- सीमा सिंह
शूटिंग की तैयारी थी। सेट लग चुका था। बस
निर्देशक महोदय के आने की प्रतीक्षा थी। उनके आते ही सब सचेत हो उठे।
'सब रेडी है?’ आते
ही अपने असिस्टेंट से पूछा।
'जी सर!’ उसने
मुस्तैदी से उत्तर दिया।
'एक बार सीन ब्रीफ करो।’
'जी, सीन
है, माँ-बाप का लाड़ला बेटा रूठ गया है, तो
माता पिता तरह-तरह की खाने पीने की चीको लाकर उसको मना रहे हैं और बच्चा गुस्से
में फेंक रहा है।’
'और वो बाल कलाकार? उसका
क्या हुआ? अस्पताल से छुट्टी मिल गई?’
'नहीं सर, पर
दूसरे बच्चे का इंतजाम कर लिया है ! यहीं पास की बस्ती से अरेंज किया है। सिर्फ दो
सीन हैं बच्चे के, दो सौ रुपये रोज़ पर बुलाया
है।’
'काम कर सकेगा?’
'जी सर, मैंने
सब समझ दिया है।’
'ओके, चलो
फिर, लाइट, कैमरा
एक्शन!’
'कट, कट, कट!’
'हाथ से रखना नहीं है, उठाकर
फेंकना हैं,’ असिस्टेंट ने झुँझलाहट काबू करते
हुए कहा, 'पहले केक और पेस्ट्री हाथ मारकर
दूर गिराओ, फिर दूध का गिलास गिरा दो। ठीक?’
'चलो, फिर
से,’ डायरेक्टर ने खीजकर कहा- 'एक्शन!’
'ओहो! कट! कट! कट! अबे, तुझको
समझाया था ना? फेंक दे, नीचे
गिरा दे! ये इतना सँभालकर क्यों रख रहा है?’
बच्चे ने सुबकते हुए कहा, 'न
अंकल ने कहा था शूटिंग के बाद खाने का सारा सामान मैं घर ले जा सकता हूँ।’
निशा इस घर की नौकरानी नहीं थी, मगर
उससे ज्यादा भी कुछ ना थी। कहने को तो उसके चाचा-चाची का ही घर था, परन्तु
माँ-पापा के जाने के बाद निशा कभी परिवार के सदस्य का सा सम्मान ना पा सकी।
'निशा...!’ चाची
ने पुकारा, 'कहाँ थी? चल
तैयार हो जा कुछ माँग ले मुदिता से अच्छा सा पहनने को, लडक़े
वाले आते ही होंगे।’ फिर मुदिता से उन्मुख होकर कहा, 'बेटा
तू तैयार है? जल्दी कर ले.. और हाँ इसको भी कुछ
दे दे ठीक-ठाक सा पहनने को।’
'इसको क्या देना, ये
तो हमेशा से उतरन में ही जँचती है... पहन ले ना मेरी कोई भी साड़ी। देख सामने पड़ी
हैं।’ फोन में घुसी अपने मंगेतर से चैट
करती मुदिता ने निशा को व्यंग्यात्मक दृष्टि से देखा।
निशा भीतर तक बिंध गई।
कमरे से निकलते हुए मुदिता अपनी जूठी प्लेट
उसके हाथ में थमा गई, 'ले खा ले।
मैं चली जाऊँगी , तो मेरी जूठन नहीं मिलेगी’
पत्थर बनी निशा जाती हुई मुदिता और जूठी थाली
को देखती रही। अचानक उसके चेहरे पर कुटिल मुस्कान बिखर गई। विद्रुप हँसी के साथ
निशा बुदबुदाई, 'तू क्या जाने मुदिता, तुझको
तो मेरी उतरन के साथ जीवन बिताना है’
निशा के मन की सारी कड़वाहट शांत हो चुकी थी।
3. तीर्थ-यात्रा
'कितनी बार पूछोगे, जी?’ पत्नी
ने भी मुस्कुरा कर प्रश्न के उत्तर प्रश्न किया।
'बस आ गई है न, मोड़
पर दिख रही है। सब होंगे तो देर लगाना अच्छा नहीं लगेगा।’
मोहित बहुत खुश था। दफ्तर से एक मिनी बस जा रही
थी गौरीकुंड। वहाँ से सिर्फ दो घंटे लगते हैं केदारनाथ तक के। सरकारी खर्च पर जाना
आना, और परिवार को भी साथ ले जाने की
अनुमति। अनुमति क्या, सब परिवार के साथ ही जा रहे थे; इसीलिए
उस पर भी ज़ोर डाल रहे थे। थोड़ी सी खुशामद से पत्नी मान गई, और
बच्चे, वो बेचारे तो कहीं जा ही नहीं
पातें हैं। तो उनकी खुशी का पारावार न था।
बस माँ नहीं जा रही थीं, इसका
दुख था। माँ भी जाती तो अच्छा रहता, पर
उनके घुटनों की तकलीफ और डॉक्टर की हिदायत दोनों ने अनुमति न दी। वो तो परिवार के
जाने से ही खुश थी। उन्होंने भगवान पर चढ़ाने के लिए वस्त्र, मेवा-माला, और
भी ना जाने क्या-क्या बाँध कर दे दिया था, उनकी
ओर से भगवान को अर्पित करने के लिए।
वहाँ की सर्दी की सोच, सामान
थोड़ा अधिक हो ही गया था। एक झोला भर तो खाने-पीने का सामान ही बाँध लिया था पत्नी
ने, ये कह कर कि सब साथ होंगे तो सिर्फ अपना अपना
तो नहीं खा सकते ना।
बच्चों ने भी कॉमिक्स और वीडियो-गेम रख लिये थे, इस
दलील के साथ जब रास्ते में बड़े अपनी बातों में लग जाएँगे, तो
वे क्या करेंगे।
बच्चों की बात सुन मोहित ने भी ताश की गड्डी
जेब में डाल ली थी।
सब बस में चढऩे को हुए, कि
एक मित्र ने मोहित से कहा, 'वहाँ ठण्ड
बहुत होती है, बंधु, अपना
भी कुछ इंतजाम किया है? ये खाली स्वेटर-कोट काम नहीं आते
हैं।।।’
मोहित तुरंत उतरकर सर्दी का इंतजाम भी निकाल
लाया था। बस चलते ही पत्नी से कहा, 'सामान
चैक कर लो कुछ छूटा तो नहीं हैं।’
पत्नी ने एक नज़र घुमाते हुए देखा, कपड़ों का
बैग, खाने का बैग, पीने
का पानी, बच्चों के रैकेट और स्नैक्स, सब
थे।
केवल माँ का भगवान को चढ़ाने वाले सामान का
झोला नहीं था और उसका छूटना किसी को याद भी नहीं था।
सुबह से घर की सफाई और किचन में जुटी नीना चौंक
गई, 'बाप रे ! अतुल के आने सिर्फ दो घंटे बचे हैं और
मैं भूत जैसी घूम रही हूँ! माँ, आप ज़रा गैस
बंद कर देना, प्लीज, मैं
नहाने जा रही हूँ!’
अतुल की पसंद की पीली साड़ी में तैयार होकर आई
तो माँ अर्थ पूर्ण ढंग से मुस्कुरा रही थी। 'वाह, जी!
खाने से लेकर सजावट तक सब अतुल का मनपसंद, अब
तो साड़ी भी,’ माँ ने कहा तो नीना शरमा गई।
'क्या बात हुई थी वैसे तेरी?’ माँ
ने उत्सुकता से पूछा।
'आवा्ज़
कट रही थी, माँ, अतुल
की। वो अमेरिका से पिछले ही सप्ताह लौटा है। मुझसे मिलने तो सीधे यहीं आना चाहता, था
मगर माता-पिता सबसे पहले हैं। तो अब आ रहा है। उसकी माँ को अब शादी की बहुत जल्दी
है!’
शादी के नाम पर नीना की रंगत और गुलाबी हो गई।
माँ ने दुलार से नीना के सिर पर हाथ फिराते हुए कहा, 'बेटा
तूने बहुत तपस्या की। पाँच साल बहुत होते हैं।’
'दीदी आपके लिए तो गिफ्ट-शिफ्ट भी आ रहें होगे
ना?’ छोटे भाई ने बहन को छेड़ते हुए कहा।
'वो खुद आ गया वापस, इस
से बड़ा क्या तोहफा होगा?’ माँ ने कहा।
तभी बाहर घंटी बजी नीना ने दौड़ कर दरवाज़ा
खोला। हाँ अतुल ही था, हाथ में बड़ा सा पैकिट पकड़े।
'अरे! रुक क्यों गए? अंदर
आओ ना!’
'नहीं, बहुत
जल्दी में हूँ! ये सारे बाँटने हैं, फिर
कभी जरूर आऊँगा। अभी ये पकड़ो; सबको आना है, बहाना
नहीं चलेगा!’
नीना को कार्ड थमाकर चला। वापस मुडक़र आँख दबाते
हुए कहा, 'गज़ब लग रही हो! अब तो तुम भी शादी
कर ही डालो’
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