उदंती.com को आपका सहयोग निरंतर मिल रहा है। कृपया उदंती की रचनाओँ पर अपनी टिप्पणी पोस्ट करके हमें प्रोत्साहित करें। आपकी मौलिक रचनाओं का स्वागत है। धन्यवाद।

Feb 19, 2017

उदंती.com फरवरी- 2017

उदंती.com  फरवरी- 2017

इतिहास इस बात का साक्षी है कि किसी भी व्यक्ति को केवल उसकी उपलब्धियों के लिए सम्मानित नहीं किया जाता। समाज तो उसी का सम्मान करता है, जिससे उसे कुछ प्राप्त होता है।
- कल्विन कूलिज

चुनाव का मौसम...

चुनाव का मौसम...
   - डॉ. रत्ना वर्मा
  इन दिनों देश भर की नजर पाँच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव पर है। सभी जैसे इस बात का इंतजार कर रहे हो कि देखें वहाँ के मतदाता किसे गद्दी पर बिठाते हैं। खासकर उत्तर प्रदेश और पंजाब के चुनाव, क्योंकि उत्तर प्रदेश और पंजाब में इस बार त्रिकोणीय संघर्ष है। ये चुनाव इस मायने में भी खास हैं; क्योंकि 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव की राजनीतिक तस्वीर इस चुनाव के परिणामों के आधार पर ही बनेगी। वादों और बड़े बड़े इरादों की इस चुनावी उठापटक के दौर में जनता अपना फैसला तो सुना ही देगी, फिलहाल इस चुनावी माहौल का जायजा लिया जाए-
चुनाव आयोग के नए नियम कायदों के अनुसार अब चुनावी माहौल शोर- शराबे वाला हंगामेदार नहीं सुकून-भरा होता है।  पर पहले ऐसा नहीं था।  एक दौर ऐसा भी था जब  सड़कों, गली मोहल्लों में चुनावी माहौल की एक अलग ही तस्वीर नजर आती थी। प्रत्याशियों के बड़े- बड़े कटऑउट और पोस्टरों से शहर और गाँव अटा पड़ा होता था। बड़ी- बड़ी जनसभाओं का आयोजन होता था। पार्टी के बेहतर वक्ता को तो भाषण देने के लिए बुलाया ही जाता था, भीड़ इकट्ठी करने के लिए फिल्मी हस्तियों को विशेष रूसे आमंत्रित किया जाता था। इतना ही नहीं दिन भर रिक्शा में लाउडस्पीकरों के जरिए पार्टी की खूबियों का बखान करते हुए मतदाताओं से अपने प्रत्याशी के लिए मतदान की अपील करते थे।
 राजनैतिक पार्टियाँ इन सबके जरिए अपनी शक्ति का प्रदर्शन करती थीं। बेरोजगारों को इस दौरान बढ़िया रोजगार मिल जाया करता था। कुल मिलाकर किसी उत्सव का माहौल हुआ करता था। पर अब इस उत्सव के आयोजन का तरीका बदल गया है - पिछले दिनों मतदाता दिवस पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी ने भी चुनाव को लोकतंत्र का सबसे बड़ा उत्सव कहते हुए ट्वीट करके, 18 साल पूरा करने वाले मतदाताओं से अपना पंजीकरण कराने के साथ मतदान की अपील भी की है। कहने का तात्पर्य यह कि अब चुनाव प्रचार भी हाईटेक हो गया है। प्रत्याशी अपने पक्ष में प्रचार के लिए इंटरनेट, टीवी और मोबाइल फोन का प्रयोग करने लगे हैं।
अब ये मतदान करने वाले मतदाता ही बताएँगे कि इस हाइटेक हो चुके चुनाव में वे जिन प्रत्याशियों का चुनाव करते हैं, वे उनसे किए गए वादों पर खरे उतरते भी हैं या नहीं। प्रश्न यह भी उठता है कि क्या हाइटेक होना ही पर्याप्त है? अपने बहुमूल्य वोट के बदले जनता की क्या अपेक्षाएँ हैं? सोचने वाली बात यही है कि जब सब कुछ हाइटेक हो रहा है ,तो देश की समस्याओं का निपटारा भी हाईटेक तरीके से हो। क्या नोटबंदी के बाद कैशलेस होने से ही देश की सभी समस्याओं का अंत हो जाएगा ?
चुनाव आयोग की बंदिशों के बाद से जिस प्रकार चुनाव प्रचार के तरीकों में बदलाव हुए हैं, उसी तरह आजकल चुनाव जीतने के लिए किए जाने वाले वादों में भी बदलाव आ गया है। प्रत्याशी अब विकास और देश की समस्याएँ सुलझाने की बात कम विरोधी पार्टी की खामियाँ गिनाकर, उनकी बुराई करके और उन पर कीचड़ उछालकर चुनाव प्रचार करते नजर आते हैं। गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी जैसी अनगिनत समस्याओं को सिर्फ भ्रमित करने के लिए भाषणों में बोला जाता है, पर जीतने के बाद इन समस्याओं को भुला दिया जाता है।
एक ओर प्रत्याशी अपने चुनावी हथकंडे बदल रहे हैं तो दूसरी ओर आज का मतदाता भी कम जागरूक नहीं है वह भी अब समझदार हो गया है। वह अपनी दैनिक जीवन से जुड़ी  रोटी कपड़ा और मकान के अलावा  स्वास्थ्य, शिक्षा, कानून-व्यवस्था आदि समस्याओं को प्राथमिकता देते हुए अपने मत का प्रयोग करता है। उसे अपने मत का मूल्य अब पता चल गया है। दूसरी तरफ सच्चाई यह भी है कि मतदाता का एक बहुत बड़ा हिस्सा वह है जो अपना मत तुरंत मिल रहे प्रलोभन से बदल देते हैं, जिसका फायदा राजनीतिक पार्टियाँ सबसे ज्यादा उठाती हैं। एन चुनाव के वक्त कहीं लेपटॉप कहीं सायकिल तो कहीं महिलाओं को गैस कनेक्शन और सिलाई मशीन बाँटकर एक वर्ग विशेष के मतदाता को अपने पक्ष में मतदान करने के लिए ललचाते हैं। यह वह वर्ग होता है जो तुरंत मिल रहे फायदे को तो देखता है, पर आगे उसका भविष्य कैसा होगा यह सोचने की बुद्धि उसमें नहीं होती। उनकी इसी बुद्धि का भरपूर फायदा प्रत्याशी उठाते हैं।  और उन्हीं के वोटों के बल पर जीत और हार निश्चित होते हैं।
 एक और मुद्दा है, जो चुनाव को सबसे ज्यादा प्रभावित करते हैं, वंशवाद धर्म और जाति के नाम पर राजनीति करना।  जिस लोकतांत्रिक देश का सर्वोच्च न्यायालय यह फैसला देता है कि चुनाव में धर्म, जाति, समुदाय और भाषा के नाम पर वोट मांगना गैरकानूनी है, उसी देश में इन्ही सब विषयों को केन्द्र में रखकर वोट बैंक तैयार किए जाते हैं। राजनीति को जितना ही परिवारवाद और जातिवाद से मुक्त करने की बात कही जाती है , ये उतना ही ज्यादा वह प्रभावशाली होते जा रहे  हैं। यह विडंबना ही है कि दुनिया के  सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में आज भी राजा- महाराजाओं की तरह राजनीतिक वंश को भी बचाकर रखने के लिए बेटा बेटी और पत्नी के लिए पहले से ही राजनैतिक आधार तैयार कर लिया जाता है।
 फिलहाल तो नोटबंदी इस चुनाव में सबसे बड़ा विषय है। इसके भार तले अन्य मुद्दे गौ हो गए हैं। भ्रष्टाचार, काला धन, रिश्वतखोरी, आतंकवाद जैसे बड़े मुद्दे कहीं हाशिए पर चले गए हैं। एक ओर नेता शब्दजाल में जनता को उलझाने में लगी है, उधर इनके झूठे वायदों से चोटिल मतदाता भी अपनी छापामार लड़ाई लड़ रहा है। परिणाम के दिन मतदान पेटियों से जो निर्णय निकलेगा इस चुनाव में उस पर सबकी कड़ी निगाह हैं।                                                                       

आक्सीजन पार्लर की शुरूआत

   आक्सीजन पार्लर की शुरूआत          - डॉ. अर्पिता अग्रवाल
जब आसमान पर पानी बरसाने वाले बादलों की छटा घिरती है तब धरती रंग-बिरंगी होती है। हरियाली छा जाती है और फूल खिलते हें। बीज अंकुरित होते हैं और पेड़ बनते हैं , जिनसे हमें अगले चक्र के लिए फिर से बीज मिलते हैं। पृथ्वी पर हर चीका  एक दूसरे से जुड़ी है और सभी चीज़ों का चक्र इस पृथ्वी पर चलता रहता है। बड़े वृक्ष अपनी जड़ों में आसमान के पानी को रोक कर पूरे वर्ष हरे- भरे रहते हैं। वृक्ष भूमिगत जल की मात्रा को भी स्थिर करते हैं। ये उपजाऊ मिट्टी को बह जाने से रोकते हैं। वृक्ष हमें भोजन देते हैं, छाया देते हैं और पर्यावरण को गर्म होने से बचाते हैं साथ ही वायु प्रदूषण व ध्वनि प्रदूषण को रोकते हैं। वृक्ष वर्षा लाने में सहायक होते हैं। वृक्षों द्वारा वाष्पीकरण के कारिए पानी आसमान में पहुँचता रहता हैं और बादलों से बारिश के रूप में पुन: पृथ्वी पर आ जाता है, इस तरह बादलों से बरसा पानी हरियाली लाता है और हरे वृक्ष पानी को बादलों में पहुँचाते हैं और पानी का चक्र चलता रहता है।
आज अतीत को याद करना प्रासंगिक इसलिए है; क्योंकि प्रदूषण की मार से मनुष्य का  अंग -प्रत्यंग कराह रहा हैं। प्रकृति जिन पाँच तत्त्वों की बनी है उन्हीं से मानव का  निर्माण हुआ है। प्रकृति इन पाँच तत्त्वों की  निरंतर आपूर्ति करती है। पृथ्वी की हरियाली, आकाश का नीलापन, हवा का जादुई स्पर्श, सूर्य की सतरंगी किरणों का एहसास व पानी की बूँदों की ठंडक सब कुछ मुफ्त में ही उपलब्ध है; लेकिन सुशिक्षित तथा सुसंस्कृत मानव ने अपने सुखोपभोग की आशा में प्रकृति की स्वास्थ्य प्रदायिनी शक्ति से अपने को वंचित कर रखा है। हवा, मिट्टी, पानी जहाँ दूषित हो गए हैं वहीं सूर्य का प्रकाश और खुला आकाश भी मिलना मुश्किल हो रहा है। बंद एयरकंडीशनर कमरे से बंद एयरकंडीशनर वाहनों और बंद एयरकंडीशनर फिस के बीच ज़िंगी भागती दौड़ती रहती है। रही सही कसर जंक फूड, फास्टफूड ने पूरी कर दी है। एयरकंडीशनरों से निकली गर्मी, घटती हरियाली, निरंतर बढ़ते वाहनों द्वारा निकले धुएँ तथा ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं के निर्माण- कार्यों ने हवा की गुणवत्ता इतनी खराब कर दी है कि छोटे -छोटे बच्चों के फेफड़ों की कार्यक्षमता में कमी आ रही है। प्लास्टिक के बढ़ते इस्तेमाल व इस्तेमाल के बाद उसे कूड़े में जलाने से हवा हरीली हो रही है। अब अतीत ही लौटेगा लेकिन एक नये रूमें। हमारे बुजुर्ग पेड़ों की छाँव में बैठकर हाथ के पंखों से हवा करते थे और नीम के घने वृक्ष थोड़ी-थोड़ी दूर पर पाए जाते थे। आज की भागदौड़ वाली जिंदगी से त्रस्त होकर मनुष्य शीघ्र ही गंगा व अन्य पावन नदियों के किनारे बने क्सीजन पार्लरों में पेड़ों के नीचे, प्रकृति के सान्निध्य में आराम से बैठकर हाथ के पंखों से हवा करेगा।
 हर महीने कुछ दिन तन, मन के स्वास्थ्य के लिए इन पार्लरों में उसी प्रकार जाएगा जिस प्रकार आज के लोग शारीरिक श्रम करने के बजाए जिम में पसीना बहाते हैं। थोड़ी दूर तक जाना हो तो बाइक या कार के बिना नहीं चलते जबकि पैदल चलना और साइकिल चलाना भी व्यायाम ही है। एक समय था जब एक घर में एक गाड़ी होना बड़ी बात होती थी आज जितने सदस्य होते हैं उतनी गाडिय़ाँ होती हैं। डील व पेट्रोल के वाहनों के निरन्तर बढ़ते इस्तेमाल और वाहनों की बढ़ती संख्या द्वारा हवा हरीली हो चुकी है। पानी की कमी व पानी की गुणवत्ता खराब हो जाने के कारण कई शहरों में लोग पीने का पानी खरीदते हैं। प्रतिदिन सुबह पानी के कैम्फ़रों की घरों में सप्लाई की जाती है। वह दिन दूर नहीं जब लोग पानी की तरह ही क्सीजन के सिलेंडर खरीदेंगे और घर से बाहर मास्क लगाकर निकलेंगे। 
आजकल एक नयी ची चल रही है, सडक़ों का चौड़ीकरण। कहाँ तक चौड़ी करेंगे सडक़ें, वाहन बढ़ते ही जा रहे हैं जनसंख्या बढ़ती ही जा रही है, नई बनी चौड़ी सडक़ पुन: कुछ सालों बाद जाम से जूझने लगती है। चौड़ीकरण की आवश्यकता हाइवे पर है लेकिन शहरों के अंदर जहाँ जरूरत नहीं है वहाँ भी करोड़ों रूपये खर्च कर चौड़े-चौड़े डिवाइडर बनाए जा रहे हैं और उन पर पौधों के छोटे-बड़े गमले रखे जा रहे हैं, यह सब सौंदर्यीकरण के लिए हो रहा है। इसका एक बदसूरत पहलू यह है कि सडक़ों के दोनों ओर के कई सौ वृक्ष काट दिए जाते हैं। लोग यह देखकर दु:खी तो होते हैं ; लेकिन काम से फुर्सत मिले, तभी तो इन अधिकारियों से पूछेंगें कि किन बुद्धिमानों ने ये योजनाएँ बना हैं।

इन योजनाओं का विरोध होना ही चाहिए या फिर इतना तो कहना ही चाहिए कि आप सौंदर्यीकरण करें, चौड़ीकरण करें ; लेकिन पेड़ नहीं कटेंगें। कम से कम शहर के भीतर तो नहीं। दिन प्रतिदिन पेड़ों की संख्या कम होती जा रही है। गर्मी व प्रदूषण बढ़ता जा रहा है, एयर कंडीशनरों की संख्या बढ़ती जा रही है, जिनसे निकली गर्मी वातावरण को और अधिक गर्म कर रही है। सुबह से रात तक एयर कंडीशनर में रहने से स्वास्थ्य का नुकसान द्रुतगति से हो रहा है। हम प्राकृतिक एयर कंडीशनर तो नष्ट कर रहे हैं और कृत्रिम एयर कंडीशनर लगवा रहे हैं। वृक्ष न सिर्फ़  प्राकृतिक एयर कंडीशनर है बल्कि ये तो पृथ्वी के फेफड़े हैं। जब ये नष्ट होंगे तो मनुष्य के फेफड़े कैसे ठीक रह सकते हैं। फिर तो क्सीजन पार्लरों में जाने की शुरूआत समझो होने ही वाली है। सारी तेज़ी भूलकर पेड़ों के नीचे खाट पर लेटने की तैयारी.......।
सम्पर्क: 120-बी/2, साकेत, मेरठ- 250003, यू.पी.

ज़िद्दी ख़बरों का आईना

ज़िद्दी ख़बरों का आईना
- अर्पण जैन 'अविचल
वो भी संघर्ष करती है, मंदिर-मस्जिद की लाइन-सी मशक्कत करती है, वो भी इतिहास के पन्नों में जगह बनाने के लिए जद्दोहद करती है, लड़ती- भिड़ती है, अपने सपनों को संजोती है, अपने अरमानों से जिद्द करती है, परेशान इंसान की आवा बनकर, न्याय के मंदिर की भाँति निष्पक्षता के लिए, निर्भीकता का अलार्म बनने की कोशिश में, पहचान की मोहताज नहीं, पर एक अदद जगह की उम्मीद दिल में लिए, पराक़र के त्याग के भाल से, चतुर्वेदी और विद्यार्थी के झोले से निकलने के साहस के साथ, भारतेन्दु के हरिश्चन्द्र से लेकर बारपुते की नई दुनिया तक, संघर्ष के प्रेमचन्द से निकलती हुई कठोर सत्य के रज्जु बाबू तक, आदम की नर में आकर, समाज के चौराहे से, संपादक की टेबल तक तरजीह पाने को बेताब होती है, तब तो जाकर कहीं मुकाम हासिल कर पाती है,क्योंकि वो 'जिद्दीहोती है, जी हाँ, खबर भी जिद्दी होती है।
खबर की दिशा क्या हो सकती है, जब इस प्रश्न के उत्तर को खोजने की चेष्टा से गहराई में उतरो तो पता चलता है कि, दफ़्तर के कूड़ेदान में न पहुँचना ही उसकी सबसे बड़ी ज़ि होती है। पत्रकारों की मेजों पर  दम न तोडऩा ही, सम्पादक की नर में अटक-सा जाना, खबरची की नज़ में आना ही उसकी ज़ि का पैमाना है। पाठक के मानस का अंग बन पाना ही उसकी जिद का प्रमाण है। किाद करने का जज़्बा और हुनर तो बहुत है खबर में, इसीलिए वह संघर्ष का स्वर्णिम युग लिख पाती हैं।
बहरहाल, खबर के आंकलन और ज़ि  के ही परिणाम हैं जिससे कई रसूखदार पर्दे से बाहर आ गए और कई घर में, बेबुनियाद रवैये से लड़ती हुई जब संघर्ष के मैदान में कोई खबर आती है तो सरे-आम कई आरोप भी लग जाते हैं।
व्यवस्था के गहरे असंतुलन और बाज़ारवाद से दिनरात संघर्ष करना ही खबर का नाम है। जिस तरह से हर जगह बाजार का गहरा प्रभाव हो रहा है, उसी तरह से कई बार संपादकीय संस्था की विवशता उस खबर के जीवन पर घाव कर देती है ।
तर्क के मजबूत आधार के बावजूद भी कई लाभ-हानि के जर्फ (पात्र) से गुजर भर जाना ही उसके अस्तित्व का सबसे बड़ा $फैसला होता है।
क़ीन वर्तमान दौर में पत्रकारिता का जो बदरंग चेहरा होता जा रहा है, उस कठिन काल में शाब्दिक उल्टियाँ हावी हैं। परिणाम की पराकाष्ठा से परे प्रवर्तन के अगणित अध्याय बुनती खबरें पाठक की सरमीं भी हिलाकर रखने का माद्दा रखती है। अवसान के सन्दर्भ से उपजकर जिस तरह से मशक्कत के आधार स्थापित करने का जो दर्द एक खबर को होता है, निश्चित ही वो दर्द अन्यत्र दुर्लभ है।
खबर, चाटुकरिता की भीड़ को चीरती हुई, तत्व के अवसाद को धता बताकर समर के सृजन का विकल्प अर्पण करती है, यही उसके परम होने का सौभाग्य है, इसीलिए खबर जिद्दी है।
गहन और गंभीर सूचकों का अनुगामी न बन पाना और जनहित में सृजक हो जाना खबर की पूर्णता का आकलन है। वर्तमान दौर में यदि खबर जि़द करना छोड़ दे तो मानो संसार में सत्य का देखना भी दूभर हो जाएगा। समाज में वर्तमान में जिस हीन भावना से मीडिया को देखा जा रहा है, उससे तो लगता है कि खबर के आज होने पर यह हाल हैं, जब खबर ही अवकाश पर हो जाएगी,तो फिर हालात क्या होंगे? सामान्य जनमानस का जीवन ही कठिन हो जाएगा ।
आम जनता का रखवाला केवल न्याय का मंदिर और संविधान ही है, उसी संविधान के अनुपालन में जो भूमिका एक खबर की है उसे नकारा नहीं जा सकता है। इसी कारण ही संवैधानिक संस्थाओं और शासन-प्रशासन को भय रहता है पोल खुल जाने का, तभी तो आम जनमानस के जीवन का अभिन्न अंग भी खबर है ।
जीवन के हर क्षेत्र में जिद्दी खबरों का समावेश होना, खाने में नमक जैसा है। उपस्थिति की आवश्यकता है अन्यथा बेस्वाद जिंदगी से जिंदादिली गौण हो जाती है।
पत्रकारिता के पहरेदार भी खबरों की ज़िद के कारण ही जीवन के केनवास पर अच्छे-बुरे चित्र उकेर पा रहे है, वर्ना समाज के बंधनों की बलिवेदी पर समाज का ही ख्याल भी रख पाना आसान नहीं है। जब भी समाज का ताप उच्च होता है तब उस ताप पर नियंत्रण भी खबर ही करती है । अपराध, विवाद, बुराई, कुरीतियाँ, आदि परिणाम पर अंकुश भी खबरों के माध्यम से ही लगता है। बस ये खबर तो जिद्दी है पर खबर के पुरोधाओं को भी खुद जिद्दी और सच के आईने को साथ लेकर पानी होना ही होगा।
पत्रकार एवं स्तंभकार, 09893877455

आए क्या ऋतुराज

      आए क्या ऋतुराज
                            - डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा

कैसी आहट -सी हुई, आए क्या ऋतुराज ?
मौसम तेरा आजकल, बदला लगे मिजाज।।1

अमराई बौरा गई , बहकी बहे बयार ।
सरसों फूली- सी फिरे, ज्यों नखरीली नार ।। 2

तितली अभिनन्दन करे,  मधुप  गा रहे गान।
सजी क्यारियाँ धारकर, फूल-कढ़े परिधान ।। 3

मोहक रंग अनंग के, धरा खेलती फाग ।
खिलते फूल पलाश के, ज्यों वन दहके आग ।। 4

टेसू , महुआ, फागुनी, बिखरे रंग हजार ।
धरा-वधू भी खिल उठी,  कर सोलह सिंगार ।। 5

फागुन ने मस्ती भरी, कण-कण में उन्माद ।
विरहिन का जियरा करे, अब किससे रियाद।। 6

देखी पीड़ा हीर की, रांझे का संताप ।
धीरे-धीरे बढ़ गया, दिन के मन का ताप ।। 7

आम, नीम सब मौन हैं, गुम सावन के गीत ।
खुशियों की पींगें नहीं, बिसर गया संगीत ।। 8

तीखे तेवर धूप के, उगल रहा रवि आग ।
चादर हरी सहेज ले, उठ मानव! अब जाग ।। 9

जब से अपने मूल का, छोड़ दिया है साथ ।
पर्णहीन तरु सूखता, रहा न कुछ भी हाथ ।। 10

धरती डगमग डोलती, कहती है कुछ बात ।
धानी चूनर छीन कर, मत करना आघात ।। 11

देखा दर्द किसान का, विवश धरा ग़मगीन ।
नहीं नयन में नीर है, नभ संवेदनहीन ।। 12

धुला-धुला आकाश है, सुरभित मंद समीर ।
सुभग, सुहानी शारदी, हरती मन की पीर ।। 13

झीनी चादर धुंध की, सिहरा सूरज भूप।
सिमटी,ठिठुरी झाँकती,यह सर्दी की धूप ।। 14

माटी महके बूँद से, मन महके मृदु बोल ।
खिडक़ी एक उजास की, खोल सके तो खोल ।। 15

मेरी ख़ुशियों में मिले, उनको ख़ुशी अपार।
ख़ुशियाँ उनकी माँगती, मैं भी सौ-सौ बार ।। 16

मन की माटी पर लिखा, जब से उनका नाम।
खुशियों की कलियाँ खिलीं, महकी सुबहो-शाम।। 17

फूलों -बसी सुगंध ज्यों,वीणा में झंकार।
दिल में धडक़न-सा रहे, सदा तुम्हारा प्यार ।। 18

तेरा  जब से है मिला, नेह-भरा सन्देश।
आँखों से छलकी खुशी, धर मोती का वेश ।। 19

पुरवा में पन्ने उड़े, पलटी याद -किताब ।
कितना मन महका गया, सूखा एक गुलाब ।। 20

दर्द,महफिलें याद कीं, खुशियों के  अरमान ।
मुट्ठी भर औक़ात है, पर कितना सामान ।। 21

सह जाएँगे साथिया, पत्थर बार हज़ार ।
बहुत कठिन सहना मगर, कटुक वचन के वार ।। 22

नयन दिखे नाराज-से, हुई नयन से बात
पिघल गया मन मेघ-सा, खूब हुई बरसात ।। 23

तीखे,कड़वे बोल का, गहरा था आघात ।
मरहम-सा सुख दे गई, तेरी मीठी बात ।। 24

सम्पर्कः एच-604 , प्रमुख हिल्स, छरवडा रोड, वापी-396191, ज़िला- वलसाड (गुजरात), 

तनाव और अवसाद

    मानसिक रोगियों और विकारों का गढ़ भारत
             तनाव और अवसाद 
                                     - सचिन कुमार जैन
 बहुत कुछ घटता रहता है। हम उसे सामान्य परिस्थिति मानते हैं। बातें और घटनाएँ मन-मस्तिष्क के किसी कोने में छिपकर बैठ जाती हैं। अक्सर उभरती हैं और मन को विचलित कर जाती हैं। फिर कहीं दुबक जाती हैं। व्यक्ति को लगता है कि कोई उसे रोकने या नुकसान पहुँचाने की कोशिश कर रहा है। व्यक्ति को लगता है कि 'वहमेरे बारे में बात कर रहा है! इसी आधार पर मानस बनाता है और व्यवहार करने लगता है। मन में बैठी बात तनाव में बदल जाती है। जीवन में फिर कोई घटना घटती है और व्यक्ति उस घटना से अपने मन में बैठी बात को जोड़ देता है; तनाव उन्माद या अवसाद में बदला जाता है।
मुझे लगता है कि मेरा साथी या परिजन मेरे मुताबिक व्यवहार नहीं कर रहा है। मैं अपने पैमाने बना लेता हूँ और उन पर मित्रों-परिजनों को तौलना शुरू कर देता हूँ। मेरे भीतर कुछ खलबलाने लगता है या तो मुझे गुस्सा आता है या फिर मैं मन में बातें दबाने लगता हूँ।
व्यक्ति सोचता है कि आने वाले कल में क्या होगा? व्यापार या उद्यम चलेगा या नहीं? मंदी तो नहीं आ जाएगी? आय कम हो गई तो मैं परिवार की रूरतें कैसे पूरी करूँगा या कर्ज़ की किश्तें कैसे चुकाऊँगा? ऐसे विचार हमेशा के लिए घर कर जाएं, तो?
गर्भावस्था के दौरान महिलाओं के शरीर ही नहीं बल्कि मन में भी बहुत बोझ होता है। उन पर सामाजिक मान्यताओं और रूढिय़ों को मानने का दबाव होता है; तो वहीं दूसरी तरफ सम्मानजनक व्यवहार, देखरेख और भोजन न मिलने के कारण भ्रूण के विकास पर भी गहरा असर पड़ता है। प्रसव शारीरिक रूप से बहुत पीड़ादायक होता है। बताते हैं, प्रसव के समय 20 हड्डियाँ टूटने के बराबर का दर्द होता है। जब ऐसे में संवेदनशील व्यवहार नहीं मिलता और उनकी पीड़ा को महसूस करने की कोशिश नहीं की जाती है, तो वे अवसाद में चली जाती हैं। मज़दूर को जब काम के बदले मज़दूरी नहीं मिलती है या जब किसान की फसल खराब हो जाती है, तब वह संरक्षण और उपेक्षा के कारण अवसाद में चला जाता है।
रिश्तों से लेकर, पढ़ाई-लिखाई, नौकरी, व्यापार, परीक्षा के परिणाम, सामाजिक-आर्थिक असुरक्षा, काम के दौरान अच्छा प्रदर्शन कर पाना, न कर पाना; हमारे रोज़मर्रा के जीवन की घटनाएँ हैं, जिन पर मन में बातें चलती रहती हैं। उन बातों को बाहर न निकाला जाए, तो पहले वे हमारे व्यवहार पर असर डालती हैं और फिर व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाती हैं। व्यक्ति में यह कुछ ज़्यादा ही गहरी अपेक्षा हो सकती है कि दूसरे लोग मेरे बारे में अच्छी-अच्छी बात करें, मेरा विशेष ख्याल रखें। ऐसा न होने पर व्यक्ति दूसरों की संवेदना हासिल करने के लिए स्वयं को निरीह और/या बहुत दुखी 'साबितकरने में जुटा रहता है। यह उसके व्यक्तित्व को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है।
जीवन में कुछ ऐसे अनुभव हो जाते हैं ,जो हमें भीतर से बहुत असुरक्षित और भयभीत बना देते हैं। मसलन कहीं मेरा वाहन दुर्घटनाग्रस्त तो नहीं हो जाएगा, ट्रेन तो नहीं छूट जाएगी या कहीं पैसे तो चोरी नहीं हो जाएँगे
मन में बसी बातें जब बाहर नहीं आती हैं या जब मन की गढ़ी हुई बातों पर संवाद नहीं होता है या सही परामर्श नहीं मिल पाता है, तो वे तनाव बनती हैं और अगला चरण अवसाद (यानी डिप्रेशन) का रूप ले लेता है।
राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान ब्यूरो (एनसीआरबी) द्वारा हाल में जारी आँकड़ों से पता चला कि एक साल में भारत में पैरालिसिस और मानसिक रोगों से प्रभावित 8409 लोगों ने आत्महत्या की।
अवसाद मानसिक रोगों का एक रूप है। मानसिक रोग कोई एक अकेला रोग नहीं है। ये ऐसी स्थितियाँ या रोग हैं, जिनका असर हमारे व्यवहार, व्यक्तित्व, सोचने और विचार करने की क्षमता, आत्मविकास, सम्बन्धों पर पड़ता है। मानसिक रोगों में मुख्य रूप से शामिल हैं - वृहद अवसादग्रस्तता  (मेजर डिप्रेसिव डिसऑर्डर), एकाग्रताविहीन सक्रियता का विकार (अटेंशन डेफिसिट हायपरएक्टिव डिसऑर्डर), व्यवहार सम्बन्धी विकार, ऑटिज़्म, नशीले पदार्थों पर निर्भरता, भय, उन्माद, बहुत चिंता होने का विकार (एंग्ज़ायटी), स्मृतिभ्रंश (डिमेंशिया), मिर्गी, शिज़ोफ्रोनिया, मानसिक कष्ट (डिस्थीमिया)। शोध पत्रिका दी लैंसेट ने हाल ही में भारत और चीन में मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति और उपचार-प्रबंधन की व्यवस्था पर शोध पत्रों की शृंखला प्रकाशित की। इसके मुताबिक इन दोनों देशों में मानसिक बीमारियाँ अगले दस सालों में बहुत तेज़ी से बढ़ेंगी। वर्तमान में ही दुनिया के 32 प्रतिशत मनोरोगी इन दो देशों में हैं।
मानसिक अस्वस्थता के कारण वर्ष 2013 में भारत में स्वस्थ जीवन के 3.1 करोड़ सालों का नुकसान हुआ। यानी यदि मानसिक स्वास्थ्य पर गंभीरता से पहल की जाती तो, भारत में लोगों को एक वर्ष में इतने साल खुशहाली के मिलते। अध्ययन बताते हैं कि वर्ष 2025 में मानसिक स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में 3.81 करोड़ साल का नुकसान होगा।
दु:खद बात यह है कि अध्यात्म में विश्वास रखने वाला समाज अवसाद, व्यवहार में हिंसा, तनाव, स्मरण शक्ति के ह्रास, व्यक्तित्व में चरम बदलाव, नशे की बढ़ती प्रवृत्ति के संकट को पहचान ही नहीं पा रहा है। हम तनाव और अवसाद या व्यवहार में बड़े बदलावों को जीवन का सामान्य अंग क्यों मान लेते हैं ,जबकि ये खतरे के बड़े चिह्न हैं?
भारत में आर्थिक विकास ने हमें मानसिक रोगों का उपहार दिया है। वर्ष 1990 में भारत में 3 प्रतिशत लोगों को किसी तरह के मानसिक, स्नायु रोग होते थे और लोग गंभीर नशे की लत से प्रभावित थे। यह प्रतिशत वर्ष 2013 में बढ़कर दुगना हो गया। राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के मुताबिक भारत में लगभग 7 करोड़ लोग मानसिक रोगों से ग्रस्त हैं। यहाँ 3000 मनोचिकित्सक हैं, जबकि रूरत लगभग 12 हज़ार की और है। यहाँ केवल 500 नैदानिक मनोवैज्ञानिक हैं, जबकि 17,259 की रूरत है। 23,000 मनोचिकित्सा सामाजिक कार्यकर्ताओं की का़रूरत है, जबकि 4000 ही उपलब्ध हैं।
मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को सामान्य जन स्वास्थ्य सेवाओं से जोड़कर देखने की रूरत है। विशेष मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की रूरत विशेष और गंभीर स्थितियों में ही होती है। अनुभव बताते हैं कि मानसिक स्वास्थ्य की नीति बनाने में अक्सर गंभीर विकारों (जैसे शिज़ोफ़्रोनिया) को प्राथमिकता दी जाती है और आम मानसिक बीमारियों (जैसे अवसाद और उन्माद) को नज़अंदा किया जाता है, जबकि ये सामान्य मानसिक रोग ही समाज को ज़्यादा प्रभावित करते हैं। अवसाद और उन्माद के गहरे सामाजिक-आर्थिक प्रभाव पड़ते हैं। अत: रूरी है कि बड़े-बड़े चमकदार निजी अस्पतालों के स्थान पर समुदाय केंद्रित मानसिक स्वास्थ्य व्यवस्था बने।
हमारे यहाँ मानसिक रोगों के शिकार दस में से 1 व्यक्ति ही उपचार की तलाश करता है। शेष को सही मानसिक स्वास्थ्य सेवाएँ न मिलने के कारण उनकी समस्या गहराती जाती है। भारत में इस तरह की समस्याओं के प्रति अपमानजनक नकारात्मक भाव रहा है। जैसे ही यह पता चलता है कि व्यक्ति किसी मनोचिकित्सक या स्नायु रोग चिकित्सक के पास गया है, तो उसे भेदभावजनक व्यवहार का सामना करना पड़ेगा। हमारे यहाँ तत्काल ऐसे व्यक्ति को पागल घोषित कर दिया जाता है जिसे या तो पागलखाने भेज दिया जाना चाहिए या फिर रस्सियों से बाँधकर रखा जाना चाहिए। यह न भी हो तो सामान्य पारिवारिक और सामाजिक जीवन से उसे पूरी तरह से बहिष्कृत कर दिया जाता है। इनमें भी महिलाओं की स्थिति लगभग नारकीय बना कर रख दी गई है।
भारत में जो भी व्यक्ति मानसिक रोग के लिए परामर्श लेना चाहता है, उसे कम से कम दस किलोमीटर की यात्रा करना होती है। 90 फीसदी को तो इलाका ही नसीब नहीं होता। मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण से पता चला है कि गंभीर और तीव्र मानसिक विकारों से प्रभावित 99 प्रतिशत भारतीय देखभाल और उपचार को रूरी ही नहीं मानते।
भारत में 3.1 लाख की जनसंख्या पर एक मनोचिकित्सक है। इनमें से भी 80 प्रतिशत महानगरों और बड़े शहरों में केन्द्रित हैं। अर्थात् ग्रामीण लोगों के लिए दस लाख पर एक मनोचिकित्सक ही है। हमारे स्वास्थ्य के कुल बजट में से डेढ़ प्रतिशत से भी कम हिस्सा मानसिक स्वास्थ्य के लिए खर्च होता है। ज़रा अंदाज़ लगाइए कि 650 से ज़्यादा ज़िलों वाले देश में अब तक कुल जमा 443 मानसिक रोग अस्पताल हैं। उत्तर-पूर्वी राज्यों में, जिनकी जनसंख्या लगभग 6 करोड़ है, एक भी मानसिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं है।
लैंसेट के अध्ययन से पता चलता है कि भारत में लगभग 70 प्रतिशत मानसिक चिकित्सकीय परामर्श और 60 प्रतिशत उपचार निजी क्षेत्र में होता है। तथ्य यह है कि डिमेंशिया से प्रभावित व्यक्ति की देखभाल की लागत उसके परिवार को 61,967 रुपये पड़ती है। क्या ऐसे में लोग निजी सेवा वहन कर सकते हैं? वैसे भारत में इस विषय पर बहुत विश्वसनीय अध्ययन और जानकारियाँ भी उपलब्ध नहीं है, जिनसे इसकी गंभीरता सामने नहीं आ पाती है।
वर्ष 1982 में भारत में ज़िला मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम शुरू किया गया था। 23 सालों यानी वर्ष 2015-16 तक यह कार्यक्रम महज़ 241 जि़लों तक ही पहुँच पाया। इसकी गुणवत्ता और प्रभावों की बात करना बेमानी है। भारत में मनोचिकित्सकों की 77 प्रतिशत, नैदानिक मनोवैज्ञानिकों की 97 प्रतिशत और मानसिक स्वास्थ्य सामाजिक कार्यकर्ताओं की 90 प्रतिशत कमी है।
एक बड़ी समस्या यह है कि मानसिक स्वास्थ्य की व्यवस्था में दवाइयों से उपचार पर ज़्यादा ध्यान दिया जा रहा है, जबकि वास्तव में परामर्श, समझ विकास, समाज में पुनर्वास, मानसिक स्वास्थ्य शिक्षा पर सबसे ज़्यादा पहल की रूरत है। भारत में वर्ष 1997 से सर्वोच्च न्यायालय के दखल के बाद से इस विषय पर थोड़ी बहुत चर्चा होना कारूर शुरू हुई, किन्तु समाज आधारित मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम एक हकीकत नहीं बन पाया है। देश में वर्ष 2014 में मानसिक स्वास्थ्य नीति बनी और इसके साथ ही मानसिक स्वास्थ्य देखभाल विधेयक, 2013 संसद में आया। यह विधेयक भी मानसिक रोगियों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार और हिंसा को लेकर बहुत स्पष्ट व्यवस्था नहीं देता। उनका पुनर्वास भी एक चुनौती है।
चूँकि भारत में स्वास्थ्य शिक्षा पर सरकारें बहुत ध्यान नहीं देती हैं, इसलिए मानसिक स्वास्थ्य शिक्षा का काम नहीं हुआ। इसी कारण यह माना जाने लगा है कि मानसिक रोग से प्रभावित हर व्यक्ति को अस्पताल में भर्ती कराने की रूरत होती है, जबकि यह सही नहीं है। अध्ययन बताते हैं कि 2000 रोगियों में से एक को ही अस्पताल सेवाओं की रूरत पड़ सकती है। 
वास्तव में मानसिक रोगों और अस्वस्थता के प्रति समाज और सरकार का नरिया क्या है, इसका अंदाज़ा हमें कुछ तथ्यों से लग जाता है। मानसिक रोगों को विकलांगता की श्रेणी में रखा जाता है। ऊपर से मान्यता यह है कि विकलांग लोग परिवार-समाज पर 'बोझहोते हैं। बात मानसिक बीमारी की हो तो संकट और बढ़ जाता है। मानसिक रोगियों के बारे में मान लिया जाता है कि अब य बोझ हैं।
सच तो यह है कि समस्या को छिपाने के कारण यह संकट बढ़ रहा है। मसलन जनगणना 2011 के मुताबिक भारत में मानसिक रोगियों की संख्या 22 लाख बताई गई, जबकि सभी जानते हैं कि यह आँकड़ा सच नहीं बोल रहा है। जनगणना में परिवार से पूछा जाता है कि क्या उनके यहाँ कोई मानसिक रूप से विक्षिप्त व्यक्ति या मानसिक रोगी है। स्वाभाविक है कि कोई यह स्वीकार नहीं करना चाहता, इसलिए सच सामने नहीं आ पाता।
सच हमें पता चलता है लैंसेट के अध्ययन से कि भारत में वर्ष 1990 में विभिन्न मानसिक रोगों से प्रभावित और गंभीर नशे से प्रभावित लोगों की संख्या 10.88 करोड़ थी जो वर्ष 2013 में बढ़ कर 16.92 करोड़ हो गई। अब कारा इस आंकड़े के भीतर झाँकते हैं। इस अवधि में भारत में डिमेंशिया प्रभावित लोगों की संख्या में 92 प्रतिशत और डिसथीमिया से प्रभावित लोगों की संख्या में 67 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। गंभीर अवसाद से प्रभावित भी 59 प्रतिशत बढ़े हैं। भारत में आज की स्थिति में लगभग 4.9 करोड़ लोग गंभीर किस्म के अवसाद के शिकार हैं। इसी तरह लगभग 3.7 करोड़ लोग उन्माद (एंग्ज़ायटी) की गिरफ्त में हैं। ये आँकड़े बताते हैं कि माहौल और व्यवहार का हमारे व्यक्तित्व पर कितना गहरा असर पड़ रहा है और हम परामर्श और संवाद सरीखी बुनियादी व्यवस्थाएँ नहीं बना पा रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)