शौर्य
और
संस्कृति
का
लोक संगम
छत्तीसगढ़ का रावत नाच अपनी बहुरंगी
नृत्य छटा एवं नयनाभिराम छवि की वजह से छत्तीसगढ़ में नहीं अपितु देश भर में अपनी
अलग पहचान बनाई है। यह महज पर्व ही नहीं अपितु जीवन की प्रमाणिक अभिव्यक्ति है जो
वर्ष भर सपुत्र के रुप में बंधी रहती है और वर्षांत में अपने सामूहिक उल्लास का
प्रकटीकरण गली-गली, घर-घर और बाजार के चौपालों में देख पाते हैं।
आज की उपभोक्तावादी संस्कृति में
जहाँ टीवी प्रिंट मीडिया व सायबर युग में सिमटकर लोक संस्कृति अपनी अस्मिता व
अस्तित्व के लिए संघर्षरत है वहीं अनेक लोक परम्पराएं अपने जीवंतरूप में आज भी
विद्यमान हैं। वहीं लोकनृत्य में पंडवानी, गम्मत व राउत नाचा जीवन में नया प्राण फूंक
रहा जिनमें रावत नाच, शौर्य और संस्कृति को अपने में समेट कलात्मकता का परिचय दे
रहा है।
सिर में धोती का पागा उसमें लगा मोर
पंख की कलगी मुंह में पीली मिट्टी, आंखों में काजल, गाल में
डिठौनी माथे पर चंदन का टीका और कपड़े के रंगीन जूते मोजे बंधी गोटिस और घुंघरु
घुटने के ऊपर तक कसा हुआ चोलना व उस पर फुंदरी कमीज की जगह पूरे आस्तीन का रंगीन
सलमा सितार युक्त आस्किट जिसके ऊपर कौडिय़ों से बनी पेटी एवं बाहों में कौडिय़ां बांधे, तेंदू की
लाठी एक हाथ में दूसरे हाथ में सुरक्षा रूपी लोहे या तांबे की फरी जब रावत चलता है
तो ऐसा लगता है मानो युद्ध के लिए श्रीकृष्ण की सेना रथ पर चल पड़ी हो। उनके थिरकते
पांव से सारा जहाँ रूक जाता है। वे नृत्य में अपनी लाठी द्वारा शौर्य प्रदर्शन
करते हैं और अपने आंगन में देवउठनी एकादशी के दिन से दस्तक देते है।
राउत नाचा की उत्पत्ति का कोई
निश्चित प्रमाण उपलब्ध है लेकिन पौराणिक गाथाओं के आधार पर जो धारणा प्रचलित है उसके
अनुसार कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन श्री कृष्ण ने कंस के अत्याचार से पीडि़त जनता
को मुक्ति दिलाई तब से यदुवंशियों ने मुक्ति का पर्व मनाते हुए उत्सव का आयोजन
किया। सम्भवत: तभी से रावत नाच का शुरुआत हुआ।
श्रीमदभागवत कथा के अनुसार श्रीकृष्ण
ने यमुना के तट पर बालुका लिंग की स्थापना के अवसर पर यदुवंशियों ने 7 दिन तक
नृत्य किया, रावत
नाच उद्भव के मूल में पुराण सम्मत यह घटना ही सर्वमान्य हैं रावत नाच अपने
प्रारंभिक रूप से अब तक जीवित है परंतु
आधुनिक सभ्यता के प्रभाव से अछूता नहीं है। गाँव में जब गोवर्धन पूजा मनाते है उसी
दिन रावत नाचा पर्व की शुरुआत होती है। इस अवसर पर सभी ग्रामवासी गोवर्धन पर्वत
गाय बछड़े एवं रावत रौताइन की मूर्ति पवित्र गोबर से बनाकर उसमें सिलयारी घास
गेंदाफूल व धान से सजाते संवारते हैं और पूजा अर्चना करते है जिस बात का प्रतीक
श्रीकृष्ण ने नेतृत्व में अन्यायी शासक घमण्डी इन्द्र का विद्रोह कर पहाड़ मैदान व
चारागाह की पूजा की अपनी इसी पशुधन पर्वत व चारागाह के लिए यादव ने इन्द्र व क्रूर
शासक कंस से युद्ध किया। यह युद्ध किन्हीं दो शासकों के मध्य न होकर अन्यायी शासक
के खिलाफ (विरुद्ध) सामाजिक युद्ध था जो कि शोषण व अत्याचार के विरुद्ध था।
यादव ही संघर्ष गाथा अनुत्पादक तथ्य
और सामाजिक श्रम की उपयोगिता से जुड़ी है। यह संघर्ष किसी एक विशेष जाति का नहीं
अपितु सभी वर्गों की मुक्ति के लिए था।
आज यह नाच छत्तीसगढ़ की संस्कृति का
अभिन्न अंग है। जब भी कभी रावत नाच हमारे गली मुहल्ले से गुजरता है तब उनकी
पारम्परिक वेशभूषा जो कि सिर से पैर तक आकर्षित नैनाभिराम वस्त्र धारण किये गुरदुम
बाजा के थाप पर उनके पैर थिरकते व एक लय
में ऊपर उठते हैं। जिनके हाथों में ढाल सुरक्षा रूपी फरी तथा दूसरे हाथ में
तेंदूसार की लाठी 40 या 80 के समूह में लोग रहते हैं के समूह में लोग रहते है तथा
एक या दो नर्तक भी हाते है। बाजों की आवाज से संयुक्त रूप से जोश एवं आवेश साहस व
उत्सव न केवल रावत के मन में अपितु दखने वाले के मन में उत्सव का संचार होता है।
रावत नाच के समय बोलने वाले दोहे
हास्य व्यंग्य एवं विभिन्न रसों के अलावा सूर, तुलसी, कबीर के ज्ञानमार्ग शामिल हैं।
रावत नाचा के दोहे में नीति धर्म एवं
ज्ञान से संबंधी दोहे शामिल हैं इसके अलावा इनके पारम्परिक एवं मौलिक दोहों की भी
संख्या फिर भी कम नहीं है। इनके दोहों हास्य, व्यंग्य, करुण, रौद्र शांत तथा देवी देवताओं से संबंधित एवं
देश प्रेम तथा जन सामान्य के प्रति विशेष नीति एवं ज्ञान से परिपूर्ण होता है।
जिसके माध्यम से जनता को अपनी ओर आकर्षित करने तथा जोर से तेन्दुसार की लाठी ऊपर
किये हुए दोहे को उच्चारित करके बोलते है।
इस प्रकार रावत नाच में इन विभिन्नप्रकार
के दोहे का समन्वय कर नाच को रोचकता एवं चमत्कृत प्रदान करने के लिए रावत लोग ने विभिन्नप्रकार के दोहे का सृजन किया है
जिससे दर्शक के मन को उत्साह वर्धन कर रस मग्न कर दे साथ ही उसमें व्यंग्य के
छींटे भी होते है जिसके माध्यम से बच्चों के मन में खुशी का संचार होता है और वे
रावत नाच में अपनी भागीदारी का निर्वहन करते है।
दोहे के द्वारा व्यक्ति के एक नए
ज्ञान का आभास होता है एवं मन में तर्क वितर्क भी पनपते है वास्तव में यदि गहराई
से देखा जाए तो रावत नाच में दोहे के
माध्यम से नाच में सेाने पर सुहागा का कामकरती है जो जन सामान्य को अपनी ओर सहज ही
ढंग से खिंचता चला जाता है इसकी प्रासंगिकता का वर्णन करना साहित्यकारों के बस की
बात नहीं है।
गांव में अन्य जातियों की तरह रावत
जाति संस्कृति की अपनी अलग विशेषता है, वेदों में उल्लेख होने के कारण इन्हें वैदिक
जाति कहते है ये कला प्रेमी, लोकसंस्कृति के माध्यम से पौराणिक संस्कृति
को जीवित रखे हुए है।
अहीरों के गौरवशाली परम्परा रीरिवाज
के सुनहरे पन्ने के इतिहास में गो-पालन प्रमुख रहा, इनके अराध्य देव श्रीकृष्ण थे। यदुवंशी अपनी
गाय भैंसों को विभिन्न रोग व बाधाओं से सर्वथा मुक्त रखने के लिए दूल्हा देव, ठाकुर देव, सड़हा देव, गोसाई देव
व अपने पूर्वजों से जनित भूत प्रेत, बैताल, अखरादेव, छट कमानिय को प्रमुख श्रद्धासुमन अर्पित
करते हैं। अहीरों में पूजा का विशेष प्रचलन है, पुत्र की शादी या संतान उत्पत्ति पर बकरे या
मुर्गे की मान्य देवों की दुगुनी संख्या में बलि दी जाती है, घर की
किसी कोने में गड्ढा खोदा जाता है जिसे सगरी कहते हैं किसी विशेष दिवस पर समाज के
लोग एकत्रित होकर पूजा पाठ कर बलि देते हैं।
हरेली के दिन गाय भैंस को स्नान करा
पूजा करते है रावत लोग जिनकी गाय-भैंस चरानी होती है उनके द्वारा देशमुख की शाख या
नीम की पत्ती खोंच का प्रचलन है ये जन्माष्टमी को बड़े ही हर्षोल्लास से मनाते है।
श्रीकृष्ण की पूजा भक्ति भाव से विभोर होकर करते है। मटकी फोडऩा मंदिर जाना व दही
व हल्दी एक दूसरे पर खुशियों से मस्त होकर डालते हैं। दीपावली के पर्व के पश्चात
का कार्तिक एकादशी, कार्तिक पूर्णिमा, कार्तिक पुत्री, देवउठनी, जेठानी, छेरछेरा, यदुवंशियों
के संस्कृति के विशेष महत्व को प्रतिपादन करते हैं। देवारी शौर्य वीरता का प्रतीक
है। देवारी के समय अपने कुल देवता को घर के भीतर पूजते हैं। देव उन लोगों को
आशीर्वाद देने आते हैं तो उन पर काछन चढ़ता है सिर पर साज श्रृंगार की पगड़ी मोर
पंख धारण करते हैं। रावत संस्कृति सिर्फ चरवाही और देवारी पर नाचने कूदने की
संस्कृति मात्र नहीं है। राजनीति में राजा के बाद दूसरा राजा या सेना का सेनापति
को रावत कहा जाता है। इन्हें चरवाहा बताकर व मदूर बताकर उनकी संस्कृति की गरिमा को
आघात पहुंचाया जा रहा है।
रावत लोग अपनी ही बिरादरी में उत्सव
व त्यौहार में खान-पान का प्रचलन चलता है। जिससे सामाजिक व्यवहार बना रहे। कृष्ण
युगनी इतिहास में पशु बलि प्रथा का विधान मिलता है। इस प्रकार इनके खान-पान में
सामाजिक सद्भावना जुड़ी रहती है। रावत समाज में मुख्यत: निम्न रिवाज व संस्कार
है- जन्म से क्षीर कर्म, छट्ठी
मनाना, मुंडन, नामकरण, अन्नप्रासन, अक्षरज्ञान, स्कूल
भेजना, अस्त्र-शस्त्र
संचालन, नृत्य
कला, विवाह, गौना
कराना, धार्मिक
पर्व, आरती
पूजा, विवाह
भोज, मृत्यु
भोज इत्यादि प्रमुख रीति रिवाज व संस्कार है।
इस संस्कृति की गरिमा एवं स्वयं
भगवान कृष्ण है जिसने गाय चराई, कंसवध, शिशुपाल किया महाभारत के द्वारा पूंजीवादी
शासन का अंत और गीता के उपदेश द्वारा दिया। हर धर्म के बच्चे बड़ों में धार्मिक
दार्शनिक व समाजवादिता का परिचय दिया ताकि भारत जैसा कृषि प्रधान देश फिर से
समृद्ध हो सके।
ज्योति पर्व- सोहई बंधन
वैदिक दर्शन में तिथि त्यौहारों की
सुनिश्चित व्यवस्था हमारे पूर्वजों की दूरदर्शिता का प्रमाण है। गंगा की लहरों पर
प्रज्वलित दीपों का अर्पण झिलमिलाते मूलतत्व आत्मा का स्वरूप है। त्यौहार जहां एक
ओर धार्मिक संदर्भ सुनिश्चित करते हैं वहीं वैज्ञानिक परिशोध की व्याख्या भी
अभिनिष्ट करते हैं। दीपावली तम पर सत की विजय का पर्व है। तिमिशच्छादित अमावस्या
को दीप पर्व मनाने के पीछे भारतीय मनीषी का कितना गहन चिंतन रहा होगा। वह हालांकि
स्थायी नहीं रहता है फिर भी कलेशों को अनायास आमंत्रण लोग देने लगे हैं। गोवर्धन
पूजा लक्ष्मीपूजा के दूसरे दिन होता है। अहीर द्वारा सोहई बंधन की यह प्रक्रिया
काफी पुरानी है और ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है। द्वापर में श्रीकृष्ण के समय
से कौडिय़ों एवं मोर पंख का प्रयोग विभिन्न तरीकों से किया जाता था। गोप-गोपी गौ
सेवा हेतु सदैव तत्पर रहते थे यही परंपरा आज भी विद्यमान है। यह जाति अपने आराध्य
देवों की पूजा अर्चना करने के बाद अपने कृषकों के यहां सोहई बांधने निकल जाती है।
छत्तीसगढ़ में ही नहीं वरन पूरे देश
में यादवों की अपनी अलग संस्कृति है। उनके रहन-सहन, वेशभूषा, खान-पान एवं रीति-रिवाज भी भिन्न हैं। इस
अंचल के राउत समाज दीवाली का बेसब्री से प्रतिक्षा करते हैं। गोवर्धन पूजा एवं
जेठौनी (देवउठनी) इनका प्रमुख त्यौहार है जिसे मिलजुल कर पारंपरिक रुप से मनाते
हैं। सोहई पशुधन का रक्षा कवच है। उनके स्वास्थ्यवद्र्धन एवं निरोग रहने के
निमित्त बांधा जाता है। इस दल के साथ ग्रामीण वाद्य, गुदूम, मोहरी, दफड़ा, टिमकी, मंजीरा ढोल होता है। इनके मनमोहक नृत्य एवं
लयबद्ध दोहा इस रस्म का अनिवार्य अंग हैं। अहीर मोर पंख, एवं कौड़ी
के आभूषणों से सुसज्जित नृत्य करते हैं तो यह मनमोहक झांकी देखते ही बनती है।
किसानों को जोहार बंदगी करने के बाद पशुधन के गले में सोहई बांधना एवं दान स्वरुप
धान या रुपिया ठाकुरों के यहां मिलता है। प्राय: प्रत्येक घरों में प्रवेश करते
समय यह दोहा उच्चारित करते हैं-
उठ रहे मालिक नव दस लगगे बासे।
भीतर दुलरवा दूध पिये, धुले रहे
रनवासे।
आंचलिक बोली के महत्व को जानने समझने
वालों के लिए इस दोहे में कितना ममत्व प्यार दुलार छुपा हुआ है। अहीर किसानों के
यहां आया कि सोहई बंधन का कार्य शीघ्र पूर्ण कराने को तत्पर रहता है। पशुधन के
रंगरुप का वर्णन कुछ इस प्रकार किया जाता है-
एक सींग तोर ऐसे तैसे, एक सींग
तो डूंड़ा।
गींजर-गींजर आबे रे, खरिका
डांड़ तोर मुड़ा।।
पशुधन अपने चरवाहे को देखकर रंभाने
लग जाती है। पशु एवं मानव का प्रेम कितना सुरक्षित है। आज मानव-मानव में दुराग्रह
की स्थिति निर्मित हो गई है। गायों के लिए सजे-धजे सोहई और बैलों के लिए गैंठा
सोहई बांधते हैं। मौलिक दोहा बरबस इनके मुंह से निकल पड़ता है-
येसो के बन बरसा धरसा परगे हिले।
गाय के हेंवरे लाली संगे रेंगाले
पिले।
पशुधन की कामना हेतु कहे गए दोहे में
असीम आत्मीयता है इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है तभी तो यादवों को गौ-सेवक
कहा जाता है। गायों के रंग रुप एवं सेहत
का अधिक ख्याल किसानों से ज्यादा यादव लोग करते हैं। गायों को लाली, पिंवरी, धंवरी, कबरी के
नाम से बुलाते हैं। अपने वार्षिक पर्वों का गुणगान इन शब्दों में व्यक्त करते हैं-
बर तरि बांधेव बछरु, साल भर
माढग़े गाई। हंसि-हंसि बांधेव सोहई संगी, पारन राम दोहाई।।
सावन फुले सावन करेलिया, भादो फुले
कुसियार रे। राति पियारी मैहर फुले, गरब टूटे ससुरार रे।
गायों के साथ अपने मालिकों की मंगल
कामनाएं की जाती हैं ठाकुर यहां के धान को गोबर में मिलाकर कोठी में लगाया जाता
है। इसी दिन अहीर पत्नियां सांध्य को महावर और भेंगरा रंग सुंदर हाथा सुख समृद्धि
के प्रतीक दरवाजे एवं कोठी पर बनाते हैं इस परिप्रेक्ष्य का दोहा द्रष्टव्य है-
हरियर चक चंदन हरियर गोबर अबिना।
गाय-गाय कोठा भरे भरदा गय सौकिना।।
जइसे मालिक लिये दिये तइसे देबो
असीस।
रंग महल म बइठो मालिक जियो लाख
बरिस।।
इसके साथ ही यादव दल दूसरे किसानों
के यहां निकल पड़ता है। सोहई पलाश वृक्ष के तना (बांस), मोर के पंख और कौडिय़ों से बनाया
जाता है। बांख पर लाल और हरा रंग लगाकर सोहई बनाया जाता है। सोहई अर्थात् सोहना जो
अच्छा लगे उसे पशुओं में धारण कराना। सोहई का हर पहलू पर पशुधन की मंगल कामनाएं
गुंथी रहती हैं। उक्त अवसर पर किसी एक व्यक्ति विशेष को दोहा बोलना जरुरी नहीं
होगा। दल का कोई भी सदस्य दोहा कह सकता है। सोहई बंधन की क्रिया ग्रामीण परिवेश
में कौतुहल एवं मनोरंजन का दृश्य बन जाता है। डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र के अनुसार
राउतों द्वारा धारण किये जाने वाली कौड़ी लक्ष्मी का प्रतीक है और मोर पंख
मंत्र-तंत्र अभिचार या अन्य विपत्तिरुपी सर्पों के प्रतिकार का प्रतीक है। इस
प्रकार मनुष्य पास संपत्ति आये और विपत्ति से दूर रहे।
इनके मौलिक दोहों में कुछ दोहे जाति
परक भी होते है साथ ही उपदेशपूर्ण भी-
बाघ-बाघ कहे संगी बाघ कहां से आई।
बाघ ढिलागे सइगोना के कच्चा दूध
पिलाई।
चंदा छुवय चंदैनी अउ दियना छुवय
बाती।
गाय छुवय सोहई संगी-भरे देवारी राती।
सूर, कबीर एवं तुलसी के दोहों का भी प्रयोग यह
जाति बखूबी करती है। डॉ. रुद्रदत्त तिवारी के शब्दों में राउत अपनी चरवाहा
संस्कृति को अक्षुण्ण बनाये हुए देश की मुख्य धारा से जुड़ गए हैं-
पूजा करय पुजेरी संगी धोवा चाऊर
चढ़ाई।
पूजा होवत लक्ष्मी के सेत धजा फहराई।
श्रीराम एवं श्रीकृष्ण के चरित्र पर
इन्हें बड़ा गर्व है। नृत्य के समय थिरकते पांव, फड़कती भूजा अपना जाति गौरव समझते हैं। अंत
में विदा देते समय शुभकामनाएं स्वरुप यह दोहा कहते हैं-
दया-मया बने रहय पान सुपारी कोरा।
रंग महल म बैठो किसान राम-राम लव
मोरा।
साभार-
रऊताही 2000