्या बड़े सबको अपनी गिरफ्त में ले लिया है। एक घर में यदि चार लोग चार कोने में बैठे हैं , कोई  चेटिंग कर रहा है , कोई गूगल में सर्चिंग कर रहा है , तो कोई अपनी पसंद की फिल्म देख रहा है। तो कोई गेम खेलने में व्यसत है।  नतीजा समाज और परिवार के बीच दूरी बढ़ रही है, बच्चों में डिप्रेशन बढ़ रहा है , बच्चे अकेले होते जा रहे हैं या गलत संगत में पड़कर अपराधी बनते जा रहे हैं।
इन सबका जवाब तलाशने की जरूरत है। साल को बिदा करते हुए उम्मीद की जानी चाहिए कि समाज की इस घृणित विकृति को दूर करने के लिए सब मिलकर कोई सही रास्ता निकालेंगे, ऐसा सख्त कानून बनाएँगे और सुरक्षा की ऐसी व्यवस्था करेंगे कि कोई भी किसी लड़की की तरफ गलत नज़रों से देखने की हिम्मत भी न करे।  जब समुचि व्यवस्था में बदलाव आगा, तभी हमारी बेटियाँ बेखौफ होकर कहीं भी आ -जा सकेंगी।  तथा सरकार का यह नारा-  बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ मात्र नारा नहीं रहेगा। 
अंत में एक और दुःखद खबर.... दिल्ली में एक फैक्ट्री में हुए अग्निकांड ने  लिखने तक 43 मजदूरों की  जान ले ली है। फैक्ट्री का दरवाजा बाहर से बंद था और वहाँ सो रहे मजदूरों के निकलने का और कोई रास्ता नहीं था। मरने वालों में ज्यादातर युवा  थे। बताया जा रहा है कि बिल्डिंग में फैक्ट्री अवैध रूप चल रही थी तथा सुरक्षा के नियमों का भी पालन नहीं किया गया था। दरअसल इस तरह के न जाने कितने  काम वोट बैंक के नाम पर सँकरी गलियों के बंद कमरों में नियम कानून को ताक में रखकर किए जाते हैं। कोई गंभीर दुर्घटना हो जाने के बाद ही इन सबका खुलासा होता है। स्वार्थ चाहे राजनैतिक हो चाहे आर्थिक किसी की जान की कीमत पर यह सब बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।

कोई एक सवार

पंजाबी कहानी
कोई एक सवार 

-संतोख सिंह धीर, अनुवाद: सुभाष नीरव

सूरज के उदय होते ही बारू तांगेवाले ने ताँगा  जोड़कर अड्डे पर लाते हुए हाँक लगाई, “है कोई एक सवार खन्ने का भई...
   जाड़ों में इतने सवेरे संयोग से ही कोई सवार आ जाए तो आ जाए, नहीं तो रोटी-टुक्कड़ खाकर धूप चढ़े ही घर के बाहर निकलता है आदमी। पर बारू इस संयोग को भी क्यों गँवा ? जाड़े से ठिठुरते हुए भी वह सबसे पहले अपना ताँगा  अड्डे पर लाने की सोचता था।
   बारू ने बाजार की ओर मुँह करके ऐसे हाँक लगाई जैसे उसे केवल एक ही सवारी चाहिए थी। किन्तु बाजार की ओर से एक भी सवार नहीं आया। फिर उसने गाँवों से आने वाली अलग अलग पगडंडियों की ओर आँखें उठाकर उम्मीद में भरकर देखते हुए हाँक लगाई। न जाने कभी कभी सवारियों को क्या साँप सूँघ जाता है। बारू सड़क के एक किनारे बीड़ी- सिगरेट बेचने वाले  पास बैठकर बीड़ी पीने लगा।
    बारू का चुस्त घोड़ा निट्ठला खड़ा नहीं हो सकता था। दो-तीन बार घोड़े ने नथुने फुलाकर फराटे मारे, पूँछ हिलाई और फिर अपने आप ही दो-तीन कदम चला। “बस ओ बस बेटे, बेचैन क्यों होता है, चलते हैं। आ जाने दे किसी आँख के अन्धे और गाँठ के पूरे को।” अपनी मौज में हँसते हुए बारू ने दौड़कर घोड़े की बाग पकड़ी और उसे कसकर तांगे के बम पर बाँध दिया।
     स्टेशन पर गाड़ी ने सीटी दी। रेल की सीटी बारू के दिल में जैसे चुभ गई। उसने रेल को भी माँ की गाली दी और साथ में रेल बनाने वाले को भी। पहले जनता गई थी, अब मालगाड़ी। “साली घंटे घंटे पर गाड़ियाँ चलने लगीं।” और फिर बारू ने ज़ोर से सवारी के लिए आवाज़ लगाई।
    एक बीड़ी उसने और सुलगाई और इतना लम्बा कश खींचा कि आधी बीड़ी फूँक दी। बारू ने धुएँ के फराटे छोड़ते हुए बीड़ी को गाली देकर फेंक दिया। धुआँ उसके मुँह में मिर्च के समान लगा था।
    घोड़ा टिककर नहीं खड़ा हो पा रहा था। उसने एक दो बार खुर उठा-उठाकर धरती पर मारे। मुँह में लोहे की लगाम चबा-चबाकर थूथनी घुमाई। तांगे की चूलें कड़कीं, साज हिला, परों वाली रंग-बिरंगी कलगी हवा में फरफराई और घोड़े के गले से लटके रेशमी रूमाल हिलने लगे। बारू को अपने घोड़े की चुस्ती पर गर्व हुआ। उसने होंठों से पुचकार कर कहा, “बस, ओ बदमाश ! करते हैं अभी हवा से बातें...
   “घोड़ा तेरा बड़ा चेतन है बारू। उछलता-कूदता रहता है।” सिगरेट वाले ने कहा।
    “क्या बात है !” बारू गर्व से भरकार बोला, “खाल तो देख तू, बदन पर मक्खी फिसलती है। बेटों की तरह सेवा की जाती है, नत्थू।”
    “जानवर बचता भी तभी है,“ नत्थू ने विश्वास से कहा।
    दिन अच्छा चढ़ आया था, पर खन्ना जाने वाली एक भी सवारी अभी तक नहीं आई थी। और भी तीन-चार तांगे अड्डे पर आकर खड़े हो गए थे और कुन्दन भी सड़क के दूसरी ओर खन्ना की दिशा में ही ताँगा  खड़ा करके सवारियों के लिए आवाजे़ं लगा रहा था।
     हाथ में झोला पकड़े हुए एक शौकीन बाबू बाजार की ओर से आता हुआ दिखाई दिया। बारू उसकी चाल पहचानने लगा। बाबू अड्डे के और निकट आ गया, पर अभी तक उसके पैरों ने किसी एक तरफ का रुख नहीं किया था।
      “चलो, एक सवारी सरहिन्द की... कोई मलोह जाने वाला भाई...”- आवाजे़ं ऊँची होने लगीं। पर सवार की मर्जी का पता नहीं लगा। बारू ने खन्ने की आवाज़ लगाई। सवारी ने सिर नहीं उठाया। “कहाँ जल्दी मुँह से बोलते हैं ये जंटरमैन आदमी”- बारू ने अपने मन में निन्दा की। तभी बाबू बारू के तांगे के पास आकर खड़ा हो गया।
    “और है भई कोई सवारी /” उसने धीरे से कहा।
     बारू ने अदब से उसका झोला थामना चाहते हुए कहा, “आप बैठो बाबूजी आगे... अभी हाँके देते हैं, बस एक सवारी ले लें।”
   पर बाबू ने झोला नहीं थमाया और हवा में देखते हुए चुपचाप खड़ा रहा। यूँ ही घंटा भर तांगे में बैठे रहने का क्या मतलब?
    बारू ने ज़ोर से एक सवारी के लिए हाँक लगाई जैसे उसे बस एक ही सवारी चाहिए थी। बाबू ज़रा टहलकर तांगे के अगले पायदान के थोड़ा पास को हो गया। बारू ने हौसले से एक हाँक और लगाई।
     बाबू ने अपना झोला तांगे की अगली गद्दी पर रख दिया और खुद पतलून की जेबों में हाथ डालकर टहलने लगा। बारू ने घोड़े की पीठ पर प्यार से थपकी दी और फिर तांगे की पिछली गद्दियों को यूँ ही ज़रा ठीक-ठाक करने लगा। इतने में एक साइकिल आकर तांगे के पास रुक गई। थोड़ी सी बात साइकिल वाले ने साइकिल पर बैठे बैठे उस बाबू से की और वह गद्दी पर से अपना झोला उठाने लगा। बारू ने डूबते हुए दिल से कहा, “हवा सामने की है बाबूजी“, पर साइकिल बाबू को लेकर चलती बनी।
    घुटने घुटने दिन चढ़ आया।
    ढीठ-सा होकर बारू फिर सड़क के एक किनारे सिगरेट वाले के पास बैठ गया। उसका जी कैंची की सिगरेट पीने को किया। पर दो पैसे वाली सिगरेट अभी वह किस हिम्मत से पिये ? फेरा आज मुश्किल से एक ही लगता दीखता था। चार आने सवारी है खन्ने की, छह सवारियों से ज्यादा का हुकम नहीं है। तीन रुपये तो घोड़े के पेट में पड़ जाते हैं। उसके मन में उठा-पटक होने लगी। ऐसे वहाँ वह क्यों बैठा रहे ? वह उठकर तांगे में पिछली गद्दी पर बैठ गया, ताकि पहली नज़र में सवारी को ताँगा  बिलकुल खाली न दिखाई दे।
    तांगे में बैठा वह ‘लारा लप्पा... लारा लप्पा’ गुनगुनाने लगा। और फिर हीर का टप्पा! पर जल्दी ही उसके मन में बेचैनी-सी होने लगी। टप्पे उसके होंठों को भूल गए। वह दूर फसलों की ओर देखने लगा। खेतों में बलखाती पगडंडियों पर कुछ राही चले आ रहे थे। बारू ने पास आते हुए राहियों की ओर ध्यान से देखा। चारखानेवाली सफेद चादरों की बुक्कल मारे चार जाट-से थे। ारू ने सोचा, पेशी पर जाने वाले चौधरी ऐसे ही होते हैं। उसने तांगे को मोड़ कर उनकी ओर जाते हुए आवाज़ दी, “खन्ने जाना है, नम्बरदार ? आओ बैठो, हाँके फिर।”
    सवारियाँ कुछ हिचकिचाई और फिर उनमें से एक ने कहा, “जाना तो है अगर इसी दम चला।”
    “अभी लो, बस बैठने की देर है…” बारू ने घोड़े के मुँह के पास से लगाम थाम कर तांगे का मुँह अड्डे की ओर घुमा लिया।
  “तहसील पहुँचना है हमें, पेशी पर, समराले।”
      “मैंने कहा, बैठो तो सही, दम के दम में चले।”
       सवारियाँ तांगे में बैठ गईं। ‘एक सवार’ की हाँक लगाते हुए बारू ने तांगे को अड्डे की ओर बढ़ा लिया।
      “अभी एक और सवारी चाहिए /” उनमें से एक सवारी ने तांगे वाले से ऐसे कहा जैसे कह रहा हो - आखि़र तांगेवाला ही निकला।
     “चलो, कर लेने दो इसे भी अपना घर पूरा…” उन्हीं में से एक ने उŸार दिया, “हम थोड़ा देर से पहुँच जाएँगे।”
      अड्डे से बारू ने ताँगा  बाजार की ओर दौड़ा लिया। बाजार के एक ओर बारू ने तांगे के बम पर सीधे खड़े होकर हाँक लगाई, “जाता है, कोई अकेला सवार खन्ने भाइयो…”
        “अकेले सवार को लूटना है राह में /” बाजार में किसी ने ऊँची आवाज़ में बारू से मजाक किया।
        बाजार में ठठ्ठा हो उठा। बारू के सफेद दाँत और लाल मसूड़े दिखने लगे। उसके गाल फूल कर चमक उठे और हँसी में हँसी मिला कर सवार के लिए हाँक लगाते हुए उसने घोड़ा मोड़ लिया। अड्डे आकर सड़क के किनारे खन्ना की दिशा में ताँगा  लगाया और खुद सिगरेट वाले के पास आकर बैठ गया।
      “की न वही बात…” तांगे वाले को ऐसे आराम से बैठे देखकर एक सवार बोला।
      “ओ भई तांगेवाले ! हमें अब ऐसे हैरान करोगे /” एक और ने कहा।
        “मैंने कहा, हमें रुकना नहीं है नम्बरदार। बस, एक सवारी की बात है। आ गई तो ठीक, नहीं तो चल पड़ेंगे।” बारू ने दिलजोई की।
       सवारियों को परेशान देखकर, कुन्दन ने अपने तांगे को एक कदम और आगे करते हुए हाँक दी, “चलो, चार ही सवारी लेकर जा रहा है खन्ने को…” और वह चिढ़ाने के लिए बारू की ओर टुकर-टुकर देखने लगा।
      “हट जा ओए, हट जा ओ नाई के... बाज आ तू लच्छनों से…” बारू ने कुन्दन की ओर आँखें निकालीं और सवारियों को बरगलाये जाने से बचाने के लिए आती हुई औरतों और लड़कियों की एक रंग-बिरंगी टोली की ओर देखते हुए कहा, “चलते हैं, सरदारो, हम अभी बस। वो आ गई सवारियाँ।”
       सवारियाँ टोली की ओर देखकर फिर टिक कर बैठी रहीं।
       टोली की ओर देखते हुए बारू सोचने लगा, शायद ब्याह-गौने के लिए सजधज कर निकली हैं ये सवारियाँ। दो तांगे भर लो चाहे, नांवा भी अच्छा बना जाती हैं ऐसी सवारियाँ।
       टोली पास आ गई।
       कुछ औरतों और लड़कियों ने हाथों में कपड़ों से ढकी हुई टोकरियाँ और थालियाँ उठाई हुई थीं। पीछे कुछ घूँघट वाली बहुएँ और छोटी-छोटी लड़कियाँ थीं। बारू ने आगे बढ़कर बेटों जैसा बेटा बनते हुए एक औरत से कहा, “आओ माई जी, तैयार है ताँगा, बस तुम्हारा ही रस्ता देख रहा था। बैठो, खन्ने को...।”
    “अरे नहीं भाई…” माई ने सरसरी तौर पर कहा, “हम तो माथा टेकने जा रही है, माता के थान पर…”
     “अच्छा, माई अच्छा।” बारू हँसकर कच्चा-सा पड़ गया।
       “ओ भई चलेगा या नहीं ?” सवारियों में कहीं सब्र होता है। बारू भी उन्हें हर घड़ी कैसी कैसी तरकीबों से टाले जाता। हार कर उसने साफ बात की, “चलते हैं बाबा, आ लेने दो एक सवारी, कुछ भाड़ा तो बन जाए।”
       “तू अपना भाड़ा बना, हमारी तारीख निकल जाएगी।” सवारियाँ भी सच्ची थीं।
       कुन्दन ने फिर छेड़ करते हुए सुनाकर कहा, “सीधे होते हैं कोई कोई लोग। कहाँ फंस गए, पहली बात तो यह अभी चला ही नहीं रहा है। चला भी तो कहीं रास्ते में औंधा पड़ जाएगा, कदम-कदम पर तो अटकता है घोड़ा।”
     सवारियाँ कानों की कच्ची होती हैं। बारू को गुस्सा आ रहा था। पर वह छेड़ को अभी भी झेलता हुआ कुन्दन की ओर कड़वाहट से देखकर बोला, “नाई, ओ नाई, तेरी मौत बोल रही है। गाड़ी तो संवार ला पहले माँ से जा के, ढीचकूँ ढीचकूँ करती है, यहाँ खड़ा क्या भौंके जा रहा है कमजात !”
  लोग हँसने लगे, पर जो दशा बारू की थी, वही कुन्दन और दूसरे तांगेवालों की थी। सवारियाँ किसे नहीं चाहिएँ ? किसे घोड़े और कुनबे का पेट नहीं भरना है ? न बारू खुद चले, न किसी और को चलने दे, सबर भी कोई चीज़ है। अपना अपना भाग्य है। नरम-गरम तो होता ही रहता है। चार सवारियाँ लेकर ही चला जाए। किसी दूसरे को भी रोजी कमाने दे। कम्बख़्त पेड़ की तरह रास्ता रोके खडा़ है। कुन्दन ने अपनी जड़ पर आप ही कुल्हाड़ी मारते हुए खीझ कर हाँक लगाई, “चलो, चार सवारियाँ लेकर ही जा रहा है खन्ने को बम्बूकाट... चलो, जा रहा है मिनटों-सेंकिंडों में खन्ने... चलो, भाड़ा भी तीन-तीन आने...।” और ताँगा  उसने दो कदम और आगे कर दिया।
    बारू की सवारियाँ पहले ही परेशान थीं। और सवारियाँ किसी की बंधी हुई भी नहीं होतीं। बारू की सवारियाँ बिगड़कर तांगे में से उतरने लगीं।
    बारू ने गुस्से में ललकार कर कुन्दन को माँ की गाली दी और अपनी धोती की लांग मारकर कहा, “उतर बेटा नीचे तांगे से…”
      कुन्दन, बारू को गुस्से में तना हुआ देखकर कुछ ठिठक तो गया, पर तांगे से नीचे उतर आया और बोला, “मुँह संभाल कर गाली निकालियो, अबे कलाल के...।”
      बारू ने एक गाली और दे दी और हाथ में थामी हुई चाबुक पर उंगली जोड़ कर कहा, “पहिये के गजों में से निकाल दूँगा साले को तिहरा करके।”
      “तू हाथ तो लगाकर देख…” कुन्दन भीतर से डरता था, पर ऊपर से भड़कता था।
       “ओ, मैंने कहा, मिट जा तू, मिट जा नाई के। लहू की एक बूँद नहीं गिरने दूँगा धरती पर, सारा पी जाऊँगा।” बारू को खीझ थी कि कुन्दन उसे क्यों नहीं बराबर की गाली देता।
      सवारियाँ इधर-उधर खड़ीं दोनों के मुँह की ओर देख रही थीं।
      “तुझे मैंने क्या कहा है ? तू नथुने फुला रहा है फालतू में।” कुन्दन ने ज़रा डटकर कहा।
      “सवारियाँ पटा रहा है तू मेरी।”
      “मैं सवेरे से देख रहा हूँ तेरे मुँह को, चुटिया उखाड़ दूँगा।”
      “बड़ा आया तू उखाड़ने वाला।” कुन्दन बराबर जवाब देने लगा।
       “मेरी सवारियाँ बिठाएगा तू ?”
       “हाँ, बिठाऊँगा।”
       “बिठा फिर…” बारू ने मुक्का हवा में उठा लिया।
        “आ बाबा…” कुन्दन ने एक सवार को कन्धे से पकड़ा।
        बारू ने तुरन्त कुन्दन को गिरेबान से पकड़ लिया। कुन्दन ने भी बारू की गर्दन के गिर्द हाथ लपेट लिए। दोनों उलझ गए। ‘पकड़ो-छुड़ाओ’ होने लगी। अन्त में दूसरे तांगेवाले और सवारियों ने दोनों को छुड़ा दिया और अड्डे के ठेकेदार ने दोनों को डाँट-डपट दिया। सबने यही कहा कि सवारियाँ बारू के तांगे में ही बैठें। तीन आने की तो यूँ ही फालतू बात है - न कोई लेगा, न कोई देगा। कुन्दन को सबने थोड़ी फटकार-लानत बता दी। और सवारियाँ फिर से बारू के तांगे मे बैठ गईं।
 बारू को परेशान और दुखी-सा देखकर सबको अब उससे हमदर्दी-सी हो गई थी। सब मिल-जुलकर उसका ताँगा  भरवाकर रवाना करवा देना चाहते थे। सवारियों ने भी कह दिया - चलो, वे और घड़ी भर पिछड़ लेंगे। यह अपना घर पूरा कर ले। इसे भी तो पशु का पेट भरकर रोटी खानी है गरीब को।
  इतने में बाजार की ओर से आते हुए पुलिस के हवलदार ने आकर पूछा, “ऐ लड़को ! ताँगा  तैयार है कोई खन्ने को ?”
 पल भर के लिए बारू ने सोचा, आ गई मुफ्त की बेगार, न पैसा न धेला, पर तुरन्त ही उसने सोचा, पुलिस वाले से कह भी नहीं सकते। चलो, अगर यह तांगे में बैठा होगा तो दो सवारियाँ फालतू भी बिठा लूँगा, नहीं देना भाड़ा तो न सही। और बारू ने कहा, “आओ हवलदार जी, तैयार खड़ा है ताँगा , बैठो आगे।”
    हवलदार तांगे में बैठ गया। बारू ने एक सवारी के लिए एक-दो बार जोर से हाँक लगाई।
     एक लाला बाजार की ओर से आया और बिना पूछे बारू के तांगे में आ चढ़ा। दो-एक बूढ़ी स्त्रियाँ अड्डे की तरफ सड़क पर चली आ रही थी। बारू ने जल्दी से आवाज़ देकर पूछा, “माई खन्ने जाना है ?” बूढ़ियाँ तेजी से कदम फेंकने लगीं और एक ने हाथ हिलाकर कहा, “खड़ा रह भाई।”
    “जल्दी करो, माई, जल्दी।” बारू अब जल्दी मचा रहा था।
     बूढ़ियाँ जल्दी जल्दी आकर तांगे में बैठने लगीं, “अरे भाई क्या लेगा ?”
     “बैठ जाओ माई झट से। आपसे फालतू नहीं मांगता।”
      आठ सवारियों से ताँगा  भर गया। दो रुपये बन गए थे। चलते-चलते कोई और भेज देगा, मालिक ! दो फेरे लग जाएँ ऐसे ही। बारू ने ठेकेदार को महसूल दे दिया।
    “ले भई, अब मत साइत पूछ...”- पहली सवारियों में से एक ने कहा।
     “लो जी, बस, लेते हैं रब्ब का नाम…” बारू घोड़े की पीठ पर थपकी देकर बम से रास खोलने लगा।
      फिर उसे ध्यान आया, एक सिगरेट भी ले ले। एक पल के लिए ख़याल ही ख़याल में उसने अपने आप को टप-टप चलते तांगे के बम पर तनकर बैठे हुए, धुएँ के फर्राटे उड़ाते हुए देखा और वह भरे तांगे को छोड़ कैंची की सिगरेट खरीदने के लिए सिगरेट वाले के पास चला गया।
    भूखी डायन के समान तभी अम्बाले से लुधियाने जाने वाली बस तांगे के सिर पर आकर खड़ी हो गई। पल भर में ही तांगे की सवारियाँ उतर कर बस के बड़े से पेट में खप गईं। अड्डे पर झाड़ू फेर कर डायन की तरह चिंघाड़ती हुई बस आगे चल दी। धुएँ की जलाँद और उड़ी हुई धूल बारू के मुँह पर पड़ रही थी।
     बारू ने अड्डे के बीचोबीच चाबुक को ऊँचा करके, दिल और जिस्म के पूरे ज़ोर से एक बार फिर हाँक लगाई, “है कोई जाने वाला एक सवार खन्ने का भाई...।”
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लेखक के बारे में - 2 दिसंबर 1920 को जन्में संतोख सिंह धीर पंजाबी के अग्रणी कथाकारों में एक उल्लेखनीय नाम है। मानवतावाद और लोकहित इनके लेखन का केन्द्र रहा। कविता, उपन्यास, कहानी, यात्रा संस्मरण आदि पर 50 से अधिक पुस्तकों के रचयिता। अनेक अविस्मरणीय कहानियों के इस लेखक के आठ कहानी संग्रह, बारह कविता संग्रह, छह उपन्यास के साथ साथ यात्रावृतांत और आत्मकथा भी प्रकाशित। कहानी संग्रहों में ‘सिट्टियां दी छां-(1950), ‘सवेर होण तक’(1955), ‘सांझी कंध’(1958), ‘शराब दा गिलास’( 1970), ‘उषा भैण जी चुप हन’(1991) और ‘पक्खी’(1991) प्रमुख हैं। ‘पक्खी’ कहानी संग्रह पर वर्ष 1996 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित होने के साथ-साथ दर्जनों पुरस्कारों द्वारा नवाजे गए। ‘सांझी कंध’, ‘सवेर होण तक’,‘कोई एक सवार’, ‘मेरा उजड़िया गवांडी’, ‘मंगो’ आदि उनकी अविस्मरणीय कहानियाँ हैं। 8 फरवरी 2010 को निधन।

यादों की गुल्लक


यादों की गुल्लक

- भावना सक्सैना 

आज अचानक बैठे-बैठे
फूट गई यादों की गुल्लक
जंगल मे बहते झरने से
झर-झर झरे याद के सिक्के
गौर से देखा अलट-पलट कर
हर सिक्के का रंग अलग था,
खुशबू थी बीते मौसम की
पीर जगाती दिल में, लेकिन
मौसम थे खुशरंग वो सारे।
इक इक सिक्का
लिए कहानी आया बाहर
एक बड़ी सी ढेरी दस की
बाबा की जेबों से निकले
बस वो सिक्के नहीं है केवल
हर एक पर अक्स छपा है
लाड़ लड़ाते बाबा का और
पैताने कम्बल में छिपने पर
दादी की मीठी झिड़की भी।
छोटा वाला एक वो सिक्का
जिसकी चुस्की रंग-बिरंगी
लेते लेते छूट ग थी
त्योरी देख बुआ की उस दिन...
सैक्रीन से बैठ जाएगा
गला तुम्हारा, और
रंग भी ठीक नही ये
कुल्फी, सॉफ्टी मलाई-बर्फ
शुद्ध दूध से बनते सारे
लेना है तो कुछ अच्छा लो।
एक चवन्नी मेहनत की है...
टाल और चक्की की फेरी
बड़ी प्रिय वो इस कारण, कि
पाठ वो पहला
अपने बूते कुछ करने का
जिससे चलना सीखा अकेले
और इसी ने राह बनाई।
एक अठन्नी, ली थी ज़िद कर
मेले जाते जाते
रिब्बन, माला, चूड़ी, गुड़िया,
खेल-खिलौने रंग-बिरंगे
टिका नहीं मन किसी पर आ,
तो, वापस आई घूमघाम कर
तब से यूँ ही पड़ी हुई है
बाट जोहती मेले की फिर...
कैसे कहूँ प्रेम और सद्भाव के
अब वो मेले यहां नही हैं।
रुपया एक मोहब्बत वाला
तकना बस नुक्कड़, छज्जे से
मन की पींगें उड़ती ऊँची
सामने आ बस नज़र झुकाई
लाज और संस्कार का रंग
गहरा था तब किसी भी रंग से।
और कई हैं सिक्के इसमें
राज़ अनूठे दुबके छिप-छिप
रेज़ा-रेज़ा  ख़्वाहिश के रंग
यादें ऐसी फैल गयी हैं
सिरे समेटे से न सिमटे।
डूब गई आकंठ इन्हीं में
पूंजी लिए हुए बचपन की
भीगे नयन हृदय हर्षाता
वक्त काश वो फिर आ पाता।

एक मध्यवर्गीय कुत्ता

एक मध्यवर्गीय कुत्ता
-हरिशंकर परसाई
 मेरे मित्र की कार बंगले में घुसी तो उतरते हुए मैंने पूछा,“इनके यहाँ कुत्ता तो नहीं है?
मित्र ने कहा, “तुम कुत्ते से बहुत डरते हो!”
मैंने कहा, “आदमी की शक्ल में कुत्ते से नहीं डरता. उनसे निपट लेता हूँ। पर सच्चे कुत्ते से बहुत डरता हूँ।“
कुत्तेवाले घर मुझे अच्छे नहीं लगते।  वहाँ जाओ तो मेजबान के पहले कुत्ता भौंककर स्वागत करता है। अपने स्नेही से “नमस्ते“ हुई ही नहीं कि कुत्ते ने गाली दे दी- “क्यों यहाँ। आया बे? तेरे बाप का घर है? भाग यहाँ से !”
फिर कुत्ते का काटने का डर नहीं लगता- चार बार काट ले। डर लगता है उन चौदह बड़े इंजेक्शनों का जो डॉक्टर पेट में घुसेड़ता है. यूँ कुछ आदमी कुत्ते से अधिक ज़हरीले होते हैं. एक परिचित को कुत्ते ने काट लिया था।
मैंने कहा,इन्हें कुछ नहीं होगा। हालचाल उस कुत्ते का पूछो और इंजेक्शन उसे लगाओ।”
एक नये परिचित ने मुझे घर पर चाय के लिए बुलाया। मैं उनके बंगले पर पहुँचा तो फाटक पर तख्ती टंगी दीखी-कुत्ते से सावधान !” मैं फ़ौरन लौट गया।
कुछ दिनों बाद वे मिले तो शिकायत की,”आप उस दिन चाय पीने नहीं आ।”
मैंने कहा,“माफ़ करें. मैं बंगले तक गया था. वहां तख्ती लटकी थी- ‘कुत्ते से सावधान’ मेरा ख़्याल था, उस बंगले में आदमी रहते हैं। पर नेमप्लेट कुत्ते की  टँगी हुई दीखी। ’
यूँ कोई-कोई आदमी कुत्ते से बदतर होता है। मार्कट्वेन ने लिखा है- ‘यदि आप भूखे मरते कुत्ते को रोटी खिला दें, तो वह आपको नहीं काटेगा।’ कुत्ते में और आदमी में यही मूल अंतर है।
बंगले में हमारे स्नेही थे। हमें वहाँ तीन दिन ठहरना था। मेरे मित्र ने घण्टी बजायी तो जाली के अंदर से वही भौं-भौं की आवाज़ आ। मैं दो क़दम पीछे हट गया। हमारे मेजबान आये। कुत्ते को  डाँटा- ‘टाइगर, टाइगर!’ उनका मतलब था- ‘शेर, ये लोग कोई चोर-डाकू नहीं हैं। तू इतना वफ़ादार मत बन।’
कुत्ता ज़ंजीर से  बँधा था। उसने देख भी लिया था कि हमें उसके मालिक खुद भीतर ले जा रहे हैं, पर वह भौंके जा रहा था। मैं उससे काफ़ी दूर से लगभग दौड़ता हुआ भीतर गया। मैं समझा, यह उच्चवर्गीय कुत्ता है. लगता ऐसा ही है. मैं उच्चवर्गीय का बड़ा अदब करता हूँ। चाहे वह कुत्ता ही क्यों न हो। उस बंगले में मेरी अजब स्थिति थी। मैं हीनभावना से ग्रस्त था- इसी अहाते में एक उच्चवर्गीय कुत्ता और इसी में मैं! वह मुझे हिकारत की नज़र से देखता।
शाम को हम लोग लॉन में बैठे थे। नौकर कुत्ते को अहाते में घुमा रहा था। मैंने देखा, फाटक पर आकर दो ‘सड़किया’ आवारा कुत्ते खड़े हो गए। वे सर्वहारा कुत्ते थे।  वे इस कुत्ते को बड़े गौर से देखते। फिर यहाँ-वहाँ घूमकर लौट आते और इस कुत्ते को देखते रहते। पर यह बंगलेवाला उन पर भौंकता था। वे सहम जाते और यहाँ-वहाँ हो जाते। पर फिर आकर इस कु्ते को देखने लगते।
मेजबान ने कहा, “यह हमेशा का सिलसिला है। जब भी यह अपना कुत्ता बाहर आता है, वे दोनों कुत्ते इसे देखते रहते हैं।”
मैंने कहा, “पर इसे उन पर भौंकना नहीं चाहिए। यह पट्टे और ज़ंजीरवाला है। सुविधाभोगी है। वे कुत्ते भुखमरे और आवारा हैं। इसकी और उनकी बराबरी नहीं है। फिर यह क्यों चुनौती देता है!”
रात को हम बाहर ही सोए। ज़ंजीर से बंधा कुत्ता भी पास ही अपने तखत पर सो रहा था। अब हुआ यह कि आसपास जब भी वे कुत्ते भौंकते, यह कुत्ता भी भौंकता। आखिर यह उनके साथ क्यों भौंकता है? यह तो उन पर भौंकता है। जब वे मोहल्ले में भौंकते हैं तो यह भी उनकी आवाज़ में आवाज़ मिलाने लगता है, जैसे उन्हें आश्वासन देता हो कि मैं यहाँ हूँ, तुम्हारे साथ हूँ।
मुझे इसके वर्ग पर शक़ होने लगा है। यह उच्चवर्गीय कुत्ता नहीं है। मेरे पड़ोस में ही एक साहब के पास थे दो कुत्ते। उनका रोब ही निराला ! मैंने उन्हें कभी भौंकते नहीं सुना। आसपास के कुत्ते भौंकते रहते, पर वे ध्यान नहीं देते थे। लोग निकलते, पर वे झपटते भी नहीं थे। कभी मैंने उनकी एक धीमी गुर्राहट ही सुनी होगी। वे बैठे रहते या घूमते रहते। फाटक खुला होता, तो भी वे बाहर नहीं निकलते थे। बड़े रोबीले, अहंकारी और आत्मतुष्ट।
यह कुत्ता उन सर्वहारा कुत्तों पर भौंकता भी है और उनकी आवाज़ में आवाज़ भी मिलाता है। कहता है-
मैं तुममें शामिल हूँ। ‘उच्चवर्गीय झूठा रोब भी और संकट के आभास पर सर्वहारा के साथ भी- यह चरित्र है इस कुत्ते का। यह मध्यवर्गीय चरित्र है. यह मध्यवर्गीय कुत्ता है। उच्चवर्गीय होने का ढोंग भी करता है और सर्वहारा के साथ मिलकर भौंकता भी है। तीसरे दिन रात को हम लौटे तो देखा, कुत्ता त्रस्त पड़ा है. हमारी आहट पर वह भौंका नहीं,थोड़ा-सा मरी आवाज़ में गुर्राया।  आसपास वे आवारा कुत्ते भौंक रहे थे, पर यह उनके साथ भौंका नहीं। थोड़ा गुर्राया और फिर निढाल पड़ गया।
मैंने मेजबान से कहा,“आज तुम्हारा कुत्ता बहुत शांत है।’
मेजबान ने बताया, “आज यह बुरी हालत में है। हुआ यह कि नौकर की गफ़लत के कारण यह फाटक से बाहर निकल गया। वे दोनों कुत्ते तो घात में थे ही। दोनों ने इसे घेर लिया। इसे रगेदा। दोनों इस पर चढ़ बैठे। इसे काटा। हालत ख़राब हो गयी। नौकर इसे बचाकर लाया। तभी से यह सुस्त पड़ा है और घाव सहला रहा है। डॉक्टर श्रीवास्तव से कल इसे इंजेक्शन दिलाऊँगा।’
मैंने कुत्ते की तरफ़ देखा। दीन भाव से पड़ा था। मैंने अन्दाज़ लगाया। हुआ यों होगा-
यह अकड़ से फाटक के बाहर निकला होगा। उन कुत्तों पर भौंका होगा। उन कुत्तों ने कहा होगा-
अबे, अपना वर्ग नहीं पहचानता। ढोंग रचता है। ये पट्टा और ज़ंजीर लगाये हैं। मुफ़्त का खाता है। लॉन पर टहलता है। हमें ठसक दिखाता है। पर रात को जब किसी आसन्न संकट पर हम भौंकते हैं, तो तू भी हमारे साथ हो जाता है। संकट में हमारे साथ है, मगर यों हम पर भौंकेगा। हममें से है तो निकल बाहर। छोड़ यह पट्टा और ज़ंजीर। छोड़ यह आराम।  घूरे पर पड़ा अन्न खा या चुराकर रोटी खा। धूल में लोट।’ यह फिर भौंका होगा। इस पर वे कुत्ते झपटे होंगे। यह कहकर-
अच्छा ढोंगी। दग़ाबाज़, अभी तेरे झूठे दर्प का अहंकार नष्ट किए देते हैं।’
इसे रगेदा, पटका, काटा और धूल खिलायी।
कुत्ता चुपचाप पड़ा अपने सही वर्ग के बारे में चिन्तन कर रहा है।

टूटती मर्यादा


1.टूटती मर्यादा
-सविता मिश्रा ‘अक्षजा
"लो! जब पापा कमजोर पड़े तो हमेशा की तरह शुरू हो गया माँ को पीटना। पहले दोनों के बीच थी अबोले की लड़ाई ! फिर बात बढ़ते-बढ़ते शुरू हुआ था आपस में झगड़ना! और अब..!” पापा के कमरे से आती माँ की रोने की आवाज को सुनकर बेटा झल्लाहट में बोला।
"अक्सर होती ये लड़ाइयाँ देखते-देखते हम दोनों बड़े हो गए। बहुत हो गया अब, जाकर कहती हूँ पापा से।"
"नहीं दीदी! पापा, फिर तुम्हें भी मारेंगे।"
"तुझे गाँधी जी के तीन बन्दर बने रहना है, तो बैठा रह!" कहकर बिजली की तेजी से कमरे से बाहर निकल गई।
"तू जा बिटिया!" माँ ने बेटी को देखते ही रुँधे गले से कहा ।
"देखो भला, बेटी मुझे आँख दिखा रही! बिटिया को यही शिक्षा दी है तुमने!" कहकर उसने पत्नी को एक तमाचा और जड़ दिया ।
"बस.. कीजिए पापा... !"  बेटी चीखी।
"तू मुझे रोकेगी !" कहते हुए पिता ने हाथ उठाया ही था कि बिटिया ने हाथ पकड़कर झटक दिया ।
"माँ! तुम्हीं ने तो शिक्षा दी है न कि अन्याय के खिलाफ बोलना चाहिए!" बेटी अपनी माँ से मुख़ातिब हुई।
"अच्छा....! तो आग इसी ने लगाई है।"  कहकर तैश में आ फिर से पिता आगे बढ़े ।
"हम दोनों जवान हो गए हैं पापा। आप भूल रहे हैं, आप बूढ़े और कमजोर हो गए हैं। माँ भी पलटकर एक लगा सकती हैं, लेकिन वह रूढ़ियो में जकड़ी हैं, पर हम भाई-बहन नहीं...।" क्रोध और आवेश से भरा बेटे का स्वर कमरे में गूँज गया।
"चुपकर बेटा!" खुद की दी हुई शिक्षा अपने ही पति पर लागू न हो जाए ,इस डर से बच्चों के पास आकर माँ, उन्हें बाहर जाने को कहने लगी।
बेटी के दुस्साहस  से पिता आहत हुए थे। अभी वे सम्हल भी नहीं पाए थे कि बेटे ने भी चुटीले शब्दों की आहुति डाल दी थी। सुनकर पिता का चेहरा तमतमा गया।
सामने बिस्तर पर पड़े हुए अखबार मेंपत्नी के साथ घर में गर्लफ्रैंड रख सकते हैंहेडिंग देखकर बेटी ने हिम्मत बटोर पिता से कहा - "माँ को जिस कानून की धमकी दे रहे हैं आप, जाकर उन आंटी से कभी यही कहके देखिएगा। माँ के साथ आप जो करते हैं न, वही आपके साथ वह करेंगी।"
बेटी के मुख से निकले शब्दों को सुनकर शर्मिंदगी के बोझ से पिता का सिर झुक गया ।
"कानूनी आदेश का सहारा लेकर जो आप धौंस दे रहे हैं! माँ यदि कानून की राह चली होती, तो आप न जाने कब के जेल में होते। घरेलू हिंसा भी अपराध है पापा, वकील होकर भी आपको यह नहीं पता है ।" बेटा बिना पूर्णाहुति दिए कैसे चुप रहता।
"चुप करो बच्चों, कानून का डर दिखाकर रिश्तों की डोर मजबूत नहीं हुआ करती है, हाँ टूट जरूर जाती है।"  कहकर उनकी माँ जोर-जोर से रोने लगी। मार खाकर भी वह इतना नहीं रोई थी।
पत्नी और जवान बच्चों के मुख से निकले एक-एक शब्द हवा में नहीं बल्कि पिता के गाल पर पड़ रहे थे। थप्पड़ पड़े बिना ही अचानक पिता को अपने दोनों गालों पर जलन महसूस हुईअपने गालों को सहलाते हुए वह वही रखी कुर्सी में धँस गए।


2-खुलती गिरहें
पत्नी और माँ के बीच होते झगड़े से आज़िज आकर बेटा माँ को ही नसीहतें देने लगा। सुनी-सुनाई बातों के अनुसार माँ से बोला- "बहू को बेटी बना लो मम्मा, तब खुश रहोगी।"
"बहू! बेटी बन सकती है?" पूछ अपनी दुल्हन से।"  भौंहों को चढ़ाते हुए पूछा ।
"हाँ, क्यों नहीं?" आश्वस्त हो, बेटा ही बोल पड़ा।
"ठीक से एक बहू तो बन नहीं पा रही है, बेटी क्या खाक बन पाएगी वह।" गुस्से से माँ ने जवाब दिया।
"कहना क्या चाहती हैं आप माँजी, मैं अच्छी बहू नहीं हूँ ?" सुनते ही तमतमाई बहू कमरे से निकलकर बोली।
"बहू तो ठीक-ठाक है, पर तू बेटी नहीं बन सकती ।"
"माँ जी, मैं बेटी भी अच्छी ही हूँ। आप ही सास से माँ नहीं बन पा रही हैं।"  बहू ने अपनी बात कही।
"जब मेरे सास रूप से तुम्हारा यह हाल है, तो अगर मैं माँ बन गई, तो तुम तो मेरा जीना ही हराम कर दोगी।" सास ने नहले पर दहला मारा।
"कहना क्या चाह रही हैं आप?"  अब भौंहें तिरछी करने की बारी बहू की थी।
"अच्छा ! फिर तुम ही बताओ, मैंने तुम्हें कभी बेटी सुमी की तरह मारा, कभी डाँटा या कभी कहीं जाने से रोका !" सास ने सवाल किया।
"नहीं तो !" छोटा-सा ठंडा जवाब मिला ।
बेटा उन दोनों की बहस से आहत हो बालकनी में पहुँच गया था ।
"यहाँ तक कि मैंने तुम्हें कभी अकेले खाना बनाने के लिए भी नहीं कहा। न ही तुम्हें अच्छा-खराब बनाने पर टोका, जैसे सुमी को टोकती रहती हूँ ।" बहू को घूरती हुई सास बोली।
"नहीं माँ जीनमक ज्यादा होने पर भी आप खा लेती हैं सब्जी!"  आँखें नीची करके बहू बोली।
"फिर भी तुम मुझसे झगड़ती हो! मेरे सास रूप में तो तुम्हारा ये हाल है। यदि माँ बनकर कहीं मैं तुमसे सुमी जैसा व्यवहार करने लगूँगी, तो तुम तो मुझे शशिकला ही साबित कर दोगी !" कहकर सासू की बहू पर टिकी सवालिया निगाहें जवाब सुनने को उत्सुक थीं।
कमरे से आती आवाजों के आरोह-अवरोह पर बेटे के कान सजग थे। चहलकदमी करता हुआ वह सूरज की लालिमा को निहार रहा था ।
"बस कीजिए माँ ! मैं समझ गई। मैं एक अच्छी बहू ही बन के रहूँगी।" सास के जरा करीब आकर बहू बोली।
"अच्छा!"
बहू आगे बोली- "मैंने ही सासू माँ नाम से अपने दिमाग में कँटीली झाड़ियाँ उगा रखी थीं। सब सखियों के कड़वे अनुभवों ने उन झाड़ियों में खाद-पानी का काम किया और मेरे मन में ज़हर भरता गया।"
सास बोलीं- "उनकी बातों को तुमने सुना ही क्यों? यदि सुना तो गुना क्यों?"
बेटे ने बालकनी में पड़े गमले के पौधे में कली देखी तो उसे सूरज की किरणों की ओर सरका दिया।
"गलती हो गई माँ। अच्छा बताइए, आज क्या बनाऊँ मैं, आपकी पसंद का?" बहू ने मुस्कराकर पूछा।
"दाल-भरी पूरी ..! बहुत दिन हो गए खाए हुए।" कहते हुए सास की जीभ, मुँह से बाहर निकल ओंठों पर फैल गई ।
धूप देख कली मुस्कराई तो, बेटे की उम्मीद जाग गई। कमरे में आया तो दोनों के मध्य की वार्ता, अब मीठी नोंक-झोक में तब्दील हो चुकी थी ।
सास फिर थोड़ी आँखें तिरछी करके बोली- "बना लेगी..?"
"हाँ माँ, आप रसोई में खड़ी होकर सिखाएँगी न !!" बहू मुस्करा के चल दी रसोई की ओर।
बेटा मुस्कराता हुआ बोला, "माँ, मैं भी खाऊँगा पूरी।"
माँ रसोई से निकल हँसती हुई बोली, "हाँ बेटा, ज़रूर खाना ! आखिर मेरी बिटिया बना रही है न ।"
बालकनी के साथ सोंधी खुशबू से रसोई भी महक उठी।
सम्पर्कः w/o देवेन्द्र नाथ मिश्रा (पुलिस निरीक्षक ), फ़्लैट नंबर -३०२, हिल हॉउस, खंदारी, आगरा, पिनकोड-२८२००२,
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