एक कली आँगन में चिटकी
- रंजना त्रिखा
एक कली आँगन में चिटकी -
मन- उपवन
को महकाया।
मेरी- बगिया में फिर सावन -
उमड़- घुमड़ कर घिर आया।।
उसकी- चितवन में नव- जीवन
की हैरानी झाँक रही।
सब कुछ से परिचय पाने की -
उत्कंठा- भी- नाच रही।।
कभी नयन का द्वार खोल -
चहुँ ओर ताकती पड़ी -पड़ी।
कभी मूँद नयनों को अपने -
पिरो रही सपनों की लड़ी।।
कभी विहँसती अँखियाँ
मूँदे -
जाने किन यादों
में घिरी।
कभी बिसूरे मुख में दिखती -
जाने क्या फटकार
पड़ी।।
चकित ताकती चित्र लिखित सी -
क्या ईश्वर- की- माया है !
आज की बिटिया ने हर कल में -
यह- संसार- रचाया है !!
नहीं अगर कोई बेटी जन्मी -
क्या होगा संसार कहो ??
कोख कहाँ से पाओगे -
ऐ जग के पालनहार कहो ???
बिना शक्ति के शिव - शव है -
बिन- नारी के नर नहीं बना!
यूँ- ही गाल बजाता फिरता -
फोड़- न- पाये भाड़ चना!!
एक-
गाड़ी के दो- पहिये,
एक-
सिक्के के दो- फलक बने !
एक-
दूजे के बिना नहीं कुछ ,
क्यों- अहंकार- से रहो तने !!
आने दो- जग में बेटी को -
माता- ये कहलायेगी !
सृष्टि- इसी से चलेगी -
वरना मनुज जाति मिट जायेगी !!
सम्पर्क: 25, स्टेट बैंक कॉलोनी, टौंक
फाटक, जयपुर- 302015
E-mail- ranjanatrikha@gmail.com
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